Monday, March 21, 2011

लेकिन फ़िल्म : मिथक का यथार्थ

बीसवीं सदी के नब्बे दशक के शुरू में आई फ़िल्म 'लेकिन' कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण थी । इसके गीतों के बाद से ही हिन्दी फ़िल्मों में अच्छे मधुर गीतों का नया दौर शुरू हुआ । इस फ़िल्म से ही डिम्पल कपाड़िया के अभिनय का वह सिलसिला शुरू हुआ जिसमें उनकी अभिनय प्रतिभा ने नयी नयी ऊँचाइयाँ छुईं । इस फ़िल्म से राजस्थान की पृष्ठभूमि पर, राजस्थानी लोकधुनों पर बने गीतों, रेगिस्तान की तकरीबन पेन्टिंग की तरह फ़ोटोग्राफ़ी के जरिये, अच्छी फ़िल्मों का निर्माण शुरू हुआ । इस फ़िल्म को गीतों, डिम्पल की अभिनय क्षमता, परिधान सज्जा और रेगिस्तान की बेहतर फ़ोटोग्राफ़ी के चलते प्रसिद्धि मिली और इन्हीं क्षेत्रों में पुरस्कार भी मिले ।

लेकिन किसी फ़िल्म की जान यह सब नहीं होता । यह तो उसका तकनीकी पक्ष है । कोई फ़िल्म महत्वपूर्ण होती है सामाजिक यथार्थ की अपनी समझ और उसकी प्रस्तुति के चलते । इस नुक्ते नजर से लेकिन को देखने से पहले कुछ चीजों पर स्पष्ट हो लिया जाय । अस्सी के दशक में 'नया सिनेमा' या 'समानान्तर सिनेमा' या फिर 'कलात्मक सिनेमा' का चलन हुआ लेकिन दशक का अन्त आते आते उसका ज्वार उतर गया । इन फ़िल्मों में व्यावसायिक सिनेमा के मुकाबले यथार्थपरक फ़िल्मांकन पर जोर दिया गया । 'लेकिन' कलात्मक फ़िल्म होते हुए भी आपाततः यथार्थपरक फ़िल्म नहीं है । इस फ़िल्म में अनेक हिन्दी फ़िल्मों में प्रयुक्त लोकविश्वासों मसलन पुनर्जन्म, इस जन्म की प्रेमिका के अगले जन्म में मिलने या आत्मा के भटकने आदि का उपयोग किया गया है ।

हिन्दी क्षेत्र में यह विश्वास प्रचलित है कि आदमी की मृत्यु तक यदि उसकी कोई इच्छा अधूरी रह जाय तो आत्मा भटकती रहती है । इसी आत्मा को 'भूत' कहते हैं । 'भूत' का एक अर्थ अतीत भी होता है । फ़िल्म में गुलजार ने मानो इसी भूत को समझने की कोशिश की है । इसके लिए उन्होंने दो युगों को आमने सामने ला खड़ा किया है । एक तरफ़ है डिम्पल जिसके बारे में पहले ही दृश्य में कुछ लोकविश्वासों के प्रयोग से यह महसूस हो जाता है कि वह कोई जीवित लड़की नहीं बल्कि अशरीरी है । उसकी पलकें नहीं झिपतीं, वह ट्रेन के डिब्बे के बाहर निकल गयी लेकिन चिटकनी अन्दर से बन्द है । अपने बारे में वह एक जगह कहती है कि मैं एक फँसा हुआ समय हूँ । दूसरी तरफ़ है विनोद खन्ना; वह एक पुरातत्वविद है, आधुनिक समाज में रहता है किन्तु अपने काम के सिलसिले में अक्सर पुरातन से टकराता है । उसका दावा है कि वह समय को सूँघ लेता है । लेकिन डिम्पल कोई व्यतीत नहीं जिसे समझने में वह माहिर है । वह तो आधुनिक के भीतर फँसा हुआ अतीत है । समय की इन कोटियों के इन्हीं प्रतिनिधि पात्रों की अनेक मुलाकातों के जरिए पूरी कहानी सामने आती है ।

समय क्या है ? उसे हम आम तौर पर एक प्रवाहमान कालधारा के बतौर देखते हैं । इसके सूचक हैं- दिन और रात का होना, ॠतुओं का चक्र अथवा किसी की मृत्यु तो किसी का जन्म । लेकिन समय बदलता भी है । दो भिन्न समयों में इतना अन्तर होता है कि उन्हें हम दो युग भी कहते हैं । ऐसा लगता है कि समूची समाज व्यवस्था के बदल जाने से युग बदल जाता है । इसी आधार पर हम आधुनिक युग और प्राचीन युग जैसी कोटियों का निर्माण करते हैं । लेकिन सामाजिक परिवर्तन में कभी ऐसा नहीं होता कि पुराने और नये के बीच एकदम स्पष्ट विभाजक रेखा खींच ली जाय । पुराने के भीतर ही नये के बीज पड़ जाते हैं और नयी व्यवस्था के बन जाने के बाद भी पुराने के अवशेष बहुत सारी अभिरुचियों, चिंतन प्रणालियों और ढाँचों के रूप में बचे रह जाते हैं । डिम्पल आधुनिक में फँसे हुए किस समय का प्रतिनिधित्व करती है ?

