2002 में लोकभारती से प्रकाशित ‘चिंतामणि-
भाग-1’ की मंजूषा रामकृपाल पाण्डेय ने
‘चिंतामणि-विमर्श’ के नाम
से लिखी है । उसमें वे लिखते हैं ‘आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि
यदि गद्य लेखकों की कसौटी है तो निबन्ध गद्य की कसौटी है ।’ आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने केवल निबंध लिखे ही नहीं उनका स्वरूप स्पष्ट करने की भी कोशिश की । इंडियन प्रेस (पब्लिकेशंस)
प्राइवेट लिमिटेड, इलाहाबाद से प्रकाशित ‘चिंतामणि’ के पहले भाग की मंजूषा में विश्वनाथप्रसाद
मिश्र ने इस सिलसिले में आचार्य शुक्ल के विचारों को प्रस्तुत करने की कोशिश की है
। ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ से उद्धरण
देते हुए उन्होंने लिखा है कि आचार्य शुक्ल के अनुसार ‘आधुनिक
पाश्चात्य लक्षणों के अनुसार निबंध उसी को कहना चाहिए जिसमें व्यक्तित्व अर्थात व्यक्तिगत
विशेषता हो ।’ इस परिभाषा से सहमत होने के बावजूद उन्हें और स्पष्टीकरण
की जरूरत महसूस हुई तो जोड़ा ‘व्यक्तिगत विशेषता का यह मतलब नहीं
कि उसके प्रदर्शन के लिए विचारों की शृंखला रखी ही न जाये या जान-बूझकर जगह-जगह से तोड़ दी जाय, भावों
की विचित्रता दिखाने के लिए ऐसी अर्थ-योजना की जाय जो उनकी अनुभूति
के प्रकृत या लोकसामान्य स्वरूप से कोई संबंध ही न रखे अथवा भाषा से सरकसवालों की-सी कसरतें या हठयोगियों के से आसन कराये जायें जिनका लक्ष्य तमाशा दिखाने के
सिवा और कुछ न हो ।’ निबंध के सिलसिले में शुक्ल जी ने जो भी
विचार किया है वह उनके लेखों और किताबों में यत्र तत्र बिखरा हुआ है क्योंकि शुक्ल
जी ने साहित्य में मूल रूप से कविता पर विचार किया है फिर भी अगर उन्हें जरूरी लगा
तो निबंध के बारे में अपनी मान्यताओं को प्रकट किया है । उनके लेखन की यह भी विशेषता
है कि अपनी मूल मान्यताओं में बदलाव उन्होंने कम ही किए हैं इसलिए किसी विषय पर एक
ही बात विभिन्न जगहों पर आई है ।
उदाहरण के लिए नामवर सिंह के संपादन में 1983 में
राजकमल प्रकाशन से पहली बार प्रकाशित ‘चिंतामणि- तीसरा भाग’ में अठाइसवाँ अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन,
साहित्य परिषद के स्वागताध्यक्ष के बतौर दिए गए भाषण को ‘स्वागत भाषण’ शीर्षक से संकलित किया गया है । इसमें निबंध
पर विचार करते हुए शुक्ल जी लिखते हैं ‘निबंधों के विषय में पहले
तो हमें यह कहना है कि जितनी ही अधिक उनकी आवश्यकता है उतने ही कम वे हमारे सामने आ
रहे हैं ।’ निबंधों की आवश्यकता का अनुभव शुक्ल जी क्यों कर रहे
थे, इसका अनुमान ही किया जा सकता है । इसका एक संभावित कारण तो
भारतेंदु युग में निबंधों की लोकप्रियता हो सकता है । उन्हें लगा होगा कि अधिक से अधिक
लोगों तक गद्य में लिखित साहित्य ले जाने का यह सरस-सहज माध्यम
