Wednesday, December 14, 2016

इंटरनेशनल का निर्माण

                                            
इंटरनेशनल के जीवन में प्रमुख राजनीतिक घटनाओं तथा मुख्य सांगठनिक पड़ावों के बीच सहकालिकता न होने से इसका इतिहास कालानुक्रम में पुनर्निर्मित करना मुश्किल हो जाता है । सांगठनिक तौर पर प्रमुख पड़ाव थे: 1 इंटरनेशनल का जन्म (1864-66) इसकी स्थापना से पहली कांग्रेस (जेनेवा 1866)तक 2 विस्तार का समय (1866-70) 3 क्रांतिकारी उभार और पेरिस कम्यून (1871-72) के बाद दमन 4 विभाजन और संकट (1872-77) । बहरहाल सैद्धांतिक विकास के लिहाज से प्रमुख पड़ाव थे: 1 इसके विभिन्न घटकों के बीच शुरुआती बहस और इसकी स्थापना (1864-65) 2 समूहवादियों और साझेदारीवादियों के बीच प्रभुत्व का संघर्ष (1866-69) 3 केंद्रवादियों और स्वायत्ततावादियों के बीच टकराव (1870-77) । आगे के पैराग्राफों में सांगठनिक और सैद्धांतिक दोनों पहलुओं को समेटा जाएगा ।
ब्रिटेन में सबसे पहले इंटरनेशनल में शामिल होने का आवेदन हुआ; फ़रवरी 1865 में 4000 सदस्यों वाली ओपरेटिव सोसाइटी आफ़ ब्रिकलेयर्स को संबद्धता मिली, इसके बाद जल्दी ही निर्माण मजदूरों और जूता बनाने वालों के संगठन जुड़े । अपने जीवनकाल के पहले साल में आम परिषद ने इंटरनेशनल के सिद्धांतों का प्रचार करने के लिए गंभीर गतिविधि शुरू की । इससे शुद्ध आर्थिक सवालों के पार अपना क्षितिज विस्तारित करने में इसे मदद मिली । इसे इस तथ्य से समझा जा सकता है कि फ़रवरी 1965 में स्थापित (चुनाव) सुधार लीग से जुड़े संगठनों में यह भी था ।
फ़्रांस में इंटरनेशनल की यात्रा जनवरी 1865 में शुरू हुई जब पेरिस में इसका पहला प्रभाग स्थापित हुआ । ल्योन और सेन में अन्य बड़े केंद्र जल्दी ही प्रकट हुए । लेकिन इसकी ताकत बहुत सीमित रही, फ़्रांस की राजधानी में इसका आधार नहीं बढ़ सका और इस दौरान अनेक अन्य मजदूर संगठन इससे बड़े बन गए । इंटरनेशनल का वैचारिक प्रभाव बेहद कम था और अन्य ताकतों के साथ इसके संबंध तथा इसकी राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के चलते कोई राष्ट्रीय संघ स्थापित करना भी असंभव हो गया । फिर भी इंटरनेशनल के फ़्रांसिसी समर्थक जो अधिकतर प्रूधों के साझेदारी के सिद्धांतों के अनुयायी थे वे संगठन के पहले सम्मेलन में दूसरे सबसे बड़े समूह के रूप में स्थापित हुए । यह सम्मेलन लंदन में 25 से 29 सितंबर के बीच हुआ था और इसमें इंग्लैंड, फ़्रांस, स्विट्ज़रलैंड, और बेल्जियम से 30 प्रतिनिधि शामिल हुए थे, जिनके साथ जर्मनी, पोलैंड और इटली के भी कुछ प्रतिनिधि थे । इनमें से सबने इंटरनेशनल की ओर से खासकर सांगठनिक स्तर पर उठाए गए प्रारम्भिक कदमों के बारे में सूचना दी । इस सम्मेलन ने अगली साल पहली आम कांग्रेस बुलाने का फैसला किया और वहां बहस के लिए प्रस्तावित मुद्दों की सूची बनाई ।
