बाल मुकुंद गुप्त के लेखन के बारे में रामविलास शर्मा की किताब ‘परंपरा
का मूल्यांकन’ में संकलित उनका लेख ‘शैलीकार
बालमुकुंद गुप्त’ महत्वपूर्ण है । इस लेख में उन्होंने लिखा है ‘व्यंग्यपूर्ण गद्य में उनके उपमान
विरोधी पक्ष को परम हास्यास्पद बना देते हैं ।’ इस शैली की प्रशंसा करते हुए इसका सामाजिक उपयोग भी रामविलास जी के दिमाग में स्पष्ट था । गुलाम भारत में बाल मुकुंद गुप्त के व्यंग्य-विनोद की भूमिका की निशानदेही करते हुए रामविलास जी लिखते हैं ‘अपने व्यंग्य शरों से उन्होंने प्रतापी
ब्रिटिश राज्य का आतंक छिन्न भिन्न कर दिया । साम्राज्यवादियों के तर्कजाल की तमाम
असंगतियाँ उन्होंने जनता के सामने प्रकट कर दीं । अपनी निर्भीकता से उन्होंने दूसरों
में यह मनोबल उत्पन्न किया कि वे भी अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध बोलें ।’ गुप्त जी के निबंधों का संकलन ‘निबंधों की दुनिया : बालमुकुन्द गुप्त’ के नाम से वाणी प्रकाशन से 2009 में प्रकाशित हुआ । इसकी संपादक रेखा सेठी ने भी लिखा है ‘गुप्त जी ने व्यंग्य का प्रयोग एक अस्त्र की तरह किया । उनके व्यंग्य में असहायता का उद्घोष नहीं, सकर्मक चेतना है ।’ ध्यान देने की बात है कि व्यंग्य और विनोद से भरा
हुआ लेखन गहरे क्रोध का परिचायक होता है ।
अपने निबंध ‘व्याकरण-विचार’ में खुद गुप्त जी ने महावीर प्रसाद द्विवेदी से ‘अनस्थिरता’ शब्द के व्याकरणिक रूप से सही या गलत होने पर हुए विवाद के प्रसंग में अपनी विनोदी शैली के बारे में बताया है । किन्हीं लोगों को गुप्त जी द्वारा द्विवेदी जी की आलोचना बुरी लगी थी । उनका उत्तर देते हुए बाल मुकुंद गुप्त अपने आपको आत्माराम कहते हुए बताते हैं कि ‘आत्माराम ने अपने लेखों में कटाक्ष से अधिक काम लिया है, पर उसके कटाक्ष हँसी से भरे हुए हैं, विषैला कटाक्ष उसने एक भी नहीं किया । कटाक्ष भी द्विवेदीजी पर नहीं हैं उनके किसी काम पर, या उनकी अगली पिछली दशा पर आत्माराम ने कोई कटाक्ष नहीं किया है ।---आत्माराम के कटाक्ष, उसकी चुलबुली दिल्लगियाँ, मीठी छेड़ जो कुछ है, द्विवेदीजी के लिखने के ढंग पर, उनकी भाषा की बनावट पर, उनके व्याकरण संबंधी ज्ञान पर, उनके दखदरमाकूलात पर, उनके गंभीरता के सीमा-लंघन करने आदि पर हैं ।’ द्विवेदी जी के प्रसंग में बाल मुकुंद गुप्त ने जरूर व्यंग्य करने में लिहाज किया था, व्यंग्य से अधिक हास्य से काम लिया था लेकिन अंग्रेजी राज के प्रतिनिधि लार्ड कर्जन पर व्यंग्य करते हुए उन्हें किसी संकोच की जरूरत नहीं महसूस होती । वैसे भी रेखा सेठी के अनुसार मदन मोहन मालवीय के अखबार ‘हिन्दोस्थान’ में ‘सरकार के विरुद्ध कड़ी टिप्पणियाँ लिखने के कारण उन्हें पत्र से अलग होना पड़ा’ था । वे यह भी बताती हैं कि ‘हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में यह पहला मौका था जब किसी लेखक को शासन के खिलाफ लिखने के कारण पत्र से अलग कर दिया गया हो । इस सबसे वे ज़रा भी विचलित नहीं हुए ।’ उनकी इस उग्र उपनिवेशवाद विरोधी स्वाधीनता-प्रेमी चेतना की पूर्ण अभिव्यक्ति कलकत्ते के ‘भारतमित्र’ में छपे ‘शिवशम्भु के चिट्ठे’ में हुई ।
