हिंदी
में निबंध लेखन की कला में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का विशिष्ट योगदान है । मनोविकार संबंधी उनके निबंध ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ में प्रकाशित हुए थे ।
आचार्य शुक्ल मानते थे कि यदि ‘गद्य कवियों या लेखकों
की कसौटी है तो निबंध गद्य की कसौटी है’ । उनके
निबंध उनकी इस मान्यता का उदाहरण हैं । 2002 में
लोकभारती से प्रकाशित ‘चिंतामणि- भाग-1’
की मंजूषा रामकृपाल पाण्डेय ने ‘चिंतामणि-विमर्श’ के नाम से लिखी है । उसमें उन्होंने थोड़ा आगे
बढ़कर लिखा कि ‘मेरा विचार है कि यदि निबंध गद्य की कसौटी है तो
चिंतामणि (पहला भाग) हिंदी निबंधों की कसौटी
है’ । इन निबंधों की जटिलता को उजागर करते हुए कहा कि
‘इतना ही नहीं, वह हिंदी पाठकों की मेधा की भी
कसौटी है और उसके लिए हिंदी की सबसे बड़ी चुनौती भी’ । आचार्य रामचंद्र शुक्ल
के निबंधों की विशेषता है कि वे शुरुआत में ही विषयवस्तु की स्थापना के बतौर कम से कम शब्दों में अपनी बात स्पष्ट करते हैं और तर्क को आगे बढ़ाते हुए भी मुख्य विषय पर ध्यान बराबर बनाए रखते हैं ।
इसी शैली के अनुरूप सबसे पहले वे क्रोध नामक इस मनोभाव का स्वरूप
स्पष्ट करने की कोशिश करते हैं । उनके अनुसार ‘क्रोध दु:ख के चेतन कारण से साक्षात्कार या अनुमान से उत्पन्न होता है ।’ चिंतामणि के भाग-1 की ‘मंजूषा’
लिखने वाले विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसका खुलासा करते हुए लिखा
‘शुक्लजी ने चेतन कारण इसलिए दिया है कि कुछ लोग पत्थर से ठोकर लगने
पर उस पर भी टूट पड़ते हैं । पर आचार्यों के यहाँ उसकी ओर ध्यान का प्रश्न ही नहीं रहा
।’ शुक्ल जी के इस वाक्य के सौंदर्य को विस्तार से स्पष्ट करते
हुए राम कृपाल पांडे ने ‘चिंतामणि-विमर्श’
में लिखा है ‘इस वाक्य में उपयुक्ततम शब्दों का
यथा-स्थान प्रयोग हुआ है । इस प्रसंग में ‘चेतन’, ‘साक्षात्कार’ और
‘अनुमान’ से बेहतर शब्द आपको कहीं मिल नहीं सकते
। ‘चेतन’ के स्थान पर सजीव, सज्ञान, बुद्धिमान, आदि में से
कोई भी शब्द प्रयुक्त नहीं हो सकता; इसी प्रकार ‘साक्षात्कार’ के स्थान पर ‘दर्शन’
या ‘देखने’ प्रयुक्त नहीं
हो सकते ।---यदि हम ‘अनुमान’ के स्थान पर ‘अंदाज’ रखें तो वाक्य
का सारा सौंदर्य ही बिखर जायेगा ।’ दुबारा इसी वाक्य में निहित
वैज्ञानिकता को रेखांकित करते हुए लिखा ‘ऊपर अभी-अभी हमने ‘क्रोध’ की जो परिभाषा
उद्धृत की है उसमें न तो कोई शब्द आप बढ़ा सकते हैं, न घटा । ऐसा
करने से वैज्ञानिकता नष्ट हो जायेगी ।’
परिभाषा के उपरांत निबंध जिस तरह आगे बढ़ता है उस क्रम को राम
कृपाल जी खोलते हैं और इसे भी उसी वैज्ञानिक पद्धति का अंग बताते हैं । उनके अनुसार ‘विवेचन