हो सकता है । निबंध की विषय बहुलता भी उन्हें आकर्षक लगी होगी । इसमें उन्हें यह गुंजाइश
दिखाई पड़ी होगी कि जटिल से जटिल विषय को इस विधा में आकर्षक तरीके से समझाया जा सकता
है । दूसरे इसमें उन्हें गद्य में सृजनशीलता को समाहित करके साहित्य का दायरा विस्तारित
करने की संभावना दिखाई पड़ी होगी । खुद शुक्ल जी के निबंध इसके द्योतक हैं ।
निबंध की मांग और पूर्ति के बीच असंतुलन की पहचान करने के बाद
शुक्ल जी ने दूसरी बात उठाई ‘उनके स्वरूप की’ । इसके
बारे में पहले निबंध की पाश्चात्य कसौटी का परिचय इसलिए दिया कि निबंध पश्चिम से ही
आई हुई गद्य विधा थी । उन्होंने कहा ‘आधुनिक पाश्चात्य कसौटी
के अनुसार शुद्ध निबंध उसी को कहना चाहिए जिसमें व्यक्तित्व अर्थात व्यक्तिगत विशेषता
प्रधान हो ।’ निबंध की इस सर्वमान्य परिभाषा को उद्धृत करने के
बाद उन्होंने इस विशेषता के दो संभावित अर्थ बताए । एक तो ‘भाषा
शैली और अभिव्यंजना प्रणाली’ की विशेषता और दूसरा ‘अर्थ-संबंधी व्यक्तिगत विशेषता’ । इसके बाद सवाल उठाया कि व्यक्तिगत विशेषता का संबंध ‘भाषा-शैली और अभिव्यंजना प्रणाली ही तक से’ माना जाय या ‘अर्थ-संबंधी व्यक्तिगत
विशेषता भी आवश्यक’ समझी जाय । स्वाभाविक रूप से भाषा-शैली और अभिव्यंजना प्रणाली को व्यक्तिगत विशेषता का अनिवार्य घटक समझा जाता
था । शुक्ल जी का जोर अर्थ-संबंधी विशेषता को इसमें शामिल करने
पर है इसलिए वे इसे परिभाषित करने की कोशिश करते हैं । उनका कहना है ‘निबंध-लेखक किसी बिंदु से चलकर तार्किकों के समान किसी
एक ओर सीधा न जाकर अपने मन की प्रवृत्ति के अनुसार स्वच्छंद गति से कभी इधर कभी उधर
मुड़ता हुआ नाना अर्थ-संबंध-सूत्रों पर विचरता
चलता है । यही उसकी अर्थ-संबंधी विशेषता है ।’ इसे ही वे प्रमुख मानते हैं और कहते हैं कि ‘हमारी समझ
में इस अर्थ-संबंधी व्यक्तिगत विशेषता के आधार पर ही भाषा और
अभिव्यंजना-प्रणाली की विशेषता- शैली की
विशेषता- दृढ़ता के साथ खड़ी हो सकती है ।’ इसके बिना ‘केवल भाषा या शैली का निराधार वैचित्र्य किसी
को विचार-श्रृंखला न रखने में लगाएगा, किसी
को वह श्रृंखला बीच-बीच में तोड़ने के लिए उभारेगा, किसी को भाषा से सर्कसवालों-की-सी कसरत या हठयोगियों-के-से आसन
कराने में प्रवृत्त करेगा ।’ तात्पर्य कि ‘निबंधों में व्यक्तिगत वैचित्र्य के लिए उत्तरोत्तर जुड़ती चलती हुई बातों की
विचित्रता पहले होनी चाहिए ।’ इस तमाम विवेचन के बाद शुक्ल जी
ने अपनी चिर परिचित सूत्र शैली में लिखा ‘बात की विचित्रता पर
टिकी भाषा की विचित्रता ही पूरा प्रभाव डालती है और मन अपनी ओर लगाए रहती है ।’
आचार्य शुक्ल का कुल मकसद कथ्य के महत्व की स्थापना करना है ।
व्यक्तिव्यंजक निबंध के नाम पर जिस तरह के शैली मात्र में विचित्र
