Thursday, December 21, 2017

पूंजीवाद का संक्षिप्त इतिहास

                  
                                         
2017 में बाडली हेड से यनाइस वरफ़काइस की किताब ‘टाकिंग टु माइ डाटर एबाउट द इकोनामी: ए ब्रीफ़ हिस्ट्री आफ़ कैपिटलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । ग्रीक से इसका अंग्रेजी अनुवाद जेकब मो ने लेखक यनाइस के साथ मिलकर किया है । ग्रीक में 2013 में इसका प्रकाशन हुआ था । लिखने का कारण यह था कि अर्थशास्त्र जैसी महत्वपूर्ण चीज को वे सिर्फ अर्थशास्त्रियों के हाथ में छोड़ना उचित नहीं समझते थे । इस विषय का अध्यापन करते हुए उन्हें लगता था कि नौजवानों को आसानी से समझ में आने लायक भाषा में इसे बताना जरूरी है । उन्हें महसूस हुआ कि अर्थशास्त्र के माडल जितना ही वैज्ञानिक होते गए हैं उतना ही अर्थशास्त्र वास्तविक अर्थतंत्र से दूर होता गया है । किताब अर्थशास्त्र को लोकप्रिय बनाने के मुकाबले इस मकसद से लिखी गई है कि आम लोग अर्थतंत्र को अपने कब्जे में ले लें । अर्थतंत्र को समझने के लिए यह भी जानना जरूरी है कि इसके विशेषज्ञ आम तौर पर गलत बातें बोलते हैं । बेहतर समाज और प्रामाणिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए सबका अर्थतंत्र के बारे में आधिकारिक रूप से बोलना और जानना बहुत जरूरी है । अर्थतंत्र के उतार चढ़ाव से हमारे जीवन में चाहे अनचाहे ढेर सारी चीजें तय होती हैं, उसकी ताकत ने लोकतंत्र को मजाक बनाकर रख दिया है, उसकी सेहत से हमारी आशा आकांक्षा का रूप तय होता है । यह किताब बिना किसी संदर्भ, पाद टिप्पणी या अकादमिक तामझाम के लिखी गई है । केवल नौ दिनों में इसे लेखक ने एक झोंक में लिख डाला । इसके छपने के बाद ग्रीस के हालात ने उन्हें देश का वित्त मंत्री बना दिया । देश की जनता की ओर से उन्हें लगातार पूंजी के अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों से जूझना पड़ा । उनका कहना है कि आज की तमाम समस्याओं पर बात करते हुए अधिकतर सबसे प्रमुख सचाई यानी पूंजीवाद की चर्चा नहीं की जाती । लेखक ने मूल रूप से पूंजीवाद की ही बात की है लेकिन उसका सीधा उल्लेख किए बिना उसकी जगह पर ‘बाजार समाज’ जैसे सुबोध पद का इस्तेमाल किया है । किताब की शुरुआत ही मजेदार तरीके से होती है जब विषमता को समझाने के लिए वे कहते हैं कि सभी बच्चे नंगे पैदा होते हैं लेकिन उसके तुरंत बाद कुछ को महंगे कपड़ों में ढक दिया जाता है जबकि अधिकतर बच्चों को चीथड़े लपेटे रहना पड़ता है । कुछ समय बीतने के बाद कुछ उपहार में कपड़ों की जगह फोन की उम्मीद करने लगते हैं जबकि ज्यादातर जूते पहनकर स्कूल जाने को तरसते रहते हैं । कुछ बच्चों को स्कूल में हिंसा और अभाव का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं करना पड़ता । यनाइस की लड़की सिडनी में शिक्षा प्राप्त कर रही थी जिसके