‘शिव शंभु के चिट्ठे’ में बाल मुकुंद गुप्त का व्यंग्य अंग्रेजी राज के प्रति
ऐसे ही क्रोध की अभिव्यक्ति है । इसी कारण यह किताब उनकी अक्षय कीर्ति का स्रोत है
। इसके शुरुआत के निबंध ‘बनाम लार्ड कर्जन’ का आरंभ ही कर्जन से एक
व्यंग्यात्मक सवाल से होती है ‘आपने माई लार्ड ! जबसे भारतवर्षमें पधारे हैं,
बुलबुलों का स्वप्नही देखा है या सचमुच कोई करनेके योग्य काम भी किया है ? खाली
अपना खयाल ही पूरा किया है या यहांकी प्रजाके लिये भी कुछ कर्तव्य पालन किया ?’ यह
उनके सीधे प्रहार की मुद्रा का व्यंग्य है । जब केवल इस व्यंग्य से ही बात पूरी
नहीं हुई तो थोड़ा मजाक भी उड़ा लिया । कर्जन के बजट भाषण के बारे में कहा ‘आप
बारम्बार अपने दो अति तुमराकसे भरे कामों का वर्णन करते हैं ।’ कोई शासक अपनी
उपलब्धियों की गिनती करा रहा है और बाल मुकुंद गुप्त उसे ‘तुमतराक’ भरे काम कह रहे
हैं । सचमुच विक्टोरिया मेमोरियल और दिल्ली दरबार को इस एक वाक्य से गुप्त जी ने
हास्यास्पद बना दिया । दिल्ली दरबार के तामझाम की खिल्ली उड़ाने में उनकी कलम बेहद
सृजनात्मक हो जाती है । जुलूस के हाथियों का जिक्र करते हुए लिखते हैं ‘जहां
जहांसे वह जुलूसके हाथी आये, वहीं वहीं सब लौट गये । जिस हाथी पर आप सुनहरी झूलें
और सोनेका हौदा लगवाकर छत्र-धारण-पूर्वक सवार हुए थे, वह अपने कीमती असबाब सहित
जिसका था, उसके पास चला गया ।’ इसमें कर्जन की हाथी पर सोने के हौदे और छत्र का
जिक्र आडंबर की व्यर्थता को जाहिर करने के लिए हुआ है । दिल्ली दरबार को तमाशा साबित करते हुए दूसरे चिट्ठे में लिखा ‘देखते देखते बड़े शौकसे लार्ड कर्जनका हाथियोंका जुलूस और दिल्ली दरबार देखा । अब गोरे पहलवान मिस्टर सेण्डोका छातीपर कितने ही मन बोझ उठाना देखनेको टूट पड़ते हैं ।’ इसके बाद सीधे कर्जन का मजाक उड़ाते हैं ‘लार्ड कर्जन भी अपनी शासित प्रजाका यह गुण जान गये थे, इसीसे श्रीमानने लीलामय रूप धारण करके कितनीही लीलाएँ दिखाईं ।’ लीला शब्द का यह मारक व्यंग्यात्मक इस्तेमाल किया गया है ।
मजाक उड़ाते हुए उनके भीतर का शुद्ध हिंदुस्तानी देहाती
जाग उठता है जिसके लिए आडंबर का कोई मूल्य नहीं होता । शासकों द्वारा अपनी मूर्ति
लगवाने के शौक पर उनकी टिप्पणी देखिए । मूर्तियों के बारे में कहते हैं ‘एक बार
जाकर देखनेसे ही विदित होता है कि वह कुछ विशेष पक्षियोंके कुछ देर विश्राम लेनेके
अड्डेसे बढ़कर कुछ नहीं है ।’ मूर्ति लगवाने की सारी गंभीरता पर यह दृश्यात्मक
हास्य भारी पड़ता है । दिल्ली दरबार उनकी विनोद वृत्ति को बार बार उकसाता है ‘वह ऐसा तुमतराक और ठाठ-बाठका समय था कि स्वयं श्रीमान वैसरायको पतलून तक कारचोबीकी पहनना और राजा महाराजोंको काठकी तथा ड्यूक आफ कनाटको चांदीकी कुरसीपर बिठाकर स्वयं सोनेके सिंहासनपर बैठना पड़ा था ।’ वायसराय की कठिनाई का अनुमान तो कीजिए ! अपना वैभव इंग्लैंड में दिखाने की कर्जन की लालसा पर इस तंज की मार का अंदाजा लगाना कठिन है ‘यदि कोई ऐसा उपाय निकल सकता, जिससे वह एक बार भारतको विलायत तक खींच ले जा सकते तो विलायतवालोंको समझा सकते कि भारत क्या है और श्रीमान का शासन क्या ? आश्चर्य नहीं, भविष्यमें ऐसा कुछ उपाय निकल आवे । क्योंकि विज्ञान अभी बहुत कुछ करेगा ।’
