आचार्य शुक्ल की रचनावली के
संपादक ओमप्रकाश
सिंह और कुसुम चतुर्वेदी द्वारा संपादित ‘चिंतामणि’ के भाग 4 से पता लगता है कि इन
निबंधों का लेखन बहुत पहले शुरू हो गया था । इस किताब में आचार्य शुक्ल का
निबंध ‘मनोविकारों का विकास’ संकलित हुआ है । इसमें सामान्य विवेचन के
अतिरिक्त क्रोध, भय, घृणा, आदि मनोभावों का थोड़ा विस्तार से परिचय दिया गया है । इसका प्रकाशन सबसे पहले नागरी प्रचारिणी
पत्रिका के अक्टूबर 1912 के अंक में हुआ था । उन्होंने अपने
निबंधों में मनोविकारों के विश्लेषण की जो पद्धति अपनायी थी वही पद्धति इस तरह के
निबंधों के स्वरूप के साथ भी है । स्पष्ट है कि एक मनोविकार को दूसरे मनोविकार से
अलगाकर देखने का उनका रवैया भाव संबंधी इन निबंधों की खास पहचान यूं ही नहीं बना, उसका क्रमिक विकास हुआ है । कुसुम जी
ने विकास को उनकी समझ का बीजशब्द बताया है ।
Thursday, December 8, 2016
चिंतामणि के निबंधों का स्वरूप
‘चिंतामणि भाग-1’ के निबंधों के लेखन के समूचे
संदर्भ की जानकारी नामवर सिंह ने ‘चिंतामणि भाग-3’ की भूमिका ‘एक अंतर्यात्रा के प्रदेश’ में दी है । इसमें वे बताते हैं ‘अक्टूबर
1908 से आचार्य शुक्ल के विकास का दूसरा चरण शुरू होता है जो
1919 के आसपास तक चला ।---इस अवधि के लेखन में
मुख्य है ‘मनोविकारों का विकाश’ नामक लेखमाला
और ‘विश्वप्रपंच’ नामक अनुवाद तथा उसकी
लम्बी भूमिका । एक तरह से ये दोनों ही काम मनोविज्ञान और दर्शन क्षेत्र के हैं,
किन्तु यह वह ठोस भूमि है जिस पर आगे चलकर साहित्य-चिन्तन का भव्य भवन खड़ा हुआ ।’ लेखमाला के ही लेख आगे
पुस्तक के रूप में संकलित और प्रकाशित हुए ।
चिंतामणि
भाग-1 की भूमिका में ही आचार्य शुक्ल ने अपने निबंधों का स्वरूप बताने की कोशिश की है । वे कहते हैं ये निबंध उनकी ‘अंतर्यात्रा में पड़ने वाले कुछ प्रदेश हैं’
। इस यात्रा के लिए ‘निकलती रही है बुद्धि, पर हृदय को भी साथ लेकर’ । स्पष्ट है कि इन निबंधों का
स्वरूप प्रधान रूप से बौद्धिक है । एक और तथ्य से इस बात की पुष्टि होती है । निबंधों
के इस संग्रह के शुरुआती 13 निबंधों का संग्रह पहले ‘विचार-वीथी’ नाम से अग्रवाल प्रेस,
बनारस कैंट से हो चुका था । बाद के 4 और निबंध
जोड़कर इसे ‘चिंतामणि’ के नाम से प्रकाशित
कराया गया । पहले रूप में ‘विचार’ और दूसरे
रूप में ‘चिंता’ शब्द भी इनके बौद्धिक स्वरूप
की गवाही देते हैं । फिर भी उन्होंने इस सवाल का निर्णय विज्ञ पाठकों के लिए छोड़ दिया
कि ‘ये निबन्ध विषय-प्रधान हैं या व्यक्ति-प्रधान’ । इससे इस विवादपरक चर्चा के लिए अवकाश बना कि
इन निबंधों का स्वरूप क्या है । ‘चिंतामणि’ के पहला भाग का प्रकाशन इंडियन प्रेस, प्रयाग से हुआ
था । बाद में इसका एक और संस्करण लोक भारती ने प्रकाशित किया है । दोनों में टिप्पणी
के रूप में ‘मंजूषा’ और ‘विमर्श’ का लेखन क्रमश: विश्वनाथ
