Monday, July 25, 2011

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का इतिहास दर्शन


आचार्य शुक्ल ने 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में सहित्य की परिभाषा सहित साहित्येतिहास दर्शन की धारणा बनाई है । इसकी खूबी है तीन स्तरों का निर्माण और उनके बीच अंत:क्रिया के रूप में साहित्येतिहास की भावना । सबसे नीचे हैं राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थितियाँ । इनमें से बाकी तो स्पष्ट हैं लेकिन सांप्रदायिक के सिलसिले में थोड़ी व्याख्या की जरूरत है । आज जिस अर्थ में हम इस शब्द का प्रयोग करते हैं उसी अर्थ में पहले नहीं होता था । इसका अर्थ संप्रदायों से जुड़ा हुआ है क्योंकि धार्मिक को इससे अलग रखा गया है और तब यह बहुत कुछ वैचारिक के इर्द गिर्द पहुँच जाता है । दूसरा स्तर है इनके अनुसार बनने वाली चित्तवृत्ति । इसे आप मनोवृत्ति भी कह सकते हैं और एक तरह से यह सामूहिक अवचेतन जैसा है । तीसरे स्तर पर है साहित्य जिसमें इसका प्रतिबिंबन होता है । ध्यान दिजिए कि साहित्य में जो मनोवृत्ति आइने के भीतर की तस्वीर की तरह दिखाई पड़ती है उसका निर्माण सामाजिक राजनीतिक वैचारिक आदि परिस्थितियों के अनुसार होता है यानी साहित्य में दिखाई पड़ती है मनोवृत्ति जिसके सहारे आप उस समय की राजनीतिक सामाजिक वैचारिक आदि परिस्थिति देख सकते हैं । लेकिन उतनी आसानी से नहीं क्योंकि यह प्रतिबिंब संचित प्रतिबिंब होता है । इसमें संचित का वही मतलब है जो कविता की वर्ड्सवर्थ द्वारा दी गई परिभाषा में रिकलेक्टेड का है । Poetry is spontaneous overeflow of powerfull emotions recollected in tranquility. वैसे संचित का एक अर्थ चयनित भी होता है । मतलब कि जो प्रतिबिंब है वह हूबहू नहीं बल्कि चयनित है । यानी साहित्य में समाज का जो अक्स है वह चुनिंदा हिस्सों का है । इससे साहित्य में यथार्थ की प्रातिनिधिक प्रस्तुति का अर्थ भी लिया जा सकता है । अब दूसरी बात कि साहित्य की एक धारा आपके सामने मौजूद होती है । इस धारा में समय समय पर कुछ बदलाव दिखाई पड़ते हैं । इन्हीं परिवर्तनों का सामंजस्य सामाजिक आदि परिवर्तनों के साथ दिखाना पड़ता है । एकता नहीं सामंजस्य; जो होता है लेकिन अनेक बार दिखाई नहीं पड़ता । साहित्य की परंपरा चूँकि जनता की चित्तवृत्तियों से प्रभावित होती है और जनता की चित्तवृत्ति बहुत से साहित्येतर कारकों से निर्मित होती है इसलिए साहित्य का इतिहास सामाजिक चेतना का इतिहास भी होता है ।
इतनी परिष्कृत धारणा के बल पर ही वे ऐसा इतिहास लिख सके जो अनेक मामलों में अब भी मील का पत्थर बना हुआ है । मूल उद्धरण निम्नवत है : 'जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिंब होता है तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति में परिवर्तन के साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है । आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही 'साहित्य का इतिहास' कहलाता है । जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है । अत: कारणस्वरूप इन परिस्थितियों का किंचित दिग्दर्शन भी साथ ही साथ आवश्यक होता है ।' (हिंदी साहित्य का इतिहास, काल विभाग) रामचंद्र शुक्ल जिन अर्थों में राजनीतिक परिस्थितियों को समझ रहे थे उसके मुकाबले आधुनिक विश्व में राजनीति अधिक केंद्रीय भूमिका अख्तियार करती गई है । यहाँ तक कि वैचारिक और सामाजिक परिस्थिति भी बहुत हद तक राजनीतिक क्रियाकलापों के भीतर ही सिमट गई है । गौर करने की बात यह भी है कि आदिकाल और मध्यकाल के लिए धार्मिक, सांप्रदायिक आदि जितनी भी महत्वपूर्ण रही हों आधुनिक काल में राजनीतिक परिस्थिति मुख्य हो जाती है । इसीलिए आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास लिखते हुए आधुनिक भारतीय राजनीति के गंभीर परिप्रेक्ष्य की जरूरत है । उनके इतिहास बोध को सरल तरीके से खारिज कर देना मुश्किल है ।

Wednesday, July 20, 2011

उपन्यास के सवाल पर एक बहस


साहित्य की महत्वपूर्ण विधाओं की दुनिया में उपन्यास सबसे नया है । संभवत: इसीलिए इसे 'नावेल' कहा गया । जीवन की समग्रता को समेटने वाली अन्य सृजनात्मक विधाओं में जहाँ श्रव्य माध्यमों का भी सहारा लिया जाता है वहीं उपन्यास में मुद्रित शब्द ही एकमात्र माध्यम होते हैं । गद्य आधारित विधा होने के कारण सांगीतिक विधान भी इससे छिन जाता है । अपनी इस अंतर्निहित सीमा के बावजूद उपन्यास नाटक या फ़िल्म जैसी महाकाव्यात्मक प्रस्तुति में सक्षम होता है । यह ऐसी विधा है जो अब तक असंख्य प्रयोगों को अनुमति देती और पचाती आ रही है । इसने उपन्यास को ऐसी विविधता दी है कि कोई सर्वमान्य परिभाषा मुश्किल हो जाती है । प्रत्येक नई कृति पुरानी धारणा के लिए चुनौती पैदा कर देती है ।

आलोचना जगत में एक परिभाषा को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है- 'उपन्यास मध्यवर्ग का महाकाव्य है ।' यह परिभाषा प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक हेगेल ने दी थी । ध्यान देने की बात यह है कि यह परिभाषा साहित्यिक विधाओं की पुरानी परिभाषाओं की तरह बाहरी रूपाकार पर ध्यान नहीं देती बल्कि काल, आधार और अंतर्य पर जोर देती है । इसमें मध्यवर्ग थोड़ा भ्रामक है । हेगेल के समय मध्यवर्ग का उस अर्थ में प्रयोग नहीं होता था जिस अर्थ में आज होता है । तब इसका अर्थ 'बुर्जुआजी' था । उन्हें 'बर्गर' भी कहा जाता था । ग्रामीण जागीरदारों और भूदासों से भरे कृषक समुदाय की दुनिया के बाहर शहरों के उदय से यह नया वर्ग आया था । इस वर्ग का उदय पूँजीवाद के उदय से जुड़ा हुआ था । इस अर्थ में हम कह सकते हैं कि उपन्यास पूँजीवाद के दौर का महाकाव्य है । पूँजीवाद के उदय से जुड़ी कुछेक परिघटनाओं ने उपन्यास का रूप तय किया ।

एक तो है व्यक्ति का उदय । पूँजीपति वर्ग ने अपने लिए स्वतंत्र कामगार जुटाने के क्रम में सामुदायिक जीवन को नष्ट किया । व्यक्तिवाद की इस असलियत को ई एच कार ने 'इतिहास क्या है?' में व्यक्त किया है । बहरहाल आधुनिक काल का यह व्यक्ति सामुदायिक जीवन के मनुष्य से भिन्न था । महाकाव्य के सामाजिक आधार को व्याख्यायित करते हुए गोर्की ने 'व्यक्तित्व का विघटन' में बताया है कि महाकाव्यों के नायक महाबलशाली होते थे क्योंकि समुदाय के किसी एक व्यक्ति की शक्ति समूचे समुदाय की सामूहिक शक्ति के बराबर होती थी । मृतक व्यक्ति की अनुपस्थिति के अहसास से सबसे पहले 'वह' सर्वनाम पैदा हुआ होगा । इसी प्रसंग में राल्फ़ फ़ाक्स की टिप्पणी पर भी ध्यान देना उचित होगा । वे बताते हैं कि महाकाव्यों के चरित्र आम तौर पर दैवी शक्तियों से संघर्ष करते थे । आधुनिक समाज में व्यक्ति की लड़ाई दैवी शक्तियों से नहीं बल्कि मनुष्यों से ही है । अपने जीवन के लिए मनुष्य को अब अपने आस पास के समाज से ही संघर्ष करना पड़ता है पहले की तरह प्राकृतिक शक्तियों से नहीं जिन्हें दैवी शक्तियों के जरिए प्रतीकायित किया जाता था । कुल मिलाकर इसी स्थिति ने 'व्यक्तिवाद' को जन्म दिया । व्यक्तिवाद ने उपन्यास को चरित्र दिए और उन चरित्रों को विश्वसनीय बनाने के लिए ऐसे नाम रखे गए जो आस पास दिखाई पड़ते थे ।

चूँकि व्यक्ति को समाज में अपनी जगह बनाने के लिए समाज में निरंतर संघर्षरत रहना पड़ता है इसलिए उपन्यास की कथा में समय की जो धारणा प्रकट हुई वह 'ऐतिहासिक समय' था । इसके विपरीत महाकाव्यों में वर्णित समय 'पौराणिक समय' था । इसी के साथ यह अंतर भी ध्यातव्य है कि महाकाव्य का स्रोत जहाँ स्मृति है वहीं उपन्यास का स्रोत ज्ञान है । महाकाव्य में जहाँ पाठक को विख्यात कथा की काव्यात्मक प्रस्तुति का साक्षी होना होता था वहीं उपन्यास की कथावस्तु नवीन और अज्ञात होने के कारण औत्सुक्य का तत्व उसमें आवश्यक होता था । इसीलिए महाकाव्य में अतीत का वर्णन होता है लेकिन उपन्यास में वर्तमान का । ऐतिहासिक उपन्यासों को भी ध्यान से देखें तो अतीत को देखने नजरिया लेखक के वर्तमान का होता है । इसी वर्तमान को हम ऐतिहासिक समय कह रहे हैं । कहने की जरूरत नहीं कि ऐतिहासिक समय की धारणा में कार्यकारणत्व निहित था । इसने उपन्यास को उस कथा प्रवाह का ढाँचा दिया जो चरित्रों के क्रिया व्यापार से संचालित होता था । इस तरह उपन्यास 'नियति से संचालित मानव परिस्थिति' को बदलने के मानवीय प्रयास की गाथा बना । यह प्रयास ही उपन्यास के घटना प्रवाह का संचालक होता था । इस संघर्ष में मनुष्य को किसी दैवी शक्ति का आशीर्वाद प्राप्त नहीं होता था । इसलिए उसे अपनी ही अंतर्निहित शक्तियों को काम में लगाना पड़ता था । पात्रों की स्थापना इसी क्रम में होती थी ।

साफ है कि यह घटनाक्रम चूँकि एक संघर्ष का वर्णन होता था इसलिए वह आलोचना से बच नहीं सकता था । सामंती समाज के भीतर उपन्यास को पूँजीवाद की शुरुआती क्रांतिकारिता का वाहक होने के नाते आलोचना के धर्म और परिवर्तनकामी उद्देश्य से संचालित होना ही था ।

अब तक की बातचीत से स्पष्ट है कि उपन्यास की कोई भी धारणा उसकी अंतर्वस्तु पर ही बल देती है । इसी के कारण वह विभिन्न अनुशासनों की सीमाओं को छूता चलता है । समाजशास्त्र और इतिहास जैसे अनुशासन पहले भी उपन्यासों की सहायता से किसी खास दौर की सामाजिक संरचना और मनोरचना को समझने की कोशिश करते रहे हैं । कारण यह कि काल का स्पष्ट निर्देश न होने के बावजूद उपन्यास घटनाक्रम के वर्णन में अपने दौर के न सिर्फ़ निशानात छोड़ जाता है बल्कि ढेर सारी घटनाओं के भीतर से किसी विशेष घटनाक्रम का वह चुनाव करता है । जिस घटनाक्रम का चुनाव उपन्यास करता है वह अपनी प्रातिनिधिकता के कारण ही उस समय विशेष का एक हद तक प्रामाणिक दस्तावेज बन जाता है । इधर के दिनों में इतिहास के भीतर की मनोरचना पर जोर देने के चलते उपन्यास को इतिहास का स्थानापन्न भी समझा जाने लगा है किंतु दोनों अनुशासनों में एक बुनियादी फ़र्क है- इतिहास जहाँ अधिक वैज्ञानिक तरीके से किसी खास दौर में कार्यरत सामाजिक प्रक्रियाओं की जाँच पड़ताल करता है वहीं साहित्य कभी कभी आकस्मिकता का सहारा लेते हुए भी व्यक्तियों के भीतर सामाजिक आलोचना की छाप को प्रस्तुत करता है ।

