Saturday, April 28, 2018

बलभद्र की हिन्दी कविता


               
                                     
बलभद्र उन कवियों की परम्परा के वाहक हैं जो सीखी हुई भाषा हिन्दी के साथ मातृभाषा में भी कविता लिख सकते हैं प्रगतिशील कवियों की पीढ़ी के बाद यह विशेषता सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और गोरख पांडे में दिखाई पड़ी थी लेकिन उसके बाद कवियों का नगरीकरण इतनी गहराई से हुआ कि सलाम दुआ तो मातृभाषा में कर सकते थे लेकिन कविता सम्भव नहीं रह गई थी जिस तरह आजकल सोच विचार के लिए हिन्दी अक्षम घोषित कर दी गई है, उसमें रोजमर्रा और राजनीति जैसी सामान्य जन से जुड़ी चीजें ही बरती जाती हैं, बौद्धिक व्यापार ईस्ट इंडिया कंपनी की भाषा में ही शोभता है उसी तरह साहित्य की दुनिया में मातृभाषा का प्रवेश वर्जित होता है मेरा जोर बलभद्र की भोजपुरी कविता के बारे में बात करने पर नहीं, बल्कि इसके चलते उनकी हिन्दी कविता में उपजी चमक को उजागर करना है
उनकी हिन्दी कविताओं में भारत का ग्रामीण परिवेश केवल भाषिक माहौल तक सीमित नहीं, बल्कि कहें कि भाषा तो उसका छिलका है और इसीलिए उनकी समूची काव्य संवेदना में समाया हुआ है । वैसे केवल ग्रामीण जीवन के शब्द संभार के लिए भी इस संग्रह की उपयोगिता बहुत है । हिंदी प्रदेश का ग्रामीण परिवेश तो अन्य कवियों की कविता में भी नजर आता है लेकिन बहुधा उसकी भूमिका कई हिन्दी फ़िल्मों में देहात की छौंक लगाने के लिए किसी पात्र के मुख में ठूंसी बनावटी भोजपुरी की होती है । कुल मिलाकर उनकी कविता का देहात सामंती कुलीन की निगाह से देखा हुआ होता है । जिस तरह आधुनिक शहराती सौंदर्यबोध का ही अंग थोड़ा एथनिक छुअन भी होती है उसी तरह अत्यंत रेशमी भाषा को मिट्टी की गंध से सज्जित करने के लिए खेती के कुछ उपकरण या पुराने पारिवारिक संबंधों की भावुक शब्दावली भी टांक दी जाती है । देहात के साथ ऐसे आधुनिकतावादी नागर बरताव के मुकाबले बलभद्र की कविता में हमें कामगारों का जीवंत संसार दिखाई देता है । यही चीज उन्हें पुरानी दुनिया के नाश पर हिंदी जगत में बहुप्रचलित करुण रुदन से बचा लेती है और पाठक के सामने परेशानी के बीच भी जीवंत और भरा पूरा मनुष्य प्रकट होता है । अपने आस पास की समूची सृष्टि के साथ मनुष्य का सामाजिक-सांस्कृतिक रिश्ता देखना हो तो इस संग्रह से उसकी एक अमिट झलक पाई जा सकती है ।
बलभद्र की कविताओं का देहात संपत्तिशाली या धनिकों के मुकाबले कामगारों का देहात है कामगारों के जीवन का सामाजिक-सांस्कृतिक वैभव उनकी कविता में व्यक्त हुआ है श्रमिक जनता का जीवन उसे निरंतर सामूहिकता बचाए रखने के लिए मजबूर करती है उनकी कविताओं में प्रत्यक्ष सामाजिक संबंधों के समृद्ध संसार की मौजूदगी सामंती पारिवारिकता के प्रति मोह से नहीं, बल्कि श्रम के लिए आवश्यक सहकार और समुदायिकता से पैदा हुई है मालिकों के शोषण और अत्याचार से जीवन बिताने में जो मुश्किल पेश आती है उसका मुकाबला आम तौर पर श्रमिक आपसी एकता के जरिए करते हैं यह सामूहिकता दुख बांटने से पैदा होती है जीवन की समान परिस्थितियां इनके मानसिक जगत में ऐसा कोना निर्मित करती हैं जिसमें कठिनाई का मुकाबला करने के कुछ अत्यंत आदिम लेकिन कभी कभी बेहद कारगर उपकरण आदत की तरह दैनन्दिन में शामिल हो जाते हैं इन्हीं उपकरणों