की वैज्ञानिक प्रणाली की एक अन्य प्रमुख विशेषता है प्रमाणो, दृष्टांतों या उदाहरणों से अपने तात्पर्य को स्पष्ट करना या अपनी स्थापना की
सत्यता प्रमाणित करना ।’ उक्त निबंध के प्रसंग में इस प्रणाली
का प्रयोग किया गया है । उदाहरण देते हुए पांडे जी लिखते हैं ‘शुक्ल जी ने ‘क्रोध’ निबंध में
पहले ‘क्रोध’ की परिभाषा दी, फिर बताया कि क्रोध के लिए पहुँचने वाले दु:ख और उसके
कारण का परिज्ञान आवश्यक होता है । इसके बिना क्रोध उत्पन्न नहीं होता । अपनी बात को
स्पष्ट करने के लिए उन्होंने एक उदाहरण दिया : “तीन-चार महीने के बच्चे को कोई हाथ उठाकर मार दे, तो उसने
हाथ उठाते तो देखा है पर अपनी पीड़ा और उस हाथ उठाने से क्या संबंध है, यह वह नहीं जानता है । अत: वह केवल रोकर अपना दु:ख मात्र प्रकट कर देता है ।” इस उदाहरण के बल पर अगले
वाक्य में उन्होंने सूत्र शैली में यह निष्कर्ष दिया कि- “दु:ख के कारण की स्पष्ट धारणा के बिना क्रोध का उदय नहीं होता ।”’ इतने में तो केवल शुक्ल जी ने वर्ण्य विषय का रूप स्पष्ट किया है ।
इसके तुरंत बाद ही वे इस मनोभाव की आवश्यकता बताने लगते हैं
। इस सिलसिले में ध्यान देने की बात यह है कि आम तौर पर क्रोध को अच्छी बात नहीं माना
जाता लेकिन स्वाधीनता आंदोलन के साथ इसे जोड़कर देखते ही उनका आशय स्पष्ट हो जाता है
। इसे एक अन्य उदाहरण से पुष्ट करना अप्रासंगिक न होगा । प्रेमचंद पर जब आरोप लगा कि
वे समाज में घृणा का प्रचार करते हैं तो उन्होंने निबंध लिखा ‘साहित्य
में घृणा की आवश्यकता’ और यह बताया कि अन्याय के प्रति घृणा समाज
के लिए अत्यंत आवश्यक है । लगभग उसी तरह शुक्ल जी ने बताया कि ‘सामाजिक जीवन में क्रोध की जरूरत बराबर पड़ती है । यदि क्रोध न हो तो मनुष्य
दूसरों के द्वारा पहुँचाये जानेवाले बहुत से कष्टों की चिर-निवृत्ति
का उपाय ही न कर सके ।---कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि
चेतन सृष्टि के भीतर क्रोध का विधान इसीलिए है ।’ क्रोधी व्यक्ति
केवल इसीलिए क्रोध नहीं करता कि भावी कष्ट से बच सके लेकिन अगर किसी मनुष्य में क्रोध
का विकास ही नहीं हुआ तो वह कष्ट सहता रहेगा । इसे स्वाधीनता आंदोलन के भीतर गरम दल
के साथ शुक्ल जी की सहमति के रूप में देखने के लिए इसे ही देखना काफी है कि वे कहते
हैं कि कष्ट सहने से कष्ट देने वाले ‘उस दुष्ट के हृदय में विवेक,
दया आदि उत्पन्न करने में बहुत समय लगेगा । संसार किसी को इतना समय ऐसे
छोटे-छोटे कामों के लिए नहीं दे सकता ।’ इसके अतिरिक्त दूसरा उपाय है कि भयभीत होकर मनुष्य कष्ट देने वाले से बच जाए
लेकिन यह नितांत व्यक्तिगत रक्षा होगी ‘समाज में इस प्रकार प्राप्त
दु:ख निवृत्ति चिरस्थायिनी नहीं होती ।’ यानी अगर समाज को कष्ट देने वाले से समाज की रक्षा करनी है तो इसके लिए क्रोध
आवश्यक है ।
मनोभावों
