हेग कांग्रेस के बाद भी कुछ महीनों तक दोनों
खेमों के बीच लड़ाई चलती रही लेकिन शायद ही कुछ मामलों में दोनों के मौजूदा
सैद्धांतिक और वैचारिक अंतर इसके केंद्र में रहे हों । मार्क्स अकसर बाकुनिन के
विचारों का मजाक उड़ाते थे, उन्हें ‘वर्ग समानता’ (एलायंस फ़ार सोशलिस्ट डेमोक्रेसी
के 1869 कार्यक्रम के सिद्धांतों के आधार पर) या राजनीतिक अनुपस्थितिवाद के वकील
के रूप में पेश करते थे । अपनी ओर से यह रूसी अराजकतावादी व्यक्तिगत आरोपों और प्रवादों
के स्तर पर मुकाबला करना पसंद करता था क्योंकि प्रतिद्वंद्वी की सैद्धांतिक क्षमता
का उसमें अभाव था । उसके सकारात्मक विचारों का एकमात्र सबूत ला लिबर्ते
(ब्रसेल्स का अखबार) के लिए लिखा एक अधूरा खत है
जिसे भेजा नहीं गया, विस्मृत रहा और लगातार चलने वाले झगड़ों में
बाकुनिन के समर्थकों के किसी काम का नहीं निकला । इससे ‘स्वायत्ततावादियों’
के राजनीतिक विचारों का साफ खुलासा होता है:
“इंटरनेशनल के फ़ेडरेशनों और प्रभागों—के सदस्यों को आपस में जोड़ने वाला नियम एक ही है ।-----और वह है श्रम के शोषकों के विरुद्ध आर्थिक संघर्षों में सभी पेशों और सभी
देशों के मजदूरों की अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता । मजदूर वर्ग की स्वत:स्फूर्त कार्यवाही के जरिए उसी एकजुटता का संगठन और पूरी तरह से स्वतंत्र फ़ेडरेशन---ही इंटरनेशनल की वास्तविक और जीवंत एकता का प्राण है । कौन शक कर सकता है कि
पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध सर्वहारा की इसी जुझारू एकजुटता के अधिकाधिक व्यापक होते
संगठन से ही पूंजीपतियों के विरुद्ध सर्वहारा का राजनीतिक संघर्ष पैदा होना चाहिए
? इस सवाल पर मार्क्सवादी और हम एकमत हैं । लेकिन इसके बाद वह सवाल आता
है जो हमें गहराई से मार्क्सवादियों से अलगा देता है । हमारा सोचना है कि सर्वहारा
की नीति अनिवार्य तौर पर क्रांतिकारी होनी चाहिए जिसका एकमात्र और सीधा उद्देश्य राज्य
का विनाश होगा । हम समझ नहीं पाते कि अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता की बात करते हुए राज्य
को संरक्षित रखना कैसे संभव है ।----क्योंकि अपनी प्रकृति से
ही राज्य उस एकजुटता के साथ घात है और इसीलिए स्थायी युद्ध का कारण है । हम यह भी नहीं
समझ पाते कि राज्य के भीतर और उसके जरिए सर्वहारा की मुक्ति या जनसमुदाय की सच्ची आजादी
की बात करना कैसे संभव है । राज्य का मतलब ही है अधिकारसंपन्न होना और समस्त अधिकारसंपन्नता
के लिए जनसमुदाय की अधीनता और फलत: किसी न किसी शासक अल्पसंख्या
के हित में उनका शोषण आवश्यक है । संक्रमण की प्रक्रिया में भी हम संविधान सभा,
अस्थायी सरकार या तथाकथित क्रांतिकारी तानाशाही को स्वीकार नहीं कर सकते
क्योंकि हमारा यकीन है कि जनगण के हाथों में ही क्रांति सच्ची, वास्तविक और ईमानदाराना हो सकती है तथा जब भी यह मुट्ठी भर शासक व्यक्तियों
में केंद्रित होगी यह अनिवार्य रूप से और तत्काल प्रतिक्रिया हो जाती है ।”
इस तरह साफ है कि किसी भी तरह के राजनीतिक प्राधिकार,
खासकर उसके प्रत्यक्ष रूप राज्य का कट्टर विरोध करने के मामले में बाकुनिन
के विचार बहुत कुछ प्रूधों से मिलते जुलते हैं लेकिन उन्हें साझेदारीवादियों के साथ
खड़ा कर देना गलत होगा । जहां साझेदारीवादी समस्त राजनीतिक गतिविधि से वस्तुत:
