2015 में सिटी लाइट्स बुक्स से नोम चोम्सकी के
राजनीतिक लेखों का एक संकलन हेनरी ए गीरू की भूमिका के साथ ‘बीकाज
वी से सो’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ । इस भूमिका में गीरू का कहना
है कि एक सामाजिक बौद्धिक के रूप में चोम्सकी की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है । वियतनाम
युद्ध से लेकर इराक युद्ध तक वे निरंतर सत्ता के विरुद्ध साहस के साथ बोलते रहे हैं
। उनके लेखन और विश्लेषण में सैद्धांतिक दृष्टि भी समाई रहती है । उन्होंने उत्पीड़न
और तकलीफ को सामाजिक सरोकार में बदल दिया । उन्होंने सिखाया है कि लोकतंत्र को यदि
जीवित रखना है तो उसके लिए लड़ना होगा । उनके लेखन में मौजूदा वैश्विक शक्ति संरचना,
उत्पीड़क शासन के नए और पुराने तरीके तथा नव उदारवादी नीतियों से उत्पन्न
वैश्विक प्रभुत्व और दमनकारी शासन का स्पष्ट सैद्धांतिक राजनीतिक विश्लेषण रहता है
। वे सत्ता की एकायामी समझ को सही नहीं मानते । सत्ता बहुमुखी होती है और अनेकानेक
भौतिक तथा प्रतीकात्मक उपायों का सहारा लेती है । खासकर चोम्सकी का मानना है कि शिक्षा
व्यस्था भी सत्ता का ही बनाया हुआ एक उपकरण होता है । इसके अलावे सत्ता जन संपर्क का
उद्योग की तरह संचालन करती है । वह वर्तमान और उदीयमान सांस्कृतिक उपकरणों का भी उपयोग
कल्पना पर कब्जा करने तथा सहमति बनाने के लिए करती है । इन्हीं के जरिए वह अस्मिताओं
को आकार देती है और इच्छाओं-आकांक्षाओं को मनोनुकूल रूपों में
ढालती है ।
चोम्सकी लोकतंत्र के वादे और असलियत के बीच
की खाई को लगातार उजागर करते रहते हैं । ऐसा वे अमेरिका के मामले में तो करते ही हैं, दुनिया
के अन्य देशों में भी अगर लोकतंत्रीकरण के नाम पर दमन के विविध तरीकों को छिपाने की
कोशिश होती है तो वे उसका पर्दाफाश करते हैं । चोम्सकी ने लोकतंत्र के वादे को पुनर्परिभाषित
करने की कोशिश की है और इसके लिए वे जनता को लोकतंत्र के रचयिता की भूमिका में खड़ा
करना चाहते हैं । मनुष्य की सामाजिक कल्पना को आजाद करने के लिए वैयक्तीकरण और निजीकरण की नवउदारवादी
परियोजना पर वे प्रहार करते हैं क्योंकि इसके पीछे विनिमय मूल्य के ही एकमात्र मूल्य
रह जाने की मान्यता अंतर्निहित होती है । जहां अन्य बौद्धिक जन शैक्षिक कठघरों और पेशेवर
कठोरता में फंस जाते हैं वहीं चोम्सकी संपूर्णता के परिप्रेक्ष्य से सोचते और बोलते
हैं । ऐसा करते हुए वे किसी खास ऐतिहासिक मौके पर लोगों के जीवन को आकार देने वाली
आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक ताकतों की व्यापक समझ के लिहाज से
तमाम किस्म के मुद्दों को आपस में जोड़ते हैं । वैश्विक प्रतिरोध आंदोलनों के भीतर नागरिक,
सामाजिक और नैतिक पहलुओं को जोड़ने के प्रमुख साधन के बतौर वे लगभग स्वत:स्फूर्त तौर पर एकजुटता और सामूहिक संघर्ष का तरीका अपनाते हैं । सामाजिक बौद्धिक
के बतौर उनकी भूमिका के साथ ही असली लोकतंत्र के स्वरूप का सवाल भी जुड़ा हुआ है । वे
इस मोर्चे पर आदर्श और आचरण के बीच की खाई पर उंगली रखते हैं और बताते हैं कि इसकी
स्थापना के लिए कौन सी ताकतें जरूरी हैं ।
चोम्सकी आतंकवाद, कारपोरेट
