चूँकि हिंदी आलोचना जगत में व्यवस्थित रूप से यह अभियान चलाया
गया है कि रामविलास शर्मा की आलोचना साहित्य के रूपगत सौंदर्य को उजागर नहीं कर पाती
इसलिए इस पर्चे में हमारी कोशिश उनके इसी पक्ष को उद्घाटित करने की होगी । उनका लेखन
इतना विपुल है कि सारा तो छान पाना संभव नहीं लेकिन उनके महत्वपूर्ण लेखन का जायजा
लेते हुए यह बताने की कोशिश की जाएगी कि गद्य और कविता दोनों ही की परीक्षा करते हुए
किस तरह उनकी नजर हमेशा साहित्य के सौंदर्य को देखने/दिखाने
की चेष्टा करती थी ।
साहित्य के कलात्मक सौंदर्य की स्वतंत्र छानबीन के लिए उन्होंने
कला को विचारधारा से अलग माना । ‘आस्था
और सौंदर्य’ में संकलित निबंध ‘सौंदर्य
की वस्तुगत सत्ता और सामाजिक विकास’ में उन्होंने लिखा-‘कला का संबंध विचारों के साथ मनुष्य के इंद्रियबोध और उसके भावों से भी है।---साहित्य भी शुद्ध विचारधारा का रूप नहीं है, उसका भावों
और इंद्रियबोध से घनिष्ठ संबंध है। इससे स्पष्ट है कि ललित कलाओं को विचारधारा के रूपों
में गिनना सही नहीं है।’ आप इस मान्यता के मार्क्सवादी या गैर
मार्क्सवादी होने को लेकर बहस कर सकते हैं लेकिन इस मान्यता पर भी थोड़ा गहराई से
विचार करना चाहिए । सबसे पहली बात यह कि उनकी इस मान्यता को आचार्य शुक्ल की शब्दावली
में ‘सिद्धांतवाक्य नहीं अर्थवाद’ मानना
चाहिए क्योंकि साहित्य के सौंदर्य का एकमात्र स्रोत विचारधारा में देखनेवालों के विरोध
में इसका प्रतिपादन किया गया है । दूसरे कि उस लेख का मुख्य प्रतिपाद्य सौंदर्य की
वस्तुगत सत्ता का विवेचन है जिसके लिए पहले ही वे कहते हैं कि ‘प्रकृति और मानव जीवन के सौंदर्य की व्याख्या किए बिना कलात्मक सौंदर्य का
विवेचन करना संभव नहीं है ।’ अर्थ कि ‘जीवन
की तरह कला के क्षेत्र में भी बहुधा मनुष्य करना कुछ चाहता है, होता कुछ और है । जीवन की तरह कला के क्षेत्र में भी वह परिस्थितियों,
कला के उपकरणों पर पूरी तरह हावी नहीं हो पाता, उसकी व्यक्तिगत इच्छाओं और कलात्मक सृष्टि के वस्तुगत नियमों में सदा मेल नहीं
हो पाता ।’ कला की इस वस्तुगत सत्ता के स्वीकार से ही यह बात
निकलती है कि वस्तुगत यथार्थ को विचार पूरी तरह से नियंत्रित नहीं कर सकता,
उसके अपने नियमों का अनुसरण करके ही उसे बदला जा सकता है । स्पष्ट है
कि रामविलास जी कला के सौंदर्य विधायक उपकरणों की स्वतंत्र सत्ता मानते हैं । इससे
उन्हें रचनाओं के कलात्मक सौंदर्य को खोलने में बड़ी सहायता मिली थी ।
व्यावहारिक नजर से यह सिद्ध है कि भक्ति और स्वतंत्रता आंदोलन
के साहित्य को ही वे संपूर्णत: विपक्ष मानते हुए उसके भीतर के अंतर्विरोधों पर जोर
देने से इनकार करते हैं । खासकर स्वाधीनता आंदोलन तो मानो उनके समग्र लेखन की प्रेरणा
की तरह दिखाई पड़ता है । उपनिवेशवाद-विरोध को अगर उनकी बुनियादी वृत्ति माना जाए
तो उनका मार्क्सवादी होना तीसरी दुनिया के स्वाधीनता आंदोलनों के साथ मार्क्सवाद की
संसक्ति का उदाहरण बन जाता है । ध्यान दिलाने की जरूरत नहीं कि लेनिन के नेतृत्व में
तीसरे इंटरनेशनल ने विख्यात कोलोनियल थीसिस को मंजूर करने के साथ ही ‘दुनिया के मजदूरों’ के साथ ‘उत्पीड़ित
राष्ट्रीय जनगण’ की भी एकता का नारा बुलंद किया था । भारत के
प्रसंग में रामविलास जी को एक वैचारिक लड़ाई यह लड़नी पड़ी कि भारत देश का साहित्यिक उत्थान
औपनिवेशिक शासन का नतीजा है या उपनिवेशवाद-विरोध का । उनका पक्ष
‘आस्था और सौंदर्य’ में संकलित लेख
‘सामाजिक प्रेरणा: आज का भारतीय साहित्य’
से स्पष्ट होता है जिसमें साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित किताब
‘आज का भारतीय साहित्य’ के हवाले से वे इस पर विचार
करते हैं और जोर देकर कहते हैं कि ‘देश के स्वाधीनता आंदोलन ने
हमारी भाषाओं के साहित्य को सबसे अधिक प्रेरणा दी है । अंग्रेजी राज की प्रगतिशील भूमिका
को चाहे जितना श्रेय दिया जाए, वास्तविकता यह है कि साहित्य को
प्रेरणा अंग्रेजी राज का गुण गाने वालों ने नहीं, उसका विरोध
करने वालों ने दी है ।’ इसी के साथ ऊपर वर्णित दूसरे तत्व का
उल्लेख भी वे नहीं भूलते और बताते हैं कि ‘राष्ट्रीयता के साथ
मार्क्सवाद से प्रभावित प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन सभी भाषाओं में अपना व्यापक प्रभाव
डाल चुका है ।---देश के सांस्कृतिक नव-निर्माण
में समाजवादी विचारधारा की भूमिका दिनोंदिन निखरती जा रही है । साहित्य पर उसका प्रभाव
पड़ना अनिवार्य है ।’ इसी के साथ उन्होंने देश की एकता को भी स्वाधीनता
आंदोलन की ही उपज माना और इस सवाल पर ज्यादातर मार्क्सवादी इतिहासकारों की मान्यताओं
से टक्कर ली ।
अगर मान लें कि साहित्य विचारधारा का अंग है तो भी जरूरी
नहीं कि किसी युग का समूचा साहित्य शासक वर्ग के विचारों से प्रभावित हो क्योंकि
मार्क्स भी प्रभुत्वशाली विचार को ही शासक वर्ग का विचार मानते हैं । एक और बात है
कि मार्क्स के अनुसार पुराने समाज में नए समाज के तत्व पैदा हो जाते हैं । सवाल है
कि इसमें साहित्य कहाँ रहता है ? क्या वह नए समाज के तत्व के निशान लिए रहता है ?
