Sunday, August 23, 2015

बरगद की याद

                        
                                     
संस्मरण की विधा में अपने गद्य की रचनात्मकता का लोहा मनवा चुके अधीत विद्वान कान्तिकुमार जैन की किताबमहागुरू मुक्तिबोध: जुम्मा टैंक की सीढ़ियों परका प्रकाशन 2014 में समयिक प्रकाशन से हुआ है । हिंदी में राजेंद्र यादव वालेहंसके कारण संस्मरण की विधा जब आम चलन में आई तो उसमें पात्रों का मजाक उड़ाते हुए हास्य के सृजन की कोशिश का आधिक्य देखा गया । शुरू के कांतिकुमार जी के संस्मरणों में भी इस छिछले हास्य का प्रचुर प्रयोग किया गया था । स्वाभाविक है कि मुक्तिबोध पर लिखते हुए इस शैली की गुंजाइश नहीं थी, ऐसा करने से उलटा असर पड़ता । इसलिए विषयानुरूप अपेक्षित गंभीरता के साथ लिखे इस पुस्तकाकार संस्मरण में केवल व्यक्ति मुक्तिबोध नहीं हैं और यही इसकी प्रभविष्णुता का स्रोत है । लेखक का मत है कि हिंदी साहित्य में एकमुक्तिबोध-मंडलथा । इस बात को वे पूरी तरह से स्थापित करने में सफल हुए हैं ।
मुक्तिबोध को उनके साथ के लोगों के परिप्रेक्ष्य में देखने से ही जुड़ा हुआ एक अन्य महत्वपूर्ण मामला हिंदी में मध्य प्रदेश की उपेक्षा है । हरिशंकर परसाई तथा तार सप्तक के अधिकांश कवियों की रचनाभूमि होने के बावजूद हिंदी साहित्य पर जब भी विचार किया जाता है तो उत्तर प्रदेश के वाराणसी और आधुनिकता से प्रभावित लेखकों की कर्मभूमि होने के कारण इलाहाबाद के आगे दिमाग जाता ही नहीं । बिहार के बौद्धिक अक्सर अपने साथ भेदभाव की आलोचना करते पाए जाते हैं । इस शिकायत को दूर करने के लिए रामधारी सिंह दिनकर को थोड़ी रियायत दे दी जाती है । मध्य प्रदेश के मामले में तो इतनी रियायत भी नहीं बरती जाती । यह किताब मुक्तिबोध के बहाने इस असंतुलन को भी उजागर करती है तथा इसे दूर करने की प्रेरणा देती है । इस क्रम में उन्होंने साहित्येतिहास की एक धारणा को पुष्ट किया है जिसमें उच्च शिखरों के साथ ही सामान्य लेखन पर भी ध्यान दिया जाता है । आखिर महान साहित्य का रचयिता भी अपने आसपास के साहित्यिक माहौल में ही तो रहता है । किताब से उस दौर के पश्चिमोत्तर भारत का उत्तेजना से भरा हुआ रचनात्मक वातावरण जाग उठता है ।
किताब में इस्तेमाल की गई भाषा के जरिए समूचा माहौल इस तरह का रच दिया गया है कि मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र का विदर्भ और छत्तीसगढ़ का जनजीवन मानसिक तौर पर प्रत्यक्ष हो जाता है । इस प्रसंग में थोड़ा अतिकथन करते हुए भी एक बात कहना जरूरी है । हम सभी हिंदी लिखने वाले एक ही तरह की भाषा लिखने के आदी हो गए हैं । यह भाषा बेहद सुपाच्य होती है । इस सुबोधभाषा को हमने ऐसा हथियार भी बना लिया है जिसके सहारे इस एकरसता का वर्चस्व बन गया है । यह भाषा शिष्ट है और मध्यवर्गीय निश्चिंत जीवन शैली का परिचय देती है । मुक्तिबोध को लगा था कि छायावादी कवियों/लेखकों को बीमारी और बच्चों की फ़ीस की चिंता नहीं सताती । उसी तरह हमारे सौ सालों के लेखन की भाषा से बेचैनी की झलक गायब हो गई है । आत्मविश्वास के साथ उबड़ खाबड़ लिखते किसी को देखे अरसा बीत गया । कभी कभी किसी किताब में इस भयानक एकरसता को तोड़कर सृजनात्मक गद्य उभर आता है । इस किताब की भाषा में वह रचनात्मकता अर्जित की गई है ।
मराठी भाषी परिवार और वातावरण में मुक्तिबोध ने हिंदी में लिखना चुना । प्रेम विवाह किया । पुलिस अधिकारी के पुत्र होकर भी समाज के वंचितों से नाता जोड़ा । इन सभी निर्णयों ने उन्हें जो अकेलापन दिया उससे उत्पन्न स्नायविक उत्तेजना से वे आजीवन ग्रस्त रहे । ऐसे में ही किसी ने लेखक को बताया है कि दिन में मुक्तिबोध चाहे जितना परेशान रहें रात का सन्नाटा उन्हें अद्भुत संतुलन प्रदान करता था । तालाब के किनारे रात रात भर बैठकर लगातार दुनिया जहान की बातें ! और देर रात की बीड़ी और चाय के सहारे घुमक्कड़ी ! रात के प्रसंग । दिन भर रिक्शा चलाकर थके मजदूर देर रात को चौराहे पर आपस में जोर करते और इसे देखकर मुक्तिबोध को उनके जीवट पर नाज हो आता ।     
नागपुर के मित्रों की सूची में मात्रा के साथ गुण के मामले में भी पर्याप्त समृद्धि दिखाई पड़ती है । इन मित्रों में कवि थे, शायर थे, व्यंग्यकार थे, पत्रकार थे, संगीतज्ञ और चित्रकार थे, अध्यापक, राजनीतिज्ञ और संपादक थे । हिंदी भाषियों के अतिरिक्त मराठी, अंग्रेजी और उर्दू भाषी भी थे ।दोस्तों की इस बहुरंगी टोली के सरताजसोख्ताथे । वैसे तो कांतिकुमार जी ने मुक्तिबोध के लगभग सभी दोस्तों को थोड़े शब्दों में किसी पात्र की तरह जीवंत कर दिया है लेकिन कृष्णानंद सोख्ता के चित्रण में तो उन्होंने सचमुच शब्द और अर्थ में सौंदर्य की होड़ लगा दी है । हो भी क्यों न ! सोख्ता उसनया खूनके सर्वेसर्वा थे जिससे मुक्तिबोध के लेखन को अलगाना असंभव है । मुक्तिबोध और नया खून का संबंध लेखक से सुनिएआज वे अवंतीलाल गुप्त हैं, अगले सप्ताह वे यौगंधरायण बन जाएंगे । उसके अगले सप्ताह उन्हेंअमिताभके रूप में अवतरित होना है । कभी-कभी वे अनाम भी रहते ।नया खून में मुखपृष्ठ पर हीकलामे सोख्ताछपता । इसकी आलोचनात्मकता का एक नमूना हैनेहरू ने तो दावा किया है, कई बार किया है/ शासन में करप्शन का कहीं नाम नहीं है/ पर मुझको कोई ऐसा महकमा तो बता दो/ लोगों को खिलाने में जो बदनाम नहीं है ।याद दिलाने की जरूरत नहीं कि यह तेवर नेहरू के शासन के कुछ ही दिनों बाद का है । इस कालम की शोहरत का आलम यह था कि उन्हें सार्वजनिक मंचों पर उनके मूल नाम या लेखकीय नाम की जगह कलामे सोख्ता के नाम से पुकारा जाता । स्वाधीनता आंदोलन के सभी बड़े नेताओं, यहां तक कि गांधी तक की सभा में मजमा लगाने या भीड़ को काबू में करने के लिए कलामे सोख्ता की मदद ली जाती । घर से निकलकर रास्ते पर आते, जो भी रिक्शा होता रुक जाता । रिक्शे पर आगे की ओर झुककर बैठते और रास्ते भर परिचितों से दुआ सलाम चलती रहती । नया खून के महत्व के बारे में यह दावा सत्य से बहुत दूर नहीं प्रतीत होता स्वतंत्रता के बाद नेहरू युग के मोहभंग का इतिहास जानना होनया खूनसे बढ़कर प्रामाणिक सामग्री और कहीं नहीं मिलेगी ।” 1948 से 1958 तक प्रति सप्ताह छपने वाले इस पत्र के संपादक स्वामी कृष्णानंदसोख्ताथे ।
सोख्ता के बाद जिस व्यक्तित्व को आंकने में लेखक का मन रमा है वे हैं हरिशंकर परसाई । वे भी इसी तरह विचित्र व्यक्तित्व के धनी । जीवन भर किराए के मकानों में रेल की पटरियों के पड़ोस में रहते हुए प्रतिबद्ध लेखन में इस तरह रत रहे कि हिंदू सांप्रदायिक तत्वों को उनकी टांग तोड़नी पड़ी । अध्यापक संघ का काम धुनकर करने के बाद भी पत्रिका प्रकाशित करने का जुनून । मुक्तिबोध उनके बौद्धिक प्रयासों के अनन्य सहभागी ।
इन दो मशहूर नामों के अलावे ढेर सारे ऐसे लेखक जो कभी कभी किन्हीं छोटी जगहों पर संयोगवश एकत्र होकर उन जगहों को अपनी बेचैनी और उत्तेजना से भर देते हैं । किसी भी साहित्यिक आंदोलन के एकाध प्रसिद्ध लेखकों के नाम तो सबको पता रहते हैं लेकिन साहित्यिक प्रवृत्तियों को आंदोलन बनाने में ढेर सारे उन नामालूम लेखकों का योगदान होता है जो जुगनू की चमक की तरह थोड़ी देर के लिए रोशनी फैला जाते हैं ।
किताब इन सभी उपर्युक्त कारणों के चलते और अन्य अनेक कारणों के चलते पठनीय तो है ही, संग्रहणीय भी है । मुक्तिबोध उन युग प्रवर्तक कवियों की पांत में थे जो जमाने की बेचैनी को अपने जीवन का खून देकर व्यक्त करते हैं । सामान्यता का आकांक्षी समय उनको असामान्य घोषित करके अपने अपराध बोध पर परदा डालना चाहता है लेकिन उनकी मशाल बुझने की कौन कहे, गिरने भी नहीं पाती कि दूसरा अग्निधर्मी आकर उसे संभाल लेता है । ऊपर से असामान्य प्रतीत होने वाले इन लोगों का व्यवस्थित विद्रोह ही किसी भी समय को याद रखने लायक बनाता है ।     