साथ कल्पित बातचीत के रूप में किताब लिखी गई है । यनाइस उसे सोचने के लिए उकसाते हैं कि आस्ट्रेलिया में इंग्लैंड से आकर गोरे लोगों ने स्थानीय निवासियों का कत्ल करके कब्जा किया । इसके उलट यह भी तो हो सकता था कि आस्ट्रेलिया के आदिवासी लंदन पर कब्जा कर लेते । उनका कहना है कि अगर इस सवाल के बारे में ठीक से नहीं विचार करेंगे तो यही मानेंगे कि या तो यूरोपीय लोग अधिक बुद्धिमान और सक्षम थे या आस्ट्रेलिया के आदिवासी भले थे । यहां आकर विषमता का सवाल बुद्धिमत्ता और क्षमता से जुड़ जाता है ।
यनाइस का कहना है कि बहुतेरे लोग बाजार और अर्थतंत्र को एक ही चीज समझ लेते हैं लेकिन ऐसा नहीं है । विनिमय के लिए बाजार पहले से था, अर्थतंत्र बाद में आया । उसकी विकास प्रक्रिया को मनुष्य के विकास से जोड़कर देखने की कोशिश उन्होंने की है । उनके अनुसार भाषा और भोजन ऐसी दो चीजें हैं जिनके चलते मनुष्य अपनी प्राकृतिक अवस्था से बाहर आया । भाषा से पहले भी मनुष्य के कंठ में ध्वनि थी लेकिन भाषा उसका सर्वथा नया उपयोग थी । इसी तरह प्रकृति से प्राप्त सामग्री को आग के उपयोग से सुपाच्य बनाना भोजन के क्षेत्र में बहुत बड़ा बदलाव था । इन बदलावों ने मनुष्य को अन्य प्राणियों से अलग रास्ते पर डाल दिया । जनसंख्या की बढ़ोत्तरी ने प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं के अतिरिक्त भोजन का कोई और रास्ता खोजने की जरूरत पैदा की । इसी क्रम में खेती होनी शुरू हुई । खेती से ही अधिशेष का जन्म हुआ क्योंकि इसकी उपज को बचाकर रखा जा सकता था । इससे पैदा हुए बदलावों में उनके अनुसार लेखन, कर्ज, धन (मुद्रा), राज्य (सरकार), नौकरशाही, सेना, पुरोहित, तकनीक और आदिम किस्म के जैव-रासायनिक युद्ध को शामिल किया जा सकता है ।
इसी क्रम में बाजार समाज का उदय हुआ । इसे बाजार युक्त समाज से वे अलगाते हैं । उनके अनुसार बाजार शुरू से रहा है लेकिन बाजार समाज का उदय कृषि आधारित समाज के विनाश के बाद ही हुआ । कृषि आधारित समाज के खात्मे की कहानी को विस्तार से समझाने के बाद उन्होंने इस पहलू पर भी रोशनी डाली है कि यह प्रक्रिया पहले इंग्लैंड में ही क्यों पूरी हुई । बाजार समाज के संचालन में मुख्य भूमिका कर्ज की होती है । इसके लिए कर्ज वैसे ही है जैसे ईसाइयत के लिए नर्क: बहुत ही दुखद लेकिन अपरिहार्य । शुरू में कर्ज पर ब्याज की मनाही इस्लाम की तरह ही ईसाइयत में भी थी लेकिन बाजार समाज की जरूरत के चलते खुद ईसाइयत ही विभाजित हो गई और नया प्रोटेस्टेन्ट चर्च विकसित हो गया । बचत के मुकाबले खर्च करना ही पूंजीवाद को टिका सकता है । खर्च करने के लिए कर्ज लेना पड़ता है । कर्ज लौटाने की नैतिकता के बारे में ढेर सारी कहानियों तो मौजूद हैं ही इनके ही साथ ब्याज की वापसी को भी जोड़ दिया गया । कर्ज लेने देने की इस प्रक्रिया में बैंक नामक संस्था का उदय हुआ ।
