Tuesday, June 3, 2025

पंजाब, युद्ध और विभाजन

 

              

                                   

अब्दुल्ला हुसैन का लिखा उर्दू उपन्यास ‘उदास नस्लें’ 1963 में पहली बार छपा था । छपते ही इसे प्रसिद्धि मिली । राजकमल प्रकाशन से इसका हिंदी अनुवाद 2006 में छपा । इसके अनुवादक मशहूर कवि सुरजीत पातर थे । असल में यह अनुवाद की जगह नागरी लिप्यंतर था । इसलिए प्रत्येक पृष्ठ पर उर्दू शब्दों के अर्थ भी दिये गये हैं । 2013  में इसका पेपरबैक प्रकाशन करने के बाद 2023 में फिर से छापा गया है । अब्दुल मुग़नी ने इस लिप्यंतर का संपादन किया है । शायद लिप्यंतर होने के कारण ही लेखक का नाम अब्दुल्लाह हुसैन है । इससे पहले 1970 में ही द्वारकानाथ भार्गव का किया अनुवाद भार्गव एण्ड कंपनी इलाहाबाद से छपा था । इसकी प्रस्तावना ओंकार शरद ने लिखी है और तिथि निराला जयन्ती की डाली गयी है । ये संदर्भ ही इसकी महत्ता के परिचायक हैं । 1980 में इसका दूसरा संस्करण हुआ तो तीसरा 2000 में छपा । प्रस्तुत लेख में इसी अनुवाद से अधिक मदद ली गयी है । वर्तमान युद्धोन्माद के माहौल में इस उपन्यास को नयी निगाह से देखना जरूरी हो गया है । उर्दू और पाकिस्तान विरोध के मौजूदा माहौल में इस तथ्य पर जोर देना जरूरी है कि इन दोनों से इसका रिश्ता है । छपने के अगले साल ही पाकिस्तान का सर्वोच्च कथा सम्मान आदम जी पुरस्कार इसे मिला था ।      

लेखक ने उपन्यास के चार अध्याय बनाये हैं । दोनों अनुवादों में शुरू के तीन नाम समान हैं । पहला ब्रिटिश इंडिया है । दूसरा हिन्दोस्तान है । तीसरा 1970 वाले में बटवारा तो 2006 वाले में बँटवारा है । आखिरी खंड 1970 वाले में उपसंहार है तो 2006 वाले में इख़्तितामिया है । मूल उपन्यास में सभी अध्यायों के शीर्षक के साथ कुछ उद्धरण रहे होंगे जिन्हें 1970 वाले अनुवाद से हटा दिया गया है लेकिन 2006 वाले लिप्यंतर में वे मौजूद है । पहले अध्याय के साथ बाइबल की सूक्ति, दूसरे अध्याय के साथ मीर का शेर, तीसरे अध्याय के साथ कुरान की आयत और आखिरी अध्याय के साथ टी एस इलियट की कविता का अंश है । इन संदर्भों से ऐसा लगता है कि लेखक को इस उपन्यास की विराटता का अनुमान था ।

उपन्यास विधा का अभ्यास करने वालों के लिए भी इसमें सभी महान उपन्यासों की तरह शिल्प के स्तर पर सीखने लायक बहुत कुछ है । चार मंजिला इमारत की तरह गढ़े इस उपन्यास की न केवल प्रत्येक मंजिल बेहद आकर्षक है बल्कि प्रत्येक अध्याय एक के बाद दूसरे ऐसे तीखे प्रसंगों से सजा हुआ है कि पढ़ने वाला उनमें डूबता चला जाता है । आपका साबका शुरू में ही अविभाजित पंजाब के देहाती जीवन से होता है जिसके बारे में कभी कृष्णा सोबती जी ने कहा था कि असली पंजाबी औरत पंजाब के गांवों में पायी जाती है । दिल्ली के पंजाबी समुदाय की स्त्री को वे खांटी पंजाबी औरत नहीं मानती थीं । स्वाभाविक है कि समय आजादी से पहले का है । उस समय का पंजाबी देहात सिखों और मुसलमानों की मिली जुली आबादी का था । खेतों में कड़ी मेहनत करने वाले किसान की जिंदगी खेत से जुड़े फ़सादों में हत्याओं और फिर बदले की आदी थी । इस जीवन में औपनिवेशिक तंत्र का हस्तक्षेप हथियार छीनने और व्यवस्था कायम करने के मकसद से हुआ लेकिन इसने किसानों की आजादी छीन ली थी । इस तरह की घटनाओं ने आजादी की तत्कालीन लड़ाई को देहातों तक फैलाने में मदद की थी । बहरहाल एक किसान परिवार के पुत्र नईम को एक बड़े खानदानी रईस के घर मेहमान के बतौर जाने का मौका मिला तो उस पार्टी के वर्णन में हमें गोखले और एनी बेसेंट से मिलने का अति दुर्लभ अवसर मिलता है । उस पार्टी में ही हम देखते हैं कि एक हिंदुस्तानी रईस ने भारतीयों के साथ बैठने की जगह अंग्रेजों की सोहबत पसंद की जबकि एनी बेसेंट ने हिंदुस्तानी संगत में रहना पसंद किया । बहस के दौरान किसान पुत्र के मुख से तिलक के समर्थन में कुछ वाक्य निकल जाते हैं । कहने की जरूरत नहीं कि तिलक उसी राजद्रोह नामक अपराध के शुरुआती शिकारों में रहे हैं जो आजकल सरकार की कृपा से आम हो गया है । पता चलता है उनका नाम उस जमाने के इज्जतदार लोगों में लेना आज के किसी अर्बन नक्सल के नाम लेने के गुनाह की तरह माना जाता था । उसी पार्टी में नईम की मुलाकात अज़रा बेगम से होती है जिनके साथ उसके प्रेम की कहानी टूट टूटकर उपन्यास के अंत तक चलती रहती है । पार्टी में भागीदारी के बाद उपन्यास नईम को लेकर गांव चला आता है । 