प्रसाद मिश्र और राम कृपाल पांडे ने किया है । दोनों ने ही शुक्ल जी के निबंध संबंधी
दृष्टिकोण का विश्लेषण करते हुए इस सवाल का जवाब देने की कोशिश की है ।
शुक्ल जी द्वारा अपने ही निबंधों के बारे में उठाए गए प्रश्न
का सहारा लेकर राम कृपाल पांडे कहते हैं ‘—यदि स्वयं शुक्ल जी ने यह प्रश्न ‘चिंतामणि’ के निवेदन में न उठाया होता तो शायद ही कोई
ऐसा पाठक होता जिसे उनके निबंधों की विषय-प्रधानता या वस्तु-प्रधानता या तर्क-प्रधानता में सन्देह होता । उनके निबंध
विषय-प्रधान हैं यह बात दिन के प्रकाश की भाँति स्पष्ट है ।’
इसके बावजूद शुक्ल जी द्वारा उठाए गए संदेह के कारण का अनुमान लगाते
हुए वे कहते हैं ‘बात यह है कि व्यक्ति-प्रधानता और विषय-प्रधानता के बारे में हर व्यक्ति की
अपनी-अपनी पृथक धारणा हो सकती है ।--निबंध
तो वही हैं, पर कोई उन्हें व्यक्ति-प्रधान
मानता है, कोई विषय-प्रधान । इस संबंध में
मतैक्य तभी संभव हो सकता है जब सब मिलकर पहले यह तय कर लें कि अमुक-अमुक लक्षण विषय-प्रधानता के हैं और अमुक-अमुक लक्षण व्यक्ति-प्रधानता के ।’ इन दोनों को ठीक-ठीक अलगाया नहीं जा सकता इस बात को राम
कृपाल जी जानते हैं । इसीलिए उन्होंने लिखा है ’—प्रत्येक निबंध
में दो प्रकार के तत्व परस्पर अन्तर्ग्रथित होते हैं- पहला विषयतत्व
और दूसरा लेखक का व्यक्ति-तत्व ।’ यहां
तक कि खुद पांडे जी ने शुक्ल जी के निबंधों से उनके व्यक्तित्व को जोड़ने की कोशिश की
है क्योंकि ‘किसी लेखक की शैली में उसके आंतरिक व्यक्तित्व की
संपूर्ण बनावट, उसकी लोक निरीक्षण-शक्ति,
उसकी रुचियों-अरुचियों, उसकी
प्रतिभा का क्रमिक विकास और उसके जीवन की पृष्ठभूमि, वातावरण
और अनुभव-जगत तक को पहचाना जा सकता है ।’ इसी कसौटी पर उन्होंने शुक्ल जी के निबंधों को भी परखा है ।
इसीलिए उनका मत है कि ‘कोई भी निबंध विषय-प्रधान है या व्यक्ति-प्रधान- इसका
निर्णय करने में हमें यह तोलना होगा कि उसमें विषयतत्व की प्रधानता है या व्यक्तित्व
की ।’ प्रधानता का निर्णय होने से पहले दोनों का अंतर समझ लेना
जरूरी है । इसलिए पांडे जी ने दोनों को अलगाने की कोशिश की है । लिखते हैं
‘विषयतत्व का अर्थ होता है विषय का यथार्थ विवेचन या विवरण जिसके बारे
में लेखक के व्यक्तित्व से कोई अंतर नहीं पड़ता और व्यक्तित्व तो लेखक का नितांत निजी
होता है जिसकी प्रधानता होने पर पाठक को विषय-बोध से बढ़कर लेखक
के व्यक्तित्व का बोध होता है ।’ इससे हासिल स्पष्टता के आधार
पर पांडे जी निर्णय करते हैं कि ‘आचार्य शुक्ल की निबंध संबंधी
धारणाओं से भी—यही व्यंजित होता है कि उनके निबंध विषय-प्रधान ही हो सकते हैं, व्यक्ति-प्रधान नहीं ।’ इसी तरह की राय विश्वनाथ प्रसाद मिश्र
भी जाहिर करते हैं । उनका कहना है कि आचार्य शुक्ल ने निर्णय को विज्ञ पाठकों पर छोड़ते
हुए भी ‘विषय-प्रधान’ शब्द को पहले और ‘व्यक्ति-प्रधान’
