Wednesday, September 15, 2021

स्थापत्य में फ़ासीवाद

 

               

                                        

सुरेश प्रताप की किताब ‘उड़ता बनारस’ हमसे वर्तमान शासन के कुछ कारनामों को गहरी निगाह से देखने की मांग करती है । पिछले लोकसभा चुनाव में बनारस की संसदीय सीट को जीतना प्रधानमंत्री के लिए बहुत आसान नहीं रह गया था । इसके लिए एक प्रत्याशी का पर्चा खारिज करवाना पड़ा और प्रचारकों की भारी फौज का प्रबंध समूचे मंत्रिमंडल को लगाकर और गृहप्रांत से कार्यकर्ता मंगाकर करना पड़ा था । इन सबके बावजूद हालत खस्ता होने की वजह बनारस के पारम्परिक स्थापत्य के साथ छेड़छाड़ थी । इस छेड़छाड़ का विरोध स्थानीय आबादी के एक हिस्से ने किया था । 

हो सकता है कुछ लोगों को स्मरण हो कि इसी तरह अयोध्या में ढेर सारे मंदिर तोड़े गये थे । इस बार जमीन की खरीद बिक्री का घपला सुर्खियों में रहा । हाल में सूरत में भी एक मन्दिर तोड़ने की खबर आयी है । अचरज कि मन्दिरों को निर्लज्ज भाव से तोड़ने वाली भारतीय जनता पार्टी अपने आपको हिन्दू हितैषी पार्टी कहती है । कहने की जरूरत नहीं कि भाजपा और उसकी मातृसंस्था का हिंदू धर्म की किसी परम्परा से कोई लेना देना नहीं है । उनकी समूची सोच और आचरण में धार्मिकता का रंच मात्र स्पर्श भी नहीं । उनके हाथ हिन्दू धर्म की दशा देखकर तो कबीरदास की कविता ‘ठाढ़ा सिंह चरावे गाई’ चरितार्थ होती नजर आती है । धर्म के साथ उनका यह आचरण अकारण नहीं है । इसके मूल में आर्थिक न्यस्त स्वार्थ देखे जा सकते हैं । इसे लोकप्रिय भाषा में धर्म का धंधा भी कहा जा सकता है जिसमें धर्म के मुकाबले धंधे की प्रमुखता होती है । वर्तमान शासक समुदाय इसे छिपाता भी नहीं है । खुलकर वे बताते हैं कि टूरिस्टों को आकर्षित करने के लिए वे ऐसा कर रहे हैं । इस तरह विकास नये चरण में पहुंच गया है जहां देश के निवासियों की सुविधा से अधिक ध्यान विदेशी टूरिस्टों का रखा जाना है ।

बनारस में इस किस्म के विकास के लिए पक्कामहाल के जिन भी घरों को तोड़ने के लिए खरीदा गया या बिना खरीदे धमकाकर कब्जा कर लिया गया या घर के बगल में गहरा गड्ढा खोदकर गिरा दिया गया उनके लिए व्यावसायिक और व्यापारिक हितों का हवाला दिया गया । बनारस का ऐसा बुनियादी रूपांतरण करने के उपरांत जिस ढांचे को खड़ा किया जाना है उसका नक्शा जिस संस्था ने तैयार किया वह वही संस्था है जिसने गुजरात दंगों में मटियामेट कर दी गयी मस्जिदों, मकबरों और अन्य इस्लामी इमारतों की जगह पर बनने वाले स्थापत्य का नक्शा तैयार किया था । अचरज नहीं कि यही संस्था सेंट्रल विस्ता का भी नक्शा तैयार करने के लिए जिम्मेदार है । सबसे बड़ी बात कि इस परियोजना के लिए एक स्वतंत्र निकाय का गठन किया गया जो नगर की अन्य संस्थाओं के प्रति जवाबदेह ही नहीं है । इसीलिए कोई बताने को न तो तैयार है, न ही जानता है कि इस परियोजना का असली स्वरूप क्या है । मकान ढहाये जा रहे हैं और स्थानीय लोगों को पता भी नहीं कि अगला नम्बर किसका है ।   

इस सरकार के प्रत्येक कदम के साथ गोपनीयता अनिवार्य रूप से जुड़ी रहती है । नोटबंदी का फैसला किसने लिया इसके बारे में कोई नहीं जानता । बनारस में एक फ़्लाइ ओवर गिरने से बहुतेरे लोगों की जान चली गयी थी । उस निर्माण का ठेका किसको दिया गया था, यह भी रहस्य ही रह गया । प्रधानमंत्री रास्ते में अचानक उतरकर पाकिस्तान में नवाज़ शरीफ़ से मिलने किसलिए गये, पता ही नहीं लगा । प्रधानमंत्री राहत कोष के रहते हुए भी पी एम केयर फ़ंड बनाने की जरूरत आखिर पड़ी क्यों इसके बारे में हवा को भी कुछ न मालूम होगा! चुनावी चंदे की व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के लिए जो एलेक्टोरल बांड लाया गया उसके बारे में सरकार को तो सब कुछ पता है यानी उसे पता है कि विपक्षी दलों को कौन चंदा दे रहा है लेकिन सरकार पर काबिज पार्टी ने कितना धन लुटेरों से हासिल किया इसकी जानकारी आम जनता को नहीं हो सकती । सबसे हालिया प्रकरण व्यापक जासूसी के लिए प्रयुक्त पेगासस नामक उपकरण के इस्तेमाल से जुड़ा हुआ है जिसके बारे में सरकार सर्वोच्च न्यायालय तक को सही बात बताने के लिए राजी नहीं है । लगता है जैसे धोखेबाजों का कोई गिरोह सत्ता पर काबिज हो और अपने पापों का भंडाफोड़ होने से डरा हो या घमंड में इतना चूर हो कि पूछने वालों को गुस्ताख समझता हो ।         