हथियार और चोरी जैसी घटनाओं पर देहात में पुलिस का नजर आना मामूली बात थी लेकिन प्रथम विश्वयुद्ध में युवकों की भर्ती के लिए फौजी अफ़सर का आना विशेष था । जबरन गांवों के नौजवानों को फौज में भर्ती कर लिया जाता है और पाठक भी उन सिपाहियों के साथ लड़ाई के मोर्चे की ओर चल देता है । युद्ध से भी अधिक खतरनाक युद्ध का वातावरण होता है इसलिए इसे इस समय विशेष रूप से पढ़ा जाना चाहिए अकारण नहीं कि जिन देशों और समाजों ने युद्ध की विभीषिका झेली है वे आम तौर पर युद्ध के विरोधी होते हैं जब भी भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध का माहौल बनने लगता है पंजाब के लोग एकसुर से उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं हालिया तनाव के समय यह भी कहा गया कि युद्ध के समर्थकों की मात्रा सरहद से दूरी पर निर्भर होती है जो इलाका युद्ध के वास्तविक क्षेत्र के जितना नजदीक होता है वहां युद्ध का उतना ही तीखा विरोध होता है

किसान युवकों की फौजी के तौर पर जो मानसिकता होती है उसको भी समझने में उपन्यास हमारी बहुत मदद करता है जिस युवक का जिक्र ऊपर कर आये हैं वह नईम नामक युवा फौज में भर्ती हो जाता है फौजी की हैसियत उसकी नजर में सामाजिक रूप से ऊपरी तबकों में दाखिल होने की राह बनाती है । नईम को पार्टी में जिस हीनता का बोध हुआ था उससे उबरने का एक तरीका उसके लिए फौजी जीवन भी था । एक हद तक इसके सहारे वह ऊपरी तबकों तक पहुंचा भी लेकिन इस नजदीकी में तनाव हमेशा बना रहा । युद्ध की भयावहता का वर्णन तो इसमें विस्तृत और जीवंत तो है ही, योद्धा की दिमागी हालत का इससे बेहतर चित्रण बहुत कम हुआ है । लड़ाई के मोर्चे पर ऊब की लम्बी अवधि से हिंसा के जरिए निजात मिलती है । यह हिंसा शत्रु देश के सिपाही के प्रति ही नहीं होती वरन सभी सिपाहियों का अमानवीकरण कर देती है । युद्ध में जिनकी मौत होती है उनके शवों की जांच न होने से सिपाहियों की यह हिंसक ऊब बहुधा अपने ही पक्ष के अफ़सरों की हत्या करा देती है । शत्रु देश के जिस भी सिपाही की मौत हो जाती है सबसे पहले उसके पीने के पानी पर कब्जा किया जाता है । मोर्चे पर पानी और सिगरेट सिपाही की ऊब के सबसे बड़े साथी होते हैं । इन नौजवान फौजियों के साथ पाठक भी मालगाड़ियों, बंदरगाहों, पानी की जहाजों से होते हुए यूरोप के नामालूम कस्बों और दूर दूर तक फैले मोर्चों की सैर करता है । इस युद्ध ने एक युवा पीढ़ी को अचानक समझदार बना दिया था । उस समय के बाद से ही राजनीति, विचार, साहित्य और कला की दुनिया में जो अंतर्राष्ट्रीयता देखी जाती है उसकी जड़ें इस पीढ़ी के इन्हीं अनुभवों की व्यापकता में गहरे धंसी हैं ।

उपन्यास में युद्ध के मैदान की हिंसा और अफरातफरी का चित्रण प्रमाणिक प्रतीत होता है । इसके साथ युद्ध की विभीषिका के वर्णन भी हिला देने वाले हैं । उपन्यास का एक कथन पाठक का बहुत दूर तक पीछा करता है कि बहुत सारे लोगों की जान लेने की अपेक्षा एक सिपाही की जान लेना तकलीफदेह होता है । इसका उदाहरण देते हुए लेखक कहता है कि चीटियों की कतार को मसल सकते हैं लेकिन एक चींटी को मारना मुश्किल होता है । युद्ध के मैदान में नईम को मिली यह सीख बाद के दिनों में भी उसके साथ रहती है । युद्ध से लौटकर जब वह क्रांतिकारियों के एक दल में शामिल हो जाता है तो एक व्यक्ति की हत्या से इसी तरह एक कार्यकर्ता को परेशान देखता है ।

नईम के साथ पाठक युद्ध के यूरोपीय और अफ़्रीकी मैदान की यात्रा करता है और इस क्रम में उन इलाकों के मौसम तथा जीव जंतुओं के अतिरिक्त निवासियों की वेशभूषा और आचार व्यवहार से भी परिचित होता चलता है । बारिश और बर्फबारी के बाद खंदकों की कीचड़ और जंगलों में शेर के शिकार बनने से लेकर दलदल में गुम होने तक दिल दहलाने वाले दृश्य देर तक दिमाग में बने रहते हैं । वास्तविक युद्ध में औचक हमलों के जीवत वर्णन इस उपन्यास में भरे पड़े हैं । ऐसे ही एक हमले में नईम का दायां बाजू उड़ जाता है और उसे इसका पता अचानक चलता है । इसके बाद अस्पताल में उसे लाया जाता है जहां उसी की टुकड़ी द्वारा संगीन से घायल किया हुआ एक जर्मन किसान युद्धबंदी के रूप में मिलता है । वह नईम के लिए लकड़ी का नकली हाथ बनाता है । नईम को उसकी बहादुरी की वजह से क्रास मिलता है और गांव में खेती के लिए जमीन भी सरकार द्वारा उपलब्ध करायी जाती है ।

