Wednesday, April 27, 2011

बिहारी कौन हैं


मैं जब विश्वविद्यालय आया तो बताया गया कि भोजपुरी बोलने से यहाँ कोई दिक्कत न होगी । जो भी हिंदी भाषी हैं वे असल में भोजपुरी भाषी हैं । इनकी संख्या इस क्षेत्र में 35% है । मुझे अपने पूर्वजों पर गर्व हो आया । एन डी टी वी का त्रिनिडाड पर कार्यक्रम देखकर इसमें बढ़ोत्तरी ही हुई । लोग कहाँ से कहाँ चले गये ! एक वासुदेव पांडे को उनके जन्मस्थान का पता चल गया पर लाखों वासुदेव पांडे अपने मूल भूल गये हैं । 75 साल की बुढ़िया बढ़िया अंग्रेजी बोल रही थी और भोजपुरी गीत गा रही थी । फिजी से एक वामपंथी छात्रनेता आया था तो उसने बताया कि अगर कोई अमेरिका जानेवाला हो तो किसी को कोई खास रुचि नहीं होती है । लेकिन अगर कोई भारत आनेवाला हो तो उसके यहाँ पंद्रह दिन पहले से लोग मिलने के लिये आने लगते हैं । मारीशस से सरिता बूधू आई थीं तो विवाह के गीत भोजपुरी में गाकर सुना रही थीं । यहाँ के भोजपुरी भाषी सलेटी बांगला और भोजपुरी मिलाकर बोलते हैं । इनमें से अधिकांश लोग उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाकों से 1840 के दशक में चाय बागानों में काम करने के लिये गिरमिटिया की तरह लाये गये थे । वेस्ट इंडीज, अफ़्रीका और उत्तर पूर्व में जब इतने बड़े पैमाने पर लोगों का निष्क्रमण हुआ तो भी 1857 क्यों हुआ ? इसका मतलब उस समय कोई भारी विपत्ति आई रही होगी अन्यथा कृषि से जुड़े लोग इतनी आसानी से अनजान जगहों पर नहीं जाते । क्या जाने आसानी से गये या अफ़्रीका के काले लोगों की तरह जबरदस्ती ले जाये गये !

जब चीन से चाय की आवक बंद हो गयी तो अंग्रेजों को चाय के वैकल्पिक स्रोतों की जरूरत महसूस हुई । तब चाय असम की पहाड़ियों पर घास की तरह उगा करती थी । लोग बुखार होने पर इसका काढ़ा बनाकर पीते थे । अंग्रेजों ने चाय की खेती के लिये इस जगह को मुफ़ीद समझा और पुराने स्वाद के लोभ में चीन से चाय का पौधा लाकर डिब्रूगढ़ में लगाया । पौधा विदेश में पनपने से इनकार कर बैठा । निराश होकर स्थानीय चाय की खेती शुरू की गयी । स्थानीय लोगों ने चाय बागानों में काम करना मंजूर न किया । वजह यहाँ का वातावरण था । सुबह तो जल्दी होती ही है धूप भी काफ़ी तीखी होती है । अफ़ीम का व्यापार जब चीन से होता था तो इस क्षेत्र के लोगों को वह काफ़ी खिलायी गयी थी । तबसे आलस्य यहाँ का स्थायी भाव हो गया है । मनुष्य तो मनुष्य पशुओं को भी सड़क से हटाने में मोटरों के हार्न काम नहीं आते । बहरहाल जैसा कि कहा जाता है भोजपुरी दरबान कुत्ते की तरह भरोसेमंद होता है इसलिये भोजपुरी भाषी जनता प्रतिकूल परिस्थितियों में भी इन बागानों में बाड़े में बंद पशुओं की तरह रहकर काम करती रही ।

अगर आपने एलेक्स हेली का उपन्यास रूट्स पढ़ा हो तो इनके हालात का कुछ कुछ अंदाजा लगा सकते हैं । घर की याद तो आती थी लेकिन वह याद ही रह सकती थी । मालिक जाने न देता था । 1920-21 के दौरान गांधी जी के असहयोग आंदोलन को चाय बागान के मजदूरों ने घर लौटने का संकेत समझा और झुंड के झुंड घर की ओर चल दिये । तब हाथियों से उनकी रिहायशों को नष्ट करके और हजारों को गिरफ़्तार तथा दो सौ लोगों की जान लेकर इस विद्रोह पर काबू पाया गया । इसके बाद कोई ऐसा प्रयास तो नहीं हुआ लेकिन जिन लोगों की स्थिति कुछ सुधर गयी थी वे एकाध बार घर गये । घर जाने पर और वहाँ के हालात देखकर लौटने की इच्छा मारी गयी ।

इसके लिये आपको विस्थापन के एक और पहलू पर निगाह डालनी होगी । जब ये लोग वतनबदर हुए थे तब तक शायद निचली जातियों में पदनाम अपनाकर श्रेष्ठता का अनुकरण करने का रिवाज शुरू नहीं हुआ था । नाम पूछने पर पेशे के साथ मूलनाम बताते रहे होंगे । जहाँ से आये थे वहाँ तो बाद में पदनाम अपनाये गये लेकिन यहाँ ऐसी कोई जरूरत नहीं महसूस हुई । इसलिये अब भी यहाँ के लोगों के नाम के साथ लोहार, धोबी, कुर्मी, कोइरी ( जो बांगला की प्रकृति के कारण बदलकर कैरी हो गया है ), ग्वाला, नुनिया ( नोनिया ) आदि पदनाम चलते हैं । अंग्रेजों और असमीया लोगों के लिये ये शब्द सामाजिक पदानुक्रम के द्योतक नहीं थे । जब ये लोग कभी लौटकर घर जाते तो उन्हें सामाजिक पदानुक्रम का बोध होता । इसलिये एकाध बार के बाद कभी गये ही नहीं । अब धीरे धीरे मूल स्थानों की स्मृति धुँधली पड़ने लगी है । इन्हें यहाँ के सरकारी कागजों में टी ट्राइब कहा जाता है । फ़िलहाल अनुसूचित जनजाति में शामिल किये जाने की माँग इनके भीतर जोर पकड़ रही है । असम के चूतिया ( सुटिया ), अहोम आदि ऐसे ही माँगकर्ताओं के साथ इनकी भी माँग शामिल कर ली जाती है ।

चाय बागान की समस्याओं को समझने के लिये अर्थतंत्र में आये बदलावों पर निगाह डालनी होगी । पहले व्यापार संबंधी समझौते द्विपक्षी हुआ करते थे । फ़िर गैट नामक बहुपक्षी समझौता वार्ताओं का दौर चला । तर्क दिया गया कि दोतरफ़ा समझौते में मोलतोल की गुंजायश कम होती है, बहुपक्षी समझौते में हमारी ताकत बढ़ जायेगी । लेकिन ताकत की ऐसी बढ़ोत्तरी हुई कि मारीशस जैसा गन्ना उत्पादक देश भी मंदी के चलते सूचना प्रौद्योगिकी पर जोर दे रहा है । भारत की ताकत में जब इजाफ़ा हुआ तो गेहूँ, कपास, नारियल, हल्दी उत्पादक एक के बाद एक आत्महत्याएँ करने लगे । सबको अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रतिद्वन्दता की वेदी पर शहीद होना पड़ा । चाय की कीमतों में भी इसी प्रतिद्वन्दता के कारण कमी आई और मालिकों को वाजिब मजदूरी देने में दिक्कत आने लगी । मेरे आने के कुछ ही दिनों बाद असम के किसी मंत्री के बेटे रूपक गोगोइ की हत्या गोलाघाट स्थित चाय फ़ैक्टरी में 250 मजदूरों ने सामूहिक रूप से कर दी । पता चला मजदूरों को 6 महीने से वेतन नहीं मिला था । मालिक ने मैनेजर के जरिये समझौता वार्ता का संदेश भेजा था और कहलाया था कि एक महीने के वेतन का तत्काल भुगतान कर दिया जायेगा । वार्ता में मालिक वादे से मुकर गया और महज एक हफ़्ते के वेतन के लिये राजी हुआ । नतीजतन मजदूर भड़क गये । उन्होंने मालिक को पीटते पिटते मार डाला और लाश को जला दिया । सभी 250 मजदूर थाने गये और अपराध स्वीकारते हुए गिरफ़्तारी दी । पुलिस की समस्या यह कि उसकी सूचना के मुताबिक मुख्य अभियुक्त 73 थे । अगला काम इस भीड़ में से 73 लोगों को अलगाना था । थोड़े दिनों बाद एक और मालिक की हत्या हुइ । खबर आई कि मैनेजर चाय बागान छोड़कर भाग रहे हैं । उन्हें मजदूरों का गुस्सा जो सहना पड़ता । हरेक चाय बागान में पुलिस की तैनाती की गयी । चाय बागान के मजदूर कांग्रेस के परंपरागत समर्थक रहे हैं । धीरे धीरे वे कांग्रेस के पंजे से बाहर आ रहे हैं । इस उद्योग में दबाव इतना अधिक है कि अभी हाल में पश्चिम बंगाल में चाय बागानों में बारह दिन चली हड़ताल के बाद न्यूनतम मजदूरी में कुल दो रुपये की बढ़ोत्तरी पर ही वामपंथी यूनियनों को हड़ताल वापस लेनी पड़ी । हाल में प्रकाशित एक समाचार के मुताबिक चाय बागानों में हरेक साल औसतन एक हजार लोग बुखार, पेचिश, आंत्रशोथ जैसी बीमारियों से मर जाते हैं ।

दुर्गम जगह और दुर्दम प्रकृति

असम विश्वविद्यालय में एक कथा बहुत मशहूर है । कोई अध्यापक दाढ़ी बना रहे थे । बेसिन में छिपकली गिर गई । बार बार कोशिश करे लेकिन बाहर निकलने में नाकामयाब । अध्यापक ने कहा- तुम्हारी और मेरी अवस्था एक ही है । इसका पता तब चला जब जनवरी में कार्यभार ग्रहण करने के बाद सीधे मई में निकलने का मौका मिला ।

सुमो में भरकर अध्यापकों की टोली गुवाहाटी के लिये दोपहर दो बजे चली । रास्ते में बार बार प्रोफ़ेसर विश्वनाथ प्रसाद एक ही बात कहते रहे- सोनापुर पार हो जाये तो निश्चिंत हों । मैंने समझा यह कोई आतंकवाद प्रभावित जगह है । जब पहुँचा तो प्रकृति की दुर्दमनीयता देखकर दंग रह गया । सड़क के एक तरफ़ बीस मीटर खड़ा पहाड़ । दूसरी तरफ़ बीस मीटर नीचे बहती नदी । नदी के पार बांगलादेश की सीमा । खड़े पहाड़ के नीचे हनुमान मंदिर । नदी पानी से भरी नहीं थी । तकरीबन पाँच सौ मीटर दूर तक छोटी छोटी धारायें । विशाल दलदल जैसा दृश्य । पहाड़ लगातार पसीज रहा था । पता चला ऊपर विशालकाय झील है । सुमो के लोग मंदिर में पूजा कर रहे थे । मेरा दिल बैठा जा रहा था । इस जगह के बारे में अनेक कथायें । बरसात के दिनों में अक्सर भूस्खलन होता है । तब यही सड़क जिस पर हम खड़े थे सरककर नदी के पेटे में चली जाती है । एक बार सड़क के साथ ही यात्रियोंसे भरी बस भी नदी में गयी तो लाशें बांगलादेश में मिलीं । उस समय इधर यानी सिलचर से गुवाहाटी जानेवाले इधर और उधर यानी गुवाहाटी से सिलचर आनेवाले उधर कई दिन फँसे रहे थे । छोटा मोटा बाजार आबाद हो गया था । जब पैदल चलकर पार करने लायक हालात हुए तो लोग इधर से उधर हुए । इस प्रक्रिया में जो हौलनाक घटनायें हुईं उनका बयान भी दिल दहलानेवाला है । पहाड़ से लुढ़ककर आते पत्थरों पर पाँव रखकर पार जाना होता था । अगर पत्थर न मिला तो कुछ भी हो सकता था । एक औरत अपनी बच्ची के साथ रास्ता पार कर रही थी । बच्ची का हाथ माँ से छूट गया और बच्ची आहिस्ता आहिस्ता कीचड़ में धँसती नीचे की ओर खिसकती गयी । आधे घंटे के उस बिछोह में कोई कुछ नहीं कर सकता था । माँ भी नहीं । विश्वविद्यालय के कई अध्यापक तब संयोग से बचकर निकल आये थे ।उनमें से एक ने बताया कि पहले उनके पाँव घुटनों तक कीचड़ में धँसे । एक पाँव निकाला तो जूता अंदर ही छूट गया । दूसरा पाँव निकाला तो वह भी नंगा निकला । फिर कमर तक धँसे । पीठ पर का बैग कहीं रह गया । धीरे धीरे गले तक कीचड़ में । सबकी याद आने लगी । तभी पता नहीं कहां से एक पत्थर पकड़ में आया । उसे पकड़कर अपने आपको बाहर निकाला और पार हुए । यह कथा बहुतों की रही । अब आप भारत के सबसे बड़े दर्द '47 के बँटवारे के बारे में सोचिए । बांगलादेश की तरफ़ भी नदी पर ऐसा ही पुल होगा । मैंने कल्पना की अगर दोनों देशों के लोग इस नदी को एक ही पुल से पारकर अपने अपने देश में चले जाते तो क्या बुरा था ! बादल भी उन्हीं का अनुसरण करते और चिड़ियाँ भी ।

अगर आप भारत के नक्शे के पूर्वी छोर पर निगाह डालिए तो सारी बात समझ में आ जायेगी । कलकत्ता से ऊपर न्यू जलपाईगुड़ी के बाद हंस की गर्दन जैसे रास्ते से गुजरते हुए नीचे उतरकर आप गुवाहाटी पहुँचते हैं । फिर गुवाहाटी से बांगलादेश के किनारे किनारे सिलचर । पैमाना लेकर नापेंगे तो देखेंगे कि इस द्रविड़ प्राणायाम में दूरियाँ कितनी बढ़ जाती हैं । अगर सिलचर से कलकत्ता जाना हो तो सबसे कम समय बारह घंटे गुवाहाटी तक, फिर गुवाहाटी से ऊपर चढ़कर न्यू जलपाईगुड़ी से घूमकर नीचे उतरकर कलकत्ता अठारह घंटे । कुल चालीस घंटे जबकि सिलचर से बांगलादेश होते हुए कलकत्ता जाने के लिये सीधी सड़क है । जब बांगलादेश ने हवाई यात्रा की इजाजत दे दी कलकत्ते से सिलचर का सफ़र महज एक घंटे में हो जाता है । क्यों न ऐसा करें कि रेलमार्ग भी माँग लें इस शर्त पर कि रास्ते में डिब्बों से होकर हवा भी आने जाने नहीं दी जायेगी । रेल कहीं से पानी भी नहीं लेगी और विदेशी धरती पर लोग शौचालय का इस्तेमाल भी नहीं करेंगे । कुल मिलाकर भारतीय राष्ट्रवाद कीर्तन या ड्रग्स जैसा नशा है । सूच्यग्रं न दास्यामि विना युद्धेन केशव ! हास्यास्पद अहंकार ।

पहले बांगलादेश से आये विदेशियों के प्रति भय और नफ़रत का वातावरण बनाया गया । इसका यही नतीजा होगा कि फिर आप बिहारी से नफ़रत करेंगे । असम में विदेशी द्वेष और इसी की आड़ में सांप्रदायिकता इतनी नग्न है कि अत्यंत परिष्कृत लोगों की वाणी से भी दबे ढके गालियाँ निकल सकती हैं । भाजपा द्वारा बांगलादेशी शरणार्थियों के विरुद्ध चलाये गये बौद्धिक अभियान का बड़ा गहरा असर हुआ है । लोग यह भूल चुके हैं कि बँटवारे के समय नेहरू जी ने देश के पश्चिम और पूरब दोनों तरफ के देशों के अल्पसंख्यकों को यह लिखित भरोसा दिया था कि उन्हें जब भी जरूरत होगी भारत बाँहें फैलाकर उनका स्वागत करेगा । जिनके विरुद्ध भाजपा बंदूक ताने खड़ी रहती है उन्हें आप कूड़ा बीनते, रिक्शा चलाते और घरों में चौका बरतन करते तथा कपड़ा धोते, पोंछा लगाते पायेंगे । 1971 के बाद वस्तुतः आव्रजन हुआ ही नहीं है । लेकिन मामला तथ्य और तर्क का नहीं आस्था और विश्वास का है ।