कर्जन के दूसरी बार नियुक्त होने के बाद के ‘श्रीमानका स्वागत’ शीर्षक चिट्ठे में तो शुरुआत ही
विष बुझे व्यंग्य से होती है ‘माई लार्ड ! आपने इस देशमें फिर पदार्पण किया, इससे
यह भूमि कृतार्थ हुई । विद्वान बुद्धिमान और विचारशील पुरुषोंके चरण जिस भूमि पर
पड़ते हैं, वह तीर्थ बन जाती है । आपमें उक्त तीन गुणोंके सिवा चौथा गुण राजशक्तिका
है । अत: आपके श्रीचरण-स्पर्शसे भारतभूमि तीर्थसे भी कुछ बढ़कर बन गई ।’ शासक के
समक्ष आम मनुष्य की हैसियत को व्यंग्यपूर्वक प्रस्तुत करते हुए लिखा ‘शिवशम्भुको
कोई नहीं जानता । जो जानते हैं, वह संसारमें एकदम अनजान हैं । उन्हें कोई जानकर भी
जानना नहीं चाहता ।’ भारत की सीमाओं की सुरक्षा की कर्जन की चिंता के सिलसिले में
बाल मुकुंद गुप्त की भाषा ही मजाक उड़ाने वाली हो गई है । उसके लिए ‘फौलादी दीवार’
पदावली का इस्तेमाल ही बनने वाली चीज को हल्का साबित करने के लिए हुआ है । यहां तक
कि सुरक्षा की जिस धारणा को शासन महिमा मंडित कर रहा था उसे ‘इस देशकी भूमिको कोई
बाहरी शत्रु उठाकर अपने घरमें न लेजावे’ कहकर व्यर्थ करार दे दिया गया है । ‘सरहदको
लोहेकी दीवारसे मजबूत करने’ की तुलना करते हुए लिखा कि ‘यहांकी प्रजाने पढ़ा है कि
एक राजाने पृथिवीको काबूमें करके स्वर्गमें सीढ़ी लगानी चाही थी’ । तुलना के जरिए
कर्जन के वांछित काम को महात्वाकांक्षा मात्र ठहरा दिया !
‘पीछे मत फेंकिये’ शीर्षक चिट्ठे में उनकी व्यंग्यपरक सृजनात्मकता चरम पर है । भारतीय मानस में एकछत्र मदांध शासन के रूप में रावण के शासन की छवि है । उसी याद को जगाते हुए वे अंग्रेजी राज की अतिशयोक्तिपरक प्रशंसा को रावण राज के बतौर सिद्ध कर देते हैं । यहां व्यंग्य के लिए अतिशयोक्ति का प्रयोग सर्वथा मौलिक है । अंग्रेजी शासन के साथ साथ उसके देशी आधार स्थानीय राजे-रजवाड़ों पर भी व्यंग्य करते हुए लिखते हैं ‘संसारमें अब अंग्रेजी प्रताप अखण्ड है । भारतके राजा आपके हुक्मके बन्दे हैं । उनको लेकर चाहे जुलूस निकालिये, चाहे दरबार बनाकर सलाम कराइये, उन्हें चाहे विलायत भिजवाइये, चाहे कलकत्ते बुलवाइये, जो चाहे सो कीजिये, वह हाजिर हैं ।’ इसके बाद बेवकूफ बनाने वाली अतिशयोक्ति ‘आपके हुक्मकी तेजी तिब्बतके पहाड़ोंकी बरफको पिघलाती है, फारिसकी खाड़ीका जल सुखाती है, काबुलके पहाड़ोंको नर्म्म करती है । जल, स्थल, वायु और आकाशमण्डलमें सर्वत्र आपकी विजय है । इस धराधाममें अब अंग्रेजी प्रतापके आगे कोई उंगली उठानेवाला नहीं है ।’ इस अंश में व्यंग्य के लिए संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग ध्यान देने लायक है । आगे नाम लिए बिना रावण से तुलना ‘इस देशमें एक महाप्रतापी राजाके प्रतापका वर्णन इस प्रकार किया जाता था कि इन्द्र उसके यहां जल भरता था, पवन उसके यहां चक्की चलाता था, चाँद सूरज उसके यहां रोशनी करते थे, इत्यादि । पर अंग्रेजी प्रताप उससे भी बढ़ गया है । समुद्र अंग्रेजी राज्यका मल्लाह है, पहाड़ोंकी उपत्यकाएँ बैठनेके लिए कुर्सी मूढ़े । बिजली कलें चलानेवाली दासी और हजारों मील खबर लेकर उड़नेवाली दूती, इत्यादि इत्यादि ।’ बिना नाम लिए ही कुशलता के साथ कर्जन को रावण और अंग्रेजी राज को रावण राज कह दिया गया है । स्वाभाविक तौर पर ऐसी जहर में बुझी आलोचना ने अंग्रेजी शासन से मोहभंग में मदद की होगी ।
