Friday, December 19, 2014

जीवन के आरंभिक दिनों का समाज

                 
फ़्रांसिस ह्वीन और मेरी गैब्रियल की मार्क्स की जीवनियों के बाद 2013 में जोनाथन स्पर्बर लिखितकार्ल मार्क्स : ए नाइंटींथ सेंचुरी लाइफ़शीर्षक जीवनी का प्रकाशन लिवराइट पब्लिशिंग कारपोरेशन ने न्यूयार्क और लंदन में एक साथ किया है । जीवनी लेखक ने भूमिका में घोषित किया है कि मार्क्स को उनके समय में रखकर देखना उचित होगा और इसमें अंतर्निहित मान्यता है कि उनकी सदी और वर्तमान सदी में समानताओं से अधिक भिन्नताएं हैं । दूसरी बात कि इसमें लेखक ने उनकी मशहूर किताबों के साथ हीहर फ़ोग्टयाद सीक्रेट डिप्लोमैटिक हिस्ट्री आफ़ द एटींथ सेंचुरीजैसी कुछ कम प्रसिद्ध किताबों पर भी ध्यान देने का वादा किया है । तीसरे उनका दावा है कि उस समय की जर्मन में जिन शब्दों का जो अर्थ होता था उसके हिसाब से कुछ शब्दों के नये अनुवाद किए गए हैं जो मूल के अधिक नजदीक हैं ।
मार्क्स की हाल की जीवनियों में इस तथ्य पर जोर दिया गया है कि उनका संबंध यहूदियों के धर्मगुरु कहलाने वाले रबाइ लोगों से था । त्रिएर के यहूदी समुदाय के रबाइ मार्क्स के पूर्वज थे । गैब्रियल ने तो कैपिटल की विस्तृत व्याख्या वाली शैली को भी रबाइ ज्ञान परंपरा से जोड़ा है । त्रिएर के यहूदियों की स्थिति को बदलने में क्रांतिकारी फ़्रांस की पवित्र रोमन साम्राज्य के साथ 1792 की लड़ाई की भूमिका थी । इसमें फ़्रांस की विजय हुई । फ़्रांस की नयी सरकार महज जमीन पर कब्जा नहीं चाहती थी, उसने सामाजिक राजनीतिक बदलाव भी लाने शुरू किए । त्रिएर पर फ़्रांस का शासन बीस साल तक रहा । बीच में 1797 में त्रिएर को फ़्रांस में मिला भी लिया गया था । उधर फ़्रांस में नेपोलियन ने क्रांतिकारी शासन को खत्म करके अपने को बादशाह घोषित कर दिया । 1804 में जब वह अपने साम्राज्य के भ्रमण पर निकला तो त्रिएर भी आया जहां उसका भरपूर स्वागत हुआ । उसने चर्च के साथ संधि की और 1810 में त्रिएर को उसका कैथिलोक बिशप वापस मिला ।
इस उठापटक में यहूदी समुदाय भारी उलट फेर से गुजरा । लेखक ने सारे यूरोप में बिखरे हुए यहूदियों कोराष्ट्रकहा है और बताया है किराष्ट्र-राज्यके उदय से पहले अलग अलग देशों में यहूदी स्थानीय शासन के नियमों के हिसाब से उनके रहमो-करम पर निर्भर थे । त्रिएर में उन्हें रहने और कुछ पेशों में काम करने के लिए समुदाय के बतौर कर देना पड़ता था । फ़्रांसिसी शासन में यह भेदभाव खत्म हो गया था और इसी का लाभ उठाकर मार्क्स के पिता ने अदालत में अटार्नी का काम पकड़ लिया था । जब दोबारा कैथोलिक जमाना वापस आया तो उन्हें उस काम से निकाला जाने लगा । नतीजतन उन्होंने अपना धर्म बदल लिया और कैथोलिक तो नहीं, ईसाई होते हुए भी विरोधस्वरूप प्रोटेस्टेंट धर्म अंगीकार किया । जीवनीकार ने इसे तार्किकता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का प्रमाण माना है । आश्चर्य नहीं कि मार्क्स जीवन भर पिता की तस्वीर रखे रहे और उनके देहांत के बाद इसे भी उन्हीं के साथ दफना दिया गया था । पिता-पुत्र दोनों ही प्रशियाई राजतंत्र के मुखालिफ़ रहे ।