यूरोप में अपने उदय और विकास के इन्हीं जन्मचिन्हों के साथ जब उपन्यास भारत में आया तो यहाँ के बौद्धिक जगत ने पश्चिम के अन्य उपयोगी साधनों मसलन छापाखाना के साथ साथ इसे भी हाथों हाथ उठाया । मैं विशेष रूप से हिंदी साहित्य के वातावरण से परिचित हूँ इसलिए उसी की मार्फ़त इस पर विचार करूँगा । उपन्यास की भारतीयता के कुल शोरगुल के बावजूद सच्चाई यही है कि सामाजिक यथार्थवाद की धारा ने उपन्यास को भारत की कथा कहने में सक्षम बनाया । यहाँ प्रेमचंद के जरिए दो बातों की ओर ध्यान दिलाना जरूरी है । एक तो है उनकी 'आदर्शोन्मुख यथार्थवाद' की धारणा और दूसरी उनके उपन्यासों की विषय वस्तु ।

उपन्यास के साथ यथार्थवाद का गहरा संबंध है । आयन वाट ने 'उपन्यास का उदय' में इस तथ्य को भी पुनर्जागरण की चेतना से जोड़कर देखा है । निर्मल वर्मा को भले यथार्थवाद भारतीय संवेदना को प्रकट करने में अक्षम प्रतीत हुआ हो पर रामचंद्र शुक्ल ने 1910 में ही 'उपन्यास' शीर्षक जो लेख लिखा था उसमें यह समझ और इसका स्वीकार दिखाई पड़ता है । वे लिखते हैं- '---उच्च श्रेणी के उपन्यासों में वर्णित छोटी छोटी घटनाओं पर यदि विचार किया जाय तो जान पड़ेगा कि वे यथार्थ में सृष्टि के असंख्य और अपरिमित व्यापारों से छाँटे हुए नमूने हैं ।---सामाजिक उपन्यास जिन जिन चरित्रों को सामने लाते हैं वे या तो ऐसे हैं जो सामाजिक व्यापारों के औसत में अथवा जिनका होना मानव प्रवृत्ति की चरम सीमा पर संभव है ।' प्रेमचंद के कथन का जो तात्पर्य था उसे शुक्ल जी ने इस लेख में पूर्वाभासित किया है- 'कहीं पर ये उपन्यास यह दिखलाते हैं कि समाज को कैसा होना चाहिए । ये कहीं से उन असंख्य व्यापारों में से, जिनसे हम घिरे हैं, कुछ एक को ऐसे स्थान पर लाकर अड़ा देते हैं जहाँ से हम उनका यथार्थ रूप और सृष्टि के बीच उनका संबंध दृष्टि गड़ाकर देख सकते हैं । और कहीं उन संभावनाओं की सूचना देते हैं जिनसे यह मनुष्य जीवन देव जीवन और यह धराधाम स्वर्गधाम हो सकता है ।' शुक्ल जी ने इसी तरह की बातें हिंदी साहित्य का इतिहास में भी लिखीं- 'समाज जो रूप पकड़ रहा है उसके भिन्न भिन्न वर्गों में जो प्रवृत्तियाँ उत्पन्न हो रही हैं उपन्यास उनका विस्तृत प्रत्यक्षीकरण ही नहीं करते आवश्यकतानुसार उनके ठीक विन्यास, सुधार अथवा निराकरण की प्रवृत्ति भी उत्पन्न कर सकते हैं ।'

इस पूर्वपीठिका पर हम प्रेमचंद की धारणा को अच्छी तरह समझ सकते हैं । ऐसा लगता है कि उस समय 'प्रकृत यथार्थवाद' को ही यथार्थवाद समझा जाता था । प्रेमचंद के लेख 'उपन्यास' में यथार्थवाद की यही धारणा है- 'यथार्थवादी अनुभव की बेड़ियों में जकड़ा होता है और चूँकि संसार में बुरे चरित्रों की प्रधानता है, यहाँ तक कि उज्ज्वल से उज्ज्वल चरित्रों में भी कुछ न कुछ दाग धब्बे रहते हैं, इसलिए यथार्थवाद हमारी दुर्बलताओं, हमारी विषमताओं और क्रूरताओं का नग्न चित्र होता है ।' आज यह पढ़कर आश्चर्य होता है कि उस समय प्रेमचंद को यथार्थवादी नहीं आदर्शवादी समझा जाता था । ऐसा उस समय प्रचलित यथार्थवाद की धारणा के कारण था । प्रेमचंद ने लिखा है- 'इसलिए हम वही उपन्यास उच्च कोटि का समझते हैं जहाँ यथार्थवाद और आदर्शवाद का समन्वय हो गया हो । उसे आप आदर्शोन्मुख यथार्थवाद कह सकते हैं ।' जैनेंद्र को लिखी चिट्ठी में भी इसी पहलू पर जोर है- 'यथार्थवादी हममें से कोई भी नहीं है । हममें से कोई भी जीवन को उसके यथार्थ रूप में नहीं दिखाता बल्कि उसके वांछित रूप में ही दिखाता है । मैं नग्न यथार्थवाद का प्रेमी भी नहीं हूँ ।'

यथार्थवाद संबंधी प्रेमचंद की धारणाओं पर विचार करने के बाद राम कृपाल पांडे ने अपने लेख 'प्रेमचंद और हिंदी का मार्क्सवादी सौंदर्य चिंतन' में सही निष्कर्ष निकाला है- 'मेरा दृढ़ मत है कि अगर आदर्शवाद को उसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि के साथ सही मायने में भावनावाद के अर्थ में ग्रहण किया जाय तो प्रेमचंद को आदर्शवादी या आदर्शोन्मुख यथार्थवादी कहना बिलकुल गलत है । और अगर आदर्शवाद को महज सुलक्ष्यवाद या सदुद्देश्यवाद के साधारण अर्थ में ग्रहण किया जाय तो उन्हें आदर्शोन्मुख यथार्थवादी कहना ठीक होगा । स्वयं प्रेमचंद ने आदर्शवाद को सदुद्देश्यवाद के साधारण अर्थ में ग्रहण किया है ।' इससे आगे बढ़कर यह भी कहा जा सकता है, और ऐसा कहना उनके उपन्यासों का विश्लेषण करने पर अतिकथन नहीं लगेगा, कि उनका 'आदर्शोन्मुख यथार्थवाद' वस्तुत: 'आलोचनात्मक यथार्थवाद' की धारणा के अधिक निकट है । जिन विदेशी उपन्यासकारों (डिकेंस, तोलस्तोय, गोर्की) को पसंदीदा लेखकों के बतौर उन्होंने गिनाया है उससे भी यही प्रमाणित होता है ।

यूरोप से उपन्यास की जो परंपरा भारत आई उसमें सामंतवाद की आलोचना का तत्व तो था किंतु भारतीय अनुभव ने आलोचना के क्षेत्र विस्तार की जरूरत पैदा कर दी । प्रेमचंद को साम्राज्यवाद और सामंतवाद के विचित्र गँठजोड़ का सामना करना पड़ा । उनकी कृतियों में सामंती उत्पीड़न और उसे संरक्षण देने वाले अंग्रेजी राज दोनों की मुखर आलोचना दिखाई पड़ती है । न सिर्फ़ इतना बल्कि कांग्रेस के मध्यवर्गीय नेतृत्व में जो स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था उसकी भी सीमाओं को वे देख रहे थे । शुरुआती उपन्यासों में अवश्य उस समय मौजूद विकल्पों के प्रति मोह दिखाई पड़ता है लेकिन 'रंगभूमि' के बाद उन्हें इन तथाकथित आश्रमों से कोई मोह नहीं रह गया ।

नामवर सिंह ने प्रेमचंद की विशिष्टता को रेखांकित करते हुए किसान समुदाय की व्यथा के चित्रण पर जोर दिया है । ऐसा संभवत: उन्होंने यूरोपीय उपन्यासों से प्रेमचंद का पार्थक्य बताने के लिए किया है । मेरा विनम्र निवेदन है कि प्रेमचंद महज किसान समुदाय और ग्रामीण जीवन के रचनाकार नहीं थे अन्यथा इसका रोमांटिक आदर्शीकरण उनमें अवश्य पाया जाता । वे भारत में औपनिवेशिक शासन के कारण आए समाजार्थिक परिवर्तनों के कथाकार थे । उनके गाँव समग्र सामाजिक आर्थिक औपनिवेशिक बुनावट के बीच अवस्थित हैं । उन्हें औपनिवेशिक शासन से मुक्ति की आकांक्षा तो थी ही उपनिवेशोत्तर भारत की भी चिंता थी । प्रेमचंद के उपन्यासों की कथाभूमि और उपन्यासों के पात्रों की गतिमान वर्गीय संरचना की दृष्टि अब भी कोई बेहतर अध्ययन नहीं हुआ है ।

प्रेमचंद द्वारा निर्मित इस ठोस जमीन पर हमें हिंदी उपन्यास के आगामी विकास को देखना चाहिए । दुख के साथ कहना पड़ता है कि कुल विविधता के बावजूद हिंदी उपन्यास सचमुच मध्यवर्ग का महाकाव्य तो नहीं उसका आदर्शीकरण और रुदन बनकर रह गया । अनेक लेखकों को प्रेमचंद की परंपरा में घोषित किया गया लेकिन समकालीन जीवन की वैसी भरी पूरी समझ से संपन्न परिवर्तन की वैसी बेचैनी से उत्पन्न वैसी तीखी आलोचना वाला उपन्यास हिंदी में नजर नहीं आया । इसे समकालीन माहौल से मेरी अपेक्षा के बतौर ही ग्रहण किया जाय ।

Tuesday, July 19, 2011

मैनेजर पांडे के सरोकार


(अध्यापकों के बतौर जिनसे सीखा उनमें मैनेजर पांडे अनन्य हैं । इस आयु में भी उनका परिश्रम हमारे लिए स्पृहणीय है । जे एन यू में उनकी कक्षा में बहुधा ऐसा हुआ कि डेढ़ दो घंटे तक कलम रुकती ही नहीं थी और कई बार ऐसा भी हुआ कि लिखने में तर्क की धारा छूट जाएगी यह सोचकर कुछ नोट ही नहीं किया । शोध करते हुए उनसे एक संकोचपूर्ण नजदीकी बनी जो अब तक जारी है । उनके लिखे को पढ़कर चुपचाप गर्व करना और मिलने पर कुछ न कहना आदत सी बन गई । बहरहाल गोरखपुर में उनके सम्मान समारोह के अवसर पर यह पर्चा लिखा लेकिन जा न सका । बाद में समकालीन जनमत में छप गया और अब इसे कुछ जोड़ तोड़ कर आपके पास भेज रहा हूँ शीर्षक बदले बगैर । गोपाल प्रधान)

नागार्जुन, प्रेमचंद, रामचंद्र शुक्ल और मुक्तिबोध- यह सूची उन लेखकों की है जिनकी ओर से मैनेजर पांडे ने आज के समय में आलोचना की भूमिका तलाशी है । इस सूची के अधूरा होने पर बहस की जा सकती है लेकिन एक बात सिद्ध है । ये सभी लेखक आधुनिक हिंदी साहित्य के स्तंभ हैं । जो लेखक प्रामाणिक रूप से हिंदी में जनपक्षधर लेखन की परंपरा का निर्माण करते हैं, आखिर उनकी रक्षा की जरूरत क्या है ? असल में हरेक दौर में वैचारिक लड़ाई चलती रहती है और उस लड़ाई में फिर फिर जनता से जुड़े रचनाकारों को गलत व्याख्या से बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है । इससे ही वह समकालीन संदर्भ बनता है जिसमें आलोचना की एक खास तस्वीर मैनेजर पांडे बनाते हैं । सबसे पहले इस समय की जो पहचान मैनेजर पांडे ने की है उसे देखना जरूरी है ।

