Wednesday, January 28, 2015

पिता-पुत्र


जो 'है' था
वह अब 'था' है
कितनी आसानी से
इसे पुत्र के बचपन की नींद
देखते हुए समझा
और अब पिता की मौत
में पुष्ट पाया
द्वन्द्ववाद नहीं था यह
चीजों के होने का तरीका है
जो अपने न-होने में  भी
होती हैं  छुपी हुई
फिर औचक प्रकट
होकर जिंदगी
बन जाती हैं
घर के दरवाजे पर वे अब नहीं होंगे
नहीं लेंगे जिम्मेदारी किसी की
बच्चे अब चिढ़ाएंगे किसे
कौन उन्हें डाँटेगा
भाई निश्तिन्त होकर घूमेंगे
चाचा बगैर लज्जित हुए पीटेंगे
 चाची को
किसी को कोई काम नहीं रह जाएगा
मुझे भी खबर नहीं लेनी होगी उनकी






Saturday, January 17, 2015

कारपोरेट-कम्यूनल फासीवाद के विकास की प्रक्रिया

         
1 पूरी दुनिया में विद्वान इस तथ्य के विश्लेषण में व्यस्त हैं कि इक्कीसवीं सदी के आरंभ में ऐसे कौन से बदलाव आए कि पूंजीवाद के संकट में होने के बावजूद मुट्ठी भर धन्नासेठों की संपत्ति में अकूत इजाफ़ा कैसे हो रहा है? अनेक विचारकों ने तो पूंजीवाद के वर्तमान स्वरूप की विशेषता को चिन्हित करने के लिए उसेनव-उदारवादकी संज्ञा दी है । इसकी खूबी अर्थतंत्र का वित्तीकरण बताया जा रहा है जिसमें तृतीयक क्षेत्र (सेवाक्षेत्र) ही सबसे अधिक विस्तृत हो जाता है । साथ ही इसे भी देखने की बात हो रही है कि लगभग सभी देशों में राजनीति में दक्षिणपंथी ताकतों की मजबूती का इससे कोई संबंध है क्या? आम तानाशाही से अलगाकर इसे देखने और समझने की कोशिश हो रही है । धीरे धीरे विचारकों में फ़ासीवाद की गंभीर चर्चा भी शुरू हो गई है । 1929 से 1930 तक की महामंदी के बाद हिटलर के उदय की परिघटना से वर्तमान हालात को समझने की कोशिश की जा रही है । हिटलर की परिघटना पश्चिम के एक औद्योगिक समाज की थी इसलिए उसमें नाटकीय तेजी रही । भारत के अर्ध-सामंती समाज होने के कारण इसकी उठान धीमी किंतु मजबूत रही है । भारत में इस दौर में कोई भी पूंजीपति उद्योग लगाकर नहीं, बल्कि सरकार के पास मौजूद संसाधनों की लूट से संपत्ति अर्जित कर रहा है ।   
2 कोमिंटर्न के बुल्गारियाई नेता जियोर्जी दिमित्रोव ने फ़ासीवाद को वित्तीय पूंजी के सबसे प्रतिक्रियावादी हिस्से की सबसे अधिक दमनकारी और सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी शासन पद्धति कहा है । उन्होंने यह भी कहा कि भूमंडलीय परिघटना होने के बावजूद अलग अलग देशों में फ़ासीवाद के भिन्न भिन्न रूप प्रकट होते हैं । इससे लड़ने के लिए इस भिन्नता को समझना जरूरी है । इसीलिए हमें अपने देश में पूंजीवाद के विकास के इतिहास को ध्यान में रखना होगा । टाटा-बिरला के बाद सहारा से होते हुए अंबानी-अडानी तक की यात्रा में पूंजीपतियों के साथ राजसत्ता और राजनेताओं के रिश्ते भी बदलते रहे हैं । स्वाधीनता आंदोलन के समय एक बार जब संपत्ति के अधिकार को बुनियादी अधिकारों में शामिल कराने के लिए खुद किसी पूंजीपति ने आवाज उठाई तो बिरला ने उसे परामर्श दिया कि जिनके पास संपत्ति है यदि वे ही इस मांग को उठाएंगे तो इसका समर्थन कोई नहीं करेगा । यह मांग उन्हें करनी चाहिए जिनके पास संपत्ति नहीं है । औद्योगिक दौर के पूंजीपति राजनेताओं से खुद को अलग रखकर दबाव समूह की तरह काम करते थे । आज स्थिति एकदम उलटी है । भारत की संसद में विजय माल्या, जिंदल और अंबानी जैसे पूंजीपति हैं और अपने उद्यमों से जुड़ी हुई संसदीय समितियों के सदस्यों के रूप में कानूनों को प्रभावित करते हैं । पिछली सरकार में भी विभिन्न मंत्री वकील थे जो विभिन्न कारपोरेट घरानों की वकालत करते रहे थे और मंत्री बनने के बाद भी उन घरानों को लाभ दिया करते थे । वर्तमान सरकार में भी वकील मंत्रीगण वे ही हैं जो अतीत में इन घरानों की वकालत किया करते थे । कारपोरेट घरानों के साथ घालमेल का यह आलम है कि शिक्षक और प्रशासक के रूप में इनकी नियुक्ति के प्रस्ताव बेशर्मी के साथ किए जा रहे हैं । इसी क्रम में जबसे निजी पूंजी को प्रतिष्ठा देने का उदारीकरण का अभियान शुरू हुआ तबसे ही देश में दक्षिणपंथी उत्थान- आपस में जुड़ी हुई घटनाएं हैं । पूंजीवाद के वर्तमान नव उदारवादी स्वरूप के सामने आने के साथ ही पूरी दुनिया में दक्षिणपंथी राजनीति का उभार दिखाई दे रहा है । जिन देशों में यह उदारीकरण शुरू किया गया वहां जन विक्षोभ को दबाने के लिए तानाशाही आई । भारत में यही काम पूर्ववर्ती कांग्रेसी सरकार ठीक से नहीं कर पा रही थी और बदनाम भी हो गई थी, इसलिए पूंजी ने तथाकथित लोकप्रिय और कठोर शासक पर दांव लगाया । इसीलिए वर्तमान निजाम शुद्ध सांप्रदायिक नहीं, बल्कि इसके प्रत्यक्ष कारपोरेट हित भी हैं ।    
2 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में विजयादशमी के दिन केशव बलिराम हेडगेवार ने की थी । वे पहले कांग्रेस में रहे थे लेकिन हिंदू हितों पर अलग से जोर देने के लिए उन्होंने इस नए संगठन की स्थापना की । 1920 में चले असहयोग आंदोलन के बारे में उनका मूल्यांकन था किमहात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के फलस्वरूप देश का उत्साह ठंडा पड़ता जा रहा था और सामाजिक जीवन में उस आंदोलन के द्वारा पैदा की गईं बुराइयां खतरनाक रूप से सिर उठा रही थीं---असहयोग का दूध पीकर पले हुए यवननाग अपनी जहरीली फुफकारों से समूचे राष्ट्र में दंगे भड़का रहे थे ।असहयोग आंदोलन की अचानक वापसी से पैदा हताशा में सांप्रदायिकता ने पैर पसारे । साइमन कमीशन के विरुद्ध उपजे विक्षोभ से पैदा आंदोलनों से यह संगठन दूर रहा । सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930) से भी संघी दूर रहे । 26 जनवरी 1930 को स्वाधीनता दिवस के रूप में तो मनाया लेकिन भगवा झंडे की पूजा करते हुए । आजादी की लड़ाई से उनकी दूरी राष्ट्रवाद की उनकी धारणा से जुड़ी हुई है । वे इसे ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ कहते हैं और ‘भूभागीय राष्ट्रवाद’ से इसे अलग बताते हैं । 1940 में हेडगेवार की मृत्यु के बाद ज्यादातर सैद्धांतिक काम दूसरे सर संघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर ने किया । उन्होंने लिखाभूभागीय राष्ट्रवाद और साझा दुश्मन के सिद्धांत ने, जो राष्ट्र की हमारी धारणा की बुनियाद का निर्माण करते हैं, हमें हमारे सच्चे हिंदू राष्ट्रवाद की सकारात्मक व प्रेरक अंतर्वस्तु से वंचित कर दिया है तथा उसने आजादी की अनेक लड़ाइयों को वस्तुत: ब्रिटिश विरोधी लड़ाइयां बना दिया है । ब्रिटिश विरोध को देशभक्ति और राष्ट्रवाद के समतुल्य बना दिया गया है । इस प्रतिक्रियावादी विचार ने स्वतंत्रता आंदोलन के समूचे दौर में उसके नेताओं और आम जनता पर बड़ा हानिकारक प्रभाव डाला है ।राष्ट्रवाद की यही धारणा हिंदुत्ववादियों को साम्राज्यवाद विरोध के आधार पर विकसित भारतीय राष्ट्रवाद के विपरीत यहूदी राष्ट्रवाद के समर्थन की ओर ले जाती है । उसके इजरायल समर्थन का तात्कालिक राजनीतिक संदर्भ तो है ही, वैचारिक संदर्भ भी है । यहूदी राष्ट्रवाद के साथ ही गोलवलकर ने नाजी राष्ट्रवाद से भी प्रेरणा ली और उसे गौरव के रूप में व्याख्यायित करते हुए लिखाआज जर्मनी का राष्ट्रीय गौरव चर्चा का मुख्य विषय बन गया है । राष्ट्र और उसकी संस्कृति की शुद्धता की रक्षा करने के लिए जर्मनों ने अपने देश को सेमेटिक नस्लवादियों- यहूदियों- से मुक्त करके समूची दुनिया को हिला दिया है ।