के वर्णन में शुक्ल जी विकासवाद से प्रभावित दिखाई पड़ते हैं । किसी भी मनोभाव का आदिम रूप उन्हें बच्चों में दिखाई देता है उसके बाद उम्र बढ़ने पर मनुष्य के सामाजिक परिचय का जब विस्तार होता है तब उसी मनोभाव के ज्यादा जटिल रूप प्रकट होते हैं । इसी चिंतन पद्धति या तर्क योजना के अनुसार वे बच्चे में क्रोध का स्वरूप दिखाते हैं । राम कृपाल पांडे के अनुसार ‘क्रोध का विकास
बच्चे में जल्द हो जाता है । दूध पिलाने में माँ के देर करने से बच्चे को दु:ख के
साथ क्रोध की भी अनुभूति होने लगती है, उसके रोने में क्रोध की झलक
होती है ।’ इस उद्धरण
में क्रोध को वे एक हद तक जन्मजात प्रवृत्ति मानते प्रतीत होते हैं ।
तीसरे
अनुच्छेद में वे क्रोध के दो प्रकार बतलाते हैं । इसे राम कृपाल जी ने समझाते हुए लिखा ‘पहला शुद्ध प्रतिकार की भावना
से प्रेरित और दूसरा स्वरक्षा की भावना से प्रेरित ।’ खास बात यह है
कि सभी मनोभावों की तरह क्रोध भी सामाजिक अंत:क्रिया में ही पैदा
होता है । इसी के चलते यह समाज के लिए उपयोगी होता है । मान लीजिए जिसने हमें कष्ट दिया उसके दुबारा मिलने की कोई संभावना नहीं है तो उस पर हमारा क्रोध शुद्ध प्रतिकार होगा । लेकिन इससे जिसने कष्ट दिया उसे यह शिक्षा मिल जाती है कि दूसरे किसी को वैसा ही कष्ट देने की कोशिश वह न करे । इस तरह व्यक्तिगत रूप से हमारे अतिरिक्त अन्य लोगों के कष्ट की संभावना इससे दूर हो जाती है । इसीलिए यह सामाजिक रूप से उपयोगी होता है । स्वरक्षा की भावना से किया गया क्रोध किस तरह उपयोगी होता है इसका विवेचन करते हुए राम कृपाल जी लिखते हैं ‘दूसरे प्रकार का क्रोध
जो किसी के बार-बार दु:ख पहुँचाने पर या पहुँचाए जाने की संभावना होने पर आत्मरक्षा की भावना से प्रेरित होता है- उचित और उपयोगी
होता ही है ।’ यानी क्रोध जिस भी भावना
के साथ किया जाए समाजिक रूप से उपयोगी होता है ।
उपयोगी
होने के बावजूद क्रोध की अति कभी कभी धोखा देती है इसीलिए आचार्य शुक्ल उस पर बुद्धि के अंकुश की बात करते हैं । धोखा होने की बातों का जायजा लेते हुए राम कृपाल जी कहते हैं ‘दु:ख के कारण का अनुमान गलत होने पर हमारा क्रोध किसी निर्दोष पर होने से बिल्कुल ही अनुचित होगा ।’ दूसरे कारण का उल्लेख
करते हुए वे बताते हैं कि ‘क्रोधी यह भी
नहीं सोचता कि दु:ख पहुँचाने
वाले ने उसे जानबूझकर दु:ख पहुँचाया
है या अनजाने में । यदि अनजाने में दु:ख पहुँचाया
गया है तो क्षमा या सहिष्णुता ही उपयुक्त है ।’ तीसरे जिस कारण से क्रोध
पर बुद्धि का नियंत्रण जरूरी है वह नितांत व्यावहारिक है । उसके बारे में राम कृपाल जी का कहना है ‘क्रोध के आवेग
में व्यक्ति दु:ख पहुँचाने
वाले की शक्ति पर भी विचार नहीं करता । यदि दु:ख पहुँचाने
वाला अधिक शक्तिशाली हुआ तो उसे पहले से भी अधिक दु:ख पहुँचा