'आलोचना की सामाजिकता' की भूमिका में वे लिखते हैं- 'आजकल भारत पूँजीवादी सभ्यता के आतंककारी प्रभावों का सामना कर रहा है ।' यह महत्वपूर्ण वाक्य उन्होंने 2005 में लिखा जब प्रख्यात मार्क्सवादी चिंतक रणधीर सिंह ने चिंता जाहिर की थी कि उत्तर आधुनिक चिंतकों के मुताबिक पूँजीवाद लुप्त और गुप्त हो गया है, न सिर्फ़ इतना बल्कि मार्क्सवादी बौद्धिक विमर्श से भी यह अभिधान गायब होता जा रहा है । कुछ दिनों पहले ही नक्सलबाड़ी से संबंधित एक संपादित पुस्तक की भूमिका में वीरभारत तलवार ने अपने लेनिनवादी अतीत को श्रद्धांजलि अर्पित की थी । मार्क्सवादी शब्दावली से पीछा छुड़ाने की इस भगदड़ के माहौल में ही उस जिद के महत्व को समझा जा सकता है जिसके साथ मैनेजर पांडे वर्तमान दौर को समझने और इसमें आलोचना का कार्यभार तय करने के लिए निरंतर इस शब्दावली का उपयोग करते हैं । इस बात पर एक और कोण से विचार करना जरूरी है । मार्क्सवाद के अनेक विरोधियों का कहना है कि मार्क्सवाद न सिर्फ़ विदेशी है बल्कि उसका संबंध तो लोहा लक्कड़ और रुपये पैसे जैसी ठोस चीजों से है साहित्य संस्कृति जैसे अमूर्त व्यवहार से उसका क्या लेना देना । मैनेजर पांडे ने इस धारणा से लड़ने के लिए सांस्कृतिक व्यवहार की सामाजिकता को पहचाना और उसे व्याख्यायित करने में विश्लेषणात्मक बुद्धि और अध्यवसाय के बल पर मार्क्सवाद की भूमिका को स्थापित किया ।

पूँजीवाद के वर्तमान दौर ने आलोचनात्मक विवेक को सबसे अधिक नुकसान पहुँचाया है । इस स्थिति की शिनाख्त करते हुए वे 'आलोचना : सार्थक और निरर्थक' शीर्षक निबंध में लिखते हैं- 'यह ठीक है कि हिंदी में आलोचना की स्थिति अच्छी नहीं है । लेकिन आलोचना की यह स्थिति केवल हिंदी में हो, ऐसा नहीं है । आजकल सारी दुनिया में आलोचना संकट में है, बल्कि आलोचना का संकट व्यापक सांस्कृतिक संकट का हिस्सा है । आज के उत्तर आधुनिक दौर में एक वैचारिक अनुशासन और साहित्य विधा के रूप में आलोचना कई तरह के संकटों का सामना कर रही है । पूँजीवाद के विजय, उपभोक्तावाद के सर्वग्रासी प्रसार, विवेक के साथ अर्थ के अंत और सामाजिक की मृत्यु की घोषणा के कारण जब आलोचनात्मक चेतना ही संकट में है तब उसकी क्रियाशीलता का एक रूप साहित्य की आलोचना उस संकट से कैसे बच सकती है ?'

आलोचनात्मक विवेक के इस विनाश का एक प्रमुख कारण मार्क्सवादी बौद्धिक विमर्श में आई गिरावट है । आजाद भारत में एक तो शिक्षा संस्थानों के जरिए ही आलोचनात्मक प्रभुत्व पाने की रणनीति ने इसे सभी तरह के दक्षिणपंथी प्रभावों के समक्ष अरक्षणीय स्थिति में पहुँचा दिया और इसीलिए सोवियत संघ के बिखरते ही लाभान्वितों ने दूसरे चरागाहों की ओर मुँह फेरा । इसके विपरीत खासकर नक्सलवादी आंदोलन के उभार ने इसके सकारात्मक मूल्यों- मान्यताओं के विकास का दबाव बनाया । मैनेजर पांडे को इसी क्रांतिकारी वाम दबाव के प्रतिनिधि के रूप में समझा जा सकता है । जब साहित्य और उसकी आलोचना के क्षेत्र में दक्षिणपंथी दबाव बनता है तो सबसे पहले साहित्य को जनसमुदाय, जनांदोलन और जनराजनीति से अलग करने का प्रयास होता है । न सिर्फ़ उसके सृजन, ग्रहण और मूल्यांकन के क्षेत्र से जनता को गायब कर दिया जाता है बल्कि आलोचना के ऐसे मानदंड भी विकसित किए जाते हैं जो कृति की संरचना में ही उसके सौंदर्य को अपघटित कर दें । मैनेजर पांडे ने इन सभी मोर्चों पर न सिर्फ़ रक्षात्मक बल्कि अनेकश: आक्रामक युद्ध भी लड़ा है ।

आलोचना के क्षेत्र में जनांदोलनों के योगदान को मुक्त कंठ से स्वीकार करने वाले संभवत: अकेले आलोचक मैनेजर पांडे हैं । 'आलोचना की राजनीति' शीर्षक लेख में वे लिखते हैं- 'आज के समय में आलोचनात्मक चेतना के निर्माण और विकास का एक स्रोत जनांदोलन है । ज्ञान का विकास केवल एकांत साधना से नहीं होता, सामाजिक आंदोलनों से भी होता है । सामाजिक आंदोलनों से उपजा ज्ञान एकांत साधना से अर्जित ज्ञान की तुलना में अधिक ऊर्जावान और दीर्घगामी होता है ।' इसी पारगामी दृष्टि के कारण वे अकादमिक संस्थाओं की दुनिया में रहते हुए भी उनकी सीमाओं में न बँधकर हिंदी समाज में चलने वाली उथल पुथल से अपनी आलोचना को जोड़ सके ।

चूँकि उन्होंने आलोचना के प्रसंग में और अन्य प्रसंगों में भी राजनीति की चर्चा की है इसलिए राजनीति के जरिए कुछ बातें करना अनधिकार चेष्टा न होगी । प्रगतिशील आलोचना के उत्थान पतन को भारत की परंपरागत वामपंथी राजनीति के संदर्भ से समझना आवश्यक है । नामवर सिंह प्रगतिशील हिंदी आलोचना की सर्वाधिक सक्रिय उपस्थिति रहे हैं । उनके वैचारिक निर्माण में तेलंगाना आंदोलन के पतन के बाद व्यवस्था में समायोजन की वामपंथी कार्यनीति ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । उनके आलोचनात्मक लेखन ने हिंदी साहित्य की जनपक्षधर परंपरा के साथ बहुधा न्याय नहीं किया । मुक्तिबोध को उन्होंने नेहरू के समर्थन में खड़ा कर दिया और उनके लेखन के क्रांतिकारी सार को 'अस्मिता की खोज' के रहस्यमय मुहावरे के नीचे दबा दिया । नागार्जुन जैसे जनसंघर्षों के पक्षधर कवि का मूल्यांकन 'दूसरे काव्यशास्त्र' के निर्माण तक के लिए स्थगित कर दिया गया । प्रेमचंद प्रयोगों की नवीनता के प्रति उपजे आकर्षण के कारण पुराने पड़ गए । रामचंद्र शुक्ल को 'ब्राह्मणवादी' और 'वर्णाश्रम का समर्थक' बनाया गया ताकि नए सामाजिक आंदोलनों से उनके एजेंडे पर ही तालमेल बिठाया जा सके । इस तरह प्रगतिशील आलोचना ने अपनी ही विरासत को नकारकर अपनी जगह बनानी चाही ।

इसी वातावरण में मैनेजर पांडे के वैचारिक संघर्ष का ऐतिहासिक महत्व पहचाना जा सकता है । उन्होंने वर्तमान जनांदोलनों का सवाल तो उठाया ही, प्रगतिशील आलोचना की अवसरवादी धारा द्वारा किनारे कर दी गई विरासत को भी नए सिरे से प्रासंगिक बनाया । वर्तमान की चिंताओं ने कैसे परंपरा के पुनराविष्कार की उनकी दृष्टि को रूपायित किया है, इसके लिए रामचंद्र शुक्ल और नाथूराम शर्मा 'शंकर' संबंधी उनकी आलोचना को देखा जा सकता है । इन लेखों के भीतर भारत के पुन:उपनिवेशीकरण की चिंता से प्रभावित होकर स्वतंत्रता आंदोलन के साथ साहित्य के संबंध के रेखांकित करने के प्रयास को देखा- पढ़ा जा सकता है । इसी तरह अंधाधुंध उद्योगीकरण से हाशिए पर पड़ते जा रहे ग्रामीण जनसमुदाय के साथ लगाव को प्रेमचंद के लिए होने वाली लड़ाई के मूल में देखा जा सकता है । नागार्जुन की कविता 'हरिजन गाथा' पर अतिरिक्त बल को भी बिहार के किसान आंदोलन और दलित उभार से पैदा आवेग के परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है ।

समकालीन भारत का यथार्थ मात्र पूँजीवाद का उभार ही नहीं है । तस्वीर का दूसरा पहलू नए सामाजिक आंदोलन भी हैं । इन आंदोलनों के कारण आलोचना में पैदा हुई नई सामाजिकता को रेखांकित करते हुए पांडे जी ने 'आलोचना की सामाजिकता' की भूमिका में लिखा है- '---पिछले कुछ दशकों से हिंदी स्त्री लेखन, दलित लेखन और आदिवासी लेखन का जो विकास हुआ है उससे साहित्य और साहित्यिकता की पुरानी धारणाएँ और मान्यताएँ लगभग ध्वस्त हुई हैं और साहित्य की नई सामाजिकता सामने आई है । यह साहित्य विनोद का साधन नहीं है, वह स्वतंत्रता के लिए बेचैन आत्मा की पुकार है । इस साहित्य की व्याख्या में वही आलोचना सक्षम होगी जो स्त्रियों, दलितों और आदिवासियों की स्वतंत्रता की आकांक्षा की पहचान करेगी और उनके रचने की सामाजिकता का मूल्यांकन करेगी ।' इन आंदोलनों के प्रसंग में थोड़ा विस्तार से विचार करने की जरूरत है ।

नए सामाजिक आंदोलनों से उत्पन्न ऊर्जा ने वामपंथी हिंदी बौद्धिक समुदाय के लिए नई चुनौती पेश की । कुछ लोगों ने इसके समक्ष पूरी तरह आत्मसमर्पण कर दिया तो कुछ लोग कभी खारिज करने और कभी इनके उत्तर आधुनिक एजेंडे के साथ तालमेल बिठाने की अतियों के बीच झूलते रहे । इसके बरक्स मैनेजर पांडे ने इनकी सकारात्मकता को रेखांकित किया लेकिन इनकी सीमाओं की ओर भी संकेत करते रहे । मसलन 'आलोचना की सामाजिकता' में उन्होंने लिखा- 'स्त्रीवादी दृष्टि और दलितवादी दृष्टि में एक प्रकार का धुँधलापन है । लेकिन यह धुँधलापन अंधेपन से तो बेहतर ही है ।' इन दोनों धाराओं विशेषकर स्त्री लेखन के प्रसंग में उन्होंने पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा मजबूत की गई सत्ता संरचना की निशानदेही की है । आज जबकि दलित आंदोलन की एक धारा (बसपा) सत्ता संरचना का अंग हो चली है हमें दलित लेखन की धारा के साथ गंभीर बहस चलानी होगी क्योंकि वैसे भी हिंदी दलित लेखन ने कभी उन खेतिहर मजदूरों की पीड़ा को महत्व देते हुए अपनी जगह नहीं बनाई जो दलितों में बहुसंख्यक हैं । इस प्रश्न पर मैनेजर पांडे का लेखन वामपंथी चिंतन का आकाश विस्तारित करने की संभावना प्रस्तुत करता है ।

मार्क्सवादी साहित्य- समाज चिंतन उनके आलोचनात्मक लेखन की आधार भित्ति है । इससे विचलन के विरुद्ध संघर्ष के लिए उन्होंने अपने अग्रज और दीर्घकालीन वरिष्ठ सहयोगी नामवर सिंह को भी नहीं बख्शा । 'नामवर सिंह की आलोचना दृष्टि' शीर्षक लेख किसी भी वरिष्ठ सहकर्मी के योगदान और उसके विचलन के संयत संतुलित आकलन का नमूना है । नामवर सिंह का उनका विरोध किसी चिढ़ का परिणाम नहीं बल्कि प्रगतिशील आलोचना की सच्चाई को सामने ले आने और प्रासंगिक बनाए रखने के कर्तव्य से प्रेरित है ।

भाषा संबंधी संवेदनशीलता का क्षरण उनकी चिंताओं का एक और महत्वपूर्ण आयाम है । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि उनकी पहली ही पुस्तक 'शब्द और कर्म' थी । भाषा के मूल में सामाजिक क्रिया होती है, इसे चिन्हित करते हुए वे 'राजनीति की भाषा' में लिखते हैं- 'समाज भाषा की जन्मभूमि है और कर्मभूमि भी । यहीं से नए शब्द पैदा होते हैं, पुराने शब्दों में नया अर्थ भरता है और उन्हें नया जीवन मिलता है । समाज ही भाषा की शक्ति का मुख्य स्रोत है और समाज के कर्ममय जीवन में भाषा की क्रियाशीलता सार्थकता पाती है ।' शासक वर्ग के सामाजिक कर्म ने निरंतर भाषा को क्षरित किया है । ऐसी स्थिति में मनुष्य की सृजनात्मकता में आस्था रखनेवालों को इस शासकवर्गीय दुरभिसंधि के विरुद्ध निरंतर अपने कर्म से भाषा के अर्थ की रक्षा करनी पड़ती है ।