    



   

Thursday, August 20, 2015

अस्मिता विमर्श और मार्क्सवाद


अस्मिता विमर्श और मार्क्सवाद का आपसी रिश्ता विभिन्न समयों में कभी सहयोग और कभी होड़ का रहा है । ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि दोनों ही वंचित समुदायों की स्थिति को समझने और उसे बदलने की कोशिशों से संबद्ध हैं । इनके बीच के रिश्ते में शत्रुता को स्थायी भाव समझा जाता है जबकि सच यह है कि इनका आपसी रिश्ता ऐतिहासिक उतार चढ़ाव से गुजरता रहा है । आज के ही समय के उदाहरण से देखें तो साहित्य को उसके कलात्मक रूप तक सीमित कर देने की चेष्टा के विरुद्ध दोनों में सहयोग की संभावना दिखाई देगी । इसी तरह एरिक हाब्सबाम ने उन्नीसवीं सदी के इतिहास पर लिखी अपनी तीन किताबों (एज आफ़ रेवोल्यूशन, एज आफ़ कैपिटल, एज आफ़ एम्पायर) में दिखाया है कि मजदूर वर्गीय अस्मिता का भी निर्माण हुआ है । पहली पीढ़ी के मजदूर किसान समुदाय से आए थे और उनमें लैंगिक आधार पर ही नहीं, क्षेत्रीय और धार्मिक आधारों पर भी विभाजन मौजूद थे फिर भी उनके सामाजिक जीवन ने इन विभाजक पहलुओं को गलाकर एक वर्गीय अस्मिता का निर्माण किया और इसी अस्मिता के साथ उन्होंने उन्नीसवीं सदी और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध तक की ज्यादातर लड़ाइयां लड़ीं । फिर भी बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में दो ऐसे नव-सामाजिक आंदोलन उभरे जो वर्गीय पहचान से अलग पहचानों की दावेदारी पर जोर देते थे । इनमें से एक नारीवादी आंदोलन था और दूसरा ब्लैक अस्मिता को घोषित करने वाला ब्लैक साहित्य । इन दोनों के अतिरिक्त हम पर्यावरणवाद का भी नाम ले सकते हैं लेकिन साहित्य की दृष्टि से अभी उसका असर हिंदी में नहीं दिखाई पड़ रहा है । नारीवादी और ब्लैक अस्मिता ने अपनी स्वतंत्र पहचान पर जोर देने के लिए बहिष्कार (एक्सक्लूसिवनेस) का रास्ता अपनाया और विशिष्टता का उद्घोष करने के लिए स्त्री और काले लेखकों के लेखन को ही मान्यता दी । इस दावेदारी ने निश्चित रूप से साहित्य के परिसर को चौड़ा बनाया लेकिन साथ ही मार्क्सवाद के साथ इनका होड़ का ही रिश्ता प्रधान रूप से बना । अब नए दौर में इसे पहचाना जाने लगा है कि इन आंदोलनों ने मार्क्सवाद को न केवल व्यावहारिक धरातल पर, बल्कि सैद्धांतिक रूप से भी समृद्ध किया है । नारीवाद ने अर्थतंत्र की समझ को दुरुस्त करने में मदद की है जिसके दावे के मुताबिक राष्ट्रीय संपदा के निर्माण में स्त्रियों के योगदान को रेखांकित किया जाता है । घरेलू काम जिसे अर्थशास्त्र की विचार की परिधि से बाहर रखा जाता है उसे भी काम के भीतर परिगणित करने की मांग की जाती है । यहां तक कि भाषा और सभ्यता के एकांगीपन को रेखांकित करने और लैंगिक विविधता को लोकतांत्रिक अधिकार के सवाल के साथ जोड़ने में नारीवाद का ऐतिहासिक योगदान है । इसी तरह काले लोगों के आंदोलन और साहित्य के जरिए यूरोपीय और पश्चिमी मुल्कों की समृद्धि में उपनिवेशित देशों के योगदान को देखने की प्रेरणा मिली । अमेरिका में काले लोगों के विरुद्ध शासन और कानून की पक्षधरता के पीछे गुलामी के इतिहास को भी खंगालने की प्रक्रिया के पीछे एक हद तक इस जागरण का संबंध है । पर्यावरणवाद ने पूंजीवाद की मानव विरोधी भूमिका को पहचानने में तो मदद की ही, जल-जंगल-जमीन और प्रकृति के साथ साहचर्य का रिश्ता विकसित करने की प्रेरणा भी दी । उपभोगवादी नजरिए के विरोध के जरिए इसने मानव श्रम की प्रतिष्ठा को भी स्थापित करने का रास्ता तैयार किया ।

     

Wednesday, August 19, 2015

अम्बेडकर और मार्क्स : सामाजिक बनाम आर्थिक


आम तौर पर माना जाता है कि अम्बेडकर ने सामाजिक पहलू पर अधिक ध्यान दिया और मार्क्स ने आर्थिक पहलू पर । एक हद तक इसकी पुष्टि भी दोनों के लेखन से होती है । अंबेडकर ने अपनी किताब एनिहिलेशन आफ़ कास्ट (जाति भेद का उच्छेद)’ में विस्तार से इस बात पर चर्चा की है कि किस तरह स्वाधीनता आंदोलन की कार्यसूची में राजनीतिक सुधार के सवाल ने प्रमुखता हासिल कर ली और सामाजिक सवाल को पीछे धकेल दिया गया । सामाजिक सवाल को पृष्ठभूमि में डालने में उन्हें समाजवादी चिंतन का भी योगदान महसूस हुआ जिसके अनुसार आर्थिक सुधार से सामाजिक सुधार अपने आप हो जाएगा । लेकिन उन्होंने इसी भाषण (जो कभी दिया नहीं गया) में यह भी माना कि व्यक्ति की स्थिति के निर्धारण में धर्म, सामाजिक स्तर के साथ ही संपत्ति की भी भूमिका होती है । दूसरी ओर मार्क्स के बारे में उनकी आर्थिकता के कुल हो हल्ले के बीच इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि वे व्यक्ति के सामाजिक अस्तित्व के पुनरुत्पादनमें आर्थिक उत्पादन संबंधों की भूमिका को रेखांकित कर रहे थे । मार्क्स के अभिन्न एंगेल्स ने बाद में इस बात को स्वीकार भी किया कि उन्हें तत्कालीन परिस्थितियों के चलते आर्थिक पहलू पर अतिरिक्त जोर देना पड़ा था । इस प्रकार ध्यान से देखने पर सामने आता है कि सतह पर दिखाई देनेवाली विरोधी स्थिति खास ऐतिहासिक परिस्थितियों की उपज है । अंबेडकर ने इसी भाषण में विस्तार से स्वाधीनता आंदोलन की उन परिस्थितियों का जिक्र किया है जिसमें उन्हें सामाजिक पर अतिरिक्त बल देने की जरूरत महसूस हुई थी । शुरू में वे बताते हैं कि एक समय इस बात पर सर्वानुमति थी कि हिंदू समाज की कुरीतियों को दूर किए बिना देश की उन्नति नहीं हो सकती इसीलिए कांग्रेस के साथ ही सोशल कानफ़रेंस की भी स्थापना हुई थी । इन दोनों के बीच का कार्यविभाजन इस प्रकार था- कांग्रेस देश के राजनीतिक संगठन की कमजोरियां दिखलाती थी और सोशल कानफ़रेन्स हिंदू समाज के सामाजिक संगठन की कमजोरियों को दूर करने का यत्न करती थी । यह सहयोग इस हद तक था कि ‘दोनों का वार्षिक अधिवेशन एक ही पंडाल में’ होता था । इसके बाद यह तर्क दिया जाने लगा, खासकर तिलक के बाद, कि सामाजिक सुधार का सवाल आजादी की लड़ाई लड़ने वालों में फूट पैदा कर रहा है । अंबेडकर का कहना था कि राजनीतिक चेतना अक्सर सामाजिक जागरण का परिणाम होती है । इसी खास स्थिति में उन्हें सामाजिक सवाल पर अधिक जोर देना पड़ा था ।