इस पहलू के साथ ही एक और बात जुड़ी हुई है । सरकार का नये संसद भवन के प्रति सनक भरा अनुराग बहुतों की समझ से परे है । इसे स्थापत्य के साथ विचारधारा के संबंध के आधार पर समझा जा सकता है । आम तौर पर सत्ता अपनी विचारधारात्मक मौजूदगी को स्थायित्व प्रदान करने के लिए स्थापत्य का सहारा लिया करती है । मंदिर, किले, मकबरे या मीनारें केवल कंकड़ पत्थर के ढांचे नहीं हुआ करते, वे अपनी समूची बनावट और बरताव के रूप में किसी न किसी विचार का व्यापक सामाजिक संप्रेषण करते हैं । तभी प्रत्येक शासक इनके बनाने और रखरखाव के मामले में इतनी रुचि लेता है । किस्सा कोताह कि बनारस या नये संसद भवन के रूप में और उनके बनाने की समूची प्रक्रिया में जो भी नजर आ रहा है उसे ध्यान से देखना चाहिए क्योंकि उससे फ़ासीवादी विचार की झलक मिलती है । इस विचार में केवल हिंदू धर्म को खोजना नासमझी होगी । इसके साथ गहराई से पूंजी जुड़ी है । इसलिए भी इसे हिंदुत्व का नाम दिया गया जो हिंदू धर्म से भिन्न किस्म की चीज है । जिस तरह इस्लाम से नये कट्टर तत्वों को अलगाने के लिए उसे राजनीतिक इस्लाम कहा जाता है उसी तरह हिंदू से हिंदुत्व अलग है । कुछ पहले तक हिंदू धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल की बात की जाती थी लेकिन इस समय तो शुद्ध रूप से देशी-विदेशी पूंजी की ताबेदारी का रिश्ता धर्म की आड़ में छिपाया जा रहा है ।

लेखक खुद स्थानीय पत्रकार रहे हैं इसलिए उनकी प्रस्तुति में रपट जैसी निष्पक्षता है । उन्होंने सभाओं, गोष्ठियों, जलसों, जुलूसों और विज्ञपतियों के हवाले से अपनी बात कही है । अपनी राय उन्होंने कहीं व्यक्त नहीं की है । पत्रकार होने से ही तथ्यों की सहज संवेदनशील प्रस्तुति पर भी उनको महारत हासिल है । बनारस की गलियों और घाटों, उसकी मस्ती और उसके आकर्षण को अपनी भौगोलिक जानकारी के साथ लेखक ने प्रस्तुत किया है । सदियों पुरानी बनारस की इस संस्कृति के साथ तुलसी, कबीर और रैदास का अभिन्न रिश्ता रहा है । इन सबकी रूढ़िभंजकता का प्रमाण देने की जरूरत नहीं । भक्ति के आवरण में उपजे उस विद्रोह की छाप बनारस की विशेषता है । इसी जीवन के आकर्षण में तमाम विदेशी बनारस आते हैं और उनमें से अनेक यहीं बस जाते हैं । बनारस की संकरी गलियों में समूचा जीवन धड़कता है । लेखक ने बताया है कि इनकी खास संरचना के कारण गलियों में तापमान सहनीय बना रहता है । फ़ासीवादी दिमाग को यह टेढ़ी बात समझ नहीं आती । उसे लगता है कि विदेशी टूरिस्ट तभी आयेंगे जब उन्हें यहां अमेरिका नजर आये । वे आयेंगे तो विदेशी मुद्रा आयेगी । विदेशी मुद्रा के बिना देश की औकात कुछ नहीं । इसी सोच के साथ प्रशस्त विश्वनाथ कारीडोर और गंगा पाथवे के निर्माण का नक्शा तैयार किया गया । समझ नहीं आता कि अगर कोई बनारस आयेगा तो वहां बनारस खोजेगा या अमेरिका ही चाहेगा । विश्वनाथ कारीडोर और गंगा पाथवे तो फिर भी समझ आता है लेकिन गंगा को भी गहरा करने का उद्यम इतना खब्ती है कि उसकी धारा के पेटे से बालू निकालकर पानी के ही भीतर किनारे एकत्र किया गया ताकि बड़ी जहाजों के चलने लायक गहराई तात्कालिक रूप से पैदा हो । बहते पानी में ऐसा करने की सोच शुद्ध नौकरशाहाना दिमाग से ही पैदा हो सकती है जिसके लिए प्रदर्शन का ही अर्थ हो, उपयोग की दीर्घकालीन योजना की रत्ती भर भी चिंता न हो ।  

तथाकथित विकास का यह हमला इतना जोरदार है कि हिंदू धर्म के पारम्परिक मंचों की ओर से भी विरोध शुरू हुआ है । असल में धर्म का यह कारपोरेटी स्वरूप धार्मिकों के लिए भी अबूझ है । लेखक ने इस तरह के विरोध को किताब में स्वर दिया है । इस विरोध की अगुआई स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने की । स्थानीय लोगों ने इस प्रचंड तोड़फोड़ की काट के लिए बनारस के पारम्परिक स्वरूप को धरोहर का दर्जा देने की मांग उठायी ताकि धरोहर के संरक्षण के तर्क से लोगों के रिहायशी मकान बच सकें । शायद वे सत्ता की वर्तमान नरभक्षी भूख को आंकने में नाकामयाब रहे जिसमें मकान तो क्या, हवाई अड्डे, सड़क और लाल किला जैसे लाभ देने वाली धरोहर भी बिक रही है । इस रथ के क्रूर संचालन के उत्साह में आम लोगों और उनकी जीवन पद्धति की बलि होनी तय है । सत्ताधीशों को किसी भी व्यक्ति की चीख सुनायी नहीं देगी ।    

प्रधानमंत्री को संसद में भेजने वाले इस नगर को उन्होंने अपनी सौंद्रर्याभिरुचि की प्रयोगशाला बना डाला है । उनकी अभिरुचि के सबूत तमाम धरोहरों और कमाऊ जगहों को पूंजीपतियों के हाथ गिरवी रखने के उन्माद में निहित हैं । नवउदारवादी सौंदर्यबोध को हम पूंजी की आक्रामकता के अनुरूप ढलता हुआ देख रहे हैं । इसमें नव धनिकों के लिए ही सब कुछ उपलब्ध होगा । सड़कें उनकी कारों के चलने लायक होंगी, सभी आवास होटल होंगे और संस्कृति को लाभ देने की क्षमता से तौला जायेगा । अचरज नहीं कि इस परियोजना में बनारस की मशहूर कारमाइकेल लाइब्रेरी, गोयनका पुस्तकालय, गोयनका छात्रावास तथा एक वृद्ध आश्रम को भी चार सौ घरों के साथ जमींदोज किया जाना है । होटल, माल और हाइवे ही नये समय का आख्यान लिखेंगे । स्वाभाविक रूप से उनके साथ मुंद्रा बंदरगाह से आयी हेरोइन भी रहेगी ।    

