इंटरनेशनल के एकदम शुरू के ही दिनों से फ़्रांस
में, फ़्रांसिसी भाषी स्विट्ज़रलैंड में, वालोनिया में और ब्रसेल्स नगर में प्रूधों के विचारों का दबदबा था । उनके अनुयायियों,
खासकर तोलें और अर्नेस्ट एडुवार्ड फ़्रिबोर्ग (अज्ञात)
ने 1864 की स्थापना बैठक, 1865 के लंदन सम्मेलन, जेनेवा और लूसान की कांग्रेसों में
अपने विचारों के चलते छाप छोड़ी थी ।
4 सालों तक ये साझेदारीवादी इंटरनेशनल
के सर्वाधिक नरम दली रहे । संगठन में बहुमत वाली ब्रिटिश ट्रेड यूनियनें भी मार्क्स
के पूंजीवाद विरोध से सहमत नहीं थीं लेकिन संगठन की नीतियों पर उनका वैसा प्रभाव नहीं
था जैसा प्रभाव डालने में प्रूधों के अनुयायी सक्षम थे ।
इस फ़्रांसिसी अराजकतावादी के सिद्धांतों के आधार
पर साझेदारीवादियों का कहना था कि मजदूरों की आर्थिक मुक्ति उत्पादक सहकारी समितियों
और जनता का एक केंद्रीय बैंक स्थापित करके हासिल की जा सकती है । किसी भी क्षेत्र में
राजकीय हस्तक्षेप के प्रचंड विरोधी ये लोग जमीन और उत्पादन के साधनों के समाजीकरण का
विरोध करने के साथ ही हथियार के रूप में हड़ताल के प्रयोग के भी विरोधी थे । उदाहरण
के लिए 1868 में भी इंटरनेशनल के कई प्रभाग
संघर्ष के इस रूप को नकारात्मक और अर्थतंत्र विरोधी मानते थे । इस मामले में
हड़तालों के बारे में लीग प्रभाग की रिपोर्ट प्रतीकात्मक थी: ‘हड़ताल एक संघर्ष है ।
इसीलिए यह जनता और पूंजीपति वर्ग के बीच खदबदाती हुई नफ़रत को बढ़ा देती है । जिन दो
वर्गों को एक दूसरे के साथ घुलना मिलना और एकताबद्ध होना चाहिए उन्हें एक दूसरे से
और दूर ले जाती है ।’ जनरल कौंसिल की समझ और थीसिस से इससे अधिक दूरी शायद ही हो
सकती थी ।
बिना शक मार्क्स ने इंटरनेशनल में प्रूधों का
प्रभाव घटाने के लिए चले लंबे संघर्ष में मुख्य भूमिका निभाई । इसके नेताओं के
सैद्धांतिक विकास के लिए उनके विचार बुनियाद की तरह काम करते थे और संगठन के भीतर
हरेक निर्णायक टकराव में जीत हासिल करके इन विचारों को बुलंद रखने की अद्भुत
क्षमता का उन्होंने प्रदर्शन किया । उदाहरण के लिए सहकारिता के सिलसिले में
उन्होंने 1866 में अस्थायी जनरल कौंसिल के प्रतिनिधियों के लिए निर्देश, विभिन्न
प्रश्न में उन्होंने पहले ही घोषित किया:
“सामाजिक उत्पादन को मुक्त तथा सहकारी श्रम की
एक बड़ी तथा सामंजस्यपूर्ण व्यवस्था में बदलने के लिए आम सामाजिक परिवर्तनों की,
समाज की सामान्य परिस्थितियों में बदलाव की जरूरत पड़ती है जिसे पूंजीपतियों तथा
जमींदारों से छीनकर खुद उत्पादकों को, समाज की संगठित ताकतों को, यानी राजकीय
सत्ता को सौंपे बिना कभी मूर्त नहीं किया जा सकता है ।”
उन्होंने मजदूरों को सलाह दी कि “वे सहकारी
स्टोर की बजाय सहकारी उत्पादन उत्पादन पर ध्यान दें । सहकारी स्टोर वर्तमान आर्थिक
व्यवस्था की सतह को ही छूता है जबकि सहकारी उत्पादन इसकी जड़ पर ही चोट करता है ।”