इसका उत्तर मार्क्स की एक और धारणा के आधार पर देना उचित होगा । मार्क्स का कहना है
कि बुनियादी ढाँचे के विरोधों के प्रति लोग ऊपरी ढाँचे के क्षेत्र में सचेत होते हैं
और वहीं इसे निपटाते हैं । तो क्या पुराने समाज के प्रति विरोध प्रधानत: विचारधारा
और साहित्य की दुनिया में दिखाई देगा ? और इस आधार पर भक्ति और
स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति रामविलास जी की मान्यता की कोई जगह बनती है ? वे जिस तरह का कार्यभार अपने लिए तय करते हैं उसमें थोड़ा गंभीरता से विचार
करने की माँग नाजायज नहीं होगी ।
इससे सिद्ध है कि साहित्य के कलात्मक सौंदर्य के प्रति उनकी
निष्ठा संदेह से परे है । वे विभिन्न रचनाकारों के मूल्यांकन में उनकी प्रतिबद्धता
के साथ ही निरंतर उनके सौष्ठव को भी उजागर करते चलते हैं । कविता के सौंदर्य की पहचान
के उपकरण आपको अनेक आलोचकों के लेखन में मिल जाएँगें लेकिन गद्य के सौंदर्य को उद्घाटित
करने वाले जितने उपादान रामविलास जी ने मुहैया कराए उतने किसी अन्य आलोचक के यहाँ दुर्लभ
हैं । प्रेमचंद पर लिखते हुए सब कुछ के बावजूद उन्होंने लक्षित किया कि ‘सेवासदन’
की कलात्मक ऊँचाई दोबारा कभी प्रेमचंद नहीं छू सके ।
अपने प्रिय कवि तुलसी की विशेषता को चिन्हित करते हुए उनकी सामाजिक
चिंता की बात तो करते हैं लेकिन उनकी चौपाइयों की कलात्मक खूबी को रेखांकित करना भी
नहीं भूलते । ‘परंपरा का मूल्यांकन’ में संकलित लेख
‘संत साहित्य के अध्ययन की समस्याएँ’ में लिखते
हैं ‘चौपाई हिंदी का छोटा सा सीधा सादा छंद है जिसे ठाट बाट का
कोई गुमान नहीं । इसमें भी यति परिवर्तन करके, स्वरों के उतार
चढ़ाव से तुलसी ने विविध और विचित्र ध्वनि सौंदर्य पैदा किया ।’ उदाहरण के बतौर तीन तरह की चौपाइयों की गिनती भी की-
‘सीधी गति यह है:
तदपि कही गुरु बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥
दूसरी गति- उदात्त भाव व्यंजना के लिए- यह है:
बुध विश्राम सकल जन रंजनि। रामकथा कलि कलुष विभंजनि॥
अंत में लघु गुरु देकर तीसरी तरह की गति:
मंत्र महामनि विषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के ॥’
आम तौर पर वे रीतिकालीन कविता के विरोधी हैं लेकिन कला के प्रति
उनका मोह इन कवियों की प्रशंसा के लिए भी बाध्य कर देता है । इसी संग्रह के लेख ‘रीतिकालीन
काव्य-परंपरा’ में लिखते हैं ‘इन कवियों से आधुनिक हिंदी कवि जो बात सबसे ज्यादा सीख सकते हैं, वह है शब्द-चयन और शब्द-योजना ।---तत्सम शब्दों की तुलना में यहाँ तद्भव रूपों पर जोर है ।’ फिर इसकी व्याख्या करते हुए बतलाया ‘सबसे महत्व की बात
यह है कि तत्सम रूप किस ढंग से अपनाने चाहिए, यह हम इन कवियों
से सीख सकते हैं ।’ सारत: ‘विवेक के साथ
चित्रमयता और शब्द-योजना का अध्ययन करने से हिंदी कवियों को लाभ
होगा ।’ रीतिकालीन कविता की इस विशेषता की पहचान अपने समय के
प्रति जिम्मेदार हुए बगैर नहीं की जा सकती थी ।
गद्य के सिलसिले में उनका लेख ‘शैलीकार
बालमुकुंद गुप्त’ महत्वपूर्ण है । गद्य में वे किन विशेषताओं
को आकर्षक मानते थे इसका पता इस निबंध से चलता है । लिखा है ‘वे (बाल मुकुंद गुप्त) शब्दों के
अनुपम पारखी थे । हिंदी के साधारण शब्द उनके वाक्यों में नयी अभिव्यंजना शक्ति से दीप्त
हो उठते थे ।’ इसके अलावे ‘उनके वाक्यों
में सहज बाँकपन रहता है । उपमान ढूँढ़ने में उन्हें श्रम नहीं करना पड़ता । व्यंग्यपूर्ण
गद्य में उनके उपमान विरोधी पक्ष को परम हास्यास्पद बना देते हैं ।’ इस शैली का उपयोग भी उनके दिमाग में रहता है । गुलाम भारत में उनकी भूमिका
की निशानदेही करते हुए रामविलास जी लिखते हैं ‘अपने व्यंग्य शरों
से उन्होंने प्रतापी ब्रिटिश राज्य का आतंक छिन्न भिन्न कर दिया । साम्राज्यवादियों
के तर्कजाल की तमाम असंगतियाँ उन्होंने जनता के सामने प्रकट कर दीं । अपनी निर्भीकता
से उन्होंने दूसरों में यह मनोबल उत्पन्न किया कि वे भी अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध
बोलें ।’ अपने प्रिय कवि निराला पर लिखे लेख ‘निराला-अपराजेय व्यक्तित्व’ में
कला को साहित्यकार के जीवन से जोड़ते हुए लिखा ‘—आप इस समस्या
पर भी विचार करें कि महिषादल की नौकरी करते हुए, संपादकों-साहित्याचार्यों, तत्कालीन महाकवियों से श्रद्धा-संबंध कायम रखते हुए निराला अपनी कला के प्रति किस हद तक सच्चे रह सकते थे
।’ साफ है कि कला को वे किन्हीं खास सामाजिक स्थितियों का मुखापेक्षी
मानते हैं ।
लेकिन कला के प्रति इस सावधानी के बावजूद उसके स्थान के बारे
में कोई भ्रम उनके लेखन में नहीं है । ‘साहित्य में लोकजीवन की प्रतिष्ठा और जयशंकर
प्रसाद’ में प्रसाद जी के बहाने अपने ही विचार व्यक्त करते हुए
लिखते हैं ‘प्रसाद जी के लिए साहित्य सोद्देश्य है, इसीलिए साहित्य में मूल वस्तु अनुभूति है, न कि अभिव्यक्ति
।---साहित्य अभिव्यंजनामात्र नहीं है; इसकी
श्रेष्ठता मूलत: बात कहने के ढंग में नहीं वरन बात में है । भाषा
और विचारों का संबंध रूप और विषयवस्तु का है ।’ इस उद्धरण से
दो बातें स्पष्ट होती हैं । एक तो यह कि रामचंद्र शुक्ल का अभिव्यंजनावाद का विरोध
छायावादी कवियों के साथ किया गया था । दूसरे इसी से जयशंकर प्रसाद की कविता की परिभाषा
‘कविता आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति है’ का भी अर्थ खुलता है ।
‘प्रेमचंद’ निबंध में मानो गद्य की खूबसूरती
संबंधी इसी मान्यता का उदाहरण देते हुए वे ‘कर्मभूमि’
से एक अंश उद्धृत करते हैं ‘अंधेरा हो गया था ।
