Sunday, May 22, 2016

क्रांति और विद्रोह का विश्व कोश


2009 में विली-ब्लैकवेल से इमानुएल नेस के संपादन मेंद इंटरनेशनल एनसाइक्लोपीडिया आफ़ रेवोल्यूशन ऐंड प्रोटेस्ट: 1500 टु द प्रेजेन्टका प्रकाशन हुआ । इमानुएल नेस इसके मुख्य संपादक हैं । उनके अतिरिक्त बारह लोग संपादक मंडल के सदस्य हैं । सहायक और सलाहकार संपादकों की संख्या अड़तालीस है । इस कोश में लेखन के जरिए सहयोग देने वालों की तादाद लगभग एक हजार है । संपादक का कहना है कि इस कोश का निर्माण क्रांति अध्ययन नामक एक नए अनुशासन की स्थापना   के मकसद से किया गया है । इसमें दुनिया के लगभग प्रत्येक हिस्से से लोगों को लेखन और संपादन में शामिल किया गया है । इसमें इतिहास, आधुनिकता, आर्थिक स्थिति, राजनीति और सामाजिक विकास आदि की अंत:क्रिया को क्रांति, प्रतिरोध और सामाजिक आंदोलनों के नजरिए से देखा गया है । इसी के चलते इस कोश के लेखक इतिहास, राजनीति, समाजशास्त्र, क्षेत्र  अध्ययन, मानव विज्ञान, अर्थशास्त्र, दर्शन, कला, भाषा और पत्रकारिता जैसे अनुशासनों से संबद्ध हैं । कोशिश की गई है कि पाश्चात्य या साम्राज्यवादी पूर्वाग्रह इस कोश में न रहे ।
इस कोश के निर्माण के पीछे पिछले कुछ दशकों में विश्व इतिहास का अध्ययन के विशेष क्षेत्र के रूप में उभार है और इसके संदर्भ में विभिन्न अनुशासनों, इलाकों और महाद्वीपों के बीच लाभदायक संवाद स्थापित हुआ है । ऐतिहासिक बदलाव को समझने की तुलनात्मक दृष्टि विकसित हुई है जिसे विभिन्न सैद्धांतिक, पद्धति-वैज्ञानिक, धारणात्मक और शैक्षणिक सरोकारों से मदद मिली है । शोध के लिए राष्ट्रवाद, वर्ग- निर्माण, नृजातीयता, क्षेत्रीयता आदि उपकरणों की परीक्षा तो हो रही है लेकिन क्रांतिकारी आंदोलनों और प्रभुसत्ता को चुनौती देने वाले प्रतिरोधों के प्रभाव पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है । बहुत हुआ तो बाजार और तकनीक के चलते होने वाले आधुनिकीकरण और पारदेशीय आर्थिक एकीकरण की बात कर ली जाती है । जबकि क्रांतियों और प्रतिरोधों ने दुनिया के हरेक हिस्से में मानव सभ्यता को बदला है । उन्होंने शासनों और समाजों के उदय और रूपांतरण में, युद्ध और शांति में, ज्ञान के उत्पादन और आध्यात्मिक परंपराओं के प्रकटन में तथा अतीत की प्रस्तुतियों में केंद्रीय भूमिका निभाई है । मानव इतिहास उन्हीं की राह चला है, इनसे युग बदले हैं और सीमाओं में फेरबदल हुए हैं ।
सत्ता और प्रगति, कानून और न्याय, स्वतंत्रता और मुक्ति की हमारी ऐतिहासिक समझ इनसे निर्मित होती है । लोकतंत्र, समानता, नागरिक अधिकार, सहकारिता, शांति और पारिस्थितिकी जैसे महान विचारों को इनसे शक्ल मिली है । दर्शन, अर्थशास्त्र, सरकार, श्रम, सामाजिक संबंध और पारिस्थितिकी के विकास को समझना असंभव होगा अगर हम इनको गढ़ने में क्रांतियों और प्रतिरोधों की भूमिका को नहीं समझें । पिछले पांच सौ सालों में जो भी प्रगतिशील सामाजिक बदलाव आए हैं उनका कारण शासकों की दरियादिली नहीं, बल्कि शासितों के प्रतिरोध रहे हैं । राज्य और प्रशासन से बाहर की मानव गतिविधि ही सामाजिक रूपांतरण का प्रमुख चालक रही है ।       
क्रांति और प्रतिरोध को आम तौर पर असामान्य और व्यतिरेकी तथा क्रमभंग जैसी घटना माना जाता है जबकि इस कोश को देखने से लगता है कि इन विस्फोटक घटनाओं में एक निरंतरता है । समूचा अतीत सामाजिक टकराव और प्रतिरोध से निर्मित घटना प्रवाह दिखाई पड़ता है । ये न केवल महत्वपूर्ण हैं बल्कि आधुनिक इतिहास और सामाजिक विज्ञान की सही समझ के लिए अनिवार्य हैं । समाज के शक्तिशाली तबकों के जड़ जमाए हितों को लाभ पहुंचाने वाले सामाजिक व्यवहार और पारंपरिक आचरण को क्रांतियों से धक्का लगता है । आधुनिक इतिहास को गति देने में सक्षम इस सामाजिक आलोड़न को परिभाषित करना मुश्किल है । प्रत्येक क्रांति पहले से चली आ रही परिभाषा को तोड़कर नयी परिभाषा गढ़ती है । क्रांतियों का औचित्य खास राजनीतिक विचारधारा और सामाजिक न्याय की धारणा में निहित होता है । न्याय, समानता और अधिकारों के लिए मनुष्य की लड़ाई में सत्ता के विरुद्ध प्रतिरोध का नैतिक आधार मौजूद है ।
प्रतिरोध की विचारधारा का फलक राजनीतिक अधिकारों से लेकर वामपंथ तक विस्तृत है । अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी की बुर्जुआ क्रांतियों के दौरान निजी संपत्ति के अधिकारों की रक्षा के लिए उदारवादी विचारों की शरण ली गई, इसी को आगे बढ़ाते हुए सारी संपत्ति पर जनता के सामूहिक अधिकार का विचार आया ताकि वास्तविक सार्वभौमिक समानता हासिल हो । उन्नीसवीं सदी में पूंजीवाद के विरोध में समाजवादी लोगों ने निजी स्वामित्व के गंभीर परिणामों पर हमला बोला क्योंकि इससे बहुसंख्यक आबादी के सम्मानपूर्ण जीवन के अधिकार का उल्लंघन होता था । अराजकतावादियों, उदारवादियों, समाजवादियों और कम्यूनिस्टों ने अधिक समान और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के मकसद से पूंजीवाद को क्रांति के जरिए उलट देने का औचित्य साबित किया । समानता और अधिकार के लिए नस्ल, लिंग, धर्म, नृजाति और राष्ट्र की पहचान के आधार पर होने वाले उत्पीड़न के विरुद्ध प्रतिरोध चल रहे हैं । इसी के साथ यौन जीवन संबंधी और राजनीतिक विश्वास आधारित दमन का प्रतिरोध भी जारी है । जिन तरीकों से प्रतिरोध हो रहे हैं उनका भी जायजा इसमें लिया गया है । इनमें हिंसक तरीकों के अतिरिक्त अहिंसक तरीकों को भी परखा गया है । अवज्ञा संबंधी इन तरीकों में भूख हड़ताल, वैकल्पिक समुदायों या जीवन शैलियों की स्थापना, पर्चेबाजी, जुलूस, आमसभा, परेड, प्रदर्शन, बायकाट, कामबंदी, हड़ताल, धरना, झंडा, बैनर, मुखौटे, गीत-संगीत, नाटक, चित्रकारी आदि हैं । हिंसक तरीकों में विद्रोह, गुरिल्ला युद्ध, तख्ता पलट, मुक्ति सेना आदि को आजमाया गया है ।

लगभग चार हजार पृष्ठों के इस कोश के आठ खंड हैं । पहले खंड में मुख्य संपादक की भूमिका के अलावे सभी संपादकों और लेखकों का परिचय है । क्रांति और प्रतिरोध की घटनाओं की कालानुक्रमणिका के साथ नक्शे और शब्दावली भी हैं । स्वाभाविक रूप से इसके बाद जगह की कमी के चलते केवल अंग्रेजी के ए और बी अक्षरों की प्रविष्टियों को इसमें शामिल किया जा सका है । दूसरे खंड में सी और डी से शुरू होने वाली प्रविष्टियां, तीसरे खंड में ई से लेकर एच तक की, चौथे खंड में आइ से लेकर एल तक की, पांचवें खंड में एम से पी तक, छठवें खंड में क्यू से एस तक की, सातवें में शेष सभी अक्षरों की तथा आखिरी आठवें खड में खोज में सहायता के लिए नामानुक्रमणिका है ।  

Monday, May 9, 2016

छायावाद: एक प्रवेशिका

                 
                                                             