सकता है ।’ चौथे कारण का उल्लेख इस तरह कि ‘क्रोध के आवेग में व्यक्ति न तो यह विचार करता है कि उसकी अपनी भी कोई गलती
है और न यही कि क्रोध में किये जाने वाले कर्म का परिणाम क्या होगा ।’ इन कारणों के चलते क्रोध को काबू में रखना ठीक होता है । इसके न होने से जो
होता है उसे शुक्ल जी ‘क्रोध का अंधापन’ कहते हैं ।
इसके बाद आचार्य शुक्ल क्रोध के परिणाम पर विचार करते हैं ।
उनके अनुसार ‘क्रोध की उग्र चेष्टाओं का लक्ष्य हानि या पीड़ा पहुँचाने के पहले
आलम्बन में भय का संचार करना रहता है ।’ क्रोध के जरिए डर पैदा कर देने से
‘---कभी-कभी उद्देश्य की पूर्ति हो जाती है और दुष्परिणाम की नौबत नहीं आती ।’
इसके अलावा ‘बहुत से स्थलों पर क्रोध का लक्ष्य किसी का गर्व चूर्ण करना मात्र
रहता है अर्थात दु:ख का विषय केवल दूसरे का गर्व या अहंकार होता है ।’ इस तरह का
क्रोध किसी को नुकसान नहीं पहुँचाता बल्कि ‘—उसकी प्रवृत्ति अभिमानी को केवल नम्र
करने की रहती है; उसको हानि या पीड़ा पहुँचाने का उद्देश्य नहीं होता ।’ इसके बाद
एक सूत्र वाक्य कि ‘संसार में बहुत से अभिमान का उपचार अपमान द्वारा ही हो जाता है
।’ भय पैदा करके दु:ख देने वाले को नम्र किया जाता है तो अपमानित करने से प्रतिकार
की संतुष्टि मिल जाती है ।
इसके बाद वे क्रोध के एक ऐसे इस्तेमाल के बारे में बताते हैं
जिसकी पहचान के लिए सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि की जरूरत होती है । ऐसा देखा
गया है कि क्रोध में कभी कभी लोग अपना सिर पटक लेते हैं । इसके पीछे सिर पटकने वाले
का देखने वाले पर भरोसा होता है । व्याख्या करते हुए बताते हैं ‘जब किसी
को क्रोध में अपना ही सर पटकते या अंग भंग करते देखे तो समझ लेना चाहिए कि उसका क्रोध
ऐसे व्यक्ति के ऊपर है जिसे उसके सर पटकने की परवाह है अर्थात जिसे उसका सर फटने से
उस समय नहीं तो आगे चलकर दु:ख पहुँचेगा ।’ इसीलिए अक्सर क्रोध का यह प्रदर्शन अपने निकट के लोगों की मौजूदगी में किया
जाता है । इसके अतिरिक्त क्रोध की एक और अभिव्यक्ति है जिसे राम कृपाल जी के अनुसार
शुक्ल जी क्रोध का अपरिष्कृत रूप मानते हैं । शुक्ल जी ने इसके दो उदाहरण दिए हैं ।
एक चाणक्य द्वारा कुश की जड़ में मट्ठा डालना और दूसरे किसी ब्राह्मण के भोजन बनाने
के लिए चूल्हा जलाने में असफल रह जाने पर चूल्हे में पानी डाल देना । हल्के हास्य भरे
ऐसे उदाहरण गाढ़े तर्क प्रवाह को धीमा करने के लिए वे बीच बीच में देते चलते हैं ।
इसके बाद आचार्य शुक्ल ने बताया कि क्रोध दया और घृणा के साथ
भी उत्पन्न होता है और इनकी प्रेरणा से होने वाले अच्छे कामों का कारण होते हुए भी
श्रेय नहीं लेता । सामाजिक जीवन से दया का उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया कि केवल दया