‘आशाका अन्त’ में बाल मुकुंद गुप्त कर्जन
से इस बात की आशा व्यक्त करते हैं कि वे ऐसे शासक हो जाएं जो इस देश के निवासियों
की खोज खबर लेता रहे । इस आशा को अखबारी समाचारों के बहाने प्रकट करते हुए वे
अखबारों की चाटुकारिता की भी खिल्ली उड़ाते हैं ‘इस कलकत्ता महानगरीके समाचारपत्र कुछ
दिन चौंक चौंक पड़ते थे कि आज बड़े लाट अमुक मोड़पर वेश बदले एक गरीब काले आदमीसे
बातें कर रहे थे, परसों अमुक आफिसमें जाकर कामकी चक्कीमें पिसते हुए क्लर्कोंकी
दशा देख रहे थे और उनसे कितनीही बातें पूछते जाते थे ।’ इस तरह की खबरों के कारण
हिंदुओं में ‘विक्रमादित्य’, मुसलमानों में ‘खलीफा हारूंरशीद’ और पारसियों में
‘नौशीरवां’ के पुनर्जन्म की बात होने लगी । लेकिन ‘श्रीमानने जल्द अपने कामोंसे
ऐसे जल्दबाज लोगोंको कष्ट-कल्पना करनेके कष्टसे मुक्त कर दिया था । वह लोग थोड़ेही
दिनोंमें इस बातके समझनेके योग्य होगये थे कि हमारा प्रधान शासक न विक्रमके
रंग-ढंगका है, न हारूं या अकबरके, उसका रंगही निराला है !’ लोगों में भ्रम फैलाने
में अखबार यानी उस जमाने के मीडिया की भूमिका की गहरी पहचान उक्त प्रसंग में स्वत:स्पष्ट
है और ऐसे भ्रम के शीघ्रता से टूट जाने की विडंबना के प्रति लेखक की करुण व्यंग्योक्ति भी ।
लार्ड कर्जन जब इंग्लैंड में थे तो भारत के कल्याण के बारे
में भाषण दिया करते थे लेकिन भारत आते ही पुरानी बातें भूलने लगे । इसे भारत में
नमक की अधिकता के कारण नमक की खान में पड़कर अपने कहे को भूल जाने के व्यंग्य में
ढालते हुए बाल मुकुंद गुप्त लिखते हैं ‘बम्बईमें जहाजसे उतरकर भूमिपर पाँव रखतेही
यहाँके जलवायुका प्रभाव आपपर आरम्भ हो गया था । उसके प्रथम फलस्वरूप कलकत्तेमें
पदार्पण करतेही आपने यहांके म्यूनिसिपल कारपोरेशनकी स्वाधीनताकी समाप्ति की । जब
वह प्रभाव कुछ और बढ़ा तो अकाल पीड़ितोंकी सहायता करते समय आपकी समझमें आने लगा कि
इस देशके कितनेही अभागे सचमुच अभागे नहीं, वरंच अच्छी मजदूरीके लालचसे जबरदस्ती
अकालपीड़ितोंमें मिलकर दयालु सरकारको हैरान करते हैं !---इसी प्रकार जब प्रभाव तेज
हुआ तो आपने अकालकी तरफसे आँखोंपर पट्टी बाँधकर दिल्ली-दरबार किया ।’ किसी आपदा के
समय जब सार्वजनिक कल्याण की जरूरत होती है तो उस समय अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए आज भी सरकारें इसी तरह के बहाने
बनाती हैं ।
इसी संग्रह का निबंध ‘एक दुराशा’ तो व्यंग्य
के सहारे शासक के ऊपर जनता से दूरी न रखने की जिम्मेदारी मढ़ने का बहाना खोज निकालता
है । इसके लिए बाल मुकुंद गुप्त ने पूरे निबंध को एक कहानी की शक्ल दी है । भांग खाकर
शिव शंभु सो रहे थे कि उनके कानों में होली की आवाज आई । होली के बोल थे ‘चलो-चलो आज, खेलें होली कन्हैया
घर ।’ उनके मन में खयाल आया कि ‘कन्हैया
कौन ? ब्रजके राजकुमार और खेलनेवाले कौन ? उनकी प्रजा- ग्वालबाल ।---क्या
भारतमें ऐसा समय भी था, जब प्रजाके लोग राजाके घर जाकर होली खेलते
थे और राजा-प्रजा मिलकर आनन्द मनाते थे ! क्या इसी भारत में राजा लोग प्रजाके आनन्दको किसी समय अपना आनन्द समझते थे
