Monday, December 26, 2016

इंटरनेशनल का संकट


1872 की गर्मियों के अंत में आखिरी लड़ाई हुई । पिछले तीन सालों में भयंकर घटनाएं घटित हुई थीं- फ़्रांको-प्रशियाई युद्ध, पेरिस कम्यून के बाद दमन की लहर और ढेर सारी आंतरिक कलहें । इन सबके बाद आखिरकार इंटरनेशनल की कांग्रेस हुई । जिन देशों में इसने हाल में जड़ पकड़ी थी वहां इसका विस्तार इंटरनेशनल के नारों से अचानक उत्साहित यूनियन नेताओं और मजदूर कार्यकर्ताओं की जोरदार कोशिशों से हो रहा था । 1872 में संगठन की इटली, डेनमार्क, पुर्तगाल और नीदरलैंड में सर्वाधिक तीव्र वृद्धि हुई । ऐसा ठीक उसी समय हुआ जब फ़्रांस, जर्मनी और आस्ट्रो-हंगारी साम्राज्य में इस पर प्रतिबंध लगा हुआ था । फिर भी ज्यादातर सदस्यों को इसके नेतृत्वकारी समूह में चलने वाले टकरावों की गंभीरता की जानकारी नहीं थी ।
इंटरनेशनल की पांचवीं कांग्रेस हेग में 2 से 7 सितंबर के बीच संपन्न हुई । इसमें कुल 14 देशों से 65 प्रतिनिधियों ने भाग लिया । इनमें 18 फ़्रांसिसी थे (जनरल कौंसिल में लिए गए 4 ब्लांकीपंथियों समेत), 15 जर्मन, 7 बेल्जियन, 5 ब्रिटिश, 5 स्पेनी, 4 स्विस, 4 डच, 2 आस्ट्रियाई और डेनमार्क, आयरलैंड, हंगरी, पोलैंड और आस्ट्रेलिया (विक्टोरिया प्रभाग से डब्ल्यू ई हरकोर्ट[अज्ञात]) से एक एक । फ़्रांसिसी पाल लफ़ार्ग को लिस्बन फ़ेडरेशन ने (और मैड्रिड फ़ेडरेशन ने भी) नामित किया था । इंटरनेशनल की इतालवी शाखा अपने सात प्रतिनिधियों को भेज नहीं सकी लेकिन इसके बावजूद यह इंटरनेशनल के इतिहास की सर्वाधिक प्रातिनिधिक जुटान थी ।
कांग्रेस के महत्व के कारण मार्क्स को इसमें एंगेल्स के साथ भाग लेना पड़ा । असल में तो यह संगठन की एकमात्र कांग्रेस थी जिसमें मार्क्स ने भाग लिया । इसमें न तो डि पाएपे (शायद जानते थे कि साल भर पहले की लंदन जैसी मध्यस्थता वे नहीं निभा पाएंगे) आ सके और न ही बाकुनिन पहुंच सके । लेकिन जनरल कौंसिल के फैसलों के विरोधीस्वायत्ततावादीसमूह पूरी ताकत के साथ मौजूद था । इसमें बेल्जियम, स्पेन और नीदरलैंड के सारे प्रतिनिधि थे, स्विट्ज़रलैंड के आधे और ब्रिटेन, फ़्रांस और संयुक्त राज्य से कुछ कुछ । उनकी कुल संख्या 25 थी ।
नियति की विंडबना कहिए कि कांग्रेस कनकोर्डिया हाल में शुरू हुई लेकिन कांग्रेस में कनकोर्ड यानी सामंजस्य का लेशमात्र भी नहीं था । सभी सत्रों में दोनों खेमों के बीच शत्रुता चरम पर थी जिसके चलते बहसों का स्तर पिछली कांग्रेसों के मुकाबले बेहद घटिया था । यह शत्रुता क्रिडेन्शियल की पुष्टि के सवाल पर तीन दिनों की व्यर्थ तकरार से और कटु हो गई । प्रतिनिधियों का प्रतिनिधित्व सचमुच पूरी तरह से विषम था । उसमें संगठन के आंतरिक शक्ति संतुलन का सही प्रतिबिंबन नहीं हो रहा था । उदाहरण के लिए जर्मनी में इंटरनेशनल का उस तरह से कोई प्रभाग नहीं था जबकि फ़्रांस में उन्हें भूमिगत होना पड़ा था और उनका जनादेश काफी विवादास्पद था । अन्य प्रतिनिधियों को जनरल कौंसिल की सदस्यता के नाते प्रतिनिधित्व मिला था और वे किसी खास प्रभाग की इच्छा के प्रतिनिधि नहीं थे ।