अलग रहते थे और इंटरनेशनल के शुरुआती सालों में उनका भारी असर था वहीं
स्वायत्ततावादी ‘सामाजिक क्रांति की खास राजनीति के पक्ष में,
पूंजीवादी राजनीति और राज्य के नाश के पक्ष में’ लड़ते हैं- जैसा कि गिलौमे ने हेग कांग्रेस के अपने आखिरी
हस्तक्षेप में कहा था । इसे माना जाना चाहिए कि वे इंटरनेशनल के क्रांतिकारी घटक थे
और कि राजनीतिक सत्ता, राज्य और नौकरशाही के सवालों पर उनके विचार
मजेदार आलोचनात्मक योगदान प्रतीत होते हैं ।
फिर स्वायत्ततावादियों की
‘नकारात्मक राजनीति’ जिसे वे कार्यवाही का एकमात्र
संभव रूप समझते थे वह कैसे केंद्रवादियों की ‘सकारात्मक राजनीति’
से अलग थी? इटालियन फ़ेडरेशन के प्रस्ताव पर 15-16
सितंबर 1872 को संपन्न सेंट-इमिएर की इंटरनेशन कांग्रेस, जिसमें हेग से लौटते हुए
अन्य प्रतिनिधियों ने भाग लिया था, के प्रस्तावों में कहा गया
कि ‘सभी राजनीतिक संगठन प्रभुत्व के संगठन ही हो सकते हैं । वे
किसी एक वर्ग को लाभ पहुंचाते हैं और जनगण के लिए नुकसानदेह होते हैं । अगर सर्वहारा
सारी राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करना चाहता है तो वह खुद प्रभुत्वशाली और शोषक वर्ग हो
जाएगा’ । इसी कारण ‘सर्वहारा का पहला काम
समस्त सत्ता का नाश है’ और ‘इस नाश के लिए
किसी भी तथाकथित अस्थायी और क्रांतिकारी राजनीतिक सत्ता का गठन केवल और बड़ा धोखा साबित
होगा तथा सर्वहारा के लिए उतना ही खतरनाक होगा जितना मौजूदा कोई भी सरकार है’
। बाकुनिन ने एक और अधूरे लेख ‘द इंटरनेशनल ऐंड
कार्ल मार्क्स’ में जैसा जोर देकर कहा है कि इंटरनेशनल का कार्यभार
‘राज्य और पूंजीवादी दुनिया से बाहर की राजनीति’ में सर्वहारा का नेतृत्व करना था इसलिए उसके कार्यक्रम का सच्चा आधार
‘सहज सरल- पूंजीवाद के विरुद्ध मजदूर के आर्थिक
संघर्ष में एकजुटता का निर्माण’ होना चाहिए । असल में तो अगर
तमाम बदलावों पर ध्यान दिया जाए तो सिद्धांतों की यह घोषणा इंटरनेशनल के मूल लक्ष्य
के अधिक करीब थी और जिस दिशा का संकेत कर रही थी वह लंदन सम्मेलन के बाद मार्क्स और
जनरल कौंसिल द्वारा अपनाई गई दिशा से बहुत अलग थी ।
सिद्धांतों और लक्ष्यों के इस गंभीर विरोध ने हेग
का माहौल तैयार किया था । जहां बहुसंख्या राजनीतिक सत्ता पर जीत को
‘सकारात्मक’ समझ रही थी वहीं स्वायत्ततावादी राजनीतिक
पार्टी को ऐसे उपकरण के बतौर पेश कर रहे थे जो अनिवार्य रूप से पूंजीवादी संस्थाओं
के मातहत रहती है और कम्यूनिज्म की मार्क्स की धारणा को भोंड़े तरीके से लासालीय फ़ोक्सस्टाट
के समरूप बता रहे थे जबकि मार्क्स उसका अनथक विरोध करते थे । बहरहाल कुछ ही समय बाद
जब शत्रुता के उपरांत विवेक पैदा हुआ तो बाकुनिन और गिलौमे ने माना कि दोनों पक्षों
की चाहत एक ही है । मार्क्स ने एंगेल्स के साथ लिखी इंटरनेशनल में कल्पित फूटें में
दर्ज किया कि समाजवादी समाज की एक पूर्वशर्त राजसत्ता का उन्मूलन है:
“सारे समाजवादी अराजकतावाद को इस कार्यक्रम
के रूप में देखते हैं- सर्वहारा आंदोलन का लक्ष्य यानी वर्ग उन्मूलन
जब हासिल हो जाता है तो राजसत्ता लुप्त हो जाती है जो उत्पादकों की बहुसंख्या को मुट्ठी
भर शोषक अल्पसंख्या के अधीन रखने का काम करती है और फिर सरकार के काम महज प्रशासनिक
काम बनकर रह जाते हैं ।”
दोनों के बीच अंतर असमाधेय इसलिए हो जा रहा था