उनके लेखन में 'सार्थकता' को महत्वपूर्ण धारणा की तरह बार बार दोहराया गया है । इसके जरिए वे अतीत की रचनाओं को पुन: पुन: प्रासंगिक बनाते हैं । अश्वघोष की वज्रसूची, दारा शिकोह के मजमुल बहरैन, देउस्कर की देश की बात, महावीर प्रसाद द्विवेदी की संपत्ति शास्त्र, महादेवी वर्मा की शृंखला की कड़ियाँ- इस सूची पर ध्यान दें तो प्रतिरोध की एक भारतीय परंपरा का नक्शा खड़ा हो जाता है ।

सार्थकता की धारणा के सहारे वे रचना की संरचना में ही उसके अर्थ को खोजनेवाली कलावादी दृष्टि का मुकाबला कर रचना को सामाजिक गतिशीलता के बीच ला खड़ा करते हैं । अपनी चिंताओं, सरोकारों और वर्तमान की क्रियाशीलता से संबद्धता तथा मार्क्सवाद में आस्था से अर्जित भ्रमभेदक दृष्टि के कारण वे साहित्य को सामाजिक हलचलों के भीतर रखकर देखनेवालों के लिए जीवंत आश्वासन की तरह लगते हैं । आगे भी वे इस आश्वासन को बनाए रखेंगे, ऐसा उनके परवर्ती लेखन से प्रतीत होता है । आज के समय ने जवाबों की आश्वस्ति छीन ली है और प्रश्नों के समक्ष नई पीढ़ी को खुला छोड़ दिया है । ऐसे में सवालों को सही संदर्भों में अवस्थित करना भी बड़ा काम है । मुक्तिबोध ने कभी बुर्जुआ रणनीति की पहचान करते हुए कहा था- वे प्रश्न छलमय/ और उत्तर और भी छलमय । इस छलना के माहौल को भेदने के लिए निरंतर धैर्यपूर्वक अलगाव झेलते हुए भी सक्रिय रहना अभूतपूर्व रूप से आवश्यक हो गया है और वे लगातार सक्रिय हैं ।

Sunday, July 17, 2011

दिल्ली में कामरेड की हत्या (सरयू पांडे की मौत की खबर सुनकर)


कामरेड ! आज कई घटनाएँ

मेरे साथ घटीं

ग्लानि, सहानुभूति और व्यंग्य का मैं

कई बार शिकार हुआ

लेकिन सबसे बड़ी

दुर्घटना की खबर सबसे

अंत में मिली

माफ़ कर दीजिए कि

चाहकर भी मैं उस लड़के को

सम्मान न दे सका

जो अपने साथ लाया था

यह खबर

कि मेरे साथियों की घृणित

आदतों ने उसे

चोट पहुँचाई

सच मानिए वह मेरा अतीत था

भावना से भरपूर

जोश से छलकता हुआ

वह नहीं जानता था

ठंडे लोग न सिर्फ़ कुछ नहीं सुनना चाहते

वरन बोलने वाले का मुँह भी बंद कर देते हैं

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आप हमारी पूरी पीढ़ी के सामने

मिथक की तरह पेश आये

आपको कई बार मैंने

बोलते हुए सुना है

प्रभावित कभी न हो सका

लेकिन देखता जरूर रहा

आपकी दृढ़ता

बिना कुछ कहे हमारे इलाके के

सबसे टूटे हुए आदमी तक भी

पहुँच जाती थी

हमारी अपनी मिट्टी की

पैदावार थे आप

आपको राजधानी में भी देखा

क्रांति रथ पर सवार

धूर्तों के बीच

ठेठ गँवई किसान

जाने कैसे बैठा रहता था

किस्से सुने हैं कि

आप अपनी जाति से निकाल

दिए गए थे

कि थाने और सामंतों के

सबसे घृणित अत्याचारों

के शिकार रहे थे आप

कि पलटकर आपकी ताकत ने

उनके अत्याचारों का सबसे

कठिन जवाब दिया था

कि सभ्य लोग

अपने लड़कों को

आपके पास जाने से रोकते थे

उस पीढ़ी को

नजदीक से देखा है मैंने

जो जवान हुई थी

आपके साथ

निर्भय सच कहने का उतना

साहस नहीं देखा कहीं और

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याद है मुझे कामरेड !

आपने मुझे बमबाज़ी सिखानेवाला

कहा था

मेरे एक साथी को

चमार भी कहा था आपने

बोगना भी गया हूँ मैं

जहाँ कोआपरेटिव बनाने का

आपका सपना महज़ कुछ नए

धन्नासेठ पैदा करने में

बिखर गया है

जानता हूँ

जिन्होंने आपको बिरादरी

से निकाला था

उनके घरों से चावल के बोरे

आपके पार्टी आफ़िस में

पहुँचाए जाते हैं

यह भी जानता हूँ कि

मेरी गिरफ़्तारी से आप

खुश हुए थे

लेकिन खुश नहीं हुआ मैं

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आपके जीते जी हमने चाहा

आप मरें तो हम आपकी जगह लें

हम जो समझते थे कि

वह शहर जहाँ की हर बात

हमें उत्तेजित करती थी

बहसें करते थे हम और सक्रिय हो जाते थे

वह शहर सचमुच इतना

आंदोलित होगा कि

हमें अपने बारे में सोचने की

फ़ुर्सत ही नहीं मिलेगी

कि हम होंगे और घटनाएँ होंगी

लेकिन यह बहुत मुर्दा शहर है

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आपकी मृत्यु की खबर

यहाँ सुनकर

बहुत दुखी हूँ मैं

नहीं चाहता कि जिन भी

लोगों को जिंदा रहते

पूजने लायक समझा गया

वे मरते जायें और

उनकी खाली जगह में

ईश्वर समाता जाए

कामरेड ! अभी तो आपको

हमारी भी चिंता करनी थी

हमारी ज़मीन और हमारे

सपनों में दरार आ गई है

और हम असहाय हवा में

झूल रहे हैं

अभी तो हमें

आपकी जरूरत थी

प्रेमचंद के स्त्री पात्र (जनसत्ता 17 जुलाई 2011 में प्रकाशित 'महज देह नहीं' का मूल पाठ)


विवादों के कारण ही सही प्रेमचंद का साहित्य फिर से ज़ेरे बहस है । दलित साहित्य के लेखकों ने उनके साहित्य को सहानुभूति का साहित्य कहा है । लेकिन स्त्री लेखन की ओर से अभी कोई गंभीर सवाल नहीं उठाया गया है । पहले एक आरोप जरूर प्रेमचंद के स्त्री चित्रण लगाया गया था कि इसमें मनोवैज्ञानिक गहराई नहीं है । हाल में एकाध लेख ऐसे देखने में आए जिनमें कहा गया था कि कुल के बावजूद प्रेमचंद स्त्री चित्रण में सामंती नैतिकता के घेरे को तोड़ नहीं पाते हैं । उचित होगा कि हम प्रेमचंद के स्त्री चित्रण के सही परिप्रेक्ष्य और उद्देश्य को समझें ।

प्रेमचंद को किसानों का चितेरा बहुतेरा कहा गया है । लेकिन उनके उपन्यासों के स्त्री पात्र भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं । उनके ये सभी पात्र बेहद जीवंत और सकर्मक हैं । इन पात्रों के जरिए प्रेमचंद स्त्री की सामाजिक भूमिका को रेखांकित करते हैं । उनके स्त्री पात्रों की मुखरता और निर्णय लेने की क्षमता प्रत्यक्ष है । आखिर प्रेमचंद को ऐसी स्त्रियों के सृजन की प्रेरणा कहाँ से मिल रही थी ? जब प्रेमचंद अपने उपन्यास लिख रहे थे तो 1857 को साठ सत्तर बरस ही बीते थे । 1857 के बारे में चाहे इतिहास के दस्तावेजों के जरिए देखें या जनश्रुतियों के आधार पर बात करें, स्त्रियों की भूमिका बहुत ही निर्णायक और नेतृत्वकारी दिखाई पड़ती है । झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई अथवा लखनऊ की बेगम हजरत महल महज प्रतीक हैं उन हजारों बहादुर स्त्रियों की जिनकी जिंदगी घर की चारदीवारी के भीतर ही कैद नहीं थी । यह परिघटना हमें इस आम विश्वास पर पुनर्विचार के लिए बाध्य करती है कि अंग्रेजों के आने से पहले भारत में स्त्रियाँ सामाजिक जीवन में मौजूद ही नहीं थीं । असल में 1857 की पराजय के बाद जब अंग्रेजों का शासन अच्छी तरह स्थापित हो गया तभी विक्टोरियाई नैतिकता के दबाव में स्त्री की घरेलू छवि को सजाया सँवारा गया । लेकिन घरों में कैद होने के बावजूद हिंदी क्षेत्र की स्त्रियों के दिमाग से अपने इन लड़ाकू पूर्वजों की याद गायब नहीं हुई थी । घर के भीतर की कैद और बाहरी दुनिया में अपनी भूमिका निभाने की चाहत के बीच द्विखंडित ये पढ़ाकू स्त्रियाँ ही प्रेमचंद के उपन्यासों की पाठक थीं ।

आयन वाट ने उपन्यास के बारे में कहा है कि इस विधा को उसके पाठकों की रुचि और चाहत ने बेहद प्रभावित किया । प्रेमचंद के इन पाठकों ने उनसे ऐसे स्त्री पात्रों का सृजन कराया जो महानायक तो नहीं थीं लेकिन सामान्य सामाजिक जीवन में भी स्वतंत्र भूमिका निभाती दिखाई पड़ती हैं । अंग्रेजों पर चाकू चलाने वाली कर्मभूमि की बलात्कार पीड़िता से लेकर मालती जैसी स्वतंत्रचेता स्त्री तक प्रेमचंद के स्त्री पात्रों की विद्रोही चेतना किसी भी लेखक के लिए ईर्ष्याजनक है । सही बात है कि प्रेमचंद पर भी विक्टोरियाई नैतिकता का असर दिखाई पड़ता है और यह उनके युग का अंतर्विरोध है । फिर भी वे अपने समय के लिहाज से काफी आगे बढ़े हुए हैं । इस मामले में कुछ आधुनिक नारीवादी धारणाओं की चर्चा करना उचित होगा ।

नारीवादी चिंतक जर्मेन ग्रीयर ने पुरुष और स्त्री देह की तुलना करते हुए साबित किया है कि दोनों के शरीर में बहुत अंतर नहीं है । स्त्री के स्तन उभरे होने और पुरुष के दबे होने के बावजूद दोनों में उत्तेजना और संवेदनशीलता समान ही होती है । यही बात लिंग के बारे में भी सही है । स्त्री का जननांग भीतर की ओर तथा पुरुष का बाहर की ओर होता है । इन्हें छोड़कर पुरुष और स्त्री में कोई बुनियादी भेद नहीं है । प्रेमचंद ने नारीवादी साहित्य पढ़ा हो या नहीं अपने सहज बोध और स्वतंत्रता संग्राम में स्त्रियों की भागीदारी के आधार पर कम से कम अपने उपन्यासों में उन्होंने ऐसी स्त्रियों का सृजन किया जो निर्णायक भूमिका में खड़ी हैं ।

वैसे तो उनके सभी उपन्यासों में स्त्रियों के चित्र बहुत भास्वर हैं लेकिन तीन उपन्यास 'सेवासदन' , 'निर्मला' और 'गबन' तो पूरी तरह स्त्री समस्या पर ही केंद्रित हैं । सेवासदन उपन्यास को अगर ध्यान से पढ़ें तो शुरुआती सौ डेढ़ सौ पृष्ठ पूरी तरह से परिवार की धारणा पर एक तरह का कथात्मक विमर्श हैं । सुमन एक घरेलू स्त्री और उसके सामने रहनेवाली वेश्या भोली । परिवार में सुमन को निरंतर घुटन का अहसास होता रहता है और इस संस्था की सीमाएँ उसके सामने भोली की स्वच्छंदता के साथ जिरह के जरिए खुलती जाती हैं । तालस्ताय की तरह ही परिवार प्रेमचंद के चिंतन का बड़ा हिस्सा घेरता है । निर्मला में भी यह संकट ही उपन्यास के तीव्र घटनाक्रम को बाँधे रखता है । अंतत: गोदान में आकर वे इसका एक उत्तर सहजीवन की धारणा में खोज पाते हैं । उल्लेखनीय है कि परिवार की सुरक्षा स्त्री मुक्ति की राह में एक बड़ी बाधा है ।