त्रिएर में स्कूली शिक्षा के खात्मे के बाद आगे की पढ़ाई के लिए 1835 में बान गए । गैब्रियल ने बान के जीवन में उनके लड़ाकू और झगड़ालू स्वभाव का विस्तार से जिक्र किया है और उन्हें मुसीबत मोल लेने वाला चित्रित किया है लेकिन स्पर्गर ने इसके पीछे त्रिएर में मौजूदस्वतंत्रता, समानता और बंधुत्वके फ़्रांसिसी मूल्यों और शेष जर्मनी से आए विद्यार्थियों के अनुदारवादी मूल्यों की टकराहट को कारण बताया है और यह भी सूचित किया है कि मार्क्स त्रिएर गुट के नेता थे । इसी सिलसिले में उन्होंने उस समय के जर्मनी में प्रचलित तलवारबाजी भी की थी । पिता के प्रभाव में वे बान में जिस पेशे के लिहाजन पढ़ाई कर रहे थे वह कानून से जुड़ा हुआ था लेकिन इसमें पूरी पढ़ाई और बाद में भी बहुत दिनों तक कोई कमाई होनी नहीं थी । ऊपर से ये सब झमेले, इसलिए विश्वविद्यालयी शिक्षा के लिए वे बर्लिन आए । बर्लिन के लिए निकलने से पहले ही बचपन की परिचिता चार साल बड़ी जेनी से सगाई हुई । बड़ी उम्र की लड़की से शादी का फैसला स्थापित सामाजिक मान्यताओं से मार्क्स का पहला विद्रोह था ।
बर्लिन में एक नया शौक पैदा हुआ । वे एक कवि समूह में शामिल तो हुए ही खुद भी कविताओं के लेखक बनने की सोचने लगे । जेनी को समर्पित प्रेम कविताओं से एकाधिक कापियों को भर डाला । हेगेल के चिंतन से भी मुहब्बत पैदा हो गई । हेगेल के चिंतन पर विचार करते हुए लेखक ने कांट से उसके संबंध को अच्छी तरह से व्याख्यायित किया है । कांट ने अनुभववाद की सीमा इस बात में देखी कि वैध ज्ञान इंद्रिय संवेदन से ही नहीं हासिल हो सकता । हमारे सामनेवस्तु निज रूपकभी उद्घाटित नहीं होता । लेकिन कांट के चिंतन में ज्ञाता और ज्ञेय का अंतर बना हुआ था । हेगेल ने इसी पर प्रहार किया और ज्ञान को ज्ञाता के ही ज्ञेय बन जाने की प्रक्रिया में देखा । आज यह सब अमूर्त लग सकता है लेकिन उस जमाने में हेगेल के विचार तकरीबन धर्मादेशों की तरह छा गए ।
बर्लिन में पढ़ाई के डेढ़ साल पूरे हुए थे कि पिता की मृत्यु हो गई । मार्क्स को बहुत धक्का लगा । माता के मुकाबले पिता से अधिक संवाद था । उसके बाद मार्क्स सारी जिंदगी धन के मामले में जुगाड़ पर ही जिंदा रहे । पिता के देहांत के बाद माता से लड़ झगड़कर शेष ढाई सालों की पढ़ाई का खर्च हासिल किया । ध्यान दोबारा लगाया तो दर्शन की दुनिया अधिक आकर्षक लगी । युवा हेगेलपंथियों का संग मिला । उन्हीं में से एक स्ट्रास ने जीसस की जीवनी लिखी और पाया कि क्राइस्ट के जीवन की कहानियों में सचाई कम मिथकीकरण अधिक है । इन कहानियों में फ़िलिस्तीन के यहूदियों के आशाओं, विश्वासों और अपेक्षाओं का मिथकीय प्रस्तुतीकरण हुआ है ।  