पिछले दिनों डिब्रूगढ़ में किसी नामालूम से संगठन ने बंगालियों के बहिष्कार के पर्चे बाँटे । एक दिन में सात सौ बंगाली डिब्रूगढ़ छोड़कर भाग गये । असम के राज्यपाल का वक्तव्य आया कि भागे हुए लोग बांगलादेशी थे । मुख्यमंत्री ने बताया कि ये लोग भारतीय थे । सरकार के ही दो मुख जब आपस में विपरीत बातें बोल रहे हों तो किसे सही माना जाये । दरअसल व्यापार में मारवाड़ियों और सरकारी कार्यालयों में बंगालियों द्वारा सताये गये लोगों की भावनाओं का दोहन बिहारियों और बांगलादेशियों के खिलाफ वक्तव्य देकर यहाँ के राजनेता अक्सर करते हैं । एक फ़र्क मेरे देखे हुए बंगाल और उत्तर पूर्व के बंगालियों में दिखाई पड़ा । अंग्रेजों के संपर्क में पहले आने के कारण बंगाली लोग सरकारी कार्यालयों में भरते गये । उन्हीं की सुविधा के अनुरूप विभिन्न प्रदेशों के सरकारी हलकों में बांगला का बोलबाला रहा । कलकत्ता के भद्र बंगाली और कार्यालयी बाबुओं की संस्कृति में जमीन आसमान का अंतर है । घूस खाने का बहुत ही व्यवस्थित तंत्र सरकारी कार्यालयों के जरिये खड़ा किया गया । छोटे मोटे पदों से सेवानिवृत्त होने वाले कर्मचारी भी मकान बनवाकर ठाठ से बुढ़ौती किराये के सहारे गुजारते हैं । एक और मनोवैज्ञानिक कारण दिलीप मंडल ने बताया । उखड़े हुए लोगों और स्थायी रूप से बसे लोगों की संस्कृति में भारी फ़र्क होता है । इसे दिल्ली के पंजाबी और पंजाब के पंजाबी में देखा जा सकता है । उखड़े हुए लोगों को अपनी पहचान जताने का कोई पारंपरिक माध्यम मिलता नहीं इसलिये पैसा ही अहंकार का एकमात्र स्रोत हो जाता है । केंद्र से आनेवाली सहायता का बड़ा हिस्सा इन्हीं कार्यालयों में डकार लिया जाता है । लेकिन इस वाजिब विक्षोभ को जो रास्ता दिखाया जाता है वह खतरनाक है । इसके कारण श्रमिकों को नुकसान उठाना पड़ता है ।

'त्रिशूल' के बहाने

आज जबकि सांप्रदायिकता विरोधी संघर्ष का एक दौर तकरीबन पूरा हो चुका है और इस समुद्र मंथन से निकले अमृत का अधिकांश भाग मध्यवर्ती और दलित जातियों के राजनीतिक ठेकेदारों के हाथ आ चुका है, उस दौर को फिर से याद करना सचमुच रोमांचक है । शिवमूर्ति की 'हंस' के अक्टूबर नवंबर '93 के अंकों में प्रकाशित लम्बी कहानी 'त्रिशूल' सम्प्रदायिकता के चरम उभार के पूर्वी उत्तर प्रदेश के समाज और राजनीति का चित्रण करती है। शिवमूर्ति की कहानियों की विशेषता यह है कि इनमें वे परिस्थितियों को उनकी अन्तिम परिणति तक पूरी तल्खी के साथ आगे बढ़ने देते हैं। जहां और कथाकार सन्तुलन खो देते है और कथा में स्वयं उपस्थित होकर अपना रोष व्यक्त करने लगते हैं, शिवमूर्ति वहाँ भी घटनाओं और परिस्थितियों को स्वयं उनके ही तर्क से संचालित होने देते है और इस प्रक्रिया में उनकी कहानियों में ऐसी स्पष्टता और तीखापन आ जाता है जो 'त्रिशूल' को निश्चय ही साम्प्रदायिकता की समस्या पर लिखी अन्य कहानियों से अलग कर देता है। इसमें न सिर्फ उस समाज की, जिसमें साम्प्रदायिक गुंडे दहाड़ते घूम रहे थे, बल्कि उस प्रशासनिक मशीनरी की भी, जो उन्हें संरक्षण देने मात्र से आगे बढ़कर खुद उनका हिस्सा बन गयी थी, बेबाक चीरफाड़ की गयी है। यही इस कहानी की शक्ति है और इसी के कारण शुद्ध राजनीतिक कहानी होते हुए भी यह अपने पर बहस करवा ले गयी।

शिवमूर्ति की ईमानदारी मात्र इसमें नहीं है के साम्प्रदायिक तत्वों को उन्होंने उनके सही नाम से पुकारा है। बलात्कारियों, गँजेड़ियों, दारूबाजों और हत्यारों के इस गिरोह को इसी नाम से पुकारना सचमुच साहस की बात है। कथानायक के पड़ोसी शास्त्री जी, जो कहानी के शुरू में एक भले पड़ोसी की तरह आते हैं, अंत तक जाते जाते कथानायक के नौकर महमूद और खुद कथानायक के हत्यारे की तरह नज़र आने लगते हैं। उनके माध्यम से एक जुनूनी साम्प्रदायिक का चरित्र धीरे धीरे खुलता है। ऊपर से सभ्य नज़र आने वाले बहुतेरे लोग जो तनाव के दिनों में हत्यारे, बलात्कारी और लुटेरे हो गये थे उनका प्रतिनिधित्व इस कहानी में 'आस्था के प्रचारक' शास्त्री जी ने किया है और उनके साथी हैं सभी तरह के लम्पट।

इससे भी आगे बढ़कर शिवमूर्ति की ईमानदारी इसमें है कि साम्प्रदायिकता के विरोध की जो रणनीति वे सही समझते हैं उससे भी उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के प्रकट कर दिया है। इसकी व्याख्या के लिये थोड़ा कथा सूत्र को देखा जाय। दरअसल कहानी का केन्द्रीय चरित्र है कथानायक का नौकर महमूद। महमूद नाम उसे साम्प्रदायिक तनाव के दिनों में संदिग्ध बनाता चला जाता है। जैसे-जैसे तनाव गहराता है सभी पड़ोसी, स्पष्टत: जिनमें शास्त्री जी सबसे आगे हैं, एक हिन्दू मुहल्ले में मुसलमान की उपस्थिति बर्दाश्त नहीं कर पाते लेकिन कथानायक के अड़ जाने पर चुप रह जाते हैं। बाद में शास्त्री जी के बेटे के स्कूल से बिना बताये अपने रिश्तेदार के यहाँ चले जाने पर शास्त्री जी महमूद के खिलाफ़ अपने बेटे के अपहरण की नामजद रपट दर्ज कराते हैं। महमूद को पुलिस पकड़ ले जाती है। चूंकि कथानायक एक प्रसाशनिक अधिकारी है इसलिए वह इनसे उनसे मिलकर उसे छुड़वाता है लेकिन महमूद को ले जाते हैं मुस्लिम साम्प्रदायिक तत्व। कथानायक उसे वापस घर ले आता है लेकिन इस प्रक्रिया में महमूद एक आदमी से मुसलमान में इस कदर बदला जा चुका है कि वह कथानायक के घर न रुककर अपने घर के लिये चला जाता है। लेकिन कहानी में इतना ही नहीं है। आदमी को अकेला कर देने वाली इस दमघोंटू घेरेबन्दी के खिलाफ़ प्रतिरोध के स्वर भी है। एक तो है स्वयं कथानायक, इस कहानी का 'मैं'। यह कथानायक पिछ्ड़ी जाति से है लेकिन यह उसकी प्रधान पहचान नहीं है न इस नाते वह साम्प्रदायिकता विरोधी है। यहाँ तक जब उससे क्लब का चपरासी सिर्फ़ ओ बी सी होने के नाते मदद मांगने आता है तो वह उसे इस बात के लिए फटकारता है। वह तो साम्प्रदायिक भाईचारे में भोला विश्वास रखने वाला एक उदारमना हिन्दू है जो नहीं चाहता कि विभिन्न धर्मों के ईश्वर आपस में लड़े। लेकिन वह स्वयं जिन तर्कों और चरित्रों से प्रभावित होता है वे अवश्य उसकी साम्प्रदायिकता विरोधी चिंतन की दिशा का संकेत देते हैं। एक बार जब शास्त्री जी यह तर्क देते हैं कि वे पचासी प्रतिशत हिन्दुओं को संगठित करना चाहते हैं तो कथानायक को किसी राजनीतिक कार्यकर्ता का भाषण याद आता है जो बताता था कि सवर्ण ब्राह्मणवादी धार्मिक ठेकेदारों ने हिन्दू समुदाय के पचासी प्रतिशत दलित पिछड़ों को मानवीय अधिकारों और गरिमा से वंचित रखा हुआ है। कथानायक सोचता है 'एक इनका पचासी प्रतिशत और एक उनका पचासी प्रतिशत'। एक समय और जब कथानायक महमूद को छुड़वाने जिलाधिकारी आवास गया है तो वहाँ किसी लोकगायक पाले की लाश के साथ प्रदर्शनकारी ग्रामीण जन समुदाय की भारी भीड़ आई हूई है। वहीं उसे पाले के बारे में पता चलता है जो भाजपाई विधायक गुलाब सिंह और उनकी पार्टी की हिन्दुत्ववादी विचारधारा के खिलाफ़ लोगों में लोकप्रिय गीत रचता था, उन्हें सुनाता था इसीलिए गुलाब सिंह ने उसकी हत्या करवा दी। पाले के गीत औए तर्क सभी भाजपा के खिलाफ़ सपा- बसपा की ओर से दिये जाने वाले तर्कों के प्रतिनिधि हैं। वह "पार्टीबाज रामभक्तों के लिए कहता था कि इनकी 'माया' में मत फंसिए। यह मारीच की संतान हैं। --- ऐसे रामराज्य से भगवान बचाये जिसमें ब्राह्मण के फलने फूलने के लिए शूद्र का सिर काटा जाना अनिवार्य होता है।" अनेकश: कहानी में हिन्दू धर्मग्रन्थों और हिन्दू देवताओं के चारों तरफ का मिथकीय आवरण चिरपरिचित बसपाई तर्कों से ध्वस्त किया जाता है। प्रतिरोध का एक तीसरा स्तर भी है जहाँ क्लब में दरोगा जी और मिसिर जी आपस में लड़ जाते हैं क्योंकि मिसिर जी ने मुख्यमन्त्री को गाली दी और चूँकि दरोगा जी मुख्यमंत्री की जाति के हैं इसलिए वे चौकीदार से मिसिर जी का लगवाया भाजपाई झंडा मंगवाकर उससे जूता पोंछने चल देते हैं। साम्प्रदायिकता विरोध के इन तीनों स्तरों में कमोबेश लेखक का विश्वास है।

साम्प्रदायिकता विरोधी यह रणनीति अकेले उनका विश्वास नहीं है। दरअसल परम्परागत वामपंथ और लोकतान्त्रिक चिन्तन से जुड़े अधिकांश बुद्धिजीवियों की मान्यता थी और है कि साम्प्रदायिकता को हिन्दू समुदाय के भीतर के जाति विभाजन को उभारकर पराजित किया जा सकता है। यह समझना कोई मुश्किल नहीं है कि अक्सर प्रश्न को मण्डल बनाम मन्दिर के दायरे में समझा जाता है। इस चिन्तन के समर्थक न सिर्फ सोशलिस्ट हैं जो पहले से ही वर्ग संघर्ष की जगह वर्ण संघर्ष को प्रधानता देते आये हैं बल्कि जनता दल से अपने गंठजोड़ से मोहग्रस्त परम्परागत वामपंथी भी, खासकर मण्डल कमीशन की घोषणा के बाद और साम्प्रदायिकता के उभार की स्थिति में, इसी चिन्तन के पैरोकार बन बैठे। बहुतेरे लोगों को माकपा के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत की लालू यादव की वह कसीदाकारी भूली न होगी कि लालू ने अतीत में साम्प्रदायिकता को परास्त किया, वर्तमान में भी उसे दबाये हुए हैं और अब हमें इसका राज़ बताकर आगे भविष्य में साम्प्रदायिकता से लड़ने का रास्ता दिखायेंगे। उनमें से एक खेमा तो धर्म की मार्क्सवादी धारणा में खामी ढूँढ़ने और उदार हिन्दू परम्परा के जय गान को ही अपना कार्यभार बना बैठा। इसीलिए दूधनाथ सिंह यदि इस कहानी की आलोचना करते हैं तो इसे परम्परागत वामपंथी चिंतन की विडंबना के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है! यह तो वही बात हुई कि गुड़ तो खायेंगे लेकिन गुलगुले से परहेज करेंगे। फिर भी चूंकि इस कहानी में साम्प्रदायिकता विरोध की एक ख़ास समझ को उभार कर लाया गया है इसलिए उस समझ की थोड़ी गहरी जांच आवश्यक है।

इस सवाल पर बहस की निश्चित रूप से आवश्यकता है कि क्या साम्प्रदायिकता अथवा ब्राह्मणवाद को पराजित करने में दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यकों का कोई गंठजोड़ सक्षम है? क्या दलित- पिछड़े और अल्पसंख्यक अपनी इन्हीं अस्मिताओं के कारण अनिवार्यतः सांप्रदायिकता विरोधी और धर्मनिरपेक्ष हैं ? मुझे लगता है कि इस सवाल पर सोचते हुए शिवमूर्ति और उन्हीं की तरह अनेक बुद्धिजीवी विचारधारा के महत्व को भूल जाते हैं । विचारधारा का महत्व ही यह होता है कि जिस वर्ग की सेवा के लिए वह काम करती है, उस वर्ग के अलावे अन्य वर्गों को भी वह अपने समर्थन में खड़ा कर लेती है । विचारधारा इस बात की गुंजाइश बनाती है कि कोई वर्ग अपने वर्ग हितों को समूचे समाज के हितों के बतौर पेश करे । इसीलिए उसका असर तत्संबंधी वर्ग से अलग भी पड़ता है । सांप्रदायिकता एक विचारधारा है और इसीलिए उसके समर्थन में सवर्ण जातियों के अतिरिक्त भी बहुतेरे अन्य सामाजिक समुदायों को हम खड़ा पाते हैं । इसके मुकाबले दलित- पिछड़ा- अल्पसंख्यक गंठजोड़ की क्या स्थिति है ? यह सही बात है कि किसी न किसी रूप में सामाजिक रूप से दलित/ पीड़ित होने के कारण ये समुदाय आपस में एकता महसूस कर रहे हैं और पिछले दिनों जनता दल या सपा- बसपा के रूप में इन्होंने कुछ राजनीतिक दलों को आधार और मजबूती भी प्रदान की है । लेकिन इनकी आपसी एकता को बनाए रखने और राजनीतिक- आर्थिक तंत्र को इनके हित में इस्तेमाल करने के लिए आवश्यक है कि इन समुदायों की आर्थिक और राजनीतिक आकांक्षाओं को विचारधारा के स्तर पर संगठित किया जाए। यहाँ तक कि डॉ लोहिया ने भी राजनीति की इस अनिवार्यता को समझते हुए ही इन समुदायों की मांगों को क्षेत्रीय असमनता-सामाजिक न्याय-विकेन्द्रीकरण इत्यादी के इर्द-गिर्द सूत्र बद्ध किया। इसके मुकाबले आज के जनता दल और सपा- बसपा जैसे राजनीतिक दल इन समुदायों के भयादोहन मात्र पर जीवित हैं । इस संबंध में एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि सांप्रदायिकता को पराजित करने के बाद आप कौन सा समाज निर्मित करना चाहते हैं ? यदि इन जातियों/ समुदायों में विचारधारात्मक संघर्ष के जरिए जनतांत्रिक मूल्यों का प्रवेश न कराया जाय तो अंततः ये भी किसी प्रतिक्रियावादी शासन तंत्र के आधार हो सकते हैं । इन समुदायों में भी परिवार के स्तर पर पितृसत्तात्मक ढाँचा, ग्राम केंद्रित चेतना के चलते निरंकुश राजसत्ता के प्रति भक्ति, पूँजीवादी- सामंती मूल्यों के प्रवेश की संभावना इत्यादि ऐसे तत्व हैं जो अंततः, यदि उन्हीं की चेतना पर उनके नेता खड़े रहे तो, उन्हें भी भाजपाई बना दे सकते हैं । सामाजिक रूप से उनका दलित- पिछड़ा अथवा अल्पसंख्यक होना इस बात का आधार मुहैय्या करता है कि वे किसी जनतांत्रिक समाज के निर्माण के आधार हो सकें लेकिन बाकी काम एक सचेत विचारधारात्मक प्रयास की माँग करता है ।