प्रेमचंद के लिए वेश्यावृत्ति स्त्री का नैतिक पतन नहीं बल्कि एक सामाजिक संस्था है । इसे गबन की पात्र जोहरा के प्रसंग से भी समझा जा सकता है । यह बात ही बताती है कि प्रेमचंद सामंती नैतिकता की सीमाओं का अतिक्रमण कर सकते थे ।

गबन में उनकी मुख्य चिंता जालपा को उस अंतर्बाधा से मुक्त करने की है जो उसे 'बधिया स्त्री' बनाए रखती है । पति के पलायन के साथ उसे इसकी व्यर्थता का अहसास होता है और एक झटके में वह इस अंतर्बाधा से आजाद हो जाती है । यह आजादी उसे उसकी सामाजिक सार्थकता की ओर ले जाती है । यहीं प्रेमचंद अपने समय की सीमाओं को भी तोड़ देते हैं । अकारण नहीं कि सुमन और जालपा जैसी तर्कप्रवण स्त्रियों के तीखे सवालों के सामने तत्कालीन सामाजिक सुधार आंदोलन के नेता वकील साहबान निरुत्तर हो जाते हैं । उनके ये सभी साहसी पात्र अपने पाठकों के मन में दबी आकांक्षाओं को जैसे मूर्तिमान कर देते हैं । वे क्या किसी को अपने साहित्य के जरिए सामाजिक भूमिका में उतार सके ? यह प्रश्न साहित्य से थोड़ा अधिक की माँग है । साहित्य का कर्तव्य अपने समय के अंतर्विरोधों को वाणी देना है । उनका समाधान साहित्येतर प्रक्रम है ।

गौरतलब है कि अगर प्रेमचंद स्त्री मनोविज्ञान की गहराई में उतरते या उसकी देह तक ही महदूद रहते तो शायद वह भी नहीं कर पाते जो उन्होंने किया । आखिर आज का स्त्री लेखन अपनी कुल साहसिकता के बावजूद एक भी जीवंत और याद रह जाने लायक पात्र का सृजन नहीं कर पा रहा है तो उसे आत्मावलोकन करना चाहिए और इस पुरोधा से टकराते हुए प्रेरणा लेनी चाहिए ।