----जर्मनी ने यह भी दिखला दिया है कि एक-दूसरे से मूलत: पृथक नस्लों और संस्कृतियों को एक एकल समग्र में समेटना कितना असंभव है ।उन्होंने इससे सीखने की भी सलाह दी । गोलवलकर के मुताबिक अल्पसंख्यकों के लिए इस देश में रहने की अनुमति तो है लेकिन तब जब वेइस देश में कुछ न मांगते हुए, किसी सुविधा का हकदार न होते हुए, किसी भी प्रकार की प्राथमिकता पाए बिना, यहां तक कि नागरिकता के अधिकारों के बिना ही हिंदू राष्ट्र के अधीन रहें ।धर्मांतरण आदि का मूल तर्क इस सपने को पूरा करने की इच्छा है । संगठन का उनका सिद्धांतएक चालक अनुवर्तिताहै जो संयुक्त हिंदू परिवार के सांगठनिक आदर्श पर गढ़ा हुआ है । हजारों संगठनों का संजाल संघ के वैचारिक नेतृत्व में सामान्य काम काज जारी रखते हैं और विशेष अवसरों पर विशेष दिशा में इन सभी संगठनों की कार्यवाहियों को निर्देशित कर दिया जाता है । उनकी लोकतंत्र विरोधी विचारधारा का सबूत यह है कि वेअधिकार की जगह कर्तव्यको प्रस्थान विंदु बनाते हैं । इसे उनके छात्र संगठन के स्वरूप में देखा जाता है जिसमें अध्यक्ष हमेशा कोई अध्यापक होता है । स्वच्छ भारत अभियान में भी उन्होंने स्वच्छ वातावरण के नागरिक अधिकार के सवाल की जगह स्वच्छता को नागरिकों के कर्तव्य में बदल दिया है । विचार के अतिरिक्त पूरे कामकाज में अलोकतांत्रिकता का सबसे बड़ा सबूत गुरु पूर्णिमा के दिन देश भर की शाखाओं में लिफ़ाफ़े में गुप्तदान की प्रक्रिया है जिसके तहत प्राप्त दान का कोई ब्यौरा देश के सामने कभी पेश नहीं किया गया । संघ के प्रचारक के लिए अविवाहित रहने का बंधन उसके स्त्री-विरोधी एजेंडे का प्रमाण है ।          
3 फ़ासीवाद का इतिहास हमें बताता है कि उसका जन्म संसदीय लोकतंत्र से ही होता है । असल में संसदीय लोकतंत्र पूंजीवाद के विकास के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा रहा है । शासन की सामाजिक सहमति के लिए सार्विक बालिग मताधिकार जन आंदोलन से तो हासिल हुआ लेकिन कदम कदम पर पूंजीवाद ने इसके प्रसार का प्रतिरोध किया । एक ओर तो पूंजी को प्राप्त आत्मविश्वास के चलते वह मताधिकार को सीमित करने का प्रयास करती है, दूसरी ओर फ़ासीवाद आम जनता में अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के विरुद्ध उपजे विक्षोभ को देशप्रेम और फ़ंडामेंटलिज्म के सहारे अपने लाभ के लिए भुनाता है । लोकप्रिय प्रचार माध्यमों के सहारे परोसा गया आध्यात्मिक नशा एक हद तक मनुष्य को व्यापक सामाजिक अलगाव की क्षतिपूर्ति प्रदान करता है । ध्यान देने की बात यह है कि संसदीय लोकतंत्र के दायरे में काम करते हुए भी फ़ासीवादी ताकतों को इसके बारे में रत्ती भर भी भ्रम नहीं होता है । वे अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए इसका उपयोग मात्र करते हैं । इसीलिए हमेशा उनके काम काज में संसदीय कार्यवाहियों से ज्यादा महत्वपूर्ण गैर-संसदीय कार्यवाहियां होती हैं । सत्ता के औपचारिक तंत्र से इसको भरपूर सांस्थानिक मदद दी जाती है ।       
4 भारतीय फ़ासीवाद के कुछेक पहलुओं को समझने के लिए पिछ्ले लोक सभा चुनाव के नतीजों को भी देखना होगा । इसे ही बहुत सारे लोग अब तक हासिल सामाजिक प्रगति के विरुद्ध प्रतिक्रिया के बतौर व्याख्यायित कर रहे हैं । चुनाव से बनी हुई लोकसभा में स्त्री, अल्पसंख्यक जन प्रतिनिधियों की संख्या में गिरावट आई है और विभिन्न तबकों के प्रतिनिधित्व का पैटर्न बदल गया है । भारत के विभिन्न इलाकों में मौजूद अंतर्विरोधों में भाजपा ने पुराने समीकरणों में फेरबदल किया है और ऐसे प्रभावशाली तबकों की भावनाओं को उभारा है जो अपने आपको शासक समुदाय में शामिल नहीं अनुभव करते थे । इससे संघीयता के ताने बाने को घातक क्षति पहुंची है । स्त्री उभार के विरुद्ध राजनीतिक गोलबंदी को हवा देना उसने दिवराला सती कांड के बाद से ही शुरू कर दिया था । चुनावों से ठीक पहले आसाराम बापू प्रकरण में भी इन ताकतों ने पितृसत्तात्मक राजनीतिक ध्रुवीकरण किया । खाप पंचायतों के रूप में उन्हें एक संगठित स्त्री विरोधी मंच मिल गया है जिसके समर्थन में जिम्मेदार मंत्री आदि माहौल बना रहे हैं । गृह मंत्रालय की ओर से दहेज उत्पीड़न कानून में संशोधन का प्रस्ताव इसी प्रतिक्रिया को मजबूती प्रदान करने के मकसद से लाया गया है । जातिगत उत्पीड़न का समर्थन रणवीर सेना और सवर्ण-सामंती ताकतों के साथ उसके हेलमेल में देखा जा सकता है ।
5 हिंदू राष्ट्र और हिंदू हितों की स्थापना के प्रधान लक्ष्य को पूरा करने के लिए आम तौर पर जनसंघ या भाजपा का समर्थन आर एस एस ने किया लेकिन अगर कांग्रेस ने इस गोलबंदी का लाभ उठाना चाहा तो संघ ने उसका भी साथ दिया । गांधी की हत्या के बाद बियाबान में पड़ी हुई इस संस्था को चीन युद्ध के समय महत्व मिला और उसके बाद 1963 की गणतंत्र दिवस की परेड में भाग लेने के लिए इसे झांकी के साथ आमंत्रित किया गया । फिर इंदिरा गांधी ने आपात काल के बाद की अपनी पराजय का बदला लेने के लिए उत्तर भारत में जब हिंदू मतों के ध्रुवीकरण की योजना बनाई तो संघ ने उनका साथ दिया और देश के विभिन्न भागों में उनके लिए मतदान भी कराया । इसके पहले भी बांगलादेश युद्ध के बाद इंदिरा गांधी को अटल बिहारी वाजपेयी ने दुर्गा कहा था क्योंकि उस लड़ाई में पाकिस्तान की पराजय के चलते युद्धोन्माद का माहौल बनाने और उसके सहारे मुस्लिम विरोधी वातावरण बनाने में सुविधा हुई थी ।    
6 वर्तमान सरकार के सत्ता में आने के साथ संघ को औपचारिक मान्यता देने-दिलाने के काम में तेजी आई है । सरकार के मंत्रियों के साथ साथ विभिन्न विश्वविद्यालयों के कुलपति, अनेक संस्थानों के मुखिया सर संघ चालक मोहन भागवत से मिल रहे हैं । विजयादशमी के दिन के स्थापना समारोह में दिया गया उनका रस्मी भाषण दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ । संसद की कार्यवाही से दंगों के सिलसिले में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उल्लेख संपादित करके निकाल दिए गए । सरकार के अधिकतर मंत्री इस संगठन से जुड़े रहे हैं ।
7 इससे लड़ने की दृष्टि से एक तथ्य को दिमाग में रखना होगा कि धर्म और सांप्रदायिकता दो चीजें हैं । धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल सांप्रदायिकता है । इसीलिए सांप्रदायिकता का इतिहास आधुनिक राजनीति और उसकी जरूरतों से जुड़ा हुआ है । इसके लिए आवश्यक गोलबंदी हेतु धर्म की मूलवादी व्याख्या की जाती है । एक बात और है कि आधुनिक भारत में बहुसंख्या पर आधारित राजनीतिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली ने संसद में अल्पसंख्यक समुदाय का सार्थक प्रतिनिधित्व वैसे भी होने नहीं दिया था । फ़र्स्ट पास्ट द पोस्टऔर एक जगह से एक ही प्रतिनिधि आधारित प्रणाली की खामियों के चलते देश में सही अर्थों में संसदीय लोकतंत्र भी नहीं रहा है । हाल में उसकी जगह आनुपातिक प्रतिनिधित्व की बात इसीलिए की जा रही है ।   