जब कर्ज पर ब्याज लेने में निहित शर्म समाप्त हो गई तो कर्ज देने वाले बैंक ब्याज के जरिए अकूत मुनाफ़ा लूटने लगे । इनके पास धन की अदला बदली के मामले में अपार ताकत आ गई । उन्होंने इस ताकत का इस्तेमाल करके इस अदला बदली की व्यवस्था को अचानक ठप करना शुरू कर दिया । कर्ज का गणित यह है कि भविष्य में होने वाली आमदनी से कर्ज की वापसी की आशा होती है । भविष्य के विनिमय मूल्य के आधार पर वर्तमान में कर्ज लिया जाता है । थोड़ा बहुत उधार तो परिवारीजन, दोस्त मित्र और सहयोगियों से जुटाया जा सकता है लेकिन बड़ा कर्ज देने के लिए बैंक होते हैं । पहले बैंक लोगों से उनकी बचत जमा करवाते थे और जरूरतमंद को कर्ज देते थे । जमा करने वाले को ब्याज कम देते और कर्ज पर बेशी ब्याज वसूलते थे । इस तरह उन्हें मुनाफ़ा मिलता था । अब वे कर्ज की रकम देने के लिए अपनी बचत का ध्यान नहीं रखते । अपने पास रकम हुए बिना भी कागज पर कर्ज दे देते हैं । जिसे वे कर्ज देते हैं भविष्य में उसके व्यवसाय की सफलता की आशा होती है । भविष्य की उस सफलता के एवज में वे कर्ज लेने वाले से ब्याज और तमाम अन्य खर्च वसूलते हैं । चूंकि बैंकों को इस कर्ज से मुनाफ़ा मिलता है इसलिए वे कर्ज पर कर्ज दिए चले जाते हैं । बैंक पहले चुकाने वाले की क्षमता आंककर कर्ज दिया करते थे लेकिन 1920 दशक से इस तरह की सावधानी समाप्त हो गई । औद्योगिक क्रांति के बाद आबार समाजों का अर्थतंत्र विशाल हो गया और उनके लिए कर्ज के ईंधन की जरूरत भी बढ़ती गई । दूसरी ओर बैंकों ने गड़बड़ी की हालत में उसके परिणामों से अपने आपको सुरक्षित रखने का तरीका खोज निकाला । इसके लिए उन्होंने बचत से अधिक ब्याज पर इन कर्जों के शेयर बेच दिए । यह ब्याज कर्ज पर मिलने वाले ब्याज से कम ही होता था इसलिए बैंक का मुनाफ़ा कायम रहता था । कर्ज लेने वाले के दिवालिया होने पर बैंक की जगह शेयर धारक नुकसान उठाते थे । लेकिन एक समय बाद ये कर्ज ऐसी अवस्था में पहुंच गए कि कर्जदार को होने वाला कोई भी मुनाफ़ा बैंक के कर्ज की वापसी में मददगार न रह गया । जिस भविष्य की आशा में ये कर्ज दिए गए थे वह भविष्य कर्ज के बोझ के नीचे चरमराने लगा । व्यवसाय बंद हुए, रोजगार छिने और कर्ज के लौटने की सम्भावना जाती रही । बैंक के डूबने की अफवाह के चलते लोग अपनी बचत का पैसा निकलने लगे । बैंक के पास पैसा तो था ही नहीं वह तो कर्ज के बतौर बाहर था । लोगों की बचत की रकम पर बैंक ने डाका डाला । असल में जिस प्रक्रिया से मुनाफ़ा और संपदा का जन्म होता है उसी प्रक्रिया से संकट भी पैदा होता है । बैंक जब संकट में फंसते हैं तो उसी सरकार से बचाने की गुहार लगाते हैं जिसे अन्यथा वे सभी जरूरी कामों से निकाल बाहर करना चाहते हैं । सरकार भी सीधे उनकी मदद करने की जगह केंद्रीय बैंक की मार्फत उसी तरह भविष्य में सफलता की आशा में बिना धन रहे भी कर्ज दे देती है ।