हिंदी में छायावाद शायद भक्ति साहित्य के बाद सृजनात्मकता की दृष्टि से सर्वाधिक उर्वर साहित्यिक काल रहा है । नामवर सिंह ने अपनी किताबआधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियांकेछायावादशीर्षक अध्याय में इस काल की सीमा तय करते हुए सुमित्रानंदन पंत के दो काव्य-संग्रहों के प्रकाशन वर्ष का उल्लेख किया है । उनके अनुसारछायावाद विशेष रूप से हिन्दी साहित्य केरोमांटिकउत्थान की वह काव्यधारा है जो लगभग ईसवी सन 1918 से ’36 (‘उच्छ्वाससेयुगान्त’) तक की प्रमुख युगवाणी रही---उन्होंने इस साहित्यिक आंदोलन के प्रमुख कवियों के रूप मेंप्रसाद, निराला, पंत, महादेवी प्रभृति मुख्य कविका नाम गिनाया है । लेकिन उस कालखंड में केवल कवि ही नहीं थे । कहा जा सकता है कि न केवल उपर्युक्त प्रसिद्ध कवियों की मौजूदगी के चलते, बल्कि उनके साथ प्रेमचंद जैसे उपन्यासकार और रामचंद्र शुक्ल जैसे आलोचक और साहित्येतिहासकार ने इस समय को रचनात्मक गहमागहमी से भर दिया था । आधुनिक हिंदी के साहित्यांदोलनों में छायावाद सतही तौर पर अपने समय की राजनीतिक-सामाजिक हलचलों से सबसे दूर महसूस होता है लेकिन इसने तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक हलचलों को सबसे तीक्ष्ण और गहन अभिव्यक्ति दी । यहां तक कि छायावाद के विरोधी के रूप में विख्यात आलोचक रामचंद्र शुक्ल ने भी इसकी राजनीतिक पृष्ठभूमि की विशिष्टता व्याख्या करते हुए इस बात को रेखांकित किया कि तृतीय उत्थान में आकर परिस्थिति बहुत बदल गई, आंदोलनों ने सक्रिय रूप धारण किया और गांव-गांव राजनीतिक और आर्थिक परतंत्रता के विरोध की भावना जगाई गई ।उनका यह भी कहना था किअब जो आंदोलन चले वे सामान्य जन समुदायों को भी साथ लेकर चले । सबसे बड़ी बात यह हुई कि आंदोलन संसार के और भागों में चलने वाले आंदोलनों के मेल में लाए गए, जिससे ये क्षोभ की एक सार्वभौम धारा की शाखाओं से प्रतीत हुए ।परोक्ष रूप से वे उपनिवेशवाद विरोधी (साम्राज्यवाद विरोधी) अंतर्राष्ट्रीय गोलबंदी का प्रतिनिधित्व और उसकी अभिव्यक्ति छायावाद में देख रहे थे । अगर ठीक ठीक कहना हो तो असहयोग आंदोलन के आरंभ से लेकर प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना तक का कालखंड छायावाद का समय माना जा सकता है ।
असहयोग आंदोलन अपनी लाख कमजोरियों के बावजूद जनता की स्वाधीनता आंदोलन में भागीदारी के लिहाज से तब तक की सबसे बड़ी जन गोलबंदी थी । साथ में ही चले खिलाफ़त आंदोलन ने इसकी व्यापकता को नये आयाम दिए । खिलाफ़त आंदोलन तुर्की की खलीफ़ा की गद्दी को अंग्रेजों द्वारा खत्म करने के विरोध में शुरू किया गया था और इसमें भारत के मुसलमान बड़े पैमाने पर शरीक हुए थे । 1857 के विद्रोह के बाद पहली बार हिंदू और मुसलमान एक साथ इस दौरान अंग्रेजों के शासन के विरुद्ध लड़े । इस व्यापक जन भागीदारी ने साहित्य लिखने वालों पर गहरा रचनात्मक प्रभाव डाला । छायावादी कविता में देशभक्ति की अभिव्यक्ति पर ठीक से विचार नहीं हुआ है लेकिन अनायास नहीं कि जयशंकर प्रसाद नेहिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती/ स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती/ अमर्त्य वीर पुत्र हो दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो/ प्रशस्त पुण्य पंथ है बढ़े चलो बढ़े चलो ।जैसा प्रयाण गीत लिखा । निराला ने भी थोड़ा आध्यात्मिक रंग लिए हुएजागो फिर एक बारजैसी कविताओं यावर दे वीणावादिनि वर देजैसे गीतों में प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव/ भारत में भर देकहकर देश की बात की । महादेवी केपंथ रहने दो अपरिचित, प्राण रहने दो अकेलाजैसे गीत में ओज और उत्साह का स्रोत स्वाधीनता आंदोलन ही है । इन सभी लेखकों में गद्य की मात्रा और गुण काव्य से हीनतर नहीं रहा है और कुछ अपवादों को छोड़कर इन लेखकों का गद्य अपने समय की व्यापक सामाजिक राजनीतिक हलचलों से प्रभावित रहा है । इन घोषित कवियों के अलावा प्रेमचंद के लेखन में सामाजिक और राजनीतिक मुक्ति का समर्थन अर्थात सामंतवाद और साम्राज्यवाद के समेकित विरोध का तथ्य हिंदी के सामान्य पाठक के लिए भी अनजाना नहीं है । आचार्य शुक्ल के सिलसिले में भी इस बात के पर्याप्त साक्ष्य प्रस्तुत किए जा सकते हैं कि उनका लेखन और चिंतन अपने समय के सामाजिक राजनीतिक वातावरण से प्रभावित रहा था । हिंदी साहित्य का इतिहासमें आधुनिक काल के साहित्य का विवेचन करते हुए उसकी पृष्ठभूमि के रूप में उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन का जिक्र तो किया ही है, निबंधों में भी यथावसर देशप्रेम का महत्व उजागर किया है ।असहयोग आंदोलन और अव्यापारिक श्रेणियांशीर्षक से लिखा उनका एक लेख भी उनकी सचेतनता का सबूत है । वस्तुत: ऊपर वर्णित चार कवियों को ही छायावाद के भीतर शामिल करने से इनकी कविताओं की भी अनेक विशेषताओं को समझना मुश्किल हो जाता है । 
इस साहित्यिक आंदोलन का नामकरण भी विचारणीय है । ध्यातव्य है कि किसी भी छायावादी साहित्यकार ने अपने आपको छायावादी नहीं कहा । यह नाम, बल्कि बदनाम, उसके विरोधियों का दिया हुआ है । कहा गया कि हिंदी में यह बांग्ला कविता का प्रभाव है यानी बांग्ला की हिंदी में छाया इस काव्यांदोलन के जरिए प्रकट हो रही है । उसका दूसरा अर्थ यह कहकर निकाला गया कि जिस तरह छाया में कुछ भी ठोस नहीं होता उसी तरह इनकी कविताओं में भी कोई ठोस अर्थ नहीं है । जिस तरह छाया पकड़ में नहीं आती उसी तरह इनका अर्थ भी उड़ता फिरता है । जयशंकर प्रसाद ने इन नकारात्मक अर्थों को उलटकर छाया का एक और ही अर्थ करते हुए इस शब्द को इन कविताओं की खूबी का द्योतक बना दिया । उन्होंने कहा कि मोती की तरलता को उसकी छाया कहा जाता है । इसी तरह जब कविता में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ में एक तरल कांति उत्पन्न हो जाती है यानी जब कविता में प्रयुक्त शब्दों में उनके सामान्य अर्थ के अतिरिक्त अर्थ पैदा होने लगते हैं तो ऐसी कविता को छायावादी कविता कहना चाहिए ।
आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियांमें नामवर सिंह ने बताया है किछायावादसंज्ञा का प्रचलन 1920 ईसवी तक हो चुका था । इसका प्रमाण जबलपुर की पत्रिकाश्री शारदामें मुकुटधर पांडेय की लेखमालाहिंदी में छायावादके प्रकाशन से मिलता है । इस लेखमाला के एक लेख ‘काव्य स्वातंत्र्य’ में उन्होंने लिखा “यह बीसवीं शताब्दी स्वतंत्रता और नवीनता का युग है । नए-नए विचारों ने आज पृथ्वी पर एक बड़ा भारी परिवर्तन खड़ा कर दिया है ।-----विज्ञान के इस नए युग में लोग देश-जाति के प्राण स्वरूप साहित्य से उदासीन रहें- भला यह कैसे संभव है ।” इसी बदलाव के भीतर छायावाद को भी अवस्थित करते हुए उन्होंने लिखा “साहित्य में इस समय जो-जो क्रांतियां हो रही हैं उनमें छायावाद भी एक है ।”