वह खुद अपनी कहानी विनोद खन्ना से अनेक मुलाकातों में बयान करती है । दूसरी ही मुलाकात में विनोद खन्ना को वह जिस काल की यात्रा कराती है उसमें हम देखते हैं कि एक आदमी रस्सियों से बाँधकर लाया गया, उसे दीवार से लटकती जंजीरों में कसा गया । फिर उसे कोड़ों से पीटा जा रहा है और उसके खून के छींटे दीवार पर बिखर रहे हैं । इस तरह गुलजार हमें बताते हैं कि डिम्पल जिस काल में रहती है उसे हम राजे- रजवाड़ों के अत्याचारों से भरे हुए सामन्ती युग के नाम से जानते हैं । इस अत्याचार का शिकार वह आदमी तो है ही जिसे कोड़ों से पीटा जा रहा है खुद डिम्पल भी उसी अत्याचार का शिकार है । तीसरी मुलाकात में विस्तार से अपने ऊपर हुए जुल्म की दास्तान सुनाती है । वह और उसकी बहन अपने पितातुल्य उस्ताद जी से नाच गाना सीखती हैं । उसका बचपन का एक साथी भी है मैरू । एक दिन स्थानीय राजा भाई परम सिंह के दरबार में उसकी बहन गान और नृत्य कला का प्रदर्शन करती है । राजा उसे अपने पास ही रख लेना चाहता है । उस्ताद जी किसी तरह उसे भगा देते हैं । गुस्साकर राजा उस्ताद जी और डिम्पल को कैद में डलवा देता है । वह इन्तजार करता है कि कब डिम्पल जवान हो और उसे अपने हरम में डाल ले । उस्ताद जी उसे भी पीतल के एक बड़े हन्डे में बिठाकर भगा देते हैं । जिम्मेदारी मैरू की है कि वह उसे रेगिस्तान पार करा दे । एक बार रेगिस्तान पार हो जाये तो भाई परम सिंह की पहुँच से भी पार हो जायेगी । लेकिन मैरू इस काम में सफल नहीं हो पाता । डिम्पल रेगिस्तान में फँस जाती है । वह एक सदी से बैठी है लेकिन उस राह से कोई नहीं गुजरा जो उसे उस काल से बाहर खींच लाये । डिम्पल की यह पूरी कहानी अपनी बुनावट, ताजगी और तीव्रता के चलते लोककथाओं जैसी लगती है । गुलजार की खूबी इस लोककथा का ऐसा उपयोग है जिसमें डिम्पल सामन्ती व्यवस्था की शिकार सभी औरतों के दर्द की आवाज बन जाती है । वह जो एक बार शारीरिक शोषण का शिकार हुई तो आज तक मुक्त नहीं हो सकी । अब तक रेगिस्तान में उसे लोग मारते पीटते और डराते हैं । यह रेगिस्तान फ़िल्म में नहीं बल्कि एक एक आदमी के घर तक फैला हुआ है जहाँ सदियों से पथराई आँखें ल्ये बैठी औरत चौखट पर किसी की आहट का इन्तजार करती है जो उसे इस शाश्वत गुलामी से मुक्ति दिलाये ।

इस लम्बे इन्तजार के बाद विनोद खन्ना से उसकी भेंट होती है । विनोद खन्ना सिर्फ़ पेशे से पुरातत्वविद नहीं है बल्कि पुरातन से उसका लगाव या सहानुभूति आज के जमाने में भी पुराने ढंग के टेलीफ़ोन और पुराने ढंग के ताले के प्रयोग से प्रकट होती है । उसे डिम्पल से मिलने के बाद लगातार यह महसूस होता है कि वही उसका पूर्वजन्म का प्रेमी है । उसे यह भी लगता है कि डिम्पल का प्रेमी उसे आजाद कराने का जो काम पूरा न कर सका था उसकी जिम्मेदारी भी उसी पर है । इसी अहसास के साथ वह लगातार डिम्पल के करीब आता जाता है । लेकिन उसके इर्द गिर्द का बाकी समूचा आधुनिक युग ? बाकी सारे लोग तो अतीत के इस अवशेष को झूठ मानते हैं । उन्हें कतई यकीन नहीं है कि इस जमाने में भी अतीत की उस छाया का वजूद है । यदि उसकी कोई व्याख्या आधुनिक युग के पास है तो परामनोविज्ञान जैसा रहस्यमय शास्त्र ही । तथाकथित आधुनिकता मानो अपने जमाने में मौजूद पुरातनता को पहचानने से इन्कार कर देती है । विनोद खन्ना के साथ दिक्कत यह है कि वह युग के इन दोनों छोरों पर मौजूद है । वह डिम्पल के साथ उसे रेगिस्तान पार करा देने के लिये बेचैन मनुष्य भी है और आधुनिक समय का पुरातत्वविद भी । इसीलिए आश्चर्य नहीं कि हरेक मुलाकात के बाद बीच बीच में डिम्पल से उसका साथ छूट जाता है । यह पुरातनता से समूचे समाज को मुक्त कराने के प्रयासों का अधूरापन ही तो है । डिम्पल एक बार उससे कहती है कि जहाँ जहाँ विनोद खन्ना ने उसे छोड़ दिया था वह उसे फिर वहीं मिलेगी ।

