Saturday, December 17, 2016

इंटरनेशनल की बढ़ती ताकत


1866 के उत्तरार्ध के बाद अनेक यूरोपीय देशों में हड़तालों में तेजी आई । मजदूरों की भारी संख्या द्वारा संगठित इन हड़तालों ने उनमें अपने हालात की चेतना को जन्म दिया और संघर्षों की नई और महत्वपूर्ण लहर पैदा हुई ।
हालांकि उस समय की कुछ सरकारों ने जन विक्षोभ के लिए इंटरनेशनल को दोषी ठहराया लेकिन उनमें शामिल अधिकांश मजदूरों को इसके अस्तित्व के बारे में भी पता नहीं था; उनके विरोध प्रदर्शनों का मूल कारण काम और जीवन के कठिन हलात थे जिन्हें सहने के लिए वे मजबूर थे । फिर भी इन गोलबंदियों ने इंटरनेशनल के साथ सम्पर्क और संयोजन के नए दौर को जन्म दिया क्योंकि उसने एकजुटता की घोषणा और आवाहन के जरिए उनका समर्थन किया, हड़तालियों के लिए चंदा जुटाया और मालिकों द्वारा मजदूरों के प्रतिरोध को कमजोर करने की कोशिशों का जवाब देने में मदद की ।
इस दौर में इंटरनेशनल की व्यावहारिक भूमिका के चलते मजदूरों ने उसे अपने हितों की रक्षा करने वाले संगठन के बतौर मानना शुरू किया और कुछेक मामलों में उससे जुड़ने की मांग की । इसके समर्थन से फ़रवरी-मार्च 1867 की पेरिस के तांबा मजदूरों की हड़ताल में पहली जीत मिली । इसके साथ ही फ़रवरी 1867 में मार्शिएन के इस्पात मजदूरों की हड़ताल, अप्रैल 1867 से फ़रवरी 1868 तक चलने वाला प्रोवेन्काल खनिज बेसिन का लंबा विवाद, 1868 के वसंत में चार्लेरोइ खनिकों की हड़ताल और जेनेवा के निर्माण मजदूरों की हड़ताल भी सफल रहे । इन सभी घटनाओं में स्थिति एक समान ही रही: दूसरे देश के मजदूरों ने हड़तालियों के समर्थन में चंदा जुटाया तथा उनके बदले में काम न करने का संकल्प किया अन्यथा वे भाड़े के औद्योगिक हत्यारे बन गए होते । इसके कारण मालिकों को हड़तालियों की अनेक मांगों पर समझौता करने के लिए मजबूर होना पड़ा । जो नगर कार्यवाही का केंद्र बने वहां इंटरनेशनल के सैकड़ों नए सदस्य भर्ती हुए । बाद में जनरल कौंसिल की एक रपट में कहा गया: ‘इंटरनेशनल वर्किंग मेनस एसोसिएशन ने लोगों को हड़ताल में नहीं धकेला, बल्कि हड़तालों ने ही मजदूरों को इंटरनेशनल वर्किंग मेनस एसोसिएशन की ओर ठेल दिया ।
इस तरह राष्ट्रीयता, भाषा और राजनीतिक संस्कृति संबंधी विविधताओं से जुड़ी हुई तमाम दिक्कतों के बावजूद इंटरनेशनल ने नाना प्रकार के संगठनों और स्वत:स्फूर्त संघर्षों के साथ एकता और संयोजन हासिल करने में सफलता पाई । इसका सबसे बड़ा गुण यह था कि इसने शुरुआती उद्देश्यों और रणनीतियों की आंशिकता से निर्णायक तौर पर परे जाकर वर्गीय एकजुटता और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की जरूरत को जाहिर कर दिया ।
1867 के बाद से ही इन लक्ष्यों को हासिल करने की सफलता से प्राप्त मजबूती तथा व्यापक सदस्यता और अधिक सक्षम संगठन के बल पर इंटरनेशनल ने समूचे यूरोपीय महाद्वीप में अग्रगति बढ़ा दी । खासकर फ़्रांस में यह गतिरोध भंग का साल रहा जहां तांबा मजदूरों की हड़ताल का वैसा ही उत्प्रेरक प्रभाव पड़ा जैसा प्रभाव इंग्लैंड में दर्जियों की हड़ताल का पड़ा था । पेरिस में सद्स्यों की संख्या 1000 के करीब पहुंच गई और ल्यों तथा विएन में सदस्य संख्या 500 के पार हो गई । भूमध्य सागर के दक्षिणी तट पर अल्जीयर्स (बहरहाल जिसमें केवल फ़्रांसिसी मजदूर थे) समेत सात नए प्रभाग स्थापित हुए । बेल्जियम में भी हड़तालों के बाद संबद्धता में बढ़ोत्तरी आई तथा इसी तरह स्विट्ज़रलैंड में भी मजदूरों की लीगों, सहकारी समितियों और राजनीतिक सोसाइटियों ने उत्साह के साथ जुड़ाव का आवेदन किया । अब इंटरनेशनल के केवल जेनेवा में 25 प्रभाग थे जिनमें जर्मन भाषी लोगों का वह प्रभाग भी था जो जर्मन संघ के मजदूरों में प्रचार के लिए आधार का काम करता था ।
लेकिन अब भी ब्रिटेन में ही इंटरनेशनल की उपस्थिति सबसे अधिक थी । 1867 के दौरान दर्जनों अन्य संगठनों की संबद्धता के चलते सदस्यता का आंकड़ा अच्छा खासा 50000 तक चला गया- ध्यान रखें कि सिर्फ़ दो साल में इसे हासिल किया गया था जबकि उस समय यूनियनों में संगठित मजदूरों की कुल तादाद लगभग 800000 रही होगी । किसी भी अन्य देश में इंटरनेशनल की सदस्यता यह स्तर कभी नहीं छू सकी (अगर आबादी के अनुपात में नहीं तो संख्या के मामले में जरूर ही) । बहरहाल 1864-67 की चढ़ान के विपरीत बाद के सालों में ब्रिटेन में एक किस्म का ठहराव रहा । इसकी ढेर सारी वजहें थीं लेकिन मुख्य वजह थी कि, जैसा हमने पहले देखा, इंटरनेशनल फ़ैक्ट्री उद्योगों या अकुशल श्रमिकों की दुनिया में पैठ नहीं बना सका । अकुशल श्रमिकों में एकमात्र अपवाद यूनाइटेड एक्सकेवेटर्स थे जिन्होंने अगस्त 1866 की हड़ताल के बाद संबद्धता ग्रहण की, जबकि उत्तरी और मध्यदेश के बड़े कारखानों में से सदस्यता लेने वाले बिरले संगठनों में से एक मेलेबल आयरनवर्कर्स था । इंटरनेशनल की आवाज न तो कोयला और सूती वस्त्र उद्योगों तक पहुंची, न ही इंजीनियरिंग के मजदूर इससे जुड़े (जिन्होंने अपने तकनीकी कौशल के चलते कभी विदेशी प्रतियोगिता का खतरा महसूस नहीं किया) । इंटरनेशनल से सबसे अधिक तादाद में निर्माण मजदूर जुड़े । 9000 सदस्यों वाली अमल्गेमेटेड सोसाइटी आफ़ कारपेंटर्स ऐंड ज्वाइनर्स के सचिव राबर्ट एपलग्राथ (1834-1924) जनरल कौंसिल के सदस्य थे और इसकी कुल सदस्यता के पांचवें हिस्से का प्रतिनिधित्व करते थे । इसके बाद दर्जी, मोची, बढ़ई, जिल्दसाज, फीता बुनकर, जाल बुनकर, जीनसाज और सिगार बनाने वाले थे- संक्षेप में ऐसे सभी व्यवसायों से जुड़े लोग जिनमें औद्योगिक क्रांति से खास बदलाव नहीं आया था । जनवरी 1867 में लंदन ट्रेड्स कौंसिल ने इंटरनेशनल के साथ सहयोग करने का फैसला किया लेकिन संबद्धता नहीं ग्रहण की । इससे जनरल कौंसिल को अहसास हो गया कि इसका विस्तार मौजूदा प्रभाव क्षेत्र के बाहर नहीं हो सकता ।
मजदूर आंदोलन के बढ़ते संस्थानीकरण ने इंटरनेशनल के जीवन की इस धीमी रफ़्तार में और भी इजाफा किया । रिफ़ार्म लीग के साथ लड़ी गई लड़ाई के चलते बने रिफ़ार्म ऐक्ट के कारण दस लाख से अधिक मजदूरों को मताधिकार मिला । इसके बाद ट्रेड यूनियनों को कानूनी दर्जा मिल गया जिससे उत्पीड़न और दमन का खतरा खत्म हुआ तथा इससे समाज में इस चौथे खम्भे की असली मौजूदगी का अहसास होने लगा । नतीजा यह निकला कि देश के परिणामवादी नेताओं ने सुधार के रास्ते पर चलना जारी रखा । मजदूर वर्ग में अपने फ़्रांसिसी भाइयों के विपरीत शासन के साथ जुड़ाव का बोध गहराता