Saturday, September 22, 2018

मार्क्स के आखिरी दिन मार्चेलो मुस्तो

           

पूंजीवाद के जीवन में सबसे हालिया 2008 के संकट के बाद से ही कार्ल मार्क्स के बारे में बातचीत शुरू हो गई है । बर्लिन की दीवार गिरने के बाद मार्क्स की शाश्वत गुमनामी की भविष्यवाणी के विपरीत उनके विचारों का विश्लेषण, विकास और बहस मुबाहिसा फिर से चालू हुआ है । बहुत सारे लोगों ने उस चिंतक के बारे में नए सवाल पूछने शुरू किए हैं जिसे अक्सर गलत ही ‘जैसा भी समाजवाद’ के साथ जोड़ा और 1989 के बाद धीरे से परे हटा दिया ।
प्रतिष्ठित अखबारों और व्यापक रूप से पढ़ी जाने वाली पत्रिकाओं ने मार्क्स को अत्यंत प्रासंगिक और दूरदर्शी सिद्धांतकार कहा है । लगभग सर्वत्र वे विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रम और अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में मौजूद हैं । उनके लेखन का पुन:प्रकाशन या नए संस्करण किताबों की दुकानों में फिर से नजर आना शुरू हुए हैं और बीसेक साल की उपेक्षा के बाद उनके लेखन का अध्ययन धीरे धीरे गति पकड़ रहा है । कभी कभी इस अध्ययन के महत्वपूर्ण और नए परिणाम सामने आ रहे हैं । मार्क्स के समूचे लेखन के पुनर्मूल्यांकन की दृष्टि से खास घटना 1998 से मेगा 2 के नाम से मार्क्स और एंगेल्स के समस्त लेखन का ऐतिहासिक-आलोचनात्मक संस्करण का प्रकाशन है । इसके पांच खंड छप चुके हैं और शेष के प्रकाशन की तैयारी चल रही है । इन खंडों में मार्क्स की कुछ किताबों (मसलन जर्मन विचारधारा) का नया रूप है, पूंजी की सारी पांडुलिपियां हैं, उनके जीवन के महत्वपूर्ण दौरों में भेजी गई (और प्राप्त में से चयनित) चिट्ठियां हैं तथा दो सौ नोटबुकें हैं जिनमें उनकी पढ़ी किताबों के उद्धरण और उनसे उत्पन्न टीपें हैं । नोटबुकें उनके आलोचनात्मक सिद्धांत की कार्यशाला हैं जिनसे उनके चिंतन की जटिल यात्रा और विचारों के विकास के लिए प्रयुक्त स्रोतों का पता चलता है ।
इस अमूल्य सामग्री का अधिकतर हिस्सा जर्मन में ही उपलब्ध होने के चलते कुछ ही शोधकर्ताओं तक सीमित है । इससे हमारे सामने मार्क्स की दूसरी ही तस्वीर उभरती है जो लम्बे दिनों से उनके अनगिनत आलोचकों और स्व घोषित समर्थकों द्वारा प्रस्तुत तस्वीर से भिन्न है । मेगा 2 से हासिल नए संदर्भों के आधार पर कहा जा सकता है कि महान राजनीतिक और दार्शनिक चिंतकों में हाल के दिनों में मार्क्स के भाग्य में सबसे अधिक उलट फेर हुए हैं । सोवियत संघ के बिखराव के साथ बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य ने मार्क्स को राजव्यवस्था की वकालत से आजादी दे दी है जिसकी जिम्मेदारी उनके माथे पर डाल दी गई थी ।
शोध में हुई प्रगति और बदले राजनीतिक हालात को देखकर लगता है कि मार्क्स के चिंतन की व्याख्या के नए उभार की यह परिघटना आगे भी जारी रहेगी । बहुत संभव है कि यह रुचि उनके सैद्धांतिक अनुसंधान के अंतिम दिनों पर ध्यान केंद्रित करे । वर्तमान अध्ययन बौद्धिक जीवनी लिखने की आकांक्षा के साथ शुरू हुआ है इसलिए हो सकता है बाद में मार्क्स के चिंतन की सैद्धांतिक छानबीन के साथ इसकी पूर्णाहुति हो ।
मार्क्स के जीवन के आखिरी सालों की पांडुलिपियों से यह मान्यता ध्वस्त हो जाती है कि उनकी बौद्धिक जिज्ञासा बुझ गई थी और उन्होंने काम करना बंद कर दिया था । न केवल उन्होंने अपनी खोज जारी रखी थी बल्कि उसे नए अनुशासनों में विस्तारित किया था ।
1881 और 1882 में मार्क्स ने मानवशास्त्र की हालिया खोजों, प्राक-पूंजीवादी समाजों में सामुदायिक स्वामित्व के रूपों, भूदास प्रथा के खात्मे के बाद रूस में होने वाले बदलावों और आधुनिक राज्य के जन्म के सिलसिले में गहन अध्ययन किया । अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की प्रमुख घटनाओं को भी वे ध्यान से देख रहे थे । इसका सबूत वे पत्र हैं जिनमें उन्होंने आयरलैंड की स्वाधीनता की लड़ाई के लिए अपना समर्थन जाहिर किया और भारत, मिस्र तथा अल्जीरिया में औपनिवेशिक उत्पीड़न का मजबूती से विरोध किया । उन्हें यूरोप केंद्रित, आर्थिक निर्धारणवादी या केवल वर्ग संघर्ष से ग्रस्त कहना मुश्किल है ।
पूंजीवादी व्यवस्था की अपनी लगातार जारी आलोचना के लिए मार्क्स नए राजनीतिक संघर्षों, नए विषयों और नए भौगोलिक क्षेत्रों का अध्ययन बुनियादी समझते थे । इसके चलते वे विभिन्न देशों की विशेषताओं को देख सके और समाजवाद का जो स्वरूप पहले उन्होंने सोचा था उससे भिन्न स्वरूप की संभावनाओं पर विचार कर सके ।
आखिरी बात कि अंतिम दिनों में मार्क्स बेहद प्यारे इंसान हो गए थे । जीवन में आई अपनी कमजोरी पर परदा नहीं डाला फिर भी संघर्ष करते रहे । संदेह से पीछा नहीं छुड़ाया बल्कि उसका खुलकर सामना किया । आत्म निश्चिति में शरण लेने या प्रथम 'मार्क्सवादियों' की अनर्गल प्रशंसा में सुख पाने की जगह शोध का काम जारी रखा । इन दिनों के मार्क्स की तस्वीर विरल ढंग से विध्वंसक मूलगामी की बनती है जो बीसवीं सदी की उस पत्थर जड़ी तस्वीर से पूरी तरह भिन्न है जिसमें वे जड़ निश्चय के साथ भविष्य की ओर संकेत करते हैं । असल में वे शोधकर्ताओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं की नई पीढ़ी का उसी संघर्ष की पताका उठाकर आगे ले जाने का आवाहन करते हैं जिसके लिए उनके पहले और बाद के बहुतेरे लोगों ने समूचा जीवन होम कर दिया ।                 

Saturday, September 15, 2018

रचना प्रक्रिया और विचारधारा


                       

सूत्र रूप से कहें तो रचना प्रक्रिया किसी व्यक्ति और संसार के बीच की अंत:क्रिया है । अर्थ कि कोई भी संवेदनशील व्यक्ति चारों ओर फैले समाज को महसूस करके अपनी भावनाओं को व्यक्त करता है । इस प्रतिक्रिया को आम तौर पर कला कह सकते हैं लेकिन फिलहाल लेखक समुदाय के बीच इसे साहित्य तक सीमित रखना ठीक होगा । यदि इतना ही मानें तो यह रचना प्रक्रिया के बारे में रोमांटिक नजरिया होगा । जाहिर है कोई व्यक्ति अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति शून्य में नहीं करता । उसकी यह अभिव्यक्ति सामाजिक क्रिया होती है । अपनी अभिव्यक्ति को वह दूसरों तक ले जाना चाहता है । उसके लिए कुछ माध्यमों की जरूरत होती है । अनेक कला रूप एकाधिक माध्यमों का इस्तेमाल करते हैं । साहित्य में मुख्य रूप से भाषा का इस्तेमाल किया जाता है जो समाज से व्यक्ति को प्राप्त होती है । इस माध्यम के अतिरिक्त अभिव्यक्ति के कुछ पूर्वनिश्चित रूप होते हैं जिन्हें हम विधा कहते हैं । ये विधाएं भी हमें विरासत के रूप में ही मिलती हैं । इन दोनों के प्राप्त होने का अर्थ यह नहीं कि इनमें बदलाव संभव नहीं होता । उलटे, समय बदलने पर भाषा और विधाओं के स्वरूप में भी बदलाव आता है । रचना की प्रक्रिया में भाषा और विधा के सिलसिले में परंपरा प्राप्त और नवीन कथ्य का तनाव हमेशा बना रहता है । इस तनाव को प्रत्येक रचनाकार अपने तरीके से हल करता है ।     