यह बदलाव सबको नहीं भा रहा था । ज्योति प्रसाद मिश्र निर्मल ने जून 9124 कीमनोरमामेंहिंदी कविता की गतिशीर्षक लेख में लिखाजिन दिशाओं से यह नूतन लालिमा दृष्टिगोचर हो रही है, वह बंगला और अंग्रेजी है, और यदि हम इतना कहने का साहस करने के लिए क्षमा किए जाएं तो यह स्पष्ट निवेदन करेंगे कि हमारे अधिकांश परिवर्तनवादी कवि बंगला के उत्कृष्ट कवियों की प्रतिभा से प्रतिभायुक्त, तपस्या से तपस्वी और साधना से साधक बन रहे हैं ।निर्मल जी ने निराला की कविता का उदाहरण दिया था इसलिए यह बहस बहुत तीखे ढंग से चली कि निराला ने रवींद्रनाथ ठाकुर की कविता की नकल की है । निराला की कविता के ही प्रसंग में छंद संबंधी बहस भी चली ।मतवालामें 1924 में ही नवजादिक लाल श्रीवास्तव ने इस प्रसंग में निराला की ओर से लिखाजब कविता धाराप्रवाह निकलने लगती है उस समय कवि का ध्यान तुक की ओर नहीं रहता, वह भावों का ही अनुसरण करता है । तुकबंदी कविता की नक्काशी है, वह मुक्त काव्य नहीं । मुक्त काव्य ही कविता का सच्चा स्वरूप है ।खुद निराला ने 1925 केकविमें प्रकाशितकवि और कविताशीर्षक लेख में इस सिलसिले में लिखाजिस तरह मुक्त पुरुष संसार के किसी नियम के वशीभूत नहीं रहते, किंतु उन नियमों की सीमा पार कर सदा मुक्ति के आनंद में विहार करते रहते हैं, उसी तरह मुक्त कवि भी अपनी कविता को पिंगल के बंधन में नहीं रखना चाहते ।छंद की इस बहस ने आज की मुक्त छंद की हिंदी कविता के लिए राह बनाई क्योंकि निराला तथा अन्य छायावाद समर्थकों ने मुक्त छंद की धारणा को इस बहस के सहारे हिंदी में स्थापित कर दिया ।  
यह तो छायावाद का आरंभ था । 1926 में सुमित्रानंदन पंत के काव्य संग्रहपल्लवके प्रकाशन के बाद उसकी कविताओं तथा उसकी भूमिका के चलते छायावाद हिंदी में स्थापित हो गया । इसकी भूमिका में पंत जी ने कविता के लिए ब्रजभाषा बनाम खड़ीबोली के सवाल पर जो बात रखी उसमें यह सवाल मात्र भाषा का नहीं, बल्कि समूचे भावबोध का हो जाता है । ब्रजभाषा में लिखी रीतिकालीन कविता की समस्या थी किइस तीन फुट के नखशिख के संसार से बाहर ये कवि पुंगव नहीं जा सके । हास्य, अद्भुत, भयानक आदि रसों के तो लेखनी को- नायिका के अंगों को चाटते-चाटते, रूप की मिठास से बंध रहे मुंह को खोलने, खखारने के लिए कभी-कभी कुल्ले मात्र करा दिए गए हैं । और वीर तथा रौद्र रस की कविता लिखने के समय तो ब्रजभाषा की लेखनी भय के मारे जैसे हकलाने लगती है ।जबकि समय की मांग ऐसी काव्यभाषा हैजिसके शब्दों में बात-उत्पात, वह्नि-बाढ़, उल्का-भूकंप सब कुछ समा सके, बांधा जा सके, जिसके पृष्ठों पर मानव जाति की सभ्यता का उत्थान-पतन, वृद्धि-विनाश, आवर्तन-विवर्तन, नूतन-पुरातन सब कुछ चित्रित हो सके, जिसकी अलमारियों में दर्शन, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, राजनीति, समाजनीति, कला-कौशल, कथा-कहानी, काव्य-नाटक सब कुछ सजाया जा सके ।पंत जी का कहना था कि ऐसी भाषा खड़ी बोली ही हो सकती है । हिंदी साहित्य में कविता और गद्य की भाषा में अंतर आधुनिक काल की शुरुआत से ही महसूस किया जा रहा था । भारतेंदु जी ने गद्य के लिए तो खड़ी बोली का इस्तेमाल किया लेकिन कविताओं के लिए ज्यादातर ब्रजभाषा का ही प्रयोग किया । द्विवेदी युग से थोड़ा खड़ी बोली में कविता लिखने की कोशिश शुरू हुई लेकिन मैथिलीशरण गुप्त और अयोध्या सिंह उपाध्यायहरिऔधके लेखन में स्वाभाविक काव्य प्रवाह खड़ी बोली में नहीं आ सका था । छायावाद की कविता ने व्यावहारिक धरातल पर भी खड़ी बोली में प्रवाहयुक्त रसमय कविता का मानक स्थापित कर दिया । 
श्री शारदामें प्रकाशित उपर्युक्त लेखमाला के एक और लेखछायावाद क्या हैमें मुकुटधर पांडेय ने छायावाद के लिए प्रयुक्त धारणा रहस्यवाद की भी नींव रख दी थी । उन्होंने लिखा थाअंग्रेजी या किसी पाश्चात्य साहित्य अथवा बंग साहित्य की वर्तमान स्थिति की कुछ भी जानकारी रखने वाले तो सुनते ही समझ जाएंगे कि यह शब्द मिस्टिसिज्म के लिए आया है ।नामवर सिंह नेआधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियांमें शामिलछायावादशीर्षक उक्त लेख में कहा है किपंत केपल्लवऔर प्रसाद केझरनाआदि संग्रहों की कविताओं को 1927 ईसवी तक अंग्रेजी मेंमिस्टिसिज्मऔर हिंदी में कभीछायावादऔर कभीरहस्यवादकहा जाता था ।छायावाद और रहस्यवाद को समानार्थी समझने के कारण ही महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 1927 कीसरस्वतीमेंसुकवि किंकरके छद्म नाम से लिखे लेखआजकल के हिंदी कवि और कवितामें लिखाआजकल जो लोग रहस्यमयी या छायामूलक कविता लिखते हैं उनकी कविता से तो उन लोगों की पद्य रचना अच्छी होती है जो देशप्रेम पर अपनी लेखनी चलाते---हैं ।द्विवेदी जी ने छायावाद के समर्थकों को अपने इस लेख से उत्तेजित कर दिया था । जिन लोगों ने छायावाद के समर्थन में लिखा उनमें कृष्णदेव प्रसाद गौड़ और अवध उपाध्याय ने छायावादी कविता को रहस्यवादी मानकर उसका पक्ष लिया । इसी कारण आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 1929 में एक गंभीर लेख लिखाकाव्य में रहस्यवाद।  
नामवर सिंह का कहना है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा किए गए विवेचन मेंतात्विक दृष्टि से उन रचनाओं कोरहस्यवादकहा जाता था और रूप-विधान की दृष्टि सेछायावाद’ ” । कहने का मतलब कि शुक्ल जी इन कविताओं की अंतर्वस्तु को रहस्यवाद कहते थे और रूप को छायावाद । शुक्ल जी के इस लेख के बाद छायावाद के दो ऐसे समर्थक सामने आए जिन्होंने सहानुभूति के साथ छायावाद का विवेचन-विश्लेषण किया । ये थे नंद दुलारे वाजपेयी और शांतिप्रिय द्विवेदी । नंद दुलारे वाजपेयी ने भी छायावाद और रहस्यवाद को अलग अलग नहीं माना, बल्कि रहस्यवाद के भीतर ही स्वच्छदतावादी कवियों की भी गिनती कर ली ।
1929 के आते आते दिखाई पड़ने लगा कि छायावाद में आगे विकास नहीं हो पा रहा है । ‘विशाल भारत’ के दिसंबर 1929 में श्री ठाकुर प्रसाद शर्मा का लेख ‘छायावाद’ छपा । इसमें उन्होंने छायावाद के भीतर पैदा हो रहे रीतिवाद की चर्चा की और कहा “जैसे ब्रजभाषा की कविता को लट, नीवी, श्रमविंदु इत्यादि से उद्धार करने की आवश्यकता है, वैसे ही मैं समझता हूं कि छायावादी कविता को विपंची, हृत्ततंत्री, झंझावात आदि से छुटकारा दिलाने की जरूरत है ।” इसी लेख में उन्होंने एक और आरोप लगाया जो छायावादी कविता के सामाजिक आधार पर अत्यंत विचारणीय टिप्पणी थी । उनके मुताबिक “वर्तमान कविता का जीवन इस्तमरारी बंदोबस्त में मौज करने वाले पढ़े-लिखे जमींदार का जीवन है ।” छायावादी कविता की सीमाओं के बारे में उस समय के आलोचक तो सतर्क थे ही, खुद छायावादी लेखकों ने भी इन सीमाओं को समझकर अपने लेखन में नवीन मार्ग अपनाना शुरू किया । निराला ने कविता में ‘नए पत्ते’ संग्रह में नई जमीन तोड़ी । उन्होंने गद्य में भी इस बदलाव को स्वर दिया और ‘कुल्ली भाट’ और ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ जैसे यथार्थवादी उपन्यास लिखे जयशंकर प्रसाद का उपन्यास ‘कंकाल’ भी इसी नए चेतना का परिचायक था । महादेवी ने कविताओं/गीतों की जगह गद्य लिखने में ताकत लगाई । सुमित्रानंदन पंत कविता लिखते तो रहे लेकिन कोई नवीनता नहीं प्रकट हो पा रही थी । सामाजिक राजनीतिक हालात में बदलाव तथा वैचारिक वातावरण में परिवर्तन के चलते छायावाद का अतिक्रमण करके हिंदी साहित्य में कुछ नई साहित्यिक प्रवृत्तियों का आगमन हुआ जिनकी चरम परिणति प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना और प्रगतिवाद की स्थापना में हुई ।