से ‘त्याग और कोमल व्यवहार’ ही पैदा होता है लेकिन जब उसके
साथ क्रोध मिल जाता है तो अत्याचारी का दमन किया जाता है लेकिन इसका कारण दया ही मानी
जाती है । इसके बाद अपनी सुपरिचित शैली में लिखा कि ‘काम क्रोध
करता है, पर नाम दया का ही होता है ।’ यह
एक तरह से अत्याचार के क्रोध जनित प्रतिकार को व्यापक समाज पर दया करने की तरह बताना
है । समाज के स्वास्थ्य और कल्याण के लिए मनोभावों के सकारात्मक इस्तेमाल पर उनकी नजर
बराबर बनी रहती है और सूक्ष्म से सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए भी उनकी यह समाज की हित
चिंता दिखाई पड़ जाती है । समाज की सुख शांति के लिए वे क्रोध के चिन्ह दबाना ठीक मानते
हैं लेकिन जोड़ देते हैं कि ‘परपीड़कोन्मुख क्रोध’ की स्थिति में यह प्रतिबंध तोड़ देना चाहिए ।
क्रोध के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि जिस पर क्रोध किया जाता
है उस पर जो भी प्रभाव पड़े लेकिन जो क्रोध करता है उसे भी तकलीफ होती है इसीलिए शुक्ल
जी कहते हैं कि ‘क्रोध शांति-भंग करने वाला मनोविकार है ।’
शायद इसलिए भी ‘धर्म, नीति
और शिष्टाचार तीनों में क्रोध के निरोध का उपदेश पाया जाता है ।’ लेकिन क्रोध के निरोध का यह उपदेश ढकोसला साबित होता है जब हम देखते हैं कि
‘जिससे कुछ स्वार्थ निकालना रहता है, जिसे बातों
में फँसाकर ठगना रहता है, उसकी कठोर और अनुचित बातों पर न जाने
कितने लोग जरा भी क्रोध नहीं करते, पर उसका यह अक्रोध न धर्म
का लक्षण है न साधन ।’ इस तरह के ढकोसले के मुकाबले शुक्ल जी
सात्विक क्रोध के पक्षधर हैं ।
आचार्य शुक्ल ने मनोभावों का विवेचन करते हुए उन्हें दो प्रकार
का बताया है । एक तरह के मनोभाव वे होते हैं जो सामने वाले के मन में समान भाव को जन्म
नहीं देते । उदाहरण के लिए ईर्ष्या । जिससे हम ईर्ष्या करते हैं जरूरी नहीं कि वह व्यक्ति
भी हमसे ईर्ष्या करे । लेकिन क्रोध इससे विपरीत प्रतिक्रिया को जन्म देता है । शुक्ल
जी के अनुसार ‘एक का क्रोध दूसरे में भी क्रोध का संचार करता है ।’ इसलिए यदि कोई व्यक्ति हम पर क्रोध कर रहा है तो उस पर क्रोध करने से पहले
विचार कर लेना चाहिए कि वह उचित है या नहीं । बहुत संभव है कि वह हमारी किसी गलती के
कारण हम पर क्रोध कर रहा हो और उस पर ध्यान देने से गलती दुरुस्त हो जाए ।
क्रोध को बुरा बताने वालों का थोड़ा पक्ष लेते हुए वे एक प्रकार
के क्रोध का त्याग सही मानने के लिए क्रोध के प्रेरक दो तरह के दु:खों की
कल्पना करते हैं ‘अपना दु:ख और पराया दु:ख ।’ इसमें केवल पहले कारण से उत्पन्न दु:ख को वे त्याज्य समझते हैं । इसी विभाजन के आधार पर वे यह भी प्रतिपादित करते
हैं कि क्रोध का प्रेरक दु:ख जितना दूर हो उससे उत्पन्न क्रोध
उतना ही उत्तम होता है । तात्पर्य कि केवल अपने ग्राम, अपने देश,