?’ आज हम राजा के पास होली खेलने कैसे जा सकते हैं क्योंकि ‘राजा दूर सात समुद्र पार है’ । उनका प्रतिनिधि वायसराय
है लेकिन ‘राजा है, राजप्रतिनिधि है,
पर प्रजाकी उन तक रसाई नहीं ! सूर्य्य है,
धूप नहीं । चन्द्र है, चान्दनी नहीं ।’
ये सभी उपमान इस स्थिति के वर्णन के लिए कि ‘माई
लार्ड नगरहीमें हैं, पर शिवशम्भु उसके द्वार तक नहीं फटक सकता
है, उसके घर चलकर होली खेलना तो विचारही दूसरा है ।’ उसे देखना तक मुहाल है ‘उसका दर्शन दुर्लभ है । द्वीतीयाके चन्द्रीक
भांति कभी-कभी बहुत देर तक नजर गड़ानेसे उसका चन्द्रानन दिख जाता है, तो दिखजाता है
।’ दूज का चाँद होने के मुहावरे का बेहद सृजनात्मक प्रयोग हुआ है ।
उनका क्रोध इतना गहरा है कि पानी की लहरों की तरह घूम फिर
कर बार बार उभर आता है । सवाल उठाते हैं ‘क्या कभी श्रीमानका जी होता होगा कि अपनी
प्रजामें जिसके दण्ड-मुण्डके विधाता होकर आए हैं किसी एक आदमीसे मिलकर उसके मनकी
बात पूछें या कुछ आमोद-प्रमोदकी बातें करके उसके मनको टटोलें ?’ दूसरी बार वही बात
एक और तरीके से ‘जो पहरेदार सिरपर फेंटा बाँधे हाथमें संगीनदार बन्दूक लिये काठके
पुतलोंकी भांति गवर्नमेण्ट हौसके द्वार पर दण्डायमान रहते हैं, या छायाकी मूर्तिकी
भांति जरा इधर-उधर हिलते जुलते दिखाई देते हैं, कभी उनको भूले भटके आपने पूछा है
कि कैसी गुजरती है ? किसी काले प्यादे चपरासी या खानसामा आदिसे कभी आपने पूछा कि
कैसे रहते हो ? तुम्हारे देशकी क्या चाल-ढाल है ? तुम्हारे देशके लोग हमारे
राज्यको कैसा समझते हैं ?’ इन सवालों की भाषा में हिंदुस्तानियों के प्रति
अंग्रेजों के नस्ली नजरिए की मुखालिफत है । भारतेंदु हरिश्चंद्र के लेख
‘भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है’ में भी आलोचना के लिए भारतीयों के बारे में गोरे
अंग्रेजों की ऐसी राय को ही आधार बनाया गया था । अंत में बाल मुकुंद गुप्त के काल्पनिक
पात्र शिव शंभु इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ‘अब राजा प्रजाके मिलकर होली
खेलनेका समय गया’ । लेकिन यह दुर्भाग्य एकतरफा नहीं है क्योंकि
‘साथही किसी राजपुरुषका भी ऐसा सौभाग्य नहीं है, जो यहांकी प्रजाके अकिंचन प्रेमके प्राप्त करनेकी परवा करे’ । शासक और शासित के बीच इस तरह के संबंध विच्छेद को कोई भी अच्छी बात नहीं
कहेगा ।
कर्जन की विदाई के निबंध ‘विदाई सम्भाषण’ में उनके अहंकार के कारण हुए अपमान की खिल्ली उड़ाते हुए लिखते हैं
‘---आपके शासनकालका नाटक घोर दु:खान्त है और अधिक
आश्चर्यकी बात यह है कि दर्शक तो क्या स्वयं सूत्रधार भी नहीं जानता था कि उसने जो
खेल सुखान्त समझकर खेलना आरम्भ किया था, वह दु:खान्त हो जावेगा । जिसके आदिमें सुख था, मध्यमें सीमासे
बाहर सुख था, उसका अन्त ऐसे घोर दु:खके
साथ कैसे हुआ ! आह ! घमण्डी खिलाड़ी समझता
है कि दूसरोंको अपनी लीला दिखाता हूं, किन्तु परदेके पीछे एक
और ही लीलामयकी लीला हो रही है, वह उसे खबर नहीं ।’ मनुष्य के अहंकार का मजाक उड़ाने के लिए उसकी अधिकारहीनता को दिखा देने से अधिक
सक्षम उपाय और क्या हो सकता है ! कहते हैं ‘इतने बड़े माई लार्डका यह दरजा हुआ कि एक फौजी अफसर उनके इच्छित पदपर नियुक्त