बहरहाल, आधुनिक युग ने तो सामन्तवाद के इन बर्बर अवशेषों को पहचानने से इन्कार कर दिया लेकिन उस युग में लोगों ने इस जुल्म को चुपचाप बर्दाश्त नहीं किया था । असल में विनोद खन्ना भाई परम सिंह के महल से पुरातात्विक महत्व की चीजों को निकाल लाने के काम पर गया हुआ है । एक तरफ़ उसे डिम्पल अपने साथ महल के अतीत में ले जाती है दूसरी तरफ़ महल से चीजों का निकाला जाना भी जारी रहता है । अन्तिम बार जब वह डिम्पल के साथ महल के तिलिस्म में घुसा था तब तक उस्ताद जी ने कैद से डिम्पल को भगवा दिया था । इसके बाद गुस्से से बिफरा हुआ राजा उस्ताद जी को कत्ल करने के इरादे से उनकी कोठरी में घुसता है । इसके बाद की कथा हम सीधे नहीं जान सकते । चीजों को निकालने के काम में लगे मजदूर अचानक विनोद खन्ना को सूचना देते हैं कि महल में एक कब्र मिली है और उसकी खुदाई से एक खोपड़ी बरामद हुई है । विनोद खन्ना खोपड़ी का निरीक्षण करता है । स्वाभाविक तो यही था कि खोपड़ी उस्ताद जी की हो । लेकिन उसे खोपड़ी में एक सोने का दाँत मिलता है तो वह चौंक जाता है । उसने पिछली यादों में देखा था कि भाई परम सिंह का एक दाँत सोने का है । अचानक वह अपने आप से पूछता है कि क्या उस्ताद जी ने भाई परम सिंह को मार डाला था । यहीं उस्ताद जी जैसे सामन्ती युग में लड़ने वाले अन्तिम, लेकिन अकेले नहीं, बहादुर योद्धा की तरह दिखाई देते हैं ।

फ़िल्म यहीं खत्म हो जाती तो सच्चाई के अधिक करीब होती । 'लेकिन' की बुनावट जटिल है । वह वर्तमान और अतीत में एक साथ सफ़र करती है । इस जटिलता के बावजूद समय की समझ और स्त्री उत्पीड़न की समझ के चलते बेजोड़ है ।

Tuesday, March 8, 2011

लोकसभा चुनाव 2004 : कुछ विचार


इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन से मतदान के साथ हमारा देश विकसित देशों की सूची में शामिल होने के और करीब आ गया । संभवतः यह दुनिया का एकमात्र देश है जहाँ तकनीक में असंदिग्ध विश्वास के कारण इसे मतदान के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है । इसका आविष्कर्ता (संभवतः एडिसन) जब इसे लेकर सीनेट के तत्कालीन अधिकारियों के यहाँ गया था तो उन्होंने दल बदलकर मत डालने वाले प्रतिनिधियों की पहचान न हो सकने का तर्क देकर इसे खारिज कर दिया था । अमेरिका में भी आगामी राष्ट्रपति चुनावों में इसका प्रयोग होगा या नहीं, अभी नहीं कहा जा सकता । फिर भी तकनीक से अपने लगाव के कारण हमने इसका इस्तेमाल करना शुरू कर दिया । इस तरह हम परमाणु बम, निरक्षरता, भुखमरी जैसे मामलों में अग्रणी देशों की तरह इस मामले में भी अग्रणी हो गए हैं । अंग्रेजी की मशहूर मसल है- जहाँ देवदूत पाँव धरते थर्राते हैं, वहाँ अनाड़ी लपक पड़ते हैं । सच है दुनिया वालो कि हम हैं अनाड़ी ! ओपिनियन पोल और एक्जिट पोल के मामले में भी यही हुआ । जिन देशों में मतदान से सरकार बनती है उनमें से सिर्फ़ तीन देशों में इस पर प्रतिबन्ध नहीं है और उनमें से एक अमेरिका है । सो चुनाव आयोग और सरकार ने ऐसा बैडमिन्टन खेला कि मुद्दा ही गायब हो गया ।