8 फ़ंडामेंटलिज्म एक सपने पर आधारित होता है और संबंधित धर्म में आए हुए बदलावों को हटाकर तथाकथित शुद्धता को स्थापित करना चाहता है । यह शुद्धता भी कल्पित होती है । उदाहरण के लिए गीता प्रेस से प्रकाशित महाभागवत पुराण में से महारास (रासलीला) को संपादित कर उसे शुद्ध किया गया है । इसी तरह वर्णाश्रम कभी आचरित जीवन पद्धति नहीं रही है लेकिन मूलतत्ववादी इसे ही हिंदू समाज व्यवस्था साबित करना चाहेंगे । इसीलिए वे सबसे पहले संबंधित धर्म के लोकाचार या जिसे लोकप्रिय धर्म कहते हैं, उसके विरुद्ध अभियान चलाते हैं । भारतीय संस्कृति को वे जिस तरह परिभाषित करते हैं उसके मूल में पितृसत्तात्मक, सामंती सवर्ण वर्चस्व वाली ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था तथा इनको पोषित करने वाले पारंपरिक पारिवारिक मूल्य हैं । हमारे सामंती सामाजिक ढांचे की बुनियाद ये पारिवारिक मूल्य ही हैं । यह ढांचा पितृसत्ता को बल प्रदान करता है और संतान को जन्म देने वाले यौन आचरण के अतिरिक्त सभी वैकल्पिक यौन आचरणों का हिंसक विरोध करता है ।    
9 पूंजी और पोंगापंथ का घातक मिश्रण वर्तमान फ़ासीवाद की विशेषता है । मशहूर अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक के अनुसार भाजपा की यह जीत पिछले डेड़ सौ वर्षों में हासिल सामाजिक प्रगति के विरुद्ध प्रतिक्रिया है । सामाजिक अग्रगति के साथ ही साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष की भावना को भी उलट देने का संकल्प वर्तमान शासन का लक्ष्य है । अमेरिकी दबदबे वाली अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के साथ यह भी उसी तरह का रिश्ता रखना चाहता है जैसा रिश्ता मुस्लिम धार्मिकता का दोहन करके स्थापित अरब मुल्कों के सत्ताधारी शासक समुदाय का है । इस विचित्र स्थिति का विश्लेषण करने वालों ने जोर देकर समझाया है कि मुस्लिम समाज में लोकतांत्रिक धारा के विरोध में जो फ़ंडामेंटलिस्ट आंदोलन उभरे उन्होंने पश्चिम विरोध का उन्माद समाज की लोकतांत्रिकता का दमन करने के लिए पैदा किया लेकिन सत्ता मिलते ही पश्चिमी मुल्कों की सरपरस्ती हासिल करने की कोशिश करने लगे ।
10 पिछ्ले लोकसभा चुनावों में 31 फ़ीसद वोट लेकर भी हमारी चुनाव प्रणाली की विशेषता के कारण भारी संसदीय बहुमत हासिल करके बनी सरकार अब सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल करके अपना आधार मजबूत और विस्तारित करने में लगी हुई है । इसमें वह हिंदी का उपयोग कर रही है लेकिन इसके प्रति उसका अनुराग एक हद तक हिंदी पट्टी में अपने आधार को मजबूत और गहरा करना ही है अन्यथा हिंदी उनके मुताबिक पतन का ही प्रतीक है, शुद्ध तो संस्कृत है । उसमें भी सत्य उतना ही बताया जा रहा है जो उनकी पोंगापंथी व्याख्या के लिए सुविधाजनक हो । संस्कृत की सारी परंपरा को एकायामी ब्राह्मण धारा के रूप में स्थापित किए बिना वह उनके काम की नहीं होगी । इसके लिए उसे ज्ञान और दर्शन की भाषा नहीं, धर्माचार की भाषा सिद्ध करना आवश्यक है । महाभारत और पुराणों की मनमानी व्याख्या के सहारे अंधविश्वास को बढ़ावा देना मकसद है, न कि दर्शन या आयुर्वेद, योग आदि की प्रतिष्ठा । योग को धार्मिकता से जोड़ दिया गया है अन्यथा भारतीय दर्शन की परंपरा में वह अनीश्वरवादी धारा में आता है ।
11 दुर्भाग्य से भारत के आधिकारिक राष्ट्रवाद और देशभक्ति को जिस तरह देखा समझा गया उसमें देशभक्ति को साम्राज्यवाद विरोध की जगह पाकिस्तान विरोध के जरिए परिभाषित करने की परंपरा थी । हमारे देश में देशभक्त होने का मतलब देश की भौगोलिक एकता और अखंडता को पवित्र मानना, मजबूत केंद्र, जिसका अभिन्न अंग भारतीय सेना है, की पैरोकारी, राष्ट्रगान और ध्वज जैसे प्रतीकों को अतिरिक्त मान्यता, संसद और सर्वोच्च न्यायालय पर सवाल न उठाना आदि रहे है । इसके चलते पड़ोसी मुल्कों के अलावे देश के सीमाई इलाकों की फौजी देखरेख भी देश की एकता का निशान बना दिया गया । इसके परिणाम अति-केन्द्रीयता और भौगोलिक रूप से लोकतांत्रिक शासन के मामले में भेदभाव के बतौर जम्मू-काश्मीर और उत्तर-पूर्व में देखे जा सकते हैं । कुल धर्मनिरपेक्षता के बावजूद सत्ता में हिंदू बहुसंख्यक मूल्यों की ओर झुकाव और उसके प्रति अतिरिक्त सहनशीलता और उसे स्वाभाविक मान लेने की प्रवृत्ति थी । वैज्ञानिक संस्थानों तक में अंधविश्वास का खुला प्रचलन था । रामनवमी के अवसर पर मोदी के व्रत के प्रचार से पहले भी कांग्रेसी प्रधानमंत्री अपनी हिंदू पहचान का मुजाहिरा करते रहे हैं । भारत में धर्मनिरपेक्षता के बतौर आचरित सर्व धर्म समभावआसानी से बहुसंख्यक धर्म की ओर झुक जाता रहा है ।    
12 नव उदारवादी आर्थिकी और संचार की नई तकनीकों के आगमन के साथ अधिकांश मुल्कों में मीडिया की भूमिका में बदलाव देखा गया । टेलीविजन के विनाशकारी प्रभावों का अध्ययन अमेरिका में किया गया है । देखा गया कि खासकर इराक युद्ध के दौरान मीडिया का उपयोग सर्वानुमति बनाने में किया गया और उसके लिए एक नया शब्द ‘नत्थी पत्रकारिता’ चल पड़ा । इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथ बड़ी पूंजी का जुड़ाव हो गया और मीडिया खुद शासक समुदाय का अंग हो गया । मीडिया घरानों के साथ पूंजी के जुड़ाव का यह नया स्तर पिछली सरकार में ही प्रकट होना शुरू हो गया था, इस नए शासन में तो रिपोर्टिंग की जगह भाजपा के मुख्यालय से ही प्राप्त खबरों और वीडियो का इस्तेमाल हो रहा है और रिलायंस के हाथ में ज्यादातर खबरिया चैनल आ गए हैं । सहारा के प्रयोग से बहुत आगे बढ़कर मीडिया पर अबाध नियंत्रण का राज स्थापित हो गया है । खबर और प्रचार के बीच अंतर समाप्त हो गया है । दृश्य साधनों के उपयोग और उनके जरिए निर्मित छवियों के प्रसारण ने फ़ोटो शापिंग की कला का रूप ले लिया है जिसमें लोग कैमरे की निगाह से सचाई देखने के आदी हो जाते हैं । 
13 शिक्षा और संस्कृति, खासकर इतिहास और समाज के वर्णन को हिंदुत्ववादी ढांचे में ढालना संघ का पसंदीदा काम है । शिक्षा में बत्रा की किताबों और अन्य अवैज्ञानिक दावों के जरिए अंधविश्वास को बढ़ावा, संस्कृत की स्थापना और शैक्षिक संस्थानों की स्वायत्तता पर हमला इसके कुछ हथियार के बतौर दिखाई पड़े हैं । जातिगत भेदभाव और धार्मिक पाखंड का औचित्य बताने की कोशिश इन पुस्तकों की प्रेरणा होती है । शैक्षिक संस्थानों के मुखिया महाभारत और रामायण की घटनाओं की तारीख का पता लगाने के लिए शोध को प्रोत्साहित कर रहे हैं तो पुराण कथाओं को वैज्ञानिक सत्य की तरह पेश किया जा रहा है ।  