आतंक ने सारे गाँव को पिशाच की भाँति छाप दिया था । लोग शोक से मौन, और आतंक के भार से दबे, मरनेवालों की लाशें उठा रहे थे
। किसी के मुँह से रोने की आवाज न निकलती थी । जख्म ताजा था, इसलिए टीस न थी ।’ इसके बाद टिप्पणी करते हैं
‘प्रेमचंद की चित्रण शक्ति यहाँ अपनी चरम सीमा को पहुँची हुई है । थोड़े
से शब्द, जैसे विष में बुझे हुए, हृदय में
घाव कर देते हैं । शब्दों में चित्रांकन की अद्भुत क्षमता है और जो चित्र आँका जाता
है, वह अपने भाव गांभीर्य में अपूर्व है ।’ संक्षेप में यह कि विचार को भी साहित्य की दुनिया में कलात्मक रूप से आना होगा
। ऊपर के अधिकांश उद्धरण उनकी पुस्तक ‘परंपरा का मूल्यांकन’
से दिए गए हैं ।
गद्य के सौंदर्य की पहचान के सिलसिले में इस बात का भी उल्लेख
जरूरी है कि उन्होंने साहित्य समझे जाने वाले लेखन का दायरा भी विस्तारित किया । ‘आस्था
और सौंदर्य’ में संकलित ‘आस्था:
फाँसी के तख्ते के साये में’ शीर्षक निबंध में
उन्होंने भगवान दास माहौर द्वारा अपने क्रांतिकारी साथियों पर लिखे संस्मरणों की खूबी
बताते हुए एक बार और यथार्थवाद को याद किया है । इससे साहित्य के प्रति उनके उदार और
समावेशी नजरिए का प्रमाण मिलता है जिसमें शुद्ध साहित्य जैसी कोई कोटि नहीं है,
उसमें ऐसे लोग भी शरीक हैं जिनका नाम लेना आम तौर पर आलोचक उचित नहीं
समझते । राम विलास जी लिखते हैं ‘माहौर जी के संस्मरणों की सबसे
बड़ी विशेषता उनकी यथार्थवादी शैली है । वे अपने भूतपूर्व साथियों का चित्रण अतिमानव
के रूप में नहीं करते । उन्होंने इस ढंग से संस्मरण लिखे हैं कि श्रद्धा, प्रेम और उत्साह के साथ पाठक के मन में यह भाव भी उत्पन्न होता है कि ये वीर
शहीद भारत की साधारण जनता से उत्पन्न हुए थे, उनके गुण देश की
जनता के गुणों के ही उदात्त रूप थे ।’ इससे साधारण लोग भी उनका
अनुकरण करना असंभव नहीं समझेंगे । ‘इनसे भी अधिक महत्वपूर्ण यह
है कि देश के राजनीतिक जीवन में भगतसिंह का ऐतिहासिक महत्व यहाँ खूब उभरकर आया है ।’
प्रमाण के बतौर माहौर जी का उद्धरण है “भगतसिंह
के ही माध्यम से भारत माता की जय और वंदे मातरम मंत्रों के स्थान में भारतीय गुप्त
सशस्त्र क्रांति प्रयास ने क्रांति चिरंजीवी हो, इन्कलाब जिंदाबाद,
साम्राज्यवाद का नाश हो आदि नारे लगाए---।”
माहौर जी के जरिए इस तथ्य की पहचान के चलते ही वे मुक्तिबोध में सशस्त्र
क्रांति की पक्षधरता रेखांकित कर पाए थे ।
उनकी किताब ‘नयी कविता और अस्तित्ववाद’ अनेक कारणों से चर्चित रही है, खासकर मुक्तिबोध के प्रेमी
इसे कविता को समझने की उनकी अक्षमता का उदाहरण मानते रहे हैं लेकिन इसमें भी अनेक ऐसे
प्रसंग हैं जहां कविता को समझने की उनकी परिष्कृत दृष्टि का सबूत मिलता है । प्रभाकर
माचवे के प्रसंग में नई कविता की गद्यात्मकता को रेखांकित करते हुए ‘नयी कविता: “तार सप्तक” और उसके
बाद’ शीर्षक लेख में उन्होंने लिखा ‘शिल्प
की दृष्टि से नई कविता पर- साठोत्तरी नई कविता पर भी-
प्रभाकर माचवे का यथेष्ट प्रभाव है, इसे सभी स्वीकार
करेंगे ।’ प्रमाण के लिए उनकी कविता की गद्यात्मकता दिखाने के
लिए ‘तार सप्तक’ की एक कविता की पंक्तियों
को एक साथ लिख दिया ‘काम में तरक्की हो, ओहदा बढ़े, कमाने वालों की खैर रहे, औलाद बढ़ती रहे, मिल जाए पाव भर आटा ।’ शमशेर के सिलसिले में गद्य की काव्यात्मकता और प्रभाकर माचवे की कविता में
गद्यात्मकता !
इसी तरह कविता में यथार्थवाद के पक्ष में निस्संकोच लिखने वाले
हिंदी में शायद रामविलास जी अकेले होंगे । सो भी मुक्तिबोध के प्रसंग में । मन की स्थिति
के उनके चित्रण में यथार्थ चित्रण की निराला-परंपरा की निरंतरता उन्होंने देखी है । इसके
लिए उन्होंने बाहरी और भीतरी दुनिया के चित्रण में भेद को बुनियादी तथा उसके आधार पर
एक को सकारात्मक और दूसरे को नकारात्मक मानने का विरोध किया है । उन्होंने लिखा
‘बाहर जो दिखाई दे, उसका चित्रण यथार्थवाद,
और भीतर जो दिखाई दे, उसका चित्रण छायावाद-
इस तरह का विभाजन गलत है ।’ शमशेर बहादुर सिंह
की भुवनेश्वर पर लिखी कविता के प्रसंग में भी यथार्थवाद संबंधी इस मानक की चर्चा वे
करते हैं । ‘शमशेर बहादुर सिंह का आत्म-संघर्ष और उनकी कविता’ शीर्षक लेख में ‘शमशेर का मन जो कुछ स्वयं देखता है, उसी से अधिक प्रभावित
होता है, सुनी-सुनाई बातों का असर उस पर
कम होता है । वह मूलत: यथार्थवादी कवि हैं जिनके हृदय में करुणा
का स्रोत है जो कभी कभी फूटकर बहता भी है । मन के गोचर-अगोचर
घेरे तोड़कर जब करुणा का यह स्रोत बह चलता है, तब शमशेर भुवनेश्वर
पर इस कविता जैसी रचनाएं करते हैं । यथार्थवाद का यह भी एक रूप है जिसकी ओर हिंदी की
नयी कविता का विकास सभव है ।---यथार्थ के चित्र के साथ जहां उनका
भाव सध जाता है, वहां शमशेर का शिल्प निखर उठता है ।’
इस कविता का जो रूप ‘बसुधा’ में था और बाद में जो रूप ‘कुछ और कविताएं’ में आया उन दोनों की तुलना में तो शब्द ही नहीं चिन्हों तक की उपयोगिता का
विवेचन किया गया है । आश्चर्यजनक रूप से करुणा का यह मानक मुक्तिबोध के प्रसंग में
भी ‘नयी कविता: “तार सप्तक” और उसके बाद’ में आया है ‘मुक्तिबोध
अपने जीवन में बहुत ही विनम्र, नि:स्वार्थ
और परदुखकातर थे ।’ ‘अज्ञेय और नव रहस्यवाद’ में कुल विरोध के बावजूद अज्ञेय का मूल्यांकन उनकी कविता की विशेषता के आधार
पर किया गया है । लिखा है ‘अज्ञेय की अनेक रचनाओं पर प्रसाद के
भावबोध, छंद-कौशल और शब्द- शिल्प का प्रभाव है ।’ ‘अज्ञेय के अधिकांश उपमान और प्रतीक