भारतीय लोकतन्त्र के इतिहास में यह चुनाव कई कारणों से याद रखा जायेगा । आवारा और बड़ी पूँजी का लोकतन्त्र पर ऐसा प्रभाव शायद ही पहले कभी भारत में देखा गया हो । भाजपा के अनेक विरोधी सांप्रदायिकता विरोध को तात्कालिक और दूरगामी रणनीतियों में बाँटकर देखते हैं । किसी भी राजनीतिक अभियान के तात्कालिक कदम उसके दूरगामी लक्ष्यों को मजबूत करते हैं और दूरगामी लक्ष्यों की रोशनी में तात्कालिक योजनाएं बनाई जाती हैं । जब हम भाजपाई शासन में फ़ासीवाद की आहटें सुन रहे हैं तो ध्यान रखना चाहिए कि जहाँ कहीं फ़ासीवाद आया है वह संसदीय लोकतन्त्र के ही रास्ते आया है । कारण यह है कि पूँजीवाद आम तौर पर तो लोकतान्त्रिक तरीके से ही अपने हितों के पक्ष में सामाजिक सहमति बनाना पसन्द करता है लेकिन पूँजी की आम संरचना में वित्तीय पूँजी के प्रतिक्रियावादी हलकों का दबदबा बढ़ने से जो संकट पैदा होता है उसमें सर्वसत्तावादी राज्य की जरूरत पैदा होने लगती है । ऐसी स्थिति में पहला हमला लोकतन्त्र के दिखावे पर होता है । वैसे भी पूँजीवाद को जो सामन्ती विरासत मिली है उसके कारण पूँजीवादी लोकतन्त्र का आधार कमजोर ही रहा है । उसने अपने वर्गीय हितों को लोकतान्त्रिक माँगों की शक्ल में पेश तो किया लेकिन मजदूर वर्ग को अपनी पीठ पर देखकर सामन्ती ताकतों से समझौता कर लिया और उसके आचरण की नकल करने लगा । कौन नहीं जानता कि सार्वजनिक बालिग मताधिकार एक एक कदम लड़कर हासिल किया गया है अन्यथा पूँजीवाद की अपनी पसन्द तो विशेषाधिकार प्राप्त पुरुष समुदाय तक ही मताधिकार को सीमित रखना था । जब जब पूँजी को अबाध विकास की जरूरत पड़ती है वह मताधिकार को सीमित करने से शुरू कर सर्वसत्तावाद तक पहुँचती है ।

पूँजी के मनमाना शोषण के खिलाफ़ पैदा हो रहे जन विक्षोभ को दबाने के लिए भी ऐसे शासन की जरूरत पड़ती है । इसी सामान्य परिप्रेक्ष्य में हम लोकतन्त्र और चुनाव में हो रहे बदलावों तथा बुद्धिजीवियों की तंगनजरी की परीक्षा करने की कोशिश करेंगे ।

सबसे पहले पूँजी के चरित्र में आए बदलावों पर ध्यान दीजिए । अस्सी का दशक सिर्फ़ उदारीकरण के लिए नहीं बल्कि कम्प्यूटर क्रान्ति और सांप्रदायिकता के लिए भी मशहूर है । उदारीकरण ने आपाततः दो भिन्न परिघटनाओं को जन्म दिया । एक साथ हमने इक्कीसवीं और उन्नीसवीं सदी की ओर कदम बढ़ाए लेकिन इन दोनों में समकालिकता ही नहीं थी बल्कि सहसम्बन्ध भी था । इसी सहसम्बन्ध से कांग्रेस और भाजपा में घालमेल का दौर शुरू हुआ । एक तरफ़ राजीव गांधी हरेक हल के पीछे कम्प्यूटर लटकाते घूम रहे थे, दूसरी तरफ़ रामजन्मभूमि का ताला खोल रहे थे । कांग्रेसी नेता कर्ण सिंह विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष थे और आर एस एस कांग्रेस का प्रचार कर रही थी । नब्बे का दशक आते आते उदारीकरण का दर्शन और आचरण नये दौर में पहुँच गया और सकल घरेलू उत्पाद में प्राथमिक तथा द्वितीयक क्षेत्रों के मुकाबले तृतीयक क्षेत्र का हिस्सा बढ़ने लगा । सट्टा बाजार अर्थतन्त्र का संवेदी सूचकांक बन गया । चुनाव ज्योतिष (और वह भी फलित) तो अस्सी के दशक से ही शुरू हो गया था । अब इसमें सट्टा बाजार की भाषा भी घुस गई है । सटोरियों की शरण में बुद्धि ! सरस्वती के सिर पर लक्ष्मी सवार ! इस प्रक्रिया की परिणति अर्थतन्त्र में पूँजी पतियों की नयी नस्ल पैदा होने में हुई जिसके मुखिया रिलायंस और सहारा जैसे संस्थान थे ।

ठीक इस बदलाव के साथ ही हम लोकतन्त्र में हो रहे बदलावों को भी पढ़ सकते हैं । सबसे पहले राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त और गैर मान्यता प्राप्त दलों को अलगाया गया । फिर मान्यता प्राप्त दलों को ऐसी सुविधाएं दी गयीं जो छोटी पार्टियों को नुकसान पहुँचाती हैं । मसलन दूरदर्शन और रेडियो पर प्रसारण समय के आवन्टन में यह भेदभाव शुरू किया गया । समूचा शासक वर्ग दो ध्रुवीय चुनाव व्यवस्था लागू करने पर आमादा हो गया । गैर मान्यता प्राप्त दलों के प्रत्याशियों के मारे जाने पर चुनाव स्थगित होना बन्द हो गया । मान्यता प्राप्त दलों को मतदाता सूची मुफ़्त दी जाने लगी और अन्य प्रत्याशियों को पैसा लेकर ।

