Tuesday, January 31, 2012

निराला की कविता 'सरोज स्मृति' का एक अंश


ये कान्यकुब्ज कुल कुलांगार;

खाकर पत्तल में करें छेद,

इनके कर कन्या, अर्थ खेद

इस विषम बेलि में विष ही फल,

यह दग्ध मरुस्थल- नहीं सुजल ।

फिर सोचा- “मेरे पूर्वजगण

गुजरे जिस राह, वही शोभन

होगा मुझको, यह लोक- रीति

कर दूँ पूरी, गो नहीं भीति

कुछ मुझे तोड़ते गत विचार;

पर पूर्ण रूप प्राचीन भार

ढोते मैं हूँ अक्षम; निश्चय

आयेगी मुझमें नहीं विनय

उतनी जो रेखा करे पार

सौहार्द- बन्ध की, निराधार ।

वे जो जमुना के- से कछार

पद फटे बिवाई के, उधार

खाए के मुख ज्यों, पिये तेल

चमरौधे जूते से सकेल

निकले, जी लेते, घोर- गन्ध,

उन चरणों को मैं यथा अन्ध,

कल घ्राण- प्राण से रहित व्यक्ति

हो पूजूँ, ऐसी नहीं शक्ति ।

ऐसे शिव से गिरिजा- विवाह

करने की मुझको नहीं चाह ।”

निराला के इस काव्यांश की खूबसूरती को समझने के लिए समग्र निराला के साथ ही इस समूची कविता की आत्मा को समझने की जरूरत पड़ेगी । आधुनिक हिंदी कविता में निराला का अनन्य स्थान है । स्वयं छायावाद के भीतर वे सबसे कम छायावादी हैं । इसीलिए शुक्ल जी ने उनकी प्रतिभा कोबहुवस्तु स्पर्शिनीकहा है । उन्होंने तकरीबन कविता के सीमांत छू लिये थे । इस कविता में जगह जगह गद्य के टुकड़े आये हैं लेकिन वे कविता के सौंदर्य को खंडित नहीं करते उसे बढ़ाते हैं ।

उपरोक्त अंश मुहावरों से भरा हुआ है और बोलचाल की लय लिये हुए है । ध्यान रखें कि निराला बिना माँ की अपनी लड़की के लिए वर यानी अपना दामाद खोज रहे हैं और किसी भी हिंदी क्षेत्र के निवासी पिता के लिए यह सबसे त्रासद बात होती है । वर को जाति आधारित परम्परा के मुताबिक कान्यकुब्ज ही होना चाहिए । निराला स्वयं कान्यकुब्ज थे उसके बावजूद कान्यकुब्जों की यह लानत मलामत उनके मानवतावादी रूप को प्रकट करता है । दामाद खोजते हुए उन्हें जो कुछ झेलना पड़ा था उसके कारण मन में आये विचार के रूप में पहला वाक्य है । कान्यकुब्ज कुल की ये संतानें अपने कुल के लिए अंगार के समान होती हैं यानी अपने ही कुल को भस्म कर देने वाली । फिर एक मुहावरे का रचनात्मक इस्तेमालजिस पत्तल में खाते हैं उसी में छेद करते हैंजो चरम कृतघ्नता के लिए कहा जाता है । इनके हाथ में कन्या का हाथ देने से विवाह के मकसद की ही क्षति होगी । कान्यकुब्ज वंश बेलि ऐसी विषम (विचित्र) है जिसमें विष का ही फल लगता है । यह समूचा समाज जलती हुई मरुभूमि है, इसमें सुजल के दर्शन असम्भव हैं । रेगिस्तान में तो फिर भी नखलिस्तान मिल जाता है लेकिन इस समाज में कोई ढंग का मनुष्य नहीं मिल सकता ।

अनुचिंतन के रूप में दूसरा वाक्य- मेरे पूर्वजगण जिस राह गुजरे वही मुझको शोभन होगा, यह लोक रीति पूरी कर दूँ, गो (हालाँकि) गत विचार तोड़ते मुझे कुछ भीति नहीं । यह निराला की टिपिकल वाक्य संरचना है जिसके बारे में राम विलास शर्मा का कहना है कि उनके गद्य की खूबी का मूल्यांकन आगे जाकर होगा । इस एक वाक्य को निराला छंद की साढ़े चार पंक्तियों में सजाते हैं । पुन: एक वाक्य- पर मैं प्राचीन भार पूर्ण रूप ढोते अक्षम हूँ, मुझमें निश्चय उतनी विनय नहीं आयेगी जो सौहार्द बंध की रेखा निराधार पार करे ।