क्योंकि स्वायत्ततावादी जोर दे रहे थे कि इस लक्ष्य को तुरंत साकार किया जाए । मार्क्स
की नजर में चूंकि स्वायत्ततावादी इंटरनेशनल को राजनीतिक संघर्ष का औजार मानने की जगह
भविष्य के ऐसे आदर्श समाज का माडल मानते थे जहां किसी तरह का प्राधिकार नहीं होगा इसलिए
बाकुनिन और उनके समर्थक
“सर्वहारा की कतारों में अराजकता को ऐसा
अमोघ अस्त्र समझते थे जो शोषकों के हाथों में सामाजिक और राजनीतिक सत्ता के केंद्रीकरण
को खत्म करता है । इसी बहाने की आड़ में (वे) इंटरनेशनल से संगठन की जगह पर अराजकता को स्थापित करने के लिए कहते हैं जब
पुरानी दुनिया उसे कुचल डालने का रास्ता खोज रही है ।”
इस प्रकार हालांकि उनके बीच समाजवादी समाज में
वर्गों और राज्य की राजनीतिक सत्ता को उखाड़ फेंकने की जरूरत के बारे में सहमति थी फिर
भी दोनों पक्ष इस बदलाव को ले आने के लिए आवश्यक रास्ते और सामाजिक ताकतों के बुनियादी
मुद्दों पर विपरीत बातें कह रहे थे । जहां मार्क्स के लिए सर्वोत्कृष्ट क्रांतिकारी
कर्ता खास वर्ग, औद्योगिक सर्वहारा था वहीं बाकुनिन
इसकी आशा ‘जनता की विशाल भीड़’, तथाकथित
‘लंपट सर्वहारा’ से करते थे जो ‘पूंजीवादी सभ्यता से लगभग अदूषित होने के कारण अपने आंतरिक जीवन और अपनी आकांक्षाओं
में, सामूहिक जीवन की तमाम आवश्यकताओं और तकलीफों में भविष्य
के समाजवाद के सभी बीज लिए रहता है’ । कम्यूनिस्ट मार्क्स ने
सीखा था कि सामाजिक रूपांतरण के लिए खास ऐतिहासिक परिस्थितियों, प्रभावशाली संगठन और जनता में वर्ग चेतना के निर्माण की दीर्घकालीन प्रक्रिया
की जरूरत होती है वहीं अराजकतावादी बाकुनिन को यकीन था कि आम जन, तथाकथित ‘भीड़’ की अंतश्चेतना
‘अजेय और न्यायोचित’ तो होती ही है, ‘सामाजिक क्रांति के आरम्भ और उसकी विजय’ के लिए भी अपने
आपमें पर्याप्त होती है ।
दूसरी असहमति का संबंध समाजवाद की प्राप्ति के
उपकरणों से था । बाकुनिन की ज्यादातर लड़ाकू गतिविधियों में अधिकतर बुद्धिजीवियों की
छोटी ‘गुप्त सोसाइटियों’ का निर्माण
(या निर्माण की कल्पना) शामिल था जिन्हें वे
‘समर्पित, ऊर्जावान, प्रतिभाशाली
व्यक्तियों, सबसे आगे बढ़कर जनता के सच्चे दोस्तों को लेकर निर्मित
क्रांतिकारी सेना’ कहते थे जो आम विद्रोह की तैयारी करेंगे और
क्रांति को सचालित करेंगे । इसके उलटा मार्क्स मजदूर वर्ग द्वारा खुद की मुक्ति में
यकीन करते थे और मानते थे कि ‘सर्वहारा आंदोलन के विकास से’
गुप्त सोसाइटियों का टकराव होगा ‘क्योंकि मजदूरों
को शिक्षित करने की बजाए ये सोसाइटियां उन्हें ऐसे मनमाने, रहस्यमय
नियमों के अधीन ले आती हैं जो नियम उनकी स्वतंत्रता को नियंत्रित करते हैं और उनकी
विवेक-शक्ति को विकृत करते हैं’ । रूस से
निर्वासित बाकुनिन मजदूर वर्ग की सीधे क्रांति को प्रोत्साहित न करने वाली सभी राजनीतिक
कार्यवाहियों का विरोध करता था जबकि लंदन में स्थायी आवास वाले राज्यविहीन मार्क्स
सामाजिक सुधारों और आंशिक लक्ष्यों के लिए गोलबंदी से परहेज नहीं करते थे लेकिन इस
बात को पूरी तरह मानते थे कि इनसे पूंजीवादी उत्पादन पद्धति को खत्म करने का मजदूर
वर्ग का संघर्ष मजबूत होना चाहिए न कि उसे व्यवस्था में समाहित हो जाना चाहिए ।
इन अंतरों को क्रांति के बाद भी समाप्त नहीं होना था
। बाकुनिन की नजर में ‘राज्य का खात्मा सर्वहारा की आर्थिक मुक्ति की पूर्वशर्त या