Tuesday, July 5, 2011

बेतरतीब बातें


सोना लादन पिउ गए सूना करि गये देस
सोना मिला न पिउ मिले रूपा ह्वै गे केस
रूपा ह्वै गे केस रोय रंग रूप गँवावा
सेजन को बिसराम पिया बिन कबहुँ न पावा
कह गिरिधर कविराय लोन बिन सबै अलोना
बहुरि पिया घर आउ कहा करिहौं कै सोना
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(चंद्रशेखर के लिए)
अंबेडकर, गांधी, लोहिया, जयप्रकाश की कौन बात करे विवेकानंद भी वहीं खड़े थे जहाँ वह हत्या हुई । स्वतंत्रता आंदोलन के शरीर तो शरीर आत्मा तक के ध्वंस पर वह हत्या हो रही थी । उसके बाद से अपना प्रेम और अपनी नफ़रत बहुत कीमती हो गये हैं । सही सही पहचान हो कि किसको देखकर बोला भी न जाय तो किसी को देखकर हृदय के उमड़ आने की क्षमता पैदा हो जाती है ।
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मौत हमारे जीवन में कई तरह से प्रवेश करती है । लंबी बीमारी के बाद बूढ़ों के क्रमशः ठंडे होते हाथ पाँव के जरिए । और कभी एक बच्चा है, उसकी गेंद कोलतार की सड़क के बीचोबीच पहुँच गयी । एकदम तने हुए धनुष के तीर की तरह वह छूटा । तभी बिजली की तेजी से आती हुई मारुती कार से टकराकर गुड्डे की तरह उछला और बस । मुँह से गाढ़े लाल रंग के पेंट की एक लकीर रिसने लगती है । कोई और हरकत नहीं । ऐसे भी । पता नहीं क्या होता है ठीक मौत के पहले- शायद एक अकल्पनीय बेचैनी और फिर एक अनंत काली चादर सी विश्रांति- पता नहीं । लेकिन मृत्यु एकदम अप्रत्याशित ढंग से आ जाय तो? पता नहीं । चिता पर लाश को डाल दीजिये । कपड़े भभक उठते हैं । रोहन डिसूजा का कुर्ता कि पिता की शर्ट? सब पहचान खत्म । कपड़ा खत्म । एक झोंका आग का और बाल चिरचिराकर स्वाहा । रोज कंघी से सँवारो । मारकंडेय सिंह के सुरक्षा कर्मियों ने इसी को पकड़कर हिलाया था तो तकिये पर गुच्छे की तरह गिरते थे । और झड़ने से बचाने के लिए दवा खरीदी । समाप्त । धीरे धीरे शरीर तथ्य हो जाता है । भावनायें अलग । फिर चिता से बाहर लटकता पाँव चट से टूटकर गिरनेवाला हो तो बाँस से उसे उल्टा तोड़कर फिर से चिता में फेंक दो । सूँ सूँ, सर टूटा- भड़ाक । लंबा इंतजार । धीरे धीरे एक आदमी भस्म हो जाता है ।
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यह भारतीय राष्ट्र की एकता थी जो स्टेनगन और सेल्फ़ लोडिंग राइफ़ल से पहचानी जाती थी । गोली चली सीवान में और आवाज दिल्ली में सुनाई पड़ी । ये अचानक बदन पर इतने धक्के क्यों लग रहे है? और हाथ स्वतः किसी सहारे के लिए उठ जाते हैं लेकिन चेतना लुप्त होती जा रही है । ये हो क्या रहा है? पता नहीं ।
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एक तथ्य के अतिरिक्त यह हत्या जनतंत्र की विफलता थी । किसी ने कहा है कि सबकी स्वतंत्रता की हद दूसरे की नाक है । इस जमाने में नाकें इतनी लंबी हो गई थीं कि जगह जगह बेवजह टकराने लगीं । बीच की जगह एकदम सिकुड़ गई और धार की तरह खून गिरने लगा, भेजा बिखरने लगा । यह खून जगह जगह कतरा कतरा गिरा था, तब भी बहुत बच गया था । धारा की तरह यहीं गिरा और जम गया । शायद यह मजनू का कटोरा था । इधर उधर किसी ने उसे गले लगाने की हिम्मत ही नहीं की । कल्पना ने अंततः हिम्मत की लेकिन जैसे हाथ काँप गया हो और सब कुछ खत्म । लेकिन खत्म कैसे? जिस देश में सभी अंतर्विरोध हत्या से ही हल हो रहे हों वहाँ अस्सी करोड़ रहते हैं लोग; और अभी तो आने वाले बच्चे भी हैं । उनकी फ़िक्र भी तो है ।
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(अनिल कुमार बरुआ के लिए)
आप मेरी आत्मा में बदल गये हैं और एकदम अकेले में ही आपसे बातचीत करने में सक्षम हूँ । आप अपने होने से एक संतोष थे और न होने से अजीब किस्म की बेचैनी बन गए हैं । आपके नाम और हमारी पार्टी के बीच एकदम तदाकारता थी ।
मेरी छवि में आप एक खूबसूरत फ़ोटोग्राफ़ रहे, फिर मुझे लगता है कि मैंने दिल्ली में आपको देखा था । लंबे, मोटे, गोरे, मोटे शीशे का चश्मा पहने- मत कहिए कि आप ऐसे नहीं थे । अपने इस विश्वास को मैं खंडित नहीं होने देना चाहता कि मैं आपसे मिला हूँ ।
गोलियाँ, सिर्फ़ गोलियाँ । मुझे नहीं लगता कि भारतीय इतिहास के किसी मोड़ पर गोलियों ने इतना अधिक खून पिया होगा । लोग कहेंगे कि यही इतिहास की प्रसव वेदना है लेकिन यह शब्द इस घड़ी के लिए कितना छोटा है । टुकड़े टुकड़े हिंदुस्तान बंजर हो रहा है । छत्तीसगढ़, बंबई, सीवान, रोहतास, डिब्रूगढ़- लोग कहेंगे ये जिले हैं लेकिन आस्था के आधारों का टूटना बहुत बड़ी क्षति है ।
आपका प्रांत बहुत खूबसूरत था न? था- अजीब है । एक आदमी जिस धरती पर पैदा होता है, बड़ा होता है वह उसके लिए साँस की तरह होती है । मेरे लिए तो आप ही असम थे । मैं भारतीय हूँ लेकिन कितना दुर्भाग्यशाली कि इसके बीसियों प्रांतों में से कुल चार पाँच ही देख पाया हूँ । देखना भी क्या देखना । लेकिन केवल देखने से भी देशवासी होने की तमीज पैदा होती है । तो कलकत्ता तक गया । आपके यहाँ न जा सका ।
लोग लोग लोग असंख्य लोग । जीने के लिए लड़ते हुए । फिर उनका एक छोटा सा हिस्सा थोड़ा बाहर निकला तो हर जगह अपरिचय अपमान । ऐसे ही लोगों के भीतर से उनका नेतृत्व निकलता है । फूल की खुशबू की तरह । कैसे कहूँ- यह उनके बीच भी होना है और उनके आगे होना भी ।
देश के एक सीमाप्रांत में एक ऐसे राज्य में जो अधिकांश लोगों के लिए संस्कृति मात्र है बड़ा खतरनाक है यह शब्द ठीक लज्जा की तरह अत्यधिक रोमांटिकता सिर्फ़ इसलिए भरता है ताकि मनुष्य को गायब कर दे तो ऐसी जगह आदमी की क्रोध की भाषा को विकसित करने के संघर्ष के आप नामराशि थे । इतने दिनों से आपका नाम सुनता आ रहा था कि याद भी नहीं आ रहा कि कब पहली बार सुना ।
मैं आपसे पहली बार बात नहीं कर रहा हूँ अंतिम बार भी नहीं कर रहा हूँ । अभी बहरहाल सैकड़ों ऐसे लोग हैं और कहूँ तो रोज पैदा भी हो रहे हैं- कालोह्यं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी लेकिन अब तार जब एक बार टूट जाता है तो फिर जोड़ने में----बहुत मुश्किल है । एकदम नहीं कोई भी एक आदमी दूसरे में नहीं बदल सकता । मनुष्य इररिप्लेसेबल है । अगर हालात यही रहे कामरेड तो हो सकता है कुछ दिनों में अधिकतर लोग जीवित लोगों से बात ही न कर पायें केवल मृतात्माओं से ही उनका संवाद संभव रह जाय ।
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(किसलय के लिए)
इस पृथ्वी पर घटनेवाली सबसे हैरतअंगेज घटना घट चुकी थी । सभी पिरामिडों, भवनों, सभी मूर्तियों, सभी चित्रों, सभी रचनाओं से अधिक महान और आश्चर्यजनक घटना कि एक जीवित मनुष्य इस दुनिया में पधार चुका था ।
उसका लड़की होना मुझे ज्यादा स्वाभाविक लगा था क्योंकि उसकी माता स्त्री थी । मैंने सोचा माता के भीतर वह धीरे धीरे आकार ले रही होगी । हाथों के भीतर हाथ, पाँवों के भीतर पाँव और इस तरह पचीस वर्ष बाद मेरी पत्नी पुनः पचीस वर्ष पीछे आ जाएगी । लेकिन ऐसा नहीं हुआ और एक स्त्री ने एक पुरुष को जन्म दिया । अनेक लोग कहते हैं कि पुरुष और स्त्री की दुनियाएँ बुनियादी रूप से भिन्न हैं । इस घटना के मद्दे नजर इस पर यकीन करना मुश्किल है ।
उसका जन्म ऐसे समय हुआ जब झूठ, फ़रेब, मक्कारी और क्रूरता को मरकजी रुतबा हासिल था । शायद वह लड़की होता तो मैं सोचता कि बाहर की दुनिया से उसे बचा ले जाऊँगा लेकिन लड़का तो जूझेगा, लड़ेगा, मरेगा । इतनी चिंता को वह अनजाने चुरा लेता है । आप देखते हैं कि उसकी साँस तेज तेज चल रही है और सारा ध्यान फिर उसकी साँस पर । दस सेकंड के अंदर वह सोए में मुस्करा देता है और आप खुश ।
उसने तो होश भी नहीं सँभाला और अभी से राहत की वजह बन गया । इसे व्यक्तिगत संपत्ति के प्रति मेरी पक्षधरता न माना जाय तो कहूँगा कि अबसे पहले किसलय अर्चना के भीतर धड़क रहा था अब मेरे भीतर धड़कता है । उसके बंद हाथों में जीवन की बागडोर है तो खुले हाथों में जमाने भर का इंद्रजाल । त्वचा की एक एक पोर से वह है और बस ।
स्वप्न और जागरण, नींद और होश, सोचना और बोलना- ये अलग अलग विभाग हैं । इनमें कोई भी घालमेल खतरनाक है । ये सब अपनी जगह पर सही तरीके से काम करते रहें इसकी तो वह गारंटी लेकर पैदा हुआ है । आसमान को वह दोनों हाथों से थामे हुए है और दोनों पाँवों से धरती को ठेल रहा है । है कोई इसके मुकाबले ?
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(दलित नेता के लिए)
एक आदमी अछूत पैदा हुआ । गाँव के एक तरफ़ की बस्ती के एक घर में उसकी आँखें खुलीं । उसे बताया गया कि इस बस्ती के तो सारे लोगों के साथ उसका अपनापा है । दरअसल बताया भी नहीं गया उसने सहज बोध से जान लिया । और उसी गाँव की बाकी बस्तियों के लिए वह अछूत है । हालाँकि उस बस्ती में कोई दुकान नहीं थी और न ही खाने कमाने का कोई जरिया वहाँ से खुलता था । इसलिए दूसरी बस्तियों के साथ संबंध तो उसका रहेगा रोज रोज का लेकिन एक अजीब किस्म का । जाकर काम करने का, बेगार खटने का, हाथ पर ऊपर से टपका दी गई रोटी और नमक को कुत्ते की तरह खाने का, शाम को कुछ अनाज देकर एक शीशी तेल पुड़िया भर मसाला और नमक खरीदने का, पर वहाँ रोज रोज जाने के बावजूद वह बाहरी ही रहेगा । इस संबंध को समाजशास्त्रियों ने अनेक तुलनाओं के जरिए समझने की कोशिश की लेकिन इससे इसकी जटिलता और विचित्रता कम नहीं हुई ।
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सदियों से एक ही कहानी चलती आ रही है । शायद बहुत दिनों तक वह और भी दोहराई जायेगी । कुछ ने इसे सिर झुकाकर मान लिया कुछ ने कहा नहीं । कभी यह आवाज जिबह किए जाते हुए बकरे की तरह फूटी कभी चीख की तरह कभी एक खामोश ऐंठन सीने और पेट को जलाती रही कभी सारी बस्ती में एक चूल्हा नहीं जला कभी चोरी कभी डाका कभी षड़यंत्र कभी खून कभी हत्या- सबमें वही एक नहीं गूँजता रहा । नौजवानों के बदन बार बार धान की बालियों की तरह फूट फूट बाहर आते रहे । तेल चुपड़े हुए लंबे बाल, छींटदार लुंगी, हाथ में रेडियो पकड़कर एक क्षण को उन्हें लगता बाकी सारे नौजवानों की तरह उन पर भी जवानी आई है । लेकिन यह अहसास तभी तक रह सकता था जब तक कोई बाबू किनारीदार धोती पहने, जनेऊ डाले दिखे नहीं । उनके दर्शन हुए नहीं कि आत्मा तक सकुच जाती । क्या क्या नहीं किया उन्होंने इस संकोच से जी छुड़ाने के लिए ।
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उनके सभी नेता अछूत मरे । हाथ में देश का संविधान रहे या राइफ़ल की अकड़, दर्शन की ऊँचाइयाँ हों या लाखों लोगों का साथ- जीवन भर वे अछूत रहे और जब मरे तो भी अछूत । शायद वे ऐसी जलती हुई आग हैं जिनमें कोई मिलावट संभव नहीं । शायद यही उनकी सच्चाई का सबूत है । वे स्वीकार किए जाने की माँग नहीं करेंगे क्योंकि इसकी आशा ही व्यर्थ है । वे तो सब कुछ भस्म कर देंगे । एक के मरने से निश्चिंत होने की कोई जरूरत नहीं । उन्हें तो यह धरती ही पैदा करती है । वे रक्तबीज हैं ।
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आज का दिन अप्रत्याशित ढंग से भाई साहब के साथ बातचीत से शुरू हुआ । उनका एक पीरियड भी था । घर जाकर फिर से उनसे भेंट हुई । उन्होंने व्यवहार विज्ञान के बारे में कुछ बातें बताईं जिनका सार यह था कि जमाने को देखकर लोगों के बारे में कोई बात करते हुए सावधानी बरतनी चाहिए । समझ में नहीं आता बंदिशों का अंत कहाँ होता है । शाम होते होते आनंद नारायण पांडे के साथ राम विलास शर्मा के यहाँ पहुँच गया । शर्मा जी ने साम्राज्यवाद पर कुछ पुस्तिकाएँ लिखने की योजना बनाई है । उन्होंने बातचीत विश्व बैंक, तीसरी दुनिया के देशों के शोध केंद्र और संयुक्त राष्ट्र संघ के निःशस्त्रीकरण आंदोलन के दस्तावेजों के महत्व से शुरू की । फिर उन्होंने एंगेल्स के साम्राज्यवाद संबंधी चिंतन और लेनिन के साम्राज्यवाद संबंधी चिंतन की एकता की बात उठाई । फिर उन्होंने क्रांति का स्वरूप- उसका अपेक्षाकृत पिछड़े देशों में होना- पर बल दिया और कहा कि महत्वपूर्ण तकनीक नहीं मानव शक्ति है । भारत के पूँजीवाद की परनिर्भरता की उन्होंने चर्चा की और भारतीय कम्युनिस्टों की रणनीति विषयक भूलों का जिक्र किया । जनवादी क्रांति की उनकी अवधारणा में सर्वहारा का नेतृत्व नहीं शामिल है और उसे वे साम्राज्यवाद विरोधी क्रांति से जोड़कर देखते हैं । भारत के आजादी पूर्व के क्रांतिकारी आंदोलनों का कांग्रेस द्वारा इस्तेमाल और विभाजन के बाद सांप्रदायिकता का स्थायी जहर- उनके मुताबिक बाद के दिनों में भारतीय क्रांति की असफलता के ये प्रमुख कारक बन गए । बहरहाल लौटते हुए आनंद नारायण पांडे ने कुछ बातें बताईं । थीं तो वे भी व्यवहारवाद से ही संबंधित लेकिन उनमें एक खास खुलापन था । कुत्तों की भीड़ में फँसा आदमी सामने से दाँत निकाल ले और पीछे से पूँछ उगाकर हिलाए तो उसका जीवन बड़े आराम से बीत सकता है । उन्होंने कहा कि इन्हीं राम विलास जी की नौजवानी में भगत सिंह फाँसी पर झूल रहे थे, जन संग्राम की उत्ताल तरंगें उठ रही थीं । कैसे बचे रहे ये ? सचमुच सत्ता का विरोध साथ ही कुछ व्यवस्था समर्थक मूल्यों का भी विरोध है और यदि आप इसके प्रति ईमानदार हैं तो सत्ता नहीं तो व्यवस्था तो आपको मिटा डालने के अंतिम प्रयास अपने हाथों करेगी ही ।
