अब इंटरनेशनल को दुबारा कभी पहले की तरह का
नहीं होना था । 1864 में पैदा हुए इस महान संगठन ने 8 सालों तक हड़तालों और
संघर्षों का सफलतापूर्वक समर्थन किया, पूंजीवाद विरोधी कार्यक्रम अपनाया और सारे
यूरोपीय देशों में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई और वही हेग कांग्रेस में आखिरकार बिखर
गया । बहरहाल मार्क्स के कदम पीछे खींचने के बावजूद कहानी खत्म नहीं हुई । काफी
सिकुड़े हुए आकार में और पुरानी राजनीतिक आकांक्षाओं तथा योजना बनाने और लागू करने
की क्षमता से हीन दो समूहों का उदय हुआ । उनमें एक था पिछली कांग्रेस से उपजा
‘केंद्रीयतावादी’ बहुसंख्यक समूह जो जनरल कौंसिल के राजनीतिक नेतृत्व में संगठन का
समर्थक था । दूसरा था ‘स्वायत्ततावादी’ या ‘संघीयतावादी’ अल्पसंख्यक समूह जो
प्रभागों के लिए निर्णय लेने के मामले में पूर्ण स्वायत्तता का हामी था ।
1872 में इंटरनेशनल की ताकत अभी क्षीण नहीं
हुई थी । अतीतकाल से ही असमान विकास इसकी विशेषता रही थी । वही विशेषता फिर से
दिखाई पड़ी जब कुछ देशों (मसलन ब्रिटेन) में इसकी गिरावट की भरपाई कुछ अन्य देशों
(सबसे अधिक स्पेन और इटली) में इसके विस्तार ने कर दी । हेग के नाटकीय नतीजे ने संगठन
को विभाजित कर दिया जिसके चलते खासकर ‘केंद्रवादी’
खेमे के अनेक कार्यकर्ताओं को महसूस हुआ कि मजदूर आंदोलन का एक महत्वपूर्ण
अध्याय बंद हो चला । नार्थ अमेरिकन फ़ेडरेशन के साथ यूरोप की बहुत कम ताकतों ने ही न्यूयार्क
स्थित नई जनरल कौंसिल का साथ दिया । ये थे- स्विट्ज़रलैंड में
रोमान्डे फ़ेडरेशन और कुछ जर्मन भाषी प्रभाग जो दोनों ही बेकर के अथक पहल पर आधारित
थे, जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक वर्कर्स पार्टी ने बेहिचक लेकिन मुश्किल
से दृश्य समर्थन दिया, नए खुले आस्ट्रियाई प्रभाग जिन्होंने अदृश्य
जर्मनों के विपरीत अपने सदस्यों के चंदे से कुछ धन एकत्र करके भेजा तथा डेनमार्क और
पुर्तगाल के दूरस्थ प्रभाग । बहरहाल स्पेन, इटली और नीदरलैंड्स
में बहुत कम ने नए निर्देशों का पालन किया । आयरलैंड में अभी संगठन जड़ नहीं पकड़ सका
था । 1873 के आते आते फ़्रांस में इंटरनेशनल का कोई प्रभाग नहीं
बचा । ब्रिटेन भी था लेकिन वहां हेग कांग्रेस के बहुत पहले से निजी झगड़े चल रहे थे
और उनके कारण नवंबर 1872 में ब्रिटिश फ़ेडरल कौंसिल आपस में झगड़ने
वाले दो समूहों में बंट गई जिनमें से प्रत्येक समूह देश में इंटरनेशनल का प्रतिनिधि
होने का दावा करता था । 16 प्रभागों के नाम पर काम करने वाले
हेल्स को हर्मान युंग (1830-1901) और थामस मोटरहेड
(1825-84) जैसे इं टरनेशनल के नेताओं का समर्थन प्राप्त था, उन्होंने न्यूयार्क स्थित जनरल कौंसिल को अस्वीकार कर दिया और ब्रिटिश फ़ेडरेशन
की ओर से जनवरी 1873 में नई कांग्रेस आयोजित किया । हेल्स और
इकारियस दोनों ने कुछ अद्भुत कलाबाजियां दिखाईं । हालांकि उनकी निष्ठा सुधारवाद में
