Friday, December 30, 2016

नया इंटरनेशनल


1877 में घेन्ट नगर में यूनिवर्सल सोशलिस्ट कांग्रेस संपन्न हुई । इसमें पहले कभी के मुकाबले अधिक देशों का प्रतिनिधित्व हुआ । नौ देशों (फ़्रांस, जर्मनी, स्विट्ज़रलैंड, ब्रिटेन, स्पेन, इटली, हंगरी, रूस और बेल्जियम) के प्रतिनिधियों का लगभग 3000 मजदूरों ने स्वागत किया । इनमें से कुछ प्रतिनिधियों को किसी अन्य देश के संगठन का (डेनमार्क, संयुक्त राज्य और पहली बार ग्रीस तथा मिस्र के मजदूर समूहों) भी अतिरिक्त जनादेश हासिल था । इंटरनेशनल के डि पाएपे, लीबक्नेख्त, फ़्रांकेल, गिलौमे, हेल्स और अन्य ऐतिहासिक नेता उपस्थित थे और यूरोपीय मजदूर आंदोलन की एक समूची पीढ़ी के लिए संगठन के महत्व की गवाही दे रहे थे ।
डि पाएपे और आगामी बेल्जियन समाजवादी नेता लुई बरट्रांड (1856-1943) द्वारा लिखित समापन वक्तव्य ‘मेनिफ़ेस्टो टु वर्कर्स आर्गेनाइजेशंस ऐंड सोसाइटीज इन आल कंट्रीज’ में कांग्रेस ने ‘जनरल यूनियन आफ़ द सोशलिस्ट पार्टी’ स्थापित करने का आवाहन किया । बहुसंख्यक प्रतिनिधियों ने एक सहमति पत्र पर भी दस्तखत किया:
“चूंकि सामाजिक मुक्ति और राजनीतिक मुक्ति अविभाज्य हैं इसलिए सर्वहारा को संपत्तिशाली वर्गों की समस्त पार्टियों के विरोध में अलग पार्टी में संगठित होना चाहिए और उन सभी राजनीतिक साधनों से खुद को लैस करना चाहिए जो उसकी मुक्ति को प्रोत्साहित करने के लिए आवश्यक हों । चूंकि संपत्तिशाली वर्गों के प्रभुत्व के विरोध में चलने वाला संघर्ष का दायरा केवल स्थानीय या राष्ट्रीय होने की बजाए विश्व व्यापी होगा इसलिए इस संघर्ष में सफलता विभिन्न देशों के संगठनों की सामंजस्यपूर्ण और एकताबद्ध कार्यवाही पर निर्भर है । घेन्ट में यूनिवर्सल सोशलिस्ट कांग्रेस के निम्नहस्ताक्षरित प्रतिनिधि फैसला करते हैं कि जिन संगठनों का वे प्रतिनिधित्व कर रहे हैं वे संगठन आपसी औद्योगिक और राजनीतिक प्रयासों में एक दूसरे को भौतिक और नैतिक समर्थन देंगे ।
1871 के लंदन सम्मेलन के छह साल बाद घेन्ट की इस थीसिस ने सिद्ध किया कि मार्क्स महज समय से कुछ आगे रहे थे । क्योंकि उसी दस्तावेज में पुष्टि की गई:
हम आंदोलन, प्रचार, जन शिक्षा और एकजुटता के शक्तिशाली साधन के बतौर राजनीतिक कार्यवाही की जरूरत महसूस करते हैं । समाज के वर्तमान संगठन का मुकाबला चारों ओर से एकबारगी और उपलब्ध सभी साधनों से करना होगा ।----समाजवाद को भविष्य के संभावित सामाजिक संगठन के बारे में महज सैद्धांतिक अटकलबाजी नहीं होना चाहिए । इसे वास्तविक और जीवंत, ठोस आकांक्षाओं, तात्कालिक जरूरतों तथा सामाजिक पूंजी और सामाजिक सत्ता को नियंत्रित करने वालों के विरुद्ध सर्वहारा वर्ग के दैनिक संघर्षों से जुड़ा हुआ होना चाहिए ।
पूंजीपति वर्ग से राजनीतिक अधिकार छीन लेना, बिखरे हुए मजदूरों को किसी एसोसिएशन में संगठित करना, प्रतिरोध सोसाइटियों या हड़ताल की कार्यवाही के जरिए काम के घंटों में कमी कराना- यह सब नए समाज के निर्माण में हाथ बंटाना तो है ही, भविष्य की सामाजिक व्यवस्था के सिलसिले में सच्ची खोज में संलग्न होना भी है ।
अब तक असंगठित रहे मजदूरों को एकताबद्ध होने दें और संगठन बनाने दें ! जो लोग केवल आर्थिक धरातल पर संगठित हैं उन्हें राजनीतिक धरातल पर उतरने दें, वहां भी वही विरोधी और वही संघर्ष मिलेंगे तथा इनमें से एक धरातल पर हासिल जीत से दूसरे धरातल पर भी विजय की राह खुलेगी !”