दिखाई पड़ने वाले लेखन को प्रोत्साहित किया जा रहा था उससे मुकाबला करके निबंध में भी
विषय वस्तु की प्रथमिकता को स्थापित करने के बाद आचार्य शुक्ल उस समय प्रचलित निबंधों
के विभिन्न रूपों पर विचार करते हैं । इनमें जिस रूप का उन्हें विरोध करना था वह भावात्मक
आलोचना का है । यह आलोचना उन्हें भावात्मक निबंधों के रूप में नजर आ रही थी इसलिए उसके
सिलसिले में लिखा ‘इधर कुछ दिनों से गद्यकाव्य के रूप में भावात्मक निबंधों का चलन
हो गया है ।’ रचनात्मक लेखन में ‘गद्य साहित्य
का यह रूप भी वांछनीय है ।’ लेकिन फिर अपनी असहमति दर्ज कराते
हुए लिखा ‘पर सारे प्रबंध ही इस रूप में लिखे जायँ, यह भाषा की शक्ति के सर्वतोमुख विकास के लिए ठीक नहीं जान पड़ता ।’ साफ है कि भावाकुल गद्य लेखन का वे समर्थन नहीं करते । फिर भी वे इसमें दो
शैलियों की कल्पना करते हैं । इसी संग्रह के निबंध ‘शेष स्मृतियां’ की प्रवेशिका
में इन शैलियों की व्याख्या करते हुए लिखते हैं ‘भावात्मक निबंधों की दो शैलियाँ
देखी जाती हैं – धारा-शैली और तरंग-शैली ।’ इस नामकरण से स्पष्ट है कि
व्यक्तिव्यंजक निबंधों में भी वे एक सूत्र के सहारे दूर तक की गई विचार यात्रा को
सहानुभूति देने के लिए तैयार थे लेकिन जिस किताब की प्रवेशिका वे लिख रहे थे उनके
निबंधों के बारे में उनकी राय है कि ‘इन निबंधों की तरंग-शैली है जिसे
विक्षेप-शैली भी कह सकते हैं ।’ शुक्ल जी की भाषा से परिचित कोई भी व्यक्ति इसकी
मारकता को लक्षित कर सकता है । इसके बावजूद उनका जी नहीं भरा तो अगले ही वाक्य में
जोड़ा ‘यह भावाकुलता की उखड़ी-पुखड़ी शैली है । इसमें भावना लगातार एक ही भूमि पर
समगति से नहीं चलती रहती; कभी इस वस्तु को, कभी इस वस्तु को पकड़कर उठा करती है ।’
इस शैली की भाषा कुछ ऐसी होती है ‘कहीं कुछ दूर तक सम्बद्ध और बीच-बीच में उखड़े
हुए वाक्य, कहीं छूटे हुए शून्य स्थल, कहीं अधूरे छूटे प्रसंग, कहीं वाक्य के किसी
मर्मस्पर्शी शब्द की आवृत्ति, ये सब लक्षण भावानुकूल मनोवृत्ति का आभास देते हैं
।’ सहानुभूति न होने के बावजूद उनका समीक्षक इसकी विशेषताओं को अच्छी तरह पहचानता
है । वैसे इसमें 'आभास' शब्द की व्यंजना का भी ध्यान रखना चाहिए ।
इस शैली की खूबियों को गिनाते हुए वे कहते हैं ‘भावात्मक
लेखों में शब्द की सब शक्तियों से काम लेना पड़ता है ।---काव्य
तथा भावप्रधान गद्य में आजकल लक्षणा का पूरा सहारा लिया जाता है । आधुनिक अभिव्यंजना
प्रणाली की सबसे बड़ी विशेषता यही है ।’ याद दिलाने की जरूरत नहीं
कि छायावादी कविता के सिलसिले में भी उन्होंने भाषा की लाक्षणिकता पर जोर दिया था
। भाषा में इससे जो विशेषता पैदा होती है, उसकी निशानदेही करते हुए वे
लिखते हैं ‘इसमें कोई संदेह नहीं कि इसके द्वारा हमारी भाषा में