स्ट्रास की इस बात से बवाल पैदा हो गया । ब्रूनो बावेर ने कहा कि ईसाई कथाओं को मिथकीय रूप में सामूहिक चेतना की अभिव्यक्ति समझने से धार्मिक आत्म-चेतना के महत्व की अनदेखी होती है । इन कथाओं के लेखकों ने मिथकों को उठाकर मनुष्य की आत्म-चेतना की अभिव्यक्ति में बदल डाला है । लुडविग फ़ायरबाख ने दोनों की बातों का सामान्यीकरण किया और कहा कि सभी धर्म अलगाव में पड़े हुए मनुष्य की प्राणी के बतौर आत्म-चेतना की अभिव्यक्ति रहे हैं । मसलन दिव्यता, ईश्वरीय प्रेम, न्याय और दया जैसे गुण मनुष्य के प्राणी रूप में सर्वोत्तम गुण हैं और इन्हीं को अपने आपसे अलगाकर उसे परम सत्ता में निवेशित कर दिया गया है ।
जर्मनी के उस समय के राजनीतिक हालात ने हेगेलपंथियों को लोकतांत्रिक राजनीति की ओर झुकने के लिए विवश कर दिया । विश्वविद्यालयों में उनके लिए जगह नहीं रही इसलिए वे स्वतंत्र लेखक या पत्रकार बने । मार्क्स का भाग्य भी इन्हीं के साथ बंधा हुआ था । बर्लिन विश्वविद्यालय में कोई ऐसा अध्यापक बचा नहीं था जिसके निर्देशन में इस युवा हेगेलपंथी का शोध जमा हो पाता इसलिए मार्क्स ने ऐसा विश्वविद्यालय चुना जहां से शोधकर्ता की अनुपस्थिति में भी शोध जमा हो जाता और उपाधि भी मिल जाती । जेना विश्वविद्यालय भी प्रसिद्ध था लेकिन शोध की उसकी फ़ीस सबसे कम थी इसलिए वहीं शोध जमा हुआ और उपाधि मिली ।
तेईस साल की उम्र में पढ़ाई खत्म करके मार्क्स त्रिएर लौटे । किसी विश्वविद्यालय में अध्यापन की आशा खत्म होने के बाद कोलोन से प्रकाशित राइनिशे जाइटुंग ने उन्हें कार्यकर्ता में बदल दिया । इस अखबार ने युवा हेगेलपंथियों, क्रांतिकारी बौद्धिकों और कोलोन के नागरिकों में उन्हें स्थापित तो किया लेकिन जीवन भर के लिए प्रशियाई राज्य का दुश्मन भी बना दिया । पहला लेख ही उन्होंने प्रेस की आजादी के बारे में लिखा था । इसकी आजादी के दुश्मनों को उन्होंने पुराने समाज के रक्षक साबित किया और इसकी आजादी को आगामी लोकतांत्रिक शासन का अग्रदूत बताया । अखबार अपनी सत्ता विरोधी छवि के चलते संकट की ओर बढ़ रहा था । जब मार्क्स इसके संपादक बने तो उन्होंने आलोचना को थोड़ा नरम बनाया, खासकर युवा हेगेलपंथियों की भड़काऊ नास्तिकता के प्रकाशन को रोका ताकि लोकतांत्रिक आलोचना के इस माध्यम को चलाते रखा जाय ।

                                                            

Thursday, December 18, 2014

ख्याल

                                              
(यह मुसलमान धोबियों का गीत प्रथम भारतीय स्वतंत्रता के संग्राम के दिनों में दिल्ली की झाँकी उपस्थित करता है । गीत से प्रकट है कि साधारण जनता किस भाँति विदेशी से छुटकारा प्राप्त करने के इस प्रयत्न में आत्म बलिदान की भावना से प्रेरित हुई थी । इतिहास की रक्षा लोक स्मृति में गीतों द्वारा किस प्रकार संभव है, यह गीत इसका सुंदर उदाहरण है ।)