परंपरागत हैं ।’
इस किताब के एक लेख का शीर्षक ही है ‘नयी कविता
के संदर्भ में नागार्जुन की काव्यकला’ और सचमुच शीर्षक के अनुरूप
ही काव्यकला के इतने प्रसंग हैं कि उनके बारे में फैलाए गए प्रवाद की आधारहीनता में
संदेह नहीं रह जाता । विस्तार से उद्धरण देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं ।
‘उनकी बहुत सी कविताओं में वैसा ही कसाव, शब्दों
का सांकेतिक प्रयोग और चित्रण कौशल है, जैसा किसी सधे हुए कलाकार
में हो सकता है । उनकी कविताएं लोक संस्कृति के इतना नजदीक हैं कि उसी का एक विकसित
रूप मालूम होती हैं । किंतु वे लोक गीतों से भिन्न हैं, सबसे
पहले अपनी भाषा –खड़ी बोली के कारण, उसके
बाद अपनी प्रखर राजनीतिक चेतना के कारण और अंत में बोलचाल की भाषा की गति और लय को
आधार मानकर नए-नए प्रयोग के कारण ।’ इन
सभी विशेषताओं का कलात्मक महत्व तो है ही, राजनीतिक महत्व भी
है । जिस भाषा में वे रचना करते हैं वह ऐसी खड़ी बोली है जिसमें विषय वस्तु की
‘सचेतन क्रांतिकारिता’ के साथ कलात्मक स्तर पर
एक ‘अचेत क्रांतिकारिता’ भी मिलती है ।
‘उनका क्रांतिकारित्व एक ओर साम्राज्यवाद, सामंतवाद
और पूंजीवाद की प्रखर आलोचना में प्रकट होता है, दूसरी ओर वह
उनकी कला द्वारा हिंदी जातीयता के स्तर पर विभिन्न जनपदों को एकताबद्ध करने में भी
प्रकट होता है ।’ दूसरी बात कि ‘हर विकासमान
देश के समाजवादी आंदोलन के सामने यह समस्या आती है कि साहित्य को कैसे लोकप्रिय बनाया
जाए, साथ ही उसे कलात्मक स्तर से गिरने न दिया जाए । नागार्जुन
ने लोकप्रियता और कलात्मक सौंदर्य के संतुलन और सामंजस्य की समस्या को जितनी सफलता
से हल किया है, उतनी सफलता से बहुत कम कवि- हिंदी से भिन्न भाषाओं में भी- हल कर पाए हैं ।’
इन सबका सिर्फ़ तात्कालिक महत्व नहीं है ‘यह सही
है कि आज नयी कविता के संदर्भों में नागार्जुन की चर्चा नहीं के बराबर है लेकिन कल
जब समाजवादी दलों का बिखराव दूर होगा, जब हिंदी प्रदेश की श्रमिक
जनता एकजुट होकर नयी समाज व्यवस्था के निर्माण की ओर बढ़ेगी,----तब उनके सामने लोकप्रिय साहित्य और कलात्मक सौंदर्य के संतुलन की समस्या फिर
पेश होगी और तब साहित्य और राजनीति में सही मार्गदर्शन करनेवाले, अपनी रचनाओं के प्रत्यक्ष उदाहरण से उन्हें शिक्षित करनेवाले, उनके प्रेरक और गुरु होंगे कवि नागार्जुन ।’ कहने की
जरूरत नहीं कि इस मूल्यांकन में राजनीतिक समझ, भाषिक अभिव्यक्ति
और कलात्मक सौंदर्य के महत्व एक हो गए हैं और इस बात को रेखांकित करते हैं कि ये तीनों
जिस हद तक अलग नजर आते हैं उतने वस्तुत: हैं नहीं और रामविलास
जी उनकी इसी एकता को नागार्जुन की मार्फ़त जोर देकर कह रहे हैं ।
‘आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी’ में ‘पालकी के साथ जवाहरलाल की तुक ने व्यंग्य में चार
चांद लगा दिए हैं ।’ इसी तरह ‘तुम चंदन
हम पानी’ में ‘चंदन और पानी, दीपक और बाती के ऐसे प्रतीक परिचित हैं कि उनका अर्थ समझने के लिए विशेष अनुसंधान
की आवश्यकता नहीं है । वे अनपेक्षित संदर्भ में प्रयुक्त हुए हैं, इसलिए आश्चर्य भावना व्यंग्य को और भी आकर्षक, साथ ही
तीखा बना देती है ।’ ‘शासन की बंदूक’ के
सिलसिले में ‘ज़रा नागार्जुन के मूर्तिविधान की विशदता और उदात्त
स्तर की राजनीतिक कविता के लिए छोटे से दोहे का प्रयोग देखिए :
खड़ी हो गई चांप
कर, कंकालों की हूक । नभ में विपुल विराट-सी, शासन की बंदूक ।
दमन के लिए शासन बहुत-सी बंदूकें इस्तेमाल करता है । नागार्जुन ने
उन सबको मिलाकर एक बड़ी बंदूक बना दी है जो नभ में विपुल विराट-सी छा गयी है । नीचे क्षुब्ध जनता का समूह है जिसे उन्होंने संक्षेप में कंकालों
की हूक कहकर मूर्तिमान कर दिया है ।---आखिरी दोहे में दमन की
निरर्थकता और जनता की विजय में विश्वास एक सादे प्रतीक द्वारा- किंतु बहुत ही प्रभावशाली ढंग से- यों व्यक्त हुआ है
:
जली ठूंठ पर बैठकर,
गई कोकिला कूक । बाल न बांका कर सकी, शासन की बंदूक
।
ठूंठ जल गया है लेकिन उस पर भी कोयल बैठकर कूक जाती है । “बाल न
बांका कर सके” का परिचित मुहावरा पूरी हेकड़ी से बंदूक को अंगूठा
दिखाता है ।’
फिर ‘आए दिन बहार के’ में
‘कोई रीतिवादी नायिका- प्रौढ़ा मध्या धीरा आदि-
अपने प्रियतम को देखकर इतना प्रसन्न न हुई होगी जितना टिकट पाकर यह कांग्रेसी
नेता । स्वेत स्याम रतनार रीतिवादी संदर्भ की ओर संकेत करते हैं और अनार के दाने नौटंकी
संस्कृति वाले नए लोकगीत की तरफ- बिखरे गुलशन में दाने अनार के
। व्यंग्य में गहराई पैदा होती है इस रीतिवादी संदर्भ की ओर संकेत से । “आए दिन बहार के” में चुनाव के उद्दीपन विभावों का समा
बंध गया है ।’ ‘कल और आज’ में ‘तत्सम शब्दावली-यानी कोमल कांत पदावली- से वह अपनी रचना को कवित्वपूर्ण नहीं बनाता । अभी कल तक पथराई हुई थी धनहर
खेतों की माटी- यह भाषा वैसे ही ठेठ हिंदी है, जैसे धनहर खेतों की माटी ठेठ भारतीय धरती है । धरती की कोख में दुबके पड़े थे
मेंढक- जो तुच्छ और नगण्य हैं, प्रकृति
की समूची कार्यवाही में वह भी कवित्वपूर्ण बन जाते हैं । पावस रानी का पायल छमकाना
छायावादी कविता की मेघपरियों के पायल छमकाने से अलग है, अति मानवीयता
वाले उदात्तीकरण से भिन्न यहां लोक संस्कृति की सहज आत्मीयता है । और अंत में-
आ गई है वापस जान दूब की झुलसी शिराओं के अंदर । वर्षा के उद्दीपन विभावों
की रीतिवादी फौज के बदले एक सादी सी आए दिन की बात । यह हिंदी कविता का नया यथार्थवाद