अलबत्ता शांतिप्रिय द्विवेदी ने 1934 में प्रकाशित अपनी पुस्तकहमारे साहित्य निर्मातामें छायावाद कोलौकिक अभिव्यक्तिमाना और रहस्यवाद कोअलौकिक। इस तरह उन्होंने इन दोनों के बीच अंतर माना और कहाजिस प्रकारमैटर आफ़ फ़ैक्टके आगे की चीज छायावाद है, उसी प्रकार छायावाद के आगे की चीज रहस्यवाद है । छायावाद में यदि एक जीवन के साथ दूसरे जीवन की अभिव्यक्ति है अथवा आत्मा के साथ आत्मा का सन्निवेश है, तो रहस्यवाद में आत्मा का परमात्मा के साथ ।शांतिप्रिय द्विवेदी ने रहस्यवाद को न केवल छायावाद से भिन्न माना बल्कि रहस्यवाद का समर्थन भी नहीं किया ।    
वैसे तो आम तौर पर लेखकों में तुलना और किसी को ऊंचा या नीचा कहना ठीक नहीं होता लेकिन यह समय वास्तव में ऐसा था जब एकाधिक लेखक समान ढंग से महत्वपूर्ण थे और उन सबका स्वतंत्र व्यक्तित्व था । जितने प्रमाण हैं उससे लगता है कि इनमें आपसी ईर्ष्या द्वेष भी अपेक्षाकृत कम था ।
इनमें सबसे अधिक गहराई जयशंकर प्रसाद में थी । काव्य लेखन की शुरुआत ब्रजभाषा से करने के बावजूदकामायनीके रूप में उन्होंने सबसे लंबी काव्य-यात्रा तय की । बीच में उनका खंड-काव्य आंसूहै जिसकी प्रसिद्धि गेयता के चलते उस दौर में बहुत थी । इसमें प्रेम की असफलता से पैदा उदासी ऐसी चित्रात्मक भाषा में व्यक्त की गई थी कि युवकों को बेहद आकर्षित करती थी । ऐसे बांध लेने वाले टुकड़े कामायनीमें भी हैं लेकिन उसका सौंदर्य आधुनिक जीवन की विडंबना-‘ज्ञान-क्रिया-इच्छाके बीच के संबंध-विच्छेद- को उठाने में निहित है । अकेले इसी महाकाव्य का विश्लेषण अनेक आलोचनात्मक और व्याख्यात्मक पुस्तकों में किया गया है । इस महाकाव्य के अलग-अलग सर्ग स्वतंत्र रूप से सम्मोहित करने में सक्षम हैं । श्रद्धा का उद्बोधन शक्ति के विद्युतकण जो व्यस्त/विकल बिखरे हैं हो निरुपाय/ समन्वय उनका करे समस्त/विजयिनी मानवता हो जायनवजागरण का घोष प्रतीत होता है । किसी मनोभाव को पात्र बनाकर उसकी मूर्ति खड़ी कर देने के मामले मेंकामायनीका लज्जा सर्ग अप्रतिम है । काव्य-व्याख्या के लिए जयशंकर प्रसादन केवल चुनौतीपूर्ण हैं, बल्कि मन लगाने वाले भी । उनकी बिंबात्मक भाषा ठहरकर अर्थ खोलने की मांग करती है । नाटक के क्षेत्र में उन्होंने नाटक तो लिखे ही उन पर सैद्धांतिक विचार भी किया । इनके नाटक ऊपर से प्राचीन भारत के शासकों की प्रशंसा प्रतीत होते हैं लेकिन उनके भीतर प्रवेश करते ही हमें दरबारों की गलाजत का चित्रण मिलने लगता है । अंतिम नाटक ध्रुवस्वामिनीमें तो तलाक लेने का अधिकार स्त्री को दिया गया है । उनके नाटकों और कहानियों में मनुष्य के भाग्य के उत्थान पतन को इतने ज्यादा समाजैतिहासिक तत्वों के साथ गूंथ दिया गया है कि प्रसाद जी दार्शनिक के रूप में नजर आने लगते हैं । उन्होंने हेगेल को उद्धृत किया है जिससे लगता है कि उन्होंने इतिहास संबंधी हेगेल की मान्यताओं को अच्छी तरह समझा था । इतिहास की यह परिष्कृत समझ उनकी अनेक कहानियों में भी दिखाई पड़ती है । आचार्य शुक्ल ने साम्यवाद से उनके परिचय की ओर भी इशारा किया है । प्रसाद जी की कहानियों की विशेषता के कारण ही बहुत कम कहानियों के बावजूद हिंदी कहानी केप्रसाद स्कूलकी बात की जाती है । उनकी कहानियों में नाटकीयता का तत्व पाठक का ध्यान खींचता है । इस नाटकीयता के सृजन के लिए वे मनोभावों के टकराव का चित्रण करते हैं । खासकर आकाशदीपमें प्रेम और स्वाधीनता के टकराव को जितनी तीक्ष्णता से उन्होंने उठाया है वह उनकी आधुनिक दृष्टि का परिचायक है । ममतामें वे इस्लाम के सवाल पर अपने समय से बहुत आगे नजर आते हैं । पात्रों के मामले में धर्म की जगह उनकी राष्ट्रीयता को उद्धृत करना उन्हें बेहद विशिष्ट बना देता है । व्यवस्थित आलोचक न होने के बावजूद उनमें आलोचकीय सूझ बहुत थी । प्रगतिवाद को लघुता की ओर दृष्टिपातकहकर उन्होंने इसकी संक्षिप्ततम परिभाषा की । नाटक और रंगमंच के रिश्ते को उन्होंने यह कहकर सूत्रबद्ध किया कि रंगमंच नाटक के लिए होता है। रसाभास के प्रसंग में उन्होंने शुक्लजी से टक्कर ली । भारतीय काव्यशास्त्र के बारे में भी उन्होंने मौलिक स्थापनाएं प्रस्तुत कीं और रसतथा अलंकारको ही मूल धारा मानते हुए अन्य संप्रदायों को इन्हीं के मिश्रण से उत्पन्न बताया । कविता को आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूतिकहना अब भी व्याख्या की दरकार रखता है । संकल्पात्मक में संकल्प की जगह कल्पना का अर्थ लेने से इस सूक्ति का अर्थ खुलता है ।          
जयशंकर प्रसाद के बारे में यह धारणा सही है कि वे दार्शनिक कवि थे । मुक्तिबोध ने यह बात कही है । खासकरकामायनीमें वे आधुनिक सभ्यता की मौलिक समस्या को उठाते हैं । अनेक स्थानों पर उनकी कविता सतही पाठ करने पर तुलसीदास की कविता की तरह धोखा दे देती है । उदाहरण के लिएआंसू से भीगे अंचल पर मन का सब कुछ रखना होगा/ तुमको अपनी स्मिति रेखा से यह संधि पत्र लिखना होगामें लग सकता है कि वे इसकी ताईद कर रहे हैं लेकिन थोड़ा ध्यान देते ही आंख में आंसू और चेहरे पर मुस्कान की मजबूरी की विडंबना सामने आ जाती है । रामस्वरूप चतुर्वेदी ने काम के प्रेम और रति के लज्जा में रूपांतरण को मनुष्य की सांस्कृतिक परिष्कृति के रूप में परिभाषित किया है । देव संस्कृति के नाश को सामंती अतीत के विनाश के रूप में देखना भी गलत नहीं है । आचार्य शुक्ल ने संकेत किया है कि प्रसाद जी साम्यवादी विचारों से प्रभावित थे ।  
स्वाभाविक रूप से प्रसाद के बाद निराला पर ध्यान जाता है । रामविलास शर्मा की लिखी तीन खंडों में प्रकाशितनिराला की साहित्य साधनाइनके जीवन और साहित्य की समझ के लिए सर्वोत्तम पुस्तक है । निराला के प्रत्येक काव्य संग्रह में काव्य-बोध के बदलाव तथा काव्य-कला की नई ऊंचाई पर अनेक आलोचकों ने टिप्पणी की है । नागार्जुन के पहले निराला ही थे जिन्होंने कविता के सीमांत छुए और वहां भी कविता को संभव किया । कविताओं के मामले में उनकी कीर्ति का आधार उनकी लंबी कविताएं हैं ।राम की शक्तिपूजाशीर्षक कविता में उन्होंने माइकेल मधुसूदन दत्त कीमेघनाथ वधकी तरह संस्कृतनिष्ठ पदावली की झड़ी लगा दी ।सरोज स्मृतिशीर्षक कविता उन्होंने अपनी पुत्री के देहांत पर शोकगीत के ढांचे में लिखी । इस कविता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कवि पिता ने अपनी पुत्री का सौंदर्य वर्णन किया है । यह वर्णन कविता की दुनिया में दुर्लभ है । निजी व्यथा को निराला ने सामाजिक और साहित्यिक संघर्ष के साथ गूंथ दिया है । तुलसीदासशीर्षक कविता भक्तिकाल के इस महान कवि के सांस्कृतिक उन्मेष की रचनात्मक व्याख्या है ।कुकुरमुत्ताशीर्षक कविता अभिजात सौंदर्याभिरुचि पर प्रहार है । गीतों की रचना में भी उन्हें बहुत सफलता मिली । इनकी विषयवस्तु भक्ति से लेकर करुणा तक विस्तृत है । उन्होंने कविता से पहले गद्य लिखना शुरू किया था । बाद के उपन्यासों में यथार्थवाद की मौजूदगी को अनेक लोगों ने पहचाना है लेकिन शुरुआती उपन्यासों में भी गहराई है जिसका विश्लेषण अभी नहीं किया गया है । पात्रों के मामले में नौजवानों और स्त्रियों की उपस्थिति उन्हें इस पहलू से भी प्रेमचंद से जोड़ती है । आलोचना भी उन्हें काफी लिखनी पड़ी थी । उनकी कहानियां नये किस्म के कहानी लेखन की संभावना का संकेत करती हैं । निबंधों में गद्य की सृजनात्मकता को पहचानने की जरूरत रामविलास जी ने लक्षित की ही है । आचार्य शुक्ल ने ठीक ही उनकी प्रतिभा कोबहुवस्तुस्पर्शिनीकहा था । नागार्जुन ने स्त्री समुदाय के प्रति उनकी सहानुभूति को ठीक ही लक्षित किया है जो कविताओं के अतिरिक्तदेवीजैसी कहानी में बहुत स्पष्ट रूप से व्यक्त हुई है ।      