जिन मार्मिक कहानियों को लेखक ने दर्ज किया है उनमें 87 वर्षीय केदारनाथ व्यास की व्यथा कथा सबसे गहरी है । इस बुजुर्ग का मकान गिराने के लिए नींव के साथ गहरा गड्ढा खोद दिया गया और उसमें पानी भर दिया गया । दीवारों में दरारें पड़ी और पूरा मकान भहराकर गिर पड़ा । मजबूरन उन्हें किराये के मकान में जाना पड़ा । जब वे प्रधानमंत्री के जन्मदिन के अवसर पर उनके वाराणसी आगमन के समय धरने पर बैठने को उतारू हुए तो प्रशासन ने 48 घंटे का समय मांगा । इससे भी साबित हुआ कि कोई निश्चित योजना बनाये बिना ही मकानात तोड़ने की शुरुआत कर दी गयी । इस विध्वंस का शिकार न केवल सामान्य जन बल्कि उनकी ही पार्टी के सबसे लम्बे समय तक विधायक रहे श्यामदेव रायचौधरी भी हुए और उन्हें भी प्रधानमंत्री ने कोई आश्वासन दिया । सभी पुराने नेताओं की तरह वे भी इस आश्वासन के शिकार बने रहे और सत्ता तक पहुंच थैलीशाहों की बन गयी । कहना न होगा कि थैलीशाहों के हाथ में अर्थतंत्र और राजनीति के साथ समूचा देश भी जा रहा है । किताब हमारे सामने वर्तमान सत्ता के कारनामों का एक खास पहलू पुरजोर तरीके से उजागर करती है ।                           


Tuesday, September 14, 2021

ज्ञानरंजन और ‘पहल’

 

              

                                      

ईमानदारी से कहूं तो ज्ञान जी से पहले ‘पहल’ से परिचय हुआ । उच्च शिक्षा के लिए बनारस आया तो उम्र बहुत नहीं थी लेकिन संगत अच्छी होने से तमाम चीजों से परिचिति कुछ जल्दी ही हो गयी । बड़े भाई अवधेश प्रधान की मार्फ़त तीसरी धारा के वाम से जुड़ाव हुआ । उनका क्षेत्र सांस्कृतिक था और ढेर सारे संयोगों के चलते मैं भी हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी हुआ सो वही अपना भी दायरा हुआ । हमारे बीच प्रलेस से जुड़े लोगों के बारे में बहुत बेहतर राय नहीं थी । बताने की जरूरत नहीं कि इंदिरा गांधी के जमाने में आपातकाल का समर्थन करने और कुछ मामलों में मुखबिरी करने की बातें भी उनके साथ जुड़ी बतायी जाती थीं । काशीनाथ सिंह का मशहूर संस्मरण पढ़कर इस पत्रिका के साथ जुड़े भावों की जानकारी मिली । मेरे कुछ मित्रों के वे शोध निर्देशक रहे । मेरे भी अध्यापक थे । बाद को दिल्ली की एक मुलाकात में उन्होंने खुद के प्रलेस के मुकाबले तीसरी धारा के साथ नजदीकी की बात बतायी थी ।

तब कविता लिखने का शौक हुआ करता था सो स्नातकोत्तर के अंतिम वर्ष में कविता भेजी । लिफ़ाफ़े में वापस लौट आयीं । इसका कोई गिला कभी नहीं रहा । मुलाकातें जब शुरू हुईं तो कभी जिक्र भी नहीं हुआ । स्थापित मानकों से उनके विद्रोह का अंदाजा तब हुआ जब देखा कि उनकी पत्रिका का पंजीकरण भी नहीं था । इसके बावजूद उस समय की रचनात्मकता का जैसा प्रतिनिधित्व इस पत्रिका में था वैसा ‘आलोचना’ में भी नहीं था । उसके परम्पराभंजक होने के चलते नामवर सिंह भी सहज नहीं रहे जबकि उनकी षष्टिपूर्ति के अवसर पर विशेषांक छापा गया था । बहरहाल जब दूधनाथ सिंह ने उनके व्यक्तित्व में मठाधीशी का उल्लेख किया तब तक ज्ञानरंजन से परिचय हो चुका था । स्वतंत्र सत्ता केंद्र बनाने की इस कार्यवाही को स्थापित मठों के समक्ष समर्पण से बेहतर मैंने माना ।

दिल्ली आने के बाद ज्ञान जी से मुलाकातें कुछ अधिक होने लगीं । आग्नेय जी की पुत्री छात्रावास में मेरे कमरे के ठीक नीचे रहती थी । पत्नी से उसकी मित्रता भी हो गयी थी । बाद में कैंसर से उसके देहावसान की दुखद सूचना भी मिली । उसके नाते से आग्नेय जी के साथ मेल मिलाप शुरू हुआ । वे पहल के संपादक मंडल में थे । उनके कहने से पचासवें अंक की समीक्षा भी लिखी थी । बनारस से ही कविता में गोरख पांडे के प्रति दीवानगी लेकर आये थे । पत्रिका के किसी काव्य विशेषांक में उनका जिक्र तक नहीं था । इस बात का उल्लेख हिंदी कविता की अभिजात परम्परा के साथ उनकी सहमति के बतौर किया । उसके बाद किसी अंक के संपादकीय में गोरख की कविता को मुखपृष्ठ पर छापने का जिक्र ज्ञान जी ने किया । धारणा यह बनी कि वे पहल को सचेत रूप से विपथगामी बनाये रखना चाहते हैं और इस मामले में किसी कमी की आलोचना का बुरा नहीं मानते ।

भटकने की थोड़ी आजादी लेते हुए आग्नेय जी के प्रसंग से कुछ बातों का जिक्र जरूरी है । इसे दर्ज कहीं और होना चाहिए था लेकिन भूल जाने से यहीं लिख डालना बहुत बुरा न होगा । कमरे पर हाल ही में गुजरे साथी बृज बिहारी पांडे आया करते थे । उनसे बातचीत के दौरान आग्नेय जी ने सभी लेखक संगठनों की एकता की भोली इच्छा जाहिर की । पांडे जी ने कहा कि राजनीतिक पार्टी तो फिर भी अपनी पुरानी अवस्थिति को आसानी से सुधार ले सकती है लेकिन लेखकों के लिए खुद के लिखे को मिटाकर नयी बात कहना लगभग असम्भव होता है । इसलिए राजनीतिक पर्टियों के लिए एकता जितनी आसान है उसके मुकाबले संस्कृति और लेखन के क्षेत्र में अधिक मुश्किल है । संस्कृति के मामले में उसकी इस विशेषता की संवदनशील और वस्तुगत परख पर तब भी गर्व हुआ था और आज भी कायम है ।