प्रत्येक देश में सभी पूंजीवादी पार्टियों से अलग विशाल पार्टी के रूप में वंचित वर्ग को संगठित होने दें और इस सामाजिक पार्टी को अन्य देशों की वैसी ही सामाजिक पार्टी के साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ने दें !”
अपने सभी अधिकारों पर दावा ठोंकने के लिए, समस्त विशेषाधिकारों के उन्मूलन के लिए दुनिया के मजदूरों एक हो !”
बाद के दशकों में मजदूर आंदोलन ने समाजवादी कार्यक्रम अपनाया, समूचे यूरोप में और उसके बाद सारे संसार में फैला और राष्ट्रोपरि समन्वय नए ढांचे बनाए । नामों की निरंतरता के अतिरिक्त (1889 से 1916 तक दूसरा इंटरनेशनल और 1919 से 1943 तक तीसरा इंटरनेशनल) भी इनमें से प्रत्येक ढांचे ने लगातार प्रथम इंटरनेशनल के मूल्यों और सिद्धांतों को याद रखा । इस तरह इसका क्रांतिकारी संदेश असाधारण रूप से उपजाऊ साबित हुआ और समय बीतने के साथ अपने जीवनकाल से भी महत्तर परिणामों को जन्म दिया ।
इंटरनेशनल ने मजदूरों को समझने में मदद की कि श्रम को एक देश में मुक्ति नहीं मिल सकती बल्कि यह वैश्विक लड़ाई है । इसने उनको यह भी अनुभूत कराया कि श्रमिक मुक्ति का यह लक्ष्य उन्हें किसी अन्य ताकत के सहारे प्राप्त करने की जगह संगठन की अपनी क्षमता के बल पर खुद ही हासिल करना है । और कि उन्हें पूंजीवादी उत्पादन पद्धति तथा मजूरी की दासता पर विजय प्राप्त करनी है क्योंकि मौजूदा व्यवस्था के भीतर सुधार के लिए लड़ना जरूरी तो है लेकिन इससे मालिकों के अल्पतंत्र पर उनकी निर्भरता नहीं समाप्त होगी- इस मोर्चे पर मार्क्स का योगदान बुनियादी महत्व का था ।
उस समय की उम्मीद और हमारे समय के अविश्वास के बीच अलंघ्य खाई है । इंटरनेशनल के युग की व्यवस्था विरोधी चेतना और एकजुटता तथा नवउदारवादी प्रतिद्वंद्विता और निजीकरण की बनाई हुई दुनिया के वैचारिक समर्पण और व्यक्तिवाद के बीच जमीन आसमान का अंतर आ गया है । 1864 में लंदन में एकत्र मजदूरों में राजनीतिक भावावेग, आजकल व्याप्त उदासीनता और अर्पण के पूरी तरह विपरीत था ।    

इसके बावजूद चूंकि श्रम की दुनिया उन्नीसवीं सदी जैसी शोषक परिस्थितियों की ओर लौट रही है इसलिए एक बार फिर इंटरनेशनल का प्रोजेक्ट असाधारण तौर पर प्रासंगिक हो गया है । आज कीविश्व व्यवस्थाकी बर्बरता, वर्तमान उत्पादन पद्धति जनित पारिस्थितिकीय विनाशलीला, चंद शोषक संपत्तिशालियों और विशाल दरिद्र बहुसंख्या के बीच बढ़ती दूरी, महिला उत्पीड़न, युद्ध की प्रचंड आंधी, नस्लवाद और अंधराष्ट्रवाद ने समसामयिक मजदूर आंदोलन के समक्ष इंटरनेशनल की दो मुख्य खूबियों के आधार पर खुद को संगठित करने की आवश्यकता पैदा कर दी है और वे खूबियां हैं ढांचे की विविधता और लक्ष्य की मूलगामिता । 150 साल पहले स्थापित संगठन के उद्देश्य आज और अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं । बहरहाल वर्तमान की चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए नए इंटरनेशनल को दो बातें करनी ही होंगी- इसे बहुलतावादी होना होगा और इसे पूंजीवाद विरोधी होना होगा ।