वस्तुतः शिवमूर्ति जैसे बुद्धिजीवियों की ईमानदारी की इस सीमा के पीछे परंपरागत वामपंथ की एक ग्रंथि है । किसी से पूछिये कि हिंदी इलाके से वामपंथ बेदखल क्यों हो गया । सोसलिस्ट बुद्धिजीवियों के पास इसका एक सरल उत्तर है कि चूंकि कम्युनिस्ट जाति को महत्व नहीं देते थे और जाति तथा धर्म भारत की विशिष्टता हैं इसीलिए जहाँ इसका सर्वाधिक संकेंद्रण है, अर्थात हिंदी क्षेत्र, वहाँ की विशिष्टता अथवा जमीनी सच्चाई के साथ कम्युनिस्ट जुड़ ही नहीं सके । ऐसा लगता है कि परंपरागत वामपंथ ने भी इसे स्वीकार कर लिया है और इसीलिए जब जब हिंदी इलाके में विस्तार की योजना बनाई जाती है तो जनता दल अथवा सपा की पूँछ पकड़ने की अनिवार्यता सामने लाई जाती है । इसके लिए जाति और धर्म संबंधी अपनी मान्यताओं में संशोधन के लिए भाँति भाँति की सैद्धांतिक कसरतें की जाती हैं । इस सामान्य तथ्य से आँख मूँद ली जाती है कि इस परिघटना के पीछे कांग्रेस के प्रति मुख्यधारा के कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों का भी कुछ हाथ है । चूंकि हिंदी इलाके के मध्यम जातियों की राजनीतिक- आर्थिक महात्वाकांक्षाएं कांग्रेस की छतरी में समा नहीं पा रही थीं इसीलिए उनका नेतृत्व कोई कांग्रेस विरोधी शक्ति ही कर सकती थी । नेहरू और इंदिरा युग में कांग्रेस से अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी का जो मोह था उसने उसे इस ऐतिहासिक दायित्व को पूरा करने लायक ही नहीं छोड़ा । अब जबकि अतीत में की गयी गलती के गलत सुधार की प्रक्रिया शुरू की गयी है तो चूंकि परंपरागत वामपंथी मध्यम जातियों से कोई वर्ग विभाजन किये बिना, कोई गंभीर सामाजिक परिवर्तन की चेतना पैदा किये बिना उनके साथ एकताबद्ध होना चाहते हैं इसलिए अत्यंत स्वाभाविक प्रक्रिया के बतौर दिखाई यह पड़ता है कि वे इन जातियों के बुर्जुआ प्रतिक्रियावादी नेतृत्व के पिछ्लग्गू बनकर खड़े हो जाते हैं, न सिर्फ़ व्यावहारिक स्तर पर बल्कि सैद्धांतिक स्तर पर भी । 'त्रिशूल' कहानी एक ऐसा आईना है जिसमें वे अपनी सूरत देख सकते हैं । सांप्रदायिकता के विरोध में कहीं कोई वामपंथी कार्यकर्ता नहीं, कहीं कोई कम्युनिस्ट आवाज इस कहानी में मौजूद नहीं है । सब कुछ जैसे मात्र एक जातिवादी परिघटना है- मंडल विरोधी सांप्रदायिकता के पक्ष में मंडल समर्थक उसके पक्ष में ।

सांप्रदायिकता और उसके विरोध की रणनीति की इसी भ्रामक समझ के चलते 'त्रिशूल' में एक खास तरह का दूरदृष्टि दोष है । सांप्रदायिकता विरोध के नायक मुख्यमंत्री मुलायम सिंह के पिछले राज में एक ऐसी घटना घटी थी जिसे धर्म निरपेक्ष बुद्धिजीवी समुदाय अक्सर सुविधापूर्वक भूल जाता है। यू पी सिमेन्ट कॉर्पोरेशन की तीन फैक्ट्रियों को मुलायन सिंह ने वि हि प के अध्यक्ष विष्णु हरि डालमिया के सुपुत्र संजय डालमिया को निजी अथवा राजनीतिक सम्बन्धों के एवज में औने पौने दामों पर बेच दिया था। मजदूरों ने धरना देकर डालमिया साहब को फैक्ट्रियों पर कब्जा करने नहीं दिया। तब उत्तर प्रदेश की पुलिस ने, जो भाजपाइयों के सामने आते ही गिड़गिड़ाने लगती थी, इस पूँजीपति को कब्जा दिलाने के लिये अति उत्साह में तीस से ऊपर मजदूरों को गोलियों से भून दिया। यह किसका लहू था, कौन मरा?

दूरदृष्टि दोष युक्त 'त्रिशूल' में इसी लिए महमूद का मुस्लिम कट्टरपंथियों के हाथ में पड़ जाना कोई अस्वाभाविक घटना नहीं है। महमूद का खो जाना 'त्रिशूल' में वर्णित घटनाओं की तार्किक परणति है। इसके मुकाबले आप 'गर्म हवा' फ़िल्म के नायक को रखकर देखिए। महमूद को तो वर्गीय चेतना से लैस कोई लोकतांत्रिक आन्दोलन ही उसकी अर्थवत्ता प्रदान कर सकता है। यदि साम्प्रदायिकता के विरोध में इतना कमजोर और लिजलिजा मोर्चा लगा दीख रहा हो तो महमूद का खो जाना ही तर्क संगत है।

अब रहता है अंतिम प्रश्न कि साहित्यकार का यह दायित्व बनता है या नहीं। शिवमूर्ति उस भाषा और उस इलाके के कथाकार है जहाँ प्रेमचन्द नामक एक कथाकार हुए थे। साहित्य और राजनीति रिश्ते पर उन्होंने एक बार लिखा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली सच्चाई है। क्या यह उन्होनें इस लिए लिख दिया था के साहित्यकार लोग आमतौर पर साहित्य को दुनिया में सब कुछ के आगे समझते है या फिर इसमें कुछ तत्व है? प्रेमचन्द के साहित्य से बढ़कर इसका प्रमाण और किया होगा। जिस समय कांग्रेस के नेतृत्व में स्वतंत्रता आन्दोलन का वैचारिक प्रभाव अपने चरम पर था उस समय उनके एक उपन्यास 'गबन' के एक पात्र देवीदीन खटिक ने कहा कि इन कांग्रेसियों का अगर राज आजाए तो यह तो गरीबों को पीसकर पी डालेंगे। और तो और 'गोदान' में जो एक मात्र कांग्रेसी चरित्र है वे हैं इलाके के जमींदार राय साहब। ध्यान रखिए कि कांग्रेस के बारे में प्रेमचन्द का यह चिन्तन न सिर्फ़ 1947 से पहले का है बल्कि 1937 से भी पहले का है जब पहली कांग्रेसी सरकारें बनी थीं। प्रेमचन्द के कहने का अगर कुछ अर्थ है तो यही कि साहित्यकार लोकप्रिय राजनीति को सिर्फ़ उसके ऊपरी प्रभाव से नहीं बल्कि ठोस सामाजिक अंतर्धाराओं में भी देखकर जांचता है। समाज के ऊपरी दर्जे पर चलने वाली राजनीति को जो जमीनी आलोचना है उसे भी स्वर देना साहित्य का ही काम है तभी वह वर्तमान में अवस्थित होकर भविष्य को देख पाता है। अब यदि मुलायम सिंह के डाला के मजदूरों के प्रति व्यवहार या संजय डालमिया और जयंत मलहोत्रा जैसे धन पशुओं के साथ उनके सम्बन्ध या मुलायम सिंह की ही पुलिस द्वारा मारे गये मेरट के हरिजनों और कांशीराम जी के सिद्धांतों के सम्बन्ध की विवेचना आशा हम साहित्य से न करें तो और किससे करें?

कुछ लोगों ने इस कहानी के बारे में कहा है कि यह अत्यंत व्यापक फलक पर साम्प्रदायिकता की समस्या को उठाती है। वस्तुत: इस कहानी का फलक और दायरा अत्यंत छोटा है। साम्प्रदायिकता की समस्या और उससे संघर्ष के प्रश्न पर यह जितनी स्पष्टता प्रदान करती है उससे अधिक भ्रम पैदा करती है। शिवमूर्ति जैसे कथाकार को अनुभव के तथ्य को विचार के सत्य तक उठाना चाहिए था; इसलिए भी कि वे ऐसा करने में समर्थ है। तथ्य में भी अंतर्विरोध होते है और विचारों की ताकत उन अंतर्विरोधों के विकास की दिशा की समझ प्रदान करती है।

अंत मे एक बात और। शिवमूर्ति अपनी कथायात्रा के दृष्टिकोण से भी यह कहानी एक नया पड़ाव है। इसके पहले 'तिरिया चरित्तर' या 'भरत नाट्यम' में एक समाज है जो अमानवीय है, 'कसाईबाड़ा' और 'अकालदण्ड' में एक राजनीति और राज्यतंत्र है जो आदमी की मर्यादा को खंडित करता है लेकिन इस कहानी में राजनीति और समाज दोनों में एक दूसरे की बदौलत जीवनी शक्ति हासिल कर रहे अमानवीय तत्वों की बारिक एकता की समझ है। यह समझ आगे आने वाले दिनों में किसी औपन्यासिक चेतना के उदघाटन का पूर्वाभास लगती है, इसलिए भी यह आलोचना आवश्यक है।

Monday, April 25, 2011

नागार्जुन की आलोचना - नये प्रतिमानों की छटपटाहट


नागार्जुन कवि थे, उपन्यासकार थे । थोड़ा ध्यान देकर देखें तो अनुवादक भी थे । लेकिन आलोचक ? और वह भी तब जब खुद उन्होंने आलोचक के बारे में मशहूर कविता लिखी थी ?

अगर कीर्ति का फल चखना है / कलाकार ने फिर फिर सोचा / आलोचक को खुश रखना है / आलोचक ने फिर फिर सोचा / अगर कीर्ति का फल चखना है / कवियों को नाधे रखना है ।

फिर भी वे आलोचक थे । इसका एक कारण इस कविता में व्यक्त विक्षोभ भी है । यह विक्षोभ कलाकार और आलोचक के बीच शाश्वत द्वन्द्व के बारे में नहीं है । इसके व्यक्त विक्षोभ अपने दौर की आलोचना के प्रति है । यह विक्षोभ सिर्फ़ नागार्जुन नहीं बल्कि त्रिलोचन के इस सानेट में भी व्यंग्य का रूप ले लेता है- प्रगतिशील कवियों की नयी लिस्ट निकली है । प्रगतिशील कवियों का प्रगतिशील आलोचकों से यह असंतोष नाजायज नहीं है । नागार्जुन ने न सिर्फ़ अपने असंतोष को व्यंग्य के जरिये व्यक्त किया बल्कि बाकायदे आलोचनात्मक लेखन भी किया । इस लेखन में कुछ नये प्रतिमानों का आग्रह दिखाई पड़ता है । कहीं कहीं ये प्रतिमान कविता में व्यक्त हुए हैं लेकिन अधिकतर गद्य में । मैं सिर्फ़ उन लेखकों का नाम गिनाना चाहता हूँ जिनके बारे में नागार्जुन ने आलोचनात्मक लेखन किया है । निराला पर फुटकर लेखन के अतिरिक्त पूरी एक पुस्तिका; प्रेमचन्द पर लेख और बच्चों के लिए पुस्तक; राहुल सांकृत्यायन पर व्यवस्थित लेख; यशपाल, फणीश्वर नाथ रेणु, तुलसीदास, कालिदास पर कुछ निबन्ध । इसके अतिरिक्त साहित्य के कुछ बुनियादी प्रश्नों मसलन साहित्य और समाज, भाषा का प्रश्न, साहित्यकार की आजीविका आदि पर गम्भीर चिन्तनपरक लेखन । इन सबको मिलाकर ऐसी भरपूर दुनिया बन जाती है जिसके मद्दे नजर उनको आलोचक माना जाये ।

वृहत्तर प्रश्नों से ही शुरू करना बेहतर होगा । 'राज्याश्रय और साहित्य जीविका' शीर्षक निबन्ध में नागार्जुन लिखते हैं- 'मौजूदा शासन के अन्दर सर्वान्शतः राज्याश्रय सच्चे साहित्यकार के लिए ठंडी कब्र है, यानी प्राणशोषक समाधि' । आगे फिर जोर स्पष्ट करते हैं- "इसमें पाँच शब्द हैं जिनकी ओर मैं आपका ध्यान बार बार आकृष्ट करना चाहूँगा । 'मौजूदा', 'सर्वान्शतः', 'सच्चे', 'कब्र' और 'प्राणशोषक'- इन शब्दों की तत्वबोधिनी व्याख्या आपके दिमाग में अनायास ही भासित हो उठेगी ।" साहित्यकार पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो ताकि उसकी चेतना पर कोई बन्धन न हो- यह आदर्श स्थिति है । यह स्थिति तभी आयेगी जब 'सुशिक्षित और समृद्धिशील पाठक वर्ग बड़ा होता जायेगा, किताबों की खपत बढ़ती जायेगी, साहित्यकार सुखी होगा' । अभी जो स्थिति है वह यह कि "हिन्दी क्षेत्र की हमारी जनता अल्पशिक्षित है, साधनहीन है । जहालत और गरीबी में साहित्य 'घी की बूँदों' की तरह नजर आता है, खुशहाली के समुद्र में तो कल वह तेल की तरह फैलता दिखेगा ।" स्पष्ट है कि समाज में व्यापक समृद्धि पर ही साहित्य और साहित्यकार की भी बेहतरी निर्भर है । इसी सरोकार के साथ वे हिन्दी के यशस्वी साहित्यकारों पर विचार करते हैं जिनसे उनके साहित्यिक मानदंडों का पता चलता है ।

निराला पर उनकी पुस्तक 'एक व्यक्तिःएक युग' अत्यन्त प्रसिद्ध है । इसकी शुरुआत ही अत्यन्त सात्विक क्रोध के साथ होती है । दरअसल जब निराला मानसिक विक्षेप की दशा में इलाहाबाद में रह रहे थे उस समय उत्तर प्रदेश के राज्यपाल गुजराती के प्रसिद्ध साहित्यकार कन्हैयालाल माणिकलाल मुन्शी थे । साफ है कि सभी साहित्यकार एक ही परिणति को प्राप्त नहीं होते । यहीं नागार्जुन ने 'सच्चे' (साहित्यकार) पर जो अतिरिक्त जोर दिया था उसका महत्व समझ में आता है । इसी क्रोध की चपेट में हिन्दी क्षेत्र के दो राजनेता- जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री- भी आए हैं । आखिर राजनेताओं से ऐसा विक्षोभ क्यों ? क्योंकि क्रिकेट और फ़िल्म से जुड़े 'स्टारों' के उभरने से पहले राजनेता ही 'स्टार' हुआ करते थे । स्वतन्त्रता के तुरन्त बाद तो नेहरू नये भारत के चमकते सितारे थे । इन 'नेताओं' का व्यक्तिगत आचरण सामाजिक आदर्श का प्रेरक हुआ करता था । वैसे भी राज्यतन्त्र इसी वादे के साथ सारे अधिकार अपने लिए सुरक्षित रखता है कि वह समाज और नागरिकों की देखभाल करेगा । राजनीति और साहित्य के बीच इस विडम्बनापूर्ण सम्बन्ध की अभिव्यक्ति इस पुस्तक में अनेकशः हुई है । इसमें नागार्जुन की सहानुभूति स्वभावतः साहित्य और साहित्यकारों के साथ है ।