अपनी जाति या अपने धर्म के व्यक्ति के साथ हो रहे अन्याय के कारण क्रोध
हो तो काव्य में सौंदर्य नहीं पैदा होगा । क्रोध को सुंदर होने के लिए निर्विशेष के
प्रति उमड़ी हुई ‘करुणा का सेवक’ होना होगा
। इसी तथ्य को पुष्ट करते हुए राम कृपाल जी ने लिखा ‘किसी समाज
में किसी क्रूर अत्याचारी का बहुत दिनों तक बना रहना उस समाज की घोर निराशा,
कायरता और शिथिलता का परिचायक होता है । ऐसे समाज में उस अत्याचारी के
विरुद्ध यदि कोई क्रोधाग्नि फूटती है तो उसके सौंदर्य का अनुभव सारा लोक करता है ।’
उदाहरण के रूप में वे राम के क्रोध के काव्यात्मक सौंदर्य की बात करते
हैं लेकिन मुख्य बात उदाहरण नहीं बल्कि सारी सृष्टि के प्रति होने वाले अन्याय के विरोध
में क्रोध की वकालत है जिसका ठोस संदर्भ भारत का स्वाधीनता आंदोलन है । इसी संदर्भ
से हम शासन के क्रोध का अनौचित्य साबित करने वाले इस अंश को समझ सकते हैं ‘जहाँ
राजकोप धर्मकोप से एकदम भिन्न दिखाई पड़े, वहाँ उसे राजकोप न समझकर कुछ विशेष
मनुष्यों का कोप समझना चाहिए ।---उसका सम्मान जनता अपने लिए आवश्यक नहीं समझ सकती
।’ इस प्रकरण से स्पष्ट है कि शुक्ल जी का लेखन मूल रूप से उपनिवेशवाद के विरोध से
जुड़ा हुआ है ।
इसके बाद वे क्रोध के विभिन्न रूपों की चर्चा शुरू करते हैं
। इनमें सबसे पहले रूप को वे वैर कहते हैं और इसकी परिभाषा के लिए अत्यंत
रूपकात्मक भाषा का प्रयोग करते हैं जो आलंकारिक होने के साथ ही अर्थ का वहन करने
में भी सक्षम है । ‘वैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है’ में व्याख्या की संभावना को
खोलते हुए लिखते हैं ‘पूछिए तो क्रोध और वैर का भेद केवल कालकृत है ।’ अर्थात
तुरंत की प्रतिक्रिया क्रोध कही जाएगी और बहुत दिनों तक उसका बने रहना वैर कहलाएगा
। इसके लिए जो विशेषता होनी चाहिए उसकी कैफियत यह है कि ‘---वैर उन्हीं प्राणियों
में होता है जिनमें धारणा अर्थात भावों के संचय की शक्ति होती है ।’ अपवाद इसलिए
गिना दिए कि उनसे इसी बात की पुष्टि होती है ‘पशु और बच्चे दोनों क्रोध करते हैं
और थोड़ी देर के बाद भूल जाते हैं ।’ कहने का मतलब कि वैर करने में समझदार मनुष्य ही
सक्षम है ।
क्रोध के जिस दूसरे रूप की बात वे इसके बाद करते हैं उसे चिड़चिड़ाहट
का नाम देते हैं और परिभाषित करते हुए सूत्रबद्ध करते हैं ‘क्रोध
का एक हल्का रूप है चिड़चिड़ाहट, जिसकी व्यंजना प्राय: शब्दों ही तक रहती है ।’ विशेष बात यह है कि इस प्रसंग में भी वे ‘किसी
मत, सम्प्रदाय या संस्था के भीतर निरूपित आदर्शों पर ही अनन्य दृष्टि’ रखने वालों की
खिल्ली उड़ाने में संकोच नहीं करते जो ‘बाहर की दुनिया को देख-देखकर अपने जीवन भर चिड़चिड़ाते
चले जाते हैं ।’ स्वाभाविक है कि शुक्ल जी भी अनेक संस्थाओं में रहे थे इसलिए ऐसे लोग