आग्नेय जी और ज्ञानरंजन में काफी अंतर था । आग्नेय जी संस्थानों के कपटतंत्र से न केवल वाकिफ़ थे बल्कि उसका गाहे ब गाहे इस्तेमाल भी करते थे । इलाहाबाद में अध्यापन हेतु साक्षात्कार था , उन्होंने गोविंदचंद्र पांडे से अपनी नजदीकी की बात मुझे बतायी । मेरा मुख पर्याप्त खुला हुआ था इसलिए लाभ न उठा सका । उनके मुकाबले ज्ञानरंजन मानो इस दुनिया से अपरिचित लगते थे । वैसे कुछ लोग उन पर भी निष्णात होने का संदेह व्यक्त करते हैं लेकिन जितना अनुभव मेरा है उसके आधार पर कह सकता हूं कि संस्थानों के समानांतर की सत्ता निर्मित करना उन्हें पसंद था । अब तो पत्रिका बंद हो गयी है अन्यथा ए पी आई और केयर लिस्ट की क्षुद्रता का मुकाबला कैसे कर पाते! जिस पत्रिका का पंजीकरण भी नहीं था उसमें प्रकाशित होना गौरव की बात मानी जाती थी । आज जिस निर्लज्ज घमंड का प्रदर्शन खुलेआम हो रहा है उस समय इसकी कल्पना कठिन है कि कभी पहल में प्रकाशित होने के लिए तमाम लेखक लालायित रहते थे । स्थापित लोगों को दरकिनार करके साहस के साथ ज्ञान जी यह अवसर नितांत नये और अनजान लोगों को देते थे । इस किस्म की तमाम किस्से मेरे जाने हुए हैं । यह गौरव ज्ञानरंजन ने मुझे भी प्रदान किया इसके लिए हमेशा उनका शुक्रगुजार रहूंगा । कविता तो लौट आयी थी लेकिन बाद में लेख और एक पुस्तिका भी उन्होंने छापी । जो लेख पहली बार छापा उसका संबंध वर्धा से है ।

दिल्ली में पढ़ते हुए आइसा में सक्रिय था । समय सोवियत संघ के पतन के बाद का था । रणधीर सिंह को छोड़कर कोई भी अपनी प्रतिबद्धता घोषित करने में लज्जा का अनुभव करता था । उत्तर आधुनिकता ने मार्क्सवाद के साथ खड़े होने की असुविधा उठाये बिना क्रांतिकारी मुद्रा प्रदर्शित करने की छूट दे रखी थी । हिंदी में नामवर सिंह वैसे भी प्रतिबद्धता के मुकाबले पश्चिमी साहित्य सिद्धांतो के प्रचलन का अनुगमन करने के लिए जाने जाते थे । एक जमाने में वे शिक्षण संस्थानों में स्थापित विद्वानों के समानांतर तीक्ष्ण विश्लेषण के लिए विद्यार्थियों में लोकप्रिय थे । दुर्भाग्य से बाद में वे खुद ही संस्थान बन गये । ऐसे में उनके या हमारे किसी अध्यापक के पास न जाने वाले ज्ञानरंजन हमें पसंद आते और उनकी यह प्रतिसत्ता हमें आकर्षित करती । जो माहौल था उसमें आग्नेय जी मार्क्सवाद के बारे में संशयालु हो चले थे । ज्ञानरंजन ने पहल की ओर से एजाज़ अहमद का सार्वजनिक व्याख्यान मार्क्सवाद की प्रासंगिकता पर आयोजित किया तो उनके साहस से लगाव हो आया । व्याख्यान को पुस्तिका की तरह छपाकर उन्होंने मुफ़्त वितरित किया था । उस कार्यक्रम में जो हो सकता था समस्त सहयोग किया । पुरखा नहीं सहधर्मी की तरह महसूस हुए । इसी तरह उस समय हम प्रसन्न कुमार चौधरी की लम्बी कविता ‘सृष्टि चक्र’ के नशे में थे । आग्नेय जी को कविता जमी नहीं थी । ज्ञानरंजन ने सम्पर्क तलाशना चाहा ताकि उनकी कोई अन्य कविता मंगा सकें ।       

दिल्ली छोड़कर अध्यापन के काम में पहले शाहजहांपुर के एक कस्बे में पांच साल रहा । उस समय इस पत्रिका की खास खबर नहीं रही । हालांकि वहां रहते जो डायरी लिखी उसे बाद में उन्होंने छापा । अपूर्वानंद को एक अनजान आदमी की डायरी छापना विचित्र लगा था । इसके बाद वर्धा गया तो उनसे पत्र व्यवहार शुरू हुआ । परेशान तो रहा लेकिन विश्वविद्यालय को देखता परखता भी रहा । उनसे बात की तो उन्हें यह अनुभव मजेदार लगा और लिखने को कहा । मैंने संस्था छूट जाने के बाद लिखने का वादा किया । संयोग से ऐसा जल्दी ही हो गया । दिल्ली आकर बेकारी करते हुए उसे मजे ले लेकर लिखा । आनंद में लम्बा हो गया था । काट छांटकर उन्होंने कस दिया और छापा । इससे पुरुषोत्तम भी नाराज हो गये । संस्थान के विरुद्ध ज्ञानरंजन की प्रतिबद्धता स्पृहणीय है । पहल को उन्होंने इस दुर्धर्ष दायित्व के लिए बहुत अच्छी तरह इस्तेमाल किया । कोई भी संस्थान अपनी प्रकृति से ही वितृष्णा को जन्म देता है । इस भाव को सार्वजनिक जगह देना सबके बूते की बात नहीं होती । पहल ने इस प्रसंग में ऐतिहासिक भूमिका निभायी है । हिंदी में पुरस्कारों की निर्लज्ज व्यापकता को तोड़ पाना तो सम्भव न हुआ लेकिन पहल सम्मान के जरिये उन्होंने एक दूसरे किस्म के आयोजन की बुनियाद डालनी चाही । शाहजहांपुर में पता चला कि स्थानीय कथाकार हृदयेश को भी यह सम्मान मिला था ।           

