सेदान में जर्मनी की जीत और बोनापार्त की धर पकड़
के बाद 4 सितंबर 1870 को फ़्रांस में तीसरे रिपब्लिक की घोषणा हुई । अगले साल के
जनवरी माह में पेरिस की 4 महीने की घेरेबंदी का अंत फ़्रांस द्वारा बिस्मार्क की
शर्तों की मंजूरी के साथ हुआ । इसके बाद के युद्ध विराम के दौरान चुनाव हुए और
एडोल्फ़ थिएर (1797-1877) की नियुक्ति रिपब्लिक के राष्ट्रपति के रूप में हुई जिसे
लेजिटिमिस्टों और ओरलियनिस्टों का विराट समर्थन प्राप्त था । बहरहाल राजधानी में
प्रगतिशील-गणतंत्रवादी ताकतों का बोलबाला था और जनता में व्यापक विक्षोभ की लहर थी
। नगर को नि:शस्त्र करने और सुधारों को मुल्तवी रखने की इच्छा वाली सरकार का सामना
होने पर पेरिसवासियों ने थिएर के विरुद्ध मोर्चा खोला और 18 मार्च को मजदूर आंदोलन
के जीवन की पहली महान राजनीतिक घटना, पेरिस कम्यून का आगाज कर दिया ।
हालांकि बाकुनिन ने मजदूरों से देशभक्ति के
युद्ध को क्रांतिकारी युद्ध में बदल देने की प्रार्थना की लेकिन लंदन में जनरल
कौंसिल ने शुरू में चुप्पी बरती । इसने मार्क्स को इंटरनेशनल की ओर से कोई
दस्तावेज लिखने की जिम्मेदारी दी लेकिन किन्ही निजी जटिल कारणों से इसके प्रकाशन
को स्थगित रखा । जमीनी स्तर पर वास्तविक शक्ति संतुलन के बारे में उन्हें अच्छी तरह
से खबर थी तथा पेरिस कम्यून की कमजोरियों को भी वे जानते थे इसलिए उन्हें पता था
कि इसकी पराजय निश्चित है । सितंबर 1870 में ही फ़्रांको-प्रशियाई युद्ध के बारे
में अपने दूसरे अभिभाषण में उन्होंने फ़्रांसिसी मजदूर वर्ग को चेतावनी देने की
कोशिश की थी:
“वर्तमान संकट में जबकि दुश्मन पेरिस के
दरवाजे पर दस्तक दे रहा है तो नई सरकार को हटाने की कोई भी कोशिश हताशा भरी
बेवकूफी होगी । फ़्रांसिसी मजदूरों को---1792 के राष्ट्रीय स्मारकों द्वारा खुद को
बहा ले जाने से---बचना चाहिए । उन्हें अतीत को जगाना नहीं है, बल्कि भविष्य बनाना
है । उन्हें शांति के साथ दृढ़तापूर्वक अपने वर्गीय संगठन के लिए गणतांत्रिक
स्वतंत्रता से हासिल अवसरों का लाभ उठाना है । इससे उन्हें फ़्रांस के नवजागरण के
लिए तथा हमारी साझा जिम्मेदारी यानी मजदूरों की मुक्ति के लिए अपार नई शक्ति का
उपहार मिलेगा । उन्हीं की ऊर्जा और विवेक पर गणतंत्र का भाग्य टिका हुआ है ।”
पेरिस कम्यून की जीत की उत्तेजक घोषणा से
यूरोप भर के मजदूरों में झूठी आशा पैदा होने का खतरा था जिससे आखिरकार मनोबल में
गिरावट आती और अविश्वास फैलता । इसलिए मार्क्स ने किताब लिखना टाला और कई हफ़्तों
तक जनरल कौंसिल की बैठकों से दूर रहे । उनकी ये आशंकाएं जल्दी ही सही साबित हुईं