1 रामविलास शर्मा ने रचना में इंद्रिय संवेदन और भावबोध के साथ विचार तत्व की मौजूदगी जरूरी मानी है उनके अनुसार इन सबमें विचार तत्व सबसे तेजी से बदलने वाली चीज है लेकिन क्या भावबोध से विचार पूरी तरह स्वायत्त हो सकता है यदि मार्क्सवाद की साहित्य संबंधी मान्यताओं को ध्यान में रखें तो विचार की उपस्थिति रचना में सतह पर नहीं होती बल्कि वह खुद लेखक की दृष्टि को भी प्रभावित करता है इस अर्थ में यथार्थ और विचार एक दूसरे से भिन्न नहीं । मतलब कि जब हम यथार्थ को देखते हैं तो उस देखने में न केवल हमारी सामाजिक हैसियत शामिल रहती है बल्कि इसके साथ ही मकसद भी शामिल रहता है ।     
2 मुक्तिबोध ने रचना प्रक्रिया संबंधी विश्लेषण में इसे और भी स्पष्ट किया है । रचना प्रक्रिया के उनके विवेचन में मूल संवेदना जिन अनेक चीजों से पुष्ट होकर प्रकट होती है उनमें विचार एक महत्वपूर्ण तत्व है । जो लोग साहित्य में विचार की उपस्थिति मात्र का विरोध करते हैं वे साहित्य से अपेक्षा क्या करते हैं । शायद मनोरंजन लेकिन हम सभी जानते हैं कि मनोरंजन भी विचार निरपेक्ष नहीं होता । जिस मजाक से किसी स्त्रीद्वेषी व्यक्ति का मनोरंजन होगा उससे किसी स्त्री का नहीं होगा । असल में साहित्य के बारे में शाश्वत किस्म के मूल्य उस समाज में गढ़े गए थे जहां साहित्य बहुत ही कम लोगों को उपलब्ध होता था । हालांकि उस समय भी भिन्न माध्यमों से इसका संचार तो होता ही था । शायद इसीलिए सुख कम उपलब्ध होने से प्रयत्न पक्ष और वंचना के चित्रण का महत्व बताना पड़ा था । आगे चलकर जैसे जैसे साहित्य के उपभोक्ता और विस्तारित हुए, उनकी रुचियों का अंतर स्पष्ट होता गया । इसे बहुत व्यावहारिक स्तर पर वीर रस के उदाहरण के रूप में अलग अलग पाठ की पसंद के रूप में देखा जा सकता है । लड़कों को भाग मिल्खा भाग और लड़कियों को मेरी काम को पसंद करते देखना मुश्किल नहीं । असल में बीती सदी में ही साहित्य के भीतर विचार की जरूरत के समर्थन और विरोध पर बहस उठी और इस बहस पर शीतयुद्ध की वैचारिक बहसों का प्रभाव था । इस खेमेबंदी में साहित्य में विचार की उपस्थिति को उस पर मार्क्सवाद का प्रभाव माना गया ।    
3 बीसवीं सदी के अंत में समाजवादी खेमे के पराभव के कुछ ही समय बाद ऐसी तमाम परिघटनाएं प्रकट हुईं जिनकी व्याख्या के लिए मार्क्सवाद का सहारा लेना जरूरी लगने लगा । इसका एक कारण था और वह यह कि पूंजीवाद के आगमन के साथ उसके विरोध के जो अनेक सिद्धांत आए थे उनमें मार्क्स के चिंतन ने थोड़ा आपसी वाद विवाद के जरिए और बहुत हद तक पूंजीवादी यथार्थ की सही व्याख्या साबित होने के जरिए बरतरी हासिल की थी । सदी के मोड़ पर बहुतेरे विद्वानों ने साबित करने की कोशिश की कि दुनिया किसी और युग में दाखिल हो गई है । इसके लिए जिन बदलावों को चिन्हित किया गया उनके सहारे पूंजीवाद से अलग किसी बेहतर समाज में प्रवेश का अनुभव लोगों को नहीं हुआ । ऐसी स्थिति में पूंजीवाद की सबसे मूलगामी व्याख्या होने के नाते मार्क्सवाद की ओर लोगों का व्यापक झुकाव शुरू हुआ । इस दौर के मार्क्सवादी विमर्श में बीसवीं सदी के विमर्श से बहुतेरे अलगाव हैं । बीसवीं सदी के शुरू में घटित रूसी क्रांति ने इसे विशेष क्रांतिकारी स्वरूप प्रदान किया था । सदी का मध्य आते आते चीन की क्रांति हुई और उसने भी मार्क्सवाद के इस क्रांतिकारी स्वरूप को आगे बढ़ाया । लेकिन दोनों ही देशों में शुरुआती क्रांतिकारी आवेग के बाद सत्ता की स्थिरता महत्वपूर्ण हो गई । फ़ासीवाद के विरुद्ध लड़ाई ने जरूर फिर से मार्क्सवाद में रुचि पैदा की लेकिन उसके बाद कमोबेश समाजवादी देशों के भीतर स्थिरता कायम रही । इसके मुकाबले वर्तमान उत्थान के साथ किसी सत्ता के मुकाबले जन आंदोलनों की आंच मौजूद है । इस हालत के अगर नुकसान हैं तो लाभ भी हैं । पहले दुनिया भर के मार्क्सवादी किसी केंद्र की ओर निर्देश हेतु देखते थे । उसके बरक्स इस दौर में पैदा होने वाले लगभग सभी सवालों के जवाब हमें खुद ही तलाशने होंगे । इस भिन्नता के साथ मार्क्स के वर्तमान उत्थान में साहित्य और संस्कृति संबंधी सवालों की अनुपस्थिति सबने मानी है । असल में बीसवीं सदी के मार्क्सवादी विमर्श में सोवियत संघ और उसके समानांतर पश्चिमी मार्क्सवादी दोनों ही धाराओं ने साहित्य और संस्कृति को महत्वपूर्ण क्षेत्र मानकर गहराई से विचार किया था । इससे पहले की उन्नीसवीं सदी में ऐसा नहीं था । नए समय में शायद साहित्येतर सवाल अधिक गंभीर हो गए हैं इसलिए अर्थतंत्र, राजनीति और विचारधारा के सवाल अधिक उत्तेजना पैदा कर रहे हैं । इस लिहाज से जो सवाल अधिक ध्यान खींच रहे हैं उन पर एक नजर डालना अनुचित न होगा ।
4 सबसे पहले बदलाव के रूप में आर्थिक जगत में वित्तीकरण नजर आता है । अर्थशास्त्र की पारंपरिक भाषा में इसे कृषि और उद्योग के मुकाबले तृतीयक सेवा क्षेत्र का विस्तार कहा जाता है । इसने मुनाफ़े का एक नया तंत्र खड़ा किया है जिसमें रोजगार विहीन वृद्धि नजर आती है । इससे पश्चिमी देशों में नया सूदखोर वर्ग उत्पन्न हुआ है । वित्तीय क्षेत्र के इस अतिरिक्त विकास ने पहले तो एशियाई बाजारों में संकट पैदा किया लेकिन फिर बाद में वह पूंजी के समग्र संकट में बदल गया । इसका सबसे बड़ा कारण मुद्रा की कीमत में आया नकली उछाल है । इस परिघटना ने दुनिया भर के वित्त बाजारों को अस्थिर कर दिया है और कोई भी देश इस अंतर्राष्ट्रीय पूंजी की मनमानी से स्वतंत्र नहीं रह गया है । इसके साथ ही उत्पादन के पुराने रूपों में भी बदलाव आ रहे हैं । उत्पादक संयंत्र अधिकाधिक सस्ते श्रम और प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों से युक्त तीसरी दुनिया के देशों में भेजे जा रहे हैं । इन देशों के शासक श्रम और संसाधनों की लूट की खुली छूट प्रदान करते