Sunday, April 24, 2011

पूर्वोत्तर भारत और भारत


गर्मी की छुट्टी में दिल्ली जाने पर पता चला कि मणिपुर या असम आंदोलन जैसी कोई घटना न होने के कारण उत्तर पूर्व वस्तुतः दिल्ली के लिए मौजूद ही नहीं था । इसका अहसास यात्रा से पहले ही शुरू हो चुका था । आकाशीय परिवर्तनों पर कुछ इस तरह ध्यान केन्द्रित हो गया है कि जमीन का संसर्ग छूट चला है । रेल में आरक्षण कराना था । पता चला टेलीफ़ोन विभाग में हड़ताल के कारण सिलचर का आरक्षण केन्द्र कम्प्यूटरों का संपर्क कट जाने से बन्द पड़ा है । मयंक राय को बम्बई में रहने के कारण नकदी लेकर चलने की आदत नहीं रह गयी थी । सोचा था क्रेडिट कार्ड से काम चल जायेगा । इम्फाल और सिलचर में वे यू टी आई अथवा आई सी आई सी आई बैंक की शाखायें खोजते रह गये । उनका रिलायंस फ़ोन असम में घुसने के बाद काम करना बन्द कर चुका था । आल इंडिया रोमिंग लेकिन उत्तर पूर्व आल इंडिया में कहाँ ! आकाशीय संचार में एकतरफ़ा प्रवाह का जैसा अहसास उत्तर पूर्व में आकर होता है वैसा शायद मनोरंजन उद्योग में अमेरिका और भारत के संबंधों में भी न होता हो ।
एकतरफ़ा सूचना प्रवाह का यह गणित सिर्फ़ इतने से ही पूरा नहीं होता कि जिसे राष्ट्रीय कहा जाता है वहाँ से उत्तर पूर्व बेदखल है । दूसरी सच्चाई यह है कि जो राष्ट्र में है वह भी उत्तर पूर्व को प्रभावित करता है और शक्ल देता है । खास तौर पर उदारीकरण के बाद जिस तरह उत्तर पूर्व ने शेष देश की नकल की है उसका अध्ययन रोचक होगा । कभी कभी कमजोर सेवक मालिक के इशारों को कुछ ज्यादा ही मुस्तैदी से लागू करते हैं तकि इसी बहाने उस पर मालिक की विशेष अनुकम्पा बनी रहे । अभी बाकी राज्यों में सार्वजनिक सड़क परिवहन के निजीकरण की सुनवाई भी नहीं थी तभी असम ने इसका निजीकरण कर दिया । इसके कारण जो होता है उसका मजा मुझे गर्मियों के बाद दिल्ली से लौटते हुए मिला । रेल से निकलकर पलटन बाजार की ओर स्टेशन से बाहर आते ही एक दलाल ने पकड़ लिया । उसने एक ऐसी एजेंसी का टिकट मुझे दिलवाया जिसकी कोई बस नहीं चलती । जिस बस का नंबर उसने दिया उसके कंडक्टर ने बताया कि टिकट फ़र्जी है लेकिन सीट पर तो नहीं, केबिन में बिठाकर ले चलूंगा । मेरे ही जैसे आठ और यात्री ड्राइवर के पीछे लगी काठ की लम्बी सीट पर बैठकर आए । दिन की यात्रा के कारण पहले न देखी गई चीजें भी देखते हुए आया ।
जगह जगह कोयला ढेर का ढेर रखा हुआ था । समझ में नहीं आया यहाँ इतना कोयला कहाँ से आ रहा है । लोगों ने बताया पहाड़ में चट्टानों के नीचे दबे पेड़ समय बीत जाने पर कोयला बन जाते हैं । एक जगह लकड़ी की थूनी लगाकर पहाड़ को अंदर गहराई तक खोद दिया गया था । पत्थर ज्यादातर चूना पत्थर था । बाद में पता चला डायनामाइट लगाकर चूना पत्थर का उत्खनन होता है और सीमेंट के एक दो कारखाने भी रास्ते में बन गये हैं । ऐसा अस्थिर भूगोल और इतना सारा उत्खनन और वह भी शुद्ध रूप से निजी क्षेत्र में ! इसीलिए तो भू स्खलन की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं । इस उत्खनन से पहाड़ तो नंगे हो ही रहे हैं, यहाँ के प्राकृतिक गुफाजाल पर भी खतरा बढ़ रहा है । डायनामाइट और उत्खनन के शोरगुल के कारण हाथी जंगलों को छोड़कर भाग रहे हैं । हाथियों के इस अभयारण्य को छोड़कर भगदत्त और कहीं का कैसे हो सकता था ! जंगलों से बेदखल हाथी चाय बागानों और रिहायशी इलाकों में आकर उत्पात मचाते हैं । अवैध व्यापार न सिर्फ़ लकड़ी का होता है बल्कि हाथी दांत का सबसे अधिक होता है । संसारचंद दिल्ली में बैठे रहे, उनके नाम का जैन मीडिया से गायब हो गया और उनके लिए हजारों वीरप्पन हाथियों की जान लेते रहे । नतीजा कि हरेक प्रदेश में हाथियों की संख्या में गिरावट आई है ।
वापस सिलचर आकर अखबारों में देखा कि वेश्यावृत्ति में शामिल दलाल शिलांग और सिलचर में काफी पकड़े जा रहे हैं । दरयाफ़्त करने पर पता चला कि असम और उत्तर पूर्व की लड़कियों को बम्बई, दिल्ली जैसे महानगरों में ले जाने का बहुत ही संगठित धंधा यहाँ होता है । इसी धंधे का एक कारुणिक पहलू प्रोफ़ेसर सजल नाग ने बताया । हरियाणा और राजस्थान में बालिका भ्रूण हत्या के कारण औरतों की आबादी घटती जा रही है । फलतः विवाह के लिए लड़कियों की आपूर्ति दलालों के जरिए यहाँ से होती है । जिंदगी भर बच्चा पैदा करती ये औरतें उन इलाकों की भाषा समझे बगैर घरों में कैद रहती हैं । देश भर में उदारीकरण ने ऐसा दबाव बनाया है कि उसके लिए एक ही उदाहरण काफ़ी होगा । गुवाहाटी से अंग्रेजी में टेलीग्राफ़ नाम का अखबार छपता है । उसका एक पृष्ठ प्रतिदिन 'नेशन' को समर्पित होता है जिसमें उत्तर पूर्व के बाहर के प्रांतों की खबरें छपती हैं । एक दिन उस पृष्ठ पर जो समाचार थे उनमें से एक गुजरात के बारे में था । गुजरात की सरकार के किसी मंत्री की राय थी कि शराब की बिक्री पर रोक होने के कारण गुजरात में पर्यटन उद्योग का विकास नहीं हो पा रहा । आंध्र के विकास पर भी रोक इसीलिए लगी हुई है कि हैदराबाद में दुकानें कानूनन रात साढ़े 8 बजे बंद हो जाती हैं इसलिए नाइट लाइफ़ जन्म नहीं ले पा रही है । बंबई में कर्नाटक से आई महिलाओं का दबदबा वेश्यावृत्ति से खत्म हो रहा है और उन्हें बंगाली महिलाओं की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है । केरल में सबसे अधिक बिक्री एक वेश्या की आत्मकथा की हो रही है । सारा भारत 'आस्था' फ़िल्म की कथा भूमि बनने की ओर चल पड़ा है । जब 'विश्व सुंदरियों' और 'ब्रह्मांड सुंदरियों' के क्षेत्र में भारत भी उदारीकरण के साथ महाशक्ति बना तब शायद इस दबाव की गहराई का अंदाजा न रहा होगा । पहले भी पांडवों के लिए पांचाली के अतिरिक्त अन्य पत्नियाँ उत्तर पूर्व में ही मिली थीं, आज पुनः कुरुक्षेत्र के उसी मैदान में उनका आखेट हो रहा है ।
बहरहाल उदारीकरण के ताजा असरात को छोड़ भी दें तो 'राष्ट्रीय एकता' की दीर्घकालीन योजना अरसे से इस इलाके में लागू की जा रही है । इस मामले में शिक्षा और धर्म पर विचार करना उपयोगी होगा क्योंकि सामाजिक एकीकरण के ये दोनों प्रमुख अस्त्र हैं ।
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में केंद्रीय विश्वविद्यालय जो हैं सो तो हैं ही, एक विचित्र किस्म के विश्वविद्यालय का नाम यहाँ आने से पहले भी सुना था- सिक्किम मनिपाल विश्वविद्यालय । सिक्किम तो फिर भी एक प्रांत का नाम है जिसे अब उत्तर पूर्व में ही शामिल कर लिया गया है पर मनिपाल के बारे में तब पता चला जब मनिपाल के एक सज्जन से मुलाकात हुई । यह कर्नाटक में एक जगह है । वहीं स्थित यह विश्वविद्यालय निजी क्षेत्र का संभवतः पहला विश्वविद्यालय है । जब सिक्किम नया प्रांत बना तो वहाँ कोई विश्वविद्यालय नहीं था इसलिए मनिपाल विश्वविद्यालय ने वहाँ एक केंद्र खोला । कायदे से इसका नाम मनिपाल सिक्किम विश्वविद्यालय होना चाहिए पर उत्तर पूर्व के इस सबसे मशहूर विश्वविद्यालय को उत्तर पूर्व की गंध देने के लिए नाम में सिक्किम पहले लिखा जाता है । प्रसिद्धि एक दुर्घटना है क्योंकि अन्य अनुदान प्राप्त विश्वविद्यालय इससे सस्ते हैं पर तकनीकी शिक्षा और शिक्षा के जरिए 'काल गर्ल' की भी नौकरी हासिल कर लेने का बोलबाला हो तो निजी विश्वविद्यालय ही फलेंगे फूलेंगे । अन्य विश्वविद्यालय भी दुर्घटना का शिकार हो चुके हैं । कुछ केंद्रीय विश्वविद्यालयों की स्थापना आजादी के आंदोलन के दौर में हुई, कुछ नेहरूवादी सोच की छाया में बने, कुछ उदारीकरण पूर्व कांग्रेसी शासन की इनायत थे पर उत्तर पूर्व के अधिकांश केंद्रीय विश्वविद्यालय तब स्थापित हुए जब राज्य शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे कल्याणकारी क्षेत्रों से कदम खींच रहा था । ये किसी स्थानीय सामाजिक पहल के परिणाम भी नहीं थे । इसलिए इनकी जड़ें समाज में तो नहीं ही हैं ऊपर से उदारीकरण के माहौल में रोजगारोन्मुखी पाठ्यक्रम संचालित करने और स्ववित्त पोषी होने का उपदेश भी ग्रहण कर रहे हैं । फल यह है कि विचित्र किस्म के काम यहाँ हो रहे हैं । खबर तो यह भी है कि 'नैक' ने जो थ्री स्टार, फ़ाइव स्टार वगैरह के मानदंड तय किए हैं उनकी सार्थकता सिद्ध करने के लिए आलीशान होटलों में सबसे सुलभ माल भी कृपा प्राप्त करने के लिए इन विशेषज्ञों को उपलब्ध कराया जाता है ।
इस स्थिति का दोष यहाँ के विद्यार्थियों को नहीं दिया जा सकता । विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल नहीं हैं । यू जी सी ने आदर्श पाठ्यक्रम बनाए हैं जिनमें 40% ही परिवर्तन की इजाजत है । इलाके में कोई उद्योग नहीं । सरकारी विभागों में नियुक्तियों पर अरसे से प्रतिबंध है । फलतः मेघालय में बेरोजगार कुल आबादी में 50% से अधिक हो गये हैं । बेरोजगारी के कारण युवकों में सबसे लोकप्रिय खेल कैरम है जो अद्भुत रूप से यहाँ इनडोर की बजाय आउटडोर गेम है । गुवाहाटी, शिलांग, सिलचर, इंफ़ाल- कहीं भी सड़क के किनारे नीचे से खंभा लगाकर कैरम बोर्ड खड़ा कर दिया जाता है । हमेशा आप कुछ लोगों को कैरम खेलते देख सकते हैं । भारत की दरिद्रता ने जैसे क्रिकेट में ही गौरव प्राप्त करने का अवसर दिया है, वैसे ही सिलचर का एक लड़का आजकल सा रे गा मा में पहुँचा है तो उसे वोट दिलाने के लिए चुनाव प्रचार की तरह प्रचार चल रहा है । थोड़ा सा भी आत्मगौरव जहाँ हासिल हो उसे पाने के लिए लोग पागल रहते हैं ।
खेलों की इस भूमिका से एक करुण कथा जुड़ी हुई है । मेघालय में खासी लोगों का पारंपरिक खेल तीर धनुष से निशाना लगाना है । इसे मेघालय राज्य ने लाटरी में बदल दिया है । कुछेक क्लब एक दिन मैदान में एकत्र होकर किसी चीज पर तीर से निशाना लगाते हैं । जितने तीर निशाने पर लगते हैं उनकी संख्या पर मटके की तरह दाँव लगता है और नंबर लग जाने पर एक का अस्सी वापस मिलते हैं ।
हरेक राज्य ने अपनी लाटरी घोषित की हुई है । लाटरी के घोटालों में हरेक राज्य सरकार कभी न कभी फँसती रहती है त्रिपुरा समेत । त्रिपुरा की कहानी राज्य में मूल निवासियों के अल्पसंख्यक होते जाने की कहानी है । जनगणना शुरू हुई थी तो उनकी आबादी कुल जनसंख्या का 70% थी, अब निरंतर घटते घटते 30% रह गयी है । माकपा ने वहाँ शुरुआत तो मूल निवासियों से की थी लेकिन बंगालियों की संख्या बढ़ते जाने से वहाँ भी यह बंगाली पार्टी ही बन गयी है । फलतः जनजातियों में आतंकवादी संगठनों को पाँव पसारने का मौका मिल गया है ।
उत्तर पूर्व से निकलने की एक कोशिश असफल हो चुकी थी इसलिए इस बार कुछ ठहरकर सिलचर को देखने का मौका मिला । विश्वविद्यालय का जीवन तो खैर परीक्षाओं, नए सत्र में प्रवेश इत्यादि के कारण जल्दी ही बीत चला पर शहर में बंगाली जन की बहुतायत से दुर्गापूजा में उनका उत्साह देखने को मिला । जहाँ कहीं बंगाली बहुमत है वहाँ दुर्गापूजा सामूहिक वसूली का अच्छा मौका उपलब्ध कराती है । यहाँ भी आप पैसे दिए बगैर सुरक्षित नहीं । लेकिन यह बँटवारे की बदौलत सिलहट से भागकर आए लोगों की जमात है जो सिलहट से अपनी अस्मिता जोड़कर थोड़ी अलग पहचान जताने की चेष्टा करती है । इस प्रसंग में बंगाल के इतिहास को देखना थोड़ा जरूरी है । जब बंगाल के पारंपरिक केंद्र ढाका और मुर्शिदाबाद उजड़े और कलकत्ता नया केंद्र बना तो वहाँ बसने वालों की पहली खेप अनुपस्थित जमींदारों की थी जो थे तो हिंदू लेकिन आज के बांगलादेश में उनकी जमींदारियों में काम करने वाले लोग मुसलमान थे । आज के बांगलादेश में तब हिंदू जमींदारों की बहुतायत होने से बांगलादेश की तत्कालीन संस्कृति में प्रचुर हिंदू प्रभाव था । बँटवारे से पहले ही बल्कि 1905 के प्रथम बंग भंग से ही एक मानसिक विभाजन मौजूद था । इसीलिए बँटवारे का दर्द बांगला साहित्य में उतना नहीं मिलता, जितना हिंदी में । मूल से भागे हुए इन लोगों में सांप्रदायिक घृणा भी पर्याप्त है । सिलचर में किसी मुसलमान को किराए पर घर मिलना आज भी बहुत बड़ी मुसीबत है । सांस्कृतिक मूर्तियों में सचिन देव बर्मन इसी सिलहट की पैदाइश थे । रवींद्रनाथ के घर सभी संस्कारों में काव्यबद्ध निमंत्रण देने की प्रथा भी उनके पूर्वी बंगाल के मूल से आई होगी क्योंकि जब मैं यहाँ एक विवाह समारोह में गया तो भोजन से पहले मीनू आया जो भोजन का छंदोबद्ध विवरण था ।
बँटवारे ने बंगाल को तो बाँटा ही उत्तर पूर्व के भी प्रमुख राज्यों को भी छिन्न भिन्न कर दिया । इसी के कारण त्रिपुरा पहुँचना आज भी टेढ़ी खीर है । गुवाहाटी से सिलचर आने वाली सड़क से ही सिलचर से थोड़ा पहले बदरपुर से रास्ता त्रिपुरा के लिए जाता है । ट्रेन से भी इसी बदरपुर से धर्मनगर तक आप जा सकते हैं । उसके आगे अगरतला तक के लिए कोई और सवारी । मेघालय के खासी और जयंतिया लोगों की खेती की जमीनें बांगलादेश की सीमा के भीतर हैं । जयंतिया लोगों की पारंपरिक राजधानी जयंतियापुर बांगलादेश में है । त्रिपुरा की पुरानी रियासत का भी एक बड़ा भाग बांगलादेश में ही है । ऐसे में सीमा पर कँटीले तार लगाने का उत्साह ! विभाजन के समय असम के नेताओं को भय था कि अगर सिलहट के लोग भारत में आने के पक्ष में मतदान कर देंगे तो असम में मुस्लिम बहुमत हो जाएगा । जब ऐसा नहीं हुआ तो वे प्रसन्न हुए । छोटा सा हिस्सा बराक घाटी का मिला जो पलायित शरणार्थियों से भरा हुआ है ।
यहीं मुसलमानों की समस्या पर भी विचार करना लाजिमी है । लक्षद्वीप और कश्मीर के बाद असम सर्वाधिक मुस्लिम आबादी के प्रतिशत वाला प्रांत है । इसे लेकर यहाँ काफ़ी राजनीति होती रहती है । मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा तो वे लोग हैं जो मुगल सेना के साथ आए थे और लौटकर नहीं जा सके । इनके साथ कुछ ऐसी रवायतें जुड़ी हैं जो बाकी कहीं भी मुसलमानों में नहीं पाई जातीं । मसलन इन्होंने स्थानीय महिलाओं से बगैर धर्मांतरण कराए निकाह पढ़ाए । मणिपुर में भी मुसलमानों की अच्छी खासी आबादी इसी प्रक्रिया में बनी है । दूसरी बात यह कि इस समस्या के बारे में बात करते हुए हम मान लेते हैं कि भारत सदा से ऐसे ही था । आजादी से पहले आज के बांगलादेश और भारत के अन्य हिस्सों से भाँति भाँति के लोग आकर इस इलाके में बसते रहे । इस तरह यह अलग अलग मानव समूहों की मिली जुली बस्ती की तरह बन गया है । इन सबने इस इलाके को समृद्ध बनाने में मदद की है ।
धर्म के मामले में चाहे हिंदू हों, चाहे मुसलमान या ईसाई, सबको उनकी मूल धारा से अलग करके देखना ही उचित होगा क्योंकि धर्मांतरण के बावजूद जनजातीय प्रभावों ने उन्हें विशेष पहचान दी है । मिजोरम, नागालैंड और मेघालय ईसाई बहुल हैं । साथ ही ये राज्य सरकारी तौर पर अंग्रेजी भाषी हैं । बात भाषा की नहीं है । एक सज्जन बता रहे थे कि किसान से कहा जाता है पाँच एम एल दवा डालो । पाँच एम एल उसके बोध में नहीं है । स्थानीय महौल से पूरी तरह विच्छिन्न भाषा से संवाद इन्हें शिक्षा से दूर न करे तो क्या करे ! इनकी अपनी बोलियों को न तो अंग्रेजों ने प्रोत्साहन दिया, न स्वतंत्र भारत की सरकार ने । अंग्रेजों ने तो इन्हें आजादी के आंदोलन से दूर रखने के लिए सचेत रूप से अंग्रेजी और इसाइयत दी लेकिन बाद में भी सरकार ने सहानुभूतिपूर्वक कुछ नहीं किया । सो प्राचीन परंपराओं के साथ यहाँ की जनजातियों ने संगठित धर्म अपनाए और इस तनाव को आप लगातार देख सकते हैं । मेघालय की तीनों जनजातियाँ मातृवंशात्मक हैं पर इसाइयत की मान्यताएं इससे मेल नहीं खातीं । अरुणाचल प्रदेश तो बाकायदे सरकारी तौर पर प्रकृतिपूजक लोगों की बहुतायत वाला प्रदेश है । वहाँ दोनो पाउलो की पूजा होती है । वह शायद एकमात्र ऐसा प्रदेश है जिसकी कोई राजकीय भाषा नहीं ।
क्या हल है इस 'उत्तर पूर्व' नामक समस्या का ? सबसे पहली बात तो यह कि बहुमतवादी लोकतंत्र में 500 से अधिक सांसदों की संसद में यहाँ के लोग अपना निर्णायक प्रतिनिधित्व नहीं देखते । सो उसमें कोई भी खास रुचि नहीं लेता । स्थानीय स्वशासन की संस्थायें भी दलाल राजनीतिक वर्ग के कब्जे में हैं । सैनिक समाधान कोई समाधान नहीं है, यह तय है । बांगलादेश, चीन और बर्मा से दोस्ताना रिश्तों के बगैर इस समस्या का एक पहलू हल होने से रहा । स्वशासन के संबंध में भी नये प्रयोग करने होंगे । अन्यथा महज भूभागीय एकता की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है, समूचे देश को । रोज रोज की हिंसा से समूचे देश की संवदनाएं भोंथरी हो रही हैं । काले कानूनों के लिए तर्क के बतौर इस इलाके का उपयोग भी बंद होना चाहिए ।