है ।’ बहुत आसानी से देखा जा सकता है कि नागार्जुन की कविता के
इस विवेचन में शिल्प, विषय और कलात्मक नूतनता एक दूसरे से अलग
नहीं बल्कि एक साथ मौजूद हैं और कवि की सचेत राजनीतिक क्रांतिकारिता सब कुछ को नयी
धार दे जाती है ।
कभी विष्णुकांत शास्त्री ने नामवर सिंह पर संस्मरण लिखते हुए
बताया था कि उन्होंने नामवर जी को रामविलास जी के बाद सबसे गंभीरता से तुलसी को पढ़ते
देखा है । तुलसीदास पर जीवन भर उन्होंने विचार किया । उनकी अंतिम किताब भी तुलसीदास
पर ही थी । ‘रूपतरंग और प्रगतिशील कविता की वैचारिक पृष्ठभूमि’ के वाणी प्रकाशन से प्रकाशित दूसरे संस्करण के परिशिष्ट दो में संकलित निबंध
‘रामचरितमानस में कुछ आधुनिक काव्य-कला की विशेषताएँ’
में एक पूरा अंश बालकांड के प्रारंभ के पांच सोरठों के काव्यगत सौंदर्य
को उद्घाटित करते हुए लिखा गया है । पहले इस सौंदर्य का परिचय ‘रामचरितमानस की कला की सूक्ष्मता उसके सभंग स्वर-विस्तार
पर निर्भर है । छोटे-बड़े स्वर पारस्परिक आकर्षण में बंधे बीच
में कोमल व्यंजनों को डाल कविता का मनोहर जाल बुनते चलते हैं ।---जिन सूक्ष्म स्वर-तंतुओं से यह सारा जाल बुना गया है,
उन पर हाथ रखते उनके बीच की छोटी-छोटी गांठों को
खोज निकालना अत्यंत दुष्कर है; फिर भी कहीं-कहीं हमें उनका आभास मिल जाता है और हम कह उठते हैं, यहां के माधुर्य का कारण स्वरों का इस भांति सजाना है ।’ इसके बाद पाठ :
जेहि सुमिरत सिधि होइ गननायक करिवर बदन । करौ अनुग्रह सोइ, बुद्धिरासि
सुभ-गुन सदन । 1
मूक होइ बाचाल, पंगु चढ़इ गिरिवर गहन । जासु कृपा सो दयाल,
द्रवौ सकल कलि-मल दहन । 2
नील सरोरुह स्याम, तरुन-अरुन-बारिज-नयन । करौ सो मम उर धाम, सदा छीर सागर सयन । 3
कुंद-इंदु-सम देह, उमारमन करुना अयन । जाहि दीन पर नेह, करौ कृपा मर्दन-मयन । 4
बंदौं गुरु-पद-कंज, कृपासिंधु नररूप हरि । महा-मोह-तम-पुंज, जासु बचन रवि-कर-निकर । 5
इसके बाद पूर्वकथन का भाष्य- ‘पहले सोरठे में “होइ” और “सोइ” का दीर्घ ओ दूसरे सोरठे के “होइ” में अनुवृत होता है । दोनों को एक स्वर के बंधन से बांध लेता है । तीसरे के
“नील-सरोरुह” में वह पुन:
उठता है; अंत के सोरठे के “महामोह” में भी हम उसे सुनते हैं । सबसे अधिक आवृत्ति
यहां आ स्वर की होती है । पहले के “गननायक” और “बुद्धिरासि” में, दूसरे के “बाचाल” “जासु”
“कृपा” और “दयाlल” में, तीसरे के “स्याम” “बारिज”, “धाम”,
“सदा” और “छीर सागर”
में, चौथे के “उमारमन”
“करुना अयन”, “जाहि” और
“कृपा” में तथा पांचवें के “कृपासिंधु” “महामोह” और
“जासु” में । प्रत्येक दोहे में आ का यह अनुवर्तन
वह प्रधान तार है, जिससे सब सोरठे आपस में गुंथे हुए और एक खिंचाव
से ऊपर उठे हुए हैं । अब “औ” को देखिए ।
पहले के “करौ” में और वैसे ही चौथे के
“करौ” में तथा पांचवें के बंदौ में उसकी अवृत्ति
होती है । दूसरे तीसरे सोरठों की मध्य यति “आल” और “आम” पर होती है । “आ” को न दोहरा चौथे सोरठे की मध्य यति “एह” पर होती है । “ए’ स्वर वैचित्र्य के लिए काम देता है । इसी भांति दूसरे सोरठे का मूक का ऊ और
पांचवें के “बर-रूप” का ऊ । तीसरे सोरठे का पहला चरण “नील सरोरुह”
के “ई” से उठता है,
उसी के अंतिम चरण के “छीर-सागर” में उसकी मधुर आवृत्ति होती है । जैसे दो पंखों
पर, सोरठा इन दो स्वरों पर सध जाता है । इन सोरठों की पारस्परिक
मैत्री स्वरों मात्र पर निर्भर नहीं; छोटे-छोटे अनुप्रास सर्वत्र बिखरे हैं और साथ ही पदों के बड़े आवर्त भी आते हैं ।
पहले के दूसरे चरण में “करिवर बदन” है,
दूसरे के उसी चरण में “गिरिवर गहन” है । तीसरे में तरुन-अरुन की मधुर लपेट है । उसी के तीसरे
चरण का “मम” चौथे सोरठे के पहले चरण के
“सम” से मेल खाता है । पांचवें सोरठे के दूसरे
चरण के “बररूप” के “अर” की अनुवृति उसी के अंतिम चरण के “कर-निकर” में होती है । इसके अतिरोक्त
चार सोरठों के दूसरे चौथे चरणों के अंत में “अन” आता है और जैसे चौथे सोरठे में, कभी वह बीच में भी आ
जाता है ।’ कोई पिंगल का विशेषज्ञ भी शायद ही इस तरह का विश्लेषण
कर सकता है । ऐसा आलोचक हमारे समय में तो मिलना मुश्किल है ही, उस समय भी कोई और शायद ही रहा होगा । उदाहरण के लिए तुलसी के अनुप्रास के प्रयोग
की विशेषता सुनिए ‘रामचरितमानस में उनकी कमी नहीं; परंतु मौलिकता यह है कि उनमें विभिन्नता है, जान-बूझकर वे एक साथ इकट्ठे नहीं किए गए और स्वाभाविक रीति से इधर-उधर फूट निकलते हैं । अनेक कवि-कृतियों में उन स्थलों
की आलोचकों द्वारा प्रशंसा की गई है, जहां पाठ-ध्वनि अर्थ की व्यंजना में सहायता देती है । रामचरितमानस की “कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि । कहत लषन सन राम हृदय गुनि ।” इसके लिए अनेक बार उद्धृत की गई है । यहां दर्शनीय यह है कि पहले चरण में कङ
के बाद किङ तथा कन के बाद किनि आता है; उसके बाद धुनि सुनि में
“उनि” की आवृत्ति होती है । चौपाई का दूसरा चरण
“क” से आरंभ होता है, जैसे
पहला हुआ था; दोनों की मैत्री का यह प्रच्छन्न कारण है । कंकन
के अन की अनुवृति लषन सन में होती है और सुनि के “उनि”
की स्वभावत: “गुनि” में ।
अनुप्रास इस तरह विचित्रता लिए एक दूसरे से मिलते हैं; उनसे अर्थ
की सुंदर अभिव्यक्ति होती है ।’
साहित्य के रूप के इतने सावधान विवेचन के पीछे रूप के संबंध
में एक व्यवस्थित नजरिया था जिसके अनुसार रूप को विषयवस्तु से अलग नहीं किया जा सकता
इसीलिए रूपवादी विश्लेषक रूप का भी विवेचन नहीं कर पाते । ‘रूपतरंग