हेग कांग्रेस के प्रस्तावों का अनुमोदन इसीलिए हो सका क्योंकि कांग्रेस की संरचना में विकार था । वे अप्रामाणिक थे और उद्देश्य की उपयोगिता ही उन्हें एक साथ बांधे हुए थी इसलिए कांग्रेस में जो प्रतिनिधि अल्पसंख्यक थे असल में वे ही इंटरनेशनल की सबसे विशाल बहुसंख्या के प्रतिनिधि थे ।
हेग कांग्रेस में सबसे महत्वपूर्ण फैसला यह हुआ कि 1871 के लंदन सम्मेलन के नवें प्रस्ताव को इंटरनेशनल की नियमावली की नई धारा 7 अ के रूप में शामिल कर लिया गया । 1864 की अस्थायी नियमावली में कहा गया था किइसलिए मजदूर वर्ग की आर्थिक मुक्ति ही वह महान लक्ष्य है जिसे हासिल करने के साधन के बतौर प्रत्येक राजनीतिक आंदोलन इसकी मातहती में चलेगा। जो नई बात जोड़ी गई उसमें संगठन के भीतर का नया शक्ति संतुलन प्रतिबिम्बित हो रहा था । समाज के रूपांतरण के लिए अब राजनीतिक संघर्ष आवश्यक था क्योंकिजमीन के मालिक और पूंजी के मालिक अपनी आर्थिक इजारेदारी की रक्षा और उसकी निरंतरता के लिए और मजदूरों को गुलाम बनाए रखने के लिए हमेशा अपने राजनीतिक विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करेंगे इसलिए राजनीतिक सत्ता को जीतना मजदूर वर्ग का महान कर्तव्य बन गया है
अबका इंटरनेशनल अपनी स्थापना के समय से पूरी तरह से भिन्न था । अधिकाधिक हाशिये पर जाने के बाद मूलगामी-लोकतांत्रिक घटक अब बाहर हो चुके थे, साझेदारीवादी पराजित किए जा चुके थे और उनमें से अनेक ने विचार बदल लिए थे, संगठन में सुधारवादियों की बहुतायत नहीं रह गई थी (ब्रिटेन को छोड़कर) और पूंजीवाद विरोध समूचे इंटरनेशनल की तथा अराजकतावादी-समूहवादी जैसी हाल में निर्मित प्रवृत्तियों की राजनीतिक दिशा बन चुका था । इससे भी आगे की बात यह थी कि इंटरनेशनल की मौजूदगी के कुछेक सालों में थोड़ी बहुत आर्थिक समृद्धि नजर आई थी जिसके कारण हालात कुछ कम जोखिम भरे रहे लेकिन इसके बावजूद मजदूरों ने समझ लिया कि ऐसे दर्द निवारकों के जरिए नहीं बल्कि असली बदलाव केवल मनुष्य के शोषण के अंत से आएगा । अब उनके संघर्ष अधिकाधिक उनकी भौतिक जरूरतों के आधार पर हो रहे थे, न कि जिनसे वे जुड़े थे उन खास समूहों की पहल के आधार पर ।