दूधनाथ सिंह ने उनको नकारात्मक भाव से सांवला ग्रह कहा था । सचमुच उनमें विद्रोह जनित प्रचंड आकर्षण है । दूधनाथ जी ने उसी संस्मरण में पंत की कविता और ज्ञानरंजन की कहानियों में समानता दिखाते हुए कहा था कि चमकदार शब्दों का सीमित भंडार दोनों की सीमा है । इसे महज शैली के प्रति आकर्षण से सावधान करने के लिए चेतावनी माना जाये तो उचित है । पहल निकालने के बाद उनकी कहानियों के बंद हो जाने का सम्भावित कारण तलाशते हुए दूधनाथ जी ने यह बात लिखी थी । मुझे लगता है कि उनकी कहानियों में ठहराव की वजह शिल्प के क्षेत्र में कोई नयापन न होना नहीं था, बल्कि उनकी कहानियों के कथ्य में परम्परा के प्रति जो विकट विद्रोह है उसी की अभिव्यक्ति के नये माध्यम की सफलता में इसे निहित होना चाहिए । पहल के जरिये जो कुछ उन्होंने इतने लम्बे समय तक किया उसे उनकी कहानियों का विस्तार समझने से उनके सकर्मक जीवन की वैचारिक एकसूत्रता स्पष्ट होगी ।

सिलचर रहते डायरीनुमा कुछ संक्षिप्त लिखा था । भेजा तो उन्होंने छापा । विस्तृत को शायद उन्हीं के सुझाव पर प्रियंवद ने मंगाया और अकार में छापा । एक काव्य संग्रह से चुनिंदा कविताओं के हिंदी अनुवाद भेजे । उसे पुस्तिका के रूप में छापा । वहां रहते लगातार पहल के अंक डाक से मिलते रहे । इनमें बलराज साहनी के किसी लम्बे लेख या व्याख्यान की पुस्तिका की याद है जिसमें अंग्रेजी राज की भाषा नीति के बारे में बेहद महत्व की बातें खुद की भाषाई यात्रा के बहाने कही गयी थीं । ध्यान दिया कि विचित्र और नये के प्रति उनमें दुर्निवार आकर्षण है । पत्रिका में कार्टूनों को प्रमुखता से प्रकाशित करने का साहस वे ही जुटा सकते थे । इन कार्टूनों के जरिये उन्होंने हिंदी साहित्य की बनती नयी दुनिया की बेतरह खिल्ली निडरता के साथ उड़ायी ।

वापस दिल्ली आने के बाद भी पहल के अंक डाक से आते रहे । इतने सालों तक बाहर रहने से बहुत कुछ छूट जाने का क्षोभ मन में था । ताजा मामलात की जानकारी लेने के लिए सोवियत संघ के पतन के बाद की वैचारिकी के साथ जान पहचान बढ़ाना शुरू किया तो फिर ज्ञानरंजन और पहल की याद आयी । एक पुस्तकसूचीनुमा बनाकर भेजा । उसे भी उन्होंने छापा । आगे के समस्त काम के बीज उसी में थे । बाद के अंकों में लिखने की इच्छा रही लेकिन लिख न सका । जब 125वें  अंक के अंतिम अंक होने की घोषणा हुई तो उसे कहकर मंगाया । इतना लम्बा सफर जिसमें न केवल ढेर सारे अंक बल्कि पुस्तिका और सम्मान । इस थाती को बाकायदे सबके लिए सुलभ बनाने की कोशिश होनी चाहिए । सूचना के मुताबिक प्रियंवद चिट्ठियों के संग्रह का संपादन कर रहे हैं । कर्मेंदु शिशिर शोधागार में भी शायद बहुत कुछ सुरक्षित है । समूचे हिंदी समाज को भविष्य के लिए इस खजाने को इस्तेमाल करने लायक हाल में सहेजकर रखना होगा ।

पहल का नाम पहला से निकला है । इस अर्थ में इस पर पश्चिमी अवांगार्द की धारणा का असर है । तमाम रचनाकारों ने सोचा था कि समाज में बदलाव लाने के लिए उसका अग्रदूत बनना होगा । लगभग सभी कला आंदोलनों पर इस सोच की छाप मिलेगी । भारत में कला में तो नहीं लेकिन साहित्य पर इसका असर काफी था । रवींद्रनाथ ठाकुर के जदि तोमार डाक से लेकर अज्ञेय की उड़ चल हारिल तक उसी धारणा का अनुवाद प्रतीत होता है । यह सोच साहित्य और कला की दुनिया के भीतर रचनाकार की संवेदनशीलता का सबूत थी । पहल पत्रिका का तो सब कुछ रचनात्मक था । मुखपृष्ठ के रेखांकन से लेकर लेखक परिचय तक । पत्रों को भी छापने में वे मौलिक सूझ का परिचय देते थे । मेरे सहपाठी देवेंद्र चौबे की रचना के बतौर उनका पत्र छापा जिसमें जे एन यू के हालात का जिक्र था । इस तरह पाठकों को उस विश्वविद्यालय पर हुए हमले का आंखों देखा जैसा हाल पढ़ने को मिल गया । सोशल मीडिया के इस जमाने में संपादक की तानाशाही के अंत की खुलकर तारीफ होती है लेकिन यह अंत वैसा ही शोकाकुल करने वाला अंत है जैसे मशीनी उत्पादन ने मौलिकता का अंत कर दिया । केवल संपादन किसी भी रचनात्मक और कलात्मक सृजन से कमतर दायित्व नहीं होता इसे पहल के जरिये ज्ञान जी ने साबित कर दिया । आशा है वे खुद भी उसे सर्वसुलभ बनाये जाने की किसी योजना पर चुपचाप काम कर रहे होंगे । जैसे कभी उन्होंने पहल निकालने की सूचना देकर अपने मित्रों को चौंकाया था उसी तरह इस दायित्व का भी निर्वहन करके वे हिंदी समाज को उपकृत करेंगे । आखिर यह पत्रिका उनके साथ आंगिक रूप से जुड़ी रही है ।                                               

Saturday, September 4, 2021

भविष्य के समाज की ताबीज

 

          

                               