जहां तक मार्क्स का सवाल है उनके लिखे के सहारे इसे समझना बेहतर होगा क्योंकि उनके लिखे की मनमानी व्याख्या होती रही है । 1859 में लिखितराजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में एक योगदानशीर्षक किताब की भूमिका में मार्क्स ने अपनी पद्धति को सूत्रवत प्रस्तुत किया है । उनका कहना हैअपने जीवन के सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया में मनुष्य कुछ निश्चित संबंध बनाते हैं जो उनकी इच्छा से स्वतंत्र तथा अपरिहार्य होते हैं । ये उत्पादन संबंध भौतिक उत्पादक-शक्तियों के विकास के एक निश्चित चरण से जुड़े हुए उत्पादन के संबंध हैं । उत्पादन के इन संबंधों का कुल योग समाज की आर्थिक संरचना का निर्माण करता है । यही वह वास्तविक नींव है जिस पर कानूनी और राजनीतिक अधिरचना उठती है और जिससे सामाजिक चेतना के निश्चित रूप जुड़ते हैं । उत्पादन का तरीका ही सामान्य रूप से सामाजिक, राजनीतिक तथा बौद्धिक जीवन-प्रक्रिया को रूप देता है । मनुष्यों की चेतना उनके अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती, बल्कि इसके उलट उनका सामाजिक अस्तित्व ही उनकी चेतना को निर्धारित करता है ।इस उद्धरण से स्पष्ट हो जाता है कि मार्क्स सामाजिक और आर्थिक का कैसा रिश्ता समझते थे । फिर भी उनके इस सूत्र पर विवाद होते रहे जिनके चलते एंगेल्स को स्पष्ट करना पड़ा कि किन हालात में उन्हें आर्थिक पर अधिक जोर देना पड़ा था । थोड़ी सफाई देते हुए एंगेल्स ने जोसेफ ब्लाख को 21-22 सितंबर 1890 को लिखे अपने पत्र में स्पष्ट किया है ‘---अगर कोई इस बात को तोड़-मरोड़कर कहता है कि आर्थिक तत्व एकमात्र निर्धारक तत्व है तो वह इस प्रस्थापना को बेतुके जुमले में बदल देता है । आर्थिक स्थिति आधार है लेकिन अधिरचना के कई तत्व, वर्ग संघर्ष और उसके परिणामों के राजनीतिक स्वरूप, जैसे कि किसी निर्णायक युद्ध के बाद विजयी वर्ग द्वारा कायम किया गया संविधान, कानून संबंधी चीजें, और खासकर इन तमाम वास्तविक संघर्षों की इनके भागीदारों के दिमाग पर पड़ने वाली छायाएं, राजनीतिक, कानूनी, दार्शनिक सिद्धांत, धार्मिक मत और फिर जाकर जड़सूत्र प्रणालियों के रूप में उनका विकास, यह सब भी ऐतिहासिक संघर्षों के गतिपथ पर अपना असर डालते हैं, और कई मामलों में खासकर उनके स्वरूपों का निर्धारण करते हैं ।अपनी पद्धति की जटिलता को स्पष्ट करने के लिए इससे अधिक वे क्या कह सकते थे !
दोनों की मान्यताओं को देखने से यह साफ है कि अंबेडकर ने विशेष परिस्थितियों में सामाजिक पर अधिक जोर दिया था और मार्क्स के चिंतन में आर्थिक पहलू सामाजिक पहलू से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है ।
   




रस निष्पत्ति और अस्मिता


भरत मुनि के रस निष्पत्ति के सूत्र के बारे में ऐसा जटिल वातावरण बनाया गया है कि विद्यार्थी काव्य शास्त्र और रस निष्पत्ति का नाम सुनते ही डर जाते हैं । सूत्र है विभाव अनुभाव व्यभिचारी संयोगात रस निष्पत्ति: । संधियों को हटा देने से सूत्र के ये अवयव दिखाई देने लगते हैं । संस्कृत के साथ सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि उसे इतना सूत्रबद्ध कर दिया गया है कि सामान्य धारणाएं भी जटिल हो जाती हैं । संधि प्रकरण भी बोलने में दो ध्वनियों की निकटता से जो तीसरी ध्वनि निकलती है उसी का प्रदर्शन है । इसीलिए रस निष्पत्ति के सूत्र के विच्छेद से जो प्रकट होता है उसका सीधा अर्थ है कि विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी यानी संचारी भावों के मिलने से रस पैदा होता है । विभाव के सिलसिले में भी तमाम चीजों को रटना पड़ता है लेकिन समझने के लिहाज से इसकी सर्वोत्तम व्याख्या जोजेफ मुंडशेरी ने दी है पात्र और परिस्थिति योजना । किसी भी रचना में यह कार्य उसका रचयिता करता है । अनुभाव का अर्थ है भाव के उपरांत की क्रिया । यह काम अभिनेता करता है । वह विभिन्न शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से भाव को दर्शक के समक्ष प्रस्तुत करता है । संचारी भाव दर्शक, श्रोता या पाठक के मन में आते जाते रहते हैं । इनका स्रोत मनुष्य की सामाजिकता है । समाज में रहते हुए विभिन्न परिस्थितियों के सम्मुख मनुष्य के मन में विभिन्न भाव उठते रहते हैं । इनकी अस्थिरता के कारण ही इन्हें व्यभिचारी या संचारी कहा जाता है । जिस तरह किसी प्रिय के देहांत का दुख मन में रहने के बावजूद उसकी चर्चा शुरू होने पर वह दुख प्रकट हो जाता है उसी तरह दर्शक, श्रोता या पाठक के मन में मौजूद ये भाव प्रसंग विशेष की कल्पना से उद्बुद्ध हो जाते हैं । इससे स्पष्ट है कि रस की निष्पत्ति दर्शक, श्रोता या पाठक के मन में होती है । वैसे तो इस प्रक्रिया को जिस तरह की रहस्यमयता प्रदान की जाती है उसके तहत माना जाता है कि वह अपनी विशेष स्थिति से ऊपर उठकर सामान्य का अंग हो जाता है लेकिन इस धारणा को बिना किसी मीन मेख के मान लेने पर साहित्य में बदलाव की व्याख्या संभव नहीं  रह जाती । रचना का यह भोक्ता विशेष सामाजिक वातावरण में रहता है जो लगातार बदलता रहता है । समाज के भीतर के इन्हीं ऐतिहासिक बदलावों के सहारे अस्मिताओं का निर्माण होता है । दर्शक या श्रोता या पाठक इन्हीं सामाजिक अस्मिताओं के प्रभाव में रचना को ग्रहण करता है और इसी कारण रचनाओं की लोकप्रियता को तय करता है । सामान्य कक्षा की बात करें तो वीर रस के उदाहरण के रूप में लड़कों को भाग मिल्खा भागपसंद आती है जबकि लड़कियों को मेरी काम। उनकी इस पसंद के पीछे उनकी लैंगिक स्थिति का योगदान होता है । इसी तरह कफन में जाति सूचक शब्द का प्रयोग होते ही उस जाति के विद्यार्थी अपनी जातिगत पहचान के प्रति सचेत हो जाते हैं । सार के रूप में हम कह सकते हैं कि चूंकि राम की बजाय रामत्व का साधारणीकरण होता है इसलिए रचना के चरित्रों में भोक्ता अपने आपको तभी देख सकता है जब वह चरित्र उसे अपनी सामाजिक स्थिति में दिखाई पड़े । पहले की या आज की जनप्रिय रचनाओं में स्त्रियों और समाज के वंचित समुदायों के प्रचुर चित्रण की वजह बहुत कुछ यही तथ्य होता है ।           