महादेवी वर्मा ने कवयित्री के रूप में जो प्रसिद्धि अर्जित की उसके कारण उनका क्रांतिकारी रूप छिप जाता है । महादेवी ने गीतों के लेखन में अपनी काव्य प्रतिभा लगाई । उनके गीतों में दुख की अभिव्यक्ति के बराबर ही उद्बोधन के भाव भी हैं । गद्य लेखन में उनके रेखाचित्रों और संस्मरणों में स्त्रियों-ग्रामीणों और साथी साहित्यकारों के बहुत ही जीवंत चित्र अंकित हुए हैं । इनके अतिरिक्त उनका वैचारिक लेखन भावावेग और सूझबूझ से भरा हुआ है । उनकी किताबश्रृंखला की कड़ियांभारतीय स्त्री पर आरोपित  व्यवस्थित सामाजिक बंधनों का विश्लेषण है । उस समय हिन्दी के पौरुषेय वातावरण में किसी भी स्त्री के लिए अपनी जगह बनाना लगभग असंभव काम था जो महादेवी ने कर दिखाया ।
सुमित्रानंदन पंत की कविताओं ने प्रकृति चित्रण के नाते हिंदी साहित्य में खास जगह बनाई । हिमालय की छवियों के सहारे उन्होंने चित्ताकर्षक प्राकृतिक बिंब उकेरे । इसी कारण उन्हें लोकप्रिय भाषा मेंप्रकृति का सुकुमार कविकहा जाता है । प्रकृति चित्रण के अतिरिक्त उन्होंने वैचारिक कविता भी लिखने की कोशिश की । उनकी इन कविताओं में वैचारिकता की गहराई नहीं है और गांधीवाद, मार्क्सवाद से लेकर अरविंद दर्शन तक को उन्होंने काव्य का विषय बनाया । हिंदी में उत्तर छायावादी दौर में प्रचलित हालावाद का भी उन्होंने अनुकरण करने की कोशिश की ।
इन कवियों के बाहर छायावाद का प्रसार प्रेमचंद के लेखन में भी है । उनके स्त्री पात्रों के गढ़ने में छायावादी संस्कार प्रत्यक्ष हैं । हिंदी कहानी की दुनिया में प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद को विरोधी प्रवृत्तियों का लेखक माना जाता है और इसी आधार पर इन दोनों के नाम पर दो स्कूलों की कल्पना की जाती है । लेकिन खुद प्रेमचंद इस विरोध को तात्विक नहीं मानते थे । उनका मानना था कि वे दोनों आदर्श समाज की इच्छा से यथार्थ का चित्रण करते हैं । स्वाधीनता आंदोलन की दोनों धाराओं- समाज सुधार और राजनीतिक आजादी- का सामंजस्य प्रेमचंद के लेखन में मिलता है ।
रामचंद्र शुक्ल के बारे में यह अपवाद ही है कि वे छायावाद के विरोधी थे । छंद को ध्वनि आवर्तों का पैटर्न मानने में छायावादी काव्य संस्कारों की गूंज है । इसके अतिरिक्तहिंदी साहित्य का इतिहासमें रीतिकालीन कवियों में बिहारी के मुकाबले देव की कविता का पक्ष लेने तथा रीतिमुक्त काव्यधारा में घनानंद की प्रतिष्ठा के पीछे छायावादी काव्य संस्कारों का प्रभाव महसूस किया जा सकता है । कविता की भाषा में लाक्षणिकता का उल्लेख शुक्ल जी ने घनानंद और छायावादी कवियों के ही प्रसंग में किया है । छायावादी कविता की शक्तियों और सीमाओं की सबसे सटीक पहचान आचार्य शुक्ल को थी ।
छायावाद की कोई ऐसी मान्यता निर्मित करना मुश्किल है जिसके भीतर इन सभी रचनाकारों के लेखन की विशेषताएं समा जाएं । फिर भी स्वाधीनता की आकांक्षा, प्रकृति वर्णन, वैयक्तिकता का उभार, मुक्त छंद की स्थापना, मनोभावों का सूक्ष्म चित्रण, स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व की प्रस्तुति, समाज के वंचितों के प्रति सहानुभूति, कल्पना की उड़ान और कविता की भाषा के बतौर खड़ी बोली हिंदी की स्थापना आदि छायावाद की प्रमुख विशेषताएं और योगदान कहे जा सकते हैं । वह समय भारत की आजादी की लड़ाई में व्यापक जनता की भागीदारी का समय था । साथ ही हिंदी क्षेत्र में शहरी मध्यवर्ग का विकास हो रहा था । इस नवोदित मध्यवर्ग का रिश्ता अभी देहाती जड़ों से टूटा नहीं था । अधिकांश लेखक इस मध्यवर्ग का अंग थे । सामाजिक बदलाव की इस मध्यवर्ग की आकांक्षा और हिंदी भाषी समाज के सामंती यथार्थ के बीच की टकराहट छायावाद की शक्ति और सीमा दोनों को रूपायित करती है । इसी के कारण मुक्ति की प्रस्तुति एक तरह के सामाजिक संकोच के साथ साहित्य में आती है । 
सहायक किताबें
रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी
नामवर सिंह, आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
नामवर सिंह, छायावाद, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
शांतिप्रिय द्विवेदी, हमारे साहित्य निर्माता, बांकीपुर
नंददुलारे वाजपेयी, हिंदी साहित्य: बीसवीं शताब्दी, लोकभारती, इलाहाबाद
रामविलास शर्मा, परपंरा का मूल्यांकन, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
रामविलास शर्मा, निराला की साहित्य साधना, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
गोपाल प्रधान, छायावाद युगीन साहित्यिक वाद विवाद, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली
मुकुटधर पांडेय, हिंदी में छायावाद, तिरुपति प्रकाशन, हापुड़

सुमित्रानंदन पंत, पंत ग्रंथावली, राजकमल प्रकाशन

देशप्रेम, देशभक्ति और राष्ट्रवाद

                
                                          
जिस समय हम इस सवाल पर विचार कर रहे हैं, वह समय भी हमारे विचार की दिशा को बहुत कुछ निर्देशित और नियंत्रित कर रहा है यह समय हमारे देश के लिए अब तक का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण समय है पिछले डेढ़ सौ सालों में भारत के पिछड़े हुए समाज को आगे ले जाने की जितनी भी कोशिशें हुई थीं उन सब पर खतरा मंड़रा रहा है इन कोशिशों को आप समाज और राजनीति में लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष से जोड़कर देख समझ सकते हैं यह संघर्ष बहुरंगी और बहुआयामी था इसमें कुछ मोर्चों पर थोड़ा दीर्घकालीन सफलता मिली, कुछ मोर्चों पर निहायत अल्पकालीन लेकिन इन्हीं दीर्घावधि या अल्पावधि तक टिकने वाली सफलताओं ने आज के देश और समाज की तस्वीर बनाई है
आम तौर पर हमारे इस धार्मिक समाज में धर्म की जकड़बंदी और प्रभाव से मुक्त राजनीति का जो आदर्श प्रस्तुत करने की कोशिश की गई थी उसे हमारे राजनेताओं ने शुरू ही नहीं होने दिया । हम सभी जानते हैं कि पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद से लेकर नरसिंहा राव तक उन कांग्रेसी राजनेताओं की लंबी कतार है जो इस या उस धर्म गुरु के प्रति अपनी भक्ति सार्वजनिक रूप से देश के सांविधानिक पदों पर रहते हुए जाहिर करते रहे हैं जिसे हम धर्मनिरपेक्ष राजनीति कहते हैं उसके अमल की जगह धार्मिक भावनाओं को उभारकर जनता को गोलबंद करना भारत की राजनीति का अनिवार्य अंग रहा है भारतीय राज्य आम तौर बहुसंख्यक हिंदू धर्म के रीति-रिवाजों का पालन खुलेआम सांस्कृतिक परंपरा के नाम पर करता रहा है असल में हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता कोसर्व धर्म समभावके रूप में व्याख्यायित किया गया जो बहुत आराम से धार्मिक बहुसंख्या की पक्षधरता में बदल जाता है धर्म और राजनीति के इसी घालमेल ने वर्तमान सत्ता संस्कृति के लिए स्वीकार्यता बनाई है यही हाल लोकतंत्र का भी रहा है