इन दोनों जुटानों के बीच इंटरनेशनल का विस्तार यूरोप में जारी रहा तथा बेल्जियम और फ़्रांसिसी भाषी स्विट्ज़रलैंड में इसका पहला महत्वपूर्ण केंद्रक स्थापित हुआ । संबद्धता संबंधी प्रशियाई कानून दूसरे देशों के संगठनों के साथ जर्मन राजनीतिक संघों के नियमित संपर्क पर प्रतिबंध लगाते थे इसलिए इसका मतलब था कि इंटरनेशनल तत्कालीन जर्मन संघ में कोई संभाग नहीं खोल सकता था । वहां इतिहास की पहली मजदूर पार्टी जेनरल एसोसिएशन आफ़ जर्मन वर्कर्स की स्थापना 1863 में हुई थी और उसके 5000 सदस्य थे । इसके नेता लासाल के शिष्य योहान्न बैप्टिस्ट फ़ान श्वाइट्ज़र (1833-75) ओट्टो फ़ान बिस्मार्क (1815-98) के साथ दुबिधापूर्ण संवाद बनाए हुए थे और उन्होंने इंटरनेशनल के जीवन के शुरुआती सालों में इसमें कोई खास रुचि नहीं ली । ऐसी ही उदासीनता मार्क्स से राजनीतिक निकटता के बावजूद विलहेल्म लीबक्नेख्त (1826-90) ने भी दिखाई । स्विट्ज़रलैंड में इंटरनेशनल के प्रमुख नेताओं में से एक योहान्न फिलिप बेकर (1809-86) ने जेनेवा आधारितग्रुप आफ़ जर्मन स्पीकिंग सेक्शंसके जरिए इन कठिनाइयों के बीच रास्ता निकालने की कोशिश की और लंबे दिनों तक जर्मन संघ में वे ही शुरुआती इंटरनेशनल केंद्रक के संगठक रहे ।
इस अग्रगति को इंटरनेशनल के विचारों के साथ सहानुभूति रखने वाले अखबारों या आम परिषद के सच्चे मुखपत्रों के प्रसार से बहुत समर्थन मिला । इन दोनों से वर्गीय चेतना के विकास में योगदान मिला और इंटरनेशनल की गतिविधि के समाचार तेजी से प्रचारित हुए । इसके जीवन के पहले कुछ सालों में जो अखबार निकले उनमें साप्ताहिक बीहाइव और द माइनर ऐंड वर्कमैनस एडवोकेट (बाद में द वर्कमैनस एडवोकेट और फिर द कामनवेल्थ), दोनों लंदन से प्रकाशित; फ़्रांसिसी साप्ताहिक ल कूरिए इंतरनेशनल, लंदन से ही प्रकाशित; अगस्त 1865 से बेल्जियम में इंटरनेशनल का आधिकारिक पत्र ल त्रिब्यून द्यू पीपुल, स्विट्ज़रलैंड के फ़्रांसिसी भाषी संभाग का मुखपत्र जर्नल द लासोशिएं इंतरनेशनल; पेरिस से प्रकाशित प्रूधोंपंथी साप्ताहिक ल कूरिएं फ़्रांसुआं और जेनेवा में बेकर का डेर फ़ोरबोटे खास थे ।
इंटरनेशनल के और अधिक सुदृढ़ीकरण के लिए लंदन में आम परिषद की गतिविधि निर्णायक थी । 1866 के वसंत में लंदन अमेल्गमेटेड टेलर्स की हड़ताल का समर्थन करके इसने पहली बार मजदूरों के किसी संघर्ष में सक्रिय भूमिका निभाई जिसमें मिली सफलता के चलते दर्जियों की पांच सोसाइटियों ने इंटरनेशनल से जुड़ने का फैसला किया जिनमें प्रत्येक की सदस्य संख्या लगभग 500 थी । कुछ अन्य विवादों के सकारात्मक निपटारे के कारण ढेर सारी छोटी यूनियनें आकर्षित हुईं । नतीजा यह निकला कि इसकी पहली कांग्रेस के समय तक सत्रह यूनियनें इससे संबद्ध हो चुकी थीं जिससे 25000 से अधिक नए सदस्य भर्ती हुए । इंटरनेशनल पहला ऐसा एसोसिएशन बना जो अपनी कतारों में ट्रेड यूनियन संगठनों को शरीक करने का कठिन काम पूरा कर सका ।