और प्रगतिशील कविता की वैचारिक पृष्ठभूमि’ में ही लेख के लगभग
अंत में वे कहते हैं ‘(आधुनिकता बोध वाले सज्जन) विषयवस्तु के विवेचन से बचते हुए वे आलोचना को अधिकाधिक रूपवादी बनाते गए ।
किंतु एक भी कवि का या उसकी एक भी रचना का सफल रूपगत विवेचन वे प्रस्तुत नहीं कर सके,
और न कर सकते थे, क्योंकि रूप और विषयवस्तु केवल
सापेक्षत: भिन्न हैं, निरपेक्षत:
नहीं ।’ रूप और विषयवस्तु की एकता का यही नजरिया
हमें नागार्जुन की कविता के उनके विश्लेषण में तो मिलता ही है, इसी लेख में त्रिलोचन की कविता के विश्लेषण में भी उनका यही आलोचक बार-बार उभर आता है ।
‘निराला की साहित्य साधना’ का दूसरा खंड तो
साहित्य के कलात्मक सौंदर्य की परख और विवेचन के वाजिब उपकरणों की खोज और प्रयोग का
मानो खजाना ही है । इसकी भूमिका में ही इसकी झलक सी देते हुए वे लिखते हैं
‘किसी भी साहित्यकार की कला का विवेचन कठिन कार्य है ।---साहित्यकार भी स्थापत्यकार की तरह अपना निर्माण-कौशल
प्रदर्शित करता है ।’ इस कौशल की रचना सामग्री के बतौर वे भाषा,
शब्दों का अर्थ, उनकी ध्वनि, छंद-प्रवाह, मूर्ति विधान आदि का
जिक्र करते हैं और उनके आपसी तथा काव्य की संरचना से उनके संबंधों के परिप्रेक्ष्य
में इसकी छानबीन करना चाहते हैं । किताब के निराला पर ही केंद्रित होने के बावजूद समस्त
साहित्य के सौंदर्य की परख के लिए ढेर सारी अंतर्दृष्टि किसी को भी इसमें सहज ही मिल
सकती है । खास बात यह कि कविता के साथ ही कथा और कथेतर गद्य के भी कलात्मक रहस्य को
उद्घाटित किया गया है । राम विलास जी की आलोचना की खासियत है कि किसी एक साहित्यकार
से संबंधित होने के बावजूद उनके विवेचन का व्यापक और सामान्य उपयोग संभव है क्योंकि
विश्लेषण और मूल्यांकन में वे विशेष और सामान्य का संतुलन बनाए रखते हैं ।
‘हिंदी साहित्य : आंतरिक संघर्ष’ शीर्षक अध्याय में निराला की कला को उनके समय में अवस्थित करते हुए बेहद अंतर्दृष्टिसंपन्न
ढग से वे बताते हैं कि उनके पहले के ‘अधिकांश लेखकों की सामाजिक
चेतना-गांधी युग से पहले के-पूँजीवादी उदारपंथ
की सीमाओं के भीतर काम करती है ।--भाव-बोध
की दृष्टि से वह उपयोगितावाद का कायल है ; साहित्य से स्पष्ट
शिक्षा मिले, उसमें आदर्श चरित्र हों, नैतिक
उपदेश हो, भाषा सरल और सुबोध हो, यह उसकी
माँग है ।’ बहरहाल यह तो द्विवेदी युग की बात थी । इसके बाद छायावाद
‘राष्ट्रीय आंदोलन को पहले से अधिक व्यापक बनाकर समाज की रूढ़ियों को
तोड़ने और नये साहित्य को रचने की प्रेरणा’ तो देता है
‘किंतु भाव-बोध की दृष्टि से सरल सुबोध भाषा में
उपयोगी साहित्य ही उसके लिए उच्चकोटि का साहित्य है ।’ सामाजिक
चेतना से भाव-बोध का निर्माण होता है और उसका असर लेखक की भाषा
पर पड़ता है ।
निराला की भाषा की नवीनता का स्रोत पहचानते हुए वे कहते हैं
कि ‘निराला एक हद तक गांधीवाद के साथ हैं, उस सीमा तक जहाँ
गांधीवाद वर्णव्यवस्था, हिंदू-मुस्लिम भेदभाव,
अंग्रेजों की दासता का विरोधी है । किंतु निराला समाज में जिस आमूल परिवर्तन
के पक्षपाती हैं, वह गांधीवाद की सीमाएँ स्वीकार नहीं करता ।---स्वाधीनता आंदोलन की वे तमाम प्रवृत्तियाँ जो गांधीवाद की सीमाएँ तोड़कर आगे
बढ़ रही थीं, निराला में केंद्रित हो गई थीं । इसके साथ ही उनकी
साहित्यिक अभिरुचि में वह सब कुछ था जो सरल सुबोध भाषा में लिखे हुए राष्ट्रीय उद्बोधनों
और नैतिक उपदेशों की सीमाएँ पार कर जाता है ।’ निराला की सामाजिक
चेतना और उनकी भाषा चेतना के बीच सांयोगिक संबंध दिखाई पड़ने के बावजूद कहा जा सकता
है कि इस संयोग के पीछे कारणत्व भी होना मुश्किल नहीं ।
छायावाद के अन्य लेखकों से निराला के भाषा व्यवहार की भिन्नता
है कि ‘हिंदी में जिस समय कोमलकांत पदावली की धूम थी, उस समय
निराला ने कोमलता के साथ परुषता की आवश्यकता पर बल दिया ।’ इसी
की व्याख्या सी करते हुए कहा कि ‘कविता जब कल्पनालोक छोड़कर जीवन-संग्राम के निकट आएगी, तब वह कोमलकांत पदावली की भूमि
छोड़कर गद्य की भाषा के निकट आएगी । जब गद्य जीवन-संग्राम की भूमि
छोड़कर कल्पनालोक की ओर उड़ेगा, तब उसकी भाषा भी कोमलकांत पदावली
के निकट होगी ।’ सारत: ‘भाषा क्लिष्ट हो
चाहे सरल, कोमल हो चाहे परुष, है वह मनुष्य
के चिंतन और भावजगत से संबद्ध । इसी कारण कल्पना-जगत और जीवन-संग्राम की भाषा में अंतर है ।’ प्रसंग भले निराला का
हो लेकिन भाषा व्यवहार के बारे में ये सूत्र किसी भी रचनाकार पर विचार करते हुए आपके
काम आ सकते हैं ।
इसके अलावा भाषा में बदलाव रचना के अनुसार भी होता है । निराला
की मार्फत इसकी तुलना युद्ध कौशल से करते हुए वे कहते हैं ‘जैसे युद्ध-भूमि में कुशल सेनापति चक्रव्यूह रचता है, शत्रुदल को
परास्त करने के लिए उचित अस्त्रों का उपयोग करते हुए सैन्य-संचालन
करता है, वैसे ही कुशल रचनाकार भाव-विचार-चित्र संगठित करके अभिव्यंजना के क्षेत्र में शब्दों के अस्त्र-शस्त्र द्वारा अव्यक्त को परास्त करके व्यक्त कला कि विजय-ध्वजा फहराता है ।’ यानी ‘कला भावोच्छ्वास
में नहीं है, दार्शनिक विचारों का अंबार लगा देने में नहीं है,
शब्द-चयन में नहीं है, रस-ध्वनि अलंकार में नहीं है, कला है रचना में जिसके अंतर्गत
ये सब हैं ।’ उनके कहने का तात्पर्य है कि ‘भाषा और रचना-कौशल पर ध्यान केंद्रित करके कोई चाहे कि
साहित्यकार के सामाजिक अनुभव, उसके वैचारिक दृष्टिकोण,
भावात्मक स्तर के विवेचन से बचे तो यह संभव नहीं है ।’ कला के बारे में इतनी व्यापक और समावेशी दृष्टि के बल पर ही वे कविता के सौंदर्य