नहीं जानता कि महान व्यक्ति किस तरह के होते हैं लेकिन कामरेड बृजबिहारी पांडे बिना शक महान थे । उनका अहैतुक स्नेह मुझे समय समय पर मिलता रहा है । इसलिए भी उनका निधन निजी क्षति की तरह महसूस हो रहा है । उनके असमय निधन से बहुतेरे लोगों के जीवन में भारी शून्य पैदा हो गया है । उनकी दैहिक उपस्थिति मात्र के चलते क्षुद्र विषयों की चिंता भी करने में लज्जा का अनुभव होता था । किसी भी किस्म के दिमागी खलल की हालत में उन्हें फोन करके परेशान किया जा सकता था । सब समय उनका साथ सोच विचार की ऊँचाई की गारंटी होता था । ऐसे लोगों की अनुपस्थिति देश और समाज के सार्वजनिक जीवन की समृद्धि की अपूरणीय क्षति होती है ।

उनसे पहली मुलाकात कानपुर में अध्ययनरत कामरेड राजीव डिमरी के छात्रावासी कमरे पर हुई थी । सुदर्शन मुख, चाल में फुर्ती और बेहतरीन शर्ट ने पहली ही बार ध्यान खींचा था । बाद में कभी कभी कुर्ता भी पहने देखा । उनके कसे बदन पर सब कुछ शोभायमान होता था लेकिन अपने वस्त्र विन्यास के प्रति सचेत शायद ही कभी रहे हों । तब वे कानपुर में काल प्रवाह प्रकाशन की स्थापना के लिए आये थे । पढ़ने लिखने में अपनी भी रुचि होने से अच्छा लगा था । तब पार्टी भूमिगत ही थी और उनका नाम सुनील बताया गया । असली नाम जानने में कोई रुचि भी नहीं थी । मेरे पास कोई न कोई किताब हमेशा रहती थी । पढ़ाई का शौक विजय जी को भी था जिनके पते से उस प्रकाशन का काम धाम चलना था । मजदूरों के विशाल महासागर में मार्क्सवादी साहित्य के प्रचार प्रसार का एक लम्बा इतिहास कानपुर के साथ जुड़ा हुआ था । करेंट बुक डिपो पर मार्क्सवादी साहित्य की सहज उपलब्धता और रामआसरे द्वारा माओ की संकलित रचनाओं के हिंदी अनुवाद की कहानी सुनायी देती थी । अचरज होता था कि सीपीएम से जुड़े मजदूर नेता ने माओ की रचनाओं का अनुवाद क्यों और कैसे किया! कारखानों में खटने वाले मजदूरों को मार्क्सवादी साहित्य से सिर टकराते प्रत्यक्ष देखा है । फिर भी उम्र कम होने से उस प्रयास से बहुत न सीख सका ।

बाद के दिनों में कानपुर के एक मजदूर आंदोलन की खबर सुनी जिसमें कारखाने में आठ घंटे की पाली निपटाकर मजदूर रेल को जाम करने के लिए ट्रैक पर बैठे रहते थे तो वह समय याद आया जब समूचे कानपुर की हवा में मजदूर वर्ग के सवाल और उनके संघर्ष का माद्दा छाये रहते थे । उसी शुरुआती माहौल ने शायद पांडे जी को मजदूर वर्ग के इस समृद्ध जीवन में मौजूद समानांतर संस्कृति के बारे में सहज बनाये रखा । आज की नवउदारवादी संस्कृति में दीक्षित लोग उस गर्मजोशी से भरे माहौल की कल्पना नहीं कर सकते जब मजदूरों का जीवन शहरों की धड़कन हुआ करता था । उनके बारे में बाद में जाना कि मजदूरों के बीच राजनीतिक काम उनका पसंदीदा क्षेत्र था । दुर्गापुर, बोकारो, दिल्ली- जहां भी रहे मजदूर बस्तियों के साथ एकजुट रहे । कदाचित कानपुर के शुरुआती जीवन से ही यह चीज अनजाने संस्कार के बतौर मिली हो ।  

बाद के दिनों में उनकी बाबत सुनता तो रहा, सम्भव है मुलाकातें भी हुई हों लेकिन उनकी याद गहरी नहीं है । एक बार की बात याद है जब उन्होंने कलकत्ते से किसी प्रकाशन का जिक्र किया जिसमें छापे की भयानक भूल थी । Marxist के लिए Marksist छप गया था । जिनकी जिम्मेदारी थी उन्होंने आपत्ति करने पर लोग समझ जायेंगे ऐसा कहा । इसे वे गलत उदाहरण के बतौर पेश कर रहे थे । शायद एक लेख के गलत अनुवाद का मामला था । डेड लेटर्स का अनुवाद गलत पते पर डाली गयी चिट्ठी हुआ था । प्रकाशन के मामले में सावधानी और पूर्णता के वे हिमायती थे । अनुवाद के बारे में सुन रखा था कि मूल अंग्रेजी को सामने रखकर वे धाराप्रवाह हिंदी अनुवाद बोलते जाते थे । इसका पता तब चला जब पार्टी के केंद्रीय स्कूल के पर्चों को प्रणय के साथ मिलकर लगातार दस दिन साथ रहकर अनूदित किया । तब उस प्रयास को अय्यूब भाई ने फ़ोर्ट विलियम कालेज का नाम दिया था । काम के उबाऊ होने के चलते बीच बीच में कभी कुछ किस्सा कहानी भी चलते रहते थे । पहली बार त्रात्सकी, ग्राम्शी और उत्तर आधुनिकता के बारे में पढ़ रहा था और लिखने वाले की प्रकांड विद्वत्ता से अचम्भित था । आज तक इन मामलों में उतना ही जानता हूं, अलबत्ता ग्राम्शी के बारे में राय कुछ बदलने की जरूरत लगती है । दूसरा पर्चा शिवरमन का था और उसमें अर्थतंत्र तथा नव सामाजिक आंदोलनों के बारे में जो था उससे अधिक आज भी नहीं पता । जब अपना अचम्भा जाहिर किया तो उन्होंने एक विज्ञान कथा सुनायी । उसमें किसी अन्य ग्रह के जीव बादल के रूप में धरती के ऊपर छा गये थे । उनका मानसिक विकास इतना हो चुका था कि वे मष्तिष्क मात्र रह गये थे । धरती से भेजे गये संदेशों के सहारे उन्होंने मनुष्यों की भाषा सीख ली थी । तब अरिंदम सेन से परिचय नहीं हुआ था तो यह मनोरंजक किस्सा बन गया । बाद में अरिंदम जी के साथ काम करते हुए सहजता महसूस होने में इस किस्से का भी हाथ रहा होगा । इन सबसे पार्टी नेताओं की मनुष्यता का पता चला और पांडे जी के दोस्ती कायम कर लेने की क्षमता का भी अंदाजा मिला ।

