Wednesday, January 29, 2020

सोच और लेखन के बारे में साक्षात्कार


               
सवाल- आप मार्क्सवाद के प्रति कैसे आकृष्ट हुए ?
उत्तर- इसे एकाधिक घटनाओं और प्रवृत्तियों का नतीजा मान सकते हैं । सबसे पहले कि मेरा जन्म बंगाल में हुआ था । शायद बाहरी होने के चलते बचपन में वहां मौजूद भेदभाव की व्यवस्था का पता न चला होगा । बचपन में खुदीराम बोस के बारे में फ़िल्म देखी । तबसे गहरा आदर्श भी मेरी सोच का हिस्सा बन गया । लोग बताते हैं कि उसका एक गीत एक बार बिदाइ दे मां, घूरे आसी । हांसी हांसी कोरबो फांसी, देखबे भारतवासीअकसर गाता था । सात साल की उम्र में गांव वापस आया तो जाति तथा लिंग आधारित भेदभाव और हिंसा से चिढ़ होती थी । ऐसे में दोस्ती जिनसे हुई वे भी बंगाल रहे थे और कम्युनिस्ट विचारों के थे । ढेर सारे लोगों का समूह बन गया । उसमें अधिकतर सवर्ण थे । हम सभी धार्मिक कर्मकांड और पाखंड का घनघोर विरोध करते । प्रेमचंद के लेखन ने दीवानगी को जन्म दिया । अपने गांव पर पुस्तकालय खोला । दलित और पिछड़ी जाति के लोगों से घनिष्ठ हुए और उनके साथ होने वाले अन्याय का विरोध भी किया । हमारा आदर्शवाद भगत सिंह से मुहब्बत में परिणत हुआ । हमसे पहले की पीढ़ी पर स्वाधीनता आंदोलन की छाप के साथ ही जमींदारी विरोधी वाम आंदोलन की भी छाप थी । पहले चुनाव में हमारे जिले के सांसद और चारों विधायक कम्युनिस्ट पार्टी के थे । जिस समय हम सचेत हुए तब जिले में नक्सल आंदोलन दलित गरीबों में जगह बना रहा था । बगल के गांव नारायणपुर के शिवमोहन यादव काशी हिंदू विश्वविद्यालय में कृषि विज्ञान के छात्र थे । वे पढ़ाई छोड़कर पूर्णकालिक कार्यकर्ता बने और दहेन्दू गांव से उठाकर पुलिस ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी थी । इसी नारायणपुर गांव के पड़ोस में इलाहाबाद के रहने वाले कुलवक्ती नक्सल कार्यकर्ता लालचंद गुप्ता की हत्या हुई थी । वे लेखा विभाग की नौकरी छोड़कर आंदोलन में शरीक हुए थे । कभी घर भी आए थे । ऐसा लगता है कि रात में एक कहानी सुनाई थी जिसका सार था- जिनका नाम लक्ष्मी था वे खेत में गिरे अन्न के दाने बीन रही थीं, जिनका धनपाल था वे हल चला रहे थे और जिनका अमर था वे अर्थी पर जा रहे थे इसलिए सबसे अच्छा नाम ठठपाल है । उसी आंदोलन के क्रम में शेरपुर गांव में दलितों की बस्ती जला दी गई थी । पीड़ित लोगों के जुलूस को स्कूल की खिड़की से जाते देखा था । लम्बा मुकदमा चला । वह आंदोलन, घटनाक्रम, आगजनी और मुकदमा- सब कुछ विशाल महाकाव्य है । पता नहीं कब लिखा जाए । मार्क्स का नाम सुना और राहुल सांकृत्यायन की लिखी उनकी जीवनी पढ़ी । आगे के अध्ययन के लिए बनारस गए तो वहां नुक्कड़ नाटक करने वालों की एक टोली में शरीक हुए । यह मंडली शम्सुल इस्लाम के प्रशिक्षण में गुरुशरण सिंह के नाटक करती थी । बड़े भाई अवधेश प्रधान के पास किताबों का जखीरा था । लेनिन, स्तालिन और माओ की जीवनियां भी पढ़ गया । ताल्सताय और गोर्की भी रास आने लगे । धीरे धीरे समझ बढ़ी तो मार्क्सवाद को चारों ओर हो रही घटनाओं को समझने के लिए सबसे कारगर पाया ।            
सवाल- आपने बनास के लिए दो बार मार्क्सवाद की समसामयिक स्थितियों पर पुस्तिकाएं लिखी हैं, यह विचार कैसे आया ?