बड़ी तस्वीर भी पूरी तरह से भिन्न हो गई थी । 1871 में जर्मनी के एकीकरण ने ऐसे युग के आगमन की पुष्टि कर दी जिसमें राजनीतिक, कानूनी और भूभागीय पहचान का केंद्रीय रूप राष्ट्र-राज्य बन गया । इसने ऐसे राष्ट्रोपरि निकाय पर सवाल खड़ा कर दिया जिसकी आमदनी अलग अलग देशों से एकत्र सदस्यता राशि थी तथा जो उन देशों के सदस्यों के नेताओं के बड़े हिस्से पर निर्भर था । इसके साथ ही राष्ट्रीय आंदोलनों और संगठनों के बीच बढ़ते अंतर्विरोधों ने जनरल कौंसिल के लिए सबकी मांगों को संतुष्ट करने लायक राजनीतिक संश्लेषण तैयार करना अत्यंत कठिन बना दिया । सही बात यह है कि शुरुआत से ही इंटरनेशनल ऐसे ट्रेड यूनियनों राजनीतिक संगठनों का जमाजोड़ था जिनमें आपसी संगति आसान नहीं था और कि इनके जरिए ठीक ठीक संगठनों के मुकाबले भावनाओं और राजनीतिक प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व होता था । बहरहाल 1872 के आते आते इंटरनेशनल के विभिन्न घटक और आम तौर पर मजदूरों के संघर्ष स्पष्ट रूप से परिभाषित और सुगठित हो चले थे । ब्रिटिश ट्रेड यूनियनों के कानूनी हो जाने से वे आधिकारिक रूप से राष्ट्रीय राजनीतिक जीवन का अंग हो गए । इंटरनेशनल का बेल्जियम फ़ेडरेशन बहुशाखाई संगठन था जिसमें केंद्रीय नेतृत्व सिद्धांत के क्षेत्र में स्वायत्त और महत्वपूर्ण योगदान करने में सक्षम था । जर्मनी में मजदूरों की दो पार्टियां थीं, सोशल डेमोक्रेटिक वर्कर्स पार्टी आफ़ जर्मनी और जनरल एसोसिएशन आफ़ जर्मन वर्कर्स, और दोनों के ही संसद सदस्य थे । फ़्रांसिसी मजदूर ल्यों से पेरिस तकस्वर्ग पर धावामारने की कोशिशें कर चुके थे । स्पेनी फ़ेडरेशन इतना विस्तार कर चुका था कि जन संगठन बन जाने की कगार पर था । अन्य देशों में भी ऐसे ही बदलाव हो रहे थे ।
इस प्रकार इंटरनेशनल का शुरुआती ढांचा इसके मूल लक्ष्य के पूरा होने के साथ पुराना पड़ चुका था । अब हड़तालों के लिए यूरोप व्यापी समर्थन जुटाने की तैयारी नहीं करनी थी । ट्रेड यूनियनों की या जमीन और उत्पादन के साधनों के समाजीकरण की उपयोगिता के बारे में कांग्रेस आयोजित करने की जरूरत नहीं रह गई थी । ये काम अब समूचे संगठन की सामूहिक धरोहर का अंग बन चुके थे । पेरिस कम्यून के बाद अब मजदूर आंदोलन के सामने सचमुच क्रांतिकारी चुनौती दरपेश थी: पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के खात्मे और पूंजीवादी दुनिया की संस्थाओं को उखाड़ फेंकने के लिए किस तरह का संगठन चाहिए ? अब सवाल यह नहीं रह गया था कि वर्तमान समाज को कैसे सुधारा जाए बल्कि सवाल यह था कि नया समाज कैसे बनाया जाए । वर्ग संघर्ष की इस नई मंजिल में मार्क्स को प्रत्येक देश में मजदूर वर्ग की राजनीतिक पार्टियों का निर्माण अपरिहार्य महसूस हुआ । इस मामले में फ़रवरी 1871 में एंगेल्स द्वारा लिखित दस्तावेजटु द फ़ेडरल कौंसिल आफ़ द स्पैनिश रीजन आफ़ द इंटरनेशनल वर्किंग मेनस एसोसिएशनसर्वाधिक स्पष्ट कथन है:
अनुभव से सर्वत्र यह दिखाई पड़ा है कि पुरानी पार्टियों के इस प्रभुत्व से सर्वहारा को मुक्त करने का सर्वोत्तम तरीका प्रत्येक देश में ऐसी सर्वहारा पार्टी का निर्माण करना है जिसकी अपनी स्वतंत्र नीति हो, ऐसी नीति जो पुरानी पार्टियों से साफ तौर पर अलग हो क्योंकि इसमें मजदूर वर्ग की मुक्ति के लिए जरूरी शर्तों की अभिव्यक्ति होगी । इस नीति में प्रत्येक देश की विशेष परिस्थितियों के अनुरूप मुद्दों की भिन्नता हो सकती है लेकिन चूंकि पूंजी और श्रम के बीच बुनियादी रिश्ते सर्वत्र समान हैं और शोषित वर्गों के ऊपर संपत्तिशाली वर्गों का राजनीतिक प्रभुत्व सभी देशों का वर्तमान सच है इसलिए सर्वहारा नीति के सिद्धांत और लक्ष्य कम से कम सभी पश्चिमी देशों में समान होंगे ।----राजनीतिक क्षेत्र में अपने दुश्मनों के साथ लड़ना छोड़ देने का मतलब होगा खासकर संगठन और प्रचार के मामले में सबसे ताकतवर हथियार से हाथ धो बैठना ।
इसलिए इसके बाद से सर्वहारा के संघर्ष के लिए पार्टी आवश्यक मानी जाने लगी । इसे सभी मौजूदा राजनीतिक ताकतों से स्वतंत्र होना होगा और इसके कार्यक्रम तथा संगठन का निर्माण राष्ट्रीय संदर्भ के अनुसार होगा । 23 जुलाई 1872 को संपन्न जनरल कौंसिल के अधिवेशन में मार्क्स ने न केवल अनुपस्थितिवादियों (जो लंदन सम्मेलन के नवें प्रस्ताव पर हमला करते थे) की आलोचना की, बल्किइंग्लैंड और अमेरिका के मजदूर वर्गके उतने ही खतरनाक प्रस्ताव की आलोचना कीजो पूंजीपतियों द्वारा राजनीतिक मकसद के लिए अपना इस्तेमाल होने देतेहैं । दूसरे सवाल पर उन्होंने लंदन सम्मेलन में ही घोषित किया था किराजनीति को सभी देशों की स्थितियों के अनुरूप समायोजित करना होगा। अगले साल हेग कांग्रेस के तुरंत बाद एम्सटर्डम के एक भाषण में उन्होंने जोर दिया:
मजदूर को किसी न किसी दिन राजनीतिक सत्ता हासिल करनी होगी ताकि ताकि वह श्रम को नए ढर्रे पर संगठित कर सके । यदि मजदूर वर्ग राजनीति की उपेक्षा और उससे नफरत करने वाले पुराने इसाइयों की तरह पृथ्वी पर अपने राज से वंचित नहीं रहना चाहता तो उसे पुरानी संस्थाओं को टिकाए रखने वाली पुरानी राजनीति पुरानी राजनीति को उखाड़ फेंकना होगा । लेकिन हमने यह दावा नहीं किया कि इस लक्ष्य को हासिल करने का तरीका सर्वत्र एक समान होगा ।---हम इस बात से इनकार नहीं करते कि ऐसे देश हैं----जहां मजदूर अपना लक्ष्य शांतिपूर्ण साधनों से हासिल कर सकते हैं । यदि यह सच है तो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि महाद्वीप के अधिकांश देशों में बल ही हमारी क्रांति का उत्तोलक होगा । मजदूर का राज स्थापित करने के लिए हमें किसी न किसी दिन बल का ही सहारा लेना पड़ेगा ।