को बाद में रखकर अपना संकेत दे दिया है । दोनों की राय इन्हें विषयनिष्ठ
निबंध ही मानती हुई महसूस हो रही है ।
आचार्य शुक्ल के निबंधों की विशेषता को पहचानने में उनकी भाषा
से काफी सहायता मिलती है । इस भाषा से उनके व्यक्तित्व का संबंध उजागर करते हुए जगन्नाथ
प्रसाद शर्मा ने नागरी प्रचारिणी सभा से 1959 में पांचवीं बार प्रकाशित अपनी किताब
‘हिंदी की गद्य-शैली का विकास’ में बताया है ‘शुक्ल जी की व्यक्तिगत गंभीरता उनकी भाषा
में व्याप्त रहती थी । उनकी भाषा संयत, प्रौढ़ तथा विशुद्ध होती
थी; उसमें एक प्रकार का सौष्ठव विशेष प्राप्त होता था,
जो संभवत: अन्य किसी भी लेखक में नहीं दिखाई पड़ा
। उसमें गंभीर विवेचना, गवेषणात्मक चिंतन एवं निर्भ्रांत अनुभूति
की पुष्ट व्यंजना सर्वदा वर्तमान रहती थी ।’ शुक्ल जी के निबंधों
पर विचार करने वाले लगभग सभी लोगों ने इस बात को रेखांकित किया है कि उनके निबंधों
में उनके गंभीर व्यक्तित्व की छाप है । इसे जोर देकर कहते हुए शर्मा जी ने अन्य लेखों
से निबंधों को अलगाते हुए लिखा है ‘निबंधों में स्वच्छंदता का
विशेष अवकाश होने के कारण भाव-व्यंजना भी सरल हुई है । उनमें
अपेक्षाकृत वाक्य कुछ बड़े हुए हैं; भाषा अधिक चलती और व्यावहारिक
हुई है । यों तो इनकी रचनाओं में धारा-प्रवाह कुछ कम रहता है,
परंतु निबंधों में इसका भी पूरा आनंद प्राप्त होता है । इस प्रकार की
रचनाओं में विचार-शक्ति का अच्छा संघटन रहता है अतएव वाक्यों
के रूप में बाहर जब इसका स्वरूप उपस्थित होता है तब उसमें आंतरिक और बाह्य भाव-व्यंजना में एक वैचित्र्यपूर्ण सामंजस्य दिखाई पड़ता है । एक के उपरांत दूसरे
विचार क्रमश: इस प्रकार व्यक्त होते जाते हैं कि धीरे-धीरे विचारों की एक लड़ी बन जाती है । इन निबंधों में से यदि कोई एक वाक्य भी
बीच में से निकाल लें तो समस्त भावमाला अस्त-व्यस्त हो इधर-उधर बिखर जायगी । इनकी रचना में शब्दाडंबर से बचने की चेष्टा मिलती है और अभिप्राय-विहीन निरर्थक शब्दों का प्रयोग कहीं नहीं प्राप्त होता ।’ शुक्ल जी के निबंधों की विशेषताओं को रेखांकित करने के क्रम में शर्मा जी भी
यही संकेत करते प्रतीत होते हैं कि इन निबंधों में मुख्यता उनके वर्ण्य विषय की ही
रहती है ।
इस तथ्य को राम कृपाल पांडे ने तर्क पूर्वक प्रस्तुत करते हुए
कहा कि शुक्ल जी के अधिकांश निबंध भावों या मनोविकारों पर लिखे गए हैं इसलिए ‘विषयवस्तु
की दृष्टि से उनके इन निबंधों को यदि कोई भाव-प्रधान कहना चाहे
तो बेखटके कह सकता है; परंतु विवेचन-शैली
की दृष्टि से उन्हें भाव-प्रधान मानना, मेरी दृष्टि में, एकदम ग़लत होगा । यह सत्य है कि भावों
का उनका विवेचन एकदम भाव शून्य नहीं है और यदि ऐसा होता तो उनका मनोविकार-संबंधी कोई भी निबंध साहित्यिक निबंध की कोटि में रखने लायक न होता । भावात्मकता
या शुक्ल जी के हृदय-पक्ष का आभास थोड़े-थोड़े अंतराल पर मिलता रहता है, इसमें संदेह नहीं,