उत्तर- जे एन यू में रहते हुए दुनिया जहान में चल रही बहसों की जानकारी रहती थी । नौकरी के लिए दूर दराज रहना पड़ा । घटनाक्रम से वाकिफ़ रहता था लेकिन आस पास के माहौल में बहसों का वह स्तर नहीं था । फिर भी जीवन को बेहतर समझने के लिहाज से बेहद लाभप्रद समय बीता । अनुवाद, पढ़ाई और छिटपुट लेखन जारी रहा । चौदह साल देश के इस कोने से उस कोने की खाक छानने के बाद दिल्ली वापस आया तो पी वी श्रीनिवास उर्फ़ गणेशन ने मुझे हाल के चर्चित मार्क्सवादियों के लेखन की जानकारी दी । मुझे लगा कि हिंदी में इस सामग्री को उपलब्ध होना चाहिए । मार्क्सवाद की समाप्ति के शोर का मुकाबला करने के लिए भी ऐसा जरूरी लगा । हमारे देश में मार्क्सवाद से भावनात्मक तौर पर जुड़े लोग तो थे लेकिन नेताओं में हताशा थी । मुझसे अधिक सक्षम मित्रों से इस काम को करने की प्रार्थना की लेकिन उनकी अपनी व्यस्तताएं थीं इसलिए मुझे ही इस काम में हाथ लगाना पड़ा । मेरा विश्वास है कि वे लोग बेहतर तरीके से इस काम को कर सकते थे । कुछ प्रेरणा जे एन यू के मेरे शिक्षक मैनेजर पांडे से मिली । उन्होंने मार्क्स के लेखन का अनुवाद लम्बी भूमिका के साथ संकट के बावजूदशीर्षक से प्रकाशित कराया था । पुस्तिकाओं को पसंद किया गया यह मेरा सौभाग्य है । ऊपर से पता नहीं चलता लेकिन सचाई है कि सतह के नीचे बेचैन पाठकों की विशाल फौज है । उसके सवालों को ध्यान में रखते हुए अध्ययन सामग्री उपलब्ध नहीं हो रही है । लगता है हिंदी में केवल साहित्य है लेकिन गम्भीर साहित्येतर लेखन हिंदी में हो रहा है ।     
सवाल- क्या मार्क्सवादी दृष्टिकोण अब भी प्रासंगिक लगता है ?
उत्तर- युद्ध, हिंसा, गरीबी, बेरोजगारी और विषमता को व्याख्यायित करने में कोई भी अन्य विचार पद्धति मार्क्सवाद से अधिक सक्षम नहीं प्रतीत हो रही । जाति और लिंग आधारित हिंसा और भेदभाव का विरोध करने वाली ताकतों को अब भी सामाजिक समता के मार्क्सवादी आदर्श और शोषण विहीन समाज का स्वप्न आकर्षित करता है । हमारे देश में पूंजीवाद ने ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता को नवजीवन प्रदान किया है । सामाजिक न्याय के लिए लड़ने वाले लोग भी इसे महसूस कर रहे हैं । इसके साथ पर्यावरण का सवाल भी जुड़ गया है । अकूत मुनाफ़े की लालच ने धरती के प्राकृतिक संसाधनों को दूह लेने की होड़ पैदा कर दी है और इसके चलते यह धरती मनुष्य के रहने लायक नहीं रह गई है । इस दोहन से जिन्हें लाभ हो रहा है उन्हें इस प्राकृतिक विनाश की कीमत नहीं चुकानी पड़ेगी । विकसित देशों की जीवनशैली को बरकरार रखने की कीमत गरीब देशों के लोगों को चुकानी पड़ रही है । औपनिवेशिक शासन ने उपनिवेशित देशों का आर्थिक और बौद्धिक दोहन करने के साथ प्राकृतिक संसाधनों का भी दोहन किया । आज भी वह प्रक्रिया जारी है । अनुपनिवेशीकरण का कार्यभार अधूरा है । वर्तमान सदी में सच्चे और आमूल अनुपनिवेशीकरण के लिए पूंजीवाद के सबसे तीक्ष्ण आलोचक विचार होने के नाते मार्क्सवाद से संवाद करना होगा । हमारे देश में स्वाधीनता की लड़ाई के दौरान मार्क्सवाद से जुड़कर उपनिवेशवाद विरोध को व्यापक आयाम मिला था । आज भी उस काम को ही आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी सबसे बड़ी देश सेवा होगी ।        
सवाल- आपने छायावादयुगीन आलोचना और वाद विवादों पर शोध किया, अकादमिक हिंदी के मध्य विचारधारा पर अतिरिक्त आग्रह क्यों ?
उत्तर- छायावाद स्वाधीनता आंदोलन की सर्वोत्तम साहित्यिक उपलब्धि है । भारत का स्वाधीनता आंदोलन इतना रूपांतरकारी था कि उसने भक्ति साहित्य के बाद समाज के लगभग सभी तबकों को जगा दिया । आश्चर्य नहीं कि महादेवी, सुभद्रा कुमारी चौहान जैसे लेखकों के साहित्यिक हस्तक्षेप के अतिरिक्त उस समय के साहित्य में सामाजिक भूमिका निभाने वाले भास्वर स्त्री चरित्रों की भरमार है । मार्क्सवाद और छायावाद में रुचि में कोई विरोध नहीं है । खुद मार्क्स पूंजीवाद की कब्र खोदने वालों के पक्षधर थे । भारत के स्वाधीनता आंदोलन में उनकी जैसी रुचि थी वैसी रुचि बहुत कम पश्चिमी विद्वानों में थी । 1853 में उन्होंने भारत की स्वाधीनता का सपना देखा था । स्वाधीनता आंदोलन को लेनिन के नेतृत्व में संचालित तीसरे इंटरनेशनल का सक्रिय समर्थन प्राप्त था । छायावाद की ओर शायद मेरा मार्क्सवाद प्रेम ही अनजाने ले गया था । रहा विचारधारा का सवाल तो न केवल साहित्य के सृजन में बल्कि यथार्थ को देखने में भी विचारधारा मौजूद रहती है ।     
सवाल- हिंदी आलोचना के लिए विचारधारा कितनी जरूरी है ?