गांव आने के बाद नईम का साक्षात्कार जमींदारी प्रथा की भयावहता से होता है जब उसके पड़ोसी किसान से जमींदार की खरीदी गयी मोटर के लिए मोटराना नामक टैक्स वसूल किया जाता है दे पाने की हालत में उसके साथ दुर्व्यवहार होता है जमींदार वही हैं जिनके घर पर हुई पार्टी में फौज में जाने से पहले नईम शरीक हुआ था उसके विक्षोभ को लक्ष्य करके स्थानीय स्कूल के मास्टर उसे जमींदारी की व्यवस्था खत्म करने के काम में मशगूल क्रांतिकारियों के पास भेज देते हैं नईम उन क्रांतिकारियों की बम विस्फोट आदि करने की रणनीति से सहमत नहीं होता और कांग्रेस के जनांदोलन की नीति के पक्ष में उनसे बहस करता है क्रांतिकारी उस पर शक करने लगते हैं तो उनके साथ की एक लड़की की मदद से वह भाग निकलता है इधर देश में सांप्रदायिक माहौल बनने लगा था जिसका शिकार वही मास्टर होता है जिसने उसे क्रांतिकारियों के पास भेजा था लेखक उस समय के क्रांतिकारियों के सांप्रदायिकता विरोध को इस घटना के सहारे उजागर करता है

किसानी के काम में डूबे नईम को एक बार किसी और की शादी की दावत में जमींदार के घर रोशन महल जाना पड़ता है । वहां उसकी मुलाकात तीसरी बार अज़रा बेगम से होती है । इस मुलाकात के बाद उनके लिए आपस की मुहब्बत से जी चुराना संभव नहीं रह गया और रोशन महल के इतिहास में पहली बार किसी किसान के लड़के के साथ शादी हुई । यह शादी अज़रा बेगम की जिद की वजह से ही हो सकी । शादी के बाद वे रहने के लिए नईम के गांव आ तो गयीं लेकिन बीच बीच में मन ऊबने पर दिल्ली हो आया करती थीं । एक बार बहुत अरसे के बाद गांव आयीं तो वहां की जिंदगी से लगाव हुआ । नतीजे के तौर पर घर पर तख्ती लगी कि यहां नईम और उसकी बीवी रहते हैं । दिल्ली की रिहाइश में अज़रा को औरतों के साथ पिकेटिंग का मौका मिला था और उससे इज्जत हासिल हुई थी । नईम भी कांग्रेस के कामों में रुचि लेता था । इसी बीच पाठक को जलियानवाला बाग हत्याकांड की खबर दी जाती है । इस हत्याकांड की छानबीन के लिए कांग्रेस ने जो कमेटी बनायी उसमें दोनों शामिल हो जाते हैं । कमेटी घटनास्थल का दौरा करने गयी तो पाठक को एक मछुआरे के हवाले से हत्याकांड की भयानक तस्वीर नजर आती है । इस तस्वीर का कोई भी वर्णन उपन्यास के लिखित का असर नहीं पैदा कर सकता । इसकी खूबी एक कामगार की आंखों से दिखी हकीकत है । काम खत्म करके रेल से वापस लौटते हुए अज़रा और नईम को जलियानवाला बाग हत्याकांड को अंजाम देने वाले डायर के दर्शन होते हैं जो अन्य अंग्रेज साथी मुसाफिरों के साथ शैम्पेन पी रहा था और अपनी बहादुरी के किस्से इतराकर सुना रहा था । उसे देखते ही नईम के हाथ उसे दंडित करने के लिए बेकल हो उठे थे जबकि अज़रा उसके व्यक्तित्व से प्रभावित हुई थी । जो भी हो, इस हत्याकांड ने बंग विभाजन की तरह ही भारतीय जनता के भीतर अंग्रेजी शासन की वैधता को पूरी तरह नष्ट कर दिया था ।         

छुआरे ने घटना के बयान में जो खास बात कही वह लोगों के दिलों में लगी हुई आग थी । इस तरह का सामूहिक जन विक्षोभ उसने पहले कभी महसूस नहीं किया था । असल में एक गोरी औरत के साथ भीड़ ने दुर्व्यवहार किया था । शासन ने उस इलाके से लोगों को रेंगकर गुजरने का आदेश दिया और इस पर अमल के लिए उनके सिर के ऊपर से गोली चलायी जाती ताकि सिर उठाते ही उस पर गोली लगे । शासन के इस रुख ने आग भड़का दी । विरोध जाहिर करने के लिए भारी जन समुदाय उमड़ पड़ा । उन पर गोलियों की बारिश हुई । भागकर लोगों ने दीवार फांदने की कोशिश की तो जिस तरह गोली के शिकार हुए उसका बयान करते हुए मछुआरे ने बताया कि लगता जैसे दीवार से सूखने के लिए ढेर सारे कपड़े टांग दिये गये थे । हताहत लोगों की संख्या के बारे में भी शासन के अनुमान और जनता के अनुभव के बीच खासा अंतर था । लोगों के सिर कुचलने की इसी बहादुरी का बखान डायर गोरे फौजियों के साथ कर रहा था और जांच आयोग को फालतू साबित कर रहा था । इस तथ्य को बताने की जरूरत नहीं कि उसकी बर्खास्तगी के बाद इंग्लैंड में उसकी मदद के लिए चंदा एकत्र किया गया था ।