हैं । प्राकृतिक संसाधनों में भी सबसे जरूरी और सीमित होने के कारण जमीन एक बार फिर से लड़ाई का नया क्षेत्र बन गई है । इन दोनों बदलावों के चलते पर्यावरण का सवाल नए तेवर के साथ उपस्थित हुआ है । वित्तीकरण ने वैश्विक विषमता को नए तरीके से आकार दिया है । साथ ही इसने विभिन्न देशों के भीतर भी विषमता बढ़ाई है । विषमता का यह अनुभव तीसरी दुनिया के साथ पश्चिमी देशों के लोगों को भी हो रहा है । हाल के दिनों में मार्क्सवादियों के अतिरिक्त मुख्य धारा के बहुत सारे अर्थशास्त्रियों ने भी विषमता के विस्फोटक उभार पर चिंता जाहिर की है । वित्तीकरण के साथ विषमता नए किस्म के सामंतवाद को जन्म दे रही है जिसमें पीढ़ी दर पीढ़ी पैतृक संपत्ति का हस्तांतरण सामाजिक गतिशीलता को बाधित कर रहा है । इसी विषमता को जोसेफ स्तिगलित्ज़ ने सूत्रबद्ध करते हुए 99 और 1 प्रतिशत का सवाल उठाया था जो बाद में पश्चिमी देशों का सबसे लोकप्रिय नारा बन गया । एक और गैर मार्क्सवादी अर्थशास्त्री पिकेटी ने इस समस्या के समाधान के लिए विरासत की संपदा पर शत प्रतिशत कर लगाने का सुझाव दिया है । समाज में लोकतंत्र के वर्तमान क्षरण के साथ ही राजनीति में भी उसकी अभिव्यक्ति हो रही है । राजनीति के इस बदलाव को भी सामाजिक विषमता से जोड़कर देखा जा रहा है । 
5 राजनीतिक क्षेत्र में सबसे गहरा बदलाव लोकतंत्र का क्षरण है । शीतयुद्ध के दौरान पश्चिमी देश लोकतांत्रिक शासन पद्धति को वैचारिक द्वंद्व में सबसे कारगर हथियार की तरह इस्तेमाल करते थे । वामपंथी बौद्धिकों में भी इस सवाल पर थोड़ी शर्मिंदगी भरी चुप्पी पाई जाती थी । अब उन्हीं पश्चिमी देशों में बुर्जुआ लोकतंत्र के सारहीन होते जाने के साथ दक्षिणपंथ और यहां तक कि फ़ासीवादी ताकतों का मजबूत उभार देखा जा रहा है । वाम हलकों में वर्तमान परिघटना को समझने के लिए फ़ासीवाद की शब्दावली का प्रयोग बढ़ रहा है । निरंतर इस दौर के फ़ासीवाद की नई विशेषताओं को समझने पर जोर दिया जा रहा है ताकि इसका कारगर मुकाबला किया जा सके । कामू ने अपने उपन्यासप्लेगमें बताया था कि प्लेग के जीवाणु हरेक बार इस हद तक अपना रूप बदलकर प्रकट होते हैं कि डाक्टर भी शुरू में उन्हें पहचान नहीं पाते । इसी तरह राजनीतिक परिघटनाओं का दुहराव भी जस का तस नहीं होता । खास बात कि जिस तरह वामपंथी लोग अपने इतिहास से सीखते हैं उसी तरह दक्षिणपंथ भी अपने इतिहास से सीखता है । यहां तक कि जिस तरह अलग अलग देशों का समाजवाद अलग अलग था या होगा उसी तरह विभिन्न देशों में फ़ासीवादी निजाम के भी एक समान होने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए । फ़ासीवादी शासन की अंतर्वस्तु पूंजी का संकट होता है । आम तौर पर पूंजी का शासन लोकतांत्रिक तरीके से चलाया जाता है लेकिन संकट में आने पर वह अपना यह चोला उतार फेंकती है । पूंजी के संकट की यह बात फ़ासीवाद के साथ लगी हुई है । इस समानता के बावजूद राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियों के भेद से उसके रूप अपने ही अतीत से तो अलग होंगे ही आपस में भी अलग अलग हो सकते हैं । उदाहरण के लिए हमारे देश में उसका उत्थान लंबे समय में धीरे धीरे हुआ है इसलिए उसको परास्त करने की लड़ाई के भी दीर्घकालीन होने की आशा है । मुख्य धारा की समूची राजनीति में दक्षिणपंथी झुकाव आने के साथ मध्यमार्ग भी अधिकाधिक दक्षिण की ओर खिंचता जा रहा है । असल में तो राजनीति में मध्यमार्ग की जगह रोज ब रोज संकुचित होती जा रही है । मध्यमार्ग के साथ एक अन्य प्रक्रिया भी चल रही है । उसके भीतर ही कम से कम ब्रिटेन और अमेरिका में वामपंथ का उभार हो रहा है । युवा समुदाय जिसेजेनरेशन 2 केभी कहा जा रहा है उसमें वाम सोच-विचार और विशेषकर मार्क्सवाद के प्रति आकर्षण देखा जा रहा है । जिस बुर्जुआ राजनीति ने अपने को लोकतंत्र का साकार रूप घोषित किया था उसके हाथों ही लोकतंत्र की हत्या को देखते हुए मार्क्स के चिंतन में मौजूद लोकतंत्र की विशेषता को रेखांकित किया जा रहा है । उनके चिंतन में निहित लोकतंत्र को केवल राजनीतिक की जगह विभिन्न सामाजिक समुदायों की अधिकारसंपन्नता के रूप में समझा जा रहा है । मार्क्स की इस नई समझ ने अंबेडकर चिंतन के साथ उसके रचनात्मक और सार्थक संवाद की गुंजाइश पैदा की है । लोकतंत्र की इस मार्क्सी धारणा ने अस्मिता आंदोलनों और मार्क्सवाद के बीच संवाद की गुंजाइश भी बनाई है । लगभग सभी अस्मिता आंदोलन मार्क्सवाद के साथ अपनी असहमति घोषित करते रहे हैं । सच तो यह है कि जिन सामाजिक अस्मिताओं के सवाल उठाने का दावा अस्मिता आंदोलन करते हैं उन समुदायों के अधिकारों के लिए मार्क्सवादी भी लड़ते रहे हैं । इसके चलते आपसी प्रतियोगिता के साथ संवाद की गुंजाइश भी बनी रही है । हाल के दिनों में पूंजी के नए तेवर में हमलावर होने के साथ उसके शिकार ये दमित तबके हो रहे हैं जिसके चलते आपसी संवाद का पहलू और बढ़ा है । इसी क्रम में मार्क्सवादी चिंतन के भीतर सामाजिक प्रश्न की प्रमुखता को न केवल लक्षित किया जा रहा है बल्कि बदलाव के राजनीतिक पहलू पर अधिक बल के मुकाबले सामाजिक बदलाव को अधिक मूलगामी भी समझा जा रहा है ।    
6 साठ के दशक में ही उत्पन्न नए सामाजिक आंदोलनों में स्त्री और अश्वेत अस्मिता आंदोलनों के साथ पर्यावरण का आंदोलन भी था । अन्य नव सामाजिक आंदोलनों की तरह उसके साथ भी मार्क्सवाद का संबंध बहुत सहज नहीं रहा था । मार्क्सवादियों को लगता था कि पर्यावरणवादी लोग वर्तमान व्यवस्था के भीतर सुधार तक ही सीमित रहना चाहते हैं । इसी तरह पर्यावरणवादियों को रूस और चीन में मौजूद सत्ता विमर्श से परेशानी का अनुभव होता था । हाल के दिनों में इन दोनों धाराओं के बीच भी संवाद मजबूत हुआ है । पर्यावरणवादी लोग पूंजीवाद जनित प्रकृति के विनाश की प्रवृत्ति को पहचान रहे हैं । पर्यावरण आंदोलन के भीतर इस समय एक वैज्ञानिक धारणा सबसे अधिक लोकप्रिय हुई है । उसे एंथ्रोपोसीन कहा जाता है । इसका अर्थ है कि हमारी सभ्यता एक नए भूगर्भीय युग में दाखिल हो गई है । इस युग में धरती को प्रभावित करने वाले कारक मुख्य तौर पर प्राकृतिक नहीं रह गए हैं बल्कि अब वह मनुष्य की हरकतों से अधिकतर प्रभावित हो रही है । जलवायु संबंधी बदलाव भी मौसम चक्र में हुए ऐसे परिवर्तनों के चलते हो रहे हैं जिनकी मूल वजह मनुष्य का प्रकृति में हस्तक्षेप