न होसका । और उनको इसी गुस्सेके मारे इस्तीफा दाखिल करना पड़ा,
वह भी मंजूर हो गया ।’ इसे ही मुहावरे में भिगो
भिगो कर मारना कहते हैं ।
कर्जन द्वारा जाते जाते भी बंगाल का बंटवारा कर जाना ‘बंग विच्छेद’
शीर्षक निबंध में उनके व्यंग्य-प्रहार का कारण
बनता है । कर्जन की क्षुद्रता की तुलना दुर्योधन से करते हुए उन्होंने लिखा
‘महाभारतमें सबका संहार होजाने पर भी घायल पड़े हुए दुर्म्मद दुर्योधनको
अश्वत्थामाकी यह वाणी सुनकर अपार हर्ष हुआ था कि मैं पांचों पाण्डवोंके सिर काटकर आपके
पास लाया हूं । इसी प्रकार सेनासुधार रूपी महाभारतमें जंगीलाट किचनर रूपी भीमकी विजय
गदासे जर्जरित होकर पदच्युति-हृदमें पड़े इस देशके माई लार्डको
इस खबरने बड़ा हर्ष पहुंचाया कि अपने हाथोंसे श्रीमानको बंगविच्छेदका अवसर मिला । इसके
सहारे स्वदेश तक श्रीमान मोछों पर ताव देते चले जा सकते हैं ।’ लोक मन में प्रतिष्ठित दुर्योधन के अहंकार का उपयोग ही इस टुकड़े की विशेषता
नहीं है, बल्कि भारी भरकम रूपक के प्रयोग से भी व्यंग्य में धार
आ गई है । दुर्योधन के अलावा तुगलक की छवि का भी उपयोग करते हुए आगे जोड़ते हैं कि तुगलक
ने ‘दिल्लीकी प्रजाको हुक्म दिया कि दौलताबाद में जाकर बसो ।
जब प्रजा बड़े कष्टसे दिल्लीको छोड़कर वहाँ जाकर बसी तो उसे फिर दिल्लीको लौट आनेका हुक्म
दिया ।--हमारे इस समयके माई लार्डने केवल इतनाही किया है कि बंगाल
के कुछ जिले आसाममें मिलाकर एक नया प्रान्त बना दिया है । कलकत्तेकी प्रजाको कलकत्ता
छोड़कर चटगांवमें आबाद होनेका हुक्म तो नहीं दिया !’ कहने को तो
कर्जन के काम को तुगलक के काम से कम कहा लेकिन ब्याज से निर्णय की बेवकूफी जाहिर कर
दी । इसके लिए यह भी कह दिया कि ‘कलकत्ता उठाकर चीरापूंजीके पहाड़
पर नहीं रख दिया गया और शिलांग उड़कर हुगलीके पुल पर नहीं आबैठा । पूर्व और पश्चिम बंगालके
बीचमें कोई नहर नहीं खुद गयी और दोनोंको अलग अलग करनेके लिये बीचमें कोई चीनकीसी दीवार
नहीं बन गई है ।---खाली खयाली लड़ाई है ।’ बिना कहे कर्जन को महत्वोन्मादी करार दे दिया गया है ।
‘लार्ड मिन्टोका स्वागत’ शीर्षक निबंध में उन्होंने शासक की
जनता से दूरी के सवाल को फिर उठाया है । लोगों ने अपने नए शासक को देखने के लिए
‘पुलिस पहरेवालोंकी गाली, घूंसे और धक्के भी बरदाश्त किये । बस, उन
लोगोंने श्रीमानके श्रीमुखकी एक झलक देख ली । कुछ कहने सुनने का अवसर उन्हें न
मिला, न सहजमें मिल सकता । हुजूरने किसीको बुलाकर कुछ पूछताछ न की न सही, उसका कुछ
अरमान नहीं, पर जो लोग दौड़कर कुछ कहने सुनने की आशासे
हुजूरके द्वार तक गये थे, उन्हें भी उल्टे पांव लौट आना पड़ा ।’ बहुत कुछ वैसा ही
दृश्य जैसा रूस में जार से मिलने की आशा में इसी समय अर्थात 1905 में उसके महल गए
लोगों का सुनाई पड़ता है । इसी निबंध में वे भारत की जनता का हाल बयान करने के लिए एक
कहानी सुनाते हैं । इस तत्व का उनके निबंधों में व्यंग्य और विनोद पैदा करने के लिए
प्रचुरता से इस्तेमाल किया गया है क्योंकि भारतीय जन समुदाय उत्पीड़न का विरोध करने
के लिए अक्सर इस हथियार का सहारा लेता रहा है । यह खजाना उस समय के लेखकों को सहज सुलभ