जलियानवाला ने जो आग जनता में फैला दी उसने अत्याचार बरदाश्त करने के आदी हो चुके किसानों को जगाना शुरू कर दिया । किसानों के इस जागरण को लेखक ने जिस काव्यात्मक भाषा में व्यक्त किया है उसके लिए उपन्यास को पढ़ने का कोई विकल्प नहीं है । उनको जगाने में लगे कार्यकर्ताओं की बातें उनके मन में संदेह के बावजूद घर करने लगीं । अपने साथ हो रहे व्यवहार को अत्याचार मानने में उनको बहुत समय लगा और उपन्यास देश की आजादी के आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि के रूप में किसान की चेतना में इस बदलाव को रेखांकित करता है । यह बदलाव लाने में नईम के साथ शुरू में अज़रा भी शामिल रहती है लेकिन धीरे धीरे वह अलग होने लगती है क्योंकि देहात के किसानों का जीवन उसका जीवन नहीं था । नईम इस रास्ते पर बढ़ता जाता है और एक दिन किसानों की एक सभा में उसे भाषण देना पड़ता है । प्रदर्शन और उस पर दमन का चित्रण भी बेहद नायाब है । नईम के लिए वह अनुभव उसे बदल देने वाला साबित होता है । कहां तो वह खुशहाल जिंदगी बिताने की स्थिति में आ गया था और कहां इन सबके चक्कर में जेल जाने की नौबत आ गयी ।

लेखक ने कहा है कि उस जमाने के इस जागरण को स्वराज नामक एक शब्द ने प्रतीकित किया । इस एक अमूर्त आकांक्षा ने इन पिछड़े किसानों की कल्पना मे जड़ जमा ली और ब्रिटिश साम्राज्य के लिए शासन को स्थिर रखना असम्भव बना दिया । आज भी इस आकांक्षा की लोकप्रियता का ही कमाल है कि साम्राज्यवाद के सामने समर्पण करने में शासक थर थर कांपते हैं और अपने निर्लज्ज समर्पण को भी अक्सर बहादुरी की भाषा और भंगिमा में पेश करने के लिए मजबूर हो जाते हैं । उपनिवेशक साम्राज्य से मुक्ति के हमारे राष्ट्रीय प्रयास को तमाम तरीकों से मिटाने की कोशिशों के बावजूद उसकी मौजूदगी देश के कोने कोने में अब भी मिल जाती है ।

नईम का जेल का जीवन खूब विस्तार से वर्णित हुआ है । इस वर्णन की सबसे दर्दनाक घटना उसके लकड़ी के हाथ की जब्ती है । जेल नामक यह जगह औपनिवेशिक शासन ने स्वाधीनता प्रेमियों को बेइज्जत करने के लिए ही तैयार की थी । साम्राज्यवाद की यह देन दुनिया भर में फैली और इसका विरोध सभी न्यायप्रिय आंदोलनों में अनिवार्य तौर पर होता है । सभी समाजों में जेल भेजे जाने वालों का अनुपात वहां से सामाजिक ढांचे को उलटी ओर से प्रतिबिम्बित करता है और इसीलिए उसका खात्मा विषमतामूलक सामाजिक ढांचे के उन्मूलन के लिए जरूरी माना जाता है । किसी अमूर्त मानवता के कारण नहीं, बल्कि इसी ठोस वजह से मृत्युदंड का भी विरोध होता है । आंकड़े बताते हैं कि अपराधीकरण, जेल और सजा का सीधा रिश्ता समाज में निचली हैसियत वालों से होता है । जेल का यह आतंक तब पूरी तरह टूट जाता है जब आजादी के लिए लड़ने वालों की आमद शुरू होती है । नौजवानों की उमंग से औपनिवेशिक तंत्र का टकराव होता है और जोश से भरे युवकों ने कोड़े मारने जैसी क्रूर सजा को भी इंकलाब जिंदाबाद के जोशीले नारों से फीका कर दिया ।

उसके जेल में रहते हुए ही अज़रा उससे मिलने आयी थी वहीं उसे नईम की लकड़ी की बांह के होने का पता चला था उससे मिलने से पहले वह कांग्रेस द्वारा साइमन कमीशन के विरोध में आयोजित जुलूस में भी शरीक हुई थी इस जुलूस में उसके सिर पर घोड़े की नाल लगने से खून भी निकला था इस प्रचंड विरोध के कारण कमीशन के सदस्य रेलगाड़ी से उतरे ही नहीं यह घटना अज़रा के भीतर आते बदलाव का द्योतक है इससे पहले भी एक बार वह नईम के साथ प्रिंस चार्ल्स को देखने कलकत्ते गयी थी तो वादे के मुताबिक उसे प्रदर्शन के लिए लिखे पोस्टर को नईम को पकड़ाना था लेकिन प्रिंस चार्ल्स को देखने में मगन उसने ऐसा किया ही नहीं अलग बात है कि उस यात्रा में जनता ने बेहद सृजनात्मक तरीके अपनाकर विरोध जताया था जिन रास्तों से उनकी सवारी गुजरी उन पर दीवारों पर नारे रोशनी से लिखे नजर आये गलियों से सहसा सड़क पर लोग गये और अपने भूखे होने का इजहार करने लगे उस समय के अज़रा के बेढंगे व्यवहार के मुकाबले इस बार उसका कांग्रेस द्वारा आयोजित प्रदर्शन में भाग लेना और घायल होना उसके भीतर के बदलाव की सूचना देता है प्रदर्शन में उसकी शिरकत का पता उसके पिता को भी लग जाता है क्योंकि उसके भाई ने उसे देख लिया था अब अज़रा के लिए पिता के साथ रिश्ते पहले की तरह नहीं रह गये