जेनेवा शहर में 3 से 8 सितंबर तक इंटरनेशनल की पहली कांग्रेस संपन्न हुई । इसमें ब्रिटेन, फ़्रांस, जर्मनी और स्विट्ज़रलैंड से 60 प्रतिनिधि शरीक हुए थे । इंटरनेशनल के पास स्थापना के बाद दो सालों में गर्व करने लायक उपलब्धियों की फ़ेहरिस्त थी । इसने अपने झंडे तले 100 से अधिक ट्रेड यूनियनों और संगठनों को एकत्र कर लिया था । कांग्रेस में भाग ले रहे लोग मूल तौर पर दो खेमों में बांटे जा सकते थे । पहले खेमे में ब्रिटेन के प्रतिनिधि, कुछ जर्मन और ज्यादातर स्विस थे जो मार्क्स (जो जेनेवा में नहीं थे) द्वारा लिखित आम परिषद के निर्देशों पर अमल करते थे । दूसरा खेमा साझेदारीवादियों का था जिनमें फ़्रांसिसी प्रतिनिधि और कुछ फ़्रांसिसी भाषी स्विस थे । असल में उस समय इंटरनेशनल में रुख बहुत प्रचलित था और पेरिस निवासी हेनरी तोलें (1828-97) के नेतृत्व में साझेदारीवादियों ने ऐसे समाज की कल्पना प्रस्तुत की जिसमें कामगार एक ही साथ उत्पादक, पूंजीपति और उपभोक्ता होगा । सामाजिक रूपांतरण का निर्णायक उपाय वे ब्याज रहित ॠण प्रदान करना मानते थे; स्त्री श्रम को नैतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से आपत्तिजनक समझते थे और काम के रिश्तों में किसी भी सरकारी हस्तक्षेप (काम के 8 घंटे तय करने सहित) का विरोध करते थे । इसका कारण वे यह बताते थे कि ऐसा होने से मजदूरों और मालिकों के बीच के निजी रिश्तों पर खतरा पैदा होगा तथा वर्तमान व्यवस्था मजबूत होगी ।
मार्क्स द्वारा तैयार प्रस्तावों के आधार पर आम परिषद के नेताओं ने कांग्रेस में संख्या के मामले में मजबूत साझेदारीवादियों के खेमे को शिकस्त देने में सफलता हासिल की और राजकीय हस्त्क्षेप के पक्ष में बहुमत हासिल कर लिया । इस मुद्दे पर अस्थायी आम परिषद के प्रतिनिधियों के लिए निर्देश मेंकिशोर और बाल श्रमिक (स्त्री पुरुष दोनों)’ से जुड़े हुए अंश में मार्क्स ने साफ साफ लिखा था:
इसे तभी लागू किया जा सकता है जब सामाजिक विवेक को सामाजिक शक्ति में बदला जाए और वर्तमान स्थितियों में ऐसे आम कानून के सहारे इसे करने के सिवा अन्य कोई तरीका नहीं है जिस कानून को राज्य की शक्ति से मनवाया जाएगा । ऐसे कानूनों को लागू करवाने में मजदूर वर्ग सरकार की ताकत बढ़ा नहीं रहा होगा । इसके विपरीत जो ताकत इस समय उसके विरुद्ध इस्तेमाल होती है, उसे ही अपने अभिकरण के बतौर रूपांतरित करेगा । जिस चीज को वे ढेर सारे बिखरे हुए निजी प्रयासों के जरिए हासिल करने की व्यर्थ चेष्टा करते हैं उसे ही आम कानून के जरिए हासिल कर लेंगे ।
इस प्रकार बुर्जुआ समाज को मजबूत करने की बजाय (जैसा गलती से प्रूधों और उनके अनुयायी यकीन करते थे) ये सुधारात्मक मांगें मजदूर वर्ग की मुक्ति का अपरिहार्य आरम्भिक कदम थीं ।