इसके बाद तो अक्सर यह भी देखा कि मुश्किल से मुश्किल मोर्चे पर वे धीरज और समर्पण के साथ जुट जाते थे । सम्भव है उनकी इस क्षमता के कारण ही भूमिगत पार्टी का प्रवक्ता उन्हें बनाया गया हो । इस मामले में संसद में रामेश्वर जी और पत्रकारों का सामना करते पांडे जी का प्रदर्शन अद्भुत रहा । एकदम ही अनजानी राह पर पूरे आत्मविश्वास के साथ चलते थे । जनमत की टीम के साथ काम करना आसान नहीं था । सबके सब विद्वान, लेकिन पाडे जी दत्तचित्त होकर मोर्चा संभाले रहे । उसी दौरान अभय कुमार दुबे के संस्कृति संबंधी किसी लेख का जवाब भी उन्होंने लिखा था जिसमें गम्भीर तर्कों के साथ चुटीली हाजिरजवाबी भी थी । बांगला तो उनके लिए मातृभाषा जैसी थी ही, हिंदी और अंग्रेजी का भी उनका ज्ञान अगाध था । हिंदी में वे पर्याप्त साहित्यिक हिंदी लिखते थे । सम्भव है बांगला का अभ्यास होने से ऐसा हुआ हो या उच्च संस्कृति पर भी जनता का अधिकार होने की मान्यता से ऐसा हुआ हो । बांगला के सिलसिले में उन्होंने बताया था कि पूरावक्ती कार्यकर्ता होने के बाद ऐसा रमे कि सपने भी बांगला में देखते थे । अनुवाद का काम मैं भी पार्टी के लिए बहुत पहले से करता रहा था इसलिए उस मामले में उनका मार्गदर्शन हमेशा मिलता रहा ।

इस सिलसिले में एक सूचना साझा करना उचित होगा । ग्रंथशिल्पी के लिए उन्होंने मार्क ब्लाख की किताब ‘हिस्टारियन’स क्राफ़्ट’ का हिंदी अनुवाद ‘इतिहासकार का शिल्प’ शीर्षक से किया । मार्क ब्लाख ने सामंती समाज का अध्ययन किया था । उनकी किताब में स्वाभाविक तौर पर मध्यकालीन यूरोपीय संदर्भ आये थे । पांडे जी ने सही अनुवाद के लिए ढेर सारा शोध किया । इसी तरह ग्रंथशिल्पी से ही ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ की डेढ़ सौवीं वर्षगांठ पर जब मुरली मनोहर प्रसाद सिंह के संपादन में किताब छपी थी तो उसमें पांडे जी का भी लेख था । पूछने पर विनम्रता के साथ उन्होंने कहा कि दीपंकर के लेख से ज्यादातर सामग्री लेकर उन्होंने पार्टी का पक्ष प्रस्तुत करने के लिए वह लेख लिखा । ज्ञान की दुनिया पर अपना दावा ठोंकने वालों की क्षुद्रता के मुकाबले यह सहज विनम्र भाव कितना उदात्त है!            

दिल्ली छोड़ने के बाद भी उनके साथ संवाद हमेशा रहा । शाहजहांपुर के कालेज की लाइब्रेरी के लिए किताब खरीदने आया तो उनसे मिला । वर्धा से दिल्ली आया तो उनसे मिला । मित्र मंडली भी पांडे जी की दीवानी थी । आपस में बातें उनके बारे में अक्सर होतीं । रेलवे के बारे में उनकी जानकारी प्रचंड थी । उसके संचालन की समूची व्यवस्था को वे जानते थे । शाहजहांपुर में रहते हुए मुझे पोस्ट व्यवस्था में पिनकोड के महत्व का पता चला था । रुचि इसीलिए हुई क्योंकि पांडे जी ने अपने चारों ओर की दुनिया को समझने की उत्सुकता पैदा कर दी थी । आज इसके बारे में दो तरीकों से सोचता हूं । एक कि रवींद्रनाथ ठाकुर ने हम भारतीयों को बौद्धिक रूप से आलसी कहा है । इसका उदाहरण यही कि हमें दुनिया की व्यापक व्यवस्था को समझने में कोई रुचि नहीं होती । दूसरे कि इन चीजों का आविष्कार वर्तमान व्यवस्था की मजबूती के लिए नहीं हुआ है । इन सभी का आविष्कार मनुष्य ने सार्वजनिक सुविधा के लिए किया है । पूंजी के वर्तमान शासन ने उनको अपने लिए अधिग्रहित तो कर लिया है लेकिन अंतत: उनका सही इस्तेमाल ऐसी ही व्यवस्था में सम्भव है जिसमें कुछ लोगों का ही उन पर कब्जा न रहे । इस अर्थ में वे भविष्य के समतामूलक समाज हेतु योग्य मनुष्यों का निर्माण अनवरत करते रहे थे ।

बौद्धिक काम में सहकारिता के उनके उदाहरण की बदौलत ही अवधेश, मृत्युंजय और मैंने गोरख पांडे के शोध का मिलकर हिंदी अनुवाद किया था । जैसा जेएनयू के उस कमरे में रहा था वैसा ही माहौल पैदा करने के चक्कर में रात बिरात पांडे जी को फोन लगाकर दार्शनिक शब्दावली का मतलब पूछते रहे थे । उससे पहले चंद्रशेखर के बिदेसिया पर लिखे शोध का अनुवाद उनसे जंचवाया गया था । जो संशोधन उन्होंने किये उनके चलते वह अनुवाद खिल गया । गोरख पांडे के शोध के अनुवाद में उनकी प्रत्यक्ष मौजूदगी न होने के चलते ही थोड़ी कमी रह गयी ।

सिल्चर में नौकरी करते हुए वहां के सामाजिक जीवन में संस्कृति की जबर्दस्त उपस्थिति समझ नहीं आती थी । कोई भी राजनीतिक सभा हो, सार्वजनिक कार्यक्रम हो, नाच गाना उसका अनिवार्य हिस्सा होता था । हम हिंदी प्रदेश वालों को उसका ऐसा महत्व स्पष्ट नहीं होता । इंडियन आइडल में अपने प्रांत के गायक को जिताने के लिए राजनेता से लेकर व्यवसायी तक लग जाते थे । एक बार दुगापूजा की छुट्टी में पुत्र समेत पटना गया तो लोकयुद्ध के कार्यालय में ठहरा । वापसी के एकाध दिन पहले उनसे जिज्ञासा प्रकट की तो उन्होंने अफ़सोस जाहिर किया कि जाते समय यह सवाल पूछ रहा था । बहरहाल, डी पी बख्शी पर लिखे उनके संस्मरण को पढ़ते हुए देखा कि असम में काम करने के लिए वहां की सांस्कृतिक विशेषताओं का उन्होंने बाकायदा अध्ययन किया । पांडे जी ने भी जयंत रोंगपी के साथ कार्बी संस्कृति के बारे में अपनी लम्बी बातचीत का जिक्र किया था ।