बनी बनाई फ़ौज बिगड़ गई आ गई उलटी दिल्ली में ।
शाह जफ़र का लुटा नसीबा रहने लगा हवेली में ।
गंगाराम याहूदी ने जी देखो क्या काम किया ।
अंग्रेजों से मिला रहा, लड़ने का ही नाम किया ।
फ़ौज ने माँगा खाने को, ना उनको कोई काम दिया ।
भूखे लड़ते रहे गाजी अरु किनको सुभू शाम किया ।
वोई सूरमा लड़े वहाँ पै जिनके सिर थे हथेली में ।
शाह जफ़र का लुटा नसीबा-------
रामबक्स था किनका सहीस जी, जात पुरबिया कहलावै ।
खूनी दरवाजा था जो शाह का, अपना मोरचा लगवावै ।
मार मार के खंजर उनके लाशों के फ़रश वो बिछावै ।
काले खाँ गोलंदाज भी यारों मोरी गेट जा दबावै ।
नमकहलाली करी शाह की वो थे अल्लाकेली में ।
शाह जफ़र का लुटा नसीबा---------
तारों मोरचे तोड़े खाकियों ने चारों को फिर मरवाया ।
दसों दरवाजे दसों मोरिये सबको उसने तुड़वाया ।
शहर पनाँ थी जो शहर की वहीं लाशों को लटकाया ।
तड़प तड़प के मर गए गाजी पानी तक ना मुँह को लाया ।
हर एक एक का दुश्मन यारों जो थे लोग देहली में ।
शाह जफ़र का लुटा नसीबा-------
शहजादी जन्नत निशाँ न बादशाह का पता रहा ।
हिंदुस्तान का देखो यारों तख्त इस तरह हुआ तबाह ।
शहजादे भी हुए रवाना ना दिन कोई लगा पता ।
खोद खोद खाइयें तक ढूँढ़ी ना दरिया में लगा निशाँ ।
काले खाँ को मरवा दिया औ चारों तड़फते देहली में ।
शाह जफ़र का लुटा नसीबा-----
लाखों तड़फ तड़फ के गिरते सेठ और साऊकार वहाँ ।
क्या अमीर क्या नवाब वहाँ के गदर हिंद में दिए फला ।
हरेक जान को फिरे क्याण रिजक तल्क से हुए तबाह ।
मुरशीद चाँद ने देखो यारों गदर का ये मजमून लिखा ।
घीसा खलीफ़ा कहे ख्याल को सुरवन आज अलबेली में ।
शाह जफ़र का लुटा नसीबा-------
108-109
लोक साहित्य समिति ग्रंथमाला-2
उत्तर प्रदेश के लोकगीत
सूचना विभाग,उत्तर प्रदेश
प्रकाशक सूचना विभाग उत्तर प्रदेश सरकार लखनऊ
शक संवत 1881
कौरवी लोकगीत गीत 20

संकलनकर्ता श्री राहुल सांकृत्यायन श्रीमती कमला देवी चौधरी श्री कृष्णचंद्र शर्मा 

Tuesday, November 25, 2014

छत्तीसगढ़ यात्रा

                     
कोई भी यात्रा सिर्फ़ अपने मूल मकसद तक ही महदूद नहीं रहती सियाराम शर्मा के निमंत्रण पर दो तीन साल पहले की छतीसगढ़ यात्रा इतनी विचित्र तरह की यादों से जुड़ी है कि अब तक उनका दबाव मन पर महसूस होता है यात्रा का उद्देश्य मैनेजर पांडे पर होने वाली गोष्ठी में शिरकत करना था उनके वार्धक्य के साल दर साल जसम ने गोष्ठियों के जरिए शालीन तरीके से मनाए उनके निर्देशन में शोध करने और जसम का कार्यक्रम होने के नाते मुझे पहली बार वहीं बोलने के लिए कहा गया था इसके पहले वाली गोरखपुर की गोष्ठी में जाना हो सका था, पर्चा लिखकर भेज दिया था बहरहाल इलाहाबाद से रात में ट्रेन चली तो गर्मी के मौसम में भी औचक बारिश के कारण ठंड पड़ने लगी थी मौसम