फिर भी विषय वस्तु का उनका सारा ट्रीटमेंट बुद्धि प्रधान है,
इसमें भी संदेह के लिए अवकाश नहीं है ।’ मुख्य
बात यह है कि भावों पर लिखे होने के बावजूद ‘चिंतामणि भाग-1’
के निबंध भावात्मक निबंध नहीं हैं । भावात्मक निबंधों के बारे में शुक्ल
जी की राय आप उनकी निबंध दृष्टि संबंधी यूनिट में देख-पढ़ सकते
हैं ।
तब सवाल उठता है कि इन निबंधों का विषय क्या है । नामवर सिंह
के लेख में इन्हें मनोविज्ञान का काम मानने की ओर इशारा है । इस धारणा के पीछे यह तथ्य
है कि इस संग्रह में शामिल 17 निबंधों में से पहले 10 निबंध भाव या मनोविकार विषयक हैं जिनका गहरा संबंध पांडे जी के मुताबिक ‘मनोविज्ञान’ से है । इससे एक प्रश्न पैदा होता है कि
इस तरह के शुद्ध वैज्ञानिक विषय पर लिखे ये निबंध साहित्यिक हैं या नहीं । इसका जवाब
देते हुए राम कृपाल जी कहते हैं ‘यह कहना कि आचार्य शुक्ल के
मनोविकार संबंधी निबंध मनोवैज्ञानिक नहीं हैं- बिल्कुल गलत है
और यह कहना भी बिल्कुल गलत है कि वे साहित्यिक नहीं हैं । दरअसल शुक्ल जी के मनोविकार
संबंधी निबंध मनोवैज्ञानिक साहित्यिक निबंध हैं ।’ इसके बाद वे
इन निबंधों की प्रकृति के कारण उत्पन्न एक अन्य पहलू को भी उठाते हैं । उनके अनुसार
‘इसी तर्कपद्धति से आचार्य शुक्ल के मनोविकार संबंधी निबंधों
को समाजशास्त्रीय भी मानना चाहिए, पर वे जिस प्रकार शुद्ध मनोवैज्ञानिक
निबंध नहीं कहे जा सकते उसी प्रकार शुद्ध समाजशास्त्रीय निबंध भी नहीं कहे जा सकते
।’ इसी आधार पर उनका निष्कर्ष है कि ‘शुक्ल
जी के मनोविकार संबंधी निबंध मनोवैज्ञानिक-समाजशास्त्रीय साहित्यिक
निबंध हैं ।’ स्पष्ट है कि इन निबंधों का स्वरूप अंतर-अनुशासनिक है ।
राजकमल प्रकाशन से रामचंद्र तिवारी संपादित ‘श्रेष्ठ
निबन्ध : आचार्य रामचंद्र शुक्ल’ की
2012 में पाँचवीं आवृत्ति हुई है । इसके आमुख में तिवारी जी ने लिखा
है ‘आधुनिक मनोविज्ञान के आलोक में आचार्य शुक्ल के निष्कर्षों
पर पुनर्विचार की आवश्यकता है ।’ वे इन निबंधों की विषय वस्तु
मनोविज्ञान मानते प्रतीत होते हैं लेकिन शुक्ल जी के विवेचन को शास्त्रीय मनोविज्ञान
से भिन्न मानते हैं । उनके मुताबिक शुक्ल जी ने शुरुआती अध्ययन के बाद समझ लिया कि
‘—यदि व्यक्ति को समझना है, व्यक्ति और समाज के
गूढ़ सम्बन्धों को समझना है, प्रकृति के साथ उसके चिरन्तन अस्तित्व
और लगाव को समझना है---तो मानव मनोभावों विश्लेषण आवश्यक है ।
भारतीय काव्यशास्त्र और पाश्चात्य मनोविज्ञान के तुलनात्मक अनुशीलन से आचार्य शुक्ल
के विश्वास को बल मिला ।’ नवीनता यह थी कि ‘उन्होंने भारतीय रस-पद्धति के अन्तर्गत निरूपित स्थायी-संचारी भावों के महत्व और मूल्य को पाश्चात्य मनोविज्ञान के प्रकाश में विश्लेषित
किया ।’ स्वाभाविक है कि इसी तरह उन्होंने साहित्यिक विवेचन में
परंपरा से हटकर नयी स्थापनाएं पाश्चात्य और भारतीय दोनों ज्ञान परंपराओं के अवगाहन