साक्षात्कार

प्रोफ़ेसर क ने पूछा- अच्छा ठीक है आप ही बताइए आपसे क्या पूछा जाय ?

मैं चौंका । इनसे तो बात हो गयी थी । फिर क्यों पूछ रहे हैं ?

बोला- कुछ नहीं ।

अब चौंकने की बारी कुलपति की थी । बोले- क्यों ?

मैंने कहा- नौकरी देना हो तो दीजिए, न देना हो मत दीजिए । इसके लिए पूचताछ की क्या जरूरत है ?

स्पष्टीकरण- आखिर आप इतनी प्रतिष्ठित संस्था में घुसना चाहते हैं । जाँच परख तो करनी ही होगी ।

मैंने पूछा- मेरी आँखों में क्या आपको मेरी झड़ चुकी पूँछ नहीं नजर आ रही ?

प्रोफ़ेसर ख बौखला गये : विश्वविद्यालय आपको आने जाने का किराया दे रहा है । हमें हवाई जहाज से इसी काम के लिए बुलाया गया है । आपकी नहीं तो हमारी जवाबदेही बनती है न ?

समर्पण करते हुए मैंने कहा- ठीक है जो भी पूछना हो पूछ लीजिए ।

प्रोफ़ेसर ग ने शुरू किया- सगुण और निर्गुण भक्ति में क्या अंतर है ?

मैंने प्रति प्रश्न किया- आपको नहीं मालूम ?

प्रोफ़ेसर ग- आप बताइए ।

मैं- कोई नहीं ।

प्रोफ़ेसर ख- आयु और उम्र में क्या अंतर है ?

मैं- एक संस्कृत भाषा का शब्द है दूसरा उर्दू का ।

विभागाध्यक्ष ने देखा कि न पूछने की हालत में कुलपति उन्हें ही अयोग्य न मान बैठें । सो उन्होंने पूछा- हिंदी को खड़ी बोली क्यों कहा जाता है ?

मैंने लज्जित सा होते हुए कहा- अगर आप जानते हैं तो पूछ क्यों रहे हैं ? वैसे मुझे नहीं मालूम ।

अब तक विशेषज्ञ और विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि तथा मैं- सभी थक चुके थे । संकेत देते हुए कुलपति ने प्लेट से काजू उठाया । शेष लोग आपस में हँसी मजाक करने लगे । मुझ पर प्रोफ़ेसर क का ध्यान गया ।

- ठीक है, जाइए ।

- क्यों ?

- हमने समझ लिया कि आपको जासूसी से चिढ़ है ।

इस तरह उस वातानुकूलित कक्ष में साक्षात्कार के नाम पर विशेषज्ञों का अहंकार तुष्ट हुआ और पराजित होकर धूल झाड़ता मैं बाहर निकला ।

बाहर अन्य प्रत्याशी देर होती देखकर परेशान हो रहे थे ।

- काफ़ी देर लगी ? क्या पूछ रहे थे ?

मैं क्या उत्तर देता !

Monday, April 18, 2011

हिंदी नवजागरण का क्रांतिकारी परिप्रेक्ष्य विकसित करने की जरूरत


अमरेश मिश्र का लेख लिबरेशन (अप्रैल, 1995) के अतिरिक्त कहीं और प्रकाशित हुआ होता तो इसने केवल अकादमिक रुचि जगाई होती । बहरहाल, चूंकि यह हमारी पार्टी के केंद्रीय मुखपत्र में प्रकाशित हुआ है इसलिए इसे एक अतिरिक्त गरिमा प्राप्त हो जाती है । इसीलिए, इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है ।

हिंदी नवजागरण को केवल तर्क से खारिज नहीं किया जा सकता । तर्क की सहायता से हिंदी नवजागरण में हिंदूवाद की एक मजबूत धारा को चिन्हित किया जा सकता है- उतनी ही आसानी से इसे प्रताप नारायण मिश्र, देवकी नंदन खत्री और अयोध्या सिंह उपाध्याय में खोजा जा सकता है या इसके प्रभाव प्रेमचंद, निराला और रामचंद्र शुक्ल में दिखाए जा सकते हैं । कुछ लोग यह काम कर रहे हैं । या फिर, हिंदी नवजागरण के काल से जुड़े हुए व्यक्तियों के भीतर अंतर्निहित अंतर्विरोधों को, इन व्यक्तियों का विभिन्न प्रवृत्तियों ने जो उपयोग किया, उसके आधार पर उद्घाटित किया जा सकता है । उदाहरण के लिए, नामवर सिंह ने लिखा कि अगर विश्वनाथ प्रसाद मिश्र और नंद दुलारे बाजपेयी जैसे लोग रामचंद्र शुक्ल की परंपरा का हिस्सा होने का दावा करते हैं तो इससे रामचंद्र शुक्ल में अंतर्निहित अंतर्विरोधों का पता चलता है । तर्क की इसी पद्धति को आगे बढ़ाते हुए जैनेंद्र को प्रेमचंद से, विद्या निवास मिश्र को राहुल सांकृत्यायन से और अशोक वाजपेयी को मुक्तिबोध से जोड़ा जा सकता है । लेकिन इस तरह से नवजागरण को खारिज नहीं किया जा सकता । अगर आज नवजागरण की कोई भी धारा किसी सकारात्मक सामाजिक आलोड़न के साथ खड़ी है, उसके हितों की सेवा करती है, उसके सपनों को पूरा करने में मदद करती है तो अपनी अनेक कमजोरियों के बावजूद नवजागरण हमारे लिए निश्चय ही प्रासंगिक और मूल्यवान बना रहेगा । और अगर रीतिकालीन काव्यबोध अपनी समस्त इहलौकिकता, ऐंद्रीयता और मधुर प्रवाहमान ब्रज कविता के बावजूद प्रगतिशील, यथार्थवादी काव्य मूल्यों या सामाजिक विकास में मदद नहीं करता तो यह नगेंद्र की रुचि का ही विषय बना रहेगा । इस दृष्टिकोण के आधार पर हम हिंदी नवजागरण की कुछ सामान्य प्रवृत्तियों को रेखांकित करेंगे । अलग अलग लेखकों- कवियों- चिंतकों पर विचार करने के लिए बहुत अधिक जगह चाहिए होगी ।

कामरेड अमरेश मिश्र कहते हैं कि बांगला नवजागरण यूरोपीय नवजागरण का कैरीकेचर था और हिंदी नवजागरण बांगला नवजागरण का मिनिएचर था । इसका मतलब है कि उनके तईं नवजागरण का माडल यूरोपीय नवजागरण है और अन्य समाजों के वे आलोड़न जो अपने आपको नवजागरण कहते हैं लेकिन यूरोपीय नवजागरण के समान नहीं हैं उन्हें नवजागरण नहीं मानना चाहिए । यह उनकी खास समस्या है । पहले वे एक धारणा बनाते हैं और फिर उसे यथार्थ पर थोप देते हैं । इसी वजह से उनके लिए जरूरी हो जाता है कि वे चीजों को विकासमान परिघटना के रूप में न देखें जो अपने ही अंतर्विरोधों के जरिए अन्य चीजों से निरंतर अंतःक्रिया करती रहती हैं । वे इन अंतर्विरोधों पर परदा डाल देते हैं और सांस्कृतिक व्यक्तित्वों को स्थिर और जड़ बनाकर उन पर विचार करते हैं । आखिरकार यूरोपीय नवजागरण में कुछ अंतर्विरोध तो रहे ही होंगे जिनका परिणाम भ्रष्ट किस्म के बुर्जुआ जनतंत्र की पैदाइश में निकला और मानवजाति का आगे का विकास तथाकथित पिछड़े देशों में ही संभव हुआ । दूसरी तरफ़, हिंदी क्षेत्र के इतिहास में कुछ तो अवश्य ही रहा होगा जिसके कारण यह क्षेत्र हमारी पार्टी के नेतृत्व में चलने वाले किसान संघर्षों की प्रयोगभूमि बना ।

इस नजरिए से हिंदी साहित्य का अध्ययन करना निश्चय ही मजेदार होगा । यहाँ हम प्रेमचंद के लेखन को छोड़ दे रहे हैं जिसका बड़ा हिस्सा कृषक जीवन की महागाथा है । अगर वे इस प्रवृत्ति के अकेले लेखक होते तो भी यह हिंदी नवजागरण की खास विशेषता होती क्योंकि अगर एक आदमी का लेखन लोगों को आकर्षित कर रहा है तो इसका कारण यह तथ्य है कि वह लोकप्रिय चिंतन के एक हिस्से को अभिव्यक्त और प्रस्तुत कर रहा होता है । विस्तार में गये बिना भारतेंदु का लेख 'लेवी प्राणलेवी', उनका नाटक 'भारत दुर्दशा', द्विवेदी युग के कवि गया प्रसाद शुक्ल सनेही का काव्य संग्रह 'कृषक क्रंदन' और किसान समस्या पर विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित सैकड़ों लेखों को बतौर उदाहरण गिनाया जा सकता है । इसी विरासत पर खड़ा होकर निराला ने 'बादल राग' में लिखा : तुझे बुलाता कृषक अधीर,/ ऐ विप्लव के वीर । बादल को लोग अनेक नामों से पुकारते हैं लेकिन अधीर कृषक उसे विप्लव का वीर कहता है । आगे विप्लव की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं : विप्लव रव से छोटे ही हैं शोभा पाते । निस्संदेह हिंदी नवजागरण में एक प्रवृत्ति ग्रामीण जीवन का आदर्शीकरण करती है लेकिन इसकी मुख्य धारा कृषि अर्थतंत्र को समझने, किसानों की पीड़ा को अभिव्यक्त करने और किसान समस्या का क्रांतिकारी समाधान खोजने की रही है । इस विरासत की गहरी छाप उपन्यासों पर पड़ी और कविता का बड़ा हिस्सा इस समस्या से जुड़ा रहा है । प्रगतिशील आंदोलन ने इस विरासत को और सुदृढ़ किया । शायद नागार्जुन के उपन्यासों और कविताओं तथा त्रिलोचन की कविताओं से उदाहरण देना आवश्यक नहीं है । गोरख की कविताओं में किसान समस्या का उत्कृष्ट चित्रण हुआ न होता अगर संघर्षों के इस लंबे इतिहास की पृष्ठभूमि न होती ।