इस प्रकार हालांकि भिन्न भिन्न देशों में मजदूरों की पार्टियां अलग अलग रूपों में सामने आईं फिर भी वे राष्ट्रीय हितों के अधीन नहीं थीं । समाजवाद के लिए संघर्ष को इस तरीके से सीमित नहीं होना चाहिए और खासकर नए संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीयता को सर्वहारा का निर्देशक सिद्धांत बने रहना होगा । इसे राज्य और पूंजीवादी व्यवस्था के जानलेवा संक्रमण के विरुद्ध निरोधक दवा का भी काम करना होगा ।
हेग कांग्रेस के दौरान तीखी बहसों के पहले कई बार वोट पड़े । धारा 7 अ के अंगीकरण के बाद नियमावली में राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने का लक्ष्य शामिल किया गया और इसके लिए आवश्यक उपकरण के बतौर मजदूरों की पार्टी का संकेत भी दिया गया । इसके बाद जनरल कौंसिल को व्यापक अधिकार सौंपने का फैसला 32 वोटों के समर्थन, 6 के विरोध और 12 की अनुपस्थिति से हुआ । इसके कारण अल्पसंख्या के स्थिति और भी असहनीय हो गई क्योंकि अब जनरल कौंसिल का कामइंटरनेशनल के सिद्धांत, नियमावली और सामान्य नियमों का कड़ाई से पालनकी गारंटी करना था तथा उसेआगामी कांग्रेस तक के लिए इंटरनेशनल की शाखाओं, प्रभागों, कौंसिलों या फ़ेडरल कमेटियों और फ़ेडरेशनों को स्थगित रखने का अधिकार प्राप्तथा ।
इंटरनेशनल के इतिहास में पहली बार इसकी सर्वोच्च कांग्रेस ने न्यूयार्क प्रभाग 12 नामक संगठन को निष्कासित करने के जनरल कौंसिल के फैसले को अनुमोदित किया (47 वोटों का समर्थन और 9 अनुपस्थित) । इसका कारण थाइंटरनेशनल वर्किंग मेनस एसोसिएशन वर्ग उन्मूलन के सिद्धांत पर आधारित है और किसी किसी पूंजीवादी तबके को शामिल नहीं कर सकती। बाकुनिन (समर्थन 25, विरोध 6, अनुपस्थित 7) तथा गिलौमे (समर्थन 25, विरोध 9, अनुपस्थित 8) के निष्कासनों पर भी काफी हल्ला हुआ । इसकी अनुशंसा एक जांच आयोग ने की थी जिसने एलायंस फ़ार सोशलिस्ट डेमोक्रेसी कोइंटरनेशनल की नियमावली के पूरे विरोधी नियमों से संचालित गुप्त संगठनबताया था । बहरहाल जूरा फ़ेडरेशन के संस्थापकों में से एक और उसके सबसे सक्रिय सदस्य अधेमार स्विट्ज़बुएबेल (1844-92) के निष्कासन का प्रस्ताव खारिज कर दिया गया (समर्थन 15, विरोध 17 और 7 अनुपस्थित) । अंत में कांग्रेस ने द एलायंस फ़ार सोशलिस्ट डेमोक्रेसी ऐंड द इंटरनेशनल वर्किंग मेनस एसोसिएशन नामक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित करने के लिए अधिकृत किया जिसमें बाकुनिन के नेतृत्व वाले इस संगठन के इतिहास को खंगालते हुए एक एक देश में उसकी सार्वजनिक और गुप्त गतिविधियों का विश्लेषण किया गया था । एंगेल्स, लाफ़ार्ग और मार्क्स द्वारा लिखित इस दस्तावेज को जुलाई 1873 में फ़्रांसिसी भाषा में प्रकाशित किया गया ।
कांग्रेस में इन हमलों का जवाब देने में विपक्ष एकताबद्ध नहीं था । कुछ विरोध में वोट दे रहे थे तो कुछ अनुपस्थित रह जा रहे थे । बहरहाल आखिरी दिन हेग प्रभाग की ओर से विक्टर डेव (1845-1922) ने संयुक्त घोषणा जारी की जिसमें कहा गया था:
1 हम स्वायत्तता और मजदूर समूहों के फ़ेडरेशन के समर्थक जनरल कौंसिल के साथ अपना प्रशासनिक संबंध जारी रखेंगे ।
2 जिन फ़ेडरेशनों का हम प्रतिनिधित्व करते हैं वे आपस में और इंटरनेशनल की सभी नियमित शाखाओं के साथ प्रत्यक्ष और स्थायी संबंध स्थापित करेंगे ।
3 हम सभी फ़ेडरेशनों और प्रभागों का आवाहन करते हैं कि वे अबसे आगामी कांग्रेस तक इंटरनेशनल के भीतर श्रमिक संगठन के आधार के बतौर संघीय स्वायत्तता के सिद्धांतों के विजय की तैयारी करें ।
यह वक्तव्य महज एक कार्यनीतिक चाल थी जिसका मकसद उस समय तक अनिवार्य हो चुके विभाजन की जिम्मेदारी से पीछा छुड़ाना था, न कि संगठन को फिर से शुरू करने गंभीर राजनीतिक पहल लेना । इस मामले में यह कोशिश ‘केंद्रवादियों’ द्वारा जनरल कौंसिल के अधिकार बढ़ाने के प्रस्तावों की तरह थी तब जबकि वे खुद वैकल्पिक मंच खड़ा करने की योजना बना चुके थे ।
6 सितंबर के सुबह के सत्र में इस कांग्रेस की सबसे बड़ी नाटकीय घटना घटी । यह उस इंटरनेशनल का आखिरी काम था जिस रूप में इसे बरसों पहले सोचा और खड़ा किया गया था । एंगेल्स बोलने के लिए खड़े हुए और उपस्थित लोगों को आश्चर्य में डालते हुए उन्होंने प्रस्तावित किया कि ‘जनरल कौंसिल का मुख्यालय 1872-73 के लिए न्यूयार्क स्थानांतरित कर दिया जाए और इसका निर्माण अमेरिकन फ़ेडरल कौंसिल के सदस्य करेंगे ।’ इस तरह मार्क्स और इंटरनेशनल के अन्य ‘संस्थापक’ अबसे इसके केंद्रीय निकाय के अंग नहीं रहेंगे जिसका निर्माण करने वालों के नाम तक ज्ञात नहीं थे (एंगेल्स ने 7 का प्रस्ताव किया और कहा कि इसे 15 तक विस्तारित किया जा सकता है) । मार्क्स के समर्थक जनरल कौंसिल के सदस्य प्रतिनिधि माल्टमैन बैरी (1842-1909) ने किसी और से बेहतर तरीके से सभाभवन की प्रतिक्रिया का वर्णन किया है:
“विक्षुब्धों के चेहरे पर विस्मय और घबराहट फैल गई जब (एंगेल्स ने) अंतिम शब्द बोले ।---कुछ देर बाद ही कोई बोलने के लिए खड़ा हो सका । यह तख्तापलट की कार्यवाही थी और प्रत्येक व्यक्ति बगल वाले का मुंह ताक रहा था ।”
एंगेल्स ने तर्क दिया कि ‘लंदन में आपसी टकराव इस हद तक पहुंच गए हैं कि (जनरल कौंसिल को) अन्यत्र स्थानांतरित करना होगा’ और कि दमन की घड़ी में न्यूयार्क सबसे अच्छी जगह होगी । लेकिन ब्लांकीपंथी इस कदम का घोर विरोध कर रहे थे । उनका कहना था किसबसे पहले इंटरनेशनल को सर्वहारा का स्थायी विद्रोही संगठन होना चाहिएऔर किजब कोई पार्टी संघर्ष के लिए एकताबद्ध होती है---इसकी कार्यवाही और जोरदार होती है, इसकी नेतृत्वकारी कमेटी और सक्रिय, हथियारबंद तथा मजबूत होती है ।