और 28 मई को पेरिस कम्यून की घोषणा के दो महीने के कुछ ही दिन बाद इसे खून में
डुबा दिया गया । दो दिन बाद वे जनरल कौंसिल के सामने फ़्रांस में गृहयुद्ध शीर्षक
वाली पांडुलिपि के साथ प्रकट हुए । इसका वाचन हुआ और सर्वसम्मति से इसका अनुमोदन
किया गया । जनरल कौंसिल के सभी सदस्यों के नाम पर इसका प्रकाशन हुआ । अगले कुछ
हफ़्तों के दौरान इस दस्तावेज का भारी असर पड़ा, उन्नीसवीं सदी के मजदूर आंदोलन के
किसी भी अन्य दस्तावेज से अधिक । एक के बाद एक धड़ाधड़ तीन अंग्रेजी संस्करणों ने
मजदूरों में भरपूर प्रशंसा पाई तो पूंजीवादी हलकों में चीख पुकार मच गई । इसका
पूरा या आंशिक अनुवाद अन्य दर्जनों भाषाओं में हुआ जो विभिन्न यूरोपीय देशों और
संयुक्त राज्य में अखबारों, पत्रिकाओं तथा पुस्तिकाओं में छपा ।
मार्क्स द्वारा भावावेगपूर्ण औचित्यसिद्धि तथा
प्रतिक्रियावादी विरोधियों के दावों और कठमुल्ला मार्क्सवादियों द्वारा इंटरनेशनल
के गौरवान्वयन की उत्सुक कोशिशों के बावजूद इस बात का सवाल ही नहीं पैदा होता कि
जनरल कौंसिल ने असल में पेरिस विद्रोह की प्रेरणा दी होगी । संगठन के प्रमुख व्यक्तियों
ने जरूर एक भूमिका निभाई । उदाहरण के लिए लियो फ़्रांकेल
(1844-96) को हंगरी में पैदा होने के बावजूद श्रम, उद्योग और व्यापार की जिम्मेदारी दी गई थी लेकिन पेरिस कम्यून का नेतृत्व क्रांतिकारी
जैकोबिन पक्ष के हाथों में था । 26 मार्च को संपन्न म्युनिसिपल
चुनावों में निर्वाचित 85 प्रतिनिधियों में 15 नरमदली (तथाकथित ‘पार्ती देस मायेर’, पेरिस के
प्रशानिक जिलों के पूर्व मेयरों का समूह) और चार क्रांतिकारी
थे । इन क्रांतिकारियों ने तुरंत ही इस्तीफ़ा दे दिया था और कभी कम्यून की कौंसिल के
अंग नहीं बने । बचे हुए 66 लोगों में से 11 की कोई स्पष्ट राजनीतिक प्रतिबद्धता नहीं थी, 14 लोग
नेशनल गार्ड की कमेटी से थे, 15 क्रांतिकारी-गणतंत्रवादी तथा समाजवादी थे । इसके अतिरिक्त 9 ब्लांकीपंथी
और इंटरनेशनल के 17 सदस्य थे । इंटरनेशनल के सदस्य थे-
एडुआर्ड वैलें (1840-1915), बेनोई मालों
(1841-93), अगस्त सेरेले (1840-72), ज्यां-लुई पिंडी (1840-1917), अलबर्ट थिएज़
(1839-81), चार्ल्स लांग्वे (1839-1903) और पूर्वकथित
वार्लिन तथा फ़्रांकेल । बहरहाल विभिन्न राजनीतिक पृष्ठभूमि और अलग अलग संस्कृति से
संबध्ह वे लोग कोई एकाश्मीय समूह कतई नहीं थे और अक्सर भिन्न भिन्न तरीके से वोट डालते
थे । इसके कारण भी जैकोबिनीय क्रांतिकारी गणतंत्रवादी परिप्रेक्ष्य का दबदबा था ।
इसकी अभिव्यक्ति मई में मोंतान्यार्द नामक राजनीतिक दल की प्रेरणा से कमेटी फ़ार