के इतने विविध रूप खोज निकालते हैं कि किसी भी आलोचक के लिए उनकी गिनती ही कठिन हो
जाती है । इनमें से कुछेक का जिक्र ही करना यहाँ संभव है ।
‘कला’ शीर्षक खंड में वे निराला की कविता के
एक ऐसे गुण से शुरुआत करते हैं जिसे आम तौर पर गद्य की विशेषता माना जाता है । वे भाषण
की कला को कविता का गुण बताते हुए लौंजाइनस को उद्धृत करते हैं और कहते हैं कि उन्होंने
‘भाषण-कला को काव्यकला के समकक्ष माना है,
कभी-कभी दोनों में भेद नहीं किया ।’ और कि ‘आधुनिक हिंदी में इस कला का प्राय: अभाव है; केवल निराला-काव्य में
इसका पूर्ण विकास हुआ है ।’ लेकिन उनका होना ही पर्याप्त नहीं
बल्कि ‘कुछ कविता रूप में असफल हैं क्योंकि भाषण रूप में वे असफल
हैं ।’ कहने का मतलब कि भाषण अगर उत्तम कोटि का हो तो उसमें भी
एक तरह की काव्यकला के दर्शन किए जा सकते हैं । ‘पंचवटी प्रसंग’
में शूर्पणखा के ‘भाषण में इस तरह एक नाटकीयता
है जो वक्तृत्वकला को निखारती है । राम और लक्ष्मण के भाषणों में इसी नाटकीयता का अभाव
है ।’ भाषण की खूबी उसमें नाटकीयता से उभरती है । अगर नाट्य न
हो तो मुक्त छंद उसकी जान नहीं बचा पाता जिसे निराला वक्तृत्व के लिए सबसे उचित समझते
थे । इसके अलावा ओजस्वी प्रवाह होना चाहिए जैसे महाराज शिवाजी का पत्र में है ।
‘जागो फिर एक बार’ में यह पदावली बार बार आई है
। ‘निराला ने जो नया काम किया है, वह यह
कि प्रत्येक लहर को दूसरी से, सामान्य तर्कभूमि पर, जोड़ा नहीं है । हर मंजिल पर नया दृश्य, नई तर्क-योजना, भावोत्तेजन की नई सामग्री ।---ऊपर से प्रवाह विच्छिन्न है, भीतर से अविच्छिन्न । गति
की प्रत्येक भंगिमा के साथ नया विस्मय, नया भावोत्कर्ष । अपने
नाट्यकौशल से निराला ने वक्तृत्वकला को इस तरह निखारा है ।’ यह
कला केवल कला नहीं, इसके ठोस समाजैतिहासिक संदर्भ हैं
‘इस कला का संबंध एक हद तक राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से है,
उस आंदोलन में सुने भाषणों से है ।’ नाटक की ही
तकनीक स्वगत कथन है । निराला की अनेक रचनाओं में इस तकनीक के प्रयोग के आधार पर कहा
कि ‘इन रचनाओं के स्वगत-कथनों में आंतरिक
साम्य है : पराजय और अपमान का भाव, परिवेश
के अन्यायपूर्ण व्यवहार से क्षोभ, बीती बातों का ध्यान,
आत्मविश्लेषण । इन विशेषताओं को पहचान लेने पर ज्ञात होगा कि वे कहीं
इक्का-दुक्का, कहीं सम्मिलित रूप से निराला-काव्य में आरंभ से विद्यमान हैं ।’ इन दोनों के लिए संवाद
का महत्व बहुत होता है । निराला-काव्य में इसकी स्थिति समझाते
हुए रामविलास जी कहते हैं ‘वह विवेक से जैसे अपनी स्थिति का विश्लेषण
करते हैं, वैसे ही अपनी स्थिति समझाने के लिए दूसरों से तर्क
करते हैं, वह स्वगत-कथन में अपने मन की
द्विधापूर्ण स्थिति, संशय, ग्लानि आदि व्यक्त
करते हैं, वैसे ही संवाद शैली में, दूसरों
से तर्क करते हुए, वह मन का आक्रोश, क्षोभ
अथवा विश्वास प्रकट करते हैं ।---उनकी वक्तृत्वकला से मिलती-जुलती उनकी संवादकला है जिसमें कभी वह, कभी अन्य व्यक्ति
दूसरे से बातें करता है ।’
वक्तृता के बाद दूसरा तत्व वे कविता का नक्शा बताते हैं जिसका संबंध कविता से कम स्थापत्य से अधिक होता है । ध्यान
देने की बात यह है कि कविता की विशेषताओं की पहचान के लिए वे रूप के पारंपरिक घटकों
का अतिक्रमण कर जाते हैं और इस तरह कला की व्यापकता को उजागर करते हैं । आरंभ में ही
लिखते हैं ‘आदमी जैसे नक्शा बनाता है, फिर
नक्शे के अनुसार मकान बनाता है, वैसे निराला पहले नक्शा बनाते
हैं, फिर कविता रचते हैं ।’ लेकिन कविता
की सफलता इस नक्शे का अनुसरण करने में नहीं इसे तोड़ देने में है । ‘सरोज-स्मृति’ में निराला का परिचित
संरचना-क्रम टूट जाता है ।---कविता के पूर्व-निश्चित तर्कसंगत ढाँचे का टूटना ही उसकी सबसे बड़ी सफलता है ।’ स्वयं निराला ही जानबूझकर कभी-कभी ऐसा करते हैं ।
‘अनेक रचनाओं में निराला तर्कयोजना की कड़ियाँ बीच-बीच में छोड़ते जाते हैं ।---एक स्थिति से दूसरी स्थिति
तक संक्रमण को आकस्मिक बनाकर वह नाटकीयता से श्रोता को विस्मित कर देना चाहते हैं,
इसलिए तर्क की कुछ कड़ियाँ छोड़ जाते हैं ।---निराला
इस तरह जहाँ तर्क की लड़ियाँ छोड़ते हैं, वहाँ किसी-न-किसी रूप में व्यंग्य रहता है ।’ व्यंग्य का राजनीतिक संदर्भ स्पष्ट करने की जरूरत नहीं ।
जिस तरह तुलसीदास के प्रसंग में उन्होंने कविता का सौंदर्य खोलने
के लिए सूक्ष्म आलंकारिक तत्वों का पुंखानुपुंख विश्लेषण किया है कुछ कुछ उसी तरह निराला
की कविता में अनुप्रास-प्रेम, ध्वनि-प्रवाह, सघोष अल्पप्राण, स्वर-साधना आदि के बारीक और औचित्यप्रदर्शक विवेचन के बाद कविता में शब्दों के प्रयोग
का जिक्र करते हुए नयी बातें कहते हैं । ‘तत्सम-तद्भव’ शीर्षक अध्याय की शुरुआत ही इसमें निहित जातिवाद
को उद्घाटित करने से होती है । वाक्य है ‘अनेक भारतीय भाषाओं
में कुछ शब्द सामान्य समझे जाते हैं, कुछ साधारण, कुछ अछूत ।’ आगे विस्तार से इस धारणा की व्याख्या है
‘जो शब्द तत्सम कहे जाते हैं, उन्हें अधिक
प्रतिष्ठा प्राप्त है । इनमें कुछ लघु आकार वाले हैं, हजारों
साल से भारतीय भाषाओं में बोले जाते रहे हैं, लघु आकार और अत्यधिक
व्यवहार के कारण उनका गौरव कम हो गया है---जिनके व्यवहार से काव्य
विशेष गौरवशाली नहीं होता । विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त है उन शब्दों को जिनमें तीन से
अधिक वर्ण हैं, संयुक्ताक्षर हैं, ऐसी ध्वनियाँ