था । जैसे जैसे लेखक जन समुदाय से दूर होते गए वैसे ही वैसे जनता के मन में रचा बसा
प्रतिरोध का यह खजाना उनके लिए दुर्लभ होता गया । निबंधों में अभिव्यक्त गद्य की सृजनात्मकता
का गहरा संबंध इस तथ्य से है कि लेखक की जनता के भीतर मौजूद इस स्रोत तक पहुंच आसान
है या नहीं । कहानी यह है कि भूख से तंग आकर एक लड़का अपनी मां से लगातार रोटी मांग
रहा था । मां किसी और काम में व्यस्त थी । उसने लड़के को एक बहुत ऊंचे ताक पर बिठा दिया
। लड़के को डर लगने लगा और वह रोटी की बात भूलकर ताक से उतार दिये जाने की प्रार्थना
करने लगा । बाल मुकुंद गुप्त कहते हैं कि कर्जन के समय जो अत्याचार हुए हैं उसके चलते
लोग ज्यादा कुछ नहीं बस उन्हीं के उलटने की आशा को बहुत बड़ा उपकार मान लेंगे । ध्यान
देने की बात यह है कि आज भी शासक इस तरीके का प्रयोग करते हैं । चीजों के दाम इतना
बढ़ने देते हैं कि उनमें की गई थोड़ी सी कमी भी बड़ा उपकार लगता है ।
विनोद और हास्य को वे सैद्धांतिक रूप से उचित मानते थे । ‘हँसी-खुशी’ शीर्षक निबंध में वे शुरू में ही लिखते हैं
‘हँसी भीतरी आनंद का बाहरी चिन्ह है’ । रामचंद्र
शुक्ल के निबंधों की तरह के वाक्य से शुरू करने के बाद उसकी तारीफ में आगे लिखते हैं
‘जहाँ तक बने हँसी से आनंद प्राप्त करो । प्रसन्न लोग कोई बुरी बात नहीं
करते । हँसी बैर और बदनामी की शत्रु है और भलाई की सखी ।---हँसने
के लिए ही आदमी बना है । मनुष्य खूब जोर से हँस सकता है, पशु-पक्षी को वह शक्ति ईश्वर ने नहीं दी है ।’ हास्य को मनुष्य
की विशेषता मानने के कारण ही लगभग सभी प्रसंगों में वे व्यंग्य और विनोद की जगह निकाल
लेते हैं । इस मामले में वे किसी आदमी या विषय को नहीं छोड़ते ।
‘राजभक्ति’ निबंध इसका उत्तम उदाहरण है । इसका
आरंभ लगभग जर्मन कवि ब्रेष्ट की उस कविता की तरह होता है जिसमें ब्रेष्ट कहते हैं कि
जनता ने सरकार का विश्वास खो दिया है । गुप्त जी का पहला वाक्य है ‘हमारे शासकों का हमारे ऊपर कोप हुआ है कि हम लोगों में राजभक्ति नहीं रही और
हम लोग अपनी सरकार से विद्रोह कर रहे हैं । इसके लिए हमें दंड भी दिया जा रहा है ।
हममें से एक को देश निकाला मिल गया है, दूसरे की खोज हो रही है,
कितने ही हवालात में हैं और बहुत पकड़े जाते हैं ।---एक विपत्ति तो यह राजभक्ति के अभाव की है, इसके साथ साथ
एक दूसरी और भी लगी हुई है । कितने ही साल हो गए, अकाल इस देश
में बराबर विराजमान रहता है ।--फिर दस साल से प्लेग नाम की व्याधि
ने यहाँ के निवासियों को घेरा है ।’ इन सबका मानवीकरण करुण व्यंग्य
के लिए ही किया गया है । विपत्ति की स्थिति में भी हँसने का मौका निकालते हुए लिखते
हैं ‘यदि एक विपद होती तो यहाँ की प्रजा उससे बचने की चेष्टा
करती अर्थात वह यदि बीमारियों और दु:खों से रहित होती तो अपने
शासकों को खुश करने की चेष्टा करती और राजभक्ति प्रकाश के लिए रास्ता निकालती । या
शासक उस पर नाराज न होते और उसे दंड देने की चेष्टा न करते तो अकालों और महामारियों
के हाथ से रिहाई पाने की चेष्टा करती । पर उसके दोनों पथ रुके हुए हैं । न इधर भाग
सकती है, न उधर ।’ मजबूरी का भी विनोदपूर्ण
चित्रण !