पब्लिक सेफ़्टी बनाने के फैसले (ब्लांकीपंथियों समेत दो तिहाई जनरल कौंसिल द्वारा
अनुमोदित) में होती है । खुद मार्क्स ने भी कहा था कि ‘कम्यून का बहुमत किसी भी
मायने में समाजवादी नहीं था, न ही हो सकता था ।’
‘खूनी सप्ताह’ (21-28 मई) के दौरान लगभग 10000
कम्युनार्ड या तो लड़ते हुए मारे गए या उन्हें मौत की सजा दी गई; फ़्रांस के इतिहास
का यह सबसे खूनी जनसंहार था । इसके बाद पेरिस में वेर्साई के झुंड टूट पड़े । 43000
या इससे ज्यादा दूसरे लोगों को बंदी बना लिया गया । उनमें से 13500 को मौत की सजा,
कैद, जबरिया श्रम या निर्वासन (अनेक को सुदूर न्यू केलेडोनिया उपनिवेश में) दिया
गया । अन्य 7000 भागने में कामयाब रहे और उन्होंने इंग्लैंड, बेल्जियम या
स्विट्ज़रलैंड में शरण ली । यूरोपीय रूढ़िवादी और उदारवादी अखबारों ने थिएर के
सैनिकों का काम पूरा किया, कम्युनार्डों पर घिनौने अपराधों का आरोप लगाया औए
बदतमीज मजदूरों के विद्रोह पर ‘सभ्यता’ की जीत की खुशी मनाई । इसके बाद से
इंटरनेशनल सारी हलचलों के केंद्र में आ गया, स्थापित व्यवस्था के विरुद्ध प्रत्येक
काम के लिए उसे ही दोषी ठहराया जाता । मार्क्स ने तीखी विडंबना के साथ लिखा ‘जब शिकागो
का भयंकर अग्निकांड हुआ तो पूरी दुनिया में टेलीग्राफ ने इसे इंटरनेशनल का नारकीय कृत्य
घोषित किया और यह सचमुच आश्चर्यजनक है कि वेस्ट इंडीज को बरबाद कर देने वाले तूफान
को इस पैशाचिक संगठन के मत्थे नहीं मढ़ा गया ।’
मार्क्स को पूरा पूरा दिन इंटरनेशनल और खुद के
बारे में अखबार में छपी निंदा का जवाब देने में बिताना पड़ता था:
‘उन्होंने लिखा कि मैं ‘इस समय लंदन का सबसे अधिक
निंदित और खतरनाक व्यक्ति हूं ।’ इस बीच यूरोप की सारी सरकारों
ने दमन के अपने उपाय पैने कर लिए इस भय से कि पेरिस में हुए विद्रोह के बाद अन्य जगहों
पर भी विद्रोह हो सकते हैं । थिएर ने तुरंत ही इंटरनेशनल को गैर कानूनी घोषित कर दिया
और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एवार्ट ग्लैडस्टोन (1809-98) से ऐसा
ही करने को कहा; किसी भी मजदूर संगठन के बारे में यह पहला राजनयिक
संवाद था । नवें पोप (1792-1878) ने ऐसा ही दबाव स्विस सरकार
पर डाला और तर्क दिया कि ‘उस इंटरनेशनल पंथ को’ बरदाश्त करना गंभीर गलती होगी ‘जो समूचे यूरोप के साथ
वैसा ही बरताव करना चाहेगा जैसा उसने पेरिस के साथ किया है । इन सज्जनों से---खौफ़ खाना चाहिए क्योंकि वे ईश्वर और मानवता के आंतरिक शत्रुओं की ओर से काम
कर रहे हैं ।’ ऐसी भाषा का नतीजा यह निकला कि फ़्रांस और स्पेन
