इंटरनेशनल की पिछली कांग्रेस को संपन्न हुए दो
साल बीत चुके थे लेकिन तत्कालीन परिस्थितियों में नई कांग्रेस आयोजित नहीं हो पा रही
थी । इसलिए जनरल कौंसिल ने लंदन में सम्मेलन आयोजित करने का फैसला किया;
17 से 23 सितंबर के बीच 22 प्रतिनिधियों की भागीदारी के साथ सम्मेलन संपन्न हुआ । ये ब्रिटेन
(आयरलैंड को भी पहली बार प्रतिनिधित्व मिला), बेल्जियम,
स्विट्ज़रलैंड और स्पेन से तथा निर्वासित फ़्रांसिसी थे ।
मार्क्स ने पहले ही घोषित कर रखा था कि सम्मेलन
‘सिर्फ़ संगठन और नीति के सवालों पर’ होगा,
सैद्धांतिक सवालों पर बाद में कभी विचार होगा । इसके पहले ही अधिवेशन
में उन्होंने इसे दोहराया:
“जनरल कौंसिल ने यह सम्मेलन विभिन्न देशों
के प्रतिनिधियों के साथ उन उपायों के बारे में सहमति बनाने के के लिए आयोजित किया है
जिन्हें ढेर सारे देशों में इंटरनेशनल के समक्ष खतरों के मद्दे नजर करना तथा परिस्थिति
की जरूरत के अनुरूप नए संगठन की दिशा में आगे बढ़ना जरूरी हो गया है । दूसरी मुद्दा
यह है कि जो सरकारें उपलब्ध प्रत्येक साधन से इंटरनेशनल को खत्म करने के लिए लगातार
सक्रिय हैं उनका जवाब कैसे दिया जाए । आखिरी बात स्विस विवाद को हमेशा के लिए हल करना
है ।”
इन प्राथमिक कामों को पूरा करने के लिए पूरा जोर
लगा दिया: इंटरनेशनल को पुनर्गठित करना,
दुश्मन ताकतों के हमलों से इसकी रक्षा करना और बाकुनिन के बढ़ते प्रभाव
को रोकना । सम्मेलन के सबसे सक्रिय प्रतिनिधि के बतौर मार्क्स 102 बार बोलने खड़े हुए, जो प्रस्ताव उनकी योजना से मेल नहीं
खाते थे उन्हें रोका और असहमत लोगों को भी अपने पक्ष में कर लिया । लंदन के इस सम्मेलन
ने संगठन में उनके कद की पुष्टि की जो न केवल उसकी राजनीतिक दिशा को आकार देने वाला
दिमाग था बल्कि उसका सबसे अधिक लड़ाकू और सक्षम योद्धा भी था ।
इस सम्मेलन को जिस महत्वपूर्ण निर्णय के लिए बाद
में भी याद रखा जाएगा वह था वाइलैन्त के नवें प्रस्ताव का अनुमोदन । ब्लांकीपंथियों
की बची खुची ताकतों ने पेरिस कम्यून के अंत के बाद इंटरनेशनल से अपने को जोड़ लिया था
। उनके इस नेता ने प्रस्तावित किया कि संगठन को जनरल कौंसिल के नेतृत्व में केंद्रीकृत,
अनुशासित पार्टी में बदल दिया जाना चाहिए । ब्लांकीपंथियों का मानना
था कि क्रांति के लिए लड़ाकुओं का सुगठित केंद्रक पर्याप्त है । इसी तरह की बातों पर
कुछेक मतभेदों के बावजूद मार्क्स ने वाइलैन्त के गुट के साथ मोर्चा बनाने में कोई हिचक
नहीं दिखाई । ऐसा न केवल इंटरनेशनल के भीतर बाकुनिनपंथी अराजकतावाद का विपक्ष मजबूत
करने के लिए जरूरी लगा बल्कि वर्ग संघर्ष के नए दौर में आवश्यक बदलावों के बारे में
व्यापक सहमति बनाने के लिए भी किया गया । इसलिए लंदन में पारित प्रस्ताव में कहा गया:
“कि संपत्तिशाली वर्गों की सामूहिक शक्ति
के विरुद्ध मजदूर वर्ग राजनीतिक पार्टी के रूप में अपने आपको संगठित किए बिना वर्ग
के रूप में कुछ नहीं कर सकता । यह पार्टी संपत्तिशाली वर्गों द्वारा बनाई गई सभी पुरानी
पार्टियों के विरुद्ध और उनसे अलग होगी । कि राजनीतिक पार्टी के रूप में मजदूर वर्ग
का यह संगठन सामाजिक क्रांति की विजय और उसके अंतिम लक्ष्य, वर्गों