इसी क्रम में वे मशीन के सवाल पर भी विचार करते हैं । मशीन की अंतर्विरोधी भूमिका की पहचान करते हुए वे बताते हैं कि मशीन से उत्पादन तो बढ़ता है लेकिन उसे खरीदने वाले कम हो जाते हैं क्योंकि मशीन किसी व्यक्ति को विस्थापित करती है । व्यक्ति के पास धन नहीं आएगा तो मशीन की सहायता से बढ़ा हुआ उत्पादन खरीदेगा कौन । मशीन के सवाल पर वे लुड के समर्थकों को भी याद करते हैं और कहते हैं कि वे मशीन के उपयोग के विरोध में नहीं थे बल्कि मशीन पर मुट्ठी भर लोगों के कब्जे का विरोध कर रहे थे ।बिटक्वाइन जैसी मुद्रा को वे मुद्रा पर राज्य के एकाधिकार का विरोध मानते हैं । उन्होंने बताया है कि 2007 के वित्तीय संकट के तुरंत बाद इसका आगमन अनायास नहीं हुआ । इस संबंध में उनकी मान्यता है कि मुद्रा का आविष्कार ही विनिमय के मुकाबले कर्ज को दर्ज करने के लिए हुआ था इसलिए उसके साथ राज्य का जुड़ाव अवश्यंभावी है । वे सवाल उठाते हैं कि यदि बिटक्वाइन की चोरी हो जाए तो इसे कौन देखेगा । इससे साबित होता है कि मुद्रा के साथ ही राज्य सहित तमाम संस्थाओं का उद्भव संयोग नहीं है । अपनी बात की पुष्टि के लिए वे एकदम शुरुआती मुद्रा के बतौर प्रयुक्त कौड़ियों का हवाला देते हैं जिन पर सार्वजनिक भंडार में जमा व्यक्ति के अनाज की मात्रा दर्ज हुआ करती थी । लेकिन उस मात्रा में अनाज की वापसी राज्य ही सुनिश्चित करता था ।   
पारंपरिक शब्दावली की जगह नई शब्दावली का इस्तेमाल उन्होंनेउपयोग मूल्यके लिए भी किया है । इसके लिए वे अंग्रेजी मेंएक्सपीरिएन्शियलपद का प्रयोग करते हैं यानी जिसका अनुभव मात्र किया जा सके या हिंदी में उसे हमआनुभविक मूल्यकह सकते हैं । इसके साथ ही वे यह भी बताते हैं कि मजदूर की श्रमशक्ति को केवल उसके विनिमय मूल्य के लिए खरीदा जाता है जबकि अन्य चीजों का विनिमय मूल्य उनके आनुभविक मूल्य पर आधारित होता है । पर्यावरण के सवाल पर लेखक का कहना है कि बाजार समाज इसके लिए कभी काम नहीं करेगा क्योंकि पर्यावरण में कोई विनिमय मूल्य नहीं होता और बाजार समाज के लिए मूल्यवान वही है जिसमें विनियम मूल्य है । इस समाज के समर्थकों का कहना है कि चूंकि पर्यावरण सबका है इसलिए किसी का नहीं है । जब वह किसी का नहीं है तो उसकी चिंता कोई क्यों करे । इसका हल उसके पास यह है कि जो सामुदायिक है उसका निजीकरण कर दिया जाए । जब वह किसी की निजी संपत्ति हो जाएगा तो स्वाभाविक रूप से वह व्यक्ति उसे सुरक्षित रखने का प्रयत्न करेगा । यनाइस निजीकरण के इस वैचारिक अभियान के विकल्प के रूप में सब कुछ के लोकतंत्रीकरण का नारा देते हैं । अंत में वे घोषित करते हैं कि अर्थशास्त्र बाजार समाज को कायम रखने का औजार है और व्यर्थ ही वैज्ञानिकता का दावा करता है । जिस परिघटना का यह अध्ययन करता है उसमें कुछ भी ऐसा नहीं होता जो प्रयोगशाला के सुरक्षित वातावरण में सम्भव है । इस विषय में अपने प्रवेश को वे विशेषज्ञों के एकाधिकार को तोड़ने की कार्रवाई बताते हैं । अर्थशास्त्र के साथ ही मीडिया को भी वे बाजार समाज के निर्णायक संरक्षकों में मानते हैं । इन दोनों को वे उस विचारधारा का अंग मानते हैं जो बाजार समाज को अजेय बताती है ।