Wednesday, August 12, 2015

किसान और मार्क्स

                 
    
मार्क्स के लेखन और चिंतन के बारे में आम तौर पर माना जाता है कि उनकी चिंता का विषय केवल औद्योगिक मजदूर थे लेकिन सोचने की बात है कि अगर ऐसा ही होता तो अनेक ऐसे देशों में कम्यूनिस्ट पार्टियों की लोकप्रियता कैसे बढ़ती जहां खेतिहर आबादी अधिक है ! यूरोप के देशों में भी उद्योगीकरण से पहले किसानों की आबादी ही थी जिसे खेती से उजाड़कर उद्योगों में काम करने वाले कामगार बनाया गया । यहां तक कि रूस में भी क्रांति के समय औद्योगिक मजदूरों के मुकाबले किसानों की तादाद अधिक थी । चीन तो क्रांति के समय खेतिहर मुल्क ही था । वियतनाम, क्यूबा आदि तीसरी दुनिया के देश भी खेतिहर ही थे जहां मार्क्स के विचारों पर आधारित कम्यूनिस्ट पार्टियों ने शासन चलाया । यह तथ्य भी गौरतलब है कि मार्क्स के अभिन्न मित्र एंगेल्स ने 1850 मेंजर्मनी में किसान युद्धनामक एक किताब लिखी थी ।
मार्क्स ने जीवन भर पूंजीवाद के विनाशकारी प्रभावों के विरोध में लिखा और संघर्ष किया क्योंकि उनके विचार से पूंजीवाद ने काम करने वालों से उनके औजार छीन लिए थे । इसी के कारण कारखाने के मजदूर को मशीन पर काम करने में मजा नहीं आता था । किसान को अपने खेत पर काम करने में जिस अपनेपन का बोध होता था वह बोध मजदूर को किसी और के कारखाने में किसी और के दिए गए औजार के साथ काम करने में कभी नहीं हो सकता था । इसके अलावे एक और समस्या थी जिससे किसान से मजदूर बने लोग परेशान थे । खेती में अपनी मर्जी के मुताबिक काम करने के मुकाबले निश्चित समय पर काम करना आजादी का हनन महसूस होता था । पगार की बात आते ही पगार देनेवाला मालिक हो जाता है और लेनेवाला उस पर निर्भर हो जाता है । सामाजिक रूप से यह बहुत बड़ा बदलाव था । इसीलिए हमेशा ही मार्क्सवादी लोग किसान समुदाय को मजदूर वर्ग का सबसे मजबूत साथी मानते रहे हैं । इसी के साथ एक और बदलाव पर उन्होंने ध्यान दिया था । किसान समुदाय की विशेषता काम के दौरान सहकारिता की भावना है । उसके मुकाबले पूंजीवाद ने काम करने वालों में आपसी होड़ की भावना को मजबूत किया । पूंजीवाद की अमानवीयता का शिकार कारखाने के मजदूर तो थे ही, वह किसान भी था जिसे खेती और गांवों से उजाड़कर शहरों में आधुनिक उद्योग की जरूरत के हिसाब से झुंड में बसा दिया गया था । आखिर मजदूर थे कौन ? जो लोग गांवों से उजड़कर शहर आए उन्होंने शुरू में कारखानों में काम करने की जगह भीख मांगकर गुजारा करना ठीक समझा । तब भीख मांगना कानूनी रूप से अपराध घोषित कर दिया गया । माइकेल पेरेलमान ने 2000 में ड्यूक यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित अपनी किताब द इनवेंशन आफ़ कैपिटलिज्म: क्लासिकल पोलिटिकल इकोनामी ऐंड द सीक्रेट हिस्ट्री आफ़ प्रिमिटिव एक्यूमुलेशन’ में विस्तार से बताया है कि इन किसान से मजदूर बने लोगों से लगातार काम लेने के लिए इस बात का प्रचार किया गया कि आर्थिक विकास के लिए अधिक छुट्टी हानिकारक है ।
कामगारों में मानवता के विनाश से चिंतित मार्क्स और उनके अभिन्न सहयोगी एंगेल्स ने पूंजीवाद का विरोध मनुष्यता की रक्षा के लिए किया था । उन्हें लगता था कि पूंजीवाद मनुष्य विरोधी व्यवस्था है । इसने मनुष्य को मनुष्यता से पूरी तरह वंचित कर दिया है । वे मनुष्य को प्रकृति का अभिन्न अंग मानते थे । उनका कहना था कि मानव शरीर भी प्रकृति का अंग है । इस तरह मनुष्य के भीतर और बाहर प्रकृति विद्यमान है । उनके अनुसार इन दोनों के बीच स्वच्छद अंत:क्रिया ही मानव जाति के अस्तित्व की रक्षा करेगी । इसीलिए वे समस्त मूल्य का स्रोत धरती और मानव श्रम को मानते थे । इस अंत:क्रिया को वे आनंदमूलक मानते थे और समझते थे कि इसके जरिए मनुष्य अपने आपको अभिव्यक्त करता है । पूंजीवाद से उनकी नफरत का कारण यह था कि जो क्रिया आनंद का स्रोत है वही इस व्यवस्था में कष्ट देने लगती है । पैसे रुपए की इस हृदयहीन व्यवस्था में कमाई चाहे जितनी हो जाए कभी आनंद का कारण नहीं हो सकती । मूल्य को जन्म देने के बाद मनुष्य उससे अलग कर दिया जाता है और मुद्रा नामक एक रहस्यमय चीज सब कुछ पर काबिज हो जाती है । पुराने समाज में जिस तरह मनुष्य ने अपनी कल्पना से ईश्वर को जन्म देने के बाद उसकी अधीनता को स्वीकार कर लिया था उसी तरह पूंजी के इस नए युग में उसका नया ईश्वर पैसा बन बैठता है । पूंजीवाद से उनकी इसी शत्रुता में इस बात का रहस्य छिपा है कि यूरोप के एक कोने में जन्म लेने के बावजूद पूरी दुनिया में उनके विचारों को क्यों अतुलनीय लोकप्रियता हासिल हुई ।
मार्क्स के बारे में जो शोध हुए हैं उनमें लगभग सबने इस तथ्य की ओर ध्यान खींचा है कि धीरे धीरे वे गैर-यूरोपीय समाजों के अध्ययन की ओर बढ़ते गए थे । थियोडोर शानिन नामक रूसी विद्वान ने एक किताब संपादित कीलेट मार्क्स ऐंड द रशियन रोड: मार्क्स ऐंडद पेरिफेरीज आफ़ कैपिटलिज्म’” । यह किताब 1983 में मंथली रिव्यू प्रेस से प्रकाशित हुई है । इसमें शानिन ने इस बात की ओर ध्यान खींचा है कि जीवन के आखिरी दिनों में मार्क्स विकासशील देशों के अध्ययन की ओर आकर्षित हुए थे । इसी सिलसिले में यह तथ्य भी रोचक हो जाता है कि कम्यूनिस्ट पार्टी का घोषणापत्रके रूसी अनुवाद का दूसरा संस्करण वह अंतिम संस्करण है जिसकी भूमिका मार्क्स और एंगेल्स ने लिखी । इसके बाद के सभी संस्करणों की भूमिकाएं अकेले एंगेल्स को लिखनी पड़ी थीं । इस भूमिका में गंभीरता से इस संभावना पर सोचा गया है कि रूस के ग्रामीण सामुदायिक जीवन से बिना पूंजीवाद की ओर गए सीधे समाजवादी समाज में संक्रमण संभव है । मार्क्स के विचारों में जो बदलाव रूस के प्रसंग में शानिन ने रेखांकित किया था उसे और भी व्यापक पैमाने पर उजागर करते हुए केविन बी एंडरसन ने एक किताब लिखीमार्क्स ऐट द मार्जिन्स: आन नेशनलिज्म, एथनिसिटी, ऐंड नान-वेस्टर्न सोसाइटीज। यह किताब यूनिवर्सिटी आफ़ शिकागो प्रेस से 2010 में छपी है । इसमें एंडरसन ने रूस और पोलैंड के प्रसंगों के अतिरिक्त भारत, इंडोनेशिया और चीन के भीतर उपनिवेशवादी विस्तार के लिए पारपंरिक समाजों के विनाश और लूटपाट को सामने लाने वाले मार्क्स के लेखन पर विचार किया है । मार्क्स का मानना था कि गैर-पश्चिमी समाजों में हस्तक्षेप से पूंजीवाद के विकास का गहरा रिश्ता है । औपनिवेशिक विचारधारा के प्रभुत्व का प्रमाण स्थानीय स्तर पर भी दिखाई पड़ना लाजिमी होता है । उपनिवेशों की लूटपाट के अतिरिक्त अपने ही मुल्क के भीतर आयरलैंड के साथ इंग्लैंड का आचरण भी मार्क्स और एंगेल्स की तीखी आलोचना का विषय बना था । इस पर ध्यान खींचने के अलावा एंडरसन ने अमेरिका में जारी गुलाम प्रथा के प्रसंग में नस्ली भेदभाव के सवाल पर मार्क्स के चिंतन का भी खाका खींचा है । यह सब  पारंपरिक समाजों के योजनाबद्ध विनाश का ही अंग था । मार्क्स के चिंतन की इसी दिशा का विकास करते हुए जर्मनी की मार्क्सवादी नेता रोजा लक्जेमबर्ग ने कहा कि पूंजीवाद को अपने विकास के लिए गैर-पूंजीवादी अर्थतंत्रों की जरूरत होती है । जिन देशों में पूंजीवादी अर्थतंत्र की मौजूदगी नहीं होती उनके शोषण के बिना पूंजीवादी देशों में समृद्धि कैसे आएगी ! हम सभी जानते हैं कि इंग्लैंड के सूती वस्त्र उद्योग के लिए कपास का उत्पादन संयुक्त राज्य अमेरिका के उन दक्षिणी राज्यों के प्लांटेशनों में होता था जहां अफ़्रीका से लाए गए गुलाम काम करते थे । इस अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के लिए भारत के पारंपरिक वस्त्र उद्योग को तबाह तो किया ही गया, अफ़्रीका के समाजों को भी गुलामी के आर्थिक लाभ सिखाकर भ्रष्ट किया गया था ।
इसी वैचारिक और सैद्धांतिक पृष्ठभूमि में समझा जा सकता है कि रूस में क्रांति के बाद स्थापित शासन का एक महत्वपूर्ण कार्यभार जमीन के सवाल को हल करना कैसे बन गया । किसानों की आबादी का महत्व समझने के चलते ही लेनिन ने ग्रामीण इलाकों में बढ़ते खेतिहर मजदूरों पर ध्यान दिया था और उन्हें ग्रामीण सर्वहारा कहा था । यही नहीं इसी अनुभव और समझ के कारण उन्होंने उपनिवेशित देशों की जनता के स्वाधीनता आंदोलनों का समर्थन करने की नीति अपनाई थी और मार्क्स के नारे ‘दुनिया के मजदूरों एक हो!’ को सुधारकर ‘दुनिया के मजदूरों और उत्पीड़ित राष्ट्रों के जनगण एक हो!’ किया था । कहना न होगा कि उस जमाने में ज्यादातर ये स्वाधीनता संग्राम खेतिहर देशों के देहाती इलाकों की जनता के बल पर ही चल रहे थे । चीन के कम्यूनिस्ट आंदोलन में किसानों की भागीदारी सर्वविदित तथ्य है । कुछ लोगों का यहां तक कहना है कि चीन की क्रांति ने उस किसान की परिवर्तनकारी सामाजिक भूमिका को स्थापित किया जिसे मार्क्स प्रतिगामी मानते थे । चीन में शुरू में कम्यूनिस्ट शहरों में ही केंद्रित थे लेकिन सरकारी दमन के चलते जब वे देहाती क्षेत्रों में गए तो माओ की भाषा मेंपानी में मछलीकी तरह सहजता से खप गए । चीन की क्रांति के बाद तो लगभग सभी महत्वपूर्ण कम्यूनिस्ट आंदोलन तीसरी दुनिया के खेतिहर देशों में ही चले और इसी क्रम में किसान समुदाय मार्क्सवादी विचार विमर्श का अविभाज्य अंग बनता गया ।