ने पाइरेनीज के पार के शरणार्थियों की अदला बदली पर तथा बेल्जियम और डेनमार्क में इंटरनेशनल
का दमन करने का समझौता कर लिया । लंदन ने तो राजनीतिक शरण संबंधी अपने सिद्धांतों का
उल्लंघन न करते हुए कदम वापस खींच लिए लेकिन जर्मन और आस्ट्रो-हंगारी सरकारों के प्रतिनिधि नवंबर 1872 में बर्लिन में
मिले और ‘सामाजिक सवाल’ पर उन्होंने संयुक्त
वक्तव्य जारी किया:
1 कि इंटरनेशनल की प्रवृत्तियां पूंजीवादी
समाज के सिद्धांतों से पूरी तरह अलग और उनके विरोध में हैं इसलिए उन्हें कड़ाई से रोकना
होगा;
2 कि इंटरनेशनल इकट्ठा होने की आजादी
का खतरनाक दुरुपयोग कर रहा है और इसके अपने व्यवहार और सिद्धांत के अनुरूप इसके विरुद्ध
राजकीय कार्यवाही भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की ही होनी चाहिए और इसीलिए उसे सभी सरकारों
की एकजुटता पर आधारित होना चाहिए;
3 कि यदि कुछ सरकारें (इंटरनेशनल के विरुद्ध) फ़्रांस की तरह विशेष कानून नहीं
बनाना चाहें तो भी इंटरनेशनल वर्किंग मेन’स एसोसिएशन और इसकी
नुकसानदेह कार्यवाहियों का आधार खत्म कर देना चाहिए ।
आखिरकार इटली भी इस हमले से अछूता नहीं रहा । मैज़िनी
कुछ समय से इंटरनेशनल की ओर आशा भरी निगाहों से देख रहा । उसने भी माना कि इसके सिद्धांत
‘ईश्वर,---- पितृभूमि,----और समूची निजी संपत्ति को नकारते’ हैं ।
पेरिस कम्यून की आलोचना मजदूर आंदोलन के भी कुछ
हिस्सों तक फैल गई । फ़्रांस में गृहयुद्ध के प्रकाशन के बाद ट्रेड यूनियन नेता जार्ज
ओडगर और पुराने चार्टिस्ट नेता बेंजामिन लुक्राफ़्ट (1809-97) ने
अखबारों के शत्रुतापूर्ण अभियान के दबाव में झुककर इंटरनेशनल से इस्तीफ़ा दे दिया ।
बहरहाल किसी भी ट्रेड यूनियन ने संगठन से अपना समर्थन वापस नहीं लिया । इससे एक बार
फिर पुष्ट हो गया कि इंटरनेशनल की बढ़ोत्तरी ब्रिटेन में न होने का मुख्य कारण मजदूर
वर्ग की राजनीतिक उदासीनता थी ।
पेरिस में खूनी पटाक्षेप और यूरोप भर में निंदा
की लहर तथा सरकारी दमन के बावजूद पेरिस कम्यून के बाद इंटरनेशनल मजबूत और ज्यादा विख्यात
हुआ । पूंजीपतियों और मध्यवर्गी लोगों की नजर में इंटरनेशनल स्थापित व्यवस्था के लिए खतरे का प्रतीक
था लेकिन मजदूरों के दिल में वह शोषण और अन्याय विहीन दुनिया की उम्मीद जगाता था ।
विद्रोही पेरिस ने मजदूर आंदोलन की किलेबंदी कर दी, अधिक क्रांतिकारी रुख अपनाने और
जुझारूपन को तेज करने के लिए प्रेरित किया । अनुभव ने सिद्ध कर दिया कि क्रांति संभव
है, कि लक्ष्य हो सकता है और होना चाहिए ऐसे समाज का निर्माण जो पूंजीवादी व्यवस्था
से पूरी तरह भिन्न हो, लेकिन यह भी कि इसे हासिल करने के लिए मजदूरों को राजनीतिक जुड़ाव