बहुत-कुछ नई लचक, नया रंग और नया बल आया
है ।’ क्योंकि ‘लाक्षणिक प्रयोग बहुत से
तथ्यों का मूर्त रूप में प्रत्यक्षीकरण करते हैं जो अधिक प्रभावपूर्ण और मर्मस्पर्शी
होते हैं ।’ इस खूबी के बावजूद वे सलाह देते हैं कि ‘जैसे और सब बातों में वैसे ही इसमें भी अति से बचने की आवश्यकता होती है ।’
शुक्ल जी निबंधों से जो काम लेना चाहते थे वह भावात्मक निबंधों से नहीं
हो सकता था फिर भी उन्होंने इस बहाने कथन की मुख्यता और उस पर शैली की निर्भरता की
बात प्रतिपादित की ।
शुक्ल जी ने ‘हिंदी गद्य चन्द्रिका’ के लिए भी भूमिका लिखी थी जो नामवर सिंह द्वारा संपादित ‘चिंतामणि भाग-3’ में ‘गद्य प्रबंध
के प्रकार’ शीर्षक से संग्रहित है । इसमें उन्होंने उपर्युक्त
भावात्मक निबंध के अतिरिक्त निबंध के अन्य रूपों पर भी प्रकाश डाला है । एक है विचारात्मक
निबंध जिसे उनके निबंधों के निकट माना जा सकता है । इसके बारे में उनका मत है कि इन
‘निबंधों में लेखक इस बात का प्रयत्न करता है कि किसी विषय में जो विचार
या सिद्धांत उसके हैं वे ही विचार या सिद्धांत पाठक के भी हो जायँ ।’ इस उद्देश्य की पूर्ति अस्पष्ट लेखन से नहीं हो सकती इसलिए लिखा कि
‘इसके लिए आवश्यक यह होता है कि सब बातें बड़ी स्पष्टता के साथ रखी जायँ
। विचारों की श्रृंखला उखड़ी न हो । सब विचार एक-दूसरे से सम्बद्ध
हों ।’ इस स्पष्टता की अभिव्यक्ति के लिए उचित भाषा की विशेषता
होगी कि ‘शब्द और वाक्य नपे-तुले हों,
अनावश्यक और फालतू शब्दों और वाक्यों के बीच में आ जाने से विचार ढक
जाते हैं और पाठक का ध्यान गड़बड़ी में पड़ जाता है ।---ऐसे लेखों
में मुख्य ध्यान विषय के स्पष्टीकरण की ओर होना चाहिए, भाषा की
रंगीनी दिखाने की ओर नहीं ।’ इस विवेचन से स्पष्ट है कि शुक्ल
जी के निबंध इसी कोटि के करीब हैं ।
उनके अनुसार एक अन्य प्रकार के निबंध कथात्मक निबंध होते हैं
। ये निबंध ‘किसी उपाख्यान, वृत्तांत या घटना को लेकर
चलते हैं’ और ‘विचारात्मक निबन्धों के समान
उनमें भी सम्बन्ध निर्वाह अत्यंत आवश्यक होता है । उसमें घटनाओं को एक-दूसरे के पीछे इस क्रम से रखना पड़ता है कि उलझन न पड़े और साथ ही इस बात का
भी ध्यान रखना पड़ता है कि आगे की घटनाओं को जानने की उत्कंठा पाठक को बराबर बनी रहे
और बढ़ती जाय ।’ इसके लिए ‘भाषा चलती और
सरल रखनी पड़ती है ।’ क्योंकि ‘शुद्ध कथा
या कहानी कहनेवाले वर्णन के विस्तार या भावों की व्यंजना में नहीं उलझते ।’
निबंध के इस प्रकार के वर्णन से स्पष्ट है कि शुक्ल जी के निबंध इस प्रकार
के निबंध नहीं हैं ।
शुक्ल जी की निबंध दृष्टि की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि निबंध
के भावात्मक, विचारात्मक और कथात्मक नामक इन वर्गीकरणों को गिनाने के बाद भी