का पूर्वानुमान होने से के के ने मोटी चादर दे दी थी ओढ़े ओढ़े सबेरे दुर्ग पहुंच गया स्टेशन से सियाराम जी मोटर साइकिल से भिलाई स्टील प्लांट के अतिथिगृह ले आए पता चला यहीं गोष्ठी होनी है किसी और के पूछने पर बताया कि मजदूरों के वेतन से जब सांस्कृतिक मद में कटौती होती ही है तो अतिथिगृह या सभाभवन का उपयोग क्यों नहीं करना चाहिए अब तक यह तर्क मुझे परेशान करता रहता है सत्ता से पुरस्कार लेने का यही तर्क नागार्जुन दिया करते थे
इस बार समझ आया कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सरकारी संस्थानों से इस तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए सहायता लेना चलन है कुछ कह नहीं सकता लेकिन तर्क फिसलनभरा तो है बहरहाल भिलाई स्टील प्लांट में कोई सिंघई जी थे जो बाहर से आए हिंदी के साहित्यकारों आदि को प्लांट घुमाने में रुचि लेते हैं बता रहे थे केदार जी को थोड़े दिनों पहले घुमाया था नामवर जी इधर से जब भी गुजरते हैं तो फोन करते हैं और सिंघईजी प्लेटफार्म पर ही मिजाजपुर्सी कर लेते हैं इसके लिए पांचेक मिनट का वक्त बहुत होता है सियाराम जी ने बताया कि प्लांट के रूसी सहयोग से स्थापित होने के चलते इसमें अनेक खूबियां हैं मसलन प्लांट के भीतर अफ़सर और मजदूर का भेद बहुत नहीं दिखाई देगा मजदूर आबादी में सांप्रदायिक आधार पर दंगे नहीं हुए हैं बहरहाल हम तीन लोग सिर पर टोपी धारे कम से कम तीन घंटे प्लांट में घूमते रहे प्लांट जैसे हांफता फुफकारता विराट दानव
सबसे पहले वह जगह देखी जहां लोहा गाढ़े हलवे की तरह ढेर करके रखा गया था बड़ा सा लोहे का बेलन उसे बेलकर लंबा कर रहा था चपटे होते इस्पात पर पानी लगातार गिराया जा रहा था फिर उस लाल इस्पात की लंबी चादर को ऐसे सांचे से गुजारा जा रहा था जो उसे रेल की पटरी की शक्ल दे रहा था करीब सौ फ़ुट लंबी उस पटरी को टुकड़ों में बांटने के लिए एक ओर से तीन आरे एक साथ निकलते और उसे दो समान भागों में बांट देते ऐसा डाला की सीमेंट फ़ैक्ट्री में भी घूमते हुए देखा था कि मजदूर समूची प्रक्रिया के बारे में बेहद अधिकार से जानकारी देते हैं यहां भी बताया गया कि ये पटरियां मालगाड़ी की लाइन के लिए बन रही हैं वहीं बताया गया कि मालगाड़ियों के लिए अलग से पटरी बिछाई जाएगी जिसके लिए 72 फ़ुट लंबी पटरियां बनाने का आदेश आया है अभी 18 फ़ुट की एक पटरी होती है जितनी लंबी एक पटरी होगी उतना ही अधिक तेज गाड़ी चलाने में आसानी होगी वहीं किसी ने बताया कि गाड़ी के चलने में खटर पटर की आवाज का कारण ये पटरियां ही होती हैं उनका कहना था कि इसे गिनकर अंधेरे में गाड़ी की गति और किसी सुरंग की दूरी बताई जा सकती है अचरज के साथ मैं उस कानफाड़ू शोर में भी जीवन के साथ यांत्रिकी का जुड़ाव सुने जा रहा था रोटी के बेलने जैसी और आरी के चीरने जैसी उन क्रियाओं को लोहे के साथ होते देखना ही