थी और चुनाव लड़ने के पक्ष में वे बोलते थे तथा उनकी सोच इंटरनेशनल को ट्रेड यूनियन
समर्थन वाली ऐसी राजनीतिक पार्टी में बदलने की थी जो पूंजीपतियों के उदारवादी खेमे
के साथ मोर्चा बनाए लेकिन वे आधिकारिक रूप से गिलौमे और बाकुनिन के अनुयायी अनुपस्थितिवादियों
के साथ खड़ा हुए । इन घटनाओं के उत्तर में एंगेल्स ने दो सर्कुलर जारी किए जिनमें हेग
में लिए गए फैसलों को मान्यता दी गई थी । इन पर मानचेस्टर तथा ‘आधिकारिक’ ब्रिटिश फ़ेडरल कौंसिल के महत्वपूर्ण नेताओं
के और जनरल कौंसिल के मशहूर पूर्व सदस्य द्यूपों तथा फ़्रेडरिक लेसनर
(1825-1910) के दस्तखत थे । कौंसिल की कांग्रेस जून में संपन्न हुई लेकिन
उसमें भाग लेने वालों को इस कड़वी सच्चाई का सामना करना पड़ा कि जनरल कौंसिल के न्यूयार्क
चले जाने के बाद (जिसे हर कोई संगठन के अंत के बतौर समझ रहा था)
ब्रिटिश ट्रेड यूनियनों को अब कोई रुचि नहीं रह गई थी । इस तरह दोनों
ही खेमों के साथ समान घटना हुई और वह यह कि उनका तेजी से पतन हुआ ।
‘केंद्रवादियों’ की कांग्रेस उसी जेनेवा नगर में हुई जिसमें इंटरनेशनल की पहली कांग्रेस संपन्न
हुई थी । बेकर की कोशिशों के चलते इसमें 30 प्रतिनिधियों ने भाग
लिया जिनमें (पहली बार) दो महिलाएं भी शामिल
हुईं । लेकिन इनमें से 15 तो जेनेवा से ही थे । अन्य देशों के
प्रभागों के प्रतिनिधि जर्मनी, बेल्जियम और आस्ट्रिया-हंगरी से एक एक प्रतिनिधि ही थे । यूरोप में गोलबंदी में घटोत्तरी देखकर जनरल
कौंसिल ने न्यूयार्क से प्रतिनिधि न भेजने का फैसला किया और ब्रिटिश फ़ेडरेशन द्वारा
नियुक्त प्रतिनिधि सेराइलेर जेनेवा तक यात्रा न कर सके । असल में तो केंद्रवादी इंटरनेशनल
का यही अंत था ।
अटलांटिक के उस पार सोर्ज मशाल जलाए रखने के लिए
कड़ी कोशिश कर रहे थे लेकिन वहां नार्थ अमेरिकन फ़ेडरेशन खत्म होने की कगार पर थी । सदस्यता
के घटकर 1000 से कम रह जाने के चलते आर्थिक स्थिति
खराब थी (उनमें से कुछ ही बकाया चुकाते थे) । इसके चलते चिट्ठियों के लिए टिकट खरीदना भी मुश्किल होता जा रहा था । अब
यह केवल अमेरिका से जुड़े मसलों तक सीमित रह गई थी । अमेरिकी मजदूर या तो इसके प्रति
उदासीन रहते या शत्रुभाव रखते । नवंबर 1873 में इसने जो मेनिफ़ेस्टो
टु द वर्किंग पीपुल आफ़ नार्थ अमेरिका जारी किया था उसके प्रति भी यही रुख रहा । सोर्ज
ने महासचिव के पद से इस्तीफ़ा दे दिया और उसके बाद से ढाई सालों का इसका इतिहास एक तरह
से पूर्वघोषित मृत्यु की ही दास्तान है । आखिरकार 15 जुलाई
1876 को अंत आ ही गया जब 365 सदस्यों का प्रतिनिधित्व
करने वाले दस प्रतिनिधियों की बैठक हुई और इसके तुरंत बाद वे सेंटेनियल एक्जिबिशन नामक
पहले अमेरिकी वर्ल्ड फ़ेयर के साथ आयोजित वर्किंगमेन’स पार्टी
आफ़ द यूनाइटेड स्टेट्स की स्थापना कांग्रेस में भाग लेने चल दिए ।
हालांकि ‘केंद्रीयतावादी’
संगठन एकाध देशों में महज कुछ दिनों तक चला और सिद्धांत के क्षेत्र में
वे आगे कोई योगदान न कर सके लेकिन दूसरी ओर स्वायत्ततावादी आगामी कुछ वर्षों तक वास्तविक