सत्ता और अमेरिकी विशेषता के बारे में बात करते हुए ऐसे नक्शे मुहैया कराते हैं जिनके
सहारे राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन में संभावित प्रतिरोध
के नए धरातल तलाशे जा सकें । उन्होंने राजनीतिक और आर्थिक विकल्पों की संभावना पर भी
विचार किया है । इसके लिए उन्होंने रचना और प्रतिरोध के सामूहिक बोध की नई भाषा प्रस्तुत
की है, जन साधारण की नई समझदारी निर्मित की है तथा राजनीति,
संस्कृति, वित्त और पूंजी की अधुनातन संस्थाओं
के बीच रिश्तों का पुनर्लेखन किया है । फिर भी इनसे निजात पाने का उन्होंने कोई तैयारशुदा
तरीका नहीं बताया है बल्कि ऐतिहासिक सीमाओं के भीतर सृजनात्मक प्रतिरोध के उभरते हुए
नए रूपों की पहचान कराई है । उनका लेखन अत्याचार, क्रूरता,
वित्तीय बर्बरता और बढ़ती हुई तानाशाही के दिनों में सामाजिक बुद्धिजीवियों
की जरूरत के लिहाज से महत्वपूर्ण है । वे बौद्धिक गतिविधियों और राजनीति के बीच विभाजन
पैदा करने की कोशिशों का विरोध करते हैं और मानते हैं कि स्कूल के भीतर और बाहर शिक्षा
का मतलब सत्य की खोज की बजाय स्वतंत्रता को साकार करना है । उन्होंने बल देकर कहा है
कि शिक्षकों, कलाकारों, पत्रकारों और अन्य
बुद्धिजीवियों का कर्तव्य लोगों को वह ज्ञान और कौशल मुहैया कराना है जिससे वे आलोचनात्मक
चिंतन सीख सकें, शासित होने के विपरीत शासन चलाने की क्षमता अर्जित
कर सकें । उनके मुताबिक बौद्धिकों को ऐसा नैतिक रचनात्मक और सामाजिक जिम्मेदारी का
बोध विकसित करना होगा जो सत्ता को जवाबदेह बनाने के लिए जरूरी है । इससे सबके लिए मुक्त,
स्वतंत्र, सम्मानजनक और न्यायपूर्ण जीवन जीने की
संभावना बढ़ेगी ।
चोम्सकी का कहना है कि किसी भी स्वस्थ
समाज में विश्वविद्यालयों को आर्थिक और सामाजिक न्याय के लिए दबाव बनाना होगा और
सार्थक शिक्षा को विध्वंसक भूमिका निभानी होगी । शिक्षा के बारे में उनका यकीन है
कि कानूनी हिंसा के युग में उसे शांतिभंग का दायित्व निभाना चाहिए, ऐसे ज्ञान का
सृजन करना चाहिए जो यथास्थिति का विरोधी हो । उनका यह भी कहना है कि बुद्धिजीवियों
को व्यापक जन समुदाय तक अपनी आवाज पहुंचानी चाहिए और सार्वजनिक जीवन के उन
क्षेत्रों में जरूर सुनाई पड़ना चाहिए जहां ज्ञान, मूल्य, सत्ता, पहचान, रचना और
सामाजिक सृजन का संघर्ष चल रहा हो । उनका कहना है कि शासन पर अपनी पकड़ बनाए रखने
के लिए सत्ता अज्ञान का उत्पादन करती है । अज्ञान ऐसा शैक्षिक औजार है जिसके जरिए
चिंतन का गला घोंटकर अराजनीतिक वातावरण बनाया जाता है । इससे राजनीति के लिए
आवश्यक विवेक और चिंतन की उपेक्षा होने लगती है । इससे सहमति बनाने में आसानी तो
होती ही है विरोध को कुचला भी जा सकता है । अज्ञान ऐसा राजनीतिक हथियार है जो
ताकतवर लोगों के काम आता है । वित्तीय कुलीन वर्ग और उनके पैरोकार आम जनता को
इकट्ठा नहीं होने देना चाहते इसलिए वे उन्हें बिखेरने की कोशिश करते रहते हैं ।
उनका कहना है कि ऐतिहासिक स्मृति और सामाजिक तथा व्यक्तिगत कर्तापन पर हमले जारी
हैं और यह व्यापक राजनीतिक सवालों से जुड़ा हुआ मुद्दा है ।
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