चीन के प्रसंग में एक और बात पर ध्यान देना जरूरी है । सभी जानते हैं कि वर्तमान दौर में जितनी तेजी से शहरीकरण और उद्योगीकरण चीन में हुआ है उतनी तेजी से शायद ही कहीं और हुआ हो । इसके बावजूद भोजन के मोर्चे पर कोई गंभीर मुश्किल दिखाई नहीं पड़ी है । इस पहलू के बारे में बात आगे बढ़ाने से पहले एक बुनियादी समस्या को रेखांकित करना उचित होगा । आजकल विकास के नाम पर जिस तरह अंधाधुंध शहरीकरण और उद्योगीकरण हो रहा है उसके क्रम में लोग भूल जा रहे हैं कि भोजन के लिए खेत और खेती का कोई विकल्प अब भी खोजा नहीं जा सका है । अगर विकास के लिए हड़पी गई जमीन के कारण खेती का रकबा कम होता जाएगा तो आगामी दिनों में अन्न के लिए दंगों और हिंसा को रोकना असंभव होगा । पूरी दुनिया में शहरीकरण के प्रसंग में यह संवेदनशीलता बरती जाती है ताकि विकास केवल कुछ दिनों की चमक न रहकर टिकाऊ और सतत रहे । ऐसा तभी हो सकता है जब खेती पर भी उतना ही ध्यान दिया जाए जितना चमकदार सड़कों या सट्टा बाजार के उछाल पर दिया जाता है । चीन के पास भारत के मुकाबले खेती की जमीन कम है फिर भी शहरी आबादी के भोजन लायक अनाज पैदा करने में वे सफल रहे हैं तो इसकी वजह यह भी है कि उन्होंने किसानी को घाटे का सौदा नहीं बनने दिया है ।
चीन में इस समस्या को बेहतर तरीके से हल करने के पीछे वहां का कम्यूनिस्ट पार्टी का शासन और उसकी नीतियां हैं । जिन देशों में ऐसी संवेदनशील सरकार नहीं रही वहां तथाकथित विकास के इस दौर में ग्रामीण आबादी में भूमिहीन लोगों की तादाद बढ़ती गई है । लेकिन दुनिया में कहीं भी मेहनतकश जनता ने सिर झुकाकर इन त्रासद स्थितियों को मान नहीं लिया वरन वे निरंतर संघर्ष कर रहे हैं । भूमंडलीकरण के विमर्श से कोई कमजोर विमर्श इन संघर्षों का नहीं है । लैटिन अमेरिका के प्रसंग में मार्ता हार्नेकर ने 2002 में ब्राजील के भूमिहीन किसानों के सिलसिले में एक किताब लिखी ‘लैंडलेस पीपुल-बिल्डिंग ए सोशल मूवमेंट’ । यह किताब भूमिहीनों के लिए संघर्ष करनेवाले एक संगठन (MST) का पाठकों से परिचय कराती है । ब्राजील के देहाती क्षेत्रों में जमीन के मालिकाने के मामले में भारी विषमता है । ऐसे में भूमिहीनों में जमीन की भूख के चलते इस संगठन का जन्म हुआ । किताब इस संगठन के सत्रह साला बहादुराना संघर्ष की गाथा है । ऐसी ही एक और किताब का संपादन सैम मोयो और पेरिस येरोस ने किया है ‘रीक्लेमिंग द लैंड: द रिसर्जेन्स आफ़ रूरल मूवमेंट्स इन अफ़्रीका, एशिया ऐंड लैटिन अमेरिका’ । किताब ज़ेड बुक्स से छपी है और हार्नेकर की किताब से इस मामले में अलग है कि जहां हार्नेकर ने लैटिन अमेरिका पर ही ध्यान दिया है वहीं यह किताब संघर्षों को समस्त तीसरी दुनिया के पैमाने पर फैला हुआ पाती है ।
किताब की भूमिका में संपादकों ने विश्व अर्थतंत्र की परिधि पर स्थित देशों के देहाती क्षेत्रों में पिछले पचीस वर्षों में आए गहन समाजार्थिक और राजनीतिक बदलावों का जिक्र करते हुए बताया है कि नव उदारवादी निजाम की शुरुआत के बाद से किसानों और मजदूरों के काम के हालात में गिरावट आई है और इसके चलते उनमें आर्थिक और राजनीतिक विकल्पों की खोज तेज हो गई है । हाल के दिनों में साम्राज्यवाद आधारित इस निजाम के गहरे संकट में फंसने से ब्राजील से लेकर मेक्सिको, जिम्बाबवे और फिलीपीन्स तक हरेक महाद्वीप में देहाती इलाकों में संघर्षों की बाढ़ आई हुई है । ये संघर्ष नए हैं और पर्याप्त जुझारू हैं । इसलिए दुनिया भर के विद्वानों में और शैक्षणिक जगत में इस सिलसिले में अध्ययनों की भरमार आई हुई है । संपादकों ने याद दिलाया है कि जब आर्थिक सुधार शुरू हुए तो दावा  किया गया था कि इनसे ग्रामीण गरीबों को फायदा होगा लेकिन हुआ यह कि लगभग समूचे अफ़्रीका में भुखमरी और कुपोषण के हालात पैदा हो गए । यही नहीं, इसके अलावा तमाम देशों में अंतहीन युद्ध और नरसंहार शुरू हुए और अब तक जारी हैं ।
ऐसे में ग्रामीण और किसानी समस्या को लेकर तमाम तरह के नजरिए सामने आए हैं । विकास के महामंत्र की चमक फीकी पड़ने के बाद बेशर्मी के साथ अबटकराव के समाधानऔरअसफल सरकारोंके विश्लेषण किए जा रहे हैं । इनका पूरा परिप्रेक्ष्य प्रबंधकीय होता है अर्थात इनमें तात्कालिक प्रबंधन के कुछ उपाय सुझाए जाते हैं । इनसे अलग कुछ अन्य लोग भूमि सुधार, अन्न सुरक्षा, पर्यावरण प्रबंधन तथा स्थानीय तकनीक के प्रयोग जैसे सवालों को उठाने की कोशिश करते हैं लेकिन ये भी समस्या के तथाकथित और तात्कालिक प्रबंधन के घेरे में ही घूमते रहते हैं । सोच विचार की तीसरी धारा के लोग दुनिया के पैमाने पर खेती और भोजन की व्यवस्था में होने वाले दीर्घकालीन बदलावों को देखने पर जोर देते हैं । ये लोग पूंजी के संकेंद्रण और खेती-भोजन प्रणाली में बढ़ते स्तरीकरण के आपसी रिश्तों की खोज करने का प्रयास करते हैं । इसमें जैव-प्रद्यौगिकी संबंधी प्रयोगों के खेती में इस्तेमाल मसलन अधिक उपज वाले प्रयोगशाला में विकसित नए बीजों तथा खाद्य-सामग्री की बिक्री के अंतर्राष्ट्रीय संजालों पर विशेष ध्यान दिया जाता है । लेकिन अंतर्राष्ट्रीय परिघटनाओं पर अधिक ध्यान देने के कारण ये लोग समस्या के राष्ट्रीय और स्थानीय तत्वों को नहीं देख पाते । सोच विचार की चौथी धारा खेती-किसानी के सवाल पर सोचते हुए देहाती इलाकों के समाजार्थिक बदलावों के गतिविज्ञान को समझने पर जोर देती है । देहाती क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर भूमिहीन सर्वहारा आबादी का विस्तार, अर्ध-सर्वहारा जैसे कामगारों के समुदाय का जन्म, खेती में धन्नासेठों की वापसी, ग्रामीण-शहरी संपर्क के बदलते रूप तथा स्त्री-पुरुष संबंध जैसे विषय इस धारा के लोगों की चिंता में शामिल हैं । अंतर्राष्ट्रीय परिघटनाओं की उपेक्षा न करते हुए भी इनका जोर स्थानीय और राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य पर रहता है । इनकी बातचीत में इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश की जाती है कि जब किसानी से लोगों के पलायन की बात को जोर शोर से प्रचारित किया जा रहा है तो वर्तमान दुनिया के अधिकांश प्रगतिशील और जुझारू आंदोलनों का देहाती इलाकों में ही केंद्रित होने का क्या कारण है ।           
खेती किसानी पर इस समय पूंजी का जितना विशाल और भयावह आक्रमण है उसके चलते खेती के इतिहास पर भी विद्वानों का ध्यान गया है । मार्सेल मजोयेर और लारेन्स रूदार्त ने इस विषय पर फ़्रांसिसी भाषा में एक किताब लिखी जिसका अंग्रेजी अनुवाद 2006 मेंए हिस्ट्री आफ़ वर्ल्ड एग्रीकल्चर: फ़्राम द नियोलिथिक एज टु द करेन्ट क्राइसिसशीर्षक से अर्थस्कैन नामक प्रकाशन से छपा है । आभार में लेखकों ने सबसे पहले उन किसानों का आभार माना है जो अपनी विद्या के सबसे बड़े ज्ञानी होते हैं । लेखकों का कहना है कि इक्कीसवीं सदी के आरंभ में धरती के लगभग आधे लोग गरीबी से जूझ रहे हैं । बिना शक यह आबादी देहाती है और खेती से जुड़ी हुई है । सूखा-बाढ़, तूफान, पेड़-पौधों, पशुओं और मनुष्यों की बीमारी और युद्ध भी बहुत कुछ अंतत: गरीबी और कुपोषण के कारण जानलेवा हो जाते हैं । मौसम संबंधी, शारीरिक और राजनीतिक दुर्घटनाओं की विभीषिका बढ़ जाती है अगर इनके प्रतिरोध की शक्ति और साधन कम हों । जिसे प्राकृतिक आपदा कहकर गैर जिम्मेदार सरकारें छुट्टी पा लेती हैं वे भी बहुत हद तक समाजार्थिक और राजनीतिक कारकों से प्रभावित होती हैं ।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मार्क्सवाद ने पूंजीवाद के जिस आदमखोर और अप्राकृतिक चरित्र को उजागर किया था उसे अधिकाधिक लोग अब प्रत्यक्ष देख रहे हैं । मानव जाति के अस्तित्व और विकास के लिए मनुष्य और प्रकृति के बीच जिस तरह का साहचर्य और सहयोग अपेक्षित है उसे पूरी तरह से उलटकर पूंजीवाद ने धरती और मनुष्य के लिए अभूतपूर्व खतरा पैदा कर दिया है । विकसित पूंजीवादी देशों ने अपनी उपभोगवादी जीवनशैली के कारण तमाम तरह की ऐसी समस्याओं को जन्म दिया है जिनके नतीजों को सारी दुनिया को भुगतना पड़ रहा है । खुद को इन नतीजों से सुरक्षित रखने के लिए वे समुद्र के बीच के द्वीपों या अंतरिक्ष में बसने की संभावना तलाश रहे हैं । पश्चिमी देशों की करनी के बुरे प्रभाव तीसरी दुनिया के देशों और वहां भी देहाती इलाकों के खेती पर निर्भर लोगों को भुगतने होंगे ।