बहरहाल मजदूर खुद ही प्रूधोंपंथी सिद्धांतों से परे हट रहे थे । सबसे आगे बढ़कर
हड़तालों की बाढ़ ने साझेदारीवादियों की धारणा की गलती का उन्हें यकीन दिला दिया ।
सर्वहारा वर्ग के संघर्षों ने दिखा दिया कि हड़तालें वर्तमान हालात में सुधार के
तात्कालिक साधन के बतौर तो जरूरी हैं ही, भविष्य के समाज निर्माण के लिए आवश्यक
वर्गीय चेतना को भी मजबूत बनाती हैं । जीते जागते वास्तविक स्त्री-पुरुषों ने अपने अधिकारों और सामाजिक न्याय की मांग के लिए पूंजीवादी उत्पादन
को रोक दिया और इस तरह इंटरनेशनल में तथा समूचे समाज में भी शक्ति संतुलन को बदल दिया
। किसी भी सैद्धांतिक बहस के मुकाबले अधिक जोरदार तरीके से पेरिस के तांबा मजदूरों,
रूएं और ल्यों के बुनकरों तथा सेंट एटीन के कोयला खनिकों ने इंटरनेशनल
के फ़्रांसिसी नेताओं को जमीन और उद्योगों के समाजीकरण की जरूरत समझा दी । और मजदूरों
के आंदोलन ने दिखा दिया कि प्रूधों की मान्यताओं के विपरीत समाजार्थिक सवालों को राजनीतिक
सवाल से अलगाया नहीं जा सकता ।
1868 में 6 से
13 सितंबर तक ब्रसेल्स कांग्रेस संपन्न हुई । इसमें फ़्रांस, ब्रिटेन, स्विट्ज़रलैंड, जर्मनी,
स्पेन (1 प्रतिनिधि) और बेल्जियम
(पचपन) से कुल 99 प्रतिनिधियों
ने भाग लिया । इसी में अंतिम तौर पर साझेदारीवादियों के पंख कतर दिए गए । सबसे महत्वपूर्ण
क्षण तब आया जब सदन ने उत्पादन के साधनों के समाजीकरण संबंधी डी पाएपे के प्रस्ताव
का अनुमोदन कर दिया- इसके जरिए समाजवाद के आर्थिक आधार को परिभाषित
करने के मामले में निर्णायक कदम आगे बढ़ाया गया । यह काम महज कुछ बुद्धिजीवियों के लेखन
में नहीं हुआ था बल्कि एक महान अंतर्राष्ट्रीय संगठन के कार्यक्रम में इसे अपनाया गया
था । खदानों और परिवहन के बारे में कांग्रेस ने घोषणा की:
1 कोयला खानें, अन्य खानें और खदानें तथा रेलवे सामान्य सामाजिक हालात में समुदाय की संपदा
होने चाहिए, जिसका प्रतिनिधित्व राज्य करता है, उस राज्य को भी न्याय के कानून के अधीन होना चाहिए ।
2 कोयला खानें, अन्य खानें और खदानें तथा रेलवे को राज्य वर्तमान व्यवस्था की तरह पूंजीपतियों
की कंपनियों को नहीं, बल्कि कामगारों की कंपनियों को संचालन हेतु
देगा जो अनुबंध के तहत समाज के लिए रेलवे आदि के तार्किक और वैज्ञानिक संचालन की गारंटी
करेंगी और वह भी उस कीमत पर जो कामचलाउ खर्च के जितना भी संभव हो उतना करीब हो । इसी
अनुबंध के तहत राज्य को कंपनी का लेखा जोखा जांचने का भी अधिकार सुरक्षित होगा ताकि
वह इजारेदारी के पुनर्गठन की किसी भी संभावना को देख सके । एक अन्य अनुबंध के जरिए
कंपनियों के प्रत्येक सदस्य और उनके कामगारों के बीच आपसी अधिकारों की गारंटी होनी
चाहिए ।
भू-संपत्ति के
मामले पर सहमति बनी कि:
“आधुनिक समाज के आर्थिक विकास के चलते
खेती लायक जमीन को समाज की साझा संपत्ति में बदलने की सामाजिक आवश्यकता पैदा होगी,