जो लोग हिंदी नवजागरण को खारिज करते हैं वे इस तथ्य से परिचित हैं कि बहुत हद तक हिंदी गद्य से यह अपनी शक्ति ग्रहण करता है । 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में रामचद्र शुक्ल ने आधुनिक काल को गद्य काल कहा है । इसे ध्वस्त करने के लिए हिंदी गद्य के विकास को फ़ोर्ट विलियम कालेज के लिए लिखी गयी किताबों और प्राथमिक पाठ्यक्रमों के आधार पर व्याख्यायित किया जाता है मानो हिंदी गद्य पाठ्यक्रमों के जरिए विकसित हुआ हो ! असल में हिंदी गद्य के विकास में दो कारकों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है । एक तो था व्यापार । व्यापार संबंधी गतिविधियाँ खासकर लेखा जोखा, बही खाता और हुंडी उधार का कारोबार स्थानीय बोलियों में कर पाना संभव नहीं था । यह मामला अदालती कार्यवाही की तरह नहीं था जहाँ वकीलों, जजों और कर्मचारियों की समझ में अगर आ गयी तो वह भाषा चल जायेगी । व्यापार की भाषा जनता से सीधे संपर्क पर आधारित होनी चाहिए । यह इलाका हिंदी और उर्दू का साझा इलाका था । दूसरा था प्रेस और पत्रकारिता । यह क्षेत्र भी जनता के साथ सीधे जुड़ाव पर आधारित था । आश्चर्यजनक नहीं कि भारतेंदु द्वारा तैयार की गयी कालानुक्रमणिका में आधुनिक युग में व्यापार और प्रेस से जुड़ी हुई तारीखों का खास तौर पर उल्लेख किया गया है । यहीं एक गलतफ़हमी के बारे में स्पष्ट हो लिया जाय । अनेक लोग समझते हैं कि हिंदी नवजागरण केवल बांगला नवजागरण से प्रभावित था । अगर हम बांगला और मराठी गद्य को दो भिन्न मानकों के रूप में लें तो हिंदी गद्य मराठी के निकट है । ऐसा इसलिए है क्योंकि मराठी मूल के लोगों ने प्रारंभिक हिंदी पत्रकारिता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । इसी कारण हिंदी गद्य में सहज संप्रेषणीयता और चिंतन गांभीर्य की अमिट छाप है । साझी भाषा को ही हिंदी का सहज गद्य कहा जाता है । यह भाषा बाल मुकुंद और प्रेमचंद के लेखन में है और इसका प्रभाव छयावादी कवियों खासकर निराला के लिखे गद्य में भी देखा जा सकता है । कविता का क्षेत्र इसके प्रभाव में अपेक्षाकृत बाद में आया और प्रगतिशील आंदोलन के दौरान ही यह भाषा कविता में पूरी तरह मूर्त रूप ले सकी । यह भाषा बिना किसी संघर्ष के नहीं प्राप्त हो गयी; संस्कृतनिष्ठ हिंदी के विरुद्ध संघर्ष के जरिए ही सहज गद्य को स्थापित किया जा सका । सरलता पर गोरख पांडे का अतिरिक्त जोर इस संघर्ष के संदर्भ में ही समझा जा सकता है । संस्कृतनिष्ठ हिंदी की प्रवृत्ति जहाँ सरकारी संस्थाओं से जुड़ गयी वहीं नवजागरण के दौरान तैयार हुई हिंदी अब भी हमारे आंदोलन की भाषा बनी हुई है ।

हिंदी नवजागरण ने प्रेरणा के लिए किस अतीत की ओर देखा ? इस मामले में विद्वानों के बीच मतभेद हैं । 'भारत भारती' के आधार पर कुछ लोगों का कहना है कि यह हिंदू अतीत था । प्रसाद के नाटकों के आधार पर कुछ अन्य लोग इसे गुप्त काल से जुड़ा हुआ अतीत बताते हैं । खुदा का शुक्र है कि अमरेश इसे भक्ति आंदोलन मानते हैं । उनका कहना है कि भक्ति आंदोलन को प्रेरणा स्रोत के रूप में ग्रहण करने का कारण यह था कि इंडो पर्शियन धारा से छुटकारा पाया जाय जो रीतिकाल के साहित्य में ज्यादा स्पष्टतापूर्वक अभिव्यक्त हुई है । तथ्यगत रूप से यह गलत है । यह नहीं कि हिंदी नवजागरण ने रीतिकाल को नकारते हुए इसके समानांतर आदर्श के बतौर भक्ति आंदोलन को अपनाया, इस पर हम थोड़ी देर में आयेंगे, बल्कि यह कि रीतिकालीन साहित्य इंडो पर्शियन परंपरा के ज्यादा करीब है । अगर वे यह कहना चाहते हैं कि रीतिकालीन साहित्य का हरेक दोहा एकदम स्वतंत्र अभिव्यक्ति के बतौर उसी तरह आनंद देता है जैसे किसी गजल का शेर, कि सवैया अपनी विशेष शैली के कारण तुरंत छाप छोड़ जाता है, कि रीतिकालीन साहित्य नायिका भेद पर उसी तरह आधारित है जिस तरह उर्दू कविता में महबूब की अनंत छवियाँ प्रकट हुई हैं तो हमें यह कहना पड़ेगा कि उर्दू कविता के अपने मानदंडों पर भी इस तरह की कविता बहुत ऊँची नहीं मानी जाती । इस आधार पर आप साहिर, इकबाल, फ़ैज़ और जोश को कभी समझ नहीं सकते । उदाहरण के लिए आप रीतिकालीन साहित्य की भाषा को देखें । जिस भाषा का विकास खुसरो, कबीर और रहीम ने किया था वह रीतिकालीन साहित्य से पूरी तरह गायब है । तकरीबन पूरा रीति साहित्य दरबारी कवियों द्वारा लिखा गया है और इसकी विषयवस्तु स्त्री शरीर के प्रति विकृत उपभोक्तावादी दृष्टिकोण से ग्रस्त है । इस कविता के उद्देश्य की व्याख्या करते हुए एक कवि ने लिखा : आगे के सुकवि रीझिहैं तो कविताई/ न तो राधिका कन्हाई को सुमिरन को बहानो है । कविताई से उनका तात्पर्य जीवन की प्रस्तुति नहीं बल्कि छंद, अलंकार, नायिका भेद इत्यादि की प्रस्तुति था । नवजागरण इसी साहित्य दृष्टि के विरोध से शुरू हुआ । स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत के साथ साहित्य का उद्देश्य भी बदल गया । उद्देश्य में इस बदलाव को आप भारतेंदु के लेखों 'जातीय संगीत' और 'नाटक' में देख सकते हैं । बाद के दिनों में इस पूरे दौर ने साहित्य को समाज और मनुष्य में परिवर्तन का हथियार बनाने की लड़ाई लड़ी । शायद ही कोई साहित्यिक व्यक्तित्व होगा जिसने अपनी रचना को जनता के सामने प्रस्तुत न करना चाहा हो, जिसने आम जनता को साहित्य के स्रोत और लक्ष्य के रूप में न ग्रहण किया हो । इन साहित्यिक व्यक्तित्वों ने इसीलिए रीतिकालीन साहित्य का विरोध किया क्योंकि इसकी विषयवस्तु और दृष्टि दोनों सीमित- संकीर्ण थे । नवजागरण के साहित्यिक व्यक्तित्वों को आखिर भक्ति आंदोलन ने क्यों आकर्षित किया ? कबीर उनके आदर्श इसलिए थे क्योंकि उन्होंने हिंदूवाद और इस्लाम दोनों के कर्मकांड का विरोध किया था । जायसी और समूची सूफ़ी काव्यधारा इसलिए महत्वपूर्ण थी क्योंकि उसने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सौहार्द के लिए प्रेम की सामान्य वैचारिक भूमि निर्मित की । सूरदास और तुलसी दोनों की खास विशेषता यह है कि उन्होंने अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए ईश्वर को स्वर्ग से उतारकर इस दुनिया में ला खड़ा किया । हिंदी भक्ति काव्य की एक प्रमुख विशेषता है कि इसने शांकर वेदांत के विरुद्ध संघर्ष के क्रम में वैष्णव धारा को सूफ़ी रहस्यवाद के साथ मिला दिया । अगर कबीर सूफ़ी रहस्यवाद से प्रभावित दिखाई देते हैं तो सूफ़ी कवियों ने हिंदू घरों में सुनाई जाने वाली प्रेम कथाओं को अपना विषय बनाया । अगर अन्य किसी कारण नहीं तो कम से कम एक चीज के लिए भक्ति काव्य अमर है : इसने कविता की भाषा के बतौर संस्कृत के मुकाबले जनभाषाओं को प्रतिष्ठा प्रदान की । भक्ति आंदोलन के जरिए ही रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य में एक नई मूल्य कोटि की स्थापना की : प्रयत्न की साधनावस्था । अर्थात अपने लक्ष्य को पाने के लिए मनुष्य जो संघर्ष करता है साहित्य में उसके चित्रण के जरिए ही पाठक उस चरित्र के साथ अपने आपको जोड़ पाता है । स्पष्ट है कि यह मूल्य कथा लेखन और स्वतंत्रता आंदोलन की प्रगति से पैदा हुआ था । अपनी परंपरा को हासिल करने के पीछे हिंदी नवजागरण का बुनियादी मकसद साहित्य में जीवित मनुष्य की प्रतिष्ठा करना था, इंडो पर्शियन परंपरा का निषेध करना नहीं । उस दौर में संस्कृत साहित्य के मूल्यांकन में कौन से परिवर्तन आए यह देखना बहुत रोचक होगा ।

नवजागरण के प्रति दृष्टिकोण के सवाल का एक राजनीतिक पहलू भी है । इस मामले में लगता है कामरेड अमरेश का मानना है कि अंग्रेजों के आगमन के साथ हिंदी क्षेत्र में पैदा हुई प्रतिक्रिया ने आधुनिकतावाद विरोधी, इस्लाम विरोधी दृष्टिकोण के जरिए एक पुनरुत्थानवादी हिंदूवादी मानस को जन्म दिया और इसका प्रभाव इतना गहरा था कि इसने स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर नक्सलबाड़ी विद्रोह तक की समूची राजनीति और साहित्य को वस्तुतः नियंत्रित किए रखा । मुझे लगता है कि आधुनिक युग में साहित्य और राजनीति दोनों यथास्थिति की पैदाइश नहीं हैं बल्कि वे यथास्थिति को बदलने के लोगों के सचेत प्रयास के परिणाम हैं । राजनीति और साहित्य के जरिए हमें समाज में अनेक आलोड़नों, आंदोलनों और परिवर्तनों का संकेत मिलता है; अक्सर ये चीजें साहित्य और राजनीति में प्रतिबिंबित होती हैं और आकार ग्रहण करती हैं । यह जरूर सही है कि अगर सामाजिक स्थितियों को क्रांतिकारी ढंग से बदला नहीं गया तो वे इन संस्थाओं पर दबाव डालकर उन्हें अपने प्रभुत्व के मातहत लाने की कोशिश करती हैं । लेकिन फिर इतिहास तो इसी यथास्थिति और उसको बदलने के प्रयासों के टकराव से निर्मित होता है । इन प्रयासों को स्वयं समाज के भीतर उसे बदलने के लिए चल रहे आंदोलनों से बल मिलता है । आंदोलन का एक हिस्सा अगर व्यवस्था का अंग बनने की ओर बढ़ चलता है तो दूसरा हिस्सा इसके विरोध में खड़ा हो जाता है । इतिहास में टूटन के विंदु भी आते हैं लेकिन नक्सलबाड़ी वैसा टूटन का विंदु नहीं है । अब भी हम स्वतंत्रता आंदोलन के बुनियादी अंतर्विरोध को हल करने के प्रयास के ही अंग हैं । एक स्वतंत्र, आधुनिक, धर्म निरपेक्ष और जनवादी भारत के निर्माण का स्वप्न नवजागरणयुगीन स्वप्न की ही निरंतरता में है । इसी संदर्भ में यह सूत्रीकरण बहुत उपयोगी है कि स्वतंत्रता आंदोलन के अंतर्विरोधों ने कम्युनिस्ट आंदोलन को जन्म दिया और कम्युनिस्ट आंदोलन के अंतर्विरोधों ने हमारी पार्टी को ।

स्वतंत्रता आंदोलन के भीतर जो प्रवृत्ति सबसे अधिक प्रभावी थी अर्थात गांधी और नेहरू के नेतृत्व में चलने वाली प्रवृत्ति उसके आधार पर हिंदी साहित्य के किसी एक व्यक्तित्व की भरपूर व्याख्या कर पाना संभव नहीं है । इनके अतिरिक्त तिलक, भगत सिंह और अंबेडकर के विचारों ने हिंदी क्षेत्र को प्रभावित किया । हिंदी साहित्य की बुनियादी धारा कांग्रेस के नेतृत्वकारी हिस्से की आलोचना करती रही । इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि हिंदी क्षेत्र में बंगाल की तरह अंग्रेजी पढ़ा लिखा उतना विशाल मध्यवर्ग तैयार नहीं हुआ था । हिंदी के साहित्यिक व्यक्तित्वों में से ज्यादातर न तो जमींदारों के बीच से आए थे न ही स्थापित मध्यवर्ग के अंग थे । बहरहाल चूँकि उनके संबंध कृषक समुदाय से थे इसलिए हिंदी साहित्य में हिंदू मुस्लिम प्रश्न पर और हिंदू परिवार की संरचना के प्रश्न पर अनेकानेक अंतर्विरोध दिखाई पड़ते हैं । अगर ब्रिटिश राजभक्ति की कोई प्रवृत्ति थी भी तो वह नवजागरण के ही प्रवाह में विलीन हो गयी । जिस साहित्यिक व्यक्तित्व में ये अंतर्विरोध आपको दिखाई पड़ेंगे उसी के भीतर इन्हें हल करने के सर्वोत्तम प्रयास भी मिल जायेंगे । आप प्रेमचंद और गणेश शंकर विद्यार्थी को सांप्रदायिकता के सवाल पर संघर्ष करते हुए पायेंगे । नवजागरण के बाद दूसरा मील का पत्थर प्रगतिशील आंदोलन है । प्रगतिशील आंदोलन के साथ ही साथ किसान आंदोलन, हिंदी उर्दू की साझी कविता- ये सब सामने आते हैं । मुक्तिबोध प्रगतिशील आंदोलन के एक महान सिद्धांतकार थे । उन्होंने व्यक्ति की स्वतंत्रता, परिवार आदि के बारे में सवाल उठाये । लेकिन आजादी के बाद एकदम भिन्न परिस्थिति सामने आई । हिंदी में एक अभिजात तबके का उदय हुआ । अवसरवादी वामपंथ ने तेलंगाना संघर्ष के साथ ऐतिहासिक विश्वासघात किया । आधुनिकता का चकाचौंध भरा असर पड़ा और समाजवादी आंदोलन हर मैजेस्टी के विपक्ष में बदल गया । इन्हीं सब विकासों के चलते सत्ता संस्थानों से जुड़ी हुई एक प्रतिगामी आधुनिकता की धारा ने समाज विरोधी वैयक्तिक स्वतंत्रता का नारा बुलंद किया । दूसरी ओर प्रगतिशील आंदोलन और समाजवादी चिंतन से प्रभावित साहित्यकारों की धारा ने जन विक्षोभ को वाणी देना जारी रखा । इसी धारा में हमें नागार्जुन, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय, धूमिल इत्यादि को शामिल करना चाहिए । बहरहाल यह धारा भी शासक वर्गीय राष्ट्रवाद का सुसंगत विरोध नहीं विकसित कर सकी जो आजादी के बाद शासक वर्ग का मुख्य वैचारिक हथियार बना हुआ है । फिर भी इस प्रयास के बीज आप उपर्युक्त लेखकों की रचनाओं में देख सकते हैं । इसी मोड़ पर नक्सलबाड़ी ने हस्तक्षेप किया और जन पक्षधर क्रांतिकारी साहित्य को एक नई गति प्रदान की । अतीत की अनेक सकारात्मक धाराओं को समेटते हुए गोरख महेश्वर और रामजी की तिकड़ी ने एक नई समझ के साथ हिंदी जगत में हस्तक्षेप किया ।

अंतिम सवाल यह है कि क्या नई आर्थिक नीति, सांप्रदायिक फ़ासीवाद और सामाजिक न्याय की अनेक शक्तियों के उदय के साथ जुड़ी हुई दलित दावेदारी जैसे कारकों ने भारतीय समाज में कोई बुनियादी परिवर्तन कर दिया है ? भारतीय इतिहास के समक्ष अब भी यह एक खुला सवाल है । इन प्रक्रियाओं में इस परिवर्तन की संभावना के बीज हैं । दूसरी ओर कई ऐसे कारक हैं जिनके चलते यह भी संभव लगता है कि अंततः इन सभी प्रक्रियाओं को शासक वर्गीय व्यवस्था सोख लेगी । आखिरकार नवजागरण संबंधी इन बहसों का एक संदर्भ यह भी है कि स्वातंत्र्योत्तर अर्थतंत्र, राजनीति और सामाजिक व्यवस्था में कुछ ऐसे नए तत्व प्रकट हुए हैं जिनमें स्थापित संरचना को नष्ट कर नई व्यवस्था निर्मित करने की क्षमता है । ये नई परिघटनाएं पुरानी संरचनाओं पर दबाव डाल रही हैं । पिछले पाँच सात वर्षों से यह प्रक्रिया चल रही है । अहरहाल जल्दी से कूदकर किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की बजाय हमारी पार्टी को इसकी परीक्षा सावधानी से करनी चाहिए क्योंकि भारत में हर बीस पचीस से पचास साल के भीतर ऐसे परिवर्तन हो जाते हैं जिनसे लगता है कि हरेक चीज क्रांतिकारी रूप से बदल गयी है । किसी क्रांतिकारी पार्टी को अपने सभी विकल्प खुले रखने चाहिए । अभी तो यही लग रहा है कि अब भी स्वतंत्रता आंदोलन के अंतर्विरोध ही हमारे सामाजिक जीवन को परिचालित कर रहे हैं जिनमें ये प्रक्रियाएं भी शामिल हैं । अगर ये परिवर्तन भारतीय समाज को स्थायी रूप से बदल देते हैं तो सवाल सिर्फ़ साहित्यिक मूल्यांकन तक सीमित नहीं रह जायेगा, हमारी पार्टी को अपने कार्यक्रम और कार्यनीति में भी अनेक परिवर्तन करने पड़ेंगे ।

