जिन मजदूर संगठनों ने इंटरनेशनल की स्थापना की
वे कुछ कुछ बहुरंगी थे । इसकी केंद्रीय चालक शक्ति ब्रिटेन के ट्रेड यूनियन थे
जिनके लगभग सभी नेताओं की विश्वदृष्टि सुधारवादी थी और उनकी दिलचस्पी मुख्य रूप से
आर्थिक सवालों में थी । वे मजदूरों के हालात में सुधार के लिए लड़ते थे लेकिन
पूंजीवाद पर सवाल नही उठाते थे । इसलिए वे इंटरनेशनल को ऐसा हथियार समझते थे जो
हड़ताल होने पर विदेशों से कामगार लाने पर रोक लगाकर उनके लक्ष्य का समर्थन कर सकता
था ।
संगठन में दूसरी महत्वपूर्ण ताकत साझेदारीवादी
थे जिनका फ़्रांस में लंबे दिनों से दबदबा था लेकिन बेल्जियम और फ़्रांसिसी भाषी
स्विट्ज़रलैंड में भी वे मजबूत थे । पियरे जोसेफ प्रूधों (1809-65) के सिद्धांतों
के अनुरूप वे राजनीति में मजदूर वर्ग की किसी भी हिस्सेदारी और संघर्ष के हथियार
के बतौर हड़ताल के विरोधी थे तथा स्त्री मुक्ति के सवाल पर संकीर्ण विचार रखते थे ।
संघीय तरीके से गठित सहकारी व्यवस्था की वकालत करने वाले ये लोग मानते थे कि कर्ज
पर समान अधिकार के जरिए पूंजीवाद को बदलना संभव है । इसलिए कहा जा सकता है कि वे
लोग इंटरनेशनल का दक्षिणपंथ थे ।
ये दोनों घटक संख्या में बहुमत में थे ।
इन्हीं के साथ भिन्न किस्म के कुछ और भी थे । तीसरे महत्वपूर्ण लोग कम्यूनिस्ट थे
जो कार्ल मार्क्स (1818-43) के व्यक्तित्व के इर्द गिर्द समूहबद्ध थे । ये लोग
अनेक जर्मन और स्विस शहरों में तथा लंदन में बहुत सीमित प्रभाव वाले छोटे छोटे
समूहों में सक्रिय थे । वे पूंजीवाद के विरोधी थे यानी मौजूदा उत्पादन प्रणाली का
विरोध करते थे और इसे उखाड़ फेंकने के लिए राजनीतिक कार्यवाही को जरूरी समझते थे ।
इंटरनेशनल की स्थापना के समय उसमें ऐसे तत्व
भी शामिल थे जिनका समाजवादी परंपरा से कोई लेना देना नहीं था । उदाहरण के लिए
पूर्वी यूरोप के प्रवासियों के कुछ समूह जो अमूर्त लोकतांत्रिक आदर्शों से प्रेरित
थे । इनमें जिसेप मैज़िनी (1805-72) के अनुयायी थे जिनकी अंतर्वर्गीय धारणा का
केंद्र राष्ट्रीय मांगें थीं और उन्हें उत्पीड़ित जनता की मुक्ति के लिए आम अपील
जारी करने के लिए इंटरनेशनल उपयोगी लगता था ।
तस्वीर इस तथ्य से और उलझ जाती है कि
इंटरनेशनल में शरीक फ़्रांसिसी, बेल्जियन और स्विस मजदूरों के कुछ समूह अपने साथ
तमाम किस्म के भ्रामक विचार लेकर आए, कुछ किसी काल्पनिक आदर्श से प्रेरित थे; जबकि
फ़र्दिनांद लासाल (1825-64) के अनुयायियों वाली पार्टी- जेनरल एसोसिएशन आफ़ जर्मन
वर्कर्स- इंटरनेशनल से कभी जुड़ी नहीं लेकिन उसके इर्द गिर्द घूमती रही और वह ट्रेड
यूनियनवाद की विरोधी थी तथा राजनीतिक कार्यवाही केवल राष्ट्रीय स्तर पर करने के
पक्ष में थी ।
नवजात इंटरनेशनल पर इन सभी समूहों ने अपने
सांस्कृतिक/ट्रेड यूनियन अनुभवों के जटिल जाल के निशान छोड़े । ऐसे व्यापक संगठन को
संघीय आधार पर भी साथ रखना और सामान्य ढांचा बनाना सचमुच कठिन काम था । इसके अलावा
अगर साझा कार्यक्रम पर सहमति बन भी जाती तो प्रत्येक प्रवृत्ति जहां कहीं बहुमत
में होती उन स्थानीय प्रभागों पर (कभी कभी केंद्रापसारी) असर डालती ।
एक ही संगठन में इन सभी धाराओं को शांतिपूर्वक
साथ साथ बनाए रखना और वह भी ऐसे कार्यक्रम के इर्द गिर्द जो उन सबके शुरुआती रुख
से बहुत दूर था, मार्क्स की महान उपलब्धि थी । अपनी राजनीतिक प्रतिभा से उन्होंने
ऊपरी तौर पर परस्पर विरोधी चीजों में संगति पैदा की और सुनिश्चित किया कि
इंटरनेशनल अपने पहले के अनेक मजदूर संगठनों की तरह तेजी से गुम न हो जाए । मार्क्स