Thursday, December 29, 2016

मार्क्स के बाद: ‘केंद्रीयतावादी’ और ‘स्वायत्ततावादी’ इंटरनेशनल


अब इंटरनेशनल को दुबारा कभी पहले की तरह का नहीं होना था । 1864 में पैदा हुए इस महान संगठन ने 8 सालों तक हड़तालों और संघर्षों का सफलतापूर्वक समर्थन किया, पूंजीवाद विरोधी कार्यक्रम अपनाया और सारे यूरोपीय देशों में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई और वही हेग कांग्रेस में आखिरकार बिखर गया । बहरहाल मार्क्स के कदम पीछे खींचने के बावजूद कहानी खत्म नहीं हुई । काफी सिकुड़े हुए आकार में और पुरानी राजनीतिक आकांक्षाओं तथा योजना बनाने और लागू करने की क्षमता से हीन दो समूहों का उदय हुआ । उनमें एक था पिछली कांग्रेस से उपजा ‘केंद्रीयतावादी’ बहुसंख्यक समूह जो जनरल कौंसिल के राजनीतिक नेतृत्व में संगठन का समर्थक था । दूसरा था ‘स्वायत्ततावादी’ या ‘संघीयतावादी’ अल्पसंख्यक समूह जो प्रभागों के लिए निर्णय लेने के मामले में पूर्ण स्वायत्तता का हामी था ।
1872 में इंटरनेशनल की ताकत अभी क्षीण नहीं हुई थी । अतीतकाल से ही असमान विकास इसकी विशेषता रही थी । वही विशेषता फिर से दिखाई पड़ी जब कुछ देशों (मसलन ब्रिटेन) में इसकी गिरावट की भरपाई कुछ अन्य देशों (सबसे अधिक स्पेन और इटली) में इसके विस्तार ने कर दी । हेग के नाटकीय नतीजे ने संगठन को विभाजित कर दिया जिसके चलते खासकरकेंद्रवादीखेमे के अनेक कार्यकर्ताओं को महसूस हुआ कि मजदूर आंदोलन का एक महत्वपूर्ण अध्याय बंद हो चला । नार्थ अमेरिकन फ़ेडरेशन के साथ यूरोप की बहुत कम ताकतों ने ही न्यूयार्क स्थित नई जनरल कौंसिल का साथ दिया । ये थे- स्विट्ज़रलैंड में रोमान्डे फ़ेडरेशन और कुछ जर्मन भाषी प्रभाग जो दोनों ही बेकर के अथक पहल पर आधारित थे, जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक वर्कर्स पार्टी ने बेहिचक लेकिन मुश्किल से दृश्य समर्थन दिया, नए खुले आस्ट्रियाई प्रभाग जिन्होंने अदृश्य जर्मनों के विपरीत अपने सदस्यों के चंदे से कुछ धन एकत्र करके भेजा तथा डेनमार्क और पुर्तगाल के दूरस्थ प्रभाग । बहरहाल स्पेन, इटली और नीदरलैंड्स में बहुत कम ने नए निर्देशों का पालन किया । आयरलैंड में अभी संगठन जड़ नहीं पकड़ सका था । 1873 के आते आते फ़्रांस में इंटरनेशनल का कोई प्रभाग नहीं बचा । ब्रिटेन भी था लेकिन वहां हेग कांग्रेस के बहुत पहले से निजी झगड़े चल रहे थे और उनके कारण नवंबर 1872 में ब्रिटिश फ़ेडरल कौंसिल आपस में झगड़ने वाले दो समूहों में बंट गई जिनमें से प्रत्येक समूह देश में इंटरनेशनल का प्रतिनिधि होने का दावा करता था । 