इधर नईम की जेल से रिहाई होती है और वह अज़रा के घर जाता है सरकार के विरोध की वजह से उसका क्रास छीन लिया जाता है और खेती के लिए दिये गये खेत भी उसके कब्जे से निकल जाते हैं इस बदलाव ने उन दोनों के रिश्तों की स्थिति पहले जैसी बना दी हीनता बोध ने नईम को अज़रा के साथ सामान्य व्यवहार करने से रोका और उनके बीच बेतरह झगड़ा हुआ जिसमें हैसियत का भी अपमानजनक जिक्र आया । अज़रा को मुस्लिम लीग के जलसे में जाना था । इसके दो गुट मिलकर एक हो रहे थे । नईम भी गया लेकिन वहां केवल अज़रा ही बिना हिजाब के थी । जलसे के वर्णन में लेखक ने मुस्लिम समुदाय की भौगोलिक, सांस्कृतिक और वर्गीय भिन्नताओं को बखूबी उभारा है जिनके बावजूद वे धार्मिक अस्मिता के कारण राजनीतिक रूप से एकत्र हो गये थे । इस जलसे के विस्तृत वर्णन के साथ महज एक पंक्ति में गांधी द्वारा दांडी में नमक कानून तोड़ने का जिक्र आता है । यहां तो एक पंक्ति में जिक्र है लेकिन नईम के गांव में कड़ाह में खारे कुएं का पानी उबालकर ग्रामीण नौजवान जब नमक बनाते हैं तो उस नमक का लगभग धार्मिक जैसा खास महत्व बन जाता है और उस नमक के बदले में बहुत सारा अनाज देकर आसपास के ग्रामीण भी लेने आते हैं । दोनों घटनाओं के इस तरह के वर्णन से लेखक ने बहुत सारी बातें संप्रेषित करने की कोशिश की है ।

नईम की एक यात्रा फौज के दिनों के साथी के पुत्र की शादी के मौके पर पेशावर को होती है और पाठक के सामने वृहत्तर हिंदोस्तान की तस्वीर खुलती है । अफ़गानिस्तान के कबीलाई समुदाय में सबके कंधों पर बंदूकें लटकी होती हैं । शादी की स्थानीय रस्मों का भी लेखक ने सजीव चित्रण किया है । दूल्हे के घर से चली बारात एक खुले मैदान में आयी जिसमें दूल्हन के पक्ष के लोग स्वागत में सामने खड़े थे । दोनों ओर ढोल बज रहे थे जिनसे जोश पैदा होता था । नईम को लगा कि कटाई के समय भी किसानों में जोश भरने के लिए इसी तरह ढोल बजते हैं । रस्म के मुताबिक दूल्हन ने एक दुम्बे को गर्दन पर लिया और आगे बढ़ी । दूल्हे को दुम्बे के सिर में गोली मारनी थी । निशाना चूकने पर उसकी जान ली जा सकती थी । उसने निशाना लगाया और खून टपकते हुए मरते जानवर को दूल्हन ने लाकर दूल्हे के सामने डाला और इसे दोनों द्वारा एक दूसरे को अपनाने का प्रतीक मान लिया गया । इसके बाद शादी का भोज शुरू हुआ । शायद सभी कबीलाई समाजों में औरत और मर्द की बराबरी का सबूत देने वाली ऐसी रस्में होती हैं । अगली सुबह पेशावर में नमक बनाकर कानून तोड़ने वालों का बर्बर दमन हुआ । हथियारबंद फौजी जीप लोगों को कुचलते हुए गुजर गयी और पठानों की लाशें सड़क पर फैल गयीं । गोलियों की मार से बचने के लिए बाकी बचे खुद्दार पठान नालियों में छिपने की जगह तलाश कर रहे थे । नईम भी इसी भगदड़ में गिरफ़्तार हो गया ।  

पिछली बार जब नईम गांव आया था तो छोटे भाई अली को बेरोजगारी की वजह से बनी बुरी सोहबत से बचाने के लिए साथ लाकर शहर में मिल में भरती करा दिया था । उपन्यास ने उस शहरी मिल का बेहद समझदार खाका खींचा है जिसमें देहात से आये किसान नये तरह के जीवन के आदी बनते हैं । मजदूरों की इन बस्तियों से कुछ अलग हटकर अफ़सरों की रिहाइश है जिनमें युवा अफ़सर और बुजुर्ग अफ़सर भी एक दूसरे से दूरी बरतते हुए रहते हैं । इस वर्णन से उपन्यास ने औपनिवेशिक आधुनिकता के भीतर की पदानुक्रमिक सामंती सोच को जाहिर किया है । शहर और मिल के इस वर्णन ने उपन्यास के विस्तार को नया आयाम दिया है । कहने की जरूरत नहीं कि प्रेमचंद के गोदान में से शहरी कथा निकाल दीजिए तो उसकी व्याप्ति सीमित हो जाती है उसी तरह इस उपन्यास ने भी शहर और देहात के बीच तत्कालीन संबंध को कलात्मक सृजनात्मकता के साथ पेश किया है । एकाधिक अवसरों पर मिल के भीतर के कामगारों के जीवन और जेल के कैदियों के जीवन में समानता का भी उल्लेख हुआ है । दोनों जगहों पर वही लोग प्रतिदिन नजर आते हैं । जैसे जेल में वैसे ही मिल में भी लड़कियों का आगमन चतुर्दिक उत्तेजना का कारण बन जाता है । कुल मिलाकर अली को मिल का ऊब भरा जीवन रास नहीं आता और वह भागकर रहने के लिए घर आ जाता है । नईम उस पर गुस्साता है और उसे घर से भी भगा देता है । अली ट्रेन में बैठकर लाहौर पहुंच जाता है । स्टेशन पर उसे अमृतसर से लाहौर आया हुआ एक चायवाला ढंग का काम मिलने तक रहने की जगह दे देता है । अली शहर घूमने निकलता है तो बलवे में फंस जाता है । बलवा जमीन के एक टुकड़े पर कब्जे को लेकर सिख और मुसलमानों के बीच हुआ था और पाठक को विभाजन की आहट सुनायी देने लगती है । एक वेश्या अपने कोठे में छिपाकर उसकी जान बचाती है ।