ने इंटरनेशनल को स्पष्ट मकसद मुहैया कराया और मार्क्स ने ही ऐसा ठोस वर्ग आधारित
किंतु अबहिष्कारक राजनीतिक कार्यक्रम बनाया जिसके कारण इसे तमाम संकीर्णताओं से
परे जन चरित्र हासिल हुआ । इसकी आम परिषद की राजनीतिक आत्मा हमेशा मार्क्स रहे: उन्होंने
इसके सभी प्रमुख प्रस्ताव लिखे और सभी कांग्रेसों की रपटें तैयार कीं (केवल 1867
की लूसान कांग्रेस को छोड़कर जब वे कैपिटल का प्रूफ़ पढ़ने में डूबे हुए थे) । वे सही
जगह पर सही आदमी थे जैसा कि कभी जर्मन मजदूर नेता जोहान्न गेआर्ग इकारियस ने कहा
था ।
इंटरनेशनल के संस्थापक के रूप में मार्क्स की
तस्वीर बाद में गढ़ी गई । इसके विपरीत वे तो सेंट मार्टिन हाल की सभा के आयोजकों
में भी नहीं थे । मित्र एंगेल्स को एक चिट्ठी में उन्होंने बताया कि वे ‘मंच पर न
बोलने वाले की हैसियत’ में बैठे थे । फिर भी तत्काल उन्होंने इस घटना में निहित
संभावना को भांप लिया और नया संगठन अपना लक्ष्य सफलतापूर्वक हासिल करे इसकी गारंटी
के लिए कड़ी मेहनत की । कम से कम कुछ लोगों के बीच उनके नाम की इज्जत थी जिसके चलते
उन्हें 34 सदस्यी स्थायी समिति में नियुक्त किया गया और वहां उन्होंने जल्दी ही
इतना भरोसा जीत लिया कि इंटरनेशनल का उद्घाटन भाषण और अस्थायी नियमावली लिखने की
जिम्मेदारी उन्हें मिली । इन बुनियादी दस्तावेजों में और इसके बाद के अन्य
दस्तावेजों में भी मार्क्स ने इंटरनेशनल के विभिन्न घटकों से उनके सर्वोत्तम विचार
ग्रहण किए लेकिन इसके साथ ही संघाधिपत्यवादी रुझानों और संकीर्णतावादी स्वरों की
सफाई भी कर दी । मजबूती से उन्होंने आर्थिक और राजनीतिक संघर्ष को एक दूसरे से
जोड़ा तथा अंतर्राष्ट्रीय सोच और कार्यवाही को न पलट सकने वाली चीज बना दिया ।
मार्क्स की क्षमता की बदौलत ही इंटरनेशनल
राजनीतिक संश्लेषण कर सका । उसने विभिन्न राष्ट्रीय संदर्भों को ऐसे साझा संघर्ष
के प्रोजेक्ट में गूंथ दिया जिसमें निर्देशक केंद्र से वे काफी स्वायत्त थे लेकिन
पूरी तरह स्वतंत्र नहीं थे । कभी कभी एकता को बरकरार रखना मुश्किल हो जाता था खासकर
इसलिए कि मार्क्स का पूंजीवाद विरोध संगठन में कभी प्रमुख राजनीतिक मत नहीं था ।
बहरहाल समय बीतने के साथ कुछ उनकी नमनीयता के चलते और कुछ विभाजनों के चलते
मार्क्स की सोच प्रधान सिद्धांत बन गई । काम बेहद कठिन था लेकिन उन दिनों के
संघर्षों से राजनीतिक व्याख्या की कोशिशों को बहुत फायदा मिला । मजदूरों की
गोलबंदी की प्रकृति, पेरिस कम्यून की व्यवस्था विरोधी चुनौती, ऐसे व्यापक और जटिल
संगठन को इकट्ठा रखने का अभूतपूर्व काम, विभिन्न सैद्धांतिक और राजनितिक मुद्दों
पर मजदूर आंदोलन की अन्य प्रवृत्तियों के साथ लगातार बहस: इन सबने मार्क्स को
राजनीतिक अर्थशास्त्र की सीमाओं के पार जाने को मजबूर किया जिसमें 1848 की क्रांति
की पराजय तथा अधिकांश प्रगतिशील ताकतों के उतार के बाद से ही उनका सारा ध्यान लगा
हुआ था । उन्हें भी अपने विचार विकसित और संशोधित करने, पुरानी तयशुदा बातों को
बहस के लिए खोलने तथा अपने आपसे नए सवाल पूछने और कम्यूनिस्ट समाज की मोटी रूपरेखा
खींचकर खासकर पूंजीवाद की अपनी आलोचना को तीखा बनाने की प्रेरणा मिली । इंटरनेशनल
में मार्क्स की भूमिका के बारे में पारंपरिक सोवियत नजरिया यह है कि अपने अध्ययन
के जरिए मार्क्स ने जिस राजनीतिक सिद्धांत को पहले ही ढाल लिया था उसे इतिहास के
उस दौर पर यांत्रिक तरीके से उन्होंने लागू कर दिया लेकिन यह नजरिया सच्चाई से
पूरी तरह से अलग है ।
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