अनिवार्य सहचर’ था । मार्क्स की नजर में राज्य न तो एक दिन में गायब हो सकता था न उसे
गायब होना चाहिए । दिसंबर 1873 में अलमानाको रिपब्लिकानो में पहली बार प्रकाशित अपने
लेख ‘पोलिटिकल इनडिफ़रेंटिज्म’ में उन्होंने इटली के मजदूर आंदोलन में अराजकतावादियों
के वर्चस्व को यह कहते हुए चुनौती दी कि
“अगर मजदूर वर्ग का राजनीतिक संघर्ष हिंसक रूप ग्रहण
कर लेता है और अगर मजदूर पूंजीपति वर्ग की तानाशाही की जगह पर अपनी क्रांतिकारी तानाशाही
स्थापित करते हैं तो (बाकुनिन के मुताबिक) यह
सिद्धांत से गद्दारी का भयंकर कृत्य होगा क्योंकि अपनी रोजमर्रा की कष्टकर
सांसारिक जरूरतों को पूरा करने और पूंजीपति वर्ग के प्रतिरोध को कुचल देने के लिए
उन्हें अपने हथियार रख देने और राज्य को उखाड़ फेंकने की बजाए राज्य को क्रांतिकारी
और संक्रमणकालीन रूप प्रदान करना चाहिए ।”
बहरहाल इस बात को मानना होगा कि हालांकि बाकुनिन
कभी कभी पूंजीवादी और सर्वहारा सत्ता के बीच फ़र्क करने से उत्तेजक इनकार करते हैं लेकिन
इसके बावजूद उन्होंने पूंजीवाद और समाजवाद के बीच के तथाकथित ‘संक्रमण काल’ के
खतरों- खासकर क्रांति के बाद नौकरशाहाना पतन के खतरों को पहले ही देख लिया था ।
1870 और 1871 में बाकुनिन ने ‘क्नाउटो-जर्मेनिक एम्पायर ऐंड द सोशल रेवोल्यूशन’ लिखा
लेकिन वह अधूरी रही । उसमें लिखा:
“हमें बताया जाता है कि मार्क्स के जनता के
राज्य में कोई विशेषाधिकार-संपन्न वर्ग नहीं होगा । सब समान होंगे, न केवल कानूनी
और राजनीतिक दृष्टि से बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी ।---इसलिए कोई विशेषाधिकार-संपन्न
वर्ग नहीं होगा लेकिन सरकार होगी और ध्यान दीजिए कि यह अत्यंत जटिल सरकार होगी जो
आजकल की सभी सरकारों के काम की तरह केवल जनता पर राजनीतिक शासन और प्रशासन से ही
संतुष्ट नहीं होगी, बल्कि वह उनका आर्थिक शासन भी करेगी । इसके तहत वह उत्पादन और
संपत्ति का न्यायपूर्ण वितरण, जमीन की खेती, कारखानों की स्थापना और उनका विकास,
वाणिज्य का संगठन और दिशा निर्देश और आखिरकार राज्य नामक एकमात्र बैंक के जरिए
उत्पादन के लिए पूंजी निवेश का काम अपने हाथों में केंद्रित कर लेगी ।---यह
वैज्ञानिक बौद्धिकता का सर्वाधिक कुलीन, तानाशाहीपूर्ण, उद्दंडता से भरा हुआ और
सभी सत्ताओं के प्रति अवमानना से भरा हुआ शासन तंत्र होगा । उसमें एक नया वर्ग
होगा, वास्तविक और नकलची वैज्ञानिकों और विद्वानों का एक नया पदानुक्रम होगा तथा
दुनिया ज्ञान के नाम पर शासन करने वाली अल्पसंख्या और विशाल अज्ञानी बहुसंख्या के
बीच विभाजित होगी ।---प्रत्येक राज्य चाहे वह सर्वाधिक गणतंत्रात्मक और सर्वाधिक
लोकतांत्रिक राज्य ही क्यों न हो,---सारत: ऊपर से जनता को शासित करने वाली मशीनें
ही होते हैं । यह शासन ऐसी प्रतिभाशाली और फलत: विशेषाधिकार संपन्न अल्पसंख्या के
जरिए चलाया जाता है जो जनता के वास्तविक हितों को जनता से भी अधिक अच्छी तरह से
जानने का दावा करते हैं ।”
अंशत: अर्थशास्त्र के अपने अल्पज्ञान के कारण
बाकुनिन द्वारा संकेतित संघीयतावादी रास्ता सचमुच का कोई उपयोगी निर्देश नहीं दे
पाता कि भविष्य के समाजवादी समाज के सवाल को कैसे समझा जाए । लेकिन उसकी
आलोचनात्मक अंतर्दृष्टि आगामी बीसवीं सदी के कुछ नाटकों के संकेत दे जाती है ।
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