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नामवर सिंह ने साक्षात्कारों के अपने संग्रह 'कहना न होगा' में एक जगह कहा है कि सभी कलाओं की तरह कविता का भी अंतिम उद्देश्य है संगीत हो जाना । कविता के साथ यह खासी झंझट है । उसका विधान इतने तत्वों से रचा हुआ है कि उसके बारे में कोई इकहरी बात कहना खतरनाक है । लेकिन एक बात तय है कि कविता भाषा में की जाती है और भाषा की सभी अर्थ संभावनायें इसमें भरी होती हैं । उसका एक छोर दर्शन को छूता है तो दूसरा संगीत को । इस द्वंद्व को सबसे पहले सुकरात ने उठाया था अपने अंतिम संवाद में, हालाँकि अर्थ की विविधताओं के दृष्टिकोण से नहीं बल्कि इस अर्थ में कि काव्य दर्शन से अलग है और संगीत की ओर बढ़ने में यह अलगाव निहित है । यह द्वंद्व आज तक हल नहीं हो पाया है कि कविता में अर्थ कहाँ निहित है उसके दर्शन में या उसके संगीत में । इसी को आम तौर पर लोग अंतर्वस्तु और रूप का अंतर कहते हैं । इस द्वंद्व को हल करने के लिए कुछ कलावादियों ने कहा कि अंतर्वस्तु जिस रूप में प्रकट हुई है वही अंतर्वस्तु है । लेकिन यह द्वंद्व का समाहार नहीं है क्योंकि अन्य कलाओं में यह प्रकट है । उदाहरण के लिए ताजमहल का रूप वही है जो उसकी अंतर्वस्तु है । किसी पेंटिंग अथवा मूर्ति की अंतर्वस्तु वही है जो उसका रूप है । इसीलिए इन कलाओं का अनुवाद नहीं किया जा सकता, न उनकी अनुपस्थिति में उनका अर्थ समझाया जा सकता है । इस मामले में कविता का मुख्य उपकरण, भाषा, थोड़ा भिन्न है । रंग, स्वर, आकार, विभिन्न आकृतियाँ प्रकृति में पहले से ही मौजूद थे । यह अलग बात है कि इनका उपयोग मनुष्य उसी रूप में नहीं करता जिस तरह वे मौजूद हैं । फिर भी आधारभूत तत्वों की मौजूदगी पहले से रही है । लेकिन भाषा मनुष्य का अपना सामाजिक उत्पादन है । वह प्रकृति के अनुकरण नहीं बल्कि उसके साथ अंतःक्रिया का परिणाम है । निश्चित रूप से शब्दों के अर्थ, अर्थात वे वस्तुएँ जिन्हें शब्द द्योतित करते हैं, पहले से मौजूद हैं । यहाँ तक कि शब्दों के आकार और उनकी ध्वनियाँ कई बार वस्तुओं और क्रियाओं का अनुकरण करते हैं । पर भाषा इतने तक ही सीमित नहीं है । अमूर्तन से ही भाषा की अभिव्यक्ति क्षमता का विस्तार हुआ । यहाँ सवाल आता है अर्थ का । केदार नाथ सिंह ने एक कविता में लिखा है कि 'बाल छड़ीदा' की अगम अथाह निरर्थकता के सामने नतमस्तक हूँ । अगर उनका उद्देश्य यह है कि शब्दों के अर्थ उतने ही नहीं जितने शब्दकोश में लिखे हैं तब तो ठीक है । अन्यथा अगर यह निरर्थकता का स्वस्ति गायन है तो खतरनाक है । भाषा का कोई भी शब्द अथवा शब्द समूह किसी न किसी वस्तु अथवा परिघटना की व्याख्या करता है । चूँकि यह वस्तुगत जगत जिसकी वह व्याख्या करता है, इतना उलझा हुआ है, इतना विराट है, इसमें एक साथ ही संतुलन भी है और बिखराव भी, कि भाषा का उलझ जाना स्वाभविक है । लेकिन चूँकि वह वस्तुगत जगत में गहरे धँसी हुई है इसीलिए उसे समझे जाने की योग्यता प्राप्त हो जाती है । यहीं एक गुत्थी सुलझती है । हालाँकि भिन्न भिन्न भाषाएँ एक दूसरे के बोलनेवाले की समझ में नहीं आ सकतीं फिर भी उसमें कही गई बात का दूसरी भाषा में अनुवाद संभव है । इस पर कोई कोई कहते हैं कि अनुवाद में कविता मर जाती है । इस अर्थ में कोई भी वस्तु अथवा विचार इसीलिए विशिष्ट होता है कि उसका कोई विकल्प नहीं होता । तभी सामान्यता और प्रतिनिधित्व अपना कार्य शुरू करते हैं । भाषा स्वयं एक प्रतिनिधित्व है । अन्यथा एक पत्थर, आँसू की एक बूँद, एक फूल और एक औरत को एक लाइन में खड़ा कर देने से जो अर्थ पैदा होगा उसका भी विकल्प कोई कविता नहीं हो सकती । भाषा प्रकृति और मानव समाज को मनुष्य की ओर से समझने के प्रयास का परिणाम है । अब सवाल है कि मनुष्य प्रकृति का अंग है कि नहीं । अत्यंत स्पष्ट है कि तमाम कोशिशों के बावजूद यदि उसे प्रकृति की गोद में वापस नहीं ले जाया जा सका तो अवश्य मनुष्य अपनी किसी अंतर्निहित विशिष्टता के कारण प्रकृति के अन्य तत्वों से अलग हुआ । भाषा प्रकृति से उसकी स्वाधीनता का लक्षण है । प्रकृति और मानव समाज को समझने के लिए उसने भाषा में अर्थ की अनेक ध्वनियाँ पैदा कीं । कविता के अर्थ की सभी ध्वनियों, जिसमें उसके रूप के जरिए भी पैदा होने वाली सभी संभवतम ध्वनियाँ भी शामिल हैं, के स्रोत इस व्यापक सामाजिक व्यवहार में ही खोजे जा सकते हैं । इस सामाजिक व्यवहार में भावावेग भी शामिल हैं और बुद्धिग्राह्य तर्क भी । इसीलिए कविता की छायाएँ मात्र भावावेग को छूकर उड़ती नहीं फिरतीं बल्कि वह बुद्धि द्वारा समझी भी जाती है । लेकिन यदि कविता अथवा साहित्य मात्र इतने ही होते तो लोकगीतों और लोगों की आपसी बातचीत से भी काम चल जाता । हालाँकि अर्थ के संप्रेषण के सबसे अधिक साधन इसी खजाने में से प्राप्त किए जा सकते हैं । लेकिन आधुनिक या छपा हुआ साहित्य भाषा के सामाजिक पुनरुत्पादन के सबसे जटिल और उत्तम प्रयास हैं । यथार्थ की जटिलता को समझने और उसे अभिव्यक्त करने के ये नवीनतम प्रयास हैं । उनके सृजन और ग्रहण में वही सामाजिक प्रक्रिया मूर्तिमान होती है । इसीलिए जो साहित्य यथार्थ की सबसे सही तस्वीर पेश करता है वह मात्र समाज से भाषा लेता नहीं बल्कि समाज को नई भाषा देता भी है ।
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सरकारी कर्मचारियों पर 311 की तलवार लटकी हुई है और इसके विरोध में विभिन्न यूनियनों ने कार्यवाही शुरू कर दी है । इन्हीं यूनियनों में एक है बी एम एस । इनकी भी एक जगह सभा चल रही थी और कोई सज्जन मजदूरों की समस्याओं और यूनियन द्वारा उन पर ली गई पहलकदमी का ब्यौरा पेश कर रहे थे । सभा खत्म होते वक्त अंत में यूनियन के प्रमुख नारे लगना शुरू हुए । इन्हीं में एक नारा था- देशभक्त मजदूरों एक हो । मैं चकित । अब तक तो मजदूर एकता जिंदाबाद के नारे सुनता आ रहा था । ये देशभक्त मजदूर कौन होते हैं? और क्या उत्पादन में लगा हुआ मजदूर भी देशद्रोही होता है?
परेशान हो गया इन्हीं सवालों पर सोचते सोचते । एक परिचित मिल गये । मजदूर ही थे नेता नहीं । पटती थी सो उन्हें अपना यह अनुभव सुनाया और अपनी चिंता उनके सामने रख दी । उन्होंने कहा- आप नहीं समझे इसका अर्थ? अरे महाराज उत्पादन के बाद जो मजदूर मेहनत का मेहनताना माँगे वह देशद्रोही ही तो है । कहकर वे बड़ी तेजी से हँसने लगे । मैं चुप । सच ही तो है । मजदूर भी दो तरह के होते हैं । एक हक़ माँगते हैं मजबूती से दूसरे गिड़गिड़ाकर । पर यह तो मजदूर यूनियन थी । तो क्या बी एम एस ऐसे ही देशभक्त मजदूरों की यूनियन है ?
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मुख्यमंत्री की घोषणा के मुताबिक सूती मिल मजदूरों की तनख्वाह में 60 रुपये की बढ़ोत्तरी हो गई थी । पर मिल मालिक और एन टी सी उसका भुगतान नहीं कर रहे थे । खुदा जाने मजदूरों के तेवर जुझारू न होने से या सरकारी काम की सुस्त रफ़्तारी से । बहरहाल सभी यूनियनें तुली हुई थीं कि 60 रुपये दिलवा ही देने हैं । इसी सिलसिले में एक सभा चल रही थी लाल झंडा यूनियन के नाम से मशहूर सीटू की । भाषण चल रहा था कानपुर की नेत्री सुभासिनी अली का ।
'तो भाई अर्जुन को जैसे मछली की आँख की पुतली पर निशाना लगाना था तो कहा गया कि पानी देखो देखकर अनदेखा कर दो । पानी में मछली देखो देखकर अनदेखा कर दो । मचाली की आँख देखो देखकर अनदेखा कर दो । आँख में पुतली देखो और बस पुतली ही पुतली देखते जाओ । जैसे ही पुतली आए निशाना छोड़ दो । वैसे ही मंत्रियों के झगड़े देखो देखकर अनदेखा कर दो । फ़ाइलों का आना जाना देखो देखकर अनदेखा कर दो । मैनेजमेंट के लटके झटके देखो देखकर अनदेखा कर दो । नजर गड़ाए रहो 60 रुपयों पर । खुदा खुदा !
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जो कुछ हम कर रहे हैं अगर उसके लिए हमारे पास तर्क नहीं है तो जिंदगी की सबसे खतरनाक घटनाएँ घटने लगती हैं और ऐसे में आप जरूरी नहीं कि किसी समझदार आदमी के सामने किसी साधारण आदमी के सामने भी नंगे हो जा सकते हैं । ऐसे में ही आदमी या तो बहुत ज्यादा सोचने लगता है या फिर सोचना बंद कर देता है ।
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एक पौधा जब एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह ले जाया जाता है तो उसके साथ थोड़ी सी मिट्टी भी ले ली जाती है । अगर मिट्टी न रहे तो पौधे के सूख जाने की संभावना ज्यादा रहती है । आम तौर पर ऐसा होता है लेकिन विशेष रूप से असफलता हाथ लगने पर व्यक्तित्व निर्माण संबंधी प्रश्न सबसे तीखे ढंग से सामने आने लगते हैं ।
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शहर में आकर गाँव के बारे में कविता लिखना सबसे आसान काम है । सचमुच लोग गाँव जानते ही नहीं और फ़ैशन की तरह उससे प्यार करना चाहते हैं । दूसरे नंबर का आसान लेकिन थोड़ा मुश्किल काम है जनता के लिए लिखना । आपके साथ कोई समस्या नहीं अब जनता की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करना है । तीसरे नंबर का आसान लेकिन थोड़ा और मुश्किल काम है ऐसी कविताएँ लिखना जिनका कोई अर्थ ही न हो । आप अगर इन सबसे बचना चाहते हैं तो आपके साथ दिक्कतें ज्यादा होती जाती हैं और आसानियाँ कम ।
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पहले जैसे रस, छंद, अलंकार पर ढेर सारी पुस्तकें लिखी और छपाई जाती थीं जो आलोचना के मुख्य अंग का निर्माण करती थीं और परीक्षा के लिए उपयोगी होने के कारण बिकती भी थीं ठीक उसी तरह आजकल जहाँ भी जाइए 'यथार्थवाद' 'समाजवादी यथार्थवाद' 'मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र' पर खँचियन किताबें मिल जाएँगी । एक नये तरह का यह रीतिवाद भी परीक्षा के इर्द गिर्द ही विकसित हो रहा है । दरअसल साहित्य या आलोचना में कोई नमूना बनाकर पिष्टपेषण ज्ञान को नहीं ज्ञानहीनता को ही जन्म देता है । रोमांटिक आलोचना की आज फिर से जरूरत है ।
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पहले थोड़ा भरे पूरे बदन वाली नायिकाएँ लोगों को पसंद आया करती थीं । आजकल सूखी हुई, नुकीली और छरहरी नायिकाओं का जमाना है । उसी तरह कविता में शेर की तरह दो या तीन पंक्तियाँ, जो अपनी अभिव्यक्ति की अदा के लिए अच्छी होती हैं, डालकर ही पूरी कविता को नुकीला और कमनीय बनाया जाता है । सिर्फ़ एक वाक्य और कभी कभी गजल की तरह दाद देने को जी करने लगता है । अर्थ पूरी कविता में से नहीं उस एक वाक्य के चमत्कार के सौंदर्य में से प्रकट होता दीखता है ।
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जीवन में कुछ ऐसे क्षण होते हैं जब भावना के सामने मनुष्य अपना स्वतंत्र अस्तित्व तक भूल जाता है । कथा साहित्य में मुख्यतः लेखक की परख ठीक ऐसे क्षणों के वर्णन में होती है । वह स्वाभाविकता के कितना निकट है और कि कितनी दूर तक भाषा ऐसे वर्णन में समर्थ सिद्ध हुई है । तनाव को देर तक सँभाले रखना हर लेखक के वश की बात नहीं । अक्सर लोग ऐसे वर्णनों से या तो बच निकलते हैं या फिर बिंबों, रूपकों और प्रतीकों की दुनिया में चले जाते हैं या बिखर जाते हैं ।