ऐसे हालात को उलटने के लिए जो आंदोलन हो रहे हैं उनमें मार्क्स के विचारों से प्रभावित वामपंथी ताकतें सबसे अग्रिम मोर्चे पर हैं । पूंजीवाद का यह वर्तमान हमला और कुछ नहीं मुनाफ़ा कमाने के लिए अंतिम संभावना को भी दूह लेने की हताशा भरी कोशिश है । इसके लिए पूंजी ने सब कुछ को विक्रेय बना दिया है । आज से पहले कौन कह सकता था कि पानी पीना और बात करना भी मुनाफ़ा कमाने का जरिया बन सकता है लेकिन बोतलबंद पानी और फोन की बिक्री के सहारे पूंजी ने इनसे भी लाभ अर्जित किया । हताशा के कारण ही इस पर रंच मात्र रोक भी उसे बर्दाश्त नहीं है । सब कुछ से लाभ उठाने की इसी रणनीति को आजकल विकास कहा जा रहा है और जिन किसानों ने नव प्रस्तर काल से अन्न उगाकर मनुष्य जाति को जीवित रखा उन्हें और उनके व्यवसाय को ही विकास की राह में बाधा बताया जा रहा है । खेती और किसानी का विनाश धरती और मनुष्य के खात्मे के इस विनाशकारी अभियान का आगाज है । यही कारण है कि वर्तमान नव उदारवादी निजाम का विरोध केवल मार्क्सवादी नहीं बल्कि मनुष्यता की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध अधिकांश लोग कर रहे हैं । इसने सचमुच मानवता के लिए अब तक के इतिहास का सबसे गंभीर खतरा पैदा कर दिया है । दुनिया में बड़े पैमाने पर तमाम समझदार लोग इस पागलपन से मुक्ति दिलाने की कोशिश में लगे हुए हैं ।        

