Sunday, May 19, 2024

अनुवाद से परिचय

 

          

                        

सबसे पहले स्पष्ट करना जरूरी है कि हमारी जिंदगी में किताबों का प्रवेश बहुधा अनुवाद के माध्यम से होता है । बचपन में विमल मित्र की रचनाओं को जब पढ़ा तो वे अनूदित ही थीं । अलबत्ता अंग्रेजी से अनुवाद करने की कहानी थोड़ी देर से शुरू हुई । हाई स्कूल के बाद आगे की पढ़ाई के लिए बनारस आये तो अंग्रेजी अखबार देखे । भागलपुर के अँखफोड़वा कांड की अरुण सिन्हा की रपटें इंडियन एक्सप्रेस में देखीं और उनका अनुवाद करना शुरू किया बिना किसी प्रयोजन के । उसके बाद माले की क्रांतिकारी राजनीति ने जकड़ लिया । तब उसका एक अंग्रेजी मुखपत्र लिबरेशन पहले छप जाता था । साथियों को उसके लेखों का अनुवाद सुनाता था । फिर उत्तर प्रदेश के हिंदी मुखपत्र जनक्रांति के लिए उनका अनुवाद शुरू भी किया । इस काम में हमारे शिक्षक रामजतन शर्मा थे । उन्होंने हिंदी की वाक्य रचना में अंग्रेजी वाक्य का बल ले आने का ढब सिखाया । न केवल इतना बल्कि अनेक अनुवादों को दुरुस्त करना भी उनसे ही सीखा । मसलन अंग्रेजी के एक लेख का शीर्षक था- डेड लेटर्स ऐंड लिविंग सोल । इसका पहले किसी डाकतार विभाग के साथी ने अनुवाद किया था- गलत पते पर डाली गयी चिट्ठियां और जीवित आत्मा । शर्मा जी ने ही बताया कि डाक विभाग में ऐसे ही पत्रों को डेड लेटर्स कहते हैं जिनका पता सही न हो । इस तरह अनुवाद से परिचय शुरू हुआ । फिर तो नागभूषण पटनायक के अंग्रेजी भाषणों के कमल कृष्ण राय के आशु अनुवाद सुने और एकाध बार कुछ लोगों के भाषणों का किया भी ।

इस आरम्भिक परिचय को प्रगाढ़ता जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने दी । वहां आइसा के पर्चे हिंदी में लिखता जिनका प्रणय अंग्रेजी में अनुवाद करते । साथ ही जब रामेश्वर प्रसाद सांसद हुए तो कभी कभी उनको भी कुछ संसदीय कागजों का हिंदी अनुवाद सुनाना होता था । उनके सांसद आवास से ही इंडियन पीपुल्स फ़्रंट के मुखपत्र का लेखन होता था । यह काम दीपंकर करते थे । उन लेखों का भी हिंदी संस्करण के लिए अनुवाद करना होता था । इन सभी कामों को अनुवाद का प्रशिक्षण कह सकते हैं । तब तक अनुवादक जैसी किसी चाहत का पता भी नहीं था । इसी प्रशिक्षण की वजह से अनुवाद भी अधिकतर वैचारिक गद्य का किया । जोर इस बात पर देना है कि जैसे पत्रकारिता में आयी शुरुआती पीढ़ी ने पत्रकारिता की डिग्री नहीं ली थी और आज भी वह क्षेत्र नवीनता के लिए खुला रहता है उसी तरह अनुवाद में भी आने के एकाधिक मार्ग हैं । बहरहाल बाकायदे अनुवाद का काम भी इसी तरह के संयोग का परिणाम था ।

श्याम बिहारी राय ने ग्रंथशिल्पी नामक प्रकाशन खोला था । उनके यहां से अधिकतर वैचारिक लेखन के अनुवाद ही छपते थे । कुछ दोस्तों को इस काम में मुब्तिला देखकर ईर्ष्या भी होती थी । बहरहाल पहली नौकरी ऐसी जगह मिली जिसके बारे में जानकारी बहुत कम थी । उससे पहले दो चार दिन बरेली में अमर उजाला में रहा । तब शाहजहांपुर नामक उस जगह के बारे में एक समाचार देखा था ।