उपन्यास में अज़रा की ऊब भरी जिंदगी के संक्षिप्त वर्णन के बाद खबर मिलती है कि नईम को गांव पर लकवा मार गया है । अज़रा गांव आती है और उनके बीच पुरानी मुहब्बत फिर से जाग उठती है लेकिन उम्र ने दोनों के शरीर को बहुत बदल दिया था । नईम का माथा उसके आधे सिर तक उठ आया है और बदन का एक हिस्सा लकवे की चपेट में है । एक बाजू तो पहले ही बम से उड़ चुका था । इसके बावजूद दोनों ने एक दूसरे के बदन की उन खूबियों को याद किया जिनके कारण उनमें प्रेम उपजा था । जिन बुजुर्गों की मौत इस बीच हुई उनके बारे में देर रात तक बातचीत के बाद दोनों सो गये । दोनों अपने जीवन के बहुत पुराने दिनों की याद करते रहे । नईम की माता बीच बीच में दरवाजे से झांक जातीं और निश्चिंत होकर चली जातीं । कुछ समय साथ बिताने के बाद अज़रा नईम को लेकर अपने मायके दिल्ली आ जाती है जहां नईम का ढब से इलाज शुरू होता है ।

नईम का अब तक का जीवन जैसी आपाधापी में बीता था उसके कारण उसे सोचने की फ़ुर्सत ही कभी नहीं मिली थी । अब बिस्तर से लग जाने के बाद बड़े सवालों की आमद उसके दिमाग में हुई । संयोग से उसका डाक्टर भी इस किस्म की बातों में रुचि लेने लगा । एक दिन की गहरी दार्शनिक बातों के बाद उसे सुबह के नायाब होने का भान हुआ । इसी माहौल में उपन्यास नौजवानों की एक गरमागर्म बहस का जिक्र करता है जिसमें धर्म, संस्कृति और क्षेत्रीयता के आपसी संबंधों के बारे में तमाम तर्क वितर्क होता है । चिंतन की इस दुनिया ने अज़रा और नईम के दिलों में अब तक बीते समूचे समय के लिए पछतावे का भाव पैदा किया । अज़रा को अपना घर बेगाना महसूस हुआ क्योंकि उसकी मुहब्बत को हैसियत के लिहाज से ओछा समझा जाता रहा था जबकि नईम को महसूस हुआ कि उसने अज़रा को उसकी स्वाभाविक दुनिया से अलगा दिया है । भावनाओं के इस ज्वार ने दोनों को सकून की नींद दी ।

इसके बाद उपन्यास में बंटवारा वाला तीसरा अध्याय शुरू होता है । इसकी शुरुआत अली के कारखाने से होती है । लगता है कि लाहौर से वापस आकर उसने कारखाने में फिर से काम पकड़ लिया था । कारखाने में मजदूरों ने भूख हड़ताल की नोटिस दे रखी थी और अली को इसके लिए सबसे योग्य समझा जा रहा था क्योंकि बीवी के बीमार रहने के कारण वह बहुत कम ही खाना लाने लगा था । हड़ताल का समूचा दृश्य भी उपन्यासकार ने बहुत ही जीवंत तरीके से बुना है । कारखाने के बाहर काठ से खड़े किये गये मंच से यूनियन प्रेसिडेंट, जो स्थानीय वकील था, का भाषण, उसके बाद एक मजदूर का भाषण, फिर पड़ोस के कारखाने से मजदूर औरतों का आकर मिल जाना, उनके बेढंगे से झंडे और नारे- सब कुछ पहली बार होने वाले मजदूर आंदोलन का नजारा पेश करते हैं । अली दुर्भाग्य से मिल मालिकों के वफ़ादार मजदूरों के साथ कारखाने के भीतर चला आता है । बाहर के हड़ताली भीतर वालों को गद्दार कहकर कोस रहे हैं और भीतर वालों को हड़ताल के खात्मे तक अंदर ही रोक लिया जाता है । अली समेत इन मजदूरों को मालिक पदोन्नति का आश्वासन देता है और वे खुश हो जाते हैं । मिल के भीतर कुल तेरह लोग थे और उनके लिए मिल एकदम नयी हो गयी । उपन्यासकार ने बताया है कि मिल में जब भी कोई नया आदमी काम करने आता है तो शुरू में मशीन से खुद को बेहतर साबित करना चाहता है लेकिन धीरे धीरे मशीन की गति के सामने समर्पण कर देता है और उसका गुलाम हो जाता है । मिल की चिमनी से धुआं निकलते रहना मिल के जिंदा होने की निशानी बन गया । किसी खराबी से धुआं निकलना बंद हुआ तो उसको चालू करने की कोशिश में एक मजदूर की जान निकल गयी । मिल के चलने से निराश यूनियन ने मालिक से समझौता कर लिया और अब सभी मिल के भीतर थे ।