मजेदार था यह सब कुछ यंत्रचालित था जिसके लिए बिजली से चलने वाली मोटरें थीं इनकी गिनती की मेरी सारी कोशिशें असफल साबित हुईं मेरे गांव पर खेतों की सिंचाई के लिए लगे ट्यूबवेल में एक मोटर से काम चल जाता था कल्पना करता रहा कि कितने ट्यूबवेल चल जाएंगे गणित में हाथ तंग होने के चलते ऐसे ही तरीकों से उसे साधने की चेष्टा आज तक करता रहा हूं और बार बार असफल होने का प्रमाण पुवायां कालेज के क्लर्क से लेकर दिल्ली के जुगाड़ू पड़ोसी के हाथों ठगा जाकर देता रहा हूं
आरी से काटे जाने के बाद जो टुकड़े सही आकार के होते उन्हें एक मशीनी हाथ उठाता और बाहर भेजने के लिए इकट्ठा कर देता । बचे टुकड़ों को वैसा ही एक और हाथ उठाकर गलाने के लिए ले जाता । यहां से निकलकर जहां लोहा गलाया जा रहा था वहां गए । एक ऊंचे से कुएं में पिन बराबर छेद से झांका तो सिर्फ़ पीला आसमान नजर आया । बाहर नाली में पिघला लोहा बह रहा था । अगल बगल अभ्रक के किनारों के बीच बहता लोहा । थोड़ी थोड़ी देरी पर आग के जलते हुए फूल से छिटकते रहते थे । प्रसाद जी याद आएखिला हो ज्यों बिजली का फूल । पता चला नीचे जहां यह गलता लोहा एकत्र हो रहा है वे बर्तन बाल्टी कहे जाते हैं । जब एक बाल्टी भर जाती है तो उसे मशीनी हाथ पेंदी से पकड़कर उलटता है । इस दौरान लोहे का बहाव रोकना पड़ता है । बहव रोकने के लिए मजदूर नाली में जाकर उसी अभ्रक को मिट्टी की तरह डाल देते हैं । फिर बाल्टी लग जाने पर अभ्रक को टारकर नाली का मुंह खोल दिया जाता है । जिसे बाल्टी कहा जा रहा था उसकी ऊंचाई तीन मंजिला मकान जितनी रही होगी । ऐसी दसियों बाल्टियां कतार से एक एक नाली के नीचे लगी हुई थीं ।
इसके बाद उस जगह गए जहां यह गलता हुआ लोहा ठंडा होकर गाढ़ा होता है । गाढ़े बहते लोहे में एक बेलचानुमा अंकुसी डालकर एक मजदूर ने लोहे का टुकड़ा उठाया और उसे पानी में डाल दिया । बीच बीच में ऐसा घनत्व नापने के लिए नमूना निकालने हेतु करना पड़ता है । अंकुसी से लाल टुकड़ा निकला, उसे बूट से कुचलकर चिपटा करके पानी में डाला गया । देवेंद्र जी बता रहे थे- बाहर से घूमने आए लोगों को हम लोग अनेक जगहों पर नहीं ले जाते । मसलन एक प्रक्रिया होती है जिसमें वैक्यूम पैदा करके लोहे के भीतर से हवा निकाली जाती है । बहरहाल सिंघई जी लगातार मोबाइल से फोटो खींचे जा रहे थे जो अब तक मुझे नहीं मिल सके हैं ।
गोष्ठी में ठीक ठाक लोग थे । इधर उधर विज्ञापन या अखबार पढ़ते हुए कुछ चीजों ने ध्यान खींचा था । एक तो यह कि भाषा पर मराठी का असर था । इसकी पहचान वर्धा प्रवास के कारण हो सकी थी । मसलन डीजल को डीझल या जीराक्स की जगह झीराक्स । इस मामले में डालडा की तरह ब्रांड का नाम ही वस्तु का नाम हो गया है । बिलासपुर को न्यायधानी कहने का अर्थ रायपुर को राजधानी बताने से खुला क्योंकि वहां हाई कोर्ट खुला है । इसी तरह भिलाई को संस्कारधानी लिखा जा रहा था । पहले के अविभाजित मध्य प्रदेश में यह गौरव जबलपुर को हासिल था । इस बार की चंदेरी यात्रा में इस बात की जानकारी हुई ।  