नियुक्ति पत्र मिलने के बाद लगा कि वहां करूंगा क्या तो राय साहब ने रवींद्रनाथ ठाकुर पर एक पतली सी किताब पकड़ा दी थी अनुवाद के लिए । वही पहला औपचारिक अनूदित काम था । राय साहब की सबसे बड़ी खूबी थी कि वे अनुवादक का नाम किताब के मुखपृष्ठ पर ही छापते थे । यह चलन अनुवादों के विदेशी प्रकाशनों तक में नहीं नजर आता । अनुवादक की ऐसी प्रतिष्ठा की वजह से ही उनके प्रकाशन के लिए अनुवाद का काम मेहनताना कम होने के बावजूद बहुतों ने किया । उनकी एक और खूबी का जिक्र जरूरी है । प्रकाश्य पुस्तक का प्रूफ़ उन्होंने कभी अनुवादक से नहीं पढ़वाया । उनका मानना था कि जिसने भी पांडुलिपि तैयार की है वह प्रूफ़ की अशुद्धि कभी नहीं पकड़ सकता क्योंकि उसकी नजर गलत को भी सही पढ़ेगी । हिंदी का कोई भी प्रकाशक इस नीति का पालन नहीं करता इसलिए भी नामचीन प्रकाशकों के प्रकाशन में बोरे भर अशुद्धि मिलना अचरज की बात नहीं ।

इस किताब और अन्य किताबों के भी अनुवाद के दौरान अंग्रेजी हिंदी शब्दकोश रखने की आदत बनी । इस क्षेत्र में फ़ादर कामिल बुल्के का कोश अब भी सर्वोत्तम है । उसमें शब्दार्थ में क्रम है जिसके कारण जिस स्तर का प्रतिशब्द इस्तेमाल करना हो उसे तय करना आसान होता है । रवींद्रनाथ ठाकुर की तोते की शिक्षा में जितने वाद्ययंत्रों का जिक्र है उन सबके लिए यथोचित हिंदी प्रतिशब्द मिल गये थे अन्यथा अंग्रेजी में अनूदित वाद्ययंत्रों का हिंदी अनुवाद मुश्किल होता । साहित्यकार के लिखे गद्य में भी श्लेष का प्रयोग मिल जाता है । उसके लिए सही प्रतिशब्द खोजना बेहद कठिन होता है । कहीं उन्होंने इसी तरह कामनवेल्थ का इस्तेमाल किया था जिसके मानी ब्रिटिश साम्राज्य की संस्था और साझा संपत्ति दोनों होता था । बहुत पुरानी बात होने से समस्या का समाधान याद नहीं लेकिन किसी भी साहित्यिक रचना या साहित्यकार के विश्लेषणात्मक गद्य के अनुवाद में ऐसी मुश्किलात आती हैं ।

इसके बाद उन्होंने जो दूसरी किताब अनुवाद के लिए भेजी वह आर्नल्ड हाउजर की कला का इतिहास दर्शन थी । उसके अनुवाद ने सबसे अधिक समय लिया । इसके लिए कला की शब्दावली से परिचय आवश्यक था । तब एक कला अध्यापक से किताबें लेकर पढ़ीं ताकि कला की हिंदी शब्दावली सीख सकूं । वह किताब किसी मराठी सज्जन की लिखी थी । उसी में प्रकाश-छाया चित्रण की तकनीक के बारे में पता चला । कला संबंधी इस तरह की पारिभाषिक शब्दावली की तरह ही जब आप किसी क्षेत्र विशेष की किताब का अनुवाद करते हैं तो उस क्षेत्र की शब्दावली से परिचय जरूरी होता है । पाठक की सुविधा के लिए ऐसी किताबों में शब्द सूची देने की वकालत की जाती है लेकिन कभी नंद किशोर आचार्य ने तर्क दिया कि अंग्रेजी अनुवादों में तो ऐसी सूची नहीं होती तबसे इस बात का कायल हूं कि अनुवाद को पढ़ते हुए अन्य किसी भी सहायता की जरूरत नहीं होनी चाहिए । उस किताब के साथ समस्या थी कि वह भी मूल जर्मन से अंग्रेजी में अनूदित थी किताब में तमाम यूरोपीय भाषाओं के उद्धरण मूल भाषा में ही थे इतालवी, फ़्रांसिसी, स्पेनी और पुर्तगाली भाषाओं के वाक्यों और कहावतों का हिंदी अनुवाद टेढ़ी खीर थी इसमें मदद मिली फ़्रंचेस्का ओरसिनी से उन्हें ऐसे सभी वाक्यांश सही उच्चारण और अर्थ हेतु लिख भेजे कमाल कि उस विदुषी ने सब लिखकर और समझाकर वापस डाक से भेजा उनके कागजात तो सुरक्षित नहीं हैं लेकिन संग्रहणीय थे इतालवी नामों में की ध्वनि अब भी जिंदा है हिंदी टंकण में भी उसकी सुविधा मुश्किल से उपलब्ध है फिर भी कोशिश करके सही नाम लिखे । इस तरह डेढ़ साल अनुवाद और छह माह सुधार के बाद पांडुलिपि तैयार हुई थी ।