‘दिल्ली से कलकत्ता’ है तो रेल की यात्रा का
वर्णन लेकिन इसमें भी व्यंग्य-विनोद का मौका निकालते हुए वे ट्रेन
के चौसा स्टेशन पर प्लेग की जाँच के लिए रुकने पर माहौल का जिक्र करते हैं । गाड़ी रोक
ली गई ‘इसके बाद खिड़की खुली और हमारे कमरेवालों को नीचे उतरने
की आज्ञा हुई । हम लोग नीचे प्लेटफार्म पर उतरे । आज्ञा हुई कि कतार बाँधो । हमने कतार
लगाई । इसके बाद गाड़ी की खिड़की में रस्से दोनों ओर डाले गए और उनमें हम लोग रोके गए । पशु रस्से से रोके जाते हैं परन्तु चौसे पर हम मनुष्य कहलानेवाले रस्से
के घेरे में थे ।---पीछे जान पड़ा कि, हम
लोगों को मोटा ताजा जानकर साहब ने दूर ही से धता किया था ।’ इस
वर्णन को पढ़कर ही समझ में आता है कि क्यों बम्बई में प्लेग के अंग्रेज अफसर को चापेकर
बंधुओं ने गोली मार दी थी ।
बाल मुकुंद गुप्त का महावीर प्रसाद द्विवेदी के साथ ‘अनस्थिरता’
के व्याकरणिक रूप से सही या गलत होने को लेकर लंबा विवाद चला था । इसमें
बाल मुकुंद गुप्त का मानना था कि सही शब्द ‘अस्थिरता’ होगा । इस क्रम में गुप्त जी ने ‘भारतमित्र’ में तो महावीर प्रसाद द्विवेदी ने
‘सरस्वती’ में एक दूसरे के विरुद्ध दस दस लेख लिखे
थे । व्याकरण जैसे विषय को सरस बनाने की परंपरा हिंदी में किशोरीदास वाजपेयी के
‘हिंदी निरुक्त’ से ही है । इसमें ‘झा’ शब्द की व्युत्पत्ति के सिलसिले में वाजपेयी जी ने
लिखा कि बहुतों के अनुसार इसकी व्युत्पत्ति ‘अनुज्झटित’
से है जिसका अर्थ काम न पूरा होना है लेकिन वाजपेयी जी ने मजा लेते हुए
लिखा कि आज तक उन्होंने किसी झा पदवीधारी को काम अधूरा छोड़ते नहीं देखा इसलिए इसकी
व्युत्पत्ति ‘उपाध्याय’ से होनी चाहिए ।
लगभग इसी तरह महावीर प्रसाद द्विवेदी की भाषा के प्रसंग में बाल मुकुंद गुप्त ने लिखा
है । महावीर प्रसाद द्विवेदी
का वाक्य था ‘मनुष्य और पशु-पक्षी आदि की
उम्र देश, काल, अवस्था और शरीर-बंधन के अनुसार जुदा-जुदा होती है ।’ बाल मुकुंद गुप्त ने टिप्पणी करते हुए लिखा ‘कोई पूछे
कि जनाब व्याकरण-वीर साहब ! उम्र जुदा-जुदा होती है या उम्रें जुदा-जुदा होती हैं ?
जुदा-जुदा होती है कि न्यूनाधिक होती है
? एक बार सिंहावलोकन तो कीजिए ! जरा अपनी कवाइदे
हिंदी से मिलाकर तो देखिए कौन सी बात ठीक है ? क्या आपकी व्याकरणदानी
की इज्जत रखने के लिए बेचारी उम्र के टुकड़े कर दिए जाते हैं ।’ संस्कृत में कहावत है कि वैयाकरण के लिए एक मात्रा की कमी भी पुत्रोत्सव जैसा
सुख देती है । उसी तर्ज पर लिखने में सटीकता के वे इतने बड़े पक्षधर थे कि एक शब्द भी
अतिरिक्त लिखना पसंद नहीं करते थे । द्विवेदी जी ने लिखा था ‘मनमें जो भाव उदित होते हैं, वे भाषा की सहायता से दूसरों
पर प्रकट किए जाते हैं ।’ इस पर गुप्त जी की टिप्पणी है
‘क्यों जनाब, भाषा की सहायता से मन के भाव दूसरों
पर प्रगट किए जाते हैं या भाषा से ? आप टाँगों की सहायता से चलते
हैं या टाँगों से ? आँखों की सहायता से देखते हैं या आँखों से
?’
व्यंग्य और विनोद से भरी हुई ऐसी जीवंत भाषा के कारण ही उनकी
मृत्यु पर खुद महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लिखा कि विरोधी होने के बावजूद भाषा तो बाल
मुकुंद गुप्त ही लिखते थे । भारतेंदु युग और द्विवेदी युग की संधि पर अवस्थित
हिंदी नवजागरण के पुराधाओं में से एक श्री बाल मुकुंद गुप्त ने अपनी इसी जीवंत भाषा
के बल पर उपनिवेशवाद विरोधी संग्राम में हिंदी लेखकों का एक तरह से प्रतिनिधित्व किया
। उनके व्यंग्य और विनोद की कुछ झलकियों को ऊपर उनके ही लिखे के आधार पर प्रस्तुत किया
गया है ।
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