उपन्यास अब नईम और अज़रा के पास आता है और ऊपर वर्णित समझौता एक रूपक की तरह आगामी हालत की व्याख्या बन जाता है । ससुर की हैसियत की वजह से नईम को पार्लियामेंट में अंडर सेक्रेटरी का पद मिल जाता है लेकिन अफ़सरी उसके भीतर नहीं उतरती और अपनी ऊब मिटाने के लिए वह खुद को पढ़ने में पूरी तरह डुबो देता है । इधर अज़रा घर संभालने में मशगूल हो जाती है । दफ़्तर में नईम की दोस्ती एक कर्मचारी से होती है जिसके साथ वह मछली मारने जाता है । नदी किनारे उन्हें बंगाल से आये बदहाल लोगों की बस्ती नजर आती है । दोनों के बीच धर्म और इंसान की नियति पर बहस छिड़ जाती है । बहस में नईम अपने दोस्त के आत्मविश्वास का कायल हो जाता है और उसकी संगत में खुश रहने लगता है । लम्बे लम्बे अरसे के लिए दोनों दोस्त के बाग में दुनिया से दूर समय गुजारते हैं । इसी तरह के वक्फ़े के बाद नईम अज़रा के घर आता है तो घर की आम जिंदगी को उसी ढर्रे पर चलता पाता है जो इस घर में पहली बार आने पर उसने देखी थी । अंतर यह है कि उनकी जिंदगियों पर बंटवारे की गहरी आशंका छायी हुई है । सबूत यह है कि लोग अपना पूरा व्यक्तित्व कुछ धार्मिक सामूहिकताओं को सौंप दे रहे हैं और अनजान ताकतों की इच्छा पूरी करने लगे हैं । इन ताकतों का निशान यह था कि शहर में आग लगी थी और अज़रा के घर टेलीफोन की घंटी बजे जा रही थी ।

नईम के दिल में फिर से इस घर के प्रति पुरानी नफ़रत ने सिर उठाया और वह अज़रा को घर पर ही छोड़कर बाहर निकल आया । शहर में सन्नाटा था और केवल कुत्ते नजर आ रहे थे । जलने की बदबू इधर उधर फैली थी । उसके सामने जलते हुए मकान थे और आग बुझाने की कोशिश करते कुछ फ़ायरमैन थे । मकानों से जो सामान निकाला जा सकता था उसे निकालकर लोग रो रहे थे । आग बुझाने वाले दमकल के पास दंगाइयों का गिरोह नजर आया जो अगली गली में यही काम अंजाम देने जा रहा था । रास्ते में एक सिपाही उसके लकड़ी के बाजू से चौंका और नाम पूछकर जाने दिया । रात के तीन बजे नईम अपने दोस्त के घर पहुंचा । उसके घर कुर्सी पर बैठे बैठे उसने सभी बातों को कबूल किया जिनके बोझ की वजह से वह अज़रा से भी दूर रहा और किसी से भी गहरी दोस्ती नहीं कर सका था ।

दूसरे दिन उसने अज़रा का घर छोड़ दिया और उसके साथ एक नये घर आ गया । सरकारी दफ़्तरों में केवल बंटवारे की बातें थीं और उसके लिए अठारह अठारह घंटे काम हो रहा था । हिंदोस्तानियों की जिंदगी में कभी ऐसी कोई चीज आयी ही नहीं थी । पार्लियामेंट की इमारत में बंटवारे के सिलसिले में नेताओं की बातें हो रही थीं और बाहर प्रदर्शन हो रहा था । नईम को सुबह इतनी सुहानी लगी कि वह बाहर निकल आया । दोस्त उसे रोकता रहा लेकिन नईम निकल गया । प्रदर्शनकारियों के साथ खड़ा होकर उसने विभाजन के विरोध में और आजादी के लिए नारे लगाये । इन सबसे कोई अंतर नहीं पड़ा और बलवा बढ़ता गया ।

अज़रा के भाई ने सबके लाहौर निकल जाने के लिए हवाई जहाज की टिकट ले रखी थी लेकिन परिवार के सबसे बुजुर्ग अज़रा के पिता जाने को राजी न थे । उनको सलाम बोलकर सभी हवाई अड्डे के लिए निकले । बलवाइयों ने घर को आग लगा दी । बुजुर्गवार अपने निजी नौजर के साथ हवाई अड्डे के लिए निकल भागे । जो लोग हवाई यात्रा नहीं कर सकते थे वे पैदल निकले और पचासेक लोगों का झुंड तादाद में और रास्ते पर धीरे धीरे बढ़ता गया । इनमें दिल्ली से चले लोग एकजुट थे और उनके इर्द गिर्द शेष लोगों के झुंड शामिल होते रहे । इस काफिले में अफवाहों ने भी प्रवेश करना शुरू किया । या तो हमले की आशंका की अफवाह होती या उनके लिए बेहतर इंतजाम की । दिल्ली वाले झुंड में ही नईम भी था । झुंड में उसे फ़कीर समझकर औरतें खाना दे देतीं और काफिले के साथ वह भी आगे बढ़ता जाता । अम्बाले से उन्हें ट्रेन मिलने की उम्मीद थी लेकिन दिल्ली से आने वाली ट्रेनें बिना रुके निकल गयीं । उनकी छतों पर भी लोग गिरने से बचने के लिए आपस में चिपके बैठे थे । आखिरकार झुंड स्टेशन से बाहर निकल आया और नईम का अली से सामना हुआ ।