संयोग से उन्हीं दिनों पुराने मित्र आलोक श्रीवास्तव पधारे । उनके पास वर्जीनिया वुल्फ़ की ए रूम आफ़ वन’स ओन थी । अनुवाद के लिए उन्होंने मुझे सौंपी । रचना साहित्यिक थी इसलिए उसके सिलसिले में अलग किस्म की मुश्किलें आयीं । उनके समाधान में जनेवि के दोस्तों से बहुत मदद मिली । उनकी शैली सबसे बड़ी समस्या थी । एक जगह उन्होंने देहाती अंग्रेजी का टुकड़ा किसी के पत्र से दिया है उसे शायद ही वैसी हिंदी में अनूदित कर सका हूंगा जो आम हिंदी से अलग हो इसी तरह एक जगह मर्दाना भाषा के उदाहरण दिये गये हैं उसका भी सही रूपांतर हो सका हो इसकी उम्मीद कम ही है स्त्री की वाक्य रचना शैली की विशेषताओं को उन्होंने स्त्री की जीवन शैली से जोड़ा है और इसके लिए शैलीगत प्रयोग किये हैं दिक्कत थी कि हिंदी अनुवाद को पाठक के लिए बोधगम्य बनाना था इसलिए स्वाभाविक तौर पर शैली में अनुस्यूत विषय का सही रूपांतर हो सका होगा इन सब चीजों का जिक्र महज अनुवाद की मुश्किलात की जानकारी के लिए

बाटमोर की समाजशास्त्र का अनुवाद करते हुए हेगेल की दार्शनिक धारणाओं से थोड़ा निपटना पड़ा था इसी तरह एंथनी ब्रेवेर के प्रसंग में अर्थशास्त्र की जटिलताओं को सुलझाने में उस विद्या के सिलचर स्थित अध्यापकों ने मदद की थी मुशीरुल हसन की किताब में इस्लाम से जुड़ी खास शब्दावली थी जिसके सिलसिले में असम विश्वविद्यालय सिलचर के अध्यापकों ने सहायता की बाटमोर की किताब में संदर्भ सूची स्वतंत्र लेख की शक्ल में थी तबसे इस सूची के निर्माण में मानक स्वरूप से तौबा कर लिया एक संदर्भ ब्रिटिश पुस्तकालय का कमांड नंबर था उसका मतलब भारतीय प्रबंधन संस्थान कलकत्ता के एक अध्यापक ने स्पष्ट किया  

इतने अनुवादों के हो जाने के बाद इसके अध्यापन का भी विश्वास पैदा हुआ इसलिए वर्धा में अनुवाद में कभी कभी अध्यापन भी करने लगा इस क्रम में अनुवाद की सामाजिक भूमिका समझ आयी और हिंदी के आरम्भिक लेखकों के अनुवादों की जरूरत भी स्पष्ट हुई अनुवाद किसी भी स्थिर संस्कृति में हलचल पैदा करने का माध्यम बन जाते हैं हमारे अपने देश में अंग्रेजों के आगमन के साथ अनुवादों की जो बाढ़ नजर आती है उसका इस नजरिये से गहन अध्ययन करने की जरूरत है ये अनुवाद एकतरफ़ा नहीं थे हिंदी के लेखक अगर अंग्रेजी से अनुवाद कर रहे थे तो अंग्रेज भी प्रचुर मात्रा में हिंदी से अनुवाद कर रहे थे यह काम पहले मुस्लिम विद्वानों ने भी किया था पूरी दुनिया में इस्लाम का प्रसार होने से अरबी में लगभग समूची दुनिया के ज्ञान का अनुवाद हुआ था इन अनुवादों की मार्फत ही यूरोप को यूनानी ज्ञान की थाती का पता चला था और यूरोपीय पुनर्जागरण की हवा बही थी इस्लाम के इस योगदान को याद रखा जाना आज और भी आवश्यक हो गया है