इससे भी आगे, जेनेवा कांग्रेस के लिए लिखे मार्क्स केनिर्देशट्रेड यूनियनों की बुनियादी भूमिका पर जोर दे रहे थे जिन ट्रेड यूनियनों का विरोध न केवल साझेदारीवादी बल्कि ब्रिटेन में राबर्ट ओवेन (1771-1885) के और जर्मनी में लासाल के कुछ अनुयायी करते थे:
ट्रेड यूनियनों की यह गतिविधि न केवल उचित है, बल्कि जरूरी है । जब तक वर्तमान उत्पादन प्रणाली मौजूद है तब तक इसे छोड़ा नहीं जा सकता । इसके बरक्स सभी देशों में ट्रेड यूनियनों के निर्माण और संश्रय के जरिए इसे आम प्रवृत्ति बना देना होगा । दूसरी ओर अनजाने ही ट्रेड यूनियनें मजदूर वर्ग के लिए संगठन केंद्र उसी तरह स्थापित कर रही थीं जिस तरह मध्ययुगीन म्युनिसपलिटियों तथा कम्यूनों ने पूंजीपति वर्ग के लिए संगठन केंद्र स्थापित किए थे । यदि ट्रेड यूनियनों की पूंजी तथा श्रम के बीच छापामार लड़ाई के लिए जरूरत पड़ती है तो वे संगठित शक्ति के रूप में मजूरी श्रम और पूंजी के शासन की व्यवस्था को समाप्त करने के लिए और भी महत्वपूर्ण हैं ।
इसी दस्तावेज में मार्क्स वर्तमान यूनियनों की आलोचना करने से भी नहीं चूके । क्योंकि वे
पूंजी के विरुद्ध स्थानीय तथा तात्कालिक संघर्षों में ही खास तौर पर व्यस्त रहती हैं और इसलिए मजूरी गुलामी की व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करने की अपनी ताकत को खुद ही अब तक पहचान नहीं सकी हैं । इसलिए उन्होंने अपने को आम सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों से बहुत दूर रखा है ।
ठीक एक साल पहले भी उन्होंने 20 और 27 जून को आम परिषद के समक्ष अपने भाषण में यही बातें कही थीं जो मरणोपरांत मजदूरी, दाम और मुनाफ़ा शीर्षक से छपा:

मजदूर वर्ग को इन रोजमर्रा के संघर्षों के अंतिम नतीजों को बढ़ा चढ़ाकर नहीं आंकना चाहिए । उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे परिणामों से लड़ रहे हैं, न कि उन परिणामों के कारणों से; कि वे पतन की गति को सिर्फ़ रोक रहे हैं, उसकी दिशा नहीं बदल रहे हैं; कि वे दर्द निवारक का इस्तेमाल कर रहे हैं, रोग का नाश नहीं कर रहे हैं । इसलिए उन्हें पूंजी के निरंतर आक्रमणों या बाजार के परिवर्तनों के कारण लगातार पैदा होने वाले अपरिहार्य गुरिल्ला संघर्षों में फंसकर नहीं रह जाना चाहिए । उन्हें समझना चाहिए कि मौजूदा व्यवस्था मजदूरों पर ढाई जाने वाली तमाम मुसीबतों को पैदा करने के साथ ही समाज के आर्थिक पुनर्निर्माण के लिए आवश्यक भौतिक परिस्थितियों और सामाजिक रूपों को भी उत्पन्न करती है । इसलिए मजदूरों को अपने झंडे पर ‘वाजिब काम की वाजिब मजदूरी’ जैसे रूढ़ नारे की जगह यह क्रांतिकारी नारा लिख लेना चाहिए ‘मजूरी व्यवस्था का नाश हो’ ।”

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