उत्तर- साहित्यिक रचनाओं में विचारधारा सतह पर नहीं तैरती अंतर्निहित रहती है । यदि आलोचक का धर्म साहित्य के मर्म का उद्घाटन करना है तो उसे इस अंतर्निहित तत्व की पहचान होनी चाहिए । प्रेमचंद ने साहित्य की सर्वोत्तम परिभाषा जीवन की आलोचनामानी है । इस आलोचना का अर्थ जीवन स्थितियों की आलोचना है । यहां याद दिलाना जरूरी नहीं कि मार्क्स भी वर्तमान की निर्मम आलोचना को अपना कार्यभार समझते थे । इस आलोचना का मकसद बदलाव की प्रेरणा देना होता है । इसकी पहचान के लिए विचारधारा की जानकारी जरूरी है । कोई भी साहित्यकार जीवन की आलोचना करते हुए पक्ष ग्रहण करता है । मनुष्य की अवस्था के प्रति तटस्थ और निरपेक्ष होकर साहित्य की रचना मुश्किल है । रचना के भीतर मौजूद इन नाजुक तत्वों को ममता के साथ पहचानने और उजागर करने के लिए विचारधारा का ज्ञान अत्यंत आवश्यक प्रतीत होता है ।  
सवाल- आपने लघु पत्रिकाओं के लिए बराबर लिखा है। कोई विशेष कारण ?
उत्तर- असल में जो कुछ लिखा है वह किसी फ़ैशन में समा नहीं सकता । बड़ी पत्रिकाओं में दुर्भाग्य से सनसनी और गतानुगतिकता के प्रति अधिक लगाव है । विचित्र लिखने की अपनी आदत का पता है इसलिए जानता हूं कि स्थापित के लिए शर्मिंदगी पैदा करूंगा । ढेर सारी बदनामी ने नुकसान किया तो सुनने वाले भी दिए । आदरणीय होना कभी काम्य नहीं था । मंचस्थ होने पर असहज हो जाता हूं । लघु पत्रिकाओं में अलक्षित रह जाने की सुविधा होती है । ऐसा नहीं कि बड़ी पत्रिकाओं में लिखना नहीं चाहता लेकिन उन्हें जो चाहिए वह पैदा करना सम्भव नहीं । इसे अपनी पसंद भी कह सकते हैं ।     
सवाल- चेखव पर एक किताब भी लिखी थी। क्या को मौलिक गद्य कृति भी लिख रहे हैं
उत्तर- रुचियां इतनी विविध हैं कि किसी एक दिशा में देर तक और दूर तक चलना अच्छा लगने के बावजूद हो नहीं पाता । किताब रामचंद्र शुक्ल पर, प्रेमचंद पर, महादेवी पर और आधुनिक कथेतर गद्य पर लिखनी है । कहना मुश्किल है कि कब तक लिखी जाएंगी । कभी ताल्सताय और भारत पर भी लिखने की कोशिश की थी । मौका मिले तो नागार्जुन पर भी लिखना है ।  
आगामी योजनाएं ?
उत्तर- सबसे बड़ी महात्वाकांक्षा अपने जिले का इतिहास लिखने की है भू-संपत्ति में बदलाव के साथ सामाजिक बदलाव को परखना उत्तेजक लगता है आबादी के प्राचीन और अर्वाचीन आवागमन, खेती की फसलों के चुनाव में मौसम की भूमिका और सामाजिक गतिशीलता के संदर्भ में साहित्य को परखने से उसके अलग ही मानी खुलते हैं दूसरी महात्वाकांक्षा आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने की है इस सिलसिले में वर्तमान विधा आधारित इतिहास लेखन इतना अपर्याप्त है कि उससे तोता रटंत विद्वत्ता ही पैदा हो सकती है जिसका प्राचुर्य चिंताजनक स्तर पर पहुंच चुका है आधुनिक काल की समग्र गतिशीलता में अवस्थित करके आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास लेखन ही साहित्य और साहित्येतर की पारस्परिक समृद्धि को उजागर कर सकता है खासकर पत्रकारिता के साथ साहित्य की घनिष्ठता पर विशेष पहलू के बतौर एकबारगी ध्यान नहीं जाता तो उसका कारण हिंदी की पत्रकारीय सक्रियता को साहित्यिक माहौल से अलग कर देने में निहित है तीसरी महात्वाकांक्षा हिंदी अनुवादों पर एक ग्रंथ तैयार करने की है अनुवाद के अध्ययन के लिए विभिन्न शिक्षा संस्थानों में विभाग खोल लिए गए हैं लेकिन उनमें तकनीकी या अमूर्त सैद्धांतिकी की चर्चा होती है अनुवाद के ठोस संदर्भ से बात नहीं होती आधुनिक हिंदी साहित्य को आकार देने में भारतीय भाषाओं और यूरोपीय भाषाओं से हुए अनुवादों की महत्वपूर्ण भूमिका है अनुवाद को सांस्कृतिक संवाद के रूप में ग्रहण करने पर इस विराट आलोड़न को समझा जा सकता है सभी महात्वाकांक्षाओं की तरह इन्हें भी किसी दूसरे के सहारे पूरा होने की आशा छोड़ी नहीं है कभी किताब लिखने की योजना बनाई तो लेख भी पूरा नहीं हो सका
      