के बाद कीं ।
भाव या मनोविकार संबंधी शुक्ल जी के विवेचन की दूसरी विशेषता
बताते हुए तिवारी जी लिखते हैं ‘आचार्य शुक्ल ने मनोभावों की विकास-प्रक्रिया को मानव-जीवन की विकास प्रक्रिया के समानांतर
रखकर दोनों के अनिवार्य संबंध को स्पष्ट करते हुए यह स्थापित किया कि मानव की बाह्य
गतिविधियों के मूल में उसके अंत:करण में स्थित मनोभाव प्रेरक
रूप में विद्यमान रहते हैं ।’ उनके मनोभाव संबंधी लेखन का लक्ष्य
बताते हुए दर्ज किया कि ‘आचार्य शुक्ल ने यह सारी छानबीन भारतीय
रस-निरूपण-पद्धति को आधुनिक मनोविज्ञान
के प्रकाश में नया संस्कार देने के प्रयत्न में की है ।---भारतीय
काव्य-दृष्टि का चरम उत्कर्ष रस-निरूपण-पद्धति में हुआ है । इसलिए रस-निरूपण-पद्धति का आधुनिक मनोवैज्ञानिक चिंतन के आलोक में संस्कार-प्रसार आवश्यक है ।’ इस सिलसिले में आचार्य शुक्ल के
चिंतन की मौलिकता की पुष्टि के लिए राम कृपाल जी ने राम विलास शर्मा की किताब
‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना’ से एक
अंश उद्धृत किया है जिसमें राम विलास जी कहते हैं कि शुक्ल जी की ‘स्थापनाएँ मौलिक हैं और न केवल साहित्यशास्त्र को, वरन
मनोविज्ञान और समाजशास्त्र को भी महत्वपूर्ण देन हैं ।’
राम कृपाल पांडे ने थोड़ा विस्तार से आचार्य विश्वनाथ प्रसाद
मिश्र के इस मत का खंडन किया है कि शुक्ल जी के निबंध मनोवैज्ञानिक नहीं हैं । विश्वनाथ
प्रसाद मिश्र ने शुक्ल जी के निबंधों को मनोवैज्ञानिक नहीं मानने के लिए वैज्ञानिक
और साहित्यिक के बीच भेद का सहारा लिया था । उनके इस दृष्टिकोण के मुकाबले पांडे जी शुक्ल
जी द्वारा किए गए तत्व-चिंतक और साहित्यिक का भेद अधिक उपयुक्त मानते हैं । वे शुक्ल
जी द्वारा वर्णित इस भेद को उद्धृत करते हैं ‘तत्वचिंतक या दार्शनिक केवल अपने व्यापक
सिद्धांतों के प्रतिपादन के लिए उपयोगी कुछ संबंध सूत्रों को पकड़कर किसी ओर सीधा चलता
है और बीच के ब्योरों में कहीं नहीं फँसता । पर निबंध लेखक अपने मन की प्रवृत्ति के
अनुसार स्वच्छंद गति से इधर उधर फूटी हुई सूत्र-शाखाओं पर विचरता चलता है ।’ इस वर्णन
से साफ है कि दोनों में अंतर ‘मन की प्रवृत्ति’ से पैदा होता है और यहीं से सूत्र लेकर
राम कृपाल जी कहते हैं कि ‘ऐसा नहीं है कि साहित्यिक या निबंध लेखक तत्वचिंतन करता
ही नहीं या अपने निबंध में उसका निरूपण नहीं करता ।’ इसी आधार पर विश्वनाथ प्रसाद मिश्र
की मान्यता का खंडन करते हुए पांडे जी लिखते हैं ‘साहित्यिक सिर्फ अनुभूति तक सीमित नहीं रहता, वह विश्लेषण
में तर्कबुद्धि से बराबर कार्य लेता है और प्रयोगशील भी होता है । इसी प्रकार वैज्ञानिक
भी मात्र आँकड़ों पर निर्भर नहीं करता, वह भी अनुभूति और तर्कबुद्धि
से कार्य लेता है । निरीक्षण और प्रयोग दोनों के लिए अपरिहार्य होते हैं ।’
कहने की जरूरत नहीं कि पांडे जी के इस प्रत्याख्यान के बावजूद विज्ञान