16 प्रभागों के नाम पर काम करने वाले हेल्स को हर्मान युंग (1830-1901) और थामस मोटरहेड (1825-84) जैसे इं टरनेशनल के नेताओं का समर्थन प्राप्त था, उन्होंने न्यूयार्क स्थित जनरल कौंसिल को अस्वीकार कर दिया और ब्रिटिश फ़ेडरेशन की ओर से जनवरी 1873 में नई कांग्रेस आयोजित किया । हेल्स और इकारियस दोनों ने कुछ अद्भुत कलाबाजियां दिखाईं । हालांकि उनकी निष्ठा सुधारवाद में थी और चुनाव लड़ने के पक्ष में वे बोलते थे तथा उनकी सोच इंटरनेशनल को ट्रेड यूनियन समर्थन वाली ऐसी राजनीतिक पार्टी में बदलने की थी जो पूंजीपतियों के उदारवादी खेमे के साथ मोर्चा बनाए लेकिन वे आधिकारिक रूप से गिलौमे और बाकुनिन के अनुयायी अनुपस्थितिवादियों के साथ खड़ा हुए । इन घटनाओं के उत्तर में एंगेल्स ने दो सर्कुलर जारी किए जिनमें हेग में लिए गए फैसलों को मान्यता दी गई थी । इन पर मानचेस्टर तथाआधिकारिकब्रिटिश फ़ेडरल कौंसिल के महत्वपूर्ण नेताओं के और जनरल कौंसिल के मशहूर पूर्व सदस्य द्यूपों तथा फ़्रेडरिक लेसनर (1825-1910) के दस्तखत थे । कौंसिल की कांग्रेस जून में संपन्न हुई लेकिन उसमें भाग लेने वालों को इस कड़वी सच्चाई का सामना करना पड़ा कि जनरल कौंसिल के न्यूयार्क चले जाने के बाद (जिसे हर कोई संगठन के अंत के बतौर समझ रहा था) ब्रिटिश ट्रेड यूनियनों को अब कोई रुचि नहीं रह गई थी । इस तरह दोनों ही खेमों के साथ समान घटना हुई और वह यह कि उनका तेजी से पतन हुआ ।
केंद्रवादियोंकी कांग्रेस उसी जेनेवा नगर में हुई जिसमें इंटरनेशनल की पहली कांग्रेस संपन्न हुई थी । बेकर की कोशिशों के चलते इसमें 30 प्रतिनिधियों ने भाग लिया जिनमें (पहली बार) दो महिलाएं भी शामिल हुईं । लेकिन इनमें से 15 तो जेनेवा से ही थे । अन्य देशों के प्रभागों के प्रतिनिधि जर्मनी, बेल्जियम और आस्ट्रिया-हंगरी से एक एक प्रतिनिधि ही थे । यूरोप में गोलबंदी में घटोत्तरी देखकर जनरल कौंसिल ने न्यूयार्क से प्रतिनिधि न भेजने का फैसला किया और ब्रिटिश फ़ेडरेशन द्वारा नियुक्त प्रतिनिधि सेराइलेर जेनेवा तक यात्रा न कर सके । असल में तो केंद्रवादी इंटरनेशनल का यही अंत था ।
अटलांटिक के उस पार सोर्ज मशाल जलाए रखने के लिए कड़ी कोशिश कर रहे थे लेकिन वहां नार्थ अमेरिकन फ़ेडरेशन खत्म होने की कगार पर थी । सदस्यता के घटकर 1000 से कम रह जाने के चलते आर्थिक स्थिति खराब थी (उनमें से कुछ ही बकाया चुकाते थे) । इसके चलते चिट्ठियों के लिए टिकट खरीदना भी मुश्किल होता जा रहा था । अब यह केवल अमेरिका से जुड़े मसलों तक सीमित रह गई थी । अमेरिकी मजदूर या तो इसके प्रति उदासीन रहते या शत्रुभाव रखते । नवंबर 1873 में इसने जो मेनिफ़ेस्टो टु द वर्किंग पीपुल आफ़ नार्थ अमेरिका जारी किया था उसके प्रति भी यही रुख रहा । सोर्ज ने महासचिव के पद से इस्तीफ़ा दे दिया और