यह बात हमारी पार्टी को पारम्परिक वामपंथी पार्टियों से अलगाती है । किसी भी जगह या समुदाय को समझने के क्रम में वहां की संस्कृति को भी समझना जरूरी है । कारण कि उसका निर्माण मानव समुदाय ने जीवनक्रम में सामूहिक रूप से किया है इसलिए उस पर उसका हक है । जिसे हम उच्च संस्कृति कहते हैं उस पर भी जनता का अधिकार है । यदि आज जनता उसका आनंद नहीं ले पा रही तो उसे इसमें सक्षम बनाना किसी भी गम्भीर वामपंथी आंदोलन का दायित्व है । किसी भी संस्कृति के उत्पादक समुदाय से उसको छीन लेने की क्षमता शक्तिशाली समूह का लक्षण हो सकता है लेकिन उस पर उनका हक स्वाभाविक नहीं होता । सामान्य जनता के जीवन स्तर को इतना उन्नत करना होगा कि वह इसका आनंद ग्रहण करने की रुचि और योग्यता हासिल करे । आखिर यही तो हमारे आंदोलन का लक्ष्य है ।

अपने आंदोलन को पुराने आंदोलनों की धारावाहिकता में देखने की उनकी आदत का प्रमाण झारखंड के सिलसिले में लिखा उनका एक लेख है जिसमें उन्होंने स्वामी सहजानंद सरस्वती की मार्फत यह बताया था कि झारखंड की मूल समस्या किसान समस्या है । झारखंड को आंतरिक उपनिवेश आदि बताने वालों या उसे आदिवासी समस्या समझने वालों के मुकाबले यह नजरिया वर्गीय था । जब इस बात का जिक्र अखिलेंद्र भाई से किया था तो उन्होंने पांडे जी के बहुपठित होने की तस्दीक की थी ।          

सिल्चर के बाद दिल्ली आया तो प्रसन्न होकर बताया कि विश्वविद्यालय से लैपटाप मिला है । उन्होंने इसे चिंताजनक बताया और कहा कि अब आप चौबीसों घन्टे कार्यालय में ही रहेंगे । आज जिस ‘वर्क फ़्राम होम’ को नये समय का सुविधाजनक तरीका बताया जा रहा है और तमाम गुणगान किया जा रहा है उसकी शोषक असलियत को इतनी आसानी से उन्होंने समझा दिया कि मैं निरुत्तर हो गया । समाज में होनेवाले तमाम सतही बदलावों के नीचे कार्यरत बुनियादी प्रक्रियाओं और ताकतों को उनकी मर्मभेदी निगाह तुरंत पहचान जाती थी ।   

वे जितना लिख सकते थे उसके मुकाबले बहुत कम लिखा । जितना लिखना चाहते थे उतना भी नहीं लिख सके । निजी तौर पर जानता हूं कि उनकी इच्छा नक्सलबाड़ी गांव पर एक किताब लिखने की थी । इसके कारण महसूस होता है कि उनका लिखा सहेजा जाना चाहिए । हमेशा ही वे पार्टी घेरे के बाहर के लोगों से भी संवाद बनाये रखते थे । जनमत के कार्यालय में एक बार यूरोपीय देशों के लेखकों के किसी प्रतिनिधि मंडल के साथ अपने साथ जुड़े लेखकों की एक मुलाकात में मैंने पंकज सिंह, पंकज बिष्ट, आनंद स्वरूप वर्मा और मंगलेश डबराल को देखा था । नवउदारवाद के जमाने में जब विदेशी कंपनियों के उपभोक्ताओं के लिए भारतीय युवक काल सेंटर में काम करते थे तो उनके बारे में भी पांडे जी को उत्सुकता के साथ बातचीत करते और इसके अर्थतंत्र पर विचार करते देखा था । एक समय जब डान ब्राउन का द विंची कोड मशहूर हुआ था तो दो घंटे में उन्होंने इस उपन्यास का कथासार सुनाया था । इसी तरह हैरी पाटर की लेखिका के घरेलू स्त्री होने और उस उपन्यास में भूतों प्रेतों के लिए प्रयुक्त प्राचीन शब्दों के उल्लेख की बात उन्होंने बतायी थी । पटना में रिया टैबलेट पर अंग्रेजी शब्द बनाने का खेल खेल रही थी । पांडे जी बोले कि अक्षर समूह देखते ही उनके दिमाग में बीसियों शब्द एक साथ आ जाते हैं ।

दुर्भाग्य से जिस समाज में हम रहते हैं उसमें मनुष्य का मूल्य उसके धन कमाने की क्षमता से आंका जाता है । ऐसे उलटे समाज में स्वाभाविक तौर पर उनके लिए पारम्परिक तरीके की कोई सम्मानित जगह न थी । तमाम ऐसे मौके आये जब उन्हें अपमानजनक स्थितियों का सामना करना पड़ा लेकिन इससे उनकी आत्मा पर कोई खरोंच नहीं पड़ी । निजी मानापमान से मुक्त होकर उन्होंने बेहतर समाज के निर्माण के लिए सदा खुद को समर्पित रखा ।   

जबसे उनका निधन हुआ है तबसे शायद ही कोई दिन गुजरा होगा जब उन्हें फोन करके कोई बात पूछने की इच्छा न हुई हो । आखिरी बातचीत में उन्होंने मेरे लिखे का जिक्र किया था और मनस्तत्व के बारे में मार्क्सवादी नजरिये को समझने के लिए किताबों की बाबत जानना चाहा था । ऐसा कौन होगा जो इस तरह के विषयों के बारे में जानने और बात करने के लिए खुला हो! कोरोना तालाबंदी खुलने के बाद कार से गिलहरियों के कुचलने की बात बतायी तो उन्होंने तालाबंदी की खामोशी में उनके जन्म लेने और इसके चलते कार की आवाज से परिचित न होने की सम्भावना जतायी थी ।