के उन्मूलन की गारंटी के लिए अपरिहार्य है । और कि मजदूर वर्ग के आर्थिक संघर्षों से
हासिल शक्ति संयोजन को जमींदारों तथा पूंजीपतियों की राजनीतिक सत्ता के विरुद्ध इसके
संघर्षों के लिए उत्तोलक (लीवर) के बतौर
काम करना चाहिए ।”
निष्कर्ष स्पष्ट था:
‘आर्थिक आंदोलन (मजदूर वर्ग का) तथा उसकी राजनीतिक कार्यवाहियां अविभाज्य रूप से आपस में जुड़ी हुई हैं ।’
1866 की जेनेवा कांग्रेस ने अगर ट्रेड
यूनियनों का महत्व स्थापित किया था तो 1871 के लंदन सम्मेलन के
साथ केंद्र में बदलाव आया और वह अब आधुनिक मजदूर आंदोलन का एक और महत्वपूर्ण हथियार
यानी राजनीतिक पार्टी बन गया । बहरहाल इस बात पर भी बल देना होगा कि बीसवीं सदी में
इसकी जो धारणा विकसित हुई उसके मुकाबले उस समय की धारणा काफी व्यापक थी । इसलिए मार्क्स
की धारणा को ब्लांकीपंथियों की धारणा से, बाद में दोनों का टकराव
खुलेआम हुआ और अक्टूबर क्रांति के बाद कम्यूनिस्ट संगठनों द्वारा अपनाई गई धारणा से
भी अलगाना चाहिए ।
मार्क्स के तईं मजदूर वर्ग की खुद की मुक्ति के
लिए दीर्घकालीन और कष्टसाध्य प्रक्रिया की जरूरत थी । यह प्रक्रिया सेर्गेई नेचायेव
(1847-82) की क्रांतिकारी की प्रश्नावली में बताए गए सिद्धांत और व्यवहार
के पूरी तरह विपरीत थी । इस प्रश्नावली में गुप्त सोसाइटियों की वकालत की गई थी जिसकी
आलोचना लंदन के प्रतिनिधियों ने की लेकिन बाकुनिन ने उत्साह के साथ उसका समर्थन किया
था ।
लंदन सम्मेलन में केवल चार प्रतिनिधियों ने नवें
प्रस्ताव का विरोध किया । उनका तर्क था कि राजनीति में संलग्न न होने के
‘अनुपस्थितिवादी’ रुख की जरूरत है । लेकिन मार्क्स
की जीत जल्दी ही भंगुर सिद्ध हुई । जिन्हें राजनीतिक पार्टी कहा जाए उनकी प्रत्येक
देश में स्थापना का आवाहन और जनरल कौंसिल को व्यापक शक्ति प्रदान करने का इंटरनेशनल
के आंतरिक जीवन के लिए गंभीर नतीजा निकलता । वह अभी इतनी तेजी से संगठन के लचीले रूप
के मुकाबले राजनीतिक तौर पर समरूप ढांचे में ढलने के लिए तैयार नहीं था ।
लंदन में आखिरी फैसला ब्रिटिश फ़ेडरल कौंसिल की
स्थापना का लिया गया । क्योंकि मार्क्स की नजर में पेरिस कम्यून की पराजय के साथ महाद्वीप
में क्रांति की स्थिति क्षीण हो चली थीं इसलिए ब्रिटिश पहलकदमियों की नजदीकी निगरानी
की कोई जरूरत नहीं रह गई थी ।
मार्क्स को यकीन था कि सम्मेलन के प्रस्तावों का
समर्थन लगभग सभी प्रमुख फ़ेडरेशन और स्थानीय प्रभाग कर देंगे लेकिन जल्दी ही उन्हें
फिर से सोचना पड़ा । 12 नवंबर को जूरा फ़ेडरेशन ने सोनविलिएर
के छोटे से कम्यून में अपनी अलग कांग्रेस आहूत की और हालांकि बाकुनिन तो इसमें भाग
नहीं ले सके लेकिन इसके जरिए इंटरनेशनल के भीतर आधिकारिक विपक्ष की आमद हो गई । कार्यवाही
के अंत में जारी इंटरनेशनल के सभी फ़ेडरेशनों के लिए सर्कुलर में गिलौमे और अन्य भागीदारों
ने जनरल कौंसिल पर आरोप लगाया कि वह इंटरनेशनल में ‘प्राधिकार
के सिद्धांत’ का प्रवेश करा रहा है और इसकी मौलिक संरचना को बदलकर
‘कमेटी द्वारा शासित और निर्देशित पदानुक्रमिक संगठन’ बना रहा है । स्विस प्रभाग ने घोषित किया कि वे ‘समस्त
निर्देशक प्राधिकार’ के विरुद्ध हैं ‘भले
ही वह प्राधिकार मजदूरों द्वारा निर्वाचित और अनुमोदित हो’ और