गया क्योंकि उन्होंने भविष्य की अपनी ज्यादातर आशा शांतिपूर्ण बदलाव के साथ जोड़ दी । शेष महाद्वीप में हालात सचमुच बहुत अलग थे । जर्मन संघ में मजदूरी के सवाल पर सामूहिक सौदेबाजी का सवाल ही नहीं था । बेल्जियम में हड़तालों को सरकार युद्ध की कार्यवाही मानकर कुचलती थी । हड़तालें स्विट्ज़रलैंड में तो अपवाद ही थीं जिन्हें बर्दाश्त करना स्थापित व्यवस्था के लिए मुश्किल था । फ़्रांस में घोषणा हुई थी कि 1864 से हड़तालें कानूनी हैं लेकिन आरम्भिक मजदूर यूनियनों को कठोर प्रतिबंधों के तहत ही काम करना पड़ता था ।
1867 की कांग्रेस की यही पृष्ठभूमि थी जिसमें व्यापक आधार पर निरंतर विस्तार से हासिल नई ताकत के साथ इंटरनेशनल एकत्र हुई । द टाइम्स समेत कुछ पूंजीवादी अखबारों ने इसकी कार्यवाही देखने के लिए संवाददाता भेजे । कांग्रेस 2 से 8 सितंबर तक फिर से एक स्विस नगर लूसाने में हुई । इसमें छह देशों से 64 प्रतिनिधि शामिल हुए (इनमें बेल्जियम और इटली से एक एक प्रतिनिधि भी थे) । चूंकि मार्क्स कैपिटल के प्रूफ़ देखने में व्यस्त थे इसलिए तैयारी के लिए लिखे दस्तावेजों के समय जनरल कौंसिल की बैठकों में और कांग्रेस में भी अनुपस्थित रहे । इसका असर साफ साफ महसूस किया गया जिसकी पुष्टि विभिन्न देशों में बढ़ोत्तरी की नीरस रपटों पर कांग्रेस का ध्यान केंद्रित रहने से होती है । इसके साथ ही प्रतिनिधियों की बहुसंख्या के साझेदारीवादी होने के चलते उनके पसंदीदा प्रूधोंपंथी विषयों (मसलन सहकारी आंदोलन और कर्ज का वैकल्पिक उपयोग) पर ज्यादा बातें हुईं ।
इसके अलावे लीग फ़ार पीस ऐंड फ़्रीडम, जिसका स्थापना सम्मेलन इसके तुरंत बाद होने वाला था, के अनुरोध पर युद्ध और सैन्यवाद के सवाल पर भी बातचीत हुई । बहस के दौरान ही इंटरनेशनल के सर्वाधिक सक्रिय और प्रतिभाशाली सिद्धांतकारों में से एक ब्रसेल्स के प्रतिनिधि सेजार डि पाएपे (1841-90) ने वह सूत्र प्रस्तुत किया जो बाद में युद्ध के बारे में मजदूर आंदोलन का शास्त्रीय मत बन गया कि ‘पूंजीवादी व्यवस्था में युद्ध अपरिहार्य हैं’ ।
“अगर जेनेवा (शांति) कांग्रेस के लिए मुझे अपनी भावनाएं व्यक्त करनी हों तो कहूंगा: हम भी शांति से उतनी ही मुहब्बत करते हैं जितनी आप लेकिन हम जानते हैं कि जब तक राष्ट्रीयता या देशभक्ति का सिद्धांत मौजूद है युद्ध होंगे; जब तक अलग अलग वर्ग हैं युद्ध होंगे । युद्ध महज किसी बादशाह की महात्वाकांक्षा का परिणाम नहीं होता-----युद्ध की असली वजह कुछ पूंजीपतियों के हित हैं । युद्ध आर्थिक जगत में असंतुलन का और राजनीतिक दुनिया में संतुलन के अभाव का परिणाम होते हैं ।”

अंतिम बात कि स्त्री मुक्ति के सवाल पर बहस हुई और कांग्रेस ने एक रिपोर्ट के पक्ष में मतदान किया जिसमें कहा गया था कि ‘यातायात और परिचालन के साधनों पर राजकीय स्वामित्व स्थापित करना विभिन्न देशों की कोशिशों का लक्ष्य होना चाहिए’ । इंटरनेशनल की किसी कांग्रेस में अनुमोदित यह पहली समूहवादी घोषणा थी । बहरहाल साझेदारीवादी भू-स्वामित्व के समाजीकरण के पूरी तरह से विरोध में रहे और इस सवाल पर गहराई से बहस को अगली कांग्रेस तक के लिए टाल दिया गया ।

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