आंबेडकर ने संविधान को स्वीकार करते हुएएक मनुष्य- एक वोटऔरएक वोट- एक मूल्यके आधार परएक मनुष्य- एक मूल्यकी भावना को समाज में स्थापित करने की जो चुनौती पेश की थी उसे धनतंत्र से हमेशा खतरा रहा है लोकतंत्र के नाम पर शुद्ध रूप से अगर चुनाव की ही बात करें तो हमारी चुनाव प्रणाली नए राजनीतिक मंचों को चुनाव में उभरने से रोकती है मतदाता सूची नि:शुल्क उपलब्ध कराने से लेकर सरकारी संचार माध्यमों पर प्रचार के लिए समय के आवंटन तक इसके इतने सारे रूप हैं कि उन्हें गिनाने में ही लेख पूरा हो जाएगा इस प्रणाली के कारण स्थापित और मान्यताप्राप्त राजनीतिक दलों के मुकाबले नए उभरे राजनीतिक दल हमेशा घाटे में रहते हैं ठोस उदाहरणों से अलग इसे सैद्धांतिक स्तर पर समझने की कोशिश में एरिक हाब्सबाम ने विस्तार से यह दिखाया और बताया है कि पूंजी के मालिक मजबूरी में ही लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को स्वीकार करते रहे हैं सार्वभौमिक बालिग मताधिकार में सबका मूल्य समान समझने की भावना निहित होती है इसके उलट पूंजीवाद अल्पतंत्र का पक्षधर होता है इसीलिए शुरुआती जोश के बाद दुनिया में हर कहीं उसने सामंती मूल्यों के साथ समझौता किया जनता के मताधिकार को सीमित करने की व्यवस्थित कोशिशों के पीछे आम लोगों को अधिकार संपन्न मानने में हिचक है यह हिचक लोकतांत्रिक भागीदारी पर रोक लगाने के तमाम किस्म के बहानों की शक्ल में सामने आती है औपचारिक शिक्षा को पंचायत में चुने जाने की जरूरी अर्हता बनाना ऐसे ही है जैसे पहले संपत्ति के आधार मताधिकार सीमित कर दिया जाता था असल में देखा गया है कि जब भी पूंजी ने आत्मविश्वास अर्जित किया उसने लोकतंत्र को उखाड़ फेंकने में कोई कोताही नहीं की यही कारण है कि फ़ासीवाद बिना किसी अपवाद के उन्हीं देशों में आया जहां संसदीय लोकतांत्रिक शासन था
मार्क्सवादी विद्वान हमेशा कहते हैं कि लोकतंत्र प्याज की तरह होता है जैसे ही आप उसके उपभोग की कोशिश करेंगे आपकी आंखों से आंसू निकलने शुरू हो जाएंगे लोकतंत्र केवल संसद के चुनाव में नहीं निहित होता वह सभी मामलों में सामान्य नागरिकों को शासन में भागीदार बनाने में निहित होता है इस नाते से उसकी परीक्षा बहुसंख्यक समुदाय की जगह अल्पसंख्यकों को पूरी तरह अधिकार संपन्न नागरिकता का अहसास कराने में उसकी सफलता/असफलता के आधार पर होनी चाहिए भारत में सहज बोध लोकतंत्र को चुनाव होने और चुने हुए प्रतिनिधियों की सर्वोच्चता से जोड़कर देखता है इस स्थिति में पूंजीपति वर्ग संसद में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को वैचारिक रूप से गुलाम बनाकर इस सर्वोच्चता का लाभ लेता है भारत में इस सहमति के निर्माण में देशभक्ति का अकल्पनीय योगदान है आर्थिक नीतियों को राजनीति से स्वतंत्र रखने के नाम पर नव-उदारवादी अर्थतंत्र के लिए सहमति निर्मित की गई पूरी दुनिया में आर्थिक मसले को समाज के नियंत्रण से मुक्त करके उसे कुछेक विशेषज्ञों के बुद्धि के योग्य ठहराने का माहौल बनाया जा रहा है इसी तरह तमाम मामलों को राजनीति से अलग रखने का तर्क देकर उन्हें असल में समाज की निगरानी से मुक्त कर लिया गया है वैसे भी हमारे देश में संसद से कार्यपालिका लगभग स्वतंत्र रही है और उसमें लोकतांत्रिक मूल्य शायद ही कभी विचारणीय रहे हों पुलिस और सेना का लोकतंत्र से कोई लेना देना नहीं इसलिए इन संस्थाओं को लोकतंत्र का स्पर्श तक नहीं मिला है । तमाम मामलों में देखा गया है कि विभिन्न राज्यों में अलग अलग पार्टियों की सरकारें होने के बावजूद तथा पुलिस का मसला संबंधित राज्य के तहत होने के बावजूद समूचे देश की पुलिस समान किस्म का आचरण करती है । सेना भी लगभग एक ऐसी संस्था होने की ओर है जिसके अपने स्वतंत्र न्यस्त स्वार्थ विकसित हो चुके हैं । इसका इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि पूर्व-गृहमंत्री पी चिदंबरम ने स्वीकार किया कि वे तो आफ़्सपा हटाना चाहते थे लेकिन रक्षा मंत्रालय से इसकी मंजूरी मिलनी असंभव थी । सैनिक साजो-सामान की खरीदारी में रिश्वत और दलाली लगभग सर्वमान्य तथ्य बन चुका है फिर भी साल दर साल रक्षा बजट की वृद्धि पर सवाल उठाने से देशभक्ति में संदेह पैदा हो जाता है !      
ऐसी स्थिति में सबसे पहले इसी बात को स्पष्ट कर देना जरूरी है कि देश और उसकी सरकार में अंतर हो सकता है आम तौर पर वे दोनों अलग तो होते हैं लेकिन कभी कभी एक दूसरे के विरोध में भी हो सकते हैं यह स्पष्टीकरण इसलिए भी जरूरी है कि हाल की घटनाओं में राजद्रोह और राष्ट्रद्रोह को समान करार दिया गया इस स्पष्टीकरण की जरूरत इसलिए भी है कि सरकार के भी देशद्रोही होने की संभावना को खारिज कर दिया जाए कभी कभी ऐसा होता है कि किसी देश की सरकार उस देश के हितों के साथ विश्वासघात करती है और ऐसी स्थिति में उस सरकार को उखाड़ फेंकना किसी भी देशप्रेमी का जरूरी कर्तव्य हो जाता है भारत की आजादी से पहले औपनिवेशिक अंग्रेजी शासन के समय ऐसा ही था जब इस देश की सरकार इस देश के मुकाबले इंग्लैंड के धनी लोगों के हितों के लिए काम करती थी इसीलिए उसे अपने विरोधियों को जेल में डालने के लिएराजद्रोहको दंडनीय बनाने वाले कानून की जरूरत पड़ी थी । इस उदाहरण से केवल हम इस संभावना की ओर संकेत कर रहे हैं कि औपनिवेशिक शासन ही नहीं, लोकतंत्र के रास्ते चुनकर आई हुई सरकार भी इस तरह की राष्ट्रविरोधी भूमिका निभा सकती है । इसीलिए किसी भी राष्ट्र की प्रभुसत्ता आखिरी तौर पर शासन या सरकार की बजाए उस देश के निवासियों में निहित होती है । इसी वजह से किसी भी देश के शासन या सरकार का प्राथमिक कर्तव्य देश की जनता के हितों की सेवा करना निश्चित किया गया है ।  
इस प्रसंग में इस बात को भी ध्यान में रखना जरूरी है कि कोई भी देश भूगोल मात्र नहीं होता । भौगोलिक इकाई के रूप में देशों का उदय बहुत ही आधुनिक परिघटना है । वाल्मीकि रामायण में राम ने जिसे जन्मभूमि कहा है वह अयोध्या है, भारत नामक कोई देश नहीं । इसीलिए देहाती इलाकों में अब भी परदेश और देश की धारणा एक छोटी सी स्थानीयता के पार नहीं जाती । भूगोल के रूप में राष्ट्र इतिहास में राजनीतिक उलट फेर से प्रभावित होकर बनते बिगड़ते रहे हैं । सीमाओं के लिहाज से हम जानते हैं कि हाल हाल तक बांगलादेश के कुछेक गांव भारत आए थे और उसी तरह भारत से कुछेक गांव बांगलादेश गए । यूरोप में तो बीसवीं सदी के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में भी मनुष्यों के देश बदलते रहे । भारतीय उपमहाद्वीप में भी यह परिघटना अनजानी नहीं रही है । यदि बांगलादेश के किसी नागरिक की उम्र सत्तर साल से अधिक हो तो उसने बिना जगह बदले तीन देशों की नागरिकता हासिल कर ली होगी । उसका जन्म भारत में हुआ रहा होगा । उसके कुछ ही वर्ष बाद वह पाकिस्तान का नागरिक हो गया होगा । जवानी में वह तीसरे देश, बांगलादेश का नागरिक हो गया होगा । इससे सिद्ध है कि समुद्र या पहाड़ जैसे भौगोलिक विभाजकों के अतिरिक्त राजनीतिक कारणों से भी देशों का टूटना बनना होता रहा है । स्काटलैंड को अलग करने या न करने के सवाल पर कुछ ही समय पहले जनमत संग्रह हुआ है । भारत की स्वाधीनता के लिए लड़ने वाले सभी नेताओं के सोच विचार में आयरलैंड की स्वाधीनता का सवाल प्रमुख रूप से शामिल रहा है । उस समय का देश प्रेम किसी अन्य देश के प्रति नफरत के जरिए नहीं परिभाषित होता था । इसकी बजाए किसी देश की मुक्ति के लिए संघर्ष करने वाले नेता अन्य देशों की आजादी के लिए चलने वाले आंदोलनों के साथ सहानुभूति की वकालत करते थे और स्वाधीनता के लिए लड़ना किसी भी देश का अधिकार समझते थे । इसी के साथ एक दूसरी चौंकाने वाली बात यह थी कि वे राष्ट्रवाद को अच्छी बात नहीं समझते थे । रवींद्रनाथ ठाकुर और प्रेमचंद ने खुलेआम राष्ट्रवाद की आलोचना की है । इसका अर्थ है कि वे देश प्रेम से अलग ऐसी भावना के नुकसान समझते थे जिसमें अपने देश के प्रति किसी के लगाव के लिए किसी अन्य देश से नफरत करना जरूरी समझा जाता था । इस देश प्रेम का अस्तित्व जिस समाज में था उस समाज की मानसिकता ने देश प्रेम को देशभक्ति में परिवर्तित किया । भक्ति के लिए समर्पण की भावना जरूरी होती है ।