जोर दिया कि ‘प्रभागों की स्वायत्तता का सिद्धांत बरकरार रखा
जाए’ ताकि जनरल कौंसिल ‘केवल संवाद और लेखा
जोखा’ का निकाय रहे । अंत में उन्होंने मांग की कि जितनी जल्दी
हो सके कांग्रेस आयोजित की जाए ।
हालांकि जूरा फ़ेडरेशन कि प्रतिक्रिया अप्रत्याशित
नहीं थी फिर भी शायद मार्क्स को अचंभा हुआ जब विक्षोभ के संकेत और जनरल कौंसिल की राजनीतिक
दिशा से भी विद्रोह अन्य जगह पर प्रकट हुए । अनेक देशों में लंदन में लिए गए फैसलों
को स्थानीय राजनीतिक स्वायत्तता का अस्वीकार्य अतिक्रमण समझा गया । सम्मेलन में बेल्जियन
फ़ेडरेशन ने विभिन्न पक्षों के बीच मध्यस्थता करना चाहा था लेकिन अब उसने लंदन के प्रति
अधिक आलोचनात्मक रुख अपनाना शुरू किया । हालैंड ने भी बाद में दूरी बना ली । दक्षिणी
यूरोप में प्रतिक्रिया और भी मजबूत थी इसलिए विपक्ष को जल्दी ही भरपूर समर्थन मिला
। असल में तो आइबेरियाई इंटरनेशनल की भारी बहुसंख्या जनरल कौंसिल के विरोध में हो गई
और बाकुनिन के विचारों का अनुमोदन किया । बेशक इसका आंशिक कारण यह था कि इस इलाके में
औद्योगिक सर्वहारा की उपस्थिति केवल मुख्य शहरों में थी और यहां मजदूर आंदोलन अब भी
बहुत कमजोर था तथा प्रमुख रूप से आर्थिक मांगों तक सीमित था । इटली में भी लंदन सम्मेलन
के नतीजों को नकारात्मक तरीके से ही देखा गया । मैज़िनी के अनुयायी 1
से 6 नवंबर 1871 तक रोम में
एकत्र हुए और जनरल कांग्रेस आफ़ इटालियन वर्कर्स सोसाइटीज (कुछ
अधिक नरमपंथी मजदूर खेमा) संपन्न हुई, शेष
अधिकांश लोग बाकुनिन के विचारों के पक्ष में थे । 4 से
6 अगस्त 1872 तक रिमिनी में इटालियन फ़ेडरेशन आफ़
द इंटरनेशनल की स्थापना कांग्रेस हुई और इसमें शामिल लोगों ने जनरल कौंसिल के विरुद्ध
सर्वाधिक मूलगामी राय बनाई: वे इंटरनेशनल की आगामी कांग्रेस में
भाग नहीं लेंगे, बल्कि न्यूचातेल, स्विट्ज़रलैंड
में ‘प्राधिकार विरोधी जनरल कांग्रेस’ आयोजित
करने का प्रस्ताव लिया । वस्तुत: आसन्न विभाजन की यह पहली कार्यवाही
थी ।
अटलांटिक के दूसरे तट पर भी संगठन में टकराव फूट
पड़ा हालांकि मुद्दे अलग थे । 1871 के दौरान वहां
के अनेक शहरों में इंटरनेशनल का विस्तार हुआ था और 50 प्रभागों
की कुल सदस्यता 2700 तक पहुंच गई थी । अगले साल यह संख्या और
भी बढ़ी (शायद लगभग 4000) लेकिन अब भी यह
बीस लाख से ऊपर अमेरिकी कामगारों का बहुत ही छोटा हिस्सा था । संगठन अब भी प्रवासी
समुदायों से बाहर निकलकर संयुक्त राज्य में जन्मे मजदूरों को खींच पाने में असमर्थ
ही रहा था । आंतरिक कलह का भी विनाशकारी असर पड़ा क्योंकि बहुत करके न्यूयार्क आधारित
इंटरनेशनल के अमेरिकी सदस्य दिसंबर 1871 में दो धड़ों में बंट
गए जिनमें से प्रत्येक धड़ा संयुक्त राज्य में इंटरनेशनल का वैध प्रतिनिधि होने का दावा
करता था ।
इनमें से स्प्रिंग स्ट्रीट कौंसिल नामक पहले और
शुरू में बड़े धड़े ने अमेरिकी समाज के सबसे उदारपंथी समूहों के साथ संश्रय प्रस्तावित
किया । इसे जनरल कौंसिल में अमेरिका के लिए संवाद सचिव के समर्थन का भरोसा था और इसकी
सबसे सक्रिय शाखा 12वां प्रभाग थी । दूसरे धड़े का मुख्यालय
टेन्थ वार्ड होटेल था । वह मजदूर वर्गीय दिशा पर अडिग रहा और फ़्रेडरिक एडोल्फ़ सोर्ज