उसके बाद से ढाई सालों का इसका इतिहास एक तरह से पूर्वघोषित मृत्यु की ही दास्तान है । आखिरकार 15 जुलाई 1876 को अंत आ ही गया जब 365 सदस्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले दस प्रतिनिधियों की बैठक हुई और इसके तुरंत बाद वे सेंटेनियल एक्जिबिशन नामक पहले अमेरिकी वर्ल्ड फ़ेयर के साथ आयोजित वर्किंगमेनस पार्टी आफ़ द यूनाइटेड स्टेट्स की स्थापना कांग्रेस में भाग लेने चल दिए ।
हालांकिकेंद्रीयतावादीसंगठन एकाध देशों में महज कुछ दिनों तक चला और सिद्धांत के क्षेत्र में वे आगे कोई योगदान न कर सके लेकिन दूसरी ओर स्वायत्ततावादी आगामी कुछ वर्षों तक वास्तविक और सक्रिय अस्तित्व बनाए रखने में कामयाब रहे । स्विस, इतालवी, स्पेनी और फ़्रांसिसी लोगों की भागीदारी वाली सेंट-आइमर कांग्रेस में यह माना गया किकिसी को यह अधिकार नहीं कि वह स्वायत्त फ़ेडरेशनों और प्रभागों को जिसे वे सर्वोत्तम समझें, उस राजनीतिक दिशा और आचरण को खुद के लिए निर्धारित करने और लागू करने के निर्विवाद अधिकार से उन्हें वंचित करे। इंटरनेशनल के भीतर संघीय स्वायतता का यही विकल्पदोस्ती, एकजुटता और आपसी रक्षा का गठबंधनमुहैया कराता है । ये विचार गिलौमे के थे । बाकुनिन ने इसे थोड़ा और सैद्धांतिक जामा पहनाया होता लेकिन उसके विपरीत इस युवा किंतु समझदार स्विस कार्यकर्ता की नजर जूरा, स्पेन और इटली के परे समर्थन बढ़ाने और लंदन की लाइन के विरोधी सभी फ़ेडरेशनों को अपने पक्ष में कर लेने पर टिकी थी । उसकी कार्यनीति काम आई । नए इंटरनेशनल के जन्म की तैयारी बड़ी बड़ी घोषणाओं के जरिए बात थोपे बिना सावधानी से करनी थी ।
अगले कुछ महीनों में जुड़ने के प्रस्ताव आने शुरू हुए । स्वायत्ततावादियों का गढ़ स्पेन बना रहा जहां प्राक्सेडेस मातेओ सगास्ता (1825-1903) द्वारा संचालित दमन संगठन को फलने फूलने से नहीं रोक सका । दिसंबर 1872 और जनवरी 1873 के बीच संपन्न इसकी कोर्डोबा संघीय कांग्रेस तक इसमें 50 फ़ेडरेशन शामिल हो चुके थे जिनके 300 से अधिक प्रभाग और 25000 से अधिक कुल सदस्य थे (बार्सिलोना में 7500) 1872 के उत्तरार्ध के बाद नए देशों में भी स्वायत्ततावादियों का समर्थन बढ़ा । दिसंबर में बेल्जियन फ़ेडरेशन की ब्रसेल्स कांग्रेस ने हेग कांग्रेस के प्रस्तावों को शून्य घोषित कर दिया, न्यूयार्क स्थित जनरल कौंसिल को मान्यता नहीं दी और सेंट-आइमर समझौते पर दस्तखत कर दिए । जनवरी 1873 में हेल्स और इकारियस के नेतृत्व में ब्रिटेन के विद्रोहियों ने भी यही राह पकड़ी और अगले महीने डच फ़ेडरेशन भी उनके साथ मिल गई ।