हेग कांग्रेस में मौजूद वाइलैन्त और ब्लांकी के अन्य अनुयायियों ने अपने को ठगा महसूस किया जब उन्होंने देखा किसिरतोअटलांटिक के दूसरे तट की ओर ले जाया जा रहा है (जबकि) शरीर अब भी (यूरोप में) लड़ रहा है ।उनकी मान्यता थी किइंटरनेशनल ने आर्थिक संघर्षों में अग्रणी भूमिका निभाई थीइसलिए उसेराजनीतिक संघर्ष में भी वही भूमिका निभानी चाहिएऔरमजदूरों की अंतर्राष्ट्रीय क्रांतिकारी पार्टीमें रूपांतरित हो जाना चाहिए । जनरल कौंसिल पर नियंत्रण करना असंभव समझकर वे कांग्रेस से और कुछ दिनों बाद इंटरनेशनल से बाहर चले गए ।
बहुसंख्यक कतारों में से भी अनेक ने यह मानकर इसके विरोध में वोट दिया कि न्यूयार्क के लिए स्थानांतरण कारगर संगठन के बतौर इंटरनेशनल का अंत है । इस फैसले का अनुमोदन सिर्फ़ तीन वोट से हुआ (समर्थन 26, विरोध 23) । ऐसा तभी हो सका जब 9 लोगों ने किसी पक्ष में वोट नहीं दिया और अल्पसंख्या के कुछ सदस्य खुश थे कि जनरल कौंसिल उनकी गतिविधि के केंद्र से दूर जा रही है ।
इस कदम के पीछे निश्चय ही मार्क्स का यह मत था कि विरोधियों के हाथों में संकीर्णतावादी संगठन के रूप में इसके इस्तेमाल होने से बेहतर है कि इसे दूर छोड़ आया जाय । न्यूयार्क भेजने से इंटरनेशनल का अंत निश्चित था और लंबे समय तक चलने वाले व्यर्थ के कलहपूर्ण संघर्षों से यह कहीं बेहतर था ।
फिर भी जैसा बहुत लोगों ने कहा है उस तरह यह कहना सही नहीं लगता कि इंटरनेशनल के पतन का मुख्य कारण इसकी दो धाराओं के बीच का, या फिर दो व्यक्तियों- मार्क्स और बाकुनिन के बीच का टकराव था भले ही उनका कद कितना भी बड़ा रहा हो । इसकी जगह यह अधिक सही लगता है कि इंटरनेशनल के आसपास की दुनिया में हो रहे बदलावों ने उसे पुराना बना दिया । मजदूर आंदोलन के संगठनों की वृद्धि और उनका रूपांतरण, इटली और जर्मनी के एकीकरण के फलस्वरूप राष्ट्र-राज्य की मजबूती, इटली और स्पेन जैसे देशों में (जहां के समाजार्थिक हालात ब्रिटेन या फ़्रांस से बहुत अलग थे) इंटरनेशनल का विस्तार, ब्रिटिश ट्रेड यूनियन आंदोलन में और भी नरमपंथ की ओर झुकाव, पेरिस कम्यून के बाद दमन- इन सब कारकों ने मिलकर इंटरनेशनल की मूल संरचना को नए समय के लिए अनुपयोगी बना दिया ।
इस पृष्ठभूमि में इंटरनेशनल के भीतर की केंद्रापसारी प्रवृत्तियों, उसके और उसके प्रमुख नेताओं के जीवन में आए बदलावों ने भी स्वाभाविक तौर पर एक भूमिका निभाई । उदाहरण के लिए मार्क्स ने लंदन सम्मेलन को इंटरनेशनल को बचाने वाली घटना समझा लेकिन वह ऐसी साबित नहीं हुई । बल्कि इसके कठोर रुख ने आंतरिक संकट को बहुत बढ़ा दिया क्योंकि यह मौजूदा मानसिकता को नही समझ सकी या बाकुनिन और उसके समूह के सुदृढ़ीकरण से बचने के लिए आवश्यक पूर्वानुमान लगाने में नाकामयाब रही । उसमें मार्क्स की विजय नाशकारी सिद्ध हुई । इसके जरिए आंतरिक टकरावों को सुलझना था लेकिन वे और भी उलझ गए । बहरहाल मामला तो यह है कि लंदन में लिए गए फैसलों ने उस प्रक्रिया को गति दे दी जो पहले ही शुरू हो चुकी थी और जिसकी वापसी असंभव थी ।