उनका कहना है कि लेखक जब कोई लेख लिखता है तो ‘आवश्यकतानुसार
वह भावात्मक, विचारात्मक कई पद्धतियों का मेल कर सकता है । जैसे
कोई विचारात्मक लेख लिखते समय यदि कोई मार्मिक स्थल आया तो लेखक भावोन्मुख हो कुछ दूर
तक भावावेश की शैली का अवलंबन करेगा ।’ इसीलिए इस समस्त विवेचन
के बाद वे कहते हैं कि ‘मुख्य बात यह है कि शैली कोई भी हो,
वाक्यरचना की व्यवस्था, भाषा की शुद्धता और प्रयोगों
की समीचीनता सर्वत्र आवश्यक है ।’ इन चीजों को वे कितना जरूरी
समझते हैं इसका पता अगले वाक्य से चलता है जिसके अनुसार ‘जब तक
ये बातें न सध जायँ तब तक लिखने का अधिकार ही न समझना चाहिए ।’ इस प्रसंग से साफ है कि आचार्य शुक्ल आलोचक होते हुए भी मूल रूप से लेखक थे
क्योंकि किसी विषय का विवेचन करते हुए उसे समझाने के लिए आलोचक चाहे जितने भी भेद प्रभेद
कर ले रचनात्मक लेखन करने वाला कोई भी रचनाकार जानता है कि ये भेद केवल समझने और समझाने
के लिए होते हैं । सृजन प्रक्रिया में ये विभाजन अप्रासंगिक और गौण हो जाते हैं । निबंध
के लेखन में भी रचनाकार के सम्मुख उसका विवेच्य विषय मात्र रहता है । विषय के बारे
में लेखक के उद्गार परंपरा से प्राप्त भाषा का माध्यम लेकर प्रकट होते हैं और इसी क्रम
में लेखक अपने व्यक्तित्व के अनुसार इस अभिव्यक्ति का संपादन करता रहता है । इसी विशेषता
के कारण निबंध विचारात्मक गद्य होने के बावजूद सृजनात्मक साहित्य में गिना जाता है
।
राम कृपाल जी ने निबंध के संबंध में शुक्ल जी की राय को उद्धृत
किया है
‘भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबंधों में ही सबसे अधिक संभव होता है
।’ आम तौर पर भाषा का ऐसा कसाव कविता में माना जाता है इसलिए
पांडे जी ने कविता से निबंध की तुलना करने का शुक्ल जी का मत स्थिर करते हुए लिखा
‘उनके मतानुसार कविता आदि निबंधेतर साहित्य-रूपों
में कल्पना-प्रसूत वस्तु की प्रधानता होती है और विचार-प्रसूत वस्तु गौण होती है, किंतु इसके विपरीत निबंध में
विचार-प्रसूत वस्तु प्रधान होती है और कल्पना-प्रसूत वस्तु गौण ।’ इस विशेषता के अतिरिक्त
‘दूसरी बात यह है कि निबंध अर्थ-प्रधान होता है,
व्यक्तिगत वाग्वैचित्र्य अर्थ के साथ मिला-जुला
होता है और हृदय के भाव या प्रवृत्तियाँ बीच-बीच में अर्थ के
साथ झलक मारती हैं ।’ निबंध को व्याख्यायित करने के क्रम में
भाषा के सृजनात्मक व्यवहार की परंपरा के कारण कविता के साथ उचित ही इसकी तुलना की गई
और इसके बुनियादी गुण बताये गये हैं ।
ऊपर हमने ‘चिंतामणि भाग-3’ में बताए गए निबंध के जिन तीन भेदों का उल्लेख किया
लगभग उसी तरह का भेद शुक्ल जी ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में किया जो निम्नानुसार
है- 1) विचारात्मक, 2) भावात्मक और 3) वर्णनात्मक । इनमें से वर्णनात्मक रूप कदाचित