में से कुछेक उपकरण इन कविताओं में वर्णित जीवन व्यापार में दिखाई देते हैं मजेदार बात यह है कि उन्हें प्रत्येक नई पीढ़ी चली रही एक लम्बी परंपरा के भीतर से अर्जित करती है इसमें कोई अतीतमोह नहीं बल्कि संसार का निर्माण करने वालों की ओर से रचने के गर्व से उपजी स्मृति का अभिमान होता है कविताओं में इसका प्रयोग विस्मरण के हमले के प्रतिरोध के रूप में हुआ है ग्रामीण जीवन में लोकगीतों और लोककथाओं का प्राचुर्य इसी रणनीति का हिस्सा है जो सम्पन्न हैं उनके लिए अतीत को याद रखने के अनेक साधन होते हैं लेकिन जो विपन्न हैं वे भी इतिहास से अपने आपको मिटाए जाने के विरुद्ध स्मृति को सुरक्षित रखने के उपाय खोज निकालते हैं केवल इतना बल्कि सबसे कीमती चीज की तरह इसे गोपनीय तरीके से ढंककर बचाए रखते हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी किस्से कहानियों के सहारे उसकी निरंतरता कायम रखते हैं बचपन में बुजुर्गों के मुख से सुनी इन कहानियों में स्त्रियों की अपार पीड़ा के साथ ही वंचित योद्धाओं के जीवन में आए बदलावों के आवरण में युगों युगों से हासिल समझ आसानी से नई पीढ़ी तक पहुंच जाती है आश्चर्य नहीं कि इन श्रमिकों के जीवन में स्त्री की स्थिति बहुत स्वाभाविक तौर पर मालिकों के घरों की स्त्रियों से भिन्न होती है उनमें आपस में अपमान के कटु अनुभवों की साझेदारी तो होती ही है, दाम्पत्य के भीतर भी ऐसी ही साझेदारी जीवन जी लेने का साहस प्रदान करती है
इस जीवन में समाई हुई सहज नैतिकता इस संग्रह का एक और जोरदार पहलू है बहुधा इस नैतिकता को धार्मिकता समझ लिया जाता है वैसे यदि ध्यान दिया जाए तो खुद धर्म का अर्थ भी कर्तव्य ही होता है कर्तव्याकर्तव्य की यही नैतिकता प्रेमचंद के लेखन में मरजाद के रूप में व्यक्त हुई है भारत के ग्रामीण जीवन में सामाजिकता का स्रोत यही नैतिकता है बलभद्र की इन कविताओं को पढ़ते हुए कई बार लगता है कि अनेक दार्शनिक धारणाओं की जड़ें समाज के इसी सहज नैतिक जीवन में निहित हैं उदाहरण के लिए पहली ही कविता में अन्न को बीनने की वजह आर्थिक होकर उन्हें पददलित होने से बचाने का प्रयास एक ओर आपको गहन नैतिक सामर्थ्य का परिचय देता है तो दूसरी ओर आत्मा को अन्नमय मानने की दार्शनिक धारणा इससे बहुत दूर नहीं दिखाई देती  
बलभद्र की इन कवितायों में गाढ़ा इंद्रिय बोध है जो लेखक समूचे परिवेश को अपनी संवेदना के घेरे में बांध लेते हैं उनके लिए समूचा चराचर अपने परिचित संसार में बदल जाता है प्रगतिशील कवियों की परंपरा उनकी प्रकृति चेतना में समाई हुई महसूस होती है त्रिलोचन की कविता में मौजूद मेंहदी की गहरी गंध उड़ते हुएरोपूंगा एक मेंहदीतक चली आई है प्रकृति के इस साहचर्य ने हजारों बरस से खेती-किसानी के लिए आवश्यक कौशल का खजाना पैदा किया और इसी अक्षय पारंपरिक खजाने के साथ संयुक्त होकर किसान समुदाय मौसम और हालात के वैपरीत्य का मुकाबला करते हुए स्वाभिमानी जीवन बिताता रहा है इस जीवन को जीने के लिए जो कौशल और ज्ञान मेहनतकश किसान समुदाय ने अर्जित किया है वह पर्यावरण की गंभीर जानकारी से भी मजबूत होता है क्योंकि किसान का ज्ञान बहुत कुछ अंत:प्रज्ञा की कोटि का होता है ऊपर से उसके ज्ञान में मिथकों का आवरण दिखाई पड़ सकता है लेकिन इस आवरण के भीतर प्राकृतिक तत्वों के साथ उसका आदिम रिश्ता बोलता है इसी कारण उनके जीवन के विश्वासों को समझने के लिए संगठित धर्म के मुकाबले प्रकृति पूजा के तत्व अधिक सहायक हो सकते हैं जिनमें आदिम भौतिकवाद में निहित जड़ चेतन की पारस्परिकता समाई रहती है