मतदान सम्बन्धी सुधारों की दूसरी खेप फ़ोटो पहचान पत्र से शुरू हुई । भारत जैसे देश में फ़ोटो पहचान पत्र उन्हीं का बनेगा जिनका स्थायी निवास हो जबकि बेघर लोगों की तादाद दिनो दिन बढ़ रही है । स्पष्ट है कि यह कदम फ़र्जी वोट रोकने की बजाए बेघर लोगों का मताधिकर सीमित करता है ।

तीसरी खेप इस बार के चुनावों में लागू हुई है । चुनाव की तिथियाँ तय करने में स्कूलों की परीक्षाओं का तो ध्यान रखा गया लेकिन दूर दराज काम करने जाने वाले खेतिहर मजदूरों की असुविधा को आराम से भुला दिया गया । कोढ़ में खाज यह कि बूथ रैशनलाइजेशन के नाम पर एक तिहाई बूथ रह गये । जिन्हें भी गाँव के बारे में थोड़ी जानकारी हो वे यह समझ सकते हैं कि इसका अर्थ मतदान केन्द्रों का सवर्ण बस्तियों में पहुँच जाना है । जिस भी गाँव में अनबन होती है वहाँ सवर्ण सबसे पहले गरीबों के बाहर जाने का रास्ता रोकते हैं । उनकी बस्ती से गुजरकर वोट डालने जाना साफ तौर पर दलितों की राजनीतिक भागीदारी पर उल्टा असर डालता है । ई वी एम की अविश्वसनीयता के साथ मिलकर ये कदम और कुछ नहीं छोटी पार्टियों को खत्म करने और मताधिकार को सीमित करने के सुनियोजित प्रयास हैं ।

इन कानूनी प्रावधानों के अलावा और भी तरह से तकनीक ने पार्टियों के चरित्र पर प्रभाव डाला है । दूरदर्शन पर राजनीतिक प्रसारण के साथ पार्टियों में चिकने चुपड़े चेहरों और तकनीकदाँ लोगों का महत्व बढ़ गया । फिर मतदाता को रिझाने के लिए फ़िल्मी सितारों की बाढ़ आई । इस बार तो दूरदर्शनी धारावाहिकों के कलाकारों और क्रिकेट खिलाड़ियों की आमद भी अभूतपूर्व पैमाने पर हुई । इनका महत्व आम राजनीतिक कार्यकर्ताओं के मुकाबले कई गुना निकला ।

इस बार चुनावशास्त्री (नजूमी) भी एक पार्टी की तरह बहस में उतरे । इस बहस में कई तरह के मुद्दे उठाए गए हैं इसलिए उन पर विस्तार से विचार करने की जरूरत है । मेरे एक मित्र ने कहा कि इस बार इन अटकलों पर इतने सवाल उठ खड़े हुए हैं कि अब इसकी जिन्दगी लम्बी नहीं होगी । लेकिन इस बात पर ध्यान दें कि फ़िल्मों में माफ़िया का पैसा लगा होने की सूचना से उनकी लोकप्रियता को शुरुआती झटका लगा लेकिन फ़िल्मों का बनना जारी रहा । इसी तरह क्रिकेट में सट्टेबाजी और फ़िक्सिंग का तथ्य सामने आने पर उसको शुरुआती झटका लगा लेकिन पूँजी निवेश इतना जबर्दस्त था कि क्रिकेट जारी रहा । ऐसे ही चुनावी फलित ज्योतिष सामान्य अर्थों में पत्रकारिता नहीं है । गंगा कोई नदी है ? कामधेनु क्या गाय है ? यह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है । इसमें बड़ी पूँजी लगी हुई है । अनेक बुद्धिजीवियों का जीवन इसी से चलता है । बोर्दू ने हरेक जगह दिखने की इच्छा को एक स्वतन्त्र शक्ति माना है जो बौद्धिकों को मौके के मुताबिक अपने आपको ढाल लेने के लिए विवश कर देती है ।

यह शास्त्र सबसे पहले दो ध्रुवीय राजनीतिक गोलबन्दी की पूर्वाशा करता है । प्रसिद्ध चुनाव ज्योतिषी योगेन्द्र यादव ने कहा कि बहुकोणीय मुकाबला इस शास्त्र के लिए दुःस्वप्न की तरह होता है । अगर दो से अधिक दलों के बीच काँटे की टक्कर दुःस्वप्न है तो स्वप्न क्या है यह कहने की जरूरत नहीं रह जाती । दरअसल ऐसी ही परिस्थिति में एक का नफ़ा दूसरे का सीधे नुकसान होता है । लेकिन दो ध्रुवीय राजनीति लोकतन्त्र के लिए बहुत अच्छी नहीं होती । पूँजीपतियों को यही प्रणाली पसन्द आती है क्योंकि इसमें सर्वानुमति बनाने में आसानी होती है, खरीदार कम होते हैं, बहुत मोलतोल नहीं होता । भारत जैसे देश में विभिन्न सामाजिक समुदायों के भीतर राजनितिक चेतना की बढ़ोत्तरी के साथ चुनावों का बहुध्रुवीय होना निश्चित है । यह शास्त्र बौद्धिकों के भीतर दो ध्रुवीयता की चाहत बढ़ाकर सच्चाई को समझने की उनकी शक्ति को कम करता है और छोटी पार्टियों को प्रोत्साहित करता है कि वे अपनी पहचान किसी बड़े संश्रय के साथ जोड़ लें ।