हैं जिनके उच्चारण में साधारण लोगों को कठिनाई होती है । इनके बाद तद्भव हैं,
तत्समों के ‘बिगड़े हुए’ रूप,
बहुत प्रतिष्ठित नहीं तो अस्पृश्य भी नहीं । सबसे गए-बीते हैं देशज जो भारत-यूरोपीय से अपना संबंध स्थापित
नहीं कर सकते, जो लोक व्यवहार में अनिवार्य हैं किंतु सहृदय काव्य-मर्मज्ञ जिन्हें भरसक अपने से दूर रखते हैं । इनके अलावा अरबी-फारसी के लोकप्रचलित शब्द हैं जिन्हें हिंदी कविता में रखना रस-विरोधी कार्य माना जाता है ।’ समाज में मौजूद ऊँच-नीच की शब्दावली का इस प्रसंग में अनायास उपयोग नहीं किया गया है । इसका मकसद
साहित्य में शुद्धता संबंधी सोच की प्रतिगामिता को उजागर करना है । समावेश-बहिष्कार के ‘कहीं ये नियम लिखे गए हैं, कहीं बेलिखे रह गए हैं किंतु नियम हैं अवश्य, निराला
इन नियमों का बराबर उल्लघन करते हैं ।’ याद दिलाने की जरूरत नहीं
कि निराला इन नियमों का उल्लंघन केवल कविता में नहीं करते थे, जीवन में इस तरह के व्यवहार की गवाही के लिए ‘कुल्ली
भाट’ का नाम ही बहुत है और उनके सामाजिक विधि-निषेध के उल्लंघन से इस काव्यगत बरताव का संबंध हो सकता है । किताब में एक
अध्याय का शीर्षक ही है ‘नियम-भंग’
। मुक्त छंद को तो मनुष्य की मुक्ति से निराला ने खुद ही जोड़ा था । आश्चर्य
ही होता अगर रामविलास जी ने निराला की कविता के साथ ही उनके गद्य की खूबसूरती का भी
विवेचन न किया होता ।
‘देवी’ में ‘भावुकता
के स्तर से बचता हुआ उनका गद्य दुख के चित्रण में कविता की तरह सारगर्भित और प्रभावशाली
हो उठता है---एक महान ट्रेजेडी की-सी गहराई
निराला के गद्य में है ।’ ‘पगली की क्रियाएँ हास्यास्पद हैं;
लक्ष्य है मन में करुण भाव उत्पन्न करना ।--निराला
का उद्देश्य हँसाना नहीं, हँसी की छलक के नीचे वेदना का सागर
दिखाना है ।’ इसी कहानी में व्यंग्य के अनेक स्तर हैं । ‘वह संगम-लाल को संग-मलाल कहते हैं
। निर्दोष विनोद का यह एक स्तर है ।’ लेकिन जब अपने बारे में
लिखते हैं कि वह ‘बारह साल तक मकड़े की तरह शब्दों का जाल बुनते
हुए मक्खियाँ मरते रहे- इस व्यंग्य में मृत्यु का-सा तीक्ष्ण दंश है ।’ तीसरा रूप ‘बगल में चौरासी आसन दबाए पत्नी को सीता, सावित्री देने
वालों पर व्यंग्य खुला हुआ है, पीड़ा कम, हास्य अधिक है ।’ चौथा रूप ‘नेता
के जुलूस में पगली का बच्चा कुचल गया, नेता दस हजार की थैली लेकर
चले गए- जरूरी-जरूरी कामों में खर्च करेंगे-
यहाँ व्यंग्य स्पष्ट है, पीड़ा के साथ आक्रोश का
भाव तीव्र है ।’ एक और रूप ‘रामायणी कथा
से लौटे हुए भक्त पगली को देखकर कहते हैं: इसी संसार में स्वर्ग
और नरक देख लो । दूसरा कहता है, कर्म के दंड हैं । तीसरा तुलसीदास
की साखी देता है---दुख से अधिक इनके पाखंड के प्रति जुगुप्सा
का भाव उत्पन्न होता है ।’ निराला साहित्य की इन खूबियों को उजागर
करने वाली रामविलास जी की भाषा भी देखने लायक है ‘जैसे अपने प्रबंध-काव्य में निराला भिन्न भाव, परस्पर-विरोधी भाव सजाते हैं, वैसे ही “देवी” में निराला व्यंग्य का ऐसा प्रबंध-संगीत रचते हैं जिसमें अनेक भावों के तार झंकृत होते हैं ।’
‘चतुरी चमार’ में ‘छायावादी कवि निराला ने वह काम किया है जो बड़े-बड़े यथार्थवादी
लेखक भी कम कर पाते हैं ।---निराला के घर से चतुरी का घर किस ओर है, कहाँ से पनालों
का, बरसात का और दिन-रात का शुद्धाशुद्ध जल बहता है, ये सब चित्र में सजाई हुई निरर्थक
वस्तुएँ नहीं हैं, उनमें गाँव का सामाजिक संबंधों का पूरा इतिहास छिपा हुआ है ।’ अगर
सामाजिक विषमता के प्रति तीखी नफरत न हो तो भूगोल की इस सामाजिकता पर निगाह पड़ना मुश्किल
है । प्रमाण है कि उम्र में चतुरी निराला के चाचा जैसा है फिर भी निराला को वे कहानी
में ‘काका’ कहते हैं । रामविलास जी लिखते हैं कि भतीजे बराबर निराला के लिए चतुरी का
यह संबोधन रूढ़ियों के बोझ का प्रतीक है ।
बिल्लेसुर बकरिहा ‘एक तरह की लोककथा है जो साहित्यिक कहानी से अधिक समय लेती है,
लघु उपन्यास से कम । न केवल इसका ढाँचा लोककथा का है, वरन इसका वातावरण, कथा कहने की
शैली, कथा की परिणति- सब कुछ लोककथाओं जैसा है ।’ भाषा का काम भाव-प्रकाश होता है जिसमें
निराला सफल हैं । ‘बिल्लेसुर हास्य के आलंबन हैं, हास्यास्पद नहीं हैं । हास्य के साथ
वीर भाव जुड़ा है, वैसे ही जैसे निराला के व्यंग्य से अकसर करुणा का भाव जुड़ा रहता है
।’ भाव से भाषा का संबंध बताते हुए लिखते हैं ‘निराला ने कथा कहते हुए हर जगह भाव-संयम
बरता है---वैसी ही मितव्ययिता शब्द-चयन में है ।’
निराला के समूचे गद्य की विशेषताओं को गिनाते हुए कहा ‘पद्य की तरह गद्य में निराला
ने अनेक शैलियों का प्रयोग किया है, पद्य में जैसे उन्होंने अनेक काव्य-रूप रचे हैं,
वैसे ही गद्य में ।’ पहली ‘निराला की एक शैली छायावादी अलंकारों के नूपुर बजाती हुई
उनके कल्पना-लोक की अप्सरा के समान गद्य में अवतरित होती है ।’ दूसरी ‘निराला ने जहाँ
रूढ़ियों का विरोध किया है, सामाजिक क्रांति का जोरदार समर्थन किया है, साहित्यिक वाद-विवाद
में शत्रुदल पर समर्थ आक्रमण किया है, वहाँ उनकी शैली अलंकारों के भार से मुक्त है
।’ सारत: ‘निराला का गद्य एक ओर वाद-विवाद में जूझने वाले कुशल तार्किक और व्यंग्य
लेखक का गद्य है, दूसरी ओर उसमें कवि-सुलभ चित्रमयता, भाव-गांभीर्य के भी दर्शन होते
हैं ।---चित्रमयता, अर्थ-वक्रता, भाव-सघनता के कारण इस तरह के गद्य का उतना ही ऊँचा
स्थान है जितना निराला के श्रेष्ठ पद्य का ।’
बहुत उम्दा लेख धन्यवाद
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