ऐसा नहीं है कि इस जीवन में प्रकृति के साथ केवल साहचर्य का ही संबंध हो उसके साथ संघर्ष भी करना पड़ता है और इस संघर्ष के जरिए श्रमिक अपने लिए जगह बनाता है संघर्ष के सहारे जीवन बिताने की इतनी जबर्दस्त छवियों से यह संग्रह अटा पड़ा है कि लेखक की सर्वेक्षण की क्षमता पर आश्चर्य होता है बेहद सादा कवितालोककथामें वर्णित छवि देखिए- अन्न कूटती/ मुसहरिनों के मूसल से कभी/ ठेक ठेक जाता था आकाश इस संघर्ष में उन्हें शाप देने की जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि वे जानती थींकि शाप को समर्थ मानने वाले/ होते हैं सिद्ध-सम्पन्न और विशिष्ट उनका हथियार तोकुछ गालियाँ थीं उनके पास यह सब इसलिए क्योंकिउन्हें जगह की जरूरत थी जगह तो प्रतीक है धरती पर सम्मान और अधिकार के साथ जीने की आकांक्षा का और इसके लिए केवल आकाश को ही ऊपर नहीं ठेलना पड़ता बल्कि धरती पर भी लड़ाई भिड़ाई करनी पड़ती है यह लड़ाई लोकतांत्रिक अधिकार की भी बन जाती है संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि इस संघर्ष का विस्तार रोजमर्रा से लेकर राजनीति तक है इस संघर्ष के क्रम में कमेरा मनुष्य कठोर उपकरणों के साथ साथ नाजुक संस्कृति का भी निर्माण करता है उसकी रचनात्मकता का वितान भी उतना ही व्यापक होता है जितना स्वयं जीवन संघर्ष यही जीवन संघर्ष तमाम परेशानियों के बावजूद कर्ता की भूमिका प्रदान करता है जिसके चलते माँ कुल शहरी सुविधाओं के बावजूद गांव जाना चाहती हैं वह घर उनके सामाजिक अस्तित्व की गारंटी था इसलिए उनकी पहचान भी उससे जुड़ी हुई थी रणवीर सेना के पक्ष में जुलूस में शामिल सवर्ण स्त्री की विडम्बना को भी कवि ने समझा और व्यक्त किया है स्त्री जीवन की बहुत छोटी छोटी सचाइयों को कवि ने बेहद बारीकी के साथ केवल देखा है बल्कि उन स्त्रियों की जिजीविषा की तह में उतरने की कोशिश भी की है, उनकाहिस्सा-बखरापहचाना है और उसे पूरी शिद्दत के साथ उकेरा है
बिहार का भोजपुर का संघर्षशील इलाका बलभद्र का अपना इलाका है लेकिन उनकी संवेदना उसी क्षेत्र तक सीमित नहीं रहती वे अपने इस सुपरिचित संसार को लांघकर भूगोल के मामले में नए इलाकों की यात्रा करते हैं और उनके घेरे में वहां भी शहरी कामगार, आदिवासी स्त्री, झारखंड के साइकिल पर लादकर कोयला बेचने वालों (जो अभी प्रकाशित अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ की किताब में भी दाखिल हो गए हैं) के साथ ही तोप के चारे के बतौर इस्तेमाल होने वाले किसानों के बेटे भी मौजूद हैं आश्चर्य की तरह बलभद्र की कविता सहज भाव से मेहनत करने वाले मनुष्य के दर्प और तकलीफ को टांक देती है पाठक के मन की आंखों के सामने देहात और शहर के देखे किंतु उपेक्षित विभिन्न दृश्य प्रत्यक्ष हो जाते हैं किसी कुशल छायाकार की तरह उन्होंने मेहनत से जुड़े ढेरों बिम्ब साधे हैं उनके बिम्बों में गति है लगभग सभी बिम्ब एकाधिक इंद्रियों की सक्रिया से ग्रहण किए गए हैं इसीलिए कविता पढ़ते समय पाठक के कान और आंख तो अक्सर एक ही साथ सक्रिय रहते हैं इनके साथ कहीं कहीं नाक को भी सक्रिय होना पड़ता है