है । इसकी शुरुआत के बतौर औद्योगिक क्रांति को चिन्हित किया जा रहा है । पर्यावरणवादियों की सोच बदलने के साथ मार्क्सवादी लोग भी मार्क्स के चिंतन में निहित पूंजीवाद विरोध के इस पहलू पर बल दे रहे हैं । साहित्य के साथ पर्यावरण के इस रिश्ते के बारे में अमिताभ घोष ने बेहद महत्वपूर्ण किताब लिखी । इसमें उन्होंने पर्यावरण की चिंता जाहिर करने वाले साहित्यिक लेखन को विज्ञान कथा के खाते में डालने का विरोध किया है । जिस तरह के बदलाव आ रहे हैं उससे लगता है कि आगामी दिनों में पर्यावरण का सवाल बेहद महत्वपूर्ण होने जा रहा है । अकाल, बाढ़, बीमारी और भुखमरी जैसी चीजों की बढ़ोत्तरी के पीछे पर्यावरण संबंधी बदलाव ही हैं । अब तक पर्यावरण का प्रश्न विद्वत्तापूर्ण बातचीत का विषय हुआ करता था लेकिन जल्दी ही यह सवाल किसान और मजदूर दोनों ही आंदोलनों के लिए गंभीर सरोकार बनने जा रहा है । लोगों के जीवन में पैदा होने वाली तकलीफ का स्रोत पर्यावरणिक बदलाव होने से साहित्य में भी उसकी अभिव्यक्ति हो रही है । साहित्य का एक स्थायी विषय प्रकृति रही है जिसके भीतर होने वाले बदलावों को विभिन्न भाषाओं के साहित्य में व्यक्त किया जा रहा है । इससे जुड़ा लेखन विधाओं के बंटवारों पर भी सवाल उठा रहा है ।       
7 इन सभी चीजों ने मार्क्स के चिंतन को नए तरीके से देखने और समझने का अवसर उपलब्ध कराया है । एक और चीज ने मार्क्स के लेखन में रुचि बढ़ा दी है । उनके समग्र लेखन को छापने का एक नया प्रयास चल रहा है जिसके तहत उनकी तमाम प्रकाशित पुस्तकों के अतिरिक्त उनकी तैयारी के क्रम में बनी सारी नोटबुकों को छाना जा रहा है । हम सब जानते हैं कि मार्क्स के जीवित रहते उनका लिखा बहुत अल्प मात्रा में प्रकाशित हुआ था । उन्हें बुर्जुआ बुद्धिजीवी जैसी निश्चिंतता नहीं हासिल थी । जीवन भर लगभग समूचे यूरोप का सत्ता प्रतिष्ठान उनके पीछे पड़ा रहा था । धन का दिल दहला देने वाला अभाव लगातार बना रहा था । कड़े परिश्रम के चलते स्वास्थ्य चौपट हो चला था । जिस सामाजिक वर्ग के लिए उन्होंने यह सब सहा वह मजदूर, समाज का सबसे कमजोर समुदाय था । उसकी राजनीतिक चेतना का उभार हो ही रहा था । पूंजीवाद उसके भीतर विभाजन और होड़ पैदा करके एकता नहीं बनने दे रहा था । इन सबके कारण उनके लिखे का बेहद छोटा हिस्सा ही प्रकाशित हुआ था । इस प्रकाशित अंश के मुकाबले अनछपा लेखन बहुत अधिक था । देहांत के बाद एंगेल्स ने कुछ चीजों को व्यवस्थित और संपादित करके छपवाया । इसके बावजूद हाथ से लिखा बहुत अधिक बचा हुआ था । अब नए सिरे से संपादित करके सब कुछ छापने की योजना बनी है । इस नए प्रयास के कारण प्रकाशित लेखन से इस तैयारी का रिश्ता समझने के क्रम में मार्क्स की जीवन भर चलते रहने वाली जिज्ञासा और विचारों में लगातार नवीकरण का तथ्य खुलकर प्रकट हो रहा है ।
8 सोवियत संघ के ढहने के बाद दुनिया के एकध्रुवीय होते ही साम्राज्यवाद की परिघटना ने सिर उठाया है । यह साम्राज्यवाद भी पुराने से भिन्न किस्म का है जिसके चलते मार्क्सवादियों के भीतर ही विवाद जारी हैं । इसकी नवीनता पहचानने के साथ ही पुरानेपन की मौजूदगी देखने के चलते औपनिवेशिक अतीत की छानबीन भी तेज हुई है । इसलिए मार्क्स के चिंतन में मौजूद उपनिवेशवाद विरोध का पहलू पुन: प्रासंगिक हुआ है । मार्क्स ने कहा ही था कि चीजें जितना अधिक बदलती हैं उतना ही वे पहले की तरह होती जाती हैं । अतीत पूरी तरह से तो नहीं दुहराया जाता लेकिन दुहराया जाता है । इसी संदर्भ में देखें तो बीच के बदलावों के साथ जिन पुरानी चीजों की वापसी हो रही है उनमें पूंजीवाद के भीतर नव सामंती तत्वों का प्रकट होना, उत्पीड़न और बहिष्करण के लगभग सभी पुराने तरीकों की हिंसक वापसी, राज्यतंत्र का धनतंत्र के समक्ष कमजोर होते जाना, तर्क की जगह आस्था की प्रतिष्ठा, समस्या के समाधान में तकनीक पर जोर आदि विचारणीय प्रसंग हो चले हैं ।
9 पूंजीवाद की गति के जो नियम मार्क्स ने खोजे थे उनसे समझा जा सकता है कि पूंजीवाद में बार बार और नियमित रूप से गिरावट क्यों आती है, विभिन्न देशों के बीच युद्ध को जन्म देने वाली दुश्मनी क्यों बनी रहती है और प्राकृतिक संसाधनों का ऐसा बेलगाम तथा बरबादी भरा इस्तेमाल क्यों होता है जिससे धरती के ही विनाश का खतरा पैदा हो गया है । उनके विचारों को पढ़ने से यह भी पता चलता है कि यह पूंजीवाद हमेशा से मौजूद नहीं था इसलिए हमेशा नहीं बना रहेगा । उदारवाद की विचारधारा को सोखकर दक्षिणपंथ का व्यापक उभार हुआ है । इसके विरोध में उदारपंथ की मदद लेते हुए भी उसकी सीमाओं के प्रति सचेत रहना होगा ।
10 मार्क्स के जीवन और चिंतन को समझने की इन नई कोशिशों के चलते उनके दार्शनिक, आर्थिक और राजनीतिक सोच के तमाम पहलू उभर रहे हैं और फिर से प्रासंगिक हो रहे हैं । उदाहरण के लिए पूंजीवाद के बुनियादी अंतर्विरोध के रूप में उन्होंने उत्पादन के सामाजिक स्वरूप और अधिग्रहण के निजी रूप के बीच का अंतर्विरोध पहचाना था । आज की तकनीक और इंटरनेट की दुनिया में भी पूंजीवाद का यह अंतर्विरोध न केवल बना हुआ है बल्कि उस दुनिया में काम करने वाले ज्यादातर लोग इस बात को उठा भी रहे हैं । इसी तरह शासन में विचारों के प्रभुत्व की भूमिका को रेखांकित करने के जरिए उन्होंने ब्राह्मणवाद समेत सभी तरह की विचारधाराओं से लड़ने का रास्ता खोला । धर्म के सवाल पर भी अपने समय के अन्य अनगढ़ भौतिकवादियों के मुकाबले उनकी द्वंद्वात्मक समझ हमें धर्म के फंदे में जकड़े हुए व्यक्ति से भी संवाद की गुंजाइश प्रदान करती है । हिंदी साहित्य के सामान्य अध्ययन से भी हम जानते हैं कि कभी कभी रचनात्मक साहित्य के मुकाबले ज्ञानकांड अधिक महत्व का हो जाता है । हिंदी में जिसे द्विवेदी युग कहते हैं उस समय अर्जित समझ का परिपाक ही छायावाद और प्रेमचंद के लेखन में हुआ था । इसी तरह के किसी संक्रमणशील समय में हमारा भी प्रवेश अनचाहे हुआ है और इस चुनौती का मुकाबला हमें अपने ही औजारों से करना होगा । साहित्य के लिए ये औजार शायद विचार ही होते हैं । सभी पीढ़ियों की तरह हमें भी अपने समय उठे सवालों के हल खुद खोजने होंगे । इसमें मार्क्स के लेखन और वैचारिक संघर्ष से केवल दिशा प्राप्त हो सकती है । कारण यह कि न केवल जिन सवालों से वे जूझे उनकी उपस्थिति बनी हुई है बल्कि हमारी दुनिया अपने नएपन के साथ बहुत हद तक उनकी उन्नीसवीं सदी की दुनिया जैसी बनती जा रही है ।                                      