इसके बाद एक साल तक बेरोजगारी की जिस समय इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय में कृषि और इतिहास की अध्ययन सामग्री का अनुवाद किया इतिहास का अनुवाद हाथ से लिखता था, कृषि का अनुवाद तो सीधे टंकक को बोल देता था तब इतिहास के एक अध्यापक ने बहुत मार्के की बात बतायी थी उनका कहना था कि एग्रेरियन सोसाइटी का अनुवाद कृषक समाज कर दिया जाता है जबकि उस समाज में जमींदार भी होते थे तबसे इसका अनुवाद कृषि समाज ही करता हूं

इस बेरोजगारी के खात्मे के बाद असम के सिल्चर पहुंचा विश्वविद्यालय और नगर का परिवेश बांग्ला के सलेटी बोली से बना था वहां रहते हुए 1857 की एक स्थानीय गाथा मिली उसका नागरी लिप्यंतर और काव्यानुवाद संपन्न किया पूर्वोत्तर की भाषाओं की कविताओं के एक पतले से संग्रह का भी काव्यानुवाद किया इसके पहले वर्जीनिया वुल्फ़ ने कुछ कविताओं के उद्धरण दिये थे तो उनका भी काव्यानुवाद किया था जिसके सिलसिले में कभी एक मित्र ने कहा कि मूल और अनुवाद में छंद समान हैं इग्नू के अनुवाद में भी एकाध काव्य पंक्तियों के अनुवाद किये थे इसी साहस के बल पर उपरोक्त अनुवाद भी कर सका                                        

कभी अनुवाद के बारे में गम्भीरता से लिखना शुरू किया था उसे भी इसी लेख का हिस्सा बना लेना उचित लगा आगे वही दिया जाता है- किसी पाठ को एक भाषा से दूसरी भाषा में ले जाना अनुवाद कहलाता है । इसमें ‘पाठ’ और ‘भाषा’ के अर्थ को फैलाए बिना अनुवाद के विस्तार को समझना मुश्किल है । शाब्दिक तौर पर ‘अनुवाद’ का मतलब ‘दूसरी बार कहना’ है । अनुवाद की व्याप्ति को इसके आधार पर ही ग्रहण किया जा सकता है । यह दूसरी बार कहना भाषांतर हो सकता है जिसे आम तौर पर अनुवाद कहा जाता है, भाष्य हो सकता है और रूपांतर भी हो सकता है । अनुवाद का यदि सबसे सीमित अर्थ भाषांतर भी मानें तो इसके लिए दोनों भाषाओं (यानी स्रोत और लक्ष्य भाषा) का ज्ञान न्यूनतम आवश्यकता है लेकिन न्यूनतम ही । वैसे भी भाषा केवल व्याकरण नहीं होती । भाषा के माध्यम से समाज अपने इतिहास और संस्कृति की अभिव्यक्ति करता है । इसीलिए अनुवाद कभी एकदम नासमझ और भोला कर्म नहीं होता । उसके जरिए बहुमुखी कार्यभार पूरे किये जाते हैं । इस सिलसिले में सबसे पहली बात यह है कि अनुवादक जब अनुवाद के लिए किसी रचना का चुनाव करता है तो उसके पीछे अनेक कार होते हैं । उन कारकों की पड़ताल से अनुवादक की रुचि का पता चलता है । इसमें पहला विभाजन ज्ञानपरक लेखन और रचनात्मक लेखन के बीच होता है । किसी की रुचि साहित्यिक रचना में होती है तो किसी की ज्ञानपरक लेखन में । इसी रुचि के हिसाब से अनुवादक उस पाठ का चुनाव करता है जिसका उसे अनुवाद करना होता है ।

इसके बाद कहना है कि अनुवादक अपनी भाषा में जब दूसरी भाषा से कुछ ले आता है तो उसके आने से रासायनिक बदलाव शुरू होता है जिससे उस भाषा का अपना लेखन भी अनुवाद से प्रभावित होकर बदलने लगता है । इस तरह अनुवादक बहुधा सामाजिक बदलाव का सचेत वाहक भी बन जाता है । अनुवादक की निजी रुचि और पहल के साथ यह व्यापक भूमिका भी अभिन्न रूप से जुड़ी रहती है । इसी कारण अनुवाद का काम केवल निजी नहीं रह जाता । कई बार सरकारें भी इसमें रुचि लेती हैं और उन्हें ऐसा जिम्मेदारी के साथ करना भी चाहिए । व्यापक शिक्षण का भी यह कर्म अनिवार्य अंग होता है ।   