हमारे देश के इतिहास के प्रसंग में यह सवाल बार बार उठता रहा है कि भारत की एकता किसके चलते हासिल हुई । औपनिवेशिक चेतना से अनुप्राणित लोग इसे अंग्रेजी शासन का नतीजा मानते रहे हैं । उपनिवेशवाद विरोधी चिंतकों ने इसे स्वाधीनता संग्राम का परिणाम साबित किया है । उदाहरण के लिएहिंद स्वराजमें गांधी ने कांग्रेस को इसका कारण बताते हुए लिखा कि अलग अलग स्थान के लोगों को एक स्थान पर एकत्र करके कांग्रेस ने भारत मेंएक राष्ट्रकी भावना पैदा की । अलग अलग स्थानों पर अपने अधिवेशन के जरिए भी उसने आबादी के एक (छोटे ही सही) हिस्से में एकसूत्रता को जन्म दिया । हमारे देश में राजनीतिक एकता स्थापित करने के लिए प्रचुर कल्पना शक्ति का प्रयोग किया गया । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि जिन सामंती रजवाड़ों का शासन देश के विभिन्न हिस्सों में था वे, काश्मीर के महाराजा से लेकर हैदराबाद के निजाम तक, भारत से अलग और स्वतंत्र रहना चाहते थे । स्वाधीनता संग्राम में रियासतों की जनता का ब्रिटिश भारत की जनता के साथ संघर्ष की जो एकता स्थापित हुई उसी में रियासतों के विलय को देखना उचित होगा । शेख अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कांफ़रेन्स के बिना काश्मीर की भारत के साथ जुड़ने की आकांक्षा की व्याख्या संभव नहीं है । इसी तरह हैदराबाद के निजाम के विरुद्ध जारी तेलंगाना संघर्ष की पृष्ठभूमि को देश के उस हिस्से के भारत में रहने की परिघटना से गायब नहीं किया जा सकता । भारत की एकता के निर्माण की इस समूची प्रक्रिया से एक ही बात सिद्ध होती है कि भारत में देशप्रेम का ठोस आधार साम्राज्यवाद का विरोध है । इस बात पर जोर देना इसलिए भी जरूरी है कि आज जो सत्ता देशभक्ति का राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रही है उसके भीतर साम्राज्यवाद विरोध की बात तो जाने दीजिए साम्राज्यवाद के हितों के लिए देश को नीलाम कर देने की इच्छा पहचानना मुश्किल काम नहीं । इसके साथ ही हमें कुछ अन्य पहलुओं पर भी ध्यान देना होगा जिनके चलते राष्ट्रवाद का ऐसा रूप निर्मित हुआ जिसमें भौगोलिक अस्तित्व और भक्तिपरक पूजा जैसी प्रतीकात्मकता ही उसके साथ जुड़ी प्रतीत होती है ।                   
स्वाधीनता आंदोलन के दौरान जिस तरह की राष्ट्रवाद की धारणा बनी वह इकहरी नहीं थी तथा उसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं की निरंतरता स्वाधीन भारत में बनी रही इसका बड़ा कारण यह था कि खुद स्वाधीनता आंदोलन भी इकहरा नहीं था स्वाधीनता आंदोलन की कोई भी मुकम्मल तस्वीर गांधी के साथ आंबेडकर और भगत सिंह को शामिल किए बिना नहीं बनाई जा सकती हिंदी साहित्य का कोई भी विद्यार्थी प्रेमचंद को पढ़ते हुए इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकता कि वे उभरते हुए राष्ट्रवाद के अंतर्विरोधों को समझ रहे थे फणीश्वरनाथ रेणु ने भी आजादी के आंदोलन में शामिल हो रहे इस उदीयमान शासक समुदाय की समस्याओं को व्यक्त करने का प्रयास किया है आजादी के आंदोलन के दौर के इन परस्पर विरोधी पहलुओं का टकराव आजादी के बाद भी जारी रहा इस टकराव को हम कथनी में धर्म निरपेक्षता लेकिन करनी में इसके विपरीत यानी अल्पसंख्यक विद्वेष, कथनी में लोकतंत्र लेकिन करनी में पूंजी की सेवा में सत्ता संस्थान, की विडंबना में फलीभूत होते हुए देखते हैं
भारत की आजादी के साथ ही उसका विभाजन भी हुआ विभाजन भौगोलिक तो था लेकिन उसका आधार धार्मिक था इस विभाजन ने नए बने दोनों मुल्कों के इतिहास, राजनीति और सामाजिक चेतना में इतनी गहरी फांक पैदा की जिसके दुष्परिणाम देश को अब भी भुगतने पड़ते हैं समय बीतने के साथ उसके प्रभाव और भी प्रत्यक्ष हो रहे हैं कहते हैं कि परमाणु दुर्घटनाओं के प्रभाव अकल्पनीय हैं क्योंकि वे सैकड़ों या हजार वर्ष बाद भी प्रकट हो सकते हैं प्रकृति में होने वाले अपरिवर्तनीय बदलावों के प्रभाव का अकल्पनीय होना समझ में आता है लेकिन मानव निर्मित भारत विभाजन की दुर्घटना के प्रभाव भी लगभग उसी तरह समय बीतने के साथ प्रत्यक्ष हो रहे हैं उस विभाजन का आधार धार्मिक होना ऐसी चीज था जिसके चलते जिस समय विभाजन हुआ वहीं ठहर नहीं गया, बल्कि लगता है कि वहां से शुरू हुआ था और दिन प्रतिदिन और गहराता जा रहा है शायद मंटो जैसे लेखकों ने जिस तरह इसे पागलपन समझा था वह समझदारी अधिक भविष्यदर्शी प्रतीत हो रही है । कुछ तो विभाजन के घाव ने और कुछ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ने दोनों को एक दूसरे से खाद पानी लेने वाली परिघटनाएं बना दिया । पाकिस्तान का विरोध खूब आसानी से मुस्लिम विरोध में बदल जाता है । उसकी अमेरिका से करीबी के चलते उसका विरोध साम्राज्यवाद विरोध के रूप में भी समझा दिया जाता है । भारत के अंध-राष्ट्रवाद को परिभाषित करने वाले इसी तरह के तत्वों ने उसे देश की जनता की खुशहाली से जोड़ने की जगह पाकिस्तान या चीन के साथ होड़ से जोड़ दिया है । इस होड़ में मदद लेने के नाम पर भारत के शासक वर्ग ने साम्राज्यवाद के साथ संघर्ष को भी तिलांजलि दे दी है ।
जब आप राष्ट्रवाद को जनता की खुशहाली और अधिकार संपन्नता से जोड़कर देखना बंद कर देते हैं तो राष्ट्र प्रतीकों तक सीमित रह जाता है । ये प्रतीक सारहीन होकर मिथक में परिवर्तित हो जाते हैं । जब राष्ट्र का झंडा देश के प्रति किसी की मोहब्बत के इजहार का एकमात्र रूप रह जाए तो समझ लीजिए कि वह देशप्रेम की जगह देशप्रेम का दिखावा मात्र है और दिखावे की जरूरत वहीं अधिक पड़ती है जहां वह असल में होता नहीं है । यह अस्वाभाविक नहीं है कि जो मध्य वर्ग इसका सबसे अधिक दिखावा करता है वही देश छोड़कर स्थायी तौर पर विदेश बसने के लिए सबसे अधिक व्याकुल भी रहता है ।