Monday, September 3, 2018

अर्थशास्त्र की आलोचना


              
1856 में राजनीतिक अर्थशास्त्र का अध्ययन पूरी तरह उपेक्षित रहा था लेकिन एक अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संकट के आगमन से स्थिति बदल गई । अनिश्चितता के माहौल में अफरा तफरी के चलते दिवालिया होने की रफ़्तार बढ़ गई तो मार्क्स ने एंगेल्स को लिखा कि बहुत दिनों तक इसे चुपचाप देखना संभव नहीं रह जाएगा । दस साल भी नहीं बीते थे जब यूरोप भर में क्रांति की लहर व्याप्त थी । उसके फिर से पैदा होने की आशा से दोनों रोमांचित थे । मार्क्स अर्थशास्त्र का काम जल्दी से जल्दी पूरा करना चाहते थे ताकि क्रांति का ज्वार पैदा होने पर उसमें कूद सकें । इस बार तूफान की शुरुआत यूरोप की बजाए अमेरिका में हुई थी । 1857 के शुरुआती महीनों में जमा रकम कम होने के बावजूद बैंकों ने बढ़ चढ़कर कर्ज दिया था । नतीजतन सट्टेबाजी बढ़ी और आर्थिक अवस्था खराब होती गई । ओहायो की बीमा कंपनी डूबी और घबराहट में एक के बाद एक संस्थाएं दिवालिया होने लगीं । बैंकों ने नकद भुगतान स्थगित कर दिया । जिस दिन बीमा कंपनी डूबी उसी दिन मार्क्स ने अपनी किताब की भूमिका लिखनी शुरू की । संकट के विस्फोट ने मानो नई प्रेरणा दे दी । 1848 की पराजय के बाद पूरे दस साल तक मार्क्स को राजनीतिक धक्का और अलगाव झेलना पड़ा था । अब संकट के आने से सामाजिक क्रांति के नए दौर में भाग लेने की झलक मिली । उन्हें क्रांति के लिए महत्वपूर्ण काम आर्थिक परिघटना का विश्लेषण पूरा करना महसूस हुआ । यह संकट सचमुच पहला अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संकट साबित हुआ । न्यू यार्क से होते हुए समूचे अमेरिका को अपनी चपेट में लेने के कुछ ही हफ़्ते बाद यूरोप, दक्षिण अमेरिका और पूरब के लगभग सभी व्यावसायिक केंद्रों तक फैल गया । इन खबरों से उत्साहित मार्क्स में बौद्धिक सक्रियता का ज्वालामुखी फूट पड़ा । कुछ ही महीनों में इतना लिखा जितना पिछले कुछ सालों में भी नहीं लिखा था ।
अगस्त 1857 से मई 1858 के बीच ग्रुंड्रिस के आठ रजिस्टर भर गए । इसके अतिरिक्त न्यू-यार्क ट्रिब्यून के संवाददाता के बतौर दर्जनों लेख लिखे जिनमें यूरोप में जारी संकट का भी विश्लेषण था । कुछ और धन कमाने के लिए न्यू अमेरिकन साइक्लोपीडिया के लिए अनेक प्रविष्टियां लिखने की सहमति दी । इसके साथ ही तीन रजिस्टर भर की सामग्री एकत्र की । इन्हें संकट संबंधी नोटबुकें कहा जा सकता है । इस तमाम सामग्री के कारण यह धारणा बदली है कि पूंजी के लेखन के पीछे हेगेल की साइंस आफ़ लाजिक की प्रेरणा थी । उनके सोच विचार का प्रमुख विषय बहु प्रतीक्षित आर्थिक संकट था । एंगेल्स को लिखी एक चिट्ठी में इस समय का अपना दोहरा कार्यभार बतलाया था । एक राजनीतिक अर्थशास्त्र की रूपरेखा स्पष्ट करना ताकि जनता इस संकट की जड़ तक पहुंच सके और दूसरा वर्तमान संकट का लेखा जोखा रखना ताकि भविष्य में दोनों मिलकर कोई किताब लिख सकें । बाद में दूसरे कार्यभार को छोड़ दिया और समूची ऊर्जा पहले काम में लगा दी ।
उनके सामने सबसे बड़ा सवाल था कि आखिर राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना शुरू कहां से करें । जवाब देने में दो बातों से मदद मिली । एक कि कुछ सिद्धांतों की वैधता के बावजूद अर्थशास्त्र कोई ऐसी ज्ञानात्मक प्रक्रिया नहीं विकसित कर सका था जिसके सहारे यथार्थ को सही सही पकड़ा और समझाया जा सके । दूसरे कि लिखने का काम शुरू करने से पहले अपने तर्क और विवेचन क्रम को स्पष्ट करना उन्हें जरूरी लगा । इसके चलते उन्हें पद्धति की समस्याओं को गहराई से देखना पड़ा और शोध के निर्देशक नियमों को सूत्रबद्ध करना पड़ा । यह काम ग्रुंड्रिस की भूमिका के जरिए संपन्न हुआ । इसका मकसद कोई पद्धति वैज्ञानिक गुत्थी सुलझाना न होकर खुद के लिए आगामी लंबी यात्रा की दिशा स्पष्ट करना था । जो विराट सामग्री उन्होंने एकत्र कर रखी थी उसको याद रखने के लिए भी यह काम जरूरी लगा । मकसद बहुविध थे और लिखा कुल हफ़्ते भर में गया था इसलिए यह भूमिका जटिल और विवादास्पद हो गई है । इसके चार अनुभाग हैं- 1) उत्पादन, 2) उत्पादन, वितरण, विनिमय और उपभोग के बीच संबंध, 3) राजनीतिक अर्थशास्त्र की पद्धति और 4) उत्पादन के साधन (ताकतें) और उत्पादन संबंध तथा परिचालन के संबंध आदि ।
अपने अध्ययन का क्षेत्र निर्धारित करते हुए वे घोषित करते हैं कि भौतिक उत्पादन उनकी गवेषणा का केंद्रविंदु है । समाज में उत्पादन में लगा हुआ व्यक्ति यानी सामाजिक रूप से निर्धारित व्यक्तिगत उत्पादन उनका प्रस्थानविंदु रहेगा । इस मान्यता के जरिए उन्होंने पूंजीवादी वैयक्तिकता को शाश्वत मानने की धारणा से मुक्ति पा ली । उनके लिए उत्पादन सामाजिक परिघटना है । असामाजिक व्यक्तिवाद आधुनिक समाज की परिघटना है और इसे पूंजीवादी विचारक सर्वकालिक बनाकर पेश करते हैं । मार्क्स ने पाया कि सभी युगों के चिंतक अपने समय की विशेषता को शाश्वत ही कहते आए हैं । अपने समय के राजनीतिक अर्थशास्त्रियों के बनाए इस व्यक्ति की धारणा के विपरीत मार्क्स ने कहा कि समाज से बाहर व्यक्ति द्वारा उत्पादन उसी तरह बेवकूफाना बात है जैसे लोगों के एक साथ रहने और आपसी संवाद के बिना भाषा के विकास की कल्पना करना । वे वैयक्तिकता को सामाजिक परिघटना मानते थे । जिस तरह नागरिक समाज का उदय आधुनिक दुनिया में हुआ उसी तरह पूंजीवादी युग का मजदूरी पर आश्रित स्वतंत्र कामगार भी दीर्घकालीन ऐतिहासिक प्रक्रिया की उपज है । उसका उदय सामंती समाज के विघटन और सोलहवीं सदी से विकासमान उत्पादन की नई ताकतों के चलते हुआ है । आधुनिक पूंजीवादी व्यक्ति के उदय की समस्या को सुलझाने के बाद मार्क्स कहते हैं कि वर्तमान उत्पादन सामाजिक विकास के एक निश्चित चरण के अनुरूप है । इस धारणा के सहारे वे उत्पादन की अमूर्त कोटि को किसी खास ऐतिहासिक क्षण में उसके साकार रूप से जोड़ देते हैं ।