14 हालिया विवाद- धर्मांतरण, गोकुशी, लव जेहाद, आतंकवाद आदि मुद्दों का मकसद ही अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों के विरुद्ध घृणा का व्यस्थित माहौल बनाना है । खासकर आतंकवाद का सवाल अमेरिका के साथ वैचारिक सहयोग के लिए भी मददगार है । जिस दिन चुनाव के नतीजे आए उसी दिन पुणे में साफ़्टवेयर इंजीनियर मोहसिन सादिक की हत्या प्रतीक के रूप में आगामी दिनों का आभास दे रही थी । अतीत को हथियाने की कोशिश में शिक्षक दिवस का इस्तेमाल स्कूलों में पारंपरिक शक्ति संबंधों के महिमा मंडन के लिए किया गया । गांधी जयंती को स्वच्छता तक सीमित तो किया ही गया, स्वच्छता अभियान के तहत दिल्ली के त्रिलोकपुरी में वाल्मीकि समुदाय की स्वच्छता के लिए माता की चौकी स्थापित की गई । पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली में दलित और मुस्लिम समुदाय की आपसी दुश्मनी को आगामी चुनावी लाभ के लिए हवा दी जा रही है । एक ओर हिंदुत्व के पक्ष में प्रचंड धार्मिक उन्माद और दूसरी ओर कारपोरेट पूंजी के लिए सारी सरकारी मशीनरी की मदद- वर्तमान निजाम की प्रमुख विशेषताएं हैं । श्रम कानूनों और भूमि अधिग्रहण नियमों में संशोधन तथा विभिन्न परियोजनाओं के लिए पर्यावरण मंजूरी की प्रक्रिया को उदार बनाना सरकार द्वारा निजी पूंजी को फ़ायदा पहुंचाने के प्रयास हैं । विदेशी पूंजी के हित में एफ़ डी आई की मंजूरी, बीमा के जरिए स्वास्थ्य और निजी शिक्षा संस्थाओं के रास्ते शिक्षा में उनके प्रवेश की आहट सुनाई पड़ रही है ।मेक इन इंडियाका नारा विदेशी पूंजी के पक्ष में निर्यातोन्मुखी उद्योगीकरण का उपाय है । अनेक देशों में विकास के प्रदर्शन के नाम पर इस उपाय का सहारा लिया गया है, लेकिन कहीं भी इससे देशी अर्थतंत्र को मजबूती नहीं मिली है । अलबत्ता इस उपाय से अर्थतंत्र के एक हिस्से में नकली तेजी पैदा करके शेष अर्थव्यस्था को खतरे में डालने का इतिहास सबका जाना हुआ है । निजी पूंजी की सुविधा के लिए लेबर इंस्पेक्टरों की जांच की जगह संस्थानों की ओर से श्रम कानूनों के पालन के स्व-प्रमाणन की बात हो रही है । मारुति की कार अल्टो की चालक सीट का कवर बनाने का कारखाना ही तिहाड़ में लगाया गया है । न्यूनतम मजदूरी और बाल श्रम कानून में भी संशोधन का प्रस्ताव है ।
16 विकास की कुल बातचीत का मकसद हालात में वास्तविक सुधार की जगह मनोवैज्ञानिक तुष्टि प्रदान करना है । सबसे ऊंची मूर्ति, मंगल ग्रह अभियान, बुलेट ट्रेन आदि का ढोल इसी कारण पीटा जा रहा है । प्राचीन ज्ञान गुरु का दावा पहले से ही रहा है । इस तरह की रणनीति लगभग सभी गरीब मुल्कों के शासक अपनाते रहे हैं । जनसमुदाय की वास्तविक स्थिति में रोजमर्रा के अपमान से पैदा उनके सहज बोध में मौजूद प्रतिरोध की चेतना के सहारे इसका मुकाबला करना ठीक होगा । भाजपा जानती है कि गरीबी में रह रहे मनुष्य को झूठी शान के इस भावनात्मक धोखे की जरूरत होती है ।  
17 देश विभाजन, बाबरी मस्जिद विध्वंस और वर्तमान सरकार का गठन देश में हिंदू ध्रुवीकरण और अल्पसंख्यक, खासकर मुस्लिम विरोध, का परिणाम रहे हैं । देश के बंटवारे ने हिंदू-मुस्लिम विभाजन का स्थायी स्रोत बना दिया था, बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बनाने का सपना उसी किस्म के ठोस ढांचे की स्थापना है जो भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों को उनकी सामाजिक हैसियत हमेशा बताती रहे । इसलिए किसी भाजपाई द्वारा उसके निर्माण संबंधी वक्तव्य या संकल्प को प्रलाप मानना उचित न होगा । वर्तमान सरकार बहुसंख्यकवाद के आधार पर लोकतंत्र को पुनर्व्याख्यायित करने की कोशिशों को समर्थन और बढ़ावा देती दिखाई दे रही है । जबकि लोकतंत्र की बुनियाद बहुसंख्यकों नहीं, अल्पसंख्यकों के अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करना ही माना जाता है । सत्ता के संसाधन के दुरुपयोग और गुंडा वाहिनी के गैर कानूनी कदमों के समन्वित तालमेल से फ़िलहाल उन्माद को हवा दी जा रही है । भविष्य में इसी कार्यनीति के सहारे बड़े से बड़े हत्याकांडों को भी खामोशी से अंजाम दिये जाने के संकेत हैं ।       
18 धर्मांतरण से जुड़ी हुई सबसे बड़ी समस्या जाति-व्यवस्था के रूप में सामने आई है । इसके साथ ही अंबेडकर की हिंदू समाज व्यवस्था के बारे में बुनियादी मान्यताएं, कि दलित जातियां हिंदू समाज का अंग नहीं हैं और कि हिंदू समाज जाति-आधारित ऊंच-नीच के बिना नहीं रह सकता, बहुत कुछ सही साबित हो रही हैं । हिंदू समाज में इसी वजह से धर्मांतरण की कोई धारणा नहीं रही थी । अंग्रेजों के आने के बाद जब भारतीय लोग समुद्र पारकर विदेश जाने लगे तो समुद्र के नमकीन पानी में हिंदू धर्म के गल जाने की बात कही जाने लगी । विदेश से लौटने के बाद उनकी शुद्धि के लिए जो कर्मकांड किए जाते थे उनमें गाय का गोबर खिलाना या गोमूत्र पिलाना या कुछ जगहों पर गोमूत्र छिड़कना आदि होते थे । देहाती इलाकों में जाति से बहिष्कृत परिवार को वापस जाति में लाने के लिए सामूहिक भोज का प्रचलन है । संघ ने तथाकथितघर वापसीके बारे में कहा कि इसके जरिए हमने वापस आए लोगों कोस्वाभिमान और सलामतीप्रदान की है । इसमें निहित धमकी की भाषा को पहचानना मुश्किल नहीं है ।
19 मुस्लिम विरोध के साथ ही कम्युनिस्ट विरोध भी इन ताकतों की रणनीति का जरूरी अंग है क्योंकि सामाजिक चेतना से मजदूरों-किसानों के सवालों को गायब किए बिना कारपोरेट हितों की बेशर्म तरफ़दारी मुश्किल होगी और उसके लिए चीन विरोध के हथियार को आजमाया जाता रहा है । समूचे बौद्धिक विमर्श से जनता की उत्पादक ताकतों के सवाल हट गए हैं और सोचे समझे तरीके से ऐसे प्रतीक निर्मित किए जा रहे हैं जो जीवन में आर्थिक सफलता को गरिमा प्रदान कर रहे हैं । हाल में फ़िल्मी कलाकारों और क्रिकेट के खिलाड़ियों आदि का महिमामंडन लोगों के दिमाग में गंभीर सामाजिक राजनीतिक कर्म के अवमूल्यन की कोशिश का अंग हैं । नव-उदारवादी आर्थिकी के तहत सेलेब्रेटी सितारों की जीवन शैली को गौरवान्वित किया गया और उसके बाद राजनीति में उन्हें लाकर विधायी कामों की जिम्मेदारी भी उन्हीं को सौंप दी गई है । यह भी वाम-विरोधी वैचारिक मुहिम का ही अंग है । फ़िलहाल कम्युनिस्ट विरोध की बात सीधे सीधे न कहकर माओवादियों के खात्मे के नाम पर वामपंथ विरोधी वैचारिक माहौल के जरिए की जा रही है । इससे विकास के कारपोरेट-समर्थक विमर्श में मदद मिल रही है और पूर्व सरकार द्वारा निर्मित वातावरण का लाभ भी । आश्चर्यजनक नहीं कि जिन चीजों का वैचारिक विरोध करने का आवाहन दक्षिणपंथियों की ओर से किया जा रहा है उसमें मैकालेवाद, मिशनरी और मुस्लिम आतंकवाद के साथ मार्क्सवाद और भौतिकवाद भी हैं । संपदा के सृजन में मेहनत की जगह कौशल और व्यापार की भूमिका को अधिक महत्वपूर्ण साबित करने के प्रयास भी न केवल सतही भाषणों और सरकारी घोषणाओं में, बल्कि अकादमिक दुनिया में भी होने लगे हैं ।       
20 सारत: पूंजी के पक्ष में उसके शोषण के शिकार लोगों को खड़ा कर देने की यह विशिष्ट राजनीति है जिसका प्रयोग आम तौर पर संसदीय लोकतंत्र के परदे में अपना स्वार्थ साधने वाली पूंजी संकट में करती है । संकट में पड़ने पर पूंजीवाद कभी सामंती ताकतों से समर्थन लेने से परहेज नहीं करता रहा है । इंग्लैंड में महारानी और जापान में सम्राट के ताज की मौजूदगी तथा अमेरिका में इसाई कठमुल्ला ताकतों का राजनीतिक प्रभाव इसी तथ्य की गवाही देते हैं । भारत में भी जाति आधारित हिंदू धर्म पूंजीवाद के लिए सस्ते श्रम को जुटाने का साधन रहा है और आज श्रमिकों को बांटने और भ्रमित करने का अस्त्र बन गया है ।


Tuesday, January 6, 2015

आचार्य रामचंद्र शुक्ल की तर्क पद्धति

              
                                                                                                                                                                                     