Saturday, December 2, 2017

धनवान और निर्धन

                 
                                 
2011 में बेसिक बुक्स से ब्रांको मिलानोविक की किताबद हैव्स ऐंड द हैव-नाट्स: ए ब्रीफ़ ऐंड इडियोसिंक्रेटिक हिस्ट्री आफ़ ग्लोबल इनइक्वलिटीका प्रकाशन हुआ । लेखक के अनुसार किताब में इतिहास और वर्तमान में आय और संपत्ति संबंधी विषमता का विवेचन किया गया है ।
उनका कहना है कि सत्ता और संपत्ति का भेद सभी मानव समाजों में पाया जाता है । विषमता सामाजिक परिघटना है और यह सापेक्षिक होती है । इसका अस्तित्व मनुष्यों के ऐसे समूह में होता है जिनके बीच सरकार, भाषा, धर्म या स्मृतियों की साझेदारी हो । किताब में मनोरंजक तरीके से बताया गया है कि हमारे दैनंदिन जीवन के कई क्षेत्रों में आय और संपत्ति संबंधी विषमता मौजूद है । अपने सुपरिचित प्रसंगों को भी दूसरे कोण से देखने पर विषमता नजर आ सकती है । मकसद यह दिखाना है कि अमीरी और गरीबी हमारे जीवन में मौजूद रहे हैं ।
किताब में तीन तरह की विषमताओं को उजागर किया गया है । एक तो वह जो किसी एक ही समुदाय के विभिन्न व्यक्तियों के बीच होती है । इसे हम बहुत आसानी से पहचान सकते हैं क्योंकि यह शब्द सुनते ही सबसे पहले हमारे दिमाग में इसी किस्म की विषमता का ध्यान आता है । दूसरी वह जो  विभिन्न देशों के बीच मौजूद होती है । जब भी हम किसी अन्य देश की यात्रा पर जाते हैं या अंतर्राष्ट्रीय समाचार देखते हैं तो इस प्रकार की विषमता नजर आती है । कुछ देशों में अधिकांश लोग गरीब नजर आते हैं जबकि कुछ अन्य देशों में अधिकतर लोग अमीर नजर आते हैं । देशों के बीच की यह विषमता प्रवास में भी झलकती है जिसके तहत गरीब देशों के कामगार संपन्न देशों में बेशी कमाई के लिए जाते हैं । तीसरा प्रकार वैश्विक विषमता का है जो ऊपर बताई गई दोनों प्रकार की विषमता का जमाजोड़ है । यह चीज वैश्वीकरण के बाद उभरी है क्योंकि उसके बाद ही हम अपनी हालत की तुलना दूसरे देश के लोगों के साथ करने के आदी हुए हैं । जैसे जैसे वैश्वीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी इस तरह की विषमता का प्रसार होगा ।     
इन विषमताओं को स्पष्ट करने के लिए किस्सों का सहारा लिया गया है । तीनों खंडों के शुरू में संबंधित विषमता के बारे में अर्थशास्त्रियों के लेख दिए गए हैं । किस्सों के मुकाबले लेख थोड़ा अधिक ध्यान की मांग करते हैं । किताब के अंत में आगे के अध्ययन के लिए एक पुस्तक सूची भी दी गई है । लेखक पिछले पचीस सालों से विषमता का अध्ययन कर रहे थे जिसके चलते उनके पास आंकड़ों, सूचनाओं और किस्सों का भंडार जमा हो गया था इसलिए लिखते समय विशेष असुविधा नहीं हुई । साफ है कि किताब के लेखन में लेखक को संख्याओं और इतिहास से अपने लगाव से भारी मदद मिली । इसके जरिए जो लक्ष्य वे पाना चाहते थे वे थे- रोचक तरीके से किस्से पढ़ते हुए पाठक का कुछ नए तथ्यों से परिचय कराना, संपत्ति और आमदनी के मामले में विषमता के दबा दिए गए मुद्दे को चर्चा में ले आना और पुराने किस्म की सामाजिक सक्रियता को प्रेरित करने के लिए खासकर संकट के समय अमीरी गरीबी के सवाल को बहस के केंद्र में स्थापित करना । वे चाहते हैं कि लोग अश्लील किस्म की अमीरी के औचित्य पर सवाल खड़ा करें । वे यह भी चाहते हैं कि देशों के भीतर और देशों के बीच मौजूद भारी विषमता को भी स्वीकार न कर लिया जाए ।

ये ऐसे सवाल हैं जिनकी उपेक्षा आसानी से जनमत के तमाम निर्माता कर बैठते हैं । उनका तर्क होता है कि सभी विषमताओं का जन्म बाजार से होता है और इस पर बहस करने से कोई लाभ नहीं है । लेकिन लेखक का कहना है इनका जन्म बाजार से न होकर राजनीतिक शक्ति की सापेक्षिकता से होता है और बाजार का नाम लेकर इन पर बात करने से बचना मुश्किल है । बाजार आधारित अर्थतंत्र भी समाज की रचना है और इसका निर्माण जनता की सुविधा के लिए हुआ है । इसलिए किसी भी लोकतांत्रिक समाज में जनता के पास इसके संचालन के बारे में सवाल करने का अधिकार होगा । अंत में लेखक ने कहा है कि उनके तमाम निष्कर्ष विश्व बैंक के सर्वेक्षणों पर आधारित गणना से हासिल है ।