तथा राज्य की ओर से जमीन को भी कृषि कंपनियों को खानों और रेलवे के मामले
में बताई गई शर्तों के अनुरूप शर्तों पर ही दिया जाएगा ।”
नहरों, सड़कों और टेलीग्राफ
पर भी यही बातें लागू होंगी:
“यह मानते हुए कि सड़कों और संचार के अन्य
साधनों को भी साझी सामाजिक दिशा की जरूरत है कांग्रेस समझती है कि उन्हें भी समाज की
साझा संपत्ति होना चाहिए ।”
अंत में पर्यावरण के बारे में कुछ मजेदार बातें
कही गईं:
“यह मानते हुए कि निजी हाथों में जंगलों
को छोड़ देने से पेड़ों का विनाश होता है जो वसंत की संरक्षा के लिए और उसी क्रम में
जमीन की उत्तम गुणवत्ता के लिए तथा साथ ही आबादी के स्वास्थ्य और जीवन के लिए जरूरी
होते हैं, कांग्रेस समझती है कि जंगलों को समाज की साझा संपत्ति
होना चाहिए ।”
इस प्रकार ब्रसेल्स में इंटरनेशनल ने राजकीय प्राधिकार
द्वारा उत्पादन के साधनों के समाजीकरण के बारे में पहली बार स्पष्ट वक्तव्य दिया ।
जनरल कौंसिल की यह महत्वपूर्ण जीत थी और एक बड़े मजदूर संगठन के राजनीतिक कार्यक्रम
में पहली बार समाजवादी सिद्धांत प्रकट हुए ।
इसके अतिरिक्त कांग्रेस ने फिर से युद्ध के सवाल
पर बहस की । बेकर ने एक प्रस्ताव पेश किया जिसे संक्षेप में बाद में मार्क्स ने बाद
में कांग्रेस के प्रकाशित प्रस्तावों में शामिल भी किया,
उसमें कहा गया:
“सभी युद्धों को खत्म करने में केवल मजदूरों
का स्पष्टत: तार्किक हित है, और यह हित
आर्थिक और राजनीतिक, व्यक्तिगत और राष्ट्रीय है क्योंकि आखिरकार
उन्हें ही अपने खून और मेहनत से लड़ने वालों के बीच जीत हार की कीमत चुकानी पड़ती है,
चाहे वे जीतने वालों के देश के हों या हारने वालों के देश के ।”
मजदूरों का आवाहन किया गया कि वे सभी युद्धों को
‘गृहयुद्ध’ मानें । डी पाएपे ने इसके विरोध के
लिए आम हड़ताल के इस्तेमाल की भी सलाह दी जिस प्रस्ताव को मार्क्स ने ‘बेवकूफी’ कहकर खारिज कर दिया लेकिन असल में जिसका मकसद
ऐसी वर्ग चेतना को जन्म देना था जो केवल आर्थिक संघर्षों के परे जाने में सक्षम हो
।
इंटरनेशनल का समूहवादी रुझान अगर ब्रसेल्स कांग्रेस
से शुरू हुआ था तो अगले साल 5 से 12 सितंबर तक संपन्न बासेल कांग्रेस ने इसे और ठोस रूप दिया और प्रूधोंपंथ को
उसके घरेलू मोर्चे फ़्रांस से भी उखाड़ फेंका । इस बार कांग्रेस में प्रतिनिधियों की
संख्या 78 थी जो केवल फ़्रांस, स्विट्ज़रलैंड,
जर्मनी, ब्रिटेन और बेल्जियम से ही नहीं आए थे
बल्कि विस्तार का प्रमाण देते हुए स्पेन, इटली और आस्ट्रिया से
तथा अमेरिका से नेशनल लेबर यूनियन का भी एक प्रतिनिधि मौजूद थे । इस प्रतिनिधि तथा
विलहेल्म लीबक्नेख्त (1826-1900) की मौजूदगी ने कांग्रेस को और
शानदार बना दिया तथा इसमें आशा भर दी । लीबक्नेख्त मजदूर वर्ग की पहली संगठित राजनीतिक
शक्तियों के प्रतिनिधि थे (कुछ ही हफ़्ते पहले आइजेनबाख में स्थापित
सोशल डेमोक्रेटिक वर्कर्स पार्टी आफ़ जर्मनी की ओर से) । इंटरनेशनल