आजादी के बाद से क्रिकेट में पाकिस्तान के विरुद्ध भारत की जीत का जश्न, वाघा सीमा पर गेट बंद करते हुए एक दूसरे के विरुद्ध नफरत का सार्वजनिक प्रतीकात्मक इजहार, सियाचिन की बर्फीली चोटी पर कब्जा जमाए रखने के अहंकारपूर्ण संतोष के लिए सैनिकों की कुर्बानी जैसे बेवकूफाना प्रतीकात्मक तरीकों से देश की बरतरी को सिद्ध करने की मानसिकता ने देशभक्ति को नशे में बदल दिया है । परमाणु बम विस्फोट के साथ इस नशे को खतरनाक आत्मघाती रूप दे दिया गया । जब परमाणु बम का विस्फोट किया गया तो इसे परमाणु बम रखने वाले मुट्ठी भर देशों की पांत में हमारे देश को भी शामिल कर लेने के गौरव की तरह पेश किया गया । यह गौरव बोध निहायत तर्कहीन था क्योंकि युद्ध के हथियार के रूप में भी परमाणु बम की उपयोगिता संदिग्ध है । उसके तुरंत बाद पाकिस्तान ने भी विस्फोट करके इस क्षेत्र में अपनी समानता सिद्ध कर ली । अब तो और भी हास्यास्पद प्रतीक खोज लिए गए हैं जिनका हिंसक इस्तेमाल दैनंदिन तौर पर किया जा रहा है । राष्ट्रवाद के प्रतीकों के सहारे सरकारें आम तौर पर जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी से पीछा छुड़ाती हैं । जनता के लिए बुनियादी सुविधाओं की व्यवस्था करने में अपनी नाकामी को ढकने के लिए सरकारें अक्सर उग्र राष्ट्रवाद का सहारा लेती हैं ।
प्रतीकों के सहारे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को सामान्य बोध बना देने के लिएएक राष्ट्र, एक झंडा, एक भाषा, एक ग्रंथको एकता की बुनियाद के बतौर प्रचारित किया जा रहा है । ध्यान देने की बात है कि देश के रूप में भारत का अस्तित्व ही विविधता के बाध्यतामूलक नहीं, बल्कि सकारात्मक स्वीकार पर निर्भर है । इसका बड़ा कारण इस देश की विशालता और प्राचीनता है । इतने लंबे अरसे से इतने बड़े भूभाग के भीतर साथ साथ रहते हुए इस विराट आबादी में जितनी एकता पैदा हुई है उससे अधिक विविधता का निर्माण हुआ है । भाषा, परिधान, भोजन से लेकर संस्कृति और आचार व्यवहार तक इस विविधता का ऐसा प्रसार है कि इसकी गिनती भी असंभव प्रतीत होती है । वर्तमान राष्ट्रवाद इसी विविधता को कुचलकर संकीर्ण वैचारिक आधार पर देश को संगठित करने की कोशिश कर रहा है । इसके लिए उसे सबसे पहले बहुसंख्यक धर्म को ही कट्टर बनाना होगा । फिर समाज ने कानून से शासित होने की जो आदत विकसित कर ली है उसे मटियामेट करके समाज पर धर्म की जकड़बंदी मजबूत करनी होगी । जिस भाषा के सहारे इस राष्ट्रवाद को देशी रंग देने का भ्रम पैदा किया जाता है वह हिंदी है । शुरू में सरकार ने इस हथियार का सहारा लिया लेकिन जल्दी ही सरकारी योजनाओं में सब कुछ इंडिया हो गया-‘स्किल इंडिया’,’मेक इन इंडिया’,’स्टैंड अप इंडियाआदि । हिंदी तो केवल झाड़ू लगाने के लिए गांधी के जन्म के दिन कास्वच्छ भारतबनकर रह गई । इसी तरह स्वदेशी की भावना कोमेक इन इंडियासे बदल दिया गया लेकिन इसके लिए विदेशी कंपनियों को न्यौता देकर सरकार ने उन्हें संदेश दिया कि पुन:उपनिवेशीकारण का काम रुका नही, जारी रहेगा । देशी और अंतर्राष्ट्रीय निजी पूंजी की सेवा में पूरी सरकारी मशीनरी का लग जाना ही वह सत्य है जिसे छिपाने के लिए राष्ट्रवाद का वर्तमान हिंसक उभार निर्मित किया गया है । यह उभार देश को टुकड़ों में बांट और बरबाद कर देने की योजना पर काम करना शुरू कर चुका है । इस परियोजना के समर्थक वे ही लोग हैं जो लोकतंत्र के विरोध में कभी राजे रजवाड़ों की प्रभुसत्ता के समर्थक रहे थे । यह उभार स्त्रियों और समाज के पददलित समुदायों में अधिकार की उपजी चेतना के विरोध में रचा गया है इसीलिए जातिवाद और स्त्री दमन इसके आंगिक घटक हैं । यहां तक कि हिंदू धर्म को भी उस ढांचे में ढाला जा रहा है जो कथित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के काम आ सके । इसके लिए इसका राजनीतीकरण और सैन्यीकरण आवश्यक है । इस सैन्यीकरण के लिए नफरत को धार्मिक जामा पहनाया जा रहा है ।      
सरकारों की इस तिकड़म को उजागर करने के लिए हिंदी साहित्य में व्यंग्य, हास्य और विडंबना का सहारा लिया गया है । कारण यह है कि साहित्य ने सदा से अपने लिए समाज और शासन की आलोचना का जिम्मा लिया हुआ है । किसी भी देश और समाज को अपने भीतर सुधार की जरूरत पड़ती है और इसीलिए उसे आलोचना के रूपों का पोषण करना पड़ता है । स्वस्थ समाज की यह विशेषता होती है कि वह झूठे गौरव बोध से तुष्ट हो जाने की जगह अपनी आलोचना का सम्मान करता है । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सार अप्रिय आलोचना करने की छूट है । वर्तमान राष्ट्रवाद इसी आलोचना को खत्म करने पर उतारू है । इसका जन्म बीमार मानसिकता से हुआ है और यह अधिक गंभीर बीमारी की ओर समाज और देश को धकेल रहा है । इसका असली मकसद देश की जनता को धोखे में रखकर देशी और विदेशी पूंजी के मुनाफे की गारंटी करना है । इसके लिए राष्ट्रवाद का नशे की लत की तरह इस्तेमाल खतरनाक है । हम सभी जानते हैं कि जिसे लत लग जाती है उसे न केवल रोज नशा चाहिए होता है बल्कि प्रत्येक नशा बहुत जल्दी असर करना बंद कर देता है तब और गंभीर नशे की जरूरत पड़ती है । यही कारण है कि राष्ट्रवाद के प्रतीक तेजी से बदल रहे हैं और रोज देशभक्ति साबित करने का एक नया पैमाना खोजा जा रहा है ताकि अधिकांश जनता को देशद्रोही कहकर उनके विक्षोभ को कुचला जा सके ।
जिस देश अमेरिका को पिछले कुछेक सालों से सत्ता अपना आदर्श देश मान रही है उसके कुछेक कामों को याद करना हमें बता सकता है कि हमारे देश का कैसा भविष्य गढ़ने की साजिश की जा रही है । सबसे पहले अमेरिका की जिस उपलब्धि की छाया हमारे देश पर पड़नी शुरू हो चुकी है वह है लगातार बढ़ती अश्लील विषमता । इस विषमता ने अमेरिका में एक नए किस्म के जातिवाद को जन्म दिया है । उच्च शिक्षा को हासिल करना उन्हीं लोगों के लिए संभव रह गया है जिनके पास संपत्ति है । जिस तरह भारत में सवर्णों को ही शिक्षा सुलभ थी उसी तरह आजकल अमेरिका में संपत्तिशाली लोगों को ही शिक्षा मिल पा रही है । दूसरी बात कि अनेक उद्योगों की शाखाओं में सबसे अधिक उत्पादन जेलों में स्थित उनके कारखानों में हो रहा है । असल में ज्यादातर जेलें वहां निजी क्षेत्र में हैं और उनमें बंद कैदियों से उत्पादक काम करवाया जाता है । इस तरह निजी पूंजी के लिए बिना किसी हुज्जत के अनुशासित मजदूर मिलने की सबसे आसान जगह जेलें हैं । इसके कारण भी अधिक से अधिक लोगों को जेल भेजना अमेरिकी प्रशासन का स्वार्थ बन गया है । विचारकों ने गणना करके बताया है कि इन जेलों में ज्यादातर कैदी अश्वेत गरीब होते हैं । ऐसे कानून बनाए जाते हैं जिससे अधिकाधिक अश्वेत जेलों में भेजे जा सकें । दास प्रथा के खात्मे के बाद भी चमड़ी के रंग पर आधारित भेदभाव नए नए रूपों में संस्थाबद्ध तौर पर प्रकट हो रहा है । पूरी दुनिया में साम्राज्यवाद के नवीनतम अवतार के अंदरूनी समाज में पुराने भेदभाव लौट रहे हैं । आतंकवाद के विरुद्ध लड़ने के नाम पर कड़े कानून बनाकर न केवल नागरिकों की स्वतंत्रता में कटौती हो रही है, बल्कि मंदी की मार भी सामान्य लोगों पर ही पड़ रही है । दीर्घकालीन बेरोजगारी, कर्ज न चुकाने की वजह से खरीदे हुए घरों की जब्ती, अश्वेतों की पुलिस द्वारा सरेआम हत्या आदि के साथ मिलकर घरेलू और विदेशी बाजार में हथियारों के विक्रेताओं के बोलबाले ने उस मुल्क को किसी के लिए भी अनुकरणीय नहीं रहने दिया है लेकिन हमारे औपनिवेशिक अतीत ने हमें पश्चिमी देशों की मानसिक गुलामी का आदी बना दिया है । वर्तमान खोखले राष्ट्रवाद का उत्पादन भी वहीं हुआ है ।