(लिबरेशन, जून 1995 में प्रकाशित लेख का हिंदी अनुवाद)

कामरेड विनोद मिश्र के साथ


अपने किसी अजीज की मय्यत में मैं आज तक शरीक नहीं हो सका । इससे लगता है जैसे वह आदमी आज भी जिन्दा हो । पार्टी भी दुनिया के सभी सहकारों से अलग एक भिन्न किस्म का अनुभव है । अनजाने आप एक चिन्तन पद्धति के आदी हो जाते हैं और सैकड़ों हजारों लोगों का चिन्तन एक आदमी के जरिए बोलने लगता है । सवाल समान होते हैं, फिर आप जो सोचते हैं लगता है मौलिक है तभी जी एस का कोई लेख, कोई भाषण आपके निष्कर्ष और जोर से मेल खा जाता है । पार्टी के भीतर की दुनिया बाहरी आदमी के लिए शायद कभी खुल नहीं सकती । वी एम के साथ मेरी मुलाकातें बहुत ही कम रहीं लेकिन यह घटना हर हमेशा ही घटती रही । संभवतः इसीलिए आज भी वे मेरे लिए मर नहीं सके हैं ।
वी एम के साथ मेरी पहली मुलाकात जौनपुर में हुई । उनके चले जाने के बाद ही हम समझ सके थे कि वे वी एम थे । हम यानी मैं, रामविलास, सुभाष, मुख्तार साहब, मुन्नी सिंह आदि । यह पूर्वांचल में पार्टी में भरती हुए नए कार्यकर्ताओं की टोली थी । पार्टी तब भूमिगत थी । रीजनल कांफ़्रेन्स मुख्तार साहब के यहाँ हुई थी । पार्टी की तीसरी कांग्रेस होने जा रही थी । उसी की तैयारी में उत्तर प्रदेश का यह प्रादेशिक सम्मेलन हो रहा था । कांग्रेस के मसौदा दस्तावेज को हम गाँवों के कमउम्र कार्यकर्ता समझने की कोशिश कर रहे थे । रीजनल सम्मेलन से प्रादेशिक सम्मेलन के लिए एक मैनेजमेंट टीम का चुनाव किया गया था जिसमें मैं भी था । जौनपुर पहुँचकर हम लोगों को कामरेड आर टी एन ने बताया कि खाना नाश्ता चाय का प्रबन्ध हम लोगों के जिम्मे है । तब पार्टी मीटिंगों का प्रबन्ध भी गम्भीर जिम्मेदारी समझी जाती थी और एक तरह की परीक्षा भी । अनेक छोटी मोटी मीटिंगो के प्रबन्ध की परीक्षा से उत्तीर्ण होने के बाद यह जिम्मेदारी मिली थी और इसको लेकर मैं उत्तेजित था । खिलन्दड़ापन तो बाद में मुझमें बढ़ा । एक बात और थी । वी एम सम्मेलन में आनेवाले थे । सुन रखा था वे विल्स सिगरेट निरंतर पीते रहते हैं । इसको पहचान का पैमाना हम लोगों ने बना रखा था । बाकी सब डेलीगेट ऊपर ही थे । कोई दो लोग नीचे ड्राइंगरूम में बने हुए थे । उनको लेकर एक उत्सुकता सबके भीतर देखी जा सकती थी । उन क्षणों को याद करके हँसी आती है । वी एम मिलें तो बताऊँ कि उनसे पहली मुलाकात कैसे हुई थी । पहले हम लोगों का वहाँ जाना निषिद्ध सा रहा । रामजी भाई नाश्ता लेकर जा रहे हैं और लौटते हुए कदम्ब की तरह फूले हुए हैं । अवधेश प्रधान चाय लेकर जा रहे हैं और वापस आते हुए मन्द मन्द मुस्करा रहे हैं । फिर मैं और रामविलास एक साथ कुछ लेकर गये । विल्स सिगरेट जिन सज्जन के हाथ में थी उनके साथ हम लोग अतिरिक्त सम्मान से पेश आये । सवाल उनके साथ वाले सज्जन पूछ रहे थे- 'साथी लोग किस इलाके में काम करते हैं?' लेकिन जवाब देते हुए हम विल्स वाले साथी की ओर मुखातिब रहे । एक नाम धीरे धीरे हवा में तैरना शुरू हुआ- राजू जी । मुख्तार साहब ने कहा कि अच्छा है, उधर राजीव गांधी इधर राजू । बहरहाल, सम्मेलन तकरीबन तीन दिन चला । कभी कभार चाय पहुँचाने अंदर जाना होता रहा । खाना सब लोग बाहर खाते थे । एक खामोश सा सम्मान उस व्यक्ति के प्रति बना रहा जिसके हाथ में पहले पहल विल्स देखी थी । सम्मेलन की समाप्ति पर धन्यवाद देने के लिए हम लोगों को भी अंदर बुलाया गया । इस बार विल्स दोनों के हाथ में थी । फिर भी हम लोगों ने विश्वास को डिगने नहीं दिया । किसुन जी ने कुछ रुपये हम लोगों के 'वी एम' के हाथ में दिए । उन्होंने रुपये हाथ में लिए हुए ही बोलना शुरू किया 'जो साथी लोग तीन दिन से लगातार मेहनत करते हुए सम्मेलन की सफलता के लिए काम करते रहे----' तभी उनके साथी ने टोक दिया 'पहले गिन लीजिये' और फिर वे रुपये गिनने लगे । उनके साथी ने मानो उनकी जगह पर बोलना शुरू किया । अत्यन्त सहज ढंग से, तकरीबन ध्यान न देने योग्य लहजे में- "हम लोगों ने पार्टी दस्तावेज में लिखा है कि भारतीय क्रान्ति को पूरा करने के अब तक के प्रयास सफल नहीं हो सके हैं, लेकिन इस बार हमें असफल नहीं होना है । तो साथियों, पूरी पार्टी को, सभी साथियों को इसी दिशा में तैयारी करनी चाहिए ।" इस दरम्यान 'वी एम' किसुन जी से हिसाब किताब में उलझे हुए थे । फिर हम लोग बाहर आ गये । कुछेक डेलीगेटों और उन दोनों के चले जाने के बाद हमें आर टी एन भीतर बुला ले गये । अवधेश प्रधान ने महासचिव का उद्घाटन भाषण साफ़ अक्षरों में नोट कर रखा था । उसी का पाठ होना था । "हमारी पार्टी नव जनवादी क्रान्ति की मंजिल में है । नव जनवादी क्रान्ति के तीन कार्यभार होते हैं- किसानों को जमीन, राष्ट्रीयताओं को मुक्ति और जनता के हाथ में सत्ता । ये कार्यभार सारतः बुर्जुआ क्रान्ति के ही कार्यभार हैं ।" वर्षों बाद यही तर्क मैंने एक गलती को ढकने के लिए दिया । जे एन यू में दूसरी बार हम लोग चुनाव लड़ रहे थे । इंडिपेन्डेंट्स की ओर से राकेश चौबे उपाध्यक्ष पद के उम्मीदवार थे । चन्दू संयुक्त सचिव पद पर चुनाव लड़ रहे थे, मैं अध्यक्ष पद पर । स्वभावतः मेरी जिम्मेदारी अधिक थी । राकेश अपने भाषण में कहीं बोल गये कि रूस की बोल्शेविक क्रान्ति बुर्जुआ क्रान्ति थी । श्रोताओं के अनेक प्रश्न इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण माँग रहे थे । चन्दू बिगड़ उठे कि उनके लिए ऐसे लोगों के साथ रहने में परेशानी है । तब मैंने इसी तर्क का सहारा लिया था । चन्दू भी अपने सौम्य गुस्से में कितने प्यारे लगते थे ! उद्घाटन भाषण के अन्त में एक पैराग्राफ़ वह जो हम लोगों से 'वी एम' के साथ वाले सज्जन बोल गये थे । हमारे तो हाथ के तोते उड़ गये । वी एम से हम मिले, बात की लेकिन चेहरा तक याद नहीं रह गया ।
दूसरी मुलाकात उनके गृह नगर कानपुर में हुई । गृह नगर यों कि कानपुर में जहाँ उनके पिताजी रहे थे वहाँ परिवारी लोगों से मिलने शायद वे कभी कभार आया करते थे । मैं भी पार्टी के होलटाइमर के बतौर उस समय कानपुर में था । इंचार्ज के बतौर रंजीत जी उनकी देखभाल कर रहे थे । गोविन्दपुरी में एक वकील साहब के यहाँ ऊपर वे लेटे हुए थे । मैं रंजीत जी के साथ पहुँचा, वर्मा जी भी थे । तीनों किसी बात पर आँख छलछला आने की हद तक हँसते रहे । मुझसे कोई बात नहीं हुई । दूसरे दिन संदेश मिला कि रेलवे स्टेशन से उन्हें लेकर मुझे रेलवे कालोनी पहुँचाना है । वे कानपुर में रहे थे, पुलिस उन्हें खोजती रहती थी । ऐसे में यह जिम्मेदारी भी काफ़ी बड़ी लगी । मैं तय समय पर स्टेशन पहुँचा । पार्टी के समर्थक एक डाक्टर के स्कूटर पर वे आये । फिर उन्होंने सिगरेट खरीदना चाहा । मैंने सोचा विल्स । पूछा, उन्होंने कहा नहीं । बी एच यू में रहते हुए तब मैंने नई नई चलन में आई चार्म्स पी थी । उसके लिए पूछा । उन्होंने नाउ खरीदी । मुझे भी अच्छी लगी । बहरहाल, थोड़ी ही दूर जाना था । मैंने कहा रिक्शा कर लें । उन्होंने कहा नहीं, पैदल ही चलते हैं । रास्ते में उनकी साँस थोड़ी भारी सी चलती लगी । लगातार मैं बम्बई में रहनेवाले अपने बड़े भाई के बारे में बताता रहा कि उनसे पार्टी को सम्पर्क करना चाहिए । बाद में पता लगा कि अशोक जी ने उन्हें खोज निकाला । जहाँ पहुँचे वहाँ एक रेलवे सफाई कर्मचारी के के घर में भोजन का इन्तजाम है । कानपुर पार्टी के सभी कार्यकर्ता बैठे हुए थे । सबसे वे उनका काम पूछते और फिर उस सेक्टर में कहीं और पार्टी का काम कैसा चल रहा है इसकी जानकारी देते । तभी उनकी एक खूबी का पता चला । किसी छोटी सी समस्या पर भी बात करते हुए वे उसे पार्टी नीतियों और दर्शन की ऊँचाई दे देते थे । जाने मेरे डिफ़ेन्स सेक्टर के बारे में या हरी सिंह के टेक्सटाइल के बारे में बात करते हुए वे फ़ैक्शनल वर्क की व्याख्या करने लगे । बोले- 'फ़ैक्शनल वर्क का यह मतलब नहीं कि आप उस यूनियन में अपने को विलीन कर लीजिए । नहीं, यूनियन का नेतृत्व तो गद्दार, समझौतापरस्त लोगों के हाथ में है । लेकिन वे मजदूरों की समस्या पर संघर्ष का आवाहन करते हैं । उन्हें अपनी नेतागिरी चलाने के लिए भी ऐसा करना पड़ता है । संघर्ष के दौरान हमारे साथियों को जुझारू लोगों की एक टीम के बतौर दिखना चाहिए । ताकि जब स्थापित नेतृत्व संघर्ष से भागे तो मजदूर आपकी ओर आकर्षित हों । इसमें दुस्साहसिकता की भी जरूरत नहीं है । इसी तरह धीरे धीरे आप यूनियन के नेतृत्व पर काबिज होंगे ।"
तीसरी बार मुलाकात बनारस में हुई । मँड़ुवाडीह में हीरालाल के घर पर शम्भू जी, वर्मा जी और वी एम थे । शम्भू जी का चश्मा मुगलसराय में एक साथी के यहाँ छूट गया था । वही लेने मुझे जाना था । लेकर देने गया । समय नहाने का था, लोग वी एम से जिद कर रहे थे- आप भी नहा लीजिए । फिर उनके नहाने में संकोच को लेकर हँसी मजाक होने लगा । उन्होंने कहा गलत बातें तेजी से फैलती हैं । तभी लुंगी के ऊपर गमछा लगाकर नहाते हुए पहली बार किसी को देखा । हीरालाल ने कोई फ़िल्मी डायलाग बोला तो बोले अगर कोई दो चार हिन्दी फ़िल्में देख ले तो वह दार्शनिक अवश्य हो जाता है । तभी उनका अंग्रेजी हस्तलेख भी देखा था ।
चौथी बार भेंट दिल्ली में हुई । आई पी एफ़ की पहली विशाल रैली खत्म हुई थी । रैली के इन्तजाम में मैं चार दिन लगा रहा था । एकाध दो दिन बाद आई पी एफ़ दफ़्तर पहुँचा । दीपांकर की जैसी आदत है कुछ हलकी फुलकी गप्प होती रही । इस बीच लगातार वी एम बाहर भीतर दिखाई देते रहे । मैं संकोच में नमस्कार न कर सका । रात के ग्यारह बजे हम और दीपांकर जी बाहर जे एन यू के बारे में बात कर रहे थे । अचानक वे आये । बोले- 'आप, गोपाल प्रधान ?' मैंने कहा- 'जी' और फिर नमस्कार किया । बोले- 'पहचान रहे हैं ?' मैंने कहा- 'हाँ, लेकिन इस संकोच में था कि शायद आप न पहचान रहे हों ।' बोले- 'चेहरे से तो नहीं लेकिन आवाज से पहचान गया ।' फिर बैठ गये, मैं भी नया नया जे एन यू गया था । हिन्दी पढ़ने वाला वैसे भी वहाँ बाहरी तमाम ही होता है । वहाँ के वातावरण और रैली के असर के बारे में बताने लगा । दीपांकर जी उत्साह से उठे 'चाय पीते हैं' । फिर चाय पीते हुए बातें होने लगीं । कुछ क्षमा याचना मैंने की । बोले- 'नौजवान ही क्या जब जिन्दगी एक सीध में बीत जाय । सक्रिय होना वापस होना तो लगा ही रहता है ।' एक क्षण में मैं समूचे अपराध बोध से मुक्त हो गया । एम- एल ग्रुपों के छात्र संगठन डी आर एस ओ की बात आई । उनके अराजकतावाद के कारण ही मैं भी उसमें शामिल नहीं हुआ था । उनके एक नेता प्रकाश देव सिंह राष्ट्रीयताओं की मुक्ति के अनन्य समर्थक थे । भोजपुरी भाषियों को भी राष्ट्रीयता मानते थे और उनके स्वतंत्र राष्ट्र के लिए आन्दोलन चलाना चाहते थे । वी एम ने ऐसी साहसिक टिप्प्णी की कि आज भी भूल नहीं पाता । 'पागल है क्या ?' मैं अवाक । फिर व्याख्या करने लगे- 'अरे, कोई खालिस्तान की, कश्मीर की बात करे तो समझ में आता है । किन्ही देशों के साथ इनकी सीमाएं लगती हैं । लेकिन भोजपुरी क्षेत्र के साथ तो ऐसा भी नहीं है ।' मुझे लगता है मार्क्सवाद के नाम पर बेचे जा रहे इस तरह के अराजकतावादी नुस्खों से उन्हें भयंकर चिढ़ थी और वे समस्याओं के प्रति बेहद ठोस नजरिया अपनाते थे । उनकी इस खूबी को एक बार फिर मैंने लखीमपुर में प्रेस कांफ़रेंस में देखा । चीन का सवाल, पाकिस्तान का सवाल, तिब्बत का सवाल- सब पर बेहद व्यावहारिक और ठोस दृष्टिकोण ।