इन सब चीजों का गहरा सम्बन्ध सभ्य समाज (सिविल सोसाइटी) से भी है । ऐतिहासिक तौर पर यह सभ्य समाज पूँजीवाद के विकास के साथ अस्तित्व में आया और कमोबेश उसकी मनपसन्द शासन पद्धति के लिए मतनिर्माताओं की तरह काम करता रहा है । भारत में यह सभ्य समाज आखिर कितना सभ्य है ? इसमें कुछ अवकाश प्राप्त नौकरशाह, मोटी सुविधायें ग्रहण करने वाले पत्रकार, प्रोजेक्ट प्रेमी प्रोफ़ेसरान और एन जी ओ मालिकान शामिल हैं । आम तौर पर ये सभी अपने साम्राज्य में खुली प्रतियोगिता से भयभीत, प्रचंड जातिप्रेमी, आरक्षण विरोधी और खामोश क्रूरता के साथ काम करने वाले होते हैं । इन्होंने चुनाव ज्योतिष पर रोक लगने की सम्भावना के मद्दे नजर सूचना की स्वतन्त्रता और अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल उठाया ।

पैसे और रसूख के आधार पर बँटे हुए समाज में कोई भी अधिकार निरपेक्ष नहीं होता । ऐसे समाज में हरेक अधिकार और समानता असरदार के लिये अधिक और कमजोर के लिये कम में बदल जाती है । सी एन एन, रूपर्ट मरडोक, आब्जर्वर और एन डी टी वी का सूचना का अधिकार कई बार गरीबों के सूचना के अधिकार का गला घोंटने के काम आता है । संचार माध्यमों में किस हद तक समझौता परस्ती आई है इसका उदाहरण अरुन्धती राय के एक लेख का हश्र है । यह लेख आई जी खान स्मृति व्याख्यानमाला के अन्तर्गत दिया गया भाषण था । 'हिन्दुस्तान' में छपे उस लेख को जब 'हिन्दू' ने अंग्रेजी में छापा तो इसमें से रिलायंस और सहारा जैसे संस्थानों के नाम तो गायब थे ही, ऐसे संदर्भ भी गायब थे जो असुविधाजनक हो सकते थे । अब तो यही कहा जा सकता है कि सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ति ।

इन सबके बावजूद यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि तकनीकप्रेमी सुविधाभोगी शासक वर्ग के प्रचारक व्यापक भारतीय समाज की राजनीतिक जिन्दगी पर नियन्त्रण कर सकेंगे । इन चुनावों में जनसमुदाय ने अपनी हैसियत दर्ज करा दी है । यह मत सांप्रदायिकता के विरोध में तो होगा ही, उदारीकरण के समूचे दर्शन के विरोध में भी होगा । यह शासकों द्वारा जनता को भेंड़ मानकर मनमानी करने के विरोध में भी होगा । लेकिन एक और परिघटना पर ध्यान देना आवश्यक है ।

पिछले कुछ वर्षों में राजनीतिक नेताओं का एक स्वतन्त्र वर्ग तैयार हुआ है । तथाकथित स्थिरता इसी वर्ग की चाहत है । पाँच साल तक किसी भी स्थिति में सांसद और विधायक बने रहने से अनेक आर्थिक तथा अन्य सुविधाएं प्राप्त होती हैं । बहुत पहले इंग्लैंड में राजनीतिक सुधारों के लिए एक आंदोलन हुआ था जिसे चार्टिस्ट आंदोलन कहा जाता है । उसकी सारी माँगें पूरी हो चुकी हैं सिवा इस माँग के कि हरेक वर्ष चुनाव होना चाहिए । इस माँग के पीछे तर्क यह था कि सामाजिक स्थितियों में होने वाला परिवर्तन इसी तरह संसदीय राजनीति में प्रतिबिम्बित हो सकता है । आज कौन कहेगा कि एक जमाने में स्थिरता को भी लोकतन्त्र के लिये घातक समझा जाता था । स्थिरता का आकांक्षी यह राजनीतिक वर्ग पिछली सरकार के अनेक गुनाहों के बावजूद सत्ता में उसके बने रहने के अनेक कारणों में से एक महत्वपूर्ण कारण था ।

इसी प्रक्रिया में इस वर्ग के हित वित्तीय घरानों के साथ जुड़ते गये हैं । उत्तर प्रदेश के पिछले दिनों के अनुभव बताते हैं कि कोई भी राजनीतिक दल, कोई भी जनप्रतिनिधि ऐसा नहीं रह गया है जो बिकाऊ न हो । हो सकता है त्रिशंकु संसद की हालत में केन्द्रीय सरकार का गठन भी होटलों में तिजोरी लेकर बैठे उद्योगपति करें । एन डी ए की ही सरकार बने और पाँच साल तक चले इसके लिए तिजोरियाँ जब खुलेंगी तो क्या होगा कहना मुश्किल है ।