उनके जीवन अनुभव का अंग रहे होंगे । आगे के शब्द ही जाहिर कर देते हैं कि कोई न कोई
साकार व्यक्ति उनकी आँख के सामने रहा होगा जिसको याद करते हुए लिखा ‘जिधर निकलते हैं,
रास्ते भर मुँह बिगड़ा रहता है ।’ यानी व्यंग्य का यह रूप ऐसे लोगों की तकलीफदेह उपस्थिति
से मुक्ति की राह भी देती है । फिर इसे दुर्बलता की निशानी मानने का प्रमाण देते हैं
‘—इसी से यह रोगियों और बुड्ढों में अधिक पाई जाती है ।’ इससे बहुत सारे बच्चे आस पास
के बूढ़ों को अक्सर चिढ़ाकर मजा लेते रहते हैं । इस परिघटना के बारे में कोई नैतिक निर्णय
देने की जगह आचार्य शुक्ल एक उदात्त भाव की स्थापना करते हैं । उनका कहना है ‘जिस प्रकार
लोगों को हँसाने के लिए कुछ लोग मूर्ख या बेवकूफ बनते हैं उसी प्रकार चिड़चिड़े भी ।’
समाज के व्यापक हित की दृष्टि से इसी प्रसंग में वे मूर्ख की जरूरत बताते हैं ‘मूर्ख
हास्य रस के बड़े प्राचीन आलंबन हैं । न जाने कब से इस संसार की रुखाई के बीच हास का
विकास कराते चले आ रहे हैं ।’ मनोभावों का विश्लेषण करते हुए लगातार शुक्ल जी उनके
सामाजिक प्रकार्य पर निगाह रखते हैं ।
क्रोध का ही एक अविकसित रूप उनके अनुसार अमर्ष है । इसकी संक्षिप्त परिभाषा ‘किसी
बात का बुरा लगना, उसकी असह्यता का क्षोभयुक्त और आवेगपूर्ण अनुभव होना, अमर्ष कहलाता
है ।’ भी उनकी समास शैली की परिचायक है । इससे क्रोध का अंतर करते हुए उन्होंने लिखा
‘पूर्ण क्रोध की अवस्था में मनुष्य दु:ख पहुँचाने वाले पात्र की ओर ही उन्मुख रहता
है- उसी को भयभीत या पीड़ित करने की चेष्टा में प्रवृत्त रहता है । अमर्ष में दु:ख पहुँचाने
वाली बात के ब्यौरों पर और उसकी असह्यता पर विशेष ध्यान रहता है ।’ इसके आगे वे इन
दोनों के अंतर को उदाहरणों के सहारे स्पष्ट करते हैं ।
क्रोध निबंध छोटा होने के बावजूद शुक्ल जी की निबंध शैली को समझने की दृष्टि से
बेहद उपयोगी है । इससे उनके वक्तव्य की संक्षिप्तता के बावजूद अर्थवहन की क्षमता प्रकट
होती है । इससे यह भी पता चलता है कि सभी मनोभाव सामाजिक आचरण में जन्म लेते हैं और
उनका उद्देश्य समाज का सुचारु संचालन है । किसी गंभीर धारणा को उदाहरणों के सहारे स्पष्ट
करने की शुक्ल जी की शैली भी इससे जाहिर होती है । इस निबंध से पता चलता है कि लेखन
में अवसर मिलने पर हास्य व्यंग्य की सृष्टि भी वे करते चलते हैं ।
बड़ी अच्छी समीक्षा है सर । धन्यवाद आपका काफी मदद मिली हमें । 🙏🙏
ReplyDeleteThanks
ReplyDeleteNice
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी समीक्षा है
ReplyDeleteकृपया आचार्य शुक्ल के करुणा निबंध की भी समीक्षा साझा करें । 👏👏👏
ReplyDeleteकोई अवसर पैदा होने से जरूर करूंगा ।
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