Friday, January 17, 2020

फ़ासीवाद से लड़ाई


                
                               
(इस किताब को पढ़ते हुए लगातार महसूस होता रहा कि बात किसी अन्य देश की नहीं, अपने ही प्यारे भारत की हो रही है । वर्तमान तो बहुत कुछ इतना ही भयावह है, भविष्य के बारे में कुछ कहना मुश्किल है । जब इस अंधेरी सुरंग से बाहर निकलेंगे तो शायद हमारे पास भी ऐसी ही कुछ गुमनाम कथाएं होंगी । तानाशाहों की कब्र पर फूल उगेंगे और उनसे जूझने की बेखौफ़ लड़ाई के किस्से याद रखे जाएंगे । जो बच्चे आज लाठी खा रहे हैं कल के आजाद देश का निर्माण वही करेंगे ।)
2019 में वर्सो से डैनिएल सोनाबेन्ड की किताब ‘वी फ़ाइट फ़ासिस्ट्स: द 43 ग्रुप ऐंड देयर फ़ारगाटेन बैटल फ़ार पोस्ट-वार ब्रिटेन’ का प्रकाशन हुआ । किताब में 43 यहूदियों के उस समूह की कहानी बताई गई है जिसने फ़ासीवाद से लड़ाई लड़ी थी । इस समूह ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन में फ़ासीवादियों का मुकाबला किया था । इस समूह के बारे में लेखक को यहूदी होने के बावजूद पता नहीं था । यहूदी इतिहास के जानकार उनके अन्य दोस्तों को भी इस समूह के बारे में कुछ खास पता नहीं था । ये लड़ाइयां अक्सर रविवार को होती थीं । लेखक को अचानक पता चला कि उनके पितामह इस समूह के सदस्य रहे थे । असल में सत्रह साल की उम्र में फ़ासिस्टों की नुक्कड़ सभाओं की खबर इस समूह तक पहुंचाने का काम वे किया करते थे । वे थोड़ा डरपोक थे इसलिए असली लड़ाई में शामिल नहीं होते थे । इससे पहले परिवार के किसी सदस्य को उन्होंने अपनी इस सक्रियता के बारे में कुछ भी नहीं बताया था । उनको इस समूह के संस्थापक की लिखी और 1993 में छपी किताब का पता चला । उसे पढ़ने के बाद लेखक ने इसे व्यापक स्तर पर प्रचारित करने का इरादा बनाया । पहले कोशिश की कि फ़िल्म या टेलीविजन के माध्यम का इस्तेमाल करें लेकिन सफलता नहीं मिली । फिर इस समूह के बारे में शोध शुरू किया । इसी समय पता चला कि न्यू यार्क की एक फोटोग्राफर का संबंध समूह के संस्थापक से है । वहां पहुंचकर संस्थापक का साक्षात्कार किया तो ढेर सारी कहानियों का पता चला । उनकी किताब पढ़ने और साक्षात्कार के बाद भी लेखक ने गहन शोध जारी रखा ।
समूह के संस्थापक की किताब ही जानकारी का एकमात्र स्रोत थी । समूह के सदस्यों को शिकायत थी कि लेखक ने समूह के प्रभाव का अतिरंजित वर्णन किया है । उन्होंने केवल कुछ बड़ी घटनाओं का विस्तार के साथ उल्लेख करके रोजमर्रा के कष्टसाध्य काम की उपेक्षा की है । सदस्यों का कहना था कि लेखक ने उन्हें व्यर्थ ही कमान्डो कहा है । असल वे युवा लोग थे और गलती करके उससे सीखते थे । इनमें शामिल होने वालों को स्कूल में यहूदी होने के नाते अपमान झेलना पड़ा था इसलिए बहुत कम उम्र में ही वे फ़ासीवाद के विरोध में काम करना शुरू कर चुके थे । स्कूलों के बाहर भी हालात अच्छे नहीं थे । अभिभावकों की दुकानों पर हमले हो रहे थे । कुछ कुछ इसके चलते भी बीसवीं सदी के अधिकांश बेहतरीन मुक्केबाज यहूदी रहे । उन्हें स्कूल से ही मुक्केबाजी शुरू करनी होती थी । इन हालात में बदतरी आई जब 1934 में ब्रिटिश यूनियन आफ़ फ़ासिस्ट्स का गठन हुआ ।
इसके समर्थकों में अखबारों के मालिक भी थे । इनके साथ ही कुलीनों और मध्यवर्ग तथा मजदूर वर्ग में भी इनका समर्थन बढ़ने लगा । इनकी भीड़ भरी सभाओं में विरोधियों पर हमले किए जाते । इन झगड़ों में लोग घायल होते । फ़ासिस्टों की क्रूरता उजागर होने लगी । जर्मनी में जब उनके कारनामों की खबरें बाहर आने लगीं तो समर्थन घटना शुरू हुआ । समर्थक अखबार ने भी समर्थन कम कर दिया । धीरे धीरे ऐसे कट्टर नेताओं का आगमन हुआ जो यहूदियों की आबादी पर खुलेआम हमलों का आवाहन करते थे । इन भड़काऊ भाषणों के चलते यहूदियों के घरों, दुकानों और उपासना स्थलों पर तोड़फोड़ हुई और कुछ व्यक्तियों पर भी शारीरिक हमले हुए । इन हमलों को खामोशी से सहने की जगह यहूदी समुदाय ने आत्मरक्षा के उपाय किए और फ़ासीवाद विरोधी संगठनों में शामिल हुए । इन संगठनों में सबसे मजबूत कम्युनिस्ट पार्टी थी । इसका नतीजा यह निकला कि यहूदियों ने थोक के भाव कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ली । कम्युनिस्ट पार्टी ने भी फ़ासिस्टों की तरह सभाओं का आयोजन शुरू किया । इसके चलते जो टकराव होते उन्हें अखबार, नेता और पुलिस राजनीतिक होड़ के रूप में प्रचारित करते जिनमें गलती दोनों तरफ से हुई साबित की जाती ।