इसके बाद एक ऐसी प्रथा की याद निराला को आती है जो विवाह के कर्मकांड के साथ जुड़ी हुई है । प्रथा है कि लड़की का पिता विवाह में अपने दामाद के पाँव पूजता है । यहाँ याद दिलाना गैरजरूरी न होगा कि प्रेमचंद ने अपनी कहानीपाँवपुजीमें इस प्रथा का घोर विरोध किया है । निराला को कनौजिया लड़कों के पैर याद आते हैं और इस वर्णन में वर खोजने के क्रम में झेला हुआ अपमान भाषा की सृजनात्मकता में व्यंग्य बनकर फूट पड़ा है । कैसे हैं वे पैर ? उनमें लंबी लंबी बिवाइयाँ फटी हुई हैं जैसे यमुना नदी के कछार हों । याद करें कि यही निराला थे जिन्होंनेयमुना के प्रतिमें इस नदी की चित्ताकर्षक तस्वीर खींची थी लेकिन यथार्थ की कठोरता से टकराकर यमुना तो जमुना हो ही गयी उसका सौंदर्य भी बिला गया और विरूप के रूपक के बतौर उसके किनारे उभर आये । उसके बाद एक और उत्प्रेक्षा जिसे समझने में नंद किशोर नवल से गलती हुई है और जो एक कहावत को तोड़कर बनाया गया है । कहते हैं- उधार खाने वाले का मुँह कभी बंद नहीं होता । उसी तरह ये बिवाइयाँ भी हमेशा मुँह बाये रहती हैं ।

ऐसे पैर जब तेल पिये हुए चमरौधे जूते में देर तक कसकर बँधे रहने के बाद निकलते हैं तो उनसे बेहद खराब गंध निकलती है । इस प्रसंग के लिए उस समय की जीवन स्थितियों के बारे में थोड़ी जानकारी जरूरी है । पहले के लोग दूर की यात्रा पर कभी कभी निकलते थे और देर तक पैदल चल सकने के लिए जूता पहनते थे लेकिन वे जूते संसाधित चमड़े से नहीं बल्कि गाँव में मरे जानवर के छीले हुए चमड़े को सुखाकर बनाये जाते थे और कुछ दिन तक इस्तेमाल न होने पर कड़े हो जाते थे । यात्रा पर जाने से पहले उन्हें रात भर तेल में डुबोकर रख दिया जाता था ताकि सुबह तक मुलायम हो जाएँ । शादी के लिए भी दूर तक जाना पड़ता था इसलिए निराला की कल्पना में ऐसा दामाद उभरता है जो ऐसा जूता पहनकर आया है और उसके पैर निराला को ससुर होने के कारण पूजने पड़ेंगे । उन्हें इस कल्पना से ही लगता है कि जैसे प्राण निकल जायेंगे । वे ऐसे व्यक्ति होकर, जिसे सुगंध से पाला ही न पड़ा हो, उन पैरों को पूजने की शक्ति अपने भीतर नहीं पाते । निराला यहाँ लोक पूजक के बतौर नहीं बल्कि लोक की रुचि के परिष्कार की वकालत करते दिखाई देते हैं ।

अंतिम दो पंक्तियाँ हमारे सामने फिर से स्त्रियों में प्रचलित एक दुखद प्रसंग की याद दिलाती हैं । वर के रूप में पार्वती के लिए शिव को स्त्री मन कभी स्वीकार नहीं कर सका । स्त्री का यह दुख विवाह संबंधी उनके गीतों में जीवित है । हिंदी के महान कवि तुलसीदास इसे जानते थे और उनकी मशहूर पंक्ति ‘कत बिधि नारि सृजी जग माहीं, पराधीन सपनेहु सुख नाहीं ।’ असल में पार्वती की माँ मैना का चीत्कार है । मशहूर लोक गायिका शारदा सिन्हा की आवाज में एक लोक गीत में मैना कहती हैं ‘शिव से गौरा ना बियाहब हम जहरवा खइबे ना ।’ इस तरह यह अंश निराला की काव्य क्षमता का परिचायक तो है ही, उनकी सामाजिक चेतना का भी पता देता है । समूची कविता में ही जिस तरह गद्य और कविता की आवाजाही है उसका सबसे बेहतरीन प्रतिनिधित्व इस टुकड़े में हुआ है । याद रखें कि यह कविता पुत्री की मृत्यु की शोकगाथा है और इस नाते संभवत: अकेली कविता होगी जिसमें शोक के साथ हास्य को मिलाया गया है ।

10 comments:

  1. मैं बार बार यह व्याख्या पढ़ने यहाँ आता हूँ..

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  2. Sir communists Dharam ko nahi mante ya God ko bhi nahi

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  3. Bhut sahi par jab me 10
    Class me tha to teacher nr btsya ta ki kanya libjz brahmnoa ke loye use kiya gya he kyoki unki jitni VI sewa karo wo ulta namhi rkhate he .krpya karke eska Puri byakya btaeye.dhanyabad

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  4. कान्यकुब्ज ब्राह्मण के नाम पर कलंक है
    उसके हृदय में अन्य समाज के लिए घृणा है
    ऐसे लोगों को हिंदू परंपरा के अनुसार अति पिछड़ी में भी महा अति पिछड़ी जाति का दर्जा देना चाहिए

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    1. ब्राह्मण जाति ही कलंक है, जिसने हमेशा से ही दूसरों को झूठी बातें बताकर बहलाया है, बेवकूफ बनाया है

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  5. तथ्यात्मक जानकारी उपलब्ध करवाने के लिये आभार।

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  6. कॉलेज छोड़े ईतने दिनों के बाद भी यह रचना आज भी वैसी ही नूतन लगती है जैसी उन दिनों में थी।

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