Monday, August 10, 2015

मार्क्सवाद की सदी

                   
इस समय हमारे देश में एक चरम दक्षिणपंथी पार्टी का शासन होने से दुनिया के माहौल में जो बदलाव रहे हैं वे देश के परेशान बौद्धिक वातावरण को प्रभावित नहीं कर पा रहे हैं ऊपर से हिंदी की साहित्यिक दुनिया की आत्ममुग्धता ने उसे और भी संकुचित कर दिया है प्रगतिशील आलोचना ने अकादमिक संस्थानों के सहारे बौद्धिक दुनिया में प्रभुत्व तो कायम किया लेकिन उसकी यह शक्ति ही उसकी सीमा भी बन गई है फेन की तरह से उठनेवाले तात्कालिक उबालों का हिंदी साहित्य कुछ इस कदर आदी हो गया है कि अन्य अनुशासनों की कौन बात करे अन्य भाषाओं और देशों के साहित्य तक से संवाद टूट चुका है देश की एकता को मजबूत करने की जिम्मेदारी हिंदी पर डाली तो गई ही, हिंदी के लेखक इस भ्रम में जीना भी पसंद करते हैं कि उनके कारण देश एक है यह झूठा गौरव बोध समय समय पर जगा दिया जाता है तो वंचित लेखक समुदाय खुश हो लेता है, जबकि सचाई यह है कि शासक वर्ग की भाषा में औपनिवेशिक विरासत भरी हुई है
इन भ्रमों के शिकार लोग बौद्धिक बनने की कोशिश करते हुए मार्क्सवाद के खत्म हो जाने का फतवा गाहे-बगाहे जारी करते रहते हैं इसका प्रमाण उनके लिए रूस का पतन है । जबकि असल में रूस के पतन के कुछ ही दिनों बाद मार्क्सवाद का ऐसा उभार हुआ है कि इक्कीसवीं सदी को मार्क्सवाद के उत्थान की सदी कहना शायद अतिकथन न होगा । पिछली सदी के आखिरी दशक में रूस और पूर्वी यूरोप के समाजवादी मुल्कों में हतप्रभ कर देने वाली तेजी से बदलाव हुए और मार्क्सवाद के विरोधियों में इतना जबर्दस्त उत्साह पैदा हुआ कि उसके खात्मे की बात तो जाने दीजिए, किसी भी किस्म के बदलाव की संभावना से इनकार करते हुए इतिहास तक के अंत की घोषणा हो गई लेकिन जिस पूंजीवाद ने प्रतिद्वंद्विता में पूर्व समाजवादी मुल्कों को पराजित किया था, उसने जीत मिलते ही अपने आपको बदल लिया लोकतंत्र और मानवता की रक्षा का दावा करने वाले देशों ने दुनिया भर में युद्ध की तबाही तो मचाई ही, अपने देश में भी लोकतंत्र का गला घोंट डाला अमेरिका के प्रसंग में साम्राज्य की बातें होने लगीं और शोध इस बात पर होने लगा कि आर्थिक रूप से दास प्रथा कितना लाभदायक थी पूंजीवाद का आदमखोर स्वरूप आज जितना प्रत्यक्ष है उतना शायद उन्नीसवीं सदी में भी न रहा होगा
इसी माहौल में मार्क्सवाद के पक्ष में हवा बहने लगी इस नए उभार में नानाविध काम हो रहे हैं । इनकी मात्रा और वैविध्य चकित कर देने वाले हैं । सबसे पहले यह कि सोवियत रूस के पतन ने इस समय के मार्क्सवादियों को सत्ता न होने के कारण सुविधा और शक्ति से हीन तो किया है लेकिन सत्ता के अपराधों की जवाबदेही से भी मुक्त कर दिया है । साथ ही इसने सोवियत समर्थक तथा सोवियत विरोधी का पुराना विभाजन भी समाप्त कर दिया है । यहां तक कि पूंजीवाद के नए खौफ़नाक हमले ने पश्चिमी मार्क्सवादियों की विरासत को भी सक्रिय कर दिया है । इसके साथ ही एक अन्य बदलाव का जिक्र भी जरूरी है । मार्क्सवाद के इतिहास पर अगर निगाह डालें तो दिखाई पड़ता है कि उन्नीसवीं सदी में अधिकतर लेखन दार्शनिक और आर्थिक सवालों को केंद्र में रखकर हुआ था । इसके मुकाबले बीसवीं सदी में सोवियत संघ और पश्चिमी देशों में ज्यादातर लेखन संस्कृति के सवालों पर विचार करते हुए किया गया । इक्कीसवीं सदी में एक बार फिर आर्थिक और राजनीतिक प्रश्न महत्वपूर्ण हो गए हैं ।
सुविधा के लिए हम मार्क्स और उनके परिवार से जुड़े लोगों की हाल में लिखी और प्रकाशित जीवनियों से अपनी बात शुरू कर रहे हैं । ठीक सदी के मोड़ पर फ़्रांसिस ह्वीन लिखित जीवनी का प्रकाशन हुआ । लेखक का संकल्प था कि वे व्यक्ति मार्क्स पर अधिक ध्यान देंगे । इसी के चलते जीवनी में थोड़ा चटपटापन भी था लेकिन अंग्रेजी भाषी पश्चिमी दुनिया में इससे मार्क्स चर्चा में आए । इसके बाद जोनाथन स्पर्बर नामक इतिहासकार ने भी एक जीवनी लिखी जो उन्नीसवीं सदी के माहौल में अवस्थित करते हुए मार्क्स के जीवन का विश्लेषण करने की कोशिश करती है । मार्क्स की इन जीवनियों से अलग एक जीवनी मेरी गैब्रिएल ने लिखी जो मार्क्स के साथ उनकी पत्नी जेनी पर भी ध्यान देती है । मार्क्स परिवार के अनन्य साथी और मार्क्स के वैचारिक अर्धांग फ़्रेडेरिक एंगेल्स की एक जीवनी त्रिस्त्रम हंट ने लिखीं जो पहले अमेरिका में फिर इंग्लैंड में अलग अलग शीर्षकों से छपी । मार्क्स की पुत्री एलिनोर की राचेल होम्स लिखित जीवनी भी इस समय चर्चा में है । इन जीवनियों का जिक्र केवल इसलिए कि किसी व्यक्ति के बारे में जिज्ञासा के पैदा होने के कारण काल विशेष में निहित होते हैं । मार्क्स में रुचि सुविधाजनक नहीं है । जिन चीजों का विरोध करने का संकल्प वर्तमान शासक दल के वैचारिक सूत्रधारों ने किया है उनमें से एक वामपंथ भी है । हिंदी में तो वैसे भी साहित्यिक पवित्रता के लिहाज से मार्क्स का नाम लेना पाप है । अकादमिक दुनिया में आज भी मार्क्सवादी होना बहुत प्रशंसित नहीं है ।
किताबों के इस जिक्र में इस बात को कहना भी जरूरी है कि इस समय लिखी किताबों के अलावे अरसा पहले लिखी किताबों के या तो नए संस्करण प्रकाशित हो रहे हैं या उनका इलेक्ट्रानिक प्रकाशन हो रहा है । यह भी मार्क्सवाद की प्रासंगिकता का ही सबूत है । जीवनी के बाद ऐसी किताबों का जिक्र करना मुनासिब होगा जो मार्क्सवाद के बारे में हैं । एक किताब है- द वर्ल्डली फिलासफर्स । यह किताब राबर्ट हीलब्रोनेर की है । संसार के महान अर्थशास्त्रियों के बारे में लिखी इस किताब का शीर्षक बताता है कि दर्शन का सामान्य विषय पारलौकिक होता है लेकिन अर्थशास्त्र इहलौकिक दर्शन है । अर्थशास्त्र को आम तौर पर गणित समझने वाली बौद्धिकता के लिए इसे समझना मुश्किल है कि दर्शन के विद्यार्थी कार्ल मार्क्स अर्थशास्त्र की ओर क्यों गए । अर्थशास्त्र के बारे में इस किताब की समझ से यह स्पष्ट हो जाता है कि मूल रूप से दर्शन की करीबी अर्थशास्त्र से रही है । लेखक ने जब यह किताब लिखी थी तो वे ग्रेजुएट के छात्र थे । 1953 में पहली बार छपी इस किताब की लोकप्रियता का आलम यह है कि 1999 में उसका सातवां संस्करण प्रकाशित हुआ । किताब में एडम स्मिथ से शुरू करके माल्थस और डेविड रिकार्डो से होते हुए काल्पनिक समाजवादियों तथा मार्क्स, विक्टोरियाई दुनिया और अर्थशास्त्र, थोर्स्टीन वेब्लेन, कीन्स, शूमपीटर और अर्थशास्त्र के भविष्य पर विचार करने के अलावा आगे की पढ़ाई के लिए सूची भी दी गई है । 1999 में ही अनित्रा नेल्सन की किताब मार्क्स’ कांसेप्ट आफ़ मनी: द गाड आफ़ कमोडिटीज का प्रकाशन हुआ । मार्क्स के चिंतन में अर्थशास्त्र की प्रधानता होने से ही उनके इस पक्ष पर जोर देने वाली किताबों का लगातार प्रकाशन हो रहा है । इसका एक और कारण है । वर्तमान समय में दुनिया भर में लोगों के जीवन में जो भूचाल आया हुआ है उसे समझने के लिए लोग मार्क्स के अर्थशास्त्रीय चिंतन को अधिक कारगर महसूस कर रहे हैं ।   
मार्क्स के चिंतन का सबसे परिपक्व परिणाम उनकी किताब ‘पूंजी’ है । जीवित रहते इसके पहले खंड का ही प्रकाशन हो सका था । नई सदी में उनके इस ग्रंथ के अध्ययन को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि पिछले दिनों इसी ग्रंथ पर केंद्रित एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन एम्सटर्डम में हुआ था । संसार के सबसे प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता डेविड हार्वे चालीस साल से इस ग्रंथ को शौकिया पढ़ाते हैं । उनकी कक्षाओं के आधार पर एक किताब तैयार की गई और वर्सो से उसका प्रकाशन हुआ । किताब का नाम है- ए कम्पैनियन टु मार्क्स’ कैपिटल । पहले केवल खंड एक की ही व्याख्या का प्रकाशन हुआ था लेकिन उसकी सफलता से उत्साहित होकर हाल में दूसरे खंड की व्याख्या का भी प्रकाशन किया गया । चूंकि अध्यापक खुद एक अन्य अनुशासन के हैं तथा विद्यार्थी भी विविध अनुशासनों से जुड़े थे इसलिए दोनों ही किताबें रोचक तरीके से तथा सुबोध शैली में लिखित हैं । मार्क्स की इस किताब से जुड़े शोध इतने उत्तेजक और समकालिक हैं कि लगता है मार्क्स हमारे समय के पूंजीवाद की विसंगतियों का विश्लेषण कर रहे हैं ।
अर्जेंटिना निवासी स्पेनी विद्वान एनरिक़ डसेल की मूल तौर पर स्पेनी में लिखी किताब का अंग्रेजी अनुवादटुवार्ड्स ऐन अननोन मार्क्स: ए कमेंटरी आन द मैनुस्क्रिप्ट्स 1861-63’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ । डसेल ने मार्क्स की मूल पांडुलिपियों की छानबीन करने के बाद बताया कि मार्क्स ने कैपिटल का सिर्फ़ग्रुंड्रिसनामक मसौदा ही नहीं बनाया था, बल्कि इस किताब के अलग अलग चार मसौदे मिलते हैं । मासाचुसेट्स के अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर फ़्रेड मोसेली ने किताब के संपादक होने के नाते इसकी भूमिका लिखी है और उसमें बताया है कि 1977 में दो खंडों में रोसदोल्स्की लिखितद मेकिंग आफ़ मार्क्सकैपिटलसे डसेल की किताब बेहतर हैं क्योंकि रोसदोल्स्की की गति हेगेल के दर्शन में डसेल जितनी नहीं थी । डसेल ने अप्रकाशित पांडुलिपियों को देखने के लिए बर्लिन और एमस्टर्डम की यात्रा भी की थी ।
उन्होंने इतने व्यवस्थित तरीके से इन पांडुलिपियों का विश्लेषण किया है कि यह मार्क्स की ‘पूंजी’ का सर्वोत्तम पाठ सहायक बन जाती है । उनके मुताबिक पहली पांडुलिपि ‘पूंजी’ के पहले खंड का दूसरा मसौदा है । इसकी शुरुआत मुद्रा के पूंजी में रूपांतरण से होती है । रूपांतरण की इस प्रक्रिया में जीवित श्रम की निर्णायक भूमिका का रेखांकन करते हुए मार्क्स इसे अतिरिक्त मूल्य समेत समस्त मूल्य के सृजन का ‘रचनात्मक स्रोत’ कहते हैं । जीवित श्रम के बिना पूंजी साकार ही नहीं हो सकती । अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन के लिए पूंजी जीवित श्रम अर्थात मजदूर की मेहनत को अंतर्भुक्त कर लेती है । जीवित श्रम पूंजी का सामना करने के पहले से दरिद्रावस्था में यानी काम करने के हालात से महरूम मौजूद होता है । लेकिन यही दरिद्र श्रमिक मूल्य और अतिरिक्त मूल्य का रचनात्मक स्रोत हो जाता है । जब इसे पूंजी में शामिल कर लिया जाता है तो यह पूंजी के लिए अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन करने लगता है ।        