और साहित्य का भेद तो रह ही जाता है इसीलिए कुल के बावजूद मनोविज्ञान संबंधी पारंपरिक
लेखन से शुक्ल जी के इन निबंधों को अलगाया जाता है ।
शुक्ल जी के ये निबंध केवल मनोविज्ञान तक ही सीमित नहीं हैं, इसका पता
हमें उनकी विषय वस्तु की थोड़ी गहरी छानबीन से चल जाता है । नामवर सिंह ने ‘एक अंतर्यात्रा के प्रदेश’ में इन निबंधों मे व्यक्त
राजनीतिक समझ का भी उल्लेख किया है । वे लिखते हैं ‘जहाँ यह राजनीतिक
अंतर्दृष्टि है कि विश्वयुद्ध उपनिवेशवादी राज्यों की बाजार संबंधी आपसी होड़ का नतीजा
था, वहीं राष्ट्रीय स्तर पर इतना लड़ाकूपन है कि गाँधीजी के सत्य
अहिंसा से काम न चलेगा ।’ इसके लिए किसी भी निबंध को उसकी ऊपरी
सतह से नीचे उतरकर थोड़ा सा ही देखना काफी होता है । ‘क्रोध’
शीर्षक निबंध के विश्लेषण वाली यूनिट को पढ़कर इसे अच्छी तरह समझा जा
सकता है ।
अंत में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इन निबंधों की शैली के बारे
में भी जानना उपयोगी होगा क्योंकि उनकी विशिष्ट शैली ही उनके निबंधों को हिंदी के समग्र
निबंध साहित्य में विशेष स्थान का अधिकारी बनाती है । रामचंद्र तिवारी ने उनकी शैली
को विश्लेषित करते हुए लिखा ‘शुक्ल जी की शैली मूलत: विचार और विवेचन की शैली है । उनके निबंध उनके बौद्धिक मंथन के परिणाम हैं
। उनके छोटे से छोटे निबंध में भी अनेक दिशाओं में आगे बढ़कर चिंतन करने की संभावनाएँ
विद्यमान हैं । उनके विचार विवेचन का अपना एक क्रम है । आरंभ में वे प्रतिपाद्य विषय
को नपी तुली शब्दावली में प्रस्तुत करते हैं । यह प्रस्तुतीकरण कहीं छोटी सी तीन चार
पंक्तियों की भूमिका के साथ होता है, कहीं सीधे विषय को परिभाषित
करते हुए । विषय को प्रस्तुत करने के बाद उसे वे अधिक से अधिक स्पष्ट करना चाहते हैं
। इस स्पष्टीकरण या व्याख्या के क्रम में वे विचार सूत्रों को फैलाते हैं ।’
इसके बाद ‘विचार सूत्रों को समेटते समय वे एक बार
फिर अपने मूल मंतव्य को संक्षेप में उपस्थित करते हैं । निबंधों के अंत करने का भी
उनका अपना ढंग है । कभी प्रतिपाद्य विषय की सबसे बड़ी विलक्षणता का उल्लेख करते हुए,
कभी उसके पूर्ण स्वरूप की व्यंजना
को उदाहृत करते हुए, कभी सामाजिक जीवन में उसकी स्थिति को स्पष्ट
करते हुए, कभी शील की दृष्टि से उसके महत्व की स्थापना करते हुए
वे अपने निबंधों का अंत करते हैं । लंबे निबंधों में भी उनका विवेचन क्रम लगभग यही
है । छोटे और अपेक्षाकृत बड़े निबंधों में अंतर केवल यह है कि छोटे निबंधों में आनुषंगिक
विवेच्य विषयों के क्रम निर्धारण की कोई पूर्णत: निर्दिष्ट योजना
ऊपर ऊपर से दिखायी नहीं पड़ती, किंतु बड़े निबंधों में यह योजना बहुत स्पष्ट होती
है ।’ आचार्य शुक्ल के निबंधों के गाढ़े विचार प्रवाह को समझने
के क्रम में अक्सर उनकी विचार योजना पर ध्यान नहीं जा पाता लेकिन तिवारी जी ने संक्षेप