अली ने उससे तमाम शिकायतें कीं और अपना हाल सुनाया । फिर उसे नईम से सहानुभूति हुई और उसकी देखभाल में लग गया । इस बीच अजगर की तरह रेंगते इस काफिले में पहली मौत हुई तो पांच हजार लोगों के मिट्टी डालने से इतनी ऊंची कब्र बनी जो मीलों दूर तक नजर आती रही । अब काफिले पर हमले शुरू हुए और सबको मौत सामने नजर आने लगी । जालंधर के करीब आते आते काफिले में लोगों की तादाद कम होने लगी क्योंकि हमले बढ़ते जा रहे थे । उन्हें रास्ते में मुर्दा या अधमरे इंसानों के जिस्म मिलने लगे । हमलावर भी थक चुके थे इसलिए कई बार काफिले को गुजर जाने देते थे । रास्ते में एक जगह वे किसी कैम्प में रुके जिसमें कोने में पेशाब और टट्टी होने के लिए जगह थी इसलिए बदबू से सिर फटा जा रहा था । एक लाश भी दो हफ़्ते से पड़ी हुई थी । नईम और अली एक दूसरे से अलग होते और मिलते रहे थे । यहां आकर नईम कैम्प से बाहर निकला और सुबह के तिलिस्म में पत्थर से लिपटकर उसे चूमने लगा । उसके भीतर तकलीफ के इस समय ने ऊंचे विचारों को जन्म दिया और वह लगातार बोलने लगा । उसमें खुदा और इंसान में सृष्टि करने की ताकत के कारण समानता का भाव पैदा हुआ और फ़नकारों की प्रेम की क्षमता का गुणगान करने लगा । धर्म उसको ऐसी शै लगी जिसमें ईश्वर, मनुष्य और आत्मा आपस में मिलकर एक हो जाते हैं । इसके बाद नईम ने अली की बीवी के साथ बात करते हुए नये घर के सपने देखे और खेती करने का इरादा जाहिर किया । किस्से का अंत यूं हुआ कि अमृतसर स्टेशन पर ट्रेन लाहौर जाने के लिए थी लेकिन उससे पहले के हमले में नईम भीड़ के हत्थे लग गया । अली और उसकी बीवी ने भागकर किसी तरह ट्रेन पकड़ ली ।

दूसरे दिन वे लाहौर उतरे । स्टेशन पर भी ट्रेनों पर हमले शुरू हो गये । अली को सहसा मिल में कभी काम करने वाली एक औरत मिली जिसे लाहौर में काम मिल गया था । उसने अली को सहारा दिया और अपने साथ ले गयी । असल में अब वे सभी मुसीबत के मारे इंसान रह गये थे जिनके कोई धर्म नहीं होते और इसलिए एक दूसरे को पुरानी पहचान के आधार पर सहारा दे रहे थे । उस औरत की झोपड़ी में अली लगातार छह दिन बुखार में पड़ा रहा लेकिन जिंदा बच गया । दूसरी ओर अज़रा के घरवालों को हवाई जहाज न मिल सका था लेकिन ट्रेन से वे आ गये थे और लाहौर के बाहरी इलाके की एक कोठी पर कब्जा जमा लिया था । कोठी किसी हिंदू की थी जिनके भगवान के लगाये तस्वीरों को उतार दिया गया था लेकिन फ़र्नीचर को जस का तस इस्तेमाल किया जाने लगा था । बाग को भी हरा भरा कर लिया गया था । मकान का नाम राज महल था जिसे बदलकर दिल्ली वाले मकान का नाम दिया जाना था लेकिन सरकार ने नाम बदलने पर पाबंदी लगा रखी थी । अज़रा के पिता की जान इसी वजह से सात दिन से अटकी हुई थी । आखिरकार अज़रा के भाई ने उनकी जीत की झूठी खबर दी तो बुजुर्गवार की जान निकली । अली और उस पर रहम करने वाली औरत ने भी साथ रहने का फैसला किया ।                                                                                                                                   

उपन्यास के कथा समय और शीर्षक को मिलाकर देखने से प्रतीत होता है कि औपनिवेशिक समय और उसके असरात के साये में रही पीढ़ियों को लेखक ने उदास नस्लें कहा है । इस पीढ़ी के हिस्से अतार्किक हिंसा, गैर बराबरी और उथल पुथल आये । इसे उपन्यास में जंग, अकाल और महामारी का समय कहा गया है । मुस्लिम समुदाय के बारे में  बात करते हुए आम तौर पर उन्हें एकसम मान लिया जाता है । यह किताब उनके बीकी सामाजिक विषमता को बेहद गहराई से उठाती है । नईम और अज़रा के बीच किसान और जमींदार का फासला उपन्यास में उनकी प्रेम कहानी में मौजूद निरंतर तनाव की अंतर्वर्ती धारा है । ऊपर जो कुछ भी इस उपन्यास के बारे में कहा गया उसे उपन्यास का कंकाल मात्र समझा जाए । मुख्य कथा प्रवाह के बीच इतने खूबसूरत वाकये पिरोये गये हैं कि उनकी मौजूदगी से उपन्यास खिल उठता है । हिंसा के दृश्यों के साथ ही बच्चों में जब आकर्षण का पहला अंकुर फूटता है से लेकर युवकों के प्रेम तक के इतने प्रसंग खूबसूरती के साथ उपन्यास में आये हैं कि मूल को देखे बिना इस उपन्यास की कला को समझना असम्भव है ।                                                               

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