असल में तमाम अर्थशास्त्री उत्पादन की अमूर्तता के आधार पर अपने समय के सामाजिक संबंधों को स्वाभाविक बना देते हैं । इसके विरोध में ही मार्क्स ने प्रत्येक युग के विशेष लक्षणों की पहचान की । उनकी इस ऐतिहासिकता के बावजूद सभी युगों में उत्पादन के लिए मानव श्रम और प्राकृतिक संसाधन आवश्यक तत्व रहे हैं । अन्य तमाम अर्थशास्त्री इनके अतिरिक्त तीसरे तत्व पूंजी को भी आवश्यक मानते हैं जो असल में पहले के श्रम का ही संचित भंडार होता है । इसी तीसरे तत्व की आलोचना अर्थशास्त्रियों की बुनियादी सीमा को उजागर करने के लिए उन्हें जरूरी लगी । पूंजी को अन्य अर्थशास्त्री सदा से मौजूद मानते थे लेकिन मार्क्स ने उसे श्रम का संचित रूप कहकर उसे ऐतिहासिक कोटि में बदल दिया । उनके मुताबिक पूंजी के आगमन से पहले उत्पादन और उत्पाद मौजूद थे जिन्हें पूंजी अपनी प्रक्रिया के मातहत ले आई । उत्पादक कर्ता को उत्पादन के साधनों से अलग करके ही पूंजीपति को ऐसे संपत्तिविहीन मजदूर मिले जो अमूर्त श्रम में लगे । पूंजी और जीवित श्रम के बीच विनिमय के लिए यह अमूर्त श्रम आवश्यक होता है । इसका जन्म ऐसी प्रक्रिया की उपज है जिसके बारे में अर्थशास्त्री चुप्पी लगाए रहते हैं । पूंजी और मजदूरी पाने वाले श्रम का इतिहास इसी प्रक्रिया से निर्मित होता है ।
मार्क्स ने अर्थतंत्र के लगभग सारे तत्वों को ऐतिहासिक बनाया । मुद्रा को अर्थशास्त्री शाश्वत मानते थे । मार्क्स ने कहा कि सोने या चांदी में मुद्रा की संभावना निहित होने के बावजूद सामाजिक विकास के एक निश्चित क्षण में ही वे इस भूमिका को निभाना शुरू करते हैं । इसी तरह कर्ज भी इतिहास के विशेष क्षण में प्रकट हुआ है । मार्क्स का कहना है कि सूदखोरी की तरह लेनदेन की परंपरा रही है लेकिन जैसे काम को औद्योगिक या मजदूरी पाने वाला श्रम नहीं कहा जा सकता उसी तरह आधुनिक कर्ज भी पुराने उधारी लेनदेन से अलग विकसित उत्पादन संबंधों में पूंजी आधारित वितरण से पैदा होता है । कीमत और विनिमय भी पहले से मौजूद थे लेकिन उत्पादन की लागत से कीमत का निर्धारण तथा सभी उत्पादन संबंधों पर विनिमय का दबदबा बुर्जुआ समाज के अभिलक्षण हैं । स्पष्ट है कि मार्क्स का मकसद पूंजीवादी उत्पादन पद्धति की ऐतिहासिकता को साबित करना था । इस नजरिए के चलते श्रम प्रक्रिया समेत ढेर सारे सवालों को उन्होंने अलग तरीके से देखा । इस सवाल को वे बुर्जुआ समाज के निहित स्वार्थ से भी जोड़ते हैं । यदि कोई कहता है कि मजदूरी पाने वाला श्रम उत्पादन के विशेष ऐतिहासिक रूप से जुड़ा हुआ नहीं है बल्कि मनुष्य के आर्थिक अस्तित्व का सार्वभौमिक यथार्थ है तो इसका अर्थ है कि शोषण और अलगाव हमेशा से मौजूद रहे हैं और भविष्य में भी सर्वदा कायम रहेंगे ।
इस तरह पूंजीवादी उत्पादन की विशेषता से इनकार के ज्ञानात्मक नतीजों के साथ राजनीतिक नतीजे भी निकलते हैं । एक ओर इससे उत्पादन की विशेष ऐतिहासिक अवस्था को समझने में बाधा आती है तो दूसरी ओर वर्तमान स्थितियों को अपरिवर्तित और अपरिवर्तनीय कहकर पूंजीवादी उत्पादन को सामान्य उत्पादन और बुर्जुआ सामाजिक संबंधों को स्वाभाविक मानव संबंध साबित करने की कोशिश की जा सकती है । इसलिए अर्थशास्त्रियों के सिद्धांतों की मार्क्सी आलोचना का दोहरा महत्व है । किसी भी यथार्थ को समझने के लिए उसकी विशेष ऐतिहासिक अवस्था की जानकारी जरूरी होती है । इसके साथ ही इससे पूंजीवादी उत्पादन पद्धति की अपरिवर्तनीयता का तर्क खंडित भी होता है । पूंजीवादी व्यवस्था की ऐतिहासिकता और अस्थायित्व साबित होने से उसके उन्मूलन की संभावना बलवती होगी ।

Saturday, September 1, 2018

मार्क्स चिंतन कोश


2011 में कांटीन्यूम इंटरनेशनल पब्लिशिंग ग्रुप से इयान फ़्रेजर और लारेन्स वाइल्डे की किताबद मार्क्स डिक्शनरीका प्रकाशन हुआ । सबसे पहले लेखक बताते हैं कि मार्क्स जितनी मुहब्बत और नफ़रत शायद ही किसी और को झेलनी पड़ी होगी । कारण कि वे कोई सामान्य चिंतक नहीं थे । हेगेल और उनके आलोचकों की आपसी बहसों से पैदा वैचारिक तूफान से गुजरते हुए उन्होंने अलग रास्ता बनाया । वे सिद्धांत और व्यवहार की एकता के पक्षधर थे । पचीस साल की उम्र आते आते विश्व क्रांति के सिद्धांतकार की जिंदगी उन्होंने चुन ली । इस क्रांति के जरिए ही उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व को समाप्त होना था जो हजारों साल से सामाजिक वर्गों और उनके बीच संघर्ष का आर्थिक आधार बना हुआ था । इस रूपांतरण की संभावना की जमीन पूंजीवाद की उनकी आलोचना से तैयार हुई । इस आलोचना के जरिए उन्होंने पूंजीवाद की अंतर्विरोधी प्रकृति को उजागर किया और इसके विनाश की ओर ले जाने वाली समाजार्थिक प्रवृत्तियों की पहचान की । लक्ष्य था पूरी दुनिया में ऐसा वर्गविहीन समाज स्थापित करना जो शोषण और उत्पीड़न से मुक्त हो और जिसमें बहुसंख्यक लोग पहली बार समाज व्यवस्था पर सचेतन नियंत्रण कायम करें । कुल मिलाकर यह मानव मुक्ति का विराट सपना था । इसके बाद वे सवाल उठाते हैं कि फिर बहुत सारे लोग मार्क्स के विचारों को मानव मुक्ति में बाधक क्यों समझते हैं ।
इनमें सबसे पहले वे उदारवाद के आरोप बताते हैं । उदारवादियों का कहना है कि संपत्ति का अधिकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता की पूर्वशर्त है । इसलिए वे इस मान्यता का विरोध करते हैं कि स्वतंत्रता तभी संभव है जब उत्पादन के साधनों को निजी स्वामित्व की जगह सामाजिक नियंत्रण में लाया जाए । ये लोग मानते हैं कि सामूहिकता के कारण राजनीतिक मनमानी पैदा होती है । इस मामले में मार्क्स की मान्यताओं के पक्ष में सैद्धांतिक तर्क ही काफी नहीं है । बीसवीं सदी में उनके नाम पर स्थापित शासन के अनुभव से इस आरोप को बल मिलता है । उनके विचारों को देखने से लगता है कि वे खुद इन शासनों की नीतियों और कारगुजारियों का विरोध अवश्य करते लेकिन सवाल है कि उनके विचारों में विकृति आई कैसे ।
मार्क्स के देहांत से लेकर 1917 तक समूचे यूरोप की बड़ी समाजवादी पार्टियों ने मजदूर आंदोलन की ताकत पर भरोसा किया और निर्देशक सिद्धांत के बतौर मार्क्स के विचारों को अपनाया । उनमें आपसी सहमति थी कि उनका दायित्व सार्वभौमिक मताधिकार हासिल करना, चुनाव में बहुमत अर्जित करना और अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन के अंग के रूप में अपने समाजों का रूपांतरण शुरू करना है । इसके लिए लोकतंत्र को राजनीतिक क्षेत्र की सीमा से आगे समाजार्थिक क्षेत्र में ले जाना था । इसलिए इन पार्टियों का नाम सामाजिक जनवादी पार्टी था । जब 1917 में रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी के बोल्शेविक धड़े ने सत्ता पर कब्जा कर लिया तो परिस्थिति बदल गई ।