शुक्ल जी की तर्क पद्धति को कोई नाम देना जरुरी नहीं है लेकिन ध्यान तो वह अवश्य खींचती है । यह पद्धति उनके भाव या मनोविकार संबंधी निबंधों में व्यक्त हुई है । कहीं अलग से उन्होंने इसे स्पष्ट नहीं किया है लेकिन चिंतामणि- भाग 1’ के निबंधों में वह आद्यंत समाई हुई है । आचार्य शुक्ल की यह तर्क पद्धति केवल उनके निबंधों तक सीमित नहीं है बल्कि उनकी आलोचना और विशेष रूप से ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में प्रकट होती है । इतिहास में हजारेक साहित्यकारों का जिक्र होने के बावजूद किन्हीं दो लोगों की साहित्यिक विशेषता के उल्लेख में दोहराव नहीं मिलेगा । ऐसा विश्लेषण अर्थात अलग अलग करके देखने और समझने की अगाध क्षमता से ही संभव है । निबंधों में इस पद्धति की पहचान सबसे अधिक आसानी से होती है । 
सबसे पहले हमारा सामना द्वैत में द्वंद्व को रेखांकित करने वाली दृष्टि से होता है जिसमें परस्पर विरोधी तत्वों की मौजूदगी एक ही साथ दिखाई देती है । मसलन पहले ही निबंधभाव या मनोविकारमें पहला वाक्य है- ‘अनुभूति के द्वंद्व ही से प्राणी के जीवन का आरंभ होता है ।यह जोड़ा सुख और दुख की सामान्य अनुभूतियों का है । एक ही प्राणी में ऊपर से आपस में विरोधी प्रतीत होने वाली अनुभूतियों की उपस्थिति के अलावे उनकी बढ़ती हुई जटिलता की व्याख्या के लिए वे उस समय यूरोपीय चिंतन में प्रभावी एक अन्य दार्शनिक पद्धति की मदद लेते हैं । उसे हम विकासवाद के नाम से जानते हैं और उसका असर भी मौजूद है जब वे जीवन के आगे बढ़ने के साथ इनकी जटिलता को भी बढ़ता हुआ दिखाते हैं । ध्यान देने की बात है कि विकासवाद प्राकृतिक विज्ञानों की पद्धति थी, खासकर वनस्पति विज्ञान की जिसमें किसी वनस्पति में उसके ही आंतरिक गुणों का विकास दिखाई देता था । लेकिन आचार्य शुक्ल के लिए विकास का मतलब इन्हीं अनुभूतियों का आंतरिक विकास नहीं बल्कि मनुष्य के सामाजिक जीवन का विकास है जिसके साथ ये अनुभूतियाँ क्रमशः जटिल होती जाती हैं । सामाजिक जीवन के इस विकास को वे दुनिया के बारे में व्यक्ति की बढ़ती हुई जानकारी से परिभाषित करते हैं- ‘नाना विषयों के बोध का विधान होने पर ही उनसे संबंध रखने वाली इच्छा की अनेकरूपता के अनुसार अनुभूति के भिन्न भिन्न योग संघटित होते हैं जो भाव या मनोविकार कहलाते हैं । सामान्य मनोभावों से शुरू होकर जटिल मनोभावों की ओर यह विकास अपनी यात्रा में व्यक्ति की उम्र में बढ़ोत्तरी के साथ ही समाजीकरण की बढ़ोत्तरी के चलते उसके ज्ञान के विस्तार को मान्यता देता है । मनोभावों के विकास की यह समझदारी ज्ञान के विकास के साथ ही मनुष्य की संवेदनशीलता के भी विस्तार के समूचे आयाम समेटे हुए है । संभवत: इसी समझ के विनिवेशन से साहित्य की ऐसी धारणा की स्थापना होती है जिसके अनुसार साहित्य मानव मन के भावजगत से जुड़ा होता है और धार्मिक कृतियों के मुकाबले सार्वभौमिक पहुंच रखता है । जिस मनुष्य के भावजगत को वह संबोधित होता है वह मनुष्य ऐहिक प्राणी है और उसकी भावनाओं का निर्माण इसी दुनिया-समाज में होता है । इसी के चलते साहित्यिक रचना को भी अपना विषय इसी दुनिया-समाज से उठाना पड़ता है तभी वह पाठक के मन में वांछित भावों को उद्बुद्ध कर पाता है ।     
चूँकि ये भाव यौगिक यानी आपस में मिले हुए होते हैं इसलिए पहला काम उन्हें अलगाकर पहचानना है । इसके लिए शुक्ल जी जिस पद्धति का सहारा लेते हैं उसे अरस्तू द्वारा प्रस्तुत परिभाषा की परिभाषा से सबसे अच्छी तरह समझा जा सकता है । विल ड्यूराँ ने अपनी किताबद स्टोरी आफ़ फिलासफीके दूसरे अध्याय में बताया है कि अरस्तू के अनुसार किसी भी बेहतरीन परिभाषा के दो अंग होते हैं- सबसे पहले जिस चीज की परिभाषा करनी है उसे उससे मिलते जुलते लक्षणों की चीजों के प्रवर्ग में रखना होता है, फिर यह बताना होता है कि उस प्रवर्ग की बाकी चीजों से उसकी भिन्नता क्या है । इस पद्धति को हम शुक्ल जी द्वारा भावों को एकदम स्पष्ट करने की चेष्टा में सफलता से लागू करते हुए देखेंगे । पहले हमने जिन दो प्रवर्गों का जिक्र किया अर्थात सुखात्मक और दुखात्मक अनुभूतियों के प्रवर्ग, उनमें शुक्ल जी समस्त भावों को विभाजित करते हैं, उसके बाद उनकी विशेषता बताते हैं । विशेषता बताने के लिए जरूरी है कि किसी भाव को शेष भावों से अलगाया जाए । उदाहरण के लिए दुखात्मक अनुभूतियों के प्रवर्ग में से वे क्रोध और भय को इस तरह पहचनवाते हैं- ‘हानि या दुःख के कारण में हानि या दुःख पहुँचाने की चेतन वृत्ति का पता पाने पर हमारा काम उस मूल अनुभूति से नहीं चल सकता जिसे दुःख कहते हैं बल्कि उसके योग से संघटित क्रोध नामक जटिल भाव की आवश्यकता होती है । जब हमारी इंद्रियाँ दूर से आती हुई क्लेशकारिणी बातों का पता देने लगती हैं, जब हमारा अंतःकरण हमें भावी आपदा का निश्चय कराने लगता है; तब हमारा काम दुःख मात्र से नहीं चल सकता बल्कि भागने या बचने की प्रेरणा करनेवाले भय से चल सकता है ।इससे क्रोध और भय के बीच समानता और अंतर का पता चलता है । समानता यह कि दोनों दुःख से पैदा होती हैं; क्रोध दुःख के चेतन (ज्ञात) कारण के प्रति पैदा होता है जबकि भय दुःख के अचेतन (अज्ञात) कारण से होता है ।
भावों की मौजूदगी मात्र का कोई अर्थ नहीं । भावों के फलस्वरूप इच्छा का जन्म होता है जिससे विभिन्न शारीरिक प्रयत्न प्रकट होते हैं । लेकिन इन प्रयत्नों से भी महत्वपूर्ण है भाषा जिससे इसकी अभिव्यक्ति में व्यापकता आती है । शुक्ल जी कहते हैं- ‘बात यह है कि भावों द्वारा प्रेरित प्रयत्न या व्यापार परिमित होते हैं । पर वाणी के प्रसार की कोई सीमा नहीं । उक्तियों में जितनी नवीनता और अनेकरूपता आ सकती है या भावों का जितना अधिक वेग व्यंजित हो सकता है उतना अनुभाव कहलानेवाले व्यापारों द्वारा नहीं ।इस तरह इस पूरे विवेचन में भाषा भी एक महत्वपूर्ण संकेतक के बतौर विचारणीय हो जाती है । साथ ही ‘अनुभाव’ जैसी शब्दावली का प्रयोग हमें इस तथ्य के प्रति जागरूक रखता है कि बात मनोविज्ञान की नहीं, काव्यशास्त्र की हो रही है । यह अलग बात है कि वांछित मनोभाव को जगाना साहित्यिक रचना का उद्देश्य होता है इसलिए मनोभावों का काव्यशास्त्रीय विवेचन भी सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक पर्यवेक्षण पर आधारित है । 