वैसे भी गैर भाजपाई सरकार से बहुत आशा करना आर्थिक नीतियों पर बनी आम सहमति की उपेक्षा करना होगा ।

Thursday, March 3, 2011

छोटे बदलावों के पक्ष में


इस विषय पर कोई भी बात शुरू करने की राह में कई तरह की बाधाएं हैं । आधुनिक भारतीय समाज के बुद्धिजीवी समुदाय का निर्माण जिन परिस्थितियों व प्रक्रियाओं के दरम्यान हुआ है उसके चलते किसी भी तरह के मूलगामी परिवर्तन को अपनी चेतना का अंग बना लेना उसके लिए कठिन है । इस समुदाय में ज्ञान विज्ञान के विविध अंगों के अध्ययन अध्यापन से जुड़ा तबका इसकी मुख्यधारा का निर्माण करता है । असल में दूसरे विश्व युद्ध के बाद की दुनिया सापेक्षिक रूप से स्थिर रही है । इस स्थिरता के दौरान ही ज्ञान विज्ञान की विविध शाखाओं में अध्ययन की पद्धतियों का निर्माण और विकास हुआ है । इसके चलते इस समुदाय में अनुशासन का विशेषीकरण और चिंतन में यथास्थितिवाद के तत्व गहरे जड़ जमाए हुए हैं । ज्ञान के विविध अनुशासनों की आंतरिक संरचना की स्वायत्तता पर आवश्यकता से अधिक बल देने से विशेषीकरण और अन्ततः ज्ञान और क्रिया के बीच भेद पैदा हो जाता है । ज्ञान का यह विशेष स्वरूप समाज में यथास्थितिवाद को ही मजबूत करता है । ज्ञान का यह दर्शन विशेष तरह के जीवन दर्शन को भी जन्म देता है जिसमें ज्ञान के सामाजिक सरोकार कमजोर होते हैं अथवा यूँ कहें कि संवेदनाहीन ज्ञान का प्रसार होता है । कोई भी सामाजिक सरोकार सामाजिक परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य की गैर मौजूदगी में पैदा ही नहीं हो सकता । सामाजिक सरोकार परिवर्तनेच्छा का ही फल होता है और यथास्थिति पैदा करने वाली ज्ञान पद्धति सामाजिक संवेदना को नष्ट करने वाले जीवन दर्शन को जन्म देती है । इस तरह यह समुदाय किसी बुनियादी परिवर्तन को अपनी चेतना का अंग नहीं बना पाता और जाने अनजाने यथास्थिति की ही शक्तियों को मजबूत करता है ।

दूसरी बाधा जड़ क्रान्तिकारियों की ओर से है । इनका सबसे ज्वलन्त समुदाय क्रान्ति के नीचे किसी परिवर्तन को स्वीकार ही नहीं कर पाता । इस समुदाय की भावना और चेतना का निर्माण रूस और चीन की क्लासिकल क्रान्तियों की आँच में हुआ है । अतः वह भारत में भी उसी क्रान्ति के नये संस्करण की आशा करता है । जो कुछ व्यवस्थित क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी हैं उन्होंने क्रान्ति के नियामक तत्व वर्ग संघर्ष को एक स्वातत्त ज्ञान पद्धति में बदल डाला है । यह पूरी पद्धति अंततः व्याख्या के लिये व्याख्या बनकर रह जाती है और इतिहास के कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाती । क्यों ऐसा होता है कि कुछ काल उत्थान के होते हैं और कुछ पतन के जबकि वर्ग संघर्ष दोनों कालों में मौजूद रहता है ? क्यों ऐसा होता है कि टकराव के बाद एक ऐसा सामाजिक संश्लेष पैदा होता है जो पहले के समाज से भिन्न और संघर्षरत दोनों तरह की शक्तियों की कल्पना से परे होता है ? द्वन्द्ववाद की भोंड़ी समझ के आधार पर किसी वास्तविक परिवर्तन को न तो समझा जा सकता है न ही उसे अंजाम दिया जा सकता है ।