उन्होंने अपने शासन को वैधता प्रदान करने के लिए मार्क्स के विचारों में तोड़ मरोड़ शुरू कर दी । निजी संपत्ति के खात्मे का काम तो जोर शोर से करने की योजना बनी लेकिन स्वतंत्रता और लोकतंत्र के प्रति मार्क्स की निष्ठा को भुला दिया गया । विश्वव्यापी कम्यूनिस्ट आंदोलन ने तानाशाही की मार्क्स की आलोचना और लोकतंत्र के सवाल पर उनकी राय को भुला दिया । जिन सामाजिक जनवादी पार्टियों में लोकतांत्रिक मार्क्सवाद की बात होती थी उनका प्रभाव धीरे धीरे कम होने लगा और मानव मुक्ति के सिद्धांतकार के रूप में मार्क्स के पैरोकार राजनीतिक रूप से स्वतंत्र बुद्धिजीवी ही रह गए । लेखकों को उम्मीद है कि मार्क्स के नए पाठक उनके लेखन को बिना किसी पूर्वाग्रह के पढ़ेंगे । उन्हें मार्क्स में पूंजीवाद की गहन आलोचना, आधुनिक सत्ता संरचनाओं का तीक्ष्ण विश्लेषण और मानव संभावना का भरा पूरा दर्शन मिला ।
मार्क्स ने ढेर सारे ऐसे मुद्दे उठाए जिनकी अलग अलग व्याख्या हुई और तमाम भावावेगपूर्ण बहसें हुईं जिनमें बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ था । ऐसे सवालों पर विचार करने से लेखकों ने परहेज किया है लेकिन मार्क्स के उस मत को प्रस्तुत कर दिया है जिस पर विवाद हुआ और पाठकों को खुद निष्कर्ष निकालने के लिए प्रोत्साहित किया है । इसे उन्होंने मार्क्स-एंगेल्स कोश की जगह मार्क्स कोश ही रखा है और इसके लिए एंगेल्स के विचारों को मार्क्स का विचार नहीं माना है । दूसरी बात कि मार्क्स के विचार आपस में जुड़े हुए हैं इसलिए एक धारणा पर लिखते हुए अन्य धारणाओं का उल्लेख करना पड़ा है । उदाहरण के लिए श्रम को श्रम-शक्ति के बिना नहीं समझा जा सकता, श्रम-शक्ति के लिए मूल्य को समझना होगा और मूल्य के लिए अतिरिक्त मूल्य पर विचार करना होगा ।
बहरहाल प्रविष्टियों की शुरुआत से पहले मार्क्स की बौद्धिक जीवनी दी गई है । इसमें अन्य बातों के साथ उनको दर्शन की अमूर्त दुनिया से ठोस यथार्थ की ओर खींच लाने में पत्रकारिता की भूमिका को रेखांकित किया गया है । मार्क्स की पहली ही किताबहेगेल के अधिकार दर्शन की आलोचनामें प्रशियाई राज्य की रक्षा के प्रयत्न की आलोचना की गई है और परस्पर विरोधी असमाधेय वर्ग हितों की बात पर जोर दिया गया है । हालांकि हेगेल की अमूर्त धारणाओं को ठोस सामाजिक संबंधों तक ले आने में फ़ायरबाख का योगदान माना जाता है लेकिन मार्क्स क्रांतिकारी राजनीतिक प्रतिबद्धता के मामले में फ़ायरबाख के दर्शन से बहुत आगे निकल चुके थे । उदारवाद की आलोचनाआन द ज्यूइश क्वेश्चनमें इस रूप में प्रकट हुई कि राजनीतिक लोकतंत्र के हासिल होने से ही मानव मुक्ति नहीं हो जाएगी । इससे थोड़ा आगे की यात्रा करते हुए उन्होंने घोषित किया कि सर्वहारा वर्ग अपनी मुक्ति प्राप्त करने की प्रक्रिया में समस्त वर्ग उत्पीड़न का आधार रही निजी संपत्ति का अंत करके सम्पूर्ण मानवता को मुक्ति प्रदान करेगा ।
इस समझदारी के साथ मार्क्स पेरिस पहुंचे । वहां एंगेल्स के राजनीतिक अर्थशास्त्र संबंधी लेखन पर निगाह पड़ी और उसके जादू से अप्रभावित न रह सके । मजदूर के साथ होने वाले अन्याय को जायज ठहराने वाले राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना ने उन्हें बहुत प्रेरित किया । इसी दिशा में काम शुरू किया और अलगाव की धारणा का विकास किया । मानव सार और उसकी संभावना भरी क्षमता को आधुनिक उत्पादन पद्धति में लगातार विकृत किया जाता है । उनका यह मानवतावादी दर्शन कम्यूनिज्म को मजदूर के इसी अलगाव को दूर करने वाले आंदोलन के रूप में समझने की दिशा में ले गया । मार्क्स के परवर्ती आर्थिक सिद्धांतों के आरम्भिक दार्शनिक आधार के रूप में इन पांडुलिपियों के महत्व को लेकर मार्क्सवादियों में जबर्दस्त विवाद हैं ।
फ़्रांस के बाद तीन साल के लिए मार्क्स बेल्जियम आए । सामाजिक राजनीतिक समस्याओं को जन्म देने वाली भौतिक परिस्थितियों के विश्लेषण की जिम्मेदारी उन्होंने अपने कंधों पर ली । इसके लिए अपने पुराने विचारों से मुक्ति जरूरी थी । इस क्रम में जो लेखन हुआ वहहोली फ़ेमिलीऔरजर्मन आइडियोलाजीमें प्रकट है । जर्मन आइडियोलाजी में ऐतिहासिक भौतिकवाद का सूत्रीकरण हुआ । इसके तहत तमाम तरह के सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी संबंधों को आकार देने में भौतिक जीवन के उत्पादन और पुनरुत्पादन को चालक शक्ति माना गया और मानव इतिहास को उत्पादन पद्धतियों के क्रमिक विकास के रूप में देखा गया । वर्ग संघर्ष के विकास की इस धारणा के साथ ही क्रांतिकारी सक्रियता और ठोस छानबीन पर भी जोर दिया गया । चिंतन में यह बदलाव जीवन भर के लिए काम का बोझ लेकर आया । अब से आर्थिक और राजनीतिक विश्लेषण का काम प्रमुख हो गया ।
इस दौर की अर्थशास्त्र की पढ़ाई का नतीजापावर्टी आफ़ फिलासफीहै जिसमें प्रूधों पर हमला किया गया है । प्रूधों मजदूर वर्ग के साथ सहानुभूति के बावजूद हड़ताल और ट्रेड यूनियन संगठन का विरोध करते थे । इस समय मार्क्स यथास्थिति को बदलने में बाधक किसी भी विचार का प्रचार अनुचित मानते थे । उन्होंने समूचे यूरोप में बिखरे हुए क्रांतिकारियों के बीच संपर्क कायम करने के लिए पत्राचार समिति भी बनाई । इसकी ही एक बैठक में उन्होंने वाइटलिंग के इस विचार का विरोध किया कि षड़यंत्र के जरिए तत्काल क्रांति की जा सकती है । वे कम्यूनिस्ट लीग की दूसरी कांग्रेस में शामिल होने लंदन गए और लोकतंत्र के लिए होने वाली लड़ाई में भाग लेने के लिए मजदूर वर्ग का स्वतंत्र आंदोलन खड़ा करने पर जोर दिया । उन्होंने काल्पनिक समाजवादियों के प्रयोगों और वाइटलिंग जैसे दुस्साहसिक प्रस्तावों का विरोध किया । उन्हें संगठन का कार्यक्रम लिखने की जिम्मेदारी मिली जिसका नतीजा कम्युनिस्ट घोषणापत्र था । साथ ही वे आर्थिक सिद्धांतों पर व्याख्यान भी दे रहे थे जिनका संग्रहवेज लेबर ऐंड कैपिटलके रूप में हुआ । व्याख्यानों के तत्काल बाद घोषणापत्र लिखा जिसमें आधुनिक वर्ग संघर्ष के विवेचन के साथ ही वर्गविहीन समाज के निर्माण का क्रांतिकारी लक्ष्य निर्धारित किया गया था । इसके छपते ही समूचे यूरोप में लोकतांत्रिक क्रांतियों का लावा फूट पड़ा ।