भावों का यह समस्त विवेचन बिना किसी कारण नहीं किया गया वरन इसके पीछे निश्चित उद्देश्य हैं । ये उद्देश्य उनके इस वाक्य से स्पष्ट होते हैं- ‘समस्त मानव जीवन के प्रवर्तक भाव या मनोविकार ही होते हैं । मनुष्य की प्रवृत्तियों की तह में अनेक प्रकार के भाव ही प्रेरक के रूप में पाए जाते हैं ।इसी विंदु पर आचार्य शुक्ल भावों के सामाजिक प्रकार्य की दृष्टि से उनका विवेचन करते हैं । भावजगत के परिष्कार का मक़सदनरसत्ताका प्रसार है क्योंकिरागात्मिका वृत्ति के प्रसार के बिना विश्व के साथ जीवन का प्रकृत सामंजस्य घटित नहीं हो सकता ।यहां स्वाभाविक रूप सेनरका अर्थ मनुष्य समझना होगा । हम सभी जानते हैं कि उस समय भाषा में लिंग संवेदनशीलता उतनी नहीं थी । लेकिन मनुष्य के प्रति भी बहुत ही व्यापक दृष्टि अपनाई गई है । उसका प्रसार मानव समाज तक तो है ही, प्राणी जगत भी उसी के भीतर समाहित हो जाता है । इससे भी आगे बढ़कर शुक्ल जी के चिंतन में समूची प्रकृति के अभिन्न अंग के रूप में मनुष्य दिखाई पड़ता है । यह बात तब और पुष्ट हो जाती है जब हम पाते हैं कि शुक्ल जी कविता का उद्देश्य ‘शेष प्रकृति’ के साथ मनुष्य के ‘रागात्मक संबंधों की रक्षा और निर्वाह’ घोषित करते हैं । स्वाभाविक रूप से शेष प्रकृति में किसी एक व्यक्ति के अलावा समस्त मानव समाज, मानवेतर प्राणी जगत और समूची प्रकृति आ जाते हैं । इन सबके बीच आपसी निर्भरता को बचाए रखना ही मानव समाज की स्थिति के लिए भी उन्हें आवश्यक लगता था । इस मामले में आचार्य शुक्ल का चिंतन अपने समय से बहुत आगे तक रोशनी फेंकता है ।   
दूसरे ही निबंधउत्साहमें वे एक वाक्य में कहते हैं- ‘दुःख के वर्ग में जो स्थान भय का है, वही स्थान आनंद वर्ग में उत्साह का है ।कैसे? दोनों में ही प्रयत्न की प्रधानता होती है लेकिन एक दूसरे के विपरीत । भय में भागने का प्रयत्न दिखाई पड़ता है तो उत्साह में कर्म में प्रवृत्त होने का । फिर उत्साह से मिलते जुलते भावों से उसका संबंध बताते हैं- ‘धृति और साहस दोनों का उत्साह के बीच संचरण होता है ।लेकिन साहस भी सभी तरह का नहीं ‘--केवल कष्ट या पीड़ा सहन करने के साहस में ही उत्साह का स्वरूप स्फुरित नहीं होता । उसके साथ आनंद पूर्ण प्रयत्न या उत्कंठा का योग चाहिए ।सामाजिक उपादेयता के नजरिए से इसका मूल्यांकन करते हुए कहते हैं- ‘उत्साह की गिनती अच्छे गुणों में होती है ।साथ ही भावों की अच्छाई बुराई का पैमाना भी तय करते हैं- ‘किसी भाव के अच्छे या बुरे होने का निश्चय अधिकतर उसकी प्रवृत्ति के शुभ या अशुभ परिणाम के विचार से होता है ।इसी निबंध में वे भावों की निरंतरता भी समझाते हैं और इसके लिए आम जीवन से उदाहरण चुनते हैं ।
अगले निबंधश्रद्धा-भक्तिमें यह तर्क प्रक्रिया और भी परिपक्व रूप में प्रकट हुई है । उसका रूप वर्णन सबसे पहले इस तरह किया गया है कि उसे पहचानने में कोई कठिनाई न हो- ‘किसी मनुष्य में जन-साधारण से विशेष गुण व शक्ति का विकास देख उसके संबंध में जो एक स्थायी आनंद-पद्धति हृदय में स्थापित हो जाती है उसे श्रद्धा कहते हैं ।ये गुण सामाजिक रूप से शुभ परिणामी होने चाहिए तभीजिन कर्मों के प्रति श्रद्धा होती है उनका होना संसार को वांछित है ।इसके सबसे निकट का भाव प्रेम है इसलिए उससे श्रद्धा को साफ तौर पर अलगाने की कोशिश अनेक उदाहरणों के सहारे की गई है । उदाहरणों के बाद एकाधिक सूत्रात्मक वाक्य भी आए हैं ।श्रद्धा का व्यापार-स्थल विस्तृत है, प्रेम का एकांत । प्रेम में घनत्व अधिक है और श्रद्धा में विस्तार ।---यदि प्रेम स्वप्न है तो श्रद्धा जागरण है । प्रेम में केवल दो पक्ष होते हैं, श्रद्धा में तीन । प्रेम में कोई मध्यस्थ नहीं, पर श्रद्धा में मध्यस्थ अपेक्षित है ।मध्यस्थ कोई व्यक्ति नहीं होता, श्रद्धास्पद के कर्म होते हैं । बात पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो पाई थी इसलिए फिर से जोड़ा- ‘प्रेम का कारण बहुत कुछ अनिर्दिष्ट और अज्ञात होता है; पर श्रद्धा का कारण निर्दिष्ट और ज्ञात होता है ।---श्रद्धा में दृष्टि पहले कर्मों पर से होती हुई श्रद्धेय तक पहुँचती है और प्रीति में प्रिय पर से होती हुई उसके कर्मों आदि पर आ जाती है । एक (श्रद्धा-लेखक) में व्यक्ति को कर्मों द्वारा मनोहरता प्राप्त होती है, दूसरी (प्रेम-लेखक) में कर्मों को व्यक्ति द्वारा । एक में कर्म प्रधान है, दूसरी में व्यक्ति । आधुनिक पूंजीवादी समय के स्वार्थी व्यक्तिवाद का प्रतिवाद शुक्ल जी की चेतना में समाया हुआ है और उनके इस पहलू का मूल्यांकन होना अभी बाकी है । साहित्य का धर्म ही वे मनुष्य की व्यक्ति-सत्ता को कुछ देर के लिए लोक-सत्ता में विलयित कर देना मानते हैं ।  
आचार्य शुक्ल की विश्लेषण क्षमता का प्रमाणघृणाशीर्षक निबंध में प्रस्तावित यह विभाजन है – ‘मनोविकार दो प्रकार के होते हैं- प्रेष्य और अप्रेष्य । प्रेष्य वे हैं जो एक के हृदय में पहले के प्रति उत्पन्न होकर दूसरे के हृदय में भी पहले के प्रति उत्पन्न हो सकते हैं, जैसे क्रोध, घृणा, प्रेम इत्यादि ।---अप्रेष्य मनोविकार जिसके प्रति उत्पन्न होते हैं उसके हृदय में यदि करेंगे तो सदा दूसरे भावों की सृष्टि करेंगे । उसके अन्तर्गत भय, दया, ईर्ष्या आदि हैं ।इस निबंध में की शुरुआत में ही उनकी तर्क पद्धति की विशेषताओं के दर्शन होने लगते हैं । शुक्ल जी के समस्त लेखन की एक बड़ी विशेषता सूत्रवत वाक्य निर्माण है । इसका संबंध उनकी तर्क पद्धति से है । उनका पूरा ध्यान किसी भी वर्ण्य विषय से पाठक को अच्छी तरह परिचित करा देना है ताकि वह उसे पहचानने में भूल न करे । लोग उदासीनता को भी घृणा का नाम देते हैं लेकिन दोनों में महत्वपूर्ण अंतर है । यह अंतर हमारी सक्रियता से जुड़ा हुआ है । लिखते हैं- ‘जिस बात से हमें घृणा है, हम चाहते क्या आकुल रहते हैं कि वह बात न हो, पर जिस बात से हम उदासीन हैं उसके विषय में हमें परवाह नहीं रहती; वह चाहे हो, चाहे न हो ।’ कहने की जरूरत नहीं कि शुक्ल जी की चिंता ऐसी चीजों को न होने देने की है जो ‘अरुचिकर’ होती हैं । इन चीजों के संबंध में उनका कहना है कि ‘घृणा और श्रद्धा के मानसिक विषय’ प्राय: सर्वस्वीकृत होते हैं । 
घृणा को स्पष्ट करने के क्रम में वे इसके सामाजिक मूल को बताना चाहते हैं । इसी क्रम में मनुष्य के सामाजिक अनुभव में विस्तार आने से इस मनोभाव के पैदा होने की प्रक्रिया को सूत्रवत व्यक्त करते हैं- ‘सृष्टि-विस्तार से अभ्यस्त होने पर प्राणियों को कुछ विषय रुचिकर और कुछ अरुचिकर प्रतीत होने लगते हैं ।यहांरुचिकर-अरुचिकरके द्वैत पर अनायास नजर जाती है लेकिन घृणा का संबंधअरुचिकरके साथ है इसलिए दूसरा ही वाक्य इसे स्पष्ट करता है- ‘इन अरुचिकर विषयों के उपस्थित होने पर अपने ज्ञान-पथ से उन्हें दूर रखने की प्रेरणा करनेवाला जो दु:ख होता है उसे घृणा कहते हैं ।अरुचिकर की उपस्थिति से घृणा के अलावा क्रोध भी हो सकता है इसलिए उससे इसका अंतर करना उन्हें जरूरी लगा । अंतर स्थापित करते हुए फिर से सामाजिक जीवन से उन्होंने जो उदाहरण दिया है वही आचार्य शुक्ल की सामाजिक संवेदनशीलता को समझने के लिए पर्याप्त है । इन दोनों मनोभावों के बीच अंतर है किहम अत्याचारी पर क्रोध और व्यभिचारी से घृणा करते हैं ।कुछ देर बाद ही यह अंतर सक्रियता से व्याख्यायित होने लगता है जब वे कहते हैं- ‘घृणा का भाव शांत है उसमें क्रियोत्पादिनी शक्ति नहीं है । घृणा निवृत्ति का मार्ग दिखलाती है और क्रोध प्रवृत्ति का ।क्रोध का ही एक रूप वैर भी होता है, उससे घृणा का अंतर भी ध्यान देने लायक है- ‘वैर का आधार व्यक्तिगत होता है, घृणा का सार्वजनिक ।आश्चर्य की बात नहीं कि सामाजिक दृष्टि से घृणा को जरूरी समझने के मामले में आचार्य शुक्ल अकेले नहीं हैं । उन्हीं के समकालीन लेखक प्रेमचंद ने भीसाहित्य में घृणा की उपयोगिताशीर्षक निबंध लिखा था । उस समय घृणा की जरूरत को रेखांकित करने की इन साहित्यिक कोशिशों के पीछे कहीं न कहीं सामाजिक और राजनीतिक बदलाव की चाहत थी ।   