प्रणय को रायपुर से ट्रेन पकड़नी थी । मुझे विनोद कुमार शुक्ल से दीवार में खिड़की पढ़कर मिलने की इच्छा थी । सियाराम जी और पार्टी के प्रभारी तिवारी जी मोटर साइकिल से चले । मैं सियाराम जी के पीछे, प्रणय तिवारी जी के । पहले हम लोग कविता के घर गए । उनकी मां धीरज के साथ पति की स्नायविक शिथिलता का बढ़ना देख रही थीं । पिता भी थोड़ी देर के लिए बैठे । राधिका वहीं थी । फिर वहां जहां संदीप पांडे आदि विनायक सेन की गिरफ़्तारी के विरोध में धरने पर बैठे थे । बहुत पहले बलिया के इस नौजवान को मैगसेसे पुरस्कार मिलने की खबर देखी थी । तब यह भी पढ़ा था कि आई टी में इन्होंने पढ़ाई की है । पार्टी के काम से सिकंदरपुर, मनियर आदि जाना होता रहता था । संगठन और गरीबों के बीच एन जी ओ जैसी चीज मलाड़ी में देख चुका था । लगा था ये सज्जन भी उसी दिशा में जाएंगे । वहां पहली बार देखा । लैपटाप में डोंगल लगाकर इंटरनेट खोले हुए हैं औरसच्ची मुच्चीनाम की एक पत्रिका हम लोगों को देने लगे । गांधीवादी हास्यास्पद रूप से आदर्शवादी होते हैं । प्रणय पिता के समाजवादी होने और बनवारी लाल शर्मा का इलाहाबाद में प्रभाव होने से इन लोगों से घुल मिल पाते हैं । मुझे उलझन होती है । बहरहाल वर्धा में रहते हुए ई मेल खोला था, वही दर्ज कराकर भाषण दिया ।
प्रणय चले गए तो सियाराम जी के साथ विनोद कुमार शुक्ल के यहां गया । वे मेरी प्रशंसा से झेंपकर या जाने क्यों सियाराम जी से ही बात करते रहे । इतनी शीतलता तलवार जी के बाद इन्हीं के व्यवहार में देखी । बर्दाश्त नहीं होती । मुख्य मंत्री रमन सिंह की प्रशंसा कर रहे थे ।
खैर जब प्रणय थे तभी मुक्तिबोध के कालेज में राजनांदगांव गया था तीर्थेश्वर सिंह के साथ । उनकी कविताओं का पूरा माहौल मौजूद था । कालेज के सामने बावड़ी । बावड़ी के किनारे बरगद का पेड़ । जिस कमरे में रहते थे उस कमरे के बीच में चक्करदार लोहे की सीढ़ी । कमरा पहली मंजिल पर था । वहां तक जाने के लिए संकरी सीढ़ियां । इसी कालेज में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी भी पढ़ाते थे । अब तो लेखकों को फ़ुर्सत के साथ रहकर लिखने के लिए दो कमरों का गेस्ट हाउस भी बन गया है । लौटते हुए बहन के यहां हम तीनों ने खाना खाया था । विनोद कुमार शुक्ल के साथ खास बात यह लगी कि जिस तरह रचकर वे लिखते हैं उसी तरह बोलते भी हैं यानी रचाव-बनाव उनका स्वभाव हो गया है । बुरी बात नहीं । महावीर अग्रवाल से भी भेंट हुई । उन्होंने प्रणय के कारण मुझे और तीर्थेश्वर जी को भी नाश्ता कराया था । बेहतरीन नाश्ता । प्रणय का तीसेक पृष्ठ लंबा इंटरव्यू छापा । इस यात्रा में संयोगवश पंकज चतुर्वेदी नहीं थे ।          

25/10/2013