इसी समय फ़्रांस की अस्थायी सरकार के एक क्रांतिकारी नेता के आमंत्रण पर पेरिस गए । जर्मनी में भी बदलाव आया था इसलिए क्रांतिकारी आंदोलन की मदद के लिए एंगेल्स के साथ कोलोन पहुंचे । फिर से पत्रकारिता के जरिए इस आंदोलन में शिरकत के लिहाज से दैनिक अखबार न्यू राइनिशे जाइटुंग का संपादन संभाला । एक साल के संपादन में लगभग सौ लेख लिखे । जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी का मांगपत्र तैयार किया । सार्वभौमिक मताधिकार का पक्ष लिया । स्थायी सेना की जगह पर जनता को हथियारबंद करने का प्रस्ताव किया । किसानों की मदद, सबके लिए मुफ़्त शिक्षा और प्रगतिशील आयकर के लिए अभियान चलाए । इस दौरान वे लोकतांत्रिक ताकतों के खेमे में ही रहे लेकिन जब देखा कि खुद पूंजीपति वर्ग ही इसे पूरा नहीं करना चाहता तो मजदूर वर्ग के नेतृत्व में और किसानों के समर्थन से लोकतांत्रिक क्रांति के पूरा होने के हामी बन गए । इसके लिए दुस्साहसिक विद्रोह की वकालत करने वालों का विरोध भी करते रहे । जर्मनी से निकाला मिला तो फ़्रांस गए लेकिन वहां से भी बाहर होना पड़ा । इसके बाद तो जीवन भर का लंदन प्रवास शुरू हो गया ।                                 
सबसे पहले हाल में बीती क्रांति के अनुभवों का निचोड़ निकालते हुए स्थायी क्रांति की धारणा प्रतिपादित की जिसके तहत मजदूर वर्ग को कायर पूंजीपति वर्ग पर पुराने शासक वर्ग की ताकत को मटियामेट करने के लिए क्रांतिकारी कदम उठाने के लिए दबाव बनाए रहना था । इस दौर में कम्यूनिस्टों की मांग पूरी होने की संभावना न देखते हुए अर्थतंत्र पर राजकीय नियंत्रण और प्रगतिशील कराधान जैसे उपायों के लिए जनमत बनाने की अपील की । इस समय हीलुई बोनापार्त की अठारहवीं ब्रूमेरलिखी और व्यावहारिक राजनीति की दुनिया में वर्गीय गोलबंदियों का सच उजागर किया । अन्य वर्गों के साथ संश्रय कायम करने में वे मजदूर वर्ग की अगुआ भूमिका चाहते थे ताकि लोकतंत्र को उनके हित में इस्तेमाल किया जा सके लेकिन संसदीय राजनीति का खोखलापन भी उनके सामने स्पष्ट था । इस दुविधा में उन्होंने मजदूर वर्ग की स्वतंत्र राजनीतिक दावेदारी का समर्थन किया और अपने क्रांतिकारी समाजवादी लक्ष्य को पूरा करने के लिए किसी अनुकूल अवसर का इंतजार करने की सलाह दी । लंदन के लंबे प्रवास के दौरान मार्क्स ने मुख्य रूप से तीन तरह के काम किए ।
इसमें पहला काम पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोधी स्वरूप के विस्तृत विश्लेषण के लिए राजनीतिक अर्थशास्त्र पर पकड़ मजबूत करना था । इसके लिए उन्होंने ब्रिटिश म्यूजियम में कम से कम आठ भाषाओं में मौजूद ढेर सारी सामग्री देख डाली । इसके आधार पर प्रकाशन लायक लेखन कठिन काम था । पहले चरण के बतौरराजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदानका प्रकाशन हुआ । इस किताब की भूमिका में अत्यंत संक्षेप में ऐतिहासिक विकास के सिद्धांत का प्रतिपादन किया । सत्रह साल की पढ़ाई के बादपूंजीका पहला खंड छपा । शेष दो खंड बाद में एंगेल्स के संपादन में प्रकाशित हो सके । पहले खंड के पहले अध्याय में वस्तुपूजा संबंधी विवेचन की दार्शनिकता के बावजूद यह किताब जबर्दस्त है । सरकारी आंकड़ों, सर्वेक्षणों और रपटों के साथ ऐतिहासिक स्रोतों का सहारा लेकर किए गए प्रचंड शोध को सुगठित तर्क के साथ पेश किया गया है । साथ ही ब्रिटेन के कामगारों के जीवन के हृदयविदारक चित्र भी बीच बीच में उकेरे गए हैं । मजदूर वर्ग के व्यवस्थित शोषण के विकास का दार्शनिक विवेचन उस शोषण के अनुभव की समाजशास्त्रीय चीरफाड़ के साथ मिला हुआ है । पूंजीवाद का रूप बहुत हद तक बदल जाने के बावजूद व्यवस्था की गति के नियमों का मार्क्सी विश्लेषण आज भी प्रासंगिक बना हुआ है ।
लंदन में रहते हुए उनके काम का दूसरा प्रमुख क्षेत्र पत्रकारिता बनी । हालांकि वे पत्रकारिता को दोयम दर्जे का काम मानते रहे लेकिन रोजी रोटी का जरिया एंगेल्स के धन के साथ पत्रकारिता से अर्जित आमदनी ही थी । न्यू यार्क डेली ट्रिब्यून में लगभग 300 लेख प्रकाशित हुए जिनमें उनके ऐतिहासिक विवेक का अंतर्दृष्टिपरक विनियोग मिलता है साथ ही सत्ताधारकों के विरुद्ध प्रचुर क्रोध भी प्रकट हुआ है । इनमें भारत और आयरलैंड में औपनिवेशिक शासन तथा चीन में अफीम का व्यापार थोपने की ब्रिटेन की हरकतों की घनघोर आलोचना है । इसके अतिरिक्त अमेरिका में गुलामी के विरोध में चले आंदोलन के पक्ष में लिखा । साथ ही ब्रिटेन के समाजवादियों और ट्रेड यूनियन नेताओं से सम्पर्क कायम रखते हुए उनके लिए भी लिखते रहे ।
उनकी गतिविधि का तीसरा महत्वपूर्ण क्षेत्र मजदूर वर्ग की एकता का सांगठनिक प्रयत्न था । इसके तहत उन्होंने इंटरनेशनल में जमकर काम किया । असल में जिस आर्थिक व्यवस्था को चुनौती देनी थी वह अपने जन्म से ही अंतर्राष्ट्रीय थी इसलिए उसके विरोध में आंदोलन भी अंतर्राष्ट्रीय होना तय है । इंटरनेशनल की ठोस उपलब्धियों के कम होने के बावजूद उसका प्रतीकात्मक महत्व बहुत अधिक था । मजदूरों को इससे प्रेरणा मिलती थी तो शासक वर्ग इससे डरते थे । ब्रिटेन के ट्रेड यूनियन नेताओं और यूरोप भर में फैले समाजवादियों को उन्होंने मौजूदा ठोस परिस्थितियों के सतर्क विश्लेषण करने और मजदूर वर्ग की बढ़ती ताकत को संगठित करने की जरूरत का महत्व समझाया । इंटरनेशनल पर अराजकतावादियों के नियंत्रण की संभावना देखकर उन्होंने इसे बंद करने की सफल योजना बनाई और उसे लागू किया । इंटरनेशनल में उनके काम की बदौलत मुख्य धारा की राजनीति में संघर्ष करने की इच्छुक समाजवादी पार्टियों को अपनी राजनीतिक हैसियत बढ़ाने में मदद मिली । इस समयफ़्रांस में गृहयुद्धनामक किताब उन्होंने लिखी जिसमें पेरिस कम्यून के खूनी अंत से पहले मजदूरों द्वारा अपनाए गए मूलगामी लोकतांत्रिक व्यवहार की भूरि भूरि प्रशंसा की गई थी ।
बहरहाल इससे यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि मार्क्स ने पेरिस कम्यून में मजदूरों की गलती को भुला दिया । बाद के दिनों में तो उन्होंने कुछ देशों में मजदूर वर्ग द्वारा शांतिपूर्ण तरीके से अपना लक्ष्य हासिल करने की संभावना भी देखी थी । लेकिन इन सबका मतलब पूंजी के विरुद्ध मजदूरों के संघर्ष के केंद्रीय कार्यभार को भूल जाना नहीं था । जीवन के अंतिम महत्वपूर्ण लेखन गोथा कार्यक्रम की आलोचनामें भी उन्होंने स्पष्ट किया कि समाजवादी पार्टियों को निजी संपत्ति के उन्मूलन तथा पूंजीपति वर्ग के शासन की समाप्ति के प्रति अपनी अविचल निष्ठा हमेशा घोषित करनी चाहिए ।