इस किताब में जिस ग्रुंड्रिस का जिक्र आया है वह भी बहुत बाद में प्रकाशित हुई । इसमें मार्क्स द्वारा ‘पूंजी’ के जो मसौदे बनाए गए थे उनको संग्रहित किया गया था । मार्क्स के लेखन में बहुत कम ऐसा है जो उनके जीवन में अंतिम रूप में आ सका था । इसलिए उनके देहांत के बाद उनकी पांडुलिपियों को संपादित करके ढेर सारी किताबों की शक्ल दी गई । सोवियत संघ की मौजूदगी के दौरान ही ‘1844 की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियां’ शीर्षक एक ग्रंथ तैयार किया गया जो बहुत सारे नवीन उद्भासों के लिए चर्चित रही । इसके अतिरिक्त ‘ग्रुंड्रिस’ दूसरा ऐसा ग्रंथ है जिसे पश्चिमी दुनिया के विद्वानों ने लगातार चर्चा का विषय बनाया । इसके बारे में इटली के मशहूर मार्क्सवादी चिंतक मार्चेलो मुस्तो के संपादन में एरिक हाब्सबाम की विशेष भूमिका के साथ बहुत ही दिलचस्प किताबकार्ल मार्क्सग्रुंड्रिस : फ़ाउंडेशनंस आफ़ द क्रिटिक आफ़ पोलिटिकल इकोनामी 150 ईयर्स लेटरशीर्षक से प्रकाशित हुई । किताब तीन भागों में विभक्त है । पहला भाग दुनिया के विभिन्न विद्वानों द्वारा इस किताब की व्याख्या है । व्याख्या के लिए इस किताब के प्रमुख विषयों- पद्धति, मूल्य, अलगाव, अतिरिक्त मूल्य, ऐतिहासिक भौतिकवाद, पर्यावरणिक अंतर्विरोध, समाजवाद तथा ग्रुंड्रिस और पूंजी की तुलना- का विवेचन किया गया है । दूसरा भाग ग्रुंड्रिस के लेखन के समय के मार्क्स पर केंद्रित है यानी उसी समय के अन्य विषयों पर उनके लेखन और सोच विचार से इसकी तुलना की गई है । तीसरा भाग दुनिया के विभिन्न देशों में ग्रुंड्रिस के प्रसार और अभिग्रहण का ब्यौरा देता है । यह ब्यौरा उन भाषाओं के हिसाब से दर्ज किया गया है जिनमें समूचे ग्रुंड्रिस का अनुवाद हुआ है । इस भाग की तैयारी में संपादक को सबसे ज्यादा कठिनाई हुई क्योंकि सभी भाषाओं की सूचना जुटाना किसी के लिए भी लगभग असंभव है । जिन लोगों ने इस भाग के लिए लिखा उन्होंने अपनी भाषाओं में लिखा, फिर उसे अंग्रेजी में अनूदित किया गया । इस जटिलता के चलते ही संपादक ने किसी भी गलती के सुधार के लिए पाठकों से निवेदन किया है । 2006 से इस किताब का काम शुरू हुआ था और दो साल में 200 से अधिक विद्वानों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और पुस्तकालयाध्यक्षों की मदद से इसे पूरा किया गया ।