के टिकाउ और सुसंगठित रूपों को तैयार करना होगा ।
यह अपार ओजस्विता हर कहीं दीख रही थी । जनरल कौंसिल
की मीटिंगों में उपस्थिति दोगुनी हो गई और इंटरनेशनल से जुड़े हुए अखबारों की तादाद
और कुल बिक्री भी बढ़े । समाजवादी सिद्धांतों के प्रसार में जिनका गंभीर योगदान रहा
वे थे: जेनेवा में ल’इगालिते जो पहले बाकुनिनपंथी अखबार था और फिर 1870 में संपादक
बदलने के बाद स्विट्ज़रलैंड में इंटरनेशनल का प्रधान पत्र बन गया; लाइपत्सिग में सोशल
डेमोक्रेटिक वर्कर्स पार्टी का पत्र डेर फ़ोक्सस्टाट; मैड्रिड में स्पैनिश फ़ेडरेशन का
आधिकारिक अखबार ला इमान्सिपाशियों; मिलान में ई गाज़ेतिनो रोजा जो पेरिस की घटनाओं के
बाद इंटरनेशनल की ओर चला आया; डेनिश मजदूरों का पहला खबरची जोसियालित्सेन; और शायद
इन सबमें सर्वोत्तम रूएं में ला सोसिएल ।
आखिरी और सबसे महत्वपूर्ण बात कि इंटरनेशनल का विस्तार
बेल्जियम और स्पेन में जारी रहा जहां मजदूरों की सक्रियता का स्तर पेरिस कम्यून से
पहले ही बहुत अच्छा था तथा इटली में सचमुच एक गतिभंग दिखाई पड़ा । अनेक मैज़िनीपंथियों
ने अपने भूतपूर्व प्रमुख की मान्यताओं से निराश होकर संगठन से जुड़ना शुरू किया तथा
जल्दी ही इसके महत्वपूर्ण स्थानीय नेता बने । इससे भी अधिक महत्वपूर्ण था जिसेप गैरीबाल्डी
का समर्थन । हालांकि उनके दिमाग में लंदन स्थित इंटरनेशनल के बारे में अमूर्त धारणा
ही थी फिर भी इस ‘दो दुनिया के नायक’ ने इसका साथ पूरी तरह से देने का फैसला किया ।
सदस्यता के आवेदन पर उन्होंने मशहूर वाक्य लिखा: ‘इंटरनेशनल भविष्य का सूर्य है’ ।
इसे मजदूरों के दर्जनों अखबारों और पत्रिकाओं में छापा गया । संगठन में शामिल होने
में जो लोग हिचक रहे थे ऐसे अनेक लोगों को इस पत्र ने इंटरनेशनल से जोड़ने में भूमिका
निभाई ।
पुर्तगाल में भी इंटरनेशनल ने नए प्रभाग खोले । वहां
इसकी स्थापना अक्टूबर 1871 में हुई थी । इसी माह डेनमार्क में भी कोपेनहागन और जुटलैंड
में नवजात अधिकांश यूनियनों को इसने जोड़ना शुरू किया । ब्रिटेन में आयरलैंड के मजदूरों
के प्रभागों की स्थापना एक और महत्वपूर्ण विकास था और मजदूरों के नेता जान मैकडोनेल
को आयरलैंड के लिए जनरल कौंसिल का संचार सचिव नियुक्त किया गया । दुनिया के विभिन्न
हिस्सों से संबद्धता के लिए अप्रत्याशित अनुरोध मिले: कलकत्ता के कुछ अंग्रेज मजदूरों,
विक्टोरिया, आस्ट्रेलिया और क्राइस्टचर्च, न्यू ज़ीलैंड के मजदूर समूहों तथा ब्यूनस
आयर्स के ढेर सारे कारीगरों ने जुड़ने की इच्छा जाहिर की ।
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