प्रश्न इस विन्दु पर टिका हुआ है कि सामाजिक आलोड़न की प्रक्रिया क्या है ? हमारे समाज का निर्माण, और जब मैं समाज कह रहा हूँ तो इसमें समाज के ज्ञानात्मक प्रतिबिम्ब भी शामिल हैं, एक बहुत ही जटिल रचना विधान है । विभिन्न परिघटनाएं और प्रक्रियाएं इतिहास के किसी मोड़ पर पैदा होती हैं और फिर अपने विकास का स्वायत्त मार्ग पकड़ती हैं लेकिन वे एक दूसरे से जुड़ी भी होती हैं । एक संरचना में आने वाला परिवर्तन दूसरी अनेक संरचनाओं में परिवर्तन का कारण बन जाता है । इस तरह कुछ प्रक्रियाएं आगे बढ़ जाती हैं कुछ पीछे रह जाती हैं । इसी को एंगेल्स ने इतिहास की प्रसव वेदना कहा है । इसीलिए किसी भी परिवर्तन को उससे जुड़े हुए अन्य क्षेत्रों में आये परिवर्तनों से अलग करके नहीं देखा जा सकता । हम कह सकते हैं कि समाज की बुनियादी संरचनाओं मेंसे किसी एक का विकास इस हद तक हो जाए कि वह अन्य सभी संरचनाओं को अपना साथ पकड़ने के लिए विवश कर दे तो समग्र सामाजिक आलोड़न की एक प्रक्रिया आरम्भ होती है जिसमें समाज की मुख्य धारा से विच्छिन्न शक्तियाँ, जिन्हें सोई हुई शक्तियाँ भी कहा जाता है, शामिल हो जाती हैं और परिवर्तन के उपरान्त बननेवाला समाज किसी एक वर्ग ही की कल्पना से स्वतंत्र एक नई भूमि पर खड़ा होता है । इसके विरोध में असफल क्रान्तियों का तर्क दिया जा सकता है किन्तु याद रखना चाहिए कि सफल और असफल क्रान्तियों में सूक्ष्म अन्तर होता है क्योंकि कोई भी क्रान्ति अन्तिम नहीं होती ।

इस गम्भीर पृष्ठभूमि की आवश्यकता मात्र इसलिए थी कि जिन परिवर्तनों की बात मैं करने जा रहा हूँ उनकी समझ के लिए जरूरी सैद्धान्तिक आधार तैयार कर सकूँ । इनमें से एक बदलाव तो संघीयता का उदय है । इस परिवर्तन की मैं विशेष रूप से इसलिए चर्चा करना चाहता हूँ कि पिछले लगभग दो सौ सालों से पहले अंग्रेजों और बाद में कांग्रेस के शासन की निरन्तरता में केन्द्रीय शासन की धारणा ही प्रमुख रही है । असल में सामन्ती युग में विराट राष्ट्र की परिकल्पना स्वतःस्फूर्त ढंग से निर्मित सामाजिक ढाँचे से अपेक्षाकृत स्वतन्त्र सैन्य आधारित उपभोगजीवी राज्यतन्त्र की परिकल्पना थी । किन्तु पूँजीवाद ने सामाजिक जीवन को सांस्कृतिक इकाइयों के आधार पर गठित किया और इस तरह गठित उन सामाजिक समूहों के स्वतन्त्र विकास की इच्छा ने राजनीतिक रूप ग्रहण कर राष्ट्रवाद के विकास या छोटी छोटी राष्ट्रीय इकाइयों के गठन का मार्ग पकड़ा । इसी तरह यूरोप की सांस्कृतिक एकता और उसके राष्ट्रों की स्वतन्त्रता के माडल का विकास हुआ । भारत में मराठा, सिख आदि राष्ट्रों के गठन की यह प्रक्रिया शुरू ही हुई थी कि अंग्रेजों ने इसमें हस्तक्षेप किया और वह आधुनिक दमनकारी केन्द्रीकृत राज्यतन्त्र निर्मित किया जो ऊपर से एकीकरण की विचारधारा पर टिका हुआ था । इसी विचारधारा की धारावाहिकता चालीस वर्षों के शान्त कांग्रेसी शासन के दौरान बनी रही । इस विचारधारा की जड़ें कितनी गहरी हैं इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अनेक बुद्धिजीवी कांग्रेस विरोध के बावजूद राष्ट्रीय एकता के कांग्रेसी संस्करण को ही स्वीकार करते हैं । संघीयता की यह धारा एक समान गति से आगे नहीं बढ़ी, बल्कि पिछले तीसेक सालों में अनेक उतार चढ़ावों से गुजरते हुए इसकी धारावाहिकता बनी रही है ।

इसके अलावा कुछ और घटनाओं- परिघटनाओं की ओर मैं आपका ध्यान खींचना चाहता हूँ । सती कांड के सर्वव्यापी विरोध से जो स्त्री उभार दिखाई पड़ा था, वह परिपक्व होकर अब एक धारा का रूप ले चुका है । इसी तरह रिडल्स आफ़ हिन्दुइज्म प्रकरण से दलित चेतना का उभार दिखाई पड़ा था । उसकी भी निरन्तरता बनी हुई है । भारतीय राज्य के सांप्रदायिकीकरण के चलते मुस्लिम समुदाय में राज्यतन्त्र विरोधी चेतना पैदा हुई । बाबरी मस्जिद के टूटने और बाद में न्यायालयी फ़ैसले के जरिए उसको वैधता मिलने से वह और बढ़ी है । किसानों की शक्ति का जो उभार फ़ार्मर आंदोलन में दिखाई पड़ा था वह अब भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलनों की देशव्यापी लहर का रूप ले चुका है । ये सभी अलग थलग चीजें नहीं, बल्कि अस्सी के दशक में शुरू हुए उदारीकरण के आगे बढ़ने के साथ साथ ही एक बड़े सामाजिक उत्तर की तरह बढ़ती रही हैं ।