स्वायत्ततावादियों के संपर्क फ़्रांस, आस्ट्रिया और संयुक्त राज्य में भी थे और वे नए इंटरनेशनल में बहुमत में आ गए फिर भी असलियत में यह मोर्चा नानाविध सिद्धांतों का जखीरा बना रहा । इसमें शामिल थे- गिलौमे और श्वाइट्ज़गेबेल (बाकुनिन सार्वजनिक जीवन से 1873 में अलग हो गए और 1876 में उनका देहांत हो गया) के नेतृत्व में स्विस अराजक-सामूहिकतावादी, डि पाएपे के नेतृत्व में बेल्जियन फ़ेडरेशन जिसके लिए जनता का राज्य (फ़ोक्सस्टाट) को सभी सार्वजनिक सेवाओं के प्रबंधन सहित अधिक शक्ति और क्षमता मुख्य बात थी, अतिक्रांतिकारी इतालवी जिन्होंने निश्चित असफलता वाली आम विद्रोह की दृष्टि अपनाई (‘कर्म का प्रचार’) और चुनावों में भागीदारी तथा प्रगतिशील पूंजीवादी ताकतों के साथ एकता के हामी ब्रिटिश यूनियन नेता । 1874 में जनरल एसोसिएशन आफ़ जर्मन वर्कर्स के लासालपंथियों से भी संपर्क स्थापित किया गया ।
ऊपर वर्णित परिदृश्य बताता है कि हेग कांग्रेस में विभाजन के लिए जिम्मेदार प्रधान मतभेद न तो राज्य के साथ समझौता करने के लिए तैयार समूह और क्रांति के लिए अधिक इच्छुक सैद्धांतिक पक्ष के बीच था न ही राजनीतिक कार्यवाही के समर्थकों और इसके विरोधियों के बीच था । इसकी बजाए जनरल कौंसिल के प्रति मूलगामी और व्यापक विरोध का मुख्य कारण 1871 के लंदन सम्मेलन में हड़बड़ी में लिए गए फैसले थे । जूरा और स्पेनी फ़ेडरेशनों तथा नवगठित इतालवी फ़ेडरेशन ने मजदूर वर्गीय राजनीतिक पार्टी बनाने के मार्क्स के आवाहन का कभी समर्थन नहीं किया होता । सबसे बड़ी बात कि उन देशों की समाजार्थिक स्थितियों में यह अकल्पनीय था । बहरहाल थोड़ा लचीला रुख अपनाने से बेल्जियन लोगों का समर्थन बरकरार रहता जो इंटरनेशनल और डच फ़ेडरेशन जैसे नवगठित फ़ेडरेशनों के बीच अनेक वर्षों तक संतुलन बनाए रखने में मुख्य भूमिका निभा रहे थे । आंतरिक टकराव थोड़ा कम तीखे होते तो ब्रिटेन में विभाजन को रोका जा सकता था जिसका संबंध नीतियों पर असहमति के मुकाबले व्यक्तित्वों की टकराहट से अधिक था । आखिरी बातजैसा कुछ स्वायत्ततावादियों ने भांप लिया था कि जनरल कौंसिल को न्यूयार्क स्थानांतरित करने के फैसले ने 1872 के बाद उन्हें अधिक राजनीतिक अवसर दिया और उनकी दावेदारी बढ़ाने में मदद की । बहरहाल मार्क्स की नजर मेंप्रथमइंटरनेशनल ने अपना ऐतिहासिक कार्यभार पूरा कर लिया था इसलिए उसके समाहार का समय आ गया था ।
स्वायत्ततावादियों कीपहलीया उनके कथनानुसारछठवीं’ (इंटरनेशनल की पांच की निरंतरता में) कांग्रेस जेनेवा में 1873 में 1 से 6 सितंबर तक हुई । इसमें बेल्जियम, स्पेन, फ़्रांस, इटली, ब्रिटेन, नीदरलैंड और स्विट्ज़रलैंड से 32 प्रतिनिधियों ने भाग लिया । यह कांग्रेस केंद्रवादियों की कांग्रेस से एक सप्ताह पहले हुई और इसने घोषित किया किइंटरनेशनल में ने युग की शुरुआतहुई है । सर्वसम्मति से इसनें जनरल कौंसिल को भंग करने का फैसला किया और इंटरनेशनल के इतिहास में पहली बार किसी कांग्रेस में अराजक समाज के सवाल पर बहस हुई । सामाजिक क्रांति की प्राप्ति के हथियार के बतौर आम हड़ताल के विचार को समाहित करके इंटरनेशनल के वैचारिक-राजनीतिक शस्त्रागार को समृद्ध किया गया । इस प्रकार अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद के नाम से मशहूर होने वाली प्रवृत्ति की आधारशिला रख दी गई ।