में उसे अच्छी तरह समेट लिया है ।
इसी प्रकार संक्षेप में ही उन्होंने इस शैली की कुछ अन्य विशेषताओं
का भी निदर्शन कराया है । वे कहते हैं ‘विचारात्मकता, भावात्मकता
और व्यंग्यप्रियता- ये शुक्लजी की निबंध शैली की तीन प्रमुख विशेषताएँ
हैं । उनके निबंधों में इन्हें आसानी से पहचाना जा सकता है, किंतु
उनकी शैली की कुछ ऐसी विशेषताएँ भी हैं जो उनके व्यक्तित्व के आंतरिक संघटन से इस प्रकार
संलिष्ट भाव से जुड़ी हैं कि उन्हें सीधे सीधे नाम देकर इंगित करना कठिन है । वस्तुत:
शुक्ल जी का संयम, मर्यादा प्रियता, सांमजस्यमयी जीवन दृष्टि, तत्वान्वेषिणी प्रज्ञा,
स्वाभिमान, देशप्रेम, सौंदर्य
चेतना, आत्मविश्वास, पसंद नापसंद,
रीझ और खीझ- ये सब उनकी गद्य शैली को रूप देने
में संघटक तत्व बन गए हैं ।’ यहां तक कि ‘उनका शब्द चयन, पद योजना, वाक्य
विन्यास, व्यापार बोधक क्रिया प्रयोग, विशेषण
विधान या यों कहिए कि भाषा रचना के सभी उपादान उनके व्यक्तित्व से जुड़े हुए हैं ।’
तात्पर्य कि ‘उनके व्यक्तित्व के संघटक तत्वों
से ही उनकी भाषा चेतना का निर्माण हुआ है ।’ इस आधार पर हम कह सकते हैं कि किसी
भी साहित्यकार के व्यक्तित्व की जानकारी का जितना बड़ा स्रोत उसका सामाजिक जीवन होता
है उससे कम महत्वपूर्ण और प्रामाणिक स्रोत उसका साहित्य नहीं होता ।
ज्ञातव्य है कि इस संग्रह को ‘चिंतामणि’ नाम देने वालों में से एक जगन्नाथप्रसाद
शर्मा थे । उन्होंने पूर्वोद्धृत पुस्तक में इन निबंधों के योगदान का मूल्यांकन करते
हुए दर्ज किया है ‘इनकी निबंध रचना इस बात का द्योतन करती है कि व्यावहारिक, सरल और
बोधगम्य भाषा में किस प्रकार मानुषिक जीवन से संबद्ध विषयों पर विचार प्रकट किए जाते
हैं ।’ आश्चर्य है कि जो निबंध आज हमें कठिन महसूस होते हैं उन्हें शुक्ल जी के जीवन
काल में सरल और बोधगम्य समझा जाता था ।
आचार्य शुक्ल अपने इन निबंधों में एक कुशल शब्द शिल्पी का भी दायित्व निभाते हैं
। उनके पास संस्कृत की शब्द संपदा थी लेकिन उसमें भी नवोन्मेष से वे नहीं चूके । राम
कृपाल पांडे ने ‘लोक’ के साथ मिलाकर बनाए गए ऐसे शब्दों को छांटने की कोशिश की है-
लोकमंगल, लोकमर्यादा, लोक कल्याण, लोक संग्रह, लोक रंजन, लोकबद्ध, लोक व्यवहार आदि
। इसके अतिरिक्त संस्कृत के ही अन्य अप्रचलित शब्दों की भी एक सूची उन्होंने बनाई है
जिन्हें शुक्ल जी ने लोकप्रिय बनाया- अर्थग्रहण, बिंबग्रहण, भावदशा, रसदशा, शीलदशा,
ज्ञान कांड, वाग्वैदग्ध्य, रागात्मिका वृत्ति आदि । जगन्नाथ प्रसाद शर्मा ने शुक्ल
जी द्वारा निबंधों में मुहावरों के इस्तेमाल की ओर भी ध्यान दिलाया है ।
गंभीर वैचारिक परिश्रम के अलावे सूक्ति के समान कथन, लोक व्यवहार के उदाहरणों से
उनकी पुष्टि और जगह जगह हास्य-व्यंग्य की छटा उनके निबंधों को विशिष्ट स्वरूप प्रदान
करते हैं ।
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