फिर पटना । आइसा के पार्टी कोर की बैठक में भाग लेने का निमंत्रण मिला । गणेशन जी ने कहा- इट्स ए रिस्पांसिबिलिटी । मैंने कहा भुवना से- गणेशन वाज सेइंग इट्स ए रिस्पांसिबिलिटी बट आई वुड लाइक टु एक्सप्लेन इट ऐज ऐन अपार्चुनिटी । दो दिनों तक लगातार वी एम के साथ मीटिंग में रहा । वर्मा जी भी थे । पटना के किसी मध्यवर्गीय पार्टी समर्थक के घर बैठक थी । इरफ़ान ने कांग्रेस की प्रचार फ़िल्म का एक कैसेट दिखाया । विष्णु राजगढ़िया को इस बात का अफ़सोस रहा कि वे अगर बैठक में होते तो बहुत सारी बातें लिख ले सकते थे । मैं जे एन यू में नई नई स्कालरशिप के कारण कुछ सजा धजा था । कुछ अतिरिक्त चंचलता वैसे भी थी । भोजन को लेकर बहुत उत्साहित रहता था । अव्यवस्था फैलाने की मेरी कोशिशों को वी एम बहुत धीरज से काबू में कर लेते । दाल मेरी प्लेट में है तभी दूर दाल के भगौने की ओर हाथ बढ़ाता । वी एम भगौना उठाकर मेरी ओर बढ़ा देते । मैं सिगरेट को लेकर कुछ बोलने की सोचता । वी एम अपनी डिब्बी सरका देते । देर रात तक बैठक चलने के बाद लोग सोने की कोशिश करते होते । मध्यवर्गीय घरों में देर रात शोर करना वैसे भी बुरा माना जाता है । मैं और कमलेश किसी और को जबर्दस्ती जगाने की फ़िराक में होते । तभी वी एम उठकर बात करने लगते । मैं इसे उनकी अतिरिक्त सावधानी समझता रहा । बाद में छपे संस्मरणों से जाहिर हुआ कि अपनी सुविधा पर दूसरे को तरजीह देना उनकी आदत में शुमार था । उन्होंने वहीं कहा- चालीस के ऊपर पहुँचकर आदमी दुनिया को ज्यादा स्थिर ढंग से देखने लगता है । उस बैठक में ही आइसा का केन्द्रीय कार्यालय दिल्ली लाने का फ़ैसला किया गया । धीरेन्द्र जी को इस काम को अंजाम देना था । उनसे मजाक करते हुए वी एम ने कहा- कुछ हेल्थ बनाइए, वर्ना आप तो कालाहांडी के प्रतिनिधि लगते हैं । मुखपत्र की बात आई । लाल बहादुर जी को इलाहाबाद से अंग्रेजी मुखपत्र निकालना था । वे अमरेश या पंकज मिश्रा को इसकी जिम्मेदारी सौंप चुके थे और कह रहे थे कि वहीं कुछ समस्यायें हैं । वी एम ने कहा- 'साथी, ध्यान देकर देखियेगा । समस्या कहीं आपके भीतर होगी । अन्यथा दूसरे को आप संपादन क्यों सौंपते ।' कमलेश ने बताया कि बिहार में आइसा के प्रदर्शन की तैयारी हो चुकी थी लेकिन राज्य कमेटी ने उसे रोक दिया । वी एम ने पार्टी के भीतर जनवादी केन्द्रीयता के संचालन संबंधी दिक्कतों को व्याख्यायित करना शुरू किया- "शायद कम्युनिस्ट पार्टी के संगठन के भीतर ही कुछ ऐसी समस्या है, लेकिन इसके अतिरिक्त इसका कोई हल नहीं कि धीरज के साथ आप अपनी स्थिति से नेतृत्व को अवगत कराइए । इसीलिए हमारी पार्टी में किसी भी सदस्य को उच्चतम पार्टी मंच तक अपनी बात रखने का अधिकार दिया गया है ।" संभवतः उसी बैठक में उन्होंने आइसा की सम्भावनाओं को समझ लिया था । इसी तरह मुखपत्रों के बारे में बोलते हुए उन्होंने कहा- सभी पत्रिकाओं को लिबरेशन की तरह नहीं हो जाना चाहिए । वह एक सैद्धांतिक पत्रिका रहे लेकिन बाकी पत्रिकाओं को रोचक होना चाहिए । इसी प्रसंग में उन्होंने आसा न्यूज का नाम लिया । हमारी पार्टी के भीतर वी एम की प्रतिष्ठा बहुत थी । जिस तरह उनकी बात को ही तकरीबन निर्णय समझा जाता था उसमें मुझे लगा कि कोई आईना कैसे देखता होगा । पार्टी के विकास के लिए संभवतः वे खुद ही आईनों की भी तलाश करते थे । बंगाल के संबंध में वे कोई सुझाव दे रहे थे । अनिंद्य बोल उठे- मेनी कामरेड्स टेक इट ऐज ए डाइल्यूशन आफ़ आवर पार्टी पोजीशन । तब वी एम ने सी पी एम से लड़ाई की कार्यनीति पर लंबा वक्तव्य दिया- "अगर आपका दुश्मन जमीन पर है तो आप हवा में रहकर उससे नहीं लड़ सकते । सही, वास्तविक लड़ाई लड़ने के लिए आपको भी जमीन पर उतरना पड़ेगा । सेकंड सी सी से अधिक तीखी आलोचना सी पी एम की और कौन कर सकता है । लेकिन वे सी पी एम का कुछ नहीं बिगाड़ सकते । सी पी एम के भीतर जो विक्षुब्ध हैं उन्हें हमारी आलोचना सुनाई पड़नी चाहिए । इस तरह तो हम आलोचना कर रहे हैं लेकिन उन्हें हमारी भाषा ही नहीं समझ में आती । सी पी एम का जो सैद्धांतिक ढाँचा था वह सोवियत रूस के बिखरने के बाद तहस नहस हो चुका है । इसले उनके भीतर वैचारिक विभ्रम बढ़ेगा । यह विभ्रम सैद्धांतिक विवादों के रूप में ही सामने आये यह आवश्यक नहीं है । वह तमाम तरह के रूप पकड़ेगा । अतः हमें भी अपनी पोजीशन थोड़ा डाइल्यूट करके जमीन पर उतरना पड़ेगा ताकि इस परिस्थिति का फ़ायदा उठा सकें । बंगाल में पार्टी के मुख्य काम, किसान फ़्रंट, के बाद सबसे अधिक ध्यान छात्र फ़्रंट पर दिया जाना चाहिए ।" लगता था जैसे कोई रेल की पटरी से कान लगाकर आती हुई गाड़ी की आवाज सुनने की कोशिश कर रहा है । ऐसे थे हमारे कामरेड वी एम !
कलकत्ता में उनके गुप्त जीवन का खात्मा हुआ और कलकत्ता रैली के बाद जे एन यू आइसा को इस बात का सौभाग्य मिला कि उसके प्रथम कैंपस सम्मेलन का उद्घाटन वी एम ने किया । आने में देर हो रही थी । राधेश्याम वगैरह गेट पर खड़े होकर उनका इंतजार कर रहे थे । वे आए, लाल सलाम के नारों के बीच सीधे मंच पर चढ़े । चंदू ने उनका स्वागत भाषण देना शुरू किया । उन्होंने धीरे से मुझसे पूछा कौन हैं मैं बताता रहा । फिर माइक की ओर बढ़ते हुए पूछा 'अंग्रेजी में ?' मैंने कहा 'एकदम' । बहुत थोड़ी देर, तकरीबन पाँच मिनट बोले । पार्टी बैठकों में बोलने की आदत अभी बनी हुई थी । धीमी आवाज में बिना स्वर ऊँचा किये लेकिन मंच का दबाव संक्षेप का कारण बन गया । मेरी समझ में तो कुछ नहीं आया । धीरे धीरे ही वे बाद में मंच के साथ सहज हो पाये । फिर पटना में आइसा के पार्टी कोर की बैठक हुई । तब अखिलेंद्र भाई और वे बैठक में रहे । लोग भी अधिक थे । मैं दो बार चुनाव लड़ चुका था । वी एम जे एन यू में संगठन के विकास पर नजदीक से ध्यान दे रहे थे । पहली बैठक में ही उन्होंने कहा था- 'पार्टी के जितने नेताओं को आप लोग सभाओं में बुलाना चाहते हैं उनकी सूची बनाकर वर्मा जी को दे दीजिए । हवा में चुनाव नहीं जीते जाते । उनकी योजना बनानी पड़ती है ।' बहरहाल अध्यक्ष पद के लिए दो विकल्प थे- चंदू और प्रणय । पूरी मीटिंग आधे आधे में बँटी हुई थी । पार्टीवादी लोग चंदू के पक्ष में थे, आइसा के लीडरान प्रणय के पक्ष में । लेकिन जो प्रणय के पक्षधर थे वे लोग कुछ बातों को छिपाकर अन्य चीजों को उभार रहे थे । वी एम बोले- "हमें चुनाव में प्रत्याशी जीतने के लिए ही लड़ाना चाहिए । लेकिन प्रत्याशी के बारे में मूल्यांकन वस्तुगत रखना चाहिए । तभी हम उसे पार्टी की मुख्यधारा से जोड़ने का काम गंभीरता से कर पायेंगे । किसी को प्रत्याशी बनाने के लिए लीपापोती करने की जरूरत नहीं है । उसके जीतने की संभावना ही इसके लिए काफ़ी है । लेकिन माना जाय कि वे अभी किनारे पर खड़े हैं तभी पार्टी के साथ उन्हें एकरूप भी किया जा सकेगा ।" और प्रणय का नाम तय हुआ । फल सबने देखा ।
दिल्ली में रहते हुए मुलाकातें बहुतेरा होती रहीं । आइसा द्वारा आयोजित एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में अरविंद नारायण दास के साथ किस आत्मविश्वास से टहल रहे थे ! बाद में तो दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों की सभाओं को भी संबोधित करना शुरू कर दिया था । लेकिन सबसे मजेदार वाकया था दिल्ली का राज्य सम्मेलन । जे एन यू आइसा में फूट के बीज तब तक पड़ चुके थे । नारों को ही पकड़कर लटके रहने वाला एक जड़सूत्रवादी लफ़्फ़ाज गुट अस्तित्व में आ चुका था जिसमें पार्टी के भी कुछ लोग थे । दिव्यराज मंच पर चढ़े और उत्साह में बोल गए- 'हम लोगों ने नारा दिया है- मेक जे एन यू ए रेवोल्यूशनरी सेंटर आफ़ इंडियन स्टूडेंट मूवमेंट ।' वी एम ने अपने समापन भाषण में अन्य प्रसंगों के साथ इसको भी पकड़ा । "एक साथी ने कहा कि जे एन यू को भारतीय छात्र आंदोलन का क्रांतिकारी केंद्र बना दो । लेकिन पिछले दिनों हुए सम्मेलन में पूरे भारत के छात्र जब अपने क्रांतिकारी केंद्र की एक झलक देखने के लिए पहुँचे तो उन्हें बड़ी निराशा हुई । न खाने का इंतजाम न ठहरने का इंतजाम । तो भावना अच्छी होने के बावजूद अगर ठोस काम न किया गया तो इरादे हवाई रह जाते हैं ।"
एक और वाकया । दिल्ली से चलते चलाते की आखिरी लंबी मुलाकात थी । 'इंडियन इंस्टीच्यूट आफ़ मार्क्सिस्ट स्टडीज' की बैठक दिल्ली में हुई । बी बी पाण्डे ने जगह के लिए जे एन यू सिटी सेंटर कहा । मैंने बुक करा दिया । उन्होंने कहा तो मैं फिर से प्रबंधकीय जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार हो गया । अरविंद नारायण दास ने इस बैठक में डी डी कौशाम्बी की किताब के आधार पर बनाए गये सीरियल की तीन चार कड़ियाँ दिखाईं । बैठक में ही मैंने देखा कि शिवरामन से माँगकर वे सिगरेट पीने लगे हैं । शायद कम करना शुरू कर चुके थे । इंस्टीच्यूट क्या करेगा इसके संबंध में बड़ी बड़ी योजनाएँ साथी लोग बता रहे थे । कोई कह रहा था कि पार्टी में क्लासें आयोजित करना इंस्टीच्यूट की जिम्मेदारी होनी चाहिए । इस पर हस्तक्षेप करते हुए उन्होंने कहा- 'अनेक कम्युनिस्ट पार्टियों को हम अपने सामने स्टडी सर्किल्स में रूपांतरित होते देख रहे हैं । इसलिए इस संबंध में थोड़ी सावधानी बरतनी चाहिए । अध्ययन कक्षाएँ चलाना पार्टी की जिम्मेदारी है और वह चलाएगी । इस इंस्टीच्यूट का गठन पार्टी ने एक विशेष मकसद से किया है । कुछ ऐसे सवाल हैं जो नये हैं और जिन पर पार्टी और पार्टी के बाहर के बुद्धिजीवी समान रूप से चिंतित हैं । निश्चय ही उनका जवाब हमें शास्त्रीय मार्क्सवाद के भीतर ही खोजना है । लेकिन इस प्रयास में कुछ विशेष साथियों और पार्टी के दायरे के बाहर के बुद्धिजीवियों को अतिरिक्त रूप से लगना होगा । पार्टी के सामने कुछ सवाल हैं और उनका उत्तर खोजने में इंस्टीच्यूट को पार्टी की मदद करनी चाहिए । पार्टी शिक्षा का सवाल एक अलग सवाल है ।' इस तरह आई आई एम एस की भूमिका तय हुई । इसी बैठक में अखिल भारतीय स्तर पर कुछ सेमिनारों की श्रृंखला आयोजित करने का निर्णय हुआ । सेमिनार के विषयों के बतौर जब एस गोपाल ने चुनाव संबंधी मार्क्सवादी नीति को शामिल करने का प्रस्ताव किया तो वी एम ने कहा कि यह विवाद हल हो चुका है । जिन्हें भाग लेना है उनके लिए भी और जिन्हें बहिष्कार करना है उनके लिए भी । एस गोपाल ने कहा इट्स स्टिल ए बर्निंग क्वेश्चन । दीपांकर तपाक से बोले आलरेडी हाफ़ बर्न्ट । प्रचार पुस्तिकाओं की बाबत एक पुस्तिका जब उन्होंने 'सांप्रदायिकता और धर्म निरपेक्षता' विषय पर प्रस्तावित की तो एक साथी इस सवाल पर सामाजिक न्यायवादी खेमे में बहस को ले जाते हुए वैकल्पिक नाम सुझाने लगे । वी एम ने दुबारा अपनी बात पर जोर दिया- नहीं, प्रश्न इसी रूप में उपस्थित हुआ है और इसी रूप में हमें उसे संबोधित करना चाहिए ।
पार्टी के विलयन/विखंडन के हर छोटे से खतरे के प्रति भी अत्यंत सचेत, शास्त्रीय मार्क्सवाद की सैद्धांतिक बरतरी में अटूट विश्वास और प्रत्येक वैचारिक विचलन में हस्तक्षेप- ये उनके व्यक्तित्व की स्थायी खूबियाँ थीं । अंतिम बार उनसे मुलाकात लखीमपुर खीरी में हुई थी । तब उनकी आयु पचास के करीब पहुँच चुकी थी । मिलते ही बोले- 'और ? पैसा वैसा तो ठीक ठाक मिल रहा होगा ?' मैं पुवायां में पढ़ाने लगा था । नई नई नौकरी में पैसे लगते भी ज्यादा थे । हाँ कहने पर बोले कुछ करिए । वही कुछ करने की आशा अब भी बनी हुई है ।
लखनऊ में सी सी की बैठक होने जा रही है यह मुझे पता था । मीटिंग के इंतजाम के लिए कुछ पैसे भी अरुण जी ने माँगे थे । एक सुबह देर से उठकर नीचे अखबार उठाने गया तो आधा मुड़े अखबार पर उनकी फ़ोटो छपी थी । खबर पढ़ने के लिए पन्ना खोला तो सन्न रह गया । तुरंत लखनऊ फ़ोन किया । पता चला दस बजे लोग बनारस निकल जायेंगे । बनारस से दूसरे दिन सुबह पटना के लिए निकलेंगे । लखनऊ पहुँच पाना संभव नहीं था । शाहजहांपुर रेलवे स्टेशन पर पता चला सभी गाड़ियाँ देर से चल रही हैं । सुबह तक बनारस पहुँचने की भी संभावना न रही । पूरब की तरफ़ मुँह घुमाकर दूर से ही अंतिम विदाई दी और घर लौट आया ।
जिंदगी में बहुतों से मुलाकात होती रहती है लेकिन मुझे गर्व है कि मेरी मुलाकातें कामरेड विनोद मिश्र से भी होती रही हैं । वे भी बहुतों को खोते रहे थे । उनकी पूरी जिंदगी ही साथियों के एक समूह का निर्माण और फिर उनसे अलग होने का इतिहास बन गयी थी ।