(1828-1906) इसमें सबसे प्रमुख व्यक्ति थे । मार्च 1872 में जनरल कौंसिल ने जुलाई में एकता कांग्रेस आयोजित करने की मांग की लेकिन
इसका कोई नतीजा नहीं निकला और मई में आधिकारिक विभाजन हो गया । आपसी मतभेदों के चलते
इंटरनेशनल के सदस्यों में कमी आने लगी । टेन्थ वार्ड होटेल धड़े ने 1872 में 6 से 8 जुलाई तक अपनी कांग्रेस
की और नार्थ अमेरिकन कानफ़ेडरेशन की स्थापना की । इसके 950 सदस्य
22 प्रभागों में बिखरे हुए थे (केवल 3 अंग्रेजी भाषी, शेष 12 जर्मन,
4 फ़्रांसिसी, आयरलैंड, इटली
और स्कैंनडेनेविया से एक एक) । इसी बीच मई में स्प्रिंग स्ट्रीट
कौंसिल धड़े के कुछ सदस्यों ने इक्वल राइट्स पार्टी के एक सम्मेलन में भाग लिया । इस
पार्टी की ओर से संयुक्त राज्य के राष्ट्रपति पद के लिए विक्टोरिया वुडहल चुनाव लड़
रही थीं । यह कोई वर्गीय मंच नहीं था बल्कि काम के हालात के नियमन और रोजगार सृजन के
आम वादे किए गए थे । इसके कारण कुछ प्रभागों ने कौंसिल का साथ छोड़ दिया और इनकी सदस्य
संख्या केवल 1500 रह गई । जुलाई में अमेरिकन कानफ़ेडरेशन के जन्म
के बाद कौंसिल ने महज 13 प्रभाग बरकरार रखे जिनकी सदस्य संख्या
500 से कम ही थी (अधिकतर कारीगर और बुद्धिजीवी)
। ये प्रभाग जनरल कौंसिल की दिशा को चुनौती देने वाले यूरोपीय फ़ेडरेशनों
के साथ जुड़ गए ।
अटलांटिक पार के इन झगड़ों के चलते लंदन के सदस्यों
के आपसी रिश्ते भी खराब हुए । 1871-72 के दौरान जनरल कौंसिल के
सचिव जान हेल्स (1839-अज्ञात) ने इकारियस की जगह अमेरिका के संवाद सचिव का कार्यभार
संभाला लेकिन नीति उन्हीं की जारी रखे रहे । दोनों ही लोगों से मार्क्स के निजी रिश्ते
खट्टे हो चले और ब्रिटेन में भी आंतरिक टकराव प्रकट होना शुरू हुआ । जनरल कौंसिल का
समर्थन बहुसंख्यक स्विस, फ़्रांसिसी (अब ज्यादातर ब्लांकीपंथी), कमजोर जर्मन ताकतें,
डेनमार्क, आयरलैंड और पुर्तगाल के नव गठित प्रभाग तथा हंगरी और बोहेमिया में पूर्वी
यूरोपीय समूह करते थे । लेकिन उनकी कुल तादाद लंदन सम्मेलन के अंत में मार्क्स की उम्मीदों
से काफी कम निकली ।
जनरल कौंसिल का विरोधी पक्ष चरित्र के मामले में विविधतापूर्ण
था और कभी कभी इसकी वजह निहायत निजी होती थी । ये सभी विचित्र किस्म के रसायन से एक
साथ बंधे हुए थे और इसके चलते इंटरनेशनल का नेतृत्व करना और भी मुश्किल हो जाता था
। कुछ देशों में बाकुनिन के सिद्धांतों के प्रति आकर्षण और विभिन्न तरह के विपक्षियों
को एक जगह बांधे रखने की गिलौमे की क्षमता के भी परे ‘मजदूर वर्गीय राजनीतिक कार्यवाही’
संबंधी प्रस्ताव के प्रति विरोध की मुख्य वजह वह माहौल था जो मार्क्स द्वारा प्रस्तावित
गुणात्मक छलांग को स्वीकार नहीं करना चाहता था । व्यावहारिकता के तमाम दावों के बावजूद
लंदन सम्मेलन में हुए बदलाव को अनेक लोगों ने बेवकूफाना हस्तक्षेप समझा । केवल बाकुनिन
के साथ जुड़ा समूह ही नहीं, बल्कि अधिकांश फ़ेडरेशन और स्थानीय प्रभाग इंटरनेशनल के निर्माण
के समय की स्वायत्तता तथा यथार्थ की विविधता के प्रति सम्मान को इंटरनेशनल का आधार
स्तम्भ मानते थे । मार्क्स इसे भांपने में चूक गए और इसके कारण संगठन का संकट त्वरित
हो गया ।
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