ऐसा व्यापक सांस्थानिक प्रयोग 1917 की रूसी क्रांति के बाद स्थापित शासन ने किया था । सोवियत संघ की समाप्ति के बाद उसके इस प्रयास के दस्तावेजी निशान भी खोजने कठिन हो गये हैं । उसकी विरासत राजकीय तौर पर किसी को न मिलने से उस महान प्रयास के इतिहास का लेखन भी लगभग असम्भव है । हिंदी में रामविलास शर्मा ने मार्क्स की पूंजी के दूसरे खंड का हिंदी अनुवाद किया था । उसका संपादन हुआ तो रामविलास जी को भाषा में बहुतेरे बदलाव दिखे जिनके बारे में उन्होंने लिखित आपत्ति दर्ज करायी थी । आपत्ति संबंधी वह पत्र अब कहीं नहीं है । अकेले इसी उदाहरण से इन अनुवादों के साथ जुड़ी प्रक्रिया को समझा जा सकता है । न केवल इन अनुवादों का संपादन होता था बल्कि इनकी बिक्री का भी विशाल और अत्यंत लोकप्रिय तंत्र था जिसके जरिये यह अनूदित, रचनात्मक  और वैचारिक, साहित्य सामान्य पाठकों तक बेहद सस्ती कीमत पर पहुंचता था । इससे ही प्रेरणा लेकर भारत सरकार ने भी एकाधिक संस्थान इस काम के लिए बनाये । इनमें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से कांट के शुद्ध बुद्धि मीमांसा का सीधे जर्मन से अनुवाद हुआ था ।

दुनिया के बहुत सारे देश अब भी अपनी साहित्यिक और सांस्कृतिक उपलब्धियों के वैश्विक प्रसार हेतु अनुवाद को प्रोत्साहित करते हैं । बहुतेरे लैटिन अमेरिकी देश और आइसलैंड जैसे छोटे देश इस क्षेत्र में प्रयासरत रहते हैं ।  इसके लिए दूसरी भाषाओं के साहित्य और लेखन के प्रति सम्मान का भाव बेहद आवश्यक है । फिलहाल जिस तरह के संकीर्ण राष्ट्रवाद का उभार है उसमें दुनिया के पैमाने पर इस तरह की आशा व्यर्थ नजर आती है ।

हमारे जैसे बहुभाषी देश के लिए तो यह उदारता देश की एकता के लिए भी जरूरी है । राष्ट्रीय महानता का झूठा गुरूर अनिवार्य तौर पर भाषाई श्रेष्ठताबोध की ओर ले जायेगा जिसकी परिणति अवश्य ही अनुवाद कर्म के क्रमिक क्षरण और एकताकारी संपर्कों के टूट जाने में होगी । बहुभाषी देश में अनुवाद कितना जरूरी है इसका पता हमें चुनावी समर में अच्छी तरह से चलता है । इस प्रक्रिया में हमें अपने देश की भाषाई भिन्नता का साक्षात्कार होता है । इस भिन्नता का आदर और अनादर करने वाले भी साफ नजर आते हैं । यह भाषाई भिन्नता केवल दक्षिण भारतीय राज्यों के ही प्रसंग में नहीं बल्कि पूर्वोत्तर भारतीय प्रांतों के मामले में भी प्रत्यक्ष है । अपने देश को ही दुनिया में सर्वश्रेष्ठ समझने वाले नादानी में अपनी भाषा को भी ऐसा ही समझने लगते हैं । यह श्रेष्ठताबोध भाषा से होकर संस्कृति, खानपान और पहनावे के मामले में भी भिन्नता के प्रति असहिष्णुता का वातावरण पैदा करता है । अनुवाद इस संकीर्णता का शमन करने में मदद तो करता ही है, अलग अलग भाषा के बोलने वालों में ऐसी पारस्परिकता पैदा करता है जिसमें वे सभी सबका दुख दर्द समझने लगते हैं और वसुधैव कुटुंबकम की भावना मूर्त होने के करीब पहुंचती है ।