वही है जिसे वे ‘गद्य प्रबंध के प्रकार’ में कथात्मक का नाम देते
हैं । फिर भी राम कृपाल जी ने वर्णनात्मक निबंधों की जिन विशेषताओं का जिक्र किया है
शुक्ल की निबंध दृष्टि के ज्ञान के लिए उन्हें भी जानना ठीक होगा । इस तरह के निबंध
लेखक के ‘आचार्य शुक्ल के अनुसार दो उद्देश्य होते हैं- 1) वर्ण्य विषय के सम्बन्ध
में पूरी जानकारी देना और 2) उनके प्रति पाठकों में कुतूहल, विस्मय, आनन्द, प्रेम,
भय, करुणा आदि भाव जगाना ।’ कारण कि ‘वर्णन जब जिज्ञासा की निवृत्ति मात्र करते हैं
तो उनकी व्यावहारिक उपयोगिता तो होती है, पर उनमें साहित्यिकता नहीं होती । लेकिन जब
वर्णन पाठकों का मनोरंजन कर सके और अपने विषय के प्रति कोई भाव जगा सके तो वह साहित्यिक
कोटि का वर्णन होगा ।’ चूंकि निबंध एक गद्य विधा है और उसमें वैचारिकता की मुख्यता
हो सकती है इसलिए शुक्ल जी का ध्यान हमेशा उसकी साहित्यिकता की ओर लगा रहता है । अपने
निबंध लेखन के स्वभाव के अनुसार वे इस मान्यता को उदाहरण से पुष्ट करते हैं और लिखते
हैं ‘जैसे किसी स्टेशन या मेले के वर्णन में लोगों की दौड़-धूप, सौदा बेचने वालों की
तरह-तरह की बोलियों, लोगों के दबने, गिरने-पड़ने, बच्चों के रोने-चिल्लाने इत्यादि के
भावोत्पादक दृश्य उपस्थित किए जायँ तो वह वर्णन साहित्यिक कोटि का अवश्य होगा ।’ लगता
है मानो वे इस विषय पर लिखे किसी के पसंदीदा निबंध की विशेषता बता रहे हों या खुद ऐसे
किसी निबंध का खाका खींच रहे हों । सामान के लिए लोक प्रचलित शब्द ‘सौदा’ का प्रयोग
घलुए में !
शुक्ल जी भाषा पर हमेशा निगाह रखते हैं इसलिए तुरंत बताते हैं ‘वर्णनात्मक निबंधों
में वाक्य अपेक्षाकृत छोटे, भाषा अधिकतर चलती और सुबोध होती है । शब्दों की सजावट तथा
उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों के प्रयोग के लिए यहाँ पर्याप्त अवकाश होता है
।’ फिर भी ‘भावों के भेदानुसार भाषा भिन्न-भिन्न रंगत धारण करती है ।’
इन तीनों (वर्णनात्मक को अलग मानें तो चारों) में राम कृपाल जी के अनुसार ‘विचारात्मक
को वे सर्वोच्च कोटि मानते हैं ।’ इस तरह के निबंधों की शुक्ल जी द्वारा बताई गई विशेषता
को उद्धृत करते हुए उन्होंने लिखा ‘शुद्ध विचारात्मक निबंधों का चरम उत्कर्ष वहीं कहा
जा सकता है, जहाँ एक-एक पैराग्राफ में विचार दबा-दबाकर कसे गए हों और एक-एक वाक्य किसी
संबंद्ध विचार-खंड को लिए हों ।’ इस उद्धरण के आधार पर उनका निष्कर्ष है कि ‘विचारों
की गूढ़ गुम्फित परम्परा ही विचारात्मक निबंधों की प्रधानतम विशेषता है, जिसके प्रभाव
से पाठक की बुद्धि नवीन विचार-सरणि पर अग्रसर होती है ।’ पाठक के वैचारिक जगत को उद्बुद्ध
करना जिस साहित्यिक रूप की विशेषता हो वह शुक्ल जी को आखिर क्यों न आकर्षित करे !
आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने ‘चिंतामणि भाग-1’ की मंजूषा में शुक्ल जी के बारे
में बताया है कि ‘समालोचना को वे निबंध का ही विकास मानते थे ।’ इसीलिए जब ‘विचार-वीथी’
का प्रकाशन इस रूप में हुआ तो ‘सैद्धांतिक समीक्षा के अतिरिक्त व्यावहारिक समीक्षा
के भी कुछ निबंध’ शामिल किए गए । मिश्र जी के मुताबिक आचार्य शुक्ल ने निबंध को समालोचना
का पूर्ववर्ती मानते हुए उसका ‘लक्षण बहुत कुछ भारतीय आदर्श का ही’ रखा है । फिर भी
उन्होंने जो नवीनता पैदा की उसकी पहचान करते हुए बताया है कि ‘निबंध लेखन का जो ढाँचा
है वह उसी रूप में भारतीय प्रवाह में अवश्य नहीं था, निबंध या निबंधना का व्यवहार रचना
के लिए होता था, पर वह केवल गद्य रचना के लिए ही नहीं था, जैसा अब हिंदी में हो रहा
है । निबंध और प्रबंध दोनों शब्द पर्याय के रूप में चलते थे ।’ शायद इसी कारण हाई स्कूल
के विद्यार्थियों के लिए लिखते हुए उन्होंने इसे ‘गद्य प्रबंध’ लिखा है । संस्कृत की
परंपरा से परिचित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने बताया कि ‘नव्य नैयायिकों के परिष्कार निबंध
ही होते थे और साहित्य के लक्षण ग्रंथ भी निबंध ही कहलाते थे । धार्मिक क्षेत्र में
भी विवेचन संबंधी रचना के लिए इस शब्द का प्रयोग होता था । शुक्ल जी ने साहित्य के
सैद्धांतिक ग्रंथों को ध्यान में रखकर निबंध को विचारमूलक रचना ही माना है ।’ इस प्रकरण
से स्पष्ट होता है कि शुक्ल जी के निबंधों में वैचारिकता के पीछे उनके गंभीर स्वभाव
के अतिरिक्त भारतीय चिंतन की लंबी परंपरा भी एक कारण है । विश्वनाथ प्रसाद मिश्र की
शुक्ल जी से निकटता के कारण उनके कथन की प्रामाणिकता संदेह से परे है ।
गाढ़े वैचारिक आलोड़न से जुड़े होने के कारण इन निबंधों के साहित्यिक न होने के खतरे
हो सकते हैं इसलिए राम कृपाल पांडे के अनुसार शुक्ल जी की शर्त है कि ‘साहित्यिक होने
के लिए निबंध में विचार-परंपरा द्वारा गृहीत अर्थों या तथ्यों के साथ लेखक के हृदय
की पूरी झलक अनिवार्यतया होनी चाहिए ।’ कहने की आवश्यकता नहीं कि जिन शर्तों को शुक्ल
जी ने उत्तम निबंध लेखन के लिए तय किया उन्हें अपने निबंध लेखन के जरिए पूरा भी किया
।
हिन्दी भाषा में निबंध लेखन उस गद्य रचना को कहते हैं जिसमें एक सीमित आकार के भीतर किसी एक विषय का वर्णन या प्रतिपादन एक विशेष निजीपन, स्वच्छन्दता, सजीवता, संगति एवं सुसम्बद्धता के साथ किया जाता है।
ReplyDeleteNice
ReplyDeleteबहुत ज्ञानवर्धक
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