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दिल्ली फिर से मेरे एक साथी को खा रही है । जीवन में सब कुछ देख लेने के उत्साह के सामने जीवन की सबसे कोमल चीजों की बलि देने वाला फक्कड़ साहसी नौजवान अंदर से धीरे धीरे खोखला होता जा रहा है । अब वह अपने और दोस्तों के सवालों से बचने के लिए या तो काम में डूबा रहता है या फिर सोता रहता है ।
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लिखने से यश मिलता है, डिग्री मिलती है, धन मिलता है । लिखने से संतोष भी मिलता है या नहीं यह प्रश्न अनुत्तरित है । इसका उत्तर तो वे ही दे सकते हैं जिनका संतोष यश, डिग्री और धन से बड़ा हो ।
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एक बार फिर रामकथा
'हरि अनंत हरि कथा अनंता' जब तुलसीदास ने लिखा था तो उनके सामने रामकथा के ही अनंत संस्करण और रूप रहे होंगे । रामकथा के रूप केवल लिखित परंपरा में ही भिन्न भिन्न नहीं हैं मौखिक परंपरा में भी अनंत हैं । इनमें से एक तो वह प्रसिद्ध सोहर ही है जिसमें रामचंद्र जी की छठी पर होने वाले भोज के लिए मारे गए हिरन की हिरनी कौशल्या जी से हिरन की खाल भर माँगने जाती है और उसे वह भी नहीं मिलती । मारे गए हिरन की खाल से राम जी के खेलने के लिए खँजड़ी मढ़वा ली जाती है ।
जनता के अनेक प्रकार के हर्ष विषाद, सुख दुख इस कथा के भिन्न भिन्न रूपों के जरिए अभिव्यक्त हुए हैं । राम का नाम भी जनजीवन में अनेक प्रकार से प्रयोग में आता है । इन्हीं में से एक है एक कहावत जो भोजपुरी इलाकों में बोली जाती है- परलें राम कुकुर के पाले । इस कहावत का स्रोत मुझे किसी रामकथा में नहीं मिला । शायद ही किसी रामकथा में रामचंद्र जी की कुत्तों से किसी भिड़ंत का जिक्र हो । संभव है अयोध्या से निकल जाने के बाद जंगल पैड़े में ऐसी कोई घटना हुई हो लेकिन अब इस कहावत का उपयोग ऐसी परिस्थिति को बतलाने के लिए होता है जिसमें कोई सीधा आदमी किसी दुष्ट के हाथों पड़ गया हो ।
लोक चेतना से उत्पन्न दोनों उदाहरणों से स्पष्ट है कि राम नाम का मिथक जनता के क्रोध और सहानुभूति दोनों का पात्र रहा है । इस विरोध का स्रोत स्वयं वह मिथक ही है । एक तरफ़ रघुवंशी प्रतापी क्षत्रिय राजा और दूसरी तरफ़ राज्य से निकला हुआ, जंगल जंगल घूमता, पत्नी के वियोग में दुखी मनुष्य । इन दो छोरों को छूता हुआ एक ही व्यक्तित्व भाँति भाँति की कथाओं, काव्यों, कहावतों और कपोल कल्पनाओं का आलंबन बना । लेकिन दूरदर्शन पर रामानंद सागर ने जब से रामनामी दुपट्टा ओढ़कर रामायण का नया संस्करण उपस्थित किया तब से भाजपाइयों को रामलला को किसी भी अन्य रूप में देखना बरदाश्त नहीं होता । वैसे इसका एक कारण उस मध्यम वर्ग का विकास और विस्तार भी है जिसके नौजवान ही नहीं अधेड़ भी दुनिया और उसी तरह भारतीय साहित्य और संस्कृति के बारे में उतना ही जानते और समझते हैं जितना उन्होंने टी वी में देखा और सुना है । भाजपाइयों ने इसके लिए एक अजीब किस्म का तर्क ढूँढ़ निकाला है । उनका कहना है कि रामकथा का जो संस्करण वे उचित समझते हैं उसके अतिरिक्त किसी भी चीज का लेखन और प्रचार हिंदू भावनाओं को चोट पहुँचाता है । जैसे हिंदू भावनाएँ न हुईं कोई आवारा आशिक हो गया जिसे माशूका की हर उस हरकत से चोट पहुँच जाती है जो उसके मन माफ़िक न हो ।
यह सिलसिला कुछ ही दिनों से शुरू हुआ है । जब से भाजपाइयों ने राममंदिर बनाने की ठानी तब से उनके लिए यह आवश्यक हो गया कि इसके लिए जरूरी सब कुछ वे हस्तगत कर लें । उन्होंने यह जिद ठान ली कि इस प्रसंग में वे जो कुछ भी कहेंगे वही सही होगा और किसी भी विरोधी बात को झूठ और उन्माद के जरिए वे दबा देंगे । अब तक भाजपाइयों ने जिस भी विरोध को दबाया है केवल झूठ, कुतर्क और उन्माद के जरिए । सहमत के प्रसंग में भी उन्होंने ऐसा ही किया । उनका ताजा हमला हुआ है लोहिया और उनके अनुयायियों द्वारा स्थापित रामायण मेला के अवसर पर प्रकाशित जनमोर्चा के संपादक शीतला सिंह द्वारा संपादित स्मारिका तुलसी दल और उत्तर प्रदेश की सपा बसपा सरकार के एक विधायक की सीता के बारे में की गई एक टिप्पणी पर । इन वक्तव्यों और लेखों के समर्थन और बचाव में रामकथा की अनेक परंपराओं और कथाओं में से तर्क खोजे जा सकते हैं और शीतला सिंह ने तो कहा भी है कि उन्होंने वही कुछ छापा है जो कल्याण के रामांक में छपा है । लेकिन इन सबसे महत्वपूर्ण है उस उन्मादी मानसिकता से लड़ना जो अपने विरोध में कुछ भी नहीं सुनना चाहती । भाजपाइयों ने तो कहा भी है कि तुलसी दल पर उसी तरह प्रतिबंध लगा देना चाहिए जिस तरह सलमान रश्दी की शैतानी आयतों पर लगा दिया गया । इस तरह हिंदुओं के अपने खोमैनी भी तैयार हो रहे हैं जो किताबों पर प्रतिबंध लगाएँगे धार्मिक भावनाओं के आधार पर और लेखकों की मौत के फ़तवे जारी करेंगे । सूरत, बंबई में जो कुछ हुआ वह तो दबी हुई हिंदू भावनाओं का विस्फोट था और सहमत तथा तुलसी दल की उपस्थिति से हिंदू भावनाओं को चोट पहुँचती है ! इसी तरह के तर्कों के जरिए फ़ासीवादी ताकतें भीड़ के किसी भी अमानवीय उन्माद को जायज़ ठहराती हैं ।
दयनीय तो है इन दानवों से लड़नेवालों का साहस । एक हैं अर्जुन सिंह । भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय के मुखिया । कांग्रेस के भीतर नरसिंह राव से होड़ करते हुए 6 दिसंबर के बाद से सांप्रदायिकता विरोधी शक्तियों का अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए लगातार इस्तेमाल करते आ रहे हैं । सहमत और शीतला सिंह जी इनको अपने अभियान का नायक बनाने की सोच भी रहे थे लेकिन अर्जुन सिंह को इनसे क्या लेना देना ! सहमत को पैसा भी दे दिया और भाजपाइयों ने जब हल्ला मचाया तो कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने बिना मामले की तहकीकात किए इसकी निंदा भर्त्सना भी कर दी । अयोध्या और फ़ैजाबाद की पुलिस ने भी सहमत और शीतला सिंह पर शांति भंग और न जाने किस किस चीज के मुकदमे दायर कर दिए । मेंड़ ने ही खेत चरना शुरू कर दिया और कुछ हैं कि देखकर भी देखना नहीं चाहते ।
दूसरे हैं परंपरागत वामपंथी पार्टियाँ । सांप्रदायिक फ़ासीवादी प्रवृत्तियों से लड़ने का जो तरीका इन्होंने ईजाद किया है वह है एक स्वर से यह अरण्यरोदन कि कम्युनिस्टों ने धर्म को समझने में अब तक भारी भूल की है । भूल सुधार के इस सुनहरे मौके के इस्तेमाल का तरीका भाकपा को अभी तक समझ में नहीं आया है लेकिन माकपा ने उदार हिंदू परंपरा के पुनर्सृजन का बीड़ा उठाकर इस काम को अंजाम दिया है । ई एम एस ने बहुत पहले केरल के लिए आदि शंकराचार्य को खोज लिया था, पश्चिम बंगाल के लिए विवेकानंद और हिंदी प्रदेश के लिए महात्मा गांधी हाल के आविष्कार हैं । इसके एक अक्षर आगे पीछे हटने बढ़ने को वे तैयार नहीं हैं । इसीलिए सहमत पैनल पर जब बजरंगियों और संघियों ने हमला बोला तो भाई लोग भी चुप्पी तो साध ही गए समय और स्थान का ध्यान रखने की दोस्ताना सलाह भी पेश कर दी !
कुत्तों का जब जिक्र चला तो याद आया । हिंदी में एक और जगह राम और कुत्ते का साथ साथ जिक्र है- कबीर कूता राम का मुतिया मेरा नाँव । इन्हीं कबीर ने कहा था कि राम को सारी दुनिया दशरथ सुत के रूप में जानती है लेकिन राम नाम का मरमु है आना । अब तक तमाम तरह के वामपंथी लोकतांत्रिक प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष लोग अधिकतम यह कहने का साहस जुटा सके हैं कि रामकथा के अनेक संस्करण हैं, उसकी अनेक परंपराएँ हैं और किसी एक ही कथा और परंपरा को अधिकृत बनाकर पेश नहीं किया जा सकता । लेकिन अब यह कहने का साहस जुटाने की जरूरत है कि भाजपाई अंधश्रद्धा, अज्ञान और कुतर्क के जरिए जिस राम को स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं राम का मर्म तो उससे एकदम भिन्न है । भाजपाइयों को छेड़िए मत, क्या जरूरत है यह सब बोलने की ये तर्क अब तक उनके ही काम आये हैं । संकट के समय तो सर्वाधिक स्पष्ट रूप से सच के पक्ष में खड़ा होना पड़ता है और जब हमारी आवाज दबाई जा रही हो तभी सबसे ऊँचा भी बोलने की जरूरत पड़ती है । लेकिन महौल तो यह है कि समय और स्थान का ध्यान रखने का ऐसा कायर तर्क दिया जा रहा है जो कुछ लोगों के मुताबिक लेखक का अपने ऊपर लागू किया गया सबसे कठिन और खतरनाक सेंसर है ।जब जैसी हवा चले उसी के मुताबिक पीठ दे देने से और कुछ भले ही हो जाय माहौल नहीं बदला जा सकता ।
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करोड़ों लोगों के जुलूस के पाँव तले धरती काँप रही है । उनके एक एक कदम पड़ते हैं और दुनिया हिल हिल जाती है । यह जुलूस यहाँ से वहाँ तक पूरी पृथ्वी को चारों तरह से लपेटे हुए है । इसमें शामिल हैं स्कर्ट और शर्ट पहने अंडे और सब्जी के पैकेट उठाए लोग, लंबे स्कर्ट पहने कंप्यूटर पर थिरकती उंगलियों का संगीत रचते लोग, सुनहरे, लाल अथवा काले; घुँघराले अथवा सीधे; चोटी किए हुए अथवा खुले, लंबे अथवा छोटे बाल लहराते हुए इस जुलूस की सादगी तो देखिए । घर, सड़क, ट्रेन, पुल हर कहीं इसका एक हिस्सा बिखरा है ।
खेतों में कछनी मारकर झुके झुके दिन भर टखनों से ऊपर पानी में धान रोपते, पीठ पर अपने बच्चे बाँधे, जरा सी उत्तेजना में भभक भभक उठते चेहरे, अनंत बिवाइयों भरे या फिर मखमली जूती में पाँव, ठीक कमर पर हाथ रखकर कोई स्त्री जब आत्मविश्वास से भरा चेहरा ऊपर उठाती है तो लगता है पूरी सृष्टि से जूझ लेने की ताकत बटोर रही हो ।
इस स्त्री की उंगलियों की छाप हर कहीं पड़ी हुई है । सभी चीजें उसकी मेहनत की गवाही देती हैं । अगरबत्ती से लेकर कपड़ों तक, फ़सलों से लेकर मकान तक सब कुछ बनाने के बाद जब वह सोती है तो कभी गौर से उसका चेहरा देखिए । मान्यताएँ, रूढ़ियाँ और मर्दानगी जब सब उसे परेशान करने के लिए चौबीसों घंटे तैयार रहते हैं तब भी निश्चिंतता का एक एक क्षण वह भरपूर जीती है । आपस में कभी उन्हें बात करते देखिए बच्चों सी उत्सुकता और नटखटपन; और उसी तरह दूसरे का दुख सुनने का अपार धीरज ।
वह एक भरपूर व्यक्तित्व है । उसे समझने के लिए हमारे उपादान क्या हैं ? उसकी जाँघें, स्तन, पीठ और आँखें हमें कितना सुख देते हैं । अगर निर्वस्त्र नहीं तो यह कि उसके वस्त्र, हाथ पाँव और चेहरे की चिकनाई हमारी आँखों को कितने सुंदर लगते हैं । लेकिन हम निजी जीवन में चाहे जितने घृणित हों सार्वजनिक जीवन में अत्यंत सभ्य होते हैं इसलिए हमने स्त्री मन को एक खास रहस्यमय चीज बना डाला है । इस मन के अनुसंधान के नाम पर उतरते जाइए गहराइयों में और उसे समूचे सामाजिक जीवन से अलग छोटी छोटी सामाजिक इकाइयों में दोयम दर्जे की भूमिका निभाने तक सीमित रखिए ।
सचमुच जिस दिन यह जुलूस शक्ल ले ले उस दिन सब कुछ बदल जाएगा । कोमलता और निर्माण की उस विराट सृष्टि की कल्पना भी अत्यंत दुष्कर है । सपनों के लिए भी मामूली संघर्ष नहीं करना पड़ता ।
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रात के बारह बजे आपके रहस्यों की दुनिया धीरे धीरे सिर उठाती है, अपना काला मुँह खोलती है और गाढ़ा अँधेरा उगलने लगती है । आप इससे बचने के लिए भागते हैं और हाँफते हुए बल्ब जला लेते हैं । लेकिन फिर जब आप नींद और जागरण की संधि रेखा पर होते हैं जैसे गोधूली हो यह दुनिया फिर बोलने लगती है । लगता है मिट्टी की कोई मोटी, मजबूत दीवार जो दिन में आपकी रक्षा करती है रात में तरह तरह के जीव जंतुओं को आश्रय दे बैठी हो । झींगुर बोलने लगते हैं, मेढक टर्राने लगते हैं, कहीं जैसे चारपाई के पाए में कोई कीड़ा चल रहा हो, कहीं कोई कपड़े पर कैंची चला रहा हो, आपकी तकिया और बिछावन भी सरसराने लगते हैं और आप नींद में जाग जाते हैं ।
धीरे धीरे वह दीवार दरकने लगती है और उसमें तरह तरह की दरारें, मोखल और छेद झाँकने लगते हैं । साँपों का एक पूरा झुंड आपकी आहट लेते हुए इन छिद्रों में से अपना सर निकालते हैं और धरन, बँड़ेर, जमीन हर कहीं रेंगने लगते हैं । युगों पुरानी वेश्याएँ लुटे चेहरे पर भद्दी हँसी लेकर हाजिर होती हैं, सफेद कफ़न में लिपटी हुई वे तमाम आत्माएँ जिन्होंने जहर खा लिया या कुएँ में कूदकर जान दे दी, बेडौल बच्चे, सर कटी हुई खून में लिथड़ी बकरियाँ दुर्गंध मवाद टट्टी आप भागने की कोशिश करते हैं लेकिन आपके पाँव उठते ही नहीं ।
इस दुनिया से मेरा क्या रिश्ता है ? क्यों ये लोग मेरे पास आए हैं ? जी हाँ यह आपकी ही दुनिया है । फ़र्क इतना ही है कि आप ज्यादा चालाक, ज्यादा कलाकार हो गये हैं ।