इस प्रमुख नायक के बारे में इन तमाम ऐतिहासिक और सांगठनिक बातों के अतिरिक्त और भी बातें हैं जो कम महत्वपूर्ण नहीं हैं । मार्क्स ने 1871 के लंदन सम्मेलन के एक सत्र में प्रतिनिधियों को चेताया थाकौंसिल का काम बहुत बढ़ गया है क्योंकि उसे आम सवालों के साथ राष्ट्रीय सवालों से भी निबटना पड़ता है ।अब यह 1864 का इंग्लैंड और फ़्रांस के सहारे चलने वाला छोटा संगठन नहीं रह गया था । अब इसकी मौजूदगी यूरोप के सभी देशों में थी जिन सबकी खास समस्याएं और विशेषताएं थीं । न केवल सब जगह संगठन आंतरिक टकरावों से अस्त व्यस्त था बल्कि लंदन में नई नई चिंताओं और रंग बिरंगे विचारों का बोझ लेकर आने वाले प्रवासी कम्युनार्डों के आगमन ने जनरल कौंसिल के लिए राजनीतिक संश्लेषण का अपना काम पूरा करना और भी मुश्किल कर दिया था ।
इंटरनेशनल के लिए 8 साल तक दिन रात काम करने के चलते मार्क्स बुरी तरह से थक गए थे । वे जानते थे कि पेरिस कम्यून की हार के बाद मजदूरों की ताकत टूट चली है । इस समय यह तथ्य उनके लिए सबसे महत्व का था । इसलिए उन्होंने तय किया कि बाकी बचे हुए साल वे कैपिटल को पूरा करने में लगाएंगे । जब उन्होंने नीदरलैंड जाने के लिए उत्तरी समुद्र को पार किया होगा तो उन्हें लगा होगा कि प्रत्यक्ष नायक के तौर पर आगामी युद्ध उनकी आखिरी बड़ी लड़ाई होना चाहिए ।

1864 की सेंट मार्टिनस हाल की पहली बैठक में वे खामोश प्रेक्षक रहे थे । वहां से लेकर अब यह आलम था कि इंटरनेशनल के नेता के बतौर उनकी मान्यता न केवल कांग्रेस के प्रतिनिधियों और जनरल कौंसिल में थी बल्कि व्यापक जनता भी उन्हें इंटरनेशनल का नेता मानती थी । इस तरह हालांकि मार्क्स ने इंटरनेशनल के लिए बहुत कुछ किया लेकिन उसने भी मार्क्स की जिंदगी को बदल दिया । इसकी स्थापना से पहले वे राजनीतिक कार्यकर्ताओं के छोटे समूहों में ही जाने जाते थे । इसके बाद और सबसे अधिक पेरिस कम्यून के बाद और साथ ही 1867 में अपने महाग्रंथ के प्रकाशन के बाद उनकी प्रसिद्धि अनेक यूरोपीय देशों के क्रांतिकारियों में फैल गई- इस हद तक कि अखबार उन्हेंलाल आतंक का डाक्टरकहने लगे । इंटरनेशनल में अपनी भूमिका के चलते आयद जिम्मेदारी ने उन्हें अनेकानेक आर्थिक और राजनीतिक संघर्षों को नजदीक से अनुभव करने का मौका दिया । इससे उन्हें कम्यूनिज्म के बारे में और भी सोचने की प्रेरणा मिली तथा उन्होंने पूंजीवाद विरोधी अपने समग्र सिद्धांत को इस अनुभव से गहराई के साथ समृद्ध किया ।

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