कुछ यहूदी कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण किए बिना फ़ासीवाद से लड़ना चाहते थे । ऐसे लोग ब्रिटेन के यहूदियों के एक आधिकारिक संगठन से कुछ करने की उम्मीद लगा बैठे । उस संगठन के पदाधिकारी विवाद से बचना चाहते थे और डरते थे कि कोई बात होने पर यहूदी विरोध बढ़ जाएगा । उन्होंने फ़ासीवाद का भी विरोध करने से इनकार कर दिया । नतीजतन युवा यहूदियों में इस संगठन से चिढ़ का भाव उपजा । इस अंतराल को पाटने के लिए यहूदियों के अन्य संगठन सामने आए । इनका महासंघ स्थापित हुआ । इधर फ़ासीवादी संगठन ने यहूदियों के इलाके से जुलूस निकालने की घोषणा की । महासंघ ने विरोध का फैसला किया । पुलिस ने फ़ासीवादी संगठन का जुलूस निकालने के लिए स्थानीय निवासियों की जत्थेबंदी को हटाने के लिए हिंसा का सहारा लिया । फिर भी जुलूस को रोकने में महासंघ सफल रहा । इस सफलता ने लड़ाकुओं के उपर्युक्त समूह की स्थापना की प्रेरणा प्रदान की । दूसरी तरफ फ़ासीवादी समूह ने अपनी असफलता के प्रतिकार स्वरूप यहूदी बस्ती में आतंक का राज बरपा करने का प्रयास किया । उन्होंने यहूदी समुदाय पर छिटपुट हमले तेज कर दिए । इन लड़ाइयों में यहूदी नौजवानों ने बहादुरी का परिचय दिया । इनसे उनके भीतर फ़ासीवाद विरोधी राजनीतिक समझ का भी विकास हुआ । इन्होंने ही दस साल बाद उपर्युक्त जुझारू समूह का निर्माण करके विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद फ़ासीवादियों का जीवन दूभर कर दिया ।
बहरहाल फ़ासीवादियों के नेता ने अपने संगठन में कुछ बदलाव किए और उसे आसन्न युद्ध के विरोध करने के लिए तैयार किया । अब उसने शांतिवादी का चोला धारण करके हिटलर और मुसोलिनी के साथ सहयोग की वकालत शुरू की और चर्चिल केयुद्धोन्मादका विरोध किया । युद्ध शुरू हो जाने के बाद उस संगठन ने अपनी कोशिशों में तेजी लाई और शांतिपूर्ण समझौते के लिए अभियान चलाया । इस बदलाव के बावजूद यहूदियों पर उनके हमलों में कमी नहीं आई । फ़ासीवादियों के संगठन एकाधिक थे । एक के दिशा बदलने से उससे अधिक कट्टर दूसरा संगठन केंद्र में आ जाता था । इनमें एक सांसद भी थे जिनके संगठन का घोषित मकसदसंगठित यहूदीपन की गतिविधियों का रहस्योद्घाटन और विरोध करनाथा । उन्होंने एक दक्षिणपंथी क्लब बना रखा था और उसके 135 सदस्यों के नाम दर्ज कर रखे थे । संख्या कम लग सकती है क्योंकि सांसद महोदय इसमें केवल कुलीनों और बड़े लोगों को शामिल करना चाहते थे । इससे फ़ासीवाद विरोधियों के इस संदेह की पुष्टि हुई कि ऊंचे पदों पर बैठे लोग फ़ासीवाद के समर्थक हैं । 1940 के अंत तक एक हजार फ़ासिस्टों की गिरफ़्तारी हुई । उन्हें आरामदेह जगहों पर कैद में रखा गया । वे लोग आखिरकार प्रभावशाली लोग थे फिर भी इस गिरफ़्तारी का तात्कालिक कारण यह था कि हिटलर इंग्लैंड के मुहाने तक आ पहुंचा था । ऐसे में इन्हें आजाद छोड़ने में खतरा था ।             


Monday, January 6, 2020

जलियांवाला बाग के सौ साल बाद


            
                                               
जलियांवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 को बैशाखी के दिन अंग्रेजी सरकार ने अमृतसर में जो हत्याकांड रचा उसकी अनुगूंज पिछले सौ सालों में कभी गुम नहीं हुई रह रहकर उसका जिक्र होता रहा उस हत्याकांड के कातिल के संरक्षक पंजाब के तत्कालीन लेफ़्टिनेन्ट गवर्नर माइकेल ओ’डायर को गोली मारने वाले ऊधम सिंह की अस्थियों को देश लाकर सम्मान सहित दफ़नाने का मामला हो या उस जघन्य नरसंहार के लिए ब्रिटेन की सरकार के माफ़ी मांगने का सवाल हो, जलियांवाला बाग किसी न किसी वजह से बीते सौ सालों में हमेशा चर्चा में बना रहा । उस हत्याकांड को अंजाम देने वाले जनरल डायर को सजा तो नहीं मिली लेकिन समय से पहले उसे सेवानिवृत्त कर दिया गया । इसके बाद उसकी मदद के लिए तत्कालीन सैन्य अधिकारियों ने ब्रिटेन में चंदा जुटाया था । समाज के विशेषाधिकार सम्पन्न समुदाय की ऐसी आपराधिक एकजुटता दुर्लभ नहीं है । तबसे अब तक इस तरह की वर्गीय एकता के अनेक उदाहरण दुनिया भर में मिल सकते हैं । न केवल ब्रिटेन मे बल्कि हमारे देश में भी उसकी याद अभी हाल में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने नागरिकता संशोधन विरोधी प्रदर्शनों के हालिया दमन के सिलसिले में दिलाई । उसकी याद ताजा कराते हुए नागरिकता संशोधन विधेयक विरोध के सिलसिले में हिंसक पुलिस दमन को आंदोलनकारियों ने जामियावाला बाग कहा ।    
ब्रिटेन की राजनीति में फिर से वह प्रमुख मुद्दे के बतौर सामने आया ब्रिटेन के हालिया चुनाव में लेबर पार्टी के घोषणापत्र में इसके लिए माफ़ी मांगने का वादा किया गया इस वादे से इस मसले की संवेदनशीलता और प्रासंगिकता का पता चलता है । कहने की जरूरत नहीं कि उसके बाद से निर्दोष लोगों के उत्पीड़कों के लिए डायर का नाम विशेषण की तरह इस्तेमाल होने लगा । आम जनता इसी तरह अन्यायी उत्पीड़कों को लम्बे समय तक याद रखती है । ध्यान देने की बात यह भी है कि इस घटना के पीछे जिस तनाव का हाथ था उसका कारण रौलट कानून थे जिनके तहत शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों पर रोक लगा दी गई थी । शासन के बनाए उत्पीड़क कानूनों के विरोध का हिंसक दमन तब से लेकर आज तक के शासकों की आदत बनी हुई है । इन कानूनों का विरोध करने के चलते ट्रिब्यून के संपादक को हिरासत में ले लिया गया था । तब के पत्रकार आज की पत्रकारिता के विपरीत सरकार के गलत कदमों का विरोध भी किया करते थे । इसी ट्रिब्यून के संस्थापक दयाल सिंह मजीठिया के नाम पर दिल्ली में दयाल सिंह कालेज का नाम रखा गया । पाकिस्तान के प्रति दुर्भावना के इस दौर में याद दिलाना अन्यथा न होगा कि यह कालेज पहले लाहौर में था और विभाजन के बाद दिल्ली लाया गया । दयाल सिंह ने सिख होने के बावजूद प्रावधान किया था कि कालेज का मुखिया सिख नहीं होगा, सिखों के लिए प्रवेश में आरक्षण भी नहीं होगा और कालेज के संचालन में सिख धर्म की संस्थाओं की कोई भूमिका नहीं होगी । दुर्भाग्य से हाल में इस कालेज का नाम बदलकर दीन दयाल उपाध्याय के नाम पर रखने की कोशिश हुई ।
गुलामी के उस कठिन समय में सरकार के विरोधियों की बात अनसुनी नहीं जाती थी । आज तो तमाम विरोध के बावजूद शासकों के कान पर जूं तक नहीं रेंगती । विरोध के दमन के लिए तब भी पुलिसिया उपायों का सहारा लिया जाता था । इसी वजह से रौलट कानूनों के विरोध में होने वाले जन प्रदर्शनों को रोकने के लिए पंजाब में सख्त निषेधाज्ञा जारी कर दी गई थी । एक हिंसक घटना में किसी अंग्रेज महिला की जान चली गई थी । जिस जगह घटना हुई थी वहां लोगों को घुटने के बल चलते हुए गुजरना होता था । लोगों के इकट्ठा बाहर निकलने पर रोक इतनी कड़ी थी कि मृतकों के अंतिम संस्कार में भी कठिनाई होने लगी थी ।       