उपर्युक्त विवेचन से शुक्ल जी के लेखन की एक और विशेषता स्पष्ट होती है । उनकी साहित्य संबंधी आलोचना और विवेचन के मूल में गहरा नैतिक-सामाजिक दायित्व बोध मौजूद है । यह नैतिकता स्थूल विधि-निषेध पर आधारित न होकर सामाजिक कल्याण की भावना से आप्लावित है । उनके निबंधों के विश्लेषण से पता चलता है कि साहित्यालोचन के लिए केवल साहित्यिक रुचि ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि साहित्यिक रुचि भी सामाजिक कल्याण के नैतिक दायित्व-बोध से उपजती है । इसके अभाव में आलोचना काव्य-कला की पहचान की रीतिवादी रुचि में पतित हो जाने के लिए मजबूर है और साहित्येतिहास भी कवि कीर्तन मात्र रह जाएगा ।

आचार्य शुक्ल के साहित्यालोचन के मूल में पूंजीवाद से उत्पन्न व्यक्तिबद्धता और स्वार्थ के बोलबाले तथा समाज के स्वस्थ संचालन के लिए आवश्यक सहज मानवीय गुणों की जगह लोभ की प्रतिष्ठा के प्रति उनकी नैतिक आलोचना है । ठोस रूप से कहें तो ब्रिटिश उपनिवेशवाद में इस पूंजीवादी लोभ को संस्थाबद्ध रूप प्राप्त हुआ था इसलिए इसकी आलोचना भी उनके काव्यालोचन की अंतर्धारा है । सभ्यता को वे मनोभावों पर ‘आवरण’ डालने वाली चीज समझते थे और कविता को मनोभावों के सहज प्रकटन का माध्यम मानते थे । इस मामले में उन्होंने अपने समय में उठ रही स्वाधीनता की आकांक्षा का साथ दिया । तभी वे अपने समय की काव्य प्रवृत्ति (छायावाद) की पृष्ठभूमि का निरूपण करते हुए यह चिन्हित कर सके कि उस समय हमारे देश का स्वाधीनता आंदोलन, स्वतंत्रता के एक विश्वव्यापी उभार के अंग के रूप में दिखाई पड़ा । आचार्य रामचंद्र शुक्ल की आलोचना की इन्हीं विशेषताओं के कारण हिंदी की प्रगतिशील आलोचना ने आम तौर पर उसे विरासत के रूप में ग्रहण किया और आगे बढ़ाया ।                           

Saturday, January 3, 2015

युवा मार्क्स : एक अध्ययन

                   
कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से एक पुस्तक शृंखला की शुरुआत हुई हैआइडियाज इन कांटेक्स्ट इसका मकसद उन विचारकों के बारे में किताबों का लेखन/प्रकाशन है जिनके विचारों के संदर्भ वर्तमान समय में कारगर हैं इसी योजना के तहत 2007 में आक्सफ़ोर्ड के मेंसफ़ील्ड कालेज में राजनीतिक सिद्धांतों के अध्यापक डेविड लियोपाल्ड ने लगभग 340 पृष्ठों की किताब लिखी है यंग कार्ल मार्क्स मार्क्स के सिलसिले में युवा और परिपक्व का भेद फ़्रांसिसी विद्वान लुई अल्थुसर ने किया था और उनकी इस विवादास्पद धारणा को आम तौर पर स्वीकार नहीं किया जाता, लेकिन मार्क्स के लेखन में आर्थिक निर्धारण के विरोधी उनके शुरुआती लेखन के विश्लेषण पर अधिक जोर देते हैं । लेखक ने मार्क्स के शुरुआती लेखन में अपनी रुचि का कारण इस लेखन की अनेकार्थता और अपूर्णता बताया है । मार्क्स के इस लेखन में वे सूत्र दिखाई पड़ते हैं जिनका उन्होंने आगे विकास किया । इस लेखन का धीरे धीरे आविष्कार हुआ है । शुरू में जब मार्क्स के लेखन के महत्वपूर्ण हिस्से प्रकाशित होने लगे तो इस किस्म के लेखन का या तो पता नहीं था या उसके महत्व को लेकर हिचक थी ।
मार्क्स के इस किस्म के लेखन का पता न होने का सबसे बड़ा कारण यह था कि उन्होंने अपनी हस्तलिखित पांडुलिपियों को तो सुरक्षित रखा लेकिन प्रकाशित लेखन को सुरक्षित नहीं रखा । ऐसी नोटबुकों की संख्या 200 है । 1840 का दशक उनके लिए बेहद उथल पुथल भरा था । इस दशक के अंत में (1849) लंदन में बसने से पहले वे जर्मनी, फ़्रांस और बेल्जियम में भटकते रहे थे । मेगा के प्रकाशन के हालिया कोशिशों के चलते लगातार सामग्री प्रकाश में आ रही है । उनके देहांत के 50 साल बाद ही शुरुआती लेखन का पता लगना शुरू हो सका । तब तक सोवियत संघ की स्थापना हो चुकी थी इसलिए एक खास तरह का मार्क्सवाद निर्मित हो चुका था । इसके विरोध में शुरुआती लेखन की खोज और प्रकाशन का उत्साह प्रकट होता था । इस होड़ में 1844 की पांडुलिपियों के दो अलग अलग संस्करण प्रकाशित हुए । समग्र में संग्रहित पाठ ज्यादा आधिकारिक था लेकिन स्वतंत्र रूप से दो संपादकों की ओर से प्रकाशित संस्करण का व्याख्यापरक महत्व अधिक था ।   
मार्क्स के इस शुरुआती लेखन के न मिलने का एक कारण यह भी था कि ‘हेगेल के अधिकार दर्शन की आलोचना’ और ‘1844 की पांडुलिपियां’ जैसी किताबें प्रकाशित होने के लिए लिखी ही नहीं गई थीं । ‘पवित्र परिवार’ का प्रकाशन तो हुआ था लेकिन कोई प्रति खुद मार्क्स के पास ही नहीं बची थी । 1920 में फ़्रांज मेहरिंग ने एक संग्रह में सबसे पहले इसे शामिल किया । 1927 में जब डेविड रियाजानोव ने पहली बार समग्र छापने की योजना बनाई तो उपर्युक्त तीनों किताबें सामने आईं । इस बार समग्र छापने के क्रम में नोटबुकों का प्रकाशन सबसे महत्व की बात है ।
लियोपाल्ड ने ‘1844 की पांडुलिपियां’ के अध्ययनों के सिलसिले में मार्शल बेर्मान वाली किताब (एडवेंचर्स इन मार्क्सिज्म) का जिक्र किया है । उनका कहना है कि इसके बहुत पहले 1932 में जर्मन अस्तित्ववादी दार्शनिक हाइडेगर के शोध छात्र और पश्चिमी मार्क्सवाद के प्रमुख सिद्धांतकार हर्बर्ट मार्क्यूज ने इस किताब की समीक्षा लिखी थी । इस समीक्षा में उन्होंने इस किताब को मार्क्सवाद की समझ के लिहाज से क्रांतिकारी घोषित किया था । मार्क्यूज और बेर्मान के लेखन से पता चलता है कि कुछ मार्क्सवादियों के लिए यह किताब ‘पूंजी’ जैसी ही महत्वपूर्ण है और समाजवाद के ‘सोवियत संघी’ संस्करण के विरोध का साधन है । कुछ लोगों ने एकाधिक मार्क्स की कल्पना भी कर ली थी (युवा और परिपक्व) । अब पुरानी खेमेबंदियों के खात्मे के बाद लियोपाल्ड को लगता है कि वस्तुनिष्ठ ढंग से इस लेखन को मूल्यांकित करने का माहौल बना है ।
लेकिन इसके बावजूद इस लेखन को समझने में कठिनाई कम नहीं हुई है और इसका कारण इस लेखन का प्रकार है । सबसे बड़ी कठिनाई तो मार्क्स की गद्य शैली ही है । एंगेल्स के हवाले से लेखक ने बताया है कि मार्क्स ‘जर्मन दार्शनिक’ की तरह लिखते थे । इसकी भाषा में उस समय प्रचलित बौद्धिक प्रवृत्तियों की प्रधानता मिलती है । इसके अलावे जगह जगह साहित्यिक रचनाओं के टुकड़े भी आते रहते हैं । शैली के अतिरिक्त वर्णित विषय वस्तु भी जटिल है । सामग्री भी बहुविध है । कुछ प्रकाशित चीजें हैं, कुछ प्रकाशित होने के लिए लिखित लेकिन अप्रकाशित निबंध हैं और कुछ ऐसा भी लेखन है जिसे प्रकाशित करने के इरादे से लिखा ही नहीं गया था । समस्या यह है कि इनमें से किसे कितना महत्व दिया जाए । सेंसर के कारण भी बहुत कुछ प्रकाशित न हो सका होगा, इसलिए अप्रकाशित को भी किनारे नहीं किया जा सकता । सबसे महत्वपूर्ण तो वे नोटबुकें हैं जिनका मकसद अपने ही विचारों में स्पष्टता हासिल करना था । अपने ही लिए लिखे हुए का अर्थ दूसरों के सामने बहुधा अनिश्चित होता है । फिर यह लेखन ज्यादातर वाद-विवाद के रूप में है । अक्सर मार्क्स अपनी बात दूसरों के विचारों की आलोचना की मार्फत कहते थे । जिन लोगों के विचारों की आलोचना उन्होंने की वे सभी मार्क्स के मुकाबले स्थापित और वरिष्ठ थे । मार्क्स के लेखन का यह आम तरीका था । वे अपने विचारों का विकास स्थापित विचारों के खंडन के जरिए करते थे । इसीलिए मार्क्स के विचारों की सही समझ के लिए लेखक ने हेगेल, फ़ायरबाख और ब्रूनो बावेर के विचारों को भी विस्तार से प्रस्तुत किया है ।