द्वारा पूंजी की सत्ता को चुनौती देने के आवश्यक आधार क्षेत्र का साफ तौर पर विस्तार
हो रहा था और कार्यवाही के दस्तावेजों तथा गतिविधियों के बारे में कांग्रेस के समक्ष
प्रस्तुत आम रिपोर्टों से उपस्थित मजदूरों में उत्साह का संचार हुआ ।
भू-संपत्ति के
बारे में ब्रसेल्स कांग्रेस के प्रस्तावों की फिर से पुष्टि की गई, पक्ष में 54 विपक्ष में 4 वोट पड़े
और 13 प्रतिनिधियों ने मतदान में भाग नहीं लिया । फ़्रांसिसी प्रतिनिधियों
में से यूजीन वार्लिन (1838-71) समेत, जो
बाद में पेरिस कम्यून के प्रमुख व्यक्तित्व बने, ग्यारह ने एक
नए पाठ का भी अनुमोदन किया जिसमें घोषित था ‘कि समाज को अधिकार
है कि वह जमीन का निजी मालिकाना खत्म कर दे और इसे समुदाय की संपत्ति बना दे ।’
इस पर दस प्रतिनिधि मतदान से अनुपस्थित रहे चार (तोलें समेत) ने विरोध में वोट दिया । बासेल के बाद फ़्रांस
में इंटरनेशनल साझेदारीवादी नहीं रही ।
बासेल कांग्रेस इस मामले में भी मजेदार थी कि मिखाइल
बाकुनिन ने प्रतिनिधि के बतौर कार्यवाही में भाग लिया । लीग
फ़ार पीस ऐंड फ़्रीडम का नेतृत्व हासिल करने में नाकाम होने के बाद बाकुनिन ने जेनेवा
में सितंबर 1868 में इंटरनेशनल एलायस फ़ार सोशलिस्ट डेमोक्रेसी की स्थापना की और दिसंबर
में इसने इंटरनेशनल में शामिल होने का आवेदन किया । शुरू में जनरल कौंसिल ने इसको खारिज
कर दिया । कारण यह बताया कि इंटरनेशनल एलायंस फ़ार सोशलिस्ट डेमोक्रेसी अब भी एक अन्य
समानांतर अंतर्राष्ट्रीय ढांचे से जुड़ा हुआ है और इसका एक लक्ष्य ‘वर्गों में बराबरी’
इंटरनेशनल के आधार स्तम्भ वर्ग उन्मूलन से पूरी तरह से भिन्न है । बहरहाल कुछ ही दिनों
बाद एलायंस ने अपने कार्यक्रम में सुधार कर लिया और प्रभागों का अपना जाल बंद करने
के लिए भी राजी हो गया जिनमें से अनेक वैसे भी सिर्फ़ बाकुनिन की कल्पना में मौजूद थे
। 28 जुलाई 1869 को तदनुसार 104 सदस्यों वाला जेनेवा प्रभाग इंटरनेशनल में शामिल किया
गया । मार्क्स बाकुनिन को अच्छी तरह से जानते थे लेकिन इस कदम के नतीजों को उन्होंने
कम करके आंका था । क्योंकि इस मशहूर रूसी क्रांतिकारी का प्रभाव तेजी से कई स्विस,
स्पेनी और फ़्रांसिसी (तथा पेरिस कम्यून के बाद इतालवी भी) प्रभागों में फैला । बासेल
कांग्रेस में अपने करिश्माई व्यक्तित्व और तर्क की जोरदार शैली की बदौलत उन्होंने बहस
के नतीजों को प्रभावित करने में सफलता प्राप्त की । उदाहरण के लिए विरासत के अधिकार
पर मतदान के समय प्रतिनिधियों ने पहली बार जनरल कौंसिल के प्रस्ताव को खारिज कर दिया
। साझेदारीवादियों को आखिरकार शिकस्त देने और प्रूधों के भूत को दफ़नाने के बाद मार्क्स
को अब एक और भी कठिन प्रतिद्वंद्वी का मुकाबला करना पड़ा जिसने संघाधिपत्यवादी अराजकतावाद
नामक एक नई प्रवृत्ति को जन्म दिया और संगठन का नियंत्रण हासिल करना चाहा ।
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