उसके सौ साल पूरे होने के अवसर पर 2019 में येल यूनिवर्सिटी प्रेस से किम वागनर की किताबअमृतसर 1919: ऐन एम्पायर आफ़ फ़ीयर & मेकिंग आफ़ मैसेकरका प्रकाशन हुआ ज्ञातव्य है कि वागनर ने लगातार भारत में अंग्रेजी राज के साथ टकरावों के बारे में गम्भीरता के साथ लिखा है । सबसे पहले उन्होंने ठगी के बारे में विस्तार से लिखा था । उसके बाद दूसरी किताब 1857 के गदर के बारे में लिखी । सामूहिक शहादत के इस शताब्दी वर्ष में प्रकाशित किताब के बारे में उनका कहना है कि इससे पहले की दोनों किताबें इस किताब की तैयारी जैसी हैं । लेखक ने इस सवाल पर गहराई से विचार किया है कि गोली से मरने वालों की बात अलग है लेकिन जो लोग घायल थे उन्हें वहीं तड़पने के लिए छोड़ देने की संवेदनहीनता आखिर डायर में पैदा कैसे हुई । पूछताछ के दौरान भी उसे अपने इस कृत्य का कोई पछतावा नहीं था । उसके मुताबिक वह हिंदुस्तानियों की बगावत की हिम्मत को तोड़ देने के लिए उन्हें सीख देना चाहता था । यह सीख जो मर गए उनको नहीं दी जानी थी बल्कि अन्य सम्भावित बागियों को दी जानी थी । इस सोच की तुलना 1857 के विद्रोहियों को सजा देने के तरीके से करते हुए उन्होंने बताया है कि उस समय साथी सिपाहियों के समक्ष तोप के मुंह से बांधकर उड़ा देना सबसे पसंदीदा सजा थी । अंग्रेज अधिकारियों में से बहुतेरे लोगों ने इस सजा को सबसे कम पीड़ादायक और प्रभावकारी भी बताया है । इस तरह की अमानवीयता का कारण अंग्रेजों की नस्ली सोच थी जिसके चलते वे भारतीयों को ऐसा प्राणी समझते थे जिसके साथ अमानवीय बरताव करना उनको जायज लगता था । ध्यान देने की बात है कि उपनिवेशवाद की विचारधारा के पीछे आर्थिक लाभ के प्रबल आकर्षण के साथ ही नस्ली भेदभाव की यह सोच भी काम कर रही थी ।
इस नस्लीयता पर विचार करते हुए अमेरिकी अश्वेत चिंतक डब्ल्यू ई बी ड्यु बोइस ने कहा कि बीसवीं सदी ने उपनिवेशों के खात्मे का काम तो पूरा किया लेकिन उपनिवेशवाद के पीछे की नस्ली सोच अ भी जिंदा है । इसके लिए उन्होंने वैश्विक रंगभेद कायम करने के संरचनात्मक तरीके की पहचान की और इससे बने वैश्विक विभाजन को ग्लोबल कलर लाइन का नाम दिया । ड्यु बोइस का मत था कि समूची बीसवीं सदी की समस्या नस्ल की समस्या है । साम्राज्यों के निर्माण की उन्नीसवीं सदी में यूरोपीय औपनिवेशिक ताकतों ने दुनिया भर के संसाधनों और भूभागों पर कब्जा करने के लिए आपस में होड़ लगाई । उनके आचरण में चमड़ी के रंग पर आधारित ऊंच नीच की नस्ली सोच निहित थी । धरती पर गोरों के अधिकार के पीछे इसी तर्क का इस्तेमाल किया गया । बीसवीं सदी में इस साम्राज्यवादी विश्व व्यवस्था में आंतरिक अंतर्विरोध पैदा होने लगे और सदी के मोड़ पर ही युद्ध शुरू हो गए । इसी संदर्भ में ड्यु बोइस ने ठीक ही कहा कि साम्राज्यवाद द्वारा निर्मित इस वैश्विक रंगभेद को दुरुस्त करना बीसवीं सदी का कार्यभार है । इसके जरिए ही नई और सार्वभौमिक विश्व व्यवस्था की कल्पना सम्भव है । बीसवीं सदी में कुछ हद तक इस कार्यभार को अंजाम भी दिया गया लेकिन इस काम को पूरा नहीं किया जा सका । नस्लवाद का जो तर्क था वह अब भी सामाजिक पदानुक्रम के लगभग सभी रूपों के साथ जुड़ा हुआ है । इसके लिए भेदभाव के कुछ अन्य रूपों को देखना पर्याप्त होगा उदाहरण के लिए जाति आधारित भेदभाव का तर्क भी मनुष्यों के एक बड़े हिस्से को अमानवीय व्यवहार के लायक समझने पर टिका हुआ है । मनुष्यों के जिस समुदाय को नीचा बताया जाना है उन्हें अपवित्र आदि कहकर भेदभाव को जायज ठहराया जाता है सामाजिक भेदभाव के दूसरे प्रमुख रूप, स्त्री की पराधीनता को भी इसी तार्किक संरचना से मजबूत बनाया जाता है । इसके लिए उसे अबला या निर्भर आदि कहकर उसकी हीनता को आम लोगों की चेतना में प्रतिष्ठित किया जाता है इसके जरिए समाज की बुनियादी इकाई परिवार के संचालन में उनके योगदान को गोपन बना दिया जाता है देहाती इलाकों में चूल्हा चौकी से लेकर शहरी क्षेत्रों की कामगार स्त्रियों तक फैले हुए इस श्रमिक समुदाय की मेहनत को अदृश्य बनाकर समूची सम्पदा के सृजन का पारितोषिक देने की जिम्मेदारी से पीछा छुड़ा लिया जाता है स्पष्ट है कि मानव समाज में किसी खास समुदाय के साथ हिंसक आचरण के लिए सबसे पहले उसे कमतर दर्जे का साबित करना जरूरी हो जाता है अन्यथा अत्याचार करने वाला अपने आचरण का औचित्य नहीं स्पष्ट कर सकेगा । हम कह सकते हैं कि भारतीयों के साथ अंग्रेजों के क्रूर व्यवहार का आधार उनकी नस्ली सोच थी ।