इसके बाद लेखक ने स्पष्ट किया है कि अपनी किताब में काल की सीमा तो उन्होंने तय की ही है, विषय वस्तु की सीमा भी निर्धारित है । काल की सीमा मार्च 1843 से सितंबर 1845 तक का लेखन है । इसी तरह लियोपाल्ड ने शुरुआती लेखन के सभी विषयों पर विचार करने की जगह कुछेक विषयों को अपनी सुविधा के अनुसार उठाया है । इसमें से पहला विषय है आधुनिक राज्य की उत्पत्ति, उसकी प्रकृति और भविष्य में उसके खात्मे के बारे में मार्क्स का चिंतन । इस पर लिखते हुए लेखक ने राजनीति के बारे में मार्क्स के विवरणों और मानव प्रकृति संबंधी उनकी धारणा के बीच रिश्ता तलाशने की कोशिश की है ।
लेखक को लगता है कि मार्क्स का नाम लेकर शासन करने वाली सत्ताओं के ढहने के बावजूद उनके लेखन में से अप्रत्याशित और विचारोत्तेजक कौंध उभर आती है । अपने समय के नागरिक समाज में व्यक्ति की नियति, आधुनिक राजनीतिक जीवन की उपलब्धियों और असफलताओं का उनका वर्णन तथा मनुष्य के भीतर की संभावनाओं के साकार होने का उनका अब तक अप्राप्त सपना नयी पीढ़ी के लिए आकर्षण का स्रोत है । इस दौर के लेखन में राजनीति, आधुनिकता और मानव स्वभाव के बीच घनिष्ठ संबंध मौजूद है । शुरुआती पत्रकारीय लेखन में प्रशियाई शासन का अधिक जिक्र है लेकिन बाद के दिनों में वे आधुनिक राज्य को पुराने शासन से अलगाने लगे थे । आधुनिक राज्य के विश्लेषण के साथ ही दार्शनिक मानवशास्त्र पर भी विचार चलता रहा । बाद में वे राजनीति के साथ मानव स्वभाव की जगह अन्य समाजार्थिक तत्वों के रिश्ते पर जोर देते दिखाई पड़ते हैं ।
लियोपाल्ड की कोशिश है कि मार्क्स के मशहूर उद्धरणों के दुहराव की जगह कुछ नयी जगहों को वे उद्भासित करें । उनका कहना है कि राज्य और राजनीति के मामले में मार्क्स की धारणाएं, जितना समझा जाता है उससे कहीं अधिक जटिल और सकारात्मक हैं । इसके लिए लेखक ने पहले हेगेल की आलोचना की मार्फत आधुनिक राज्य की उत्पत्ति संबंधी मार्क्स के विचारों को प्रस्तुत किया है । उसके बाद ब्रूनो बावेर की आलोचना के जरिए ‘राजनीतिक मुक्ति’ यानी आधुनिक बुर्जुआ राज्य और राजनीति के सहारे प्राप्य तथाकथित मुक्ति की उपलब्धियों और असफलताओं का मार्क्स का विश्लेषण पेश किया गया है । मार्क्स मानते हैं कि आधुनिक राज्य में सामुदायिकता के मूल्य को मान्यता तो मिली है लेकिन यह सामुदायिकता सीमित और नागरिक समाज में मौजूद अंतर्विरोधों से भरी हुई है । नागरिक समाज में मौजूद व्यक्तिवाद राजनीतिक जीवन में राज्य के अमूर्तन को जन्म देता है । सबके कल्याण की जगह संकीर्ण और विशेष हितों की नुमाइंदगी होने लगती है । अंत में फ़ायरबाख की आलोचना के जरिए भाविष्य में मानव संभावनाओं को साकार करने के मकसद से राज्य के खात्मे के मार्क्स के सपने का खाका खींचा गया है । इन संभावनाओं का विवरण देते हुए मार्क्स भरण पोषण, घर और संबंधों की गर्माहट, उचित पर्यावरण, शारीरिक व्यायाम, साफ सफाइ, यौन संतुष्टि, मनोरंजन, संस्कृति, बौद्धिकता, कलात्मक अभिव्यक्ति और सौंदर्यात्मक परिष्कार की जरूरतों का उल्लेख करते हैं । भविष्य के राजनीतिक समुदाय के यही घटक होंगे जिनके आधार पर मनुष्य की संभावनाओं को पूरी तरह से साकार करना हो सकेगा । इस समाज से राजनीति गायब तो न होगी लेकिन अमूर्त नहीं रह जाएगी । राज्य के कामों में सभी नागरिक भाग लेंगे, उन पर विशेषज्ञों का एकाधिकार नहीं होगा ।   
किताब के अंत में लियोपाल्ड ने इस सवाल पर विचार करते हुए इस तथ्य को रेखांकित किया है कि भविष्य के समाज के बारे में कोई भी ठोस बात कहने से मार्क्स ने जानबूझकर परहेज किया । कुछ लोग उनके समाजवादी समाज को ‘यूटोपिया’ कहते हैं । लियोपाल्ड ने थामस मूर द्वारा प्रयुक्त इस धारणा की भाषाशास्त्रीय व्याख्या करते हुए बताया है कि इसमें नहीं के अर्थ वाला ग्रीक शब्द au और जगह के अर्थ वाला topos शामिल हैं जिसका मतलब हुआ ऐसी जगह जो है नहीं । यह उस खुशहाली भरे समाज (एक काल्पनिक द्वीप) का नाम है जो धरती पर अभी अवतरित नहीं हुआ है । इसे असंभव कल्पना के अर्थ में नहीं समझा जाना चाहिए । जिसको साकर करने के लिए उत्साह के साथ कोशिश की जा सके ऐसे आदर्श के अर्थ में यूटोपिया को मार्क्स सकारात्मक नजरिए से देखते हैं । आधुनिक जीवन के अंतर्विरोधों और अस्वाभाविकता को उजागर करने के लिए वे फ़ूरिए की प्रशंसा करते हैं । लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वे यूटोपिया रचने वालों की आलोचना नहीं करते । काल्पनिक समाजवादियों (सेंट साइमन, फ़ूरिए, ओवेन) के मुकाबले उनके अनुयायियों की शेखचिल्ली योजनाओं से वे अधिक चिढ़ते थे । मूल चिंतकों की समस्यायों को वे तत्कालीन अविकसित ऐतिहासिक परिस्थितियों में निहित मानते थे क्योंकि तब तक बुर्जुआ समाज को बदलने में सक्षम मजदूर वर्ग की चेतना उन्नत नहीं थी । फिर भी वे उनके लेखन का प्रचारपरक महत्व स्वीकार करते थे । वे उनके लेखन में मौजूद वर्तमान की आलोचना को उनके स्वप्निल भविष्य के वर्णन से ज्यादा मूल्यवान मानते थे ।
दुनिया को बदलने का सवाल ही उनमें और यूटोपियाई चिंतकों में साझा था । इसके लिए लोगों को प्रेरित करने के लिए मौजूदा दृष्टिकोण और हालात से ही शुरू करना वे उचित समझते थे और ऐसे समाधान नहीं प्रस्तुत करते थे जिसका इन विचारों और संदर्भों से कोई संबंध ही न हो । यूटोपियाई लोग किसी तैयारशुदा दुनिया के सहारे इस दुनिया का विरोध करते थे । मार्क्स इस काम के लिए तत्कालीन धार्मिक और राजनीतिक विचारों से संवाद की वकालत करते थे । इनके बीच का यह अंतर बहुत महत्व का था । दूसरी बात कि यूटोपियाई लोग भविष्य की दुनिया का पूर्वानुमान लगाते थे जबकि मार्क्स का जोर पुरानी दुनिया में नयी दुनिया और भविष्य की खोज पर था । नयी दुनिया कहीं और से उतरेगी नहीं, बल्कि पुरानी दुनिया में से ही निकलेगी । इसीलिए अपना राजनीतिक काम उन्होंने चलायमान संघर्षों को  उनकी परिणति तक पहुंचाना समझा । मानव समाज की राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं का समाधान एक ऐतिहासिक प्रक्रिया में होगा । सामाजिक बदलाव की मुश्किलों को उन्होंने कभी कम करके नहीं आंका लेकिन इन मुश्किलों के दूर होने का भरोसा उन्हें हमेशा रहा । उन्हें विश्वास था कि जो जरूरी है वह पैदा होगा । भविष्य का समाज ऐसा फल है जो वर्तमान के गर्भ में पलता है । समाज के सामने उपस्थित चुनौतियों का समाधान कोई व्यक्ति नहीं खोजेगा, बल्कि ऐतिहासिक प्रक्रिया में उसके समाधान को पहचानने और उसे फलीभूत करने में मदद करेगा ।         
लियोपाल्ड को उम्मीद है कि हमारे समय में नागरिक समाज में व्यक्ति की जो स्थिति है, आधुनिक राजनीतिक जीवन की जो सफलताएं-असफलताएं हैं और मनुष्य की जो संभावनाएं प्रकट होने के लिए विकल हैं उनके मद्दे नजर मार्क्स के आरंभिक लेखन के अध्ययन में ढेर सारी अंतर्दृष्टियों और उद्भासों की जगह है ।