अगली कांग्रेस ब्रसेल्स में 1874 में 7 से 13 सितंबर तक हुई । इसमें सोलह प्रतिनिधि थे- ब्रिटेन से एक (इकारियस), स्पेन से एक और शेष सभी बेल्जियम से थे । इन चौदह में से दो को फ़्रांसिसी (पेरिस) या इतालवी (पालेर्मो) प्रभाग का जनादेश प्राप्त था तथा अन्य दो बेल्जियम में रह रहे लासालपंथी जर्मन प्रवासी थे । गिलौमे ने बताया कि इनमें से एक कार्ल फ़्राह्मे दरअसल जनरल एसोसिएशन आफ़ जर्मन वर्कर्स के प्रतिनिधि थे । समाजवाद के नक्शे पर अराजकतावादी और लासालपंथी विपरीत ध्रुव पर अवस्थित थे इस तथ्य के बावजूद गिलौमे ने उनकी उपस्थिति को प्रोत्साहित किया और इसके लिए 1873 की जेनेवा कांग्रेस द्वारा अनुमोदित नए नियमों का हवाला दिया जिनके तहत प्रत्येक देश के मजदूरों को यह आजादी थी कि अपनी मुक्ति हासिल करने का सर्वोत्तम साधन का वे निर्णय करें । कुल मिलाकर यह इंटरनेशनल अधिकांशत: ऐसी जगह बन गई जहां अत्यंत कमतर (अल्पतम प्रतिनिधित्व वाले) नेता मिलते थे और मजदूरों की भौतिक स्थितियों और उन्हें बदलने के लिए आवश्यक कार्यवाहियों के बारे में अमूर्त बहसें चलाते थे । 1874 में बहस अराजकतावाद और जनता का राज्य (फ़ोक्सस्टाट) के बीच थी और इंटरनेशनल की किसी कांग्रेस में 3 साल बाद भाग लेने वाला डि पाएपे इसमें प्रधान नेता था । अपने एक भाषण में उसने कहा किस्पेन में, इटली के कुछ हिस्सों में और जूरा में हम अराजकता के समर्थन में हैं (लेकिन) जर्मनी में, निदरलैंड्स में, ब्रिटेन में और अमेरिका में मजदूर राज्य चाहते हैं (बेल्जियम में दोनों के बीच झूल रहे हैं)’ । एक बार फिर कोई सामूहिक फैसला नहीं हो सका और कांग्रेस सर्वसम्मति से सहमत हुई किप्रत्येक देश में किसी भी फ़ेडरेशन और समाजवादी लोकतांत्रिक पार्टी को यह तय करना है कि कौन सी राजनीतिक दिशा का वह अनुसरण करना चाहती है
आठवीं कांग्रेस 1876 में 26 से 30 अक्टूबर के बीच बेर्नी में हुई और उसने भी इसी लाइन का अनुसरण किया । इसमें 28 प्रतिनिधि थे जिनमें 19 स्विस (जूरा फ़ेडरेशन से 17), 4 इतालवी, स्पेन और फ़्रांस से दो दो तथा बेल्जियम और नीदरलैंड्स से अकेले डि पाएपे । कार्यवाही से डि पाएपे और गिलौमे के रुख में आपसी विरोधिता का पता चलता है लेकिन अंत में बेल्जियन फ़ेडरेशन के एक प्रस्ताव पर उनमें सहमति बन गई । प्रस्ताव था कि अगले साल विश्व समाजवादी कांग्रेस आयोजित की जाए जिसका आमंत्रणयूरोप की समाजवादी पार्टियों के समस्त गुटोंको भेजा जाए ।

बहरहाल इस आयोजन से पहले ही इंटरनेशनल की अंतिम कांग्रेस 1877 में 6 से 8 सितंबर