उपनिवेशवाद के इस रूप को समझकर ही हम भारत के स्वाधीनता संग्राम में कूदने से पहले दक्षिण अफ़्रीका में गांधी की तैयारी का महत्व आंक सकते हैं । प्रसंगवश इस बात को भी याद रखना चाहिए कि जलियांवाला बाग के हत्याकांड ने गांघी को साम्राज्यवाद का जबर्दस्त विरोधी बना दिया था । इससे पहले उनके मन में अंग्रेजों के प्रति कुछ सहानुभूति रही थी, यहां तक कि दक्षिण अफ़्रीका में उनकी सेवाओं के बदले में उन्हें कैसरे-हिन्द की उपाधि भी मिली थी । वह उपाधि तो उन्होंने उस समय नहीं लौटाई लेकिन उनका दिल जरूर टूट गया । इसके बाद अंग्रेजी साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकने की लड़ाई के लिए उन्होंने सबको शामिल करने लायक तरीकों का इस्तेमाल किया इसी वजह से उन्होंने हमेशा साम्प्रदायिक एकजुटता को बरकरार रखने की कोशिश की । उन्होंने तो नहीं लेकिन रवींद्रनाथ ठाकुर ने नाइटहुड की उपाधि लौटाकर सत्ता की बर्बरता के विरोध का नायाब बौद्धिक तरीका खोज निकाला था । रवींद्रनाथ ठाकुर के इस तरीके से ही प्रेरणा लेकर हाल के दिनों में लेखकों ने अपने पुरस्कार लौटाकर विक्षोभ जाहिर किया । इन सभी वजहों से इस हत्याकांड को भारत के स्वाधीनता आंदोलन का निर्णायक मोड़ समझा जाता है
इस प्रसंग में गांधी के नेतृत्व में संचालित साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के दौरान दो बेहद महत्वपूर्ण पहलू उभरकर सामने आते हैं । एक तो यह कि उन्होंने भारत की एकता का कारण उपनिवेशवाद के विरोध में चलने वाली लड़ाई को माना । उनका कहना था कि विविधता से भरे हुए इस देश के लोग आपस में मिलकर उपनिवेशवाद से लड़े और इस क्रम में देश की जनता में चट्टानी एकता पैदा हुई । बहुत सारे लोग रेलवे को भारत को जोड़नेवाला सूत्र समझते हैं लेकिन गांधी का कहना था कि रेल के चलते जनता के आंदोलनों को दबाने के लिए फौज भेजने में अंग्रेजों को आसानी हुई इस तरह इसने भारत की गुलामी को मजबूत बनाने में मदद की उनके रुख को समझने में इस बहस से मदद मिलती है कि भारत के विकास के लिए उस समय रेल के मुकाबले नहरों की अधिक जरूरत थी । विकास के सिलसिले में इस समय जो पागलपन छाया हुआ है उस प्रसंग में गांधी के इस रुख को ध्यान में रखना जरूरी है । सीमित संसाधनों का निवेश राष्ट्र की प्राथमिकता के अनुसार किया जाना चाहिए ।  
इस विराट देश की जनता की विविधता के बावजूद भारतीय के रूप में उसकी एकता का अनुभव उन्हें दक्षिण अफ़्रीका में ही हो गया था जहां गिरमिटिया के रूप में गए लोगों की कोई अलग पहचान नहीं रह जाती थी, वे सभी कुली कहलाते थे । स्वाधीनता आंदोलन के बहुरंगी परिदृश्य में काश्मीर के नेशनल कांफ़रेन्स से लेकर हैदराबाद के निजाम से लड़कर तेलंगाना को भारत में शामिल कराने वाले योद्धाओं तक इस देश के प्रत्येक हिस्से ने उसी मुक्ति संघर्ष के चलते आपसी एकजुटता को महसूस किया और प्रचुर विविधता के बावजूद एक साथ मिलकर रह सके । दूसरे यह कि गांधी ने राष्ट्रवाद की ऐसी धारणा का विकास किया जिसमें भारत में रहने वाले सभी धर्मों, जातियों और संस्कृतियों के लोग इस देश के स्वाभाविक नागरिक थे । इस प्रसंग में जलियांवाला बाग की इस विरासत को भी याद रखना चाहिए कि उसके दो नेताओं के नाम सैफ़ुद्दीन किचलू और सत्यपाल थे ।
वागनर ने इस तथ्य का भी उल्लेख किया है कि अमृतसर में तब मुसलमान बहुसंख्यक हुआ करते थे । इस तथ्य से जाहिर होता है कि विभाजन ने देश को कितनी गहराई से प्रभावित किया । तब से पंजाब की जिस सामासिक संस्कृति का निर्माण हुआ उसकी झलक भारत के त्रासद विभाजन के बावजूद आज भी न केवल पंजाब बल्कि देश भर में यत्र तत्र मिल जाती है । राजनीति की विडम्बना का प्रतिकार लोकप्रिय सांस्कृतिक व्यवहार में होना कोई अचरज की बात नहीं होती ।