और सक्रिय अस्तित्व बनाए रखने में कामयाब रहे । स्विस, इतालवी,
स्पेनी और फ़्रांसिसी लोगों की भागीदारी वाली सेंट-आइमर कांग्रेस में यह माना गया कि ‘किसी को यह अधिकार
नहीं कि वह स्वायत्त फ़ेडरेशनों और प्रभागों को जिसे वे सर्वोत्तम समझें, उस राजनीतिक दिशा और आचरण को खुद के लिए निर्धारित करने और लागू करने के निर्विवाद
अधिकार से उन्हें वंचित करे’ । इंटरनेशनल के भीतर संघीय स्वायतता
का यही विकल्प ‘दोस्ती, एकजुटता और आपसी
रक्षा का गठबंधन’ मुहैया कराता है । ये विचार गिलौमे के थे ।
बाकुनिन ने इसे थोड़ा और सैद्धांतिक जामा पहनाया होता लेकिन उसके विपरीत इस युवा किंतु
समझदार स्विस कार्यकर्ता की नजर जूरा, स्पेन और इटली के परे समर्थन
बढ़ाने और लंदन की लाइन के विरोधी सभी फ़ेडरेशनों को अपने पक्ष में कर लेने पर टिकी थी
। उसकी कार्यनीति काम आई । नए इंटरनेशनल के जन्म की तैयारी बड़ी बड़ी घोषणाओं के जरिए
बात थोपे बिना सावधानी से करनी थी ।
अगले कुछ महीनों में जुड़ने के प्रस्ताव आने शुरू
हुए । स्वायत्ततावादियों का गढ़ स्पेन बना रहा जहां प्राक्सेडेस मातेओ सगास्ता
(1825-1903) द्वारा संचालित दमन संगठन को फलने फूलने से नहीं रोक सका
। दिसंबर 1872 और जनवरी 1873 के बीच संपन्न
इसकी कोर्डोबा संघीय कांग्रेस तक इसमें 50 फ़ेडरेशन शामिल हो चुके
थे जिनके 300 से अधिक प्रभाग और 25000 से
अधिक कुल सदस्य थे (बार्सिलोना में 7500) । 1872 के उत्तरार्ध के बाद नए देशों में भी स्वायत्ततावादियों
का समर्थन बढ़ा । दिसंबर में बेल्जियन फ़ेडरेशन की ब्रसेल्स कांग्रेस ने हेग कांग्रेस
के प्रस्तावों को शून्य घोषित कर दिया, न्यूयार्क स्थित जनरल
कौंसिल को मान्यता नहीं दी और सेंट-आइमर समझौते पर दस्तखत कर
दिए । जनवरी 1873 में हेल्स और इकारियस के नेतृत्व में ब्रिटेन
के विद्रोहियों ने भी यही राह पकड़ी और अगले महीने डच फ़ेडरेशन भी उनके साथ मिल गई ।
स्वायत्ततावादियों के संपर्क फ़्रांस,
आस्ट्रिया और संयुक्त राज्य में भी थे और वे नए इंटरनेशनल में बहुमत
में आ गए फिर भी असलियत में यह मोर्चा नानाविध सिद्धांतों का जखीरा बना रहा ।
इसमें शामिल थे- गिलौमे और श्वाइट्ज़गेबेल (बाकुनिन सार्वजनिक जीवन से 1873 में अलग
हो गए और 1876 में उनका देहांत हो गया) के नेतृत्व में स्विस अराजक-सामूहिकतावादी,
डि पाएपे के नेतृत्व में बेल्जियन फ़ेडरेशन जिसके लिए जनता का राज्य (फ़ोक्सस्टाट)
को सभी सार्वजनिक सेवाओं के प्रबंधन सहित अधिक शक्ति और क्षमता मुख्य बात थी,
अतिक्रांतिकारी इतालवी जिन्होंने निश्चित असफलता वाली आम विद्रोह की दृष्टि अपनाई
(‘कर्म का प्रचार’) और चुनावों में भागीदारी तथा प्रगतिशील पूंजीवादी ताकतों के
साथ एकता के हामी ब्रिटिश यूनियन नेता । 1874 में जनरल एसोसिएशन आफ़ जर्मन वर्कर्स
के लासालपंथियों से भी संपर्क स्थापित किया गया ।
ऊपर वर्णित परिदृश्य बताता है कि हेग कांग्रेस
में विभाजन के लिए जिम्मेदार प्रधान मतभेद न तो राज्य के साथ समझौता करने के लिए
तैयार समूह और क्रांति के लिए अधिक इच्छुक सैद्धांतिक पक्ष के बीच था न ही
राजनीतिक कार्यवाही के समर्थकों और इसके विरोधियों के बीच था । इसकी बजाए जनरल
कौंसिल के प्रति मूलगामी और व्यापक विरोध का मुख्य कारण 1871 के लंदन सम्मेलन में
हड़बड़ी में लिए गए फैसले थे । जूरा और स्पेनी फ़ेडरेशनों तथा नवगठित इतालवी फ़ेडरेशन ने
मजदूर वर्गीय राजनीतिक पार्टी बनाने के मार्क्स के आवाहन का कभी समर्थन नहीं किया होता
। सबसे बड़ी बात कि उन देशों की समाजार्थिक स्थितियों में यह अकल्पनीय था । बहरहाल थोड़ा
लचीला रुख अपनाने से बेल्जियन लोगों का समर्थन बरकरार रहता जो इंटरनेशनल और डच फ़ेडरेशन
जैसे नवगठित फ़ेडरेशनों के बीच अनेक वर्षों तक संतुलन बनाए रखने में मुख्य भूमिका निभा
रहे थे । आंतरिक टकराव थोड़ा कम तीखे होते तो ब्रिटेन में विभाजन को रोका जा सकता था
जिसका संबंध नीतियों पर असहमति के मुकाबले व्यक्तित्वों की टकराहट से अधिक था । आखिरी
बात, जैसा कुछ
स्वायत्ततावादियों ने भांप लिया था कि जनरल कौंसिल को न्यूयार्क स्थानांतरित करने के
फैसले ने 1872 के बाद उन्हें अधिक राजनीतिक अवसर दिया और उनकी
दावेदारी बढ़ाने में मदद की । बहरहाल मार्क्स की नजर में ‘प्रथम’
इंटरनेशनल ने अपना ऐतिहासिक कार्यभार पूरा कर लिया था इसलिए उसके समाहार
का समय आ गया था ।
स्वायत्ततावादियों की
‘पहली’ या उनके कथनानुसार ‘छठवीं’ (इंटरनेशनल की पांच की निरंतरता में) कांग्रेस जेनेवा में 1873 में 1 से 6 सितंबर तक हुई । इसमें बेल्जियम, स्पेन, फ़्रांस, इटली, ब्रिटेन, नीदरलैंड और स्विट्ज़रलैंड से 32 प्रतिनिधियों ने भाग लिया । यह कांग्रेस केंद्रवादियों की कांग्रेस से एक सप्ताह
पहले हुई और इसने घोषित किया कि ‘इंटरनेशनल में ने युग की शुरुआत’
हुई है । सर्वसम्मति से इसनें जनरल कौंसिल को भंग करने का फैसला किया
और इंटरनेशनल के इतिहास में पहली बार किसी कांग्रेस में अराजक समाज के सवाल पर बहस
हुई । सामाजिक क्रांति की प्राप्ति के हथियार के बतौर आम हड़ताल के विचार को समाहित
करके इंटरनेशनल के वैचारिक-राजनीतिक शस्त्रागार को समृद्ध किया
गया । इस प्रकार अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद के नाम से मशहूर होने वाली प्रवृत्ति की
आधारशिला रख दी गई ।
अगली कांग्रेस ब्रसेल्स में
1874 में 7 से 13 सितंबर
तक हुई । इसमें सोलह प्रतिनिधि थे- ब्रिटेन से एक (इकारियस), स्पेन से एक और शेष सभी बेल्जियम से थे । इन
चौदह में से दो को फ़्रांसिसी (पेरिस) या
इतालवी (पालेर्मो) प्रभाग का जनादेश प्राप्त
था तथा अन्य दो बेल्जियम में रह रहे लासालपंथी जर्मन प्रवासी थे । गिलौमे ने बताया
कि इनमें से एक कार्ल फ़्राह्मे दरअसल जनरल एसोसिएशन आफ़ जर्मन वर्कर्स के प्रतिनिधि
थे । समाजवाद के नक्शे पर अराजकतावादी और लासालपंथी विपरीत ध्रुव पर अवस्थित थे इस
तथ्य के बावजूद गिलौमे ने उनकी उपस्थिति को प्रोत्साहित किया और इसके लिए
1873 की जेनेवा कांग्रेस द्वारा अनुमोदित नए नियमों का हवाला दिया जिनके
तहत प्रत्येक देश के मजदूरों को यह आजादी थी कि अपनी मुक्ति हासिल करने का सर्वोत्तम
साधन का वे निर्णय करें । कुल मिलाकर यह इंटरनेशनल अधिकांशत: ऐसी जगह बन गई जहां अत्यंत कमतर (अल्पतम प्रतिनिधित्व
वाले) नेता मिलते थे और मजदूरों की भौतिक स्थितियों और उन्हें
बदलने के लिए आवश्यक कार्यवाहियों के बारे में अमूर्त बहसें चलाते थे ।
1874 में बहस अराजकतावाद और जनता का राज्य (फ़ोक्सस्टाट)
के बीच थी और इंटरनेशनल की किसी कांग्रेस में 3 साल बाद भाग लेने वाला डि पाएपे इसमें प्रधान नेता था । अपने एक भाषण में उसने
कहा कि ‘स्पेन में, इटली के कुछ हिस्सों
में और जूरा में हम अराजकता के समर्थन में हैं (लेकिन)
जर्मनी में, निदरलैंड्स में, ब्रिटेन में और अमेरिका में मजदूर राज्य चाहते हैं (बेल्जियम
में दोनों के बीच झूल रहे हैं)’ । एक बार फिर कोई सामूहिक फैसला
नहीं हो सका और कांग्रेस सर्वसम्मति से सहमत हुई कि ‘प्रत्येक
देश में किसी भी फ़ेडरेशन और समाजवादी लोकतांत्रिक पार्टी को यह तय करना है कि कौन सी
राजनीतिक दिशा का वह अनुसरण करना चाहती है’ ।
आठवीं कांग्रेस 1876 में 26
से 30 अक्टूबर के बीच बेर्नी में हुई और उसने भी
इसी लाइन का अनुसरण किया । इसमें 28 प्रतिनिधि थे जिनमें
19 स्विस (जूरा फ़ेडरेशन से 17), 4 इतालवी, स्पेन और फ़्रांस से दो दो तथा बेल्जियम और नीदरलैंड्स
से अकेले डि पाएपे । कार्यवाही से डि पाएपे और गिलौमे के रुख में आपसी विरोधिता का
पता चलता है लेकिन अंत में बेल्जियन फ़ेडरेशन के एक प्रस्ताव पर उनमें सहमति बन गई ।
प्रस्ताव था कि अगले साल विश्व समाजवादी कांग्रेस आयोजित की जाए जिसका आमंत्रण
‘यूरोप की समाजवादी पार्टियों के समस्त गुटों’ को भेजा जाए ।
बहरहाल इस आयोजन से पहले ही इंटरनेशनल की अंतिम
कांग्रेस 1877 में 6 से
8 सितंबर के बीच वेरविएर्स में संपन्न हुई । इसमें 22 प्रतिनिधि जमा हुए- 13 बेल्जियम से, स्पेन, इटली, फ़्रांस और जर्मनी
से दो दो तथा जूरा फ़ेडरेशन के प्रतिनिधि गिलौमे । इनके अतिरिक्त समाजवादी समूहों
से तीन पर्यवेक्षक भी थे जिनका काम केवल सलाह देना था । इन्हीं में से एक पीटर क्रोपाटकिन
(1842-1921) भी थे जो बाद में अराजकतावादी कम्यूनिज्म के संथापक बने । कांग्रेस में
सक्रिय भागीदारी अराजकतावादियों की ही दिखाई पड़ी । इनमें अंद्रीया कोस्ता
(1851-1910) जैसे भी कुछ लोग थे जो जल्दी ही समाजवाद की ओर आ गए । इस प्रकार स्वायत्ततावादी
इंटरनेशन ने भी अपना इतिहास खत्म किया । इसका जनाधार केवल स्पेन में था । उनके परिप्रेक्ष्य
के मुकाबले समूचे यूरोप के मजदूर आंदोलन की यह अनुभूति भारी पड़ी कि संगठित पार्टियों
के जरिए राजनीतिक संघर्ष में भग लेना अत्यंत महत्वपूर्ण है । स्वायत्ततावादी प्रयोग
के खात्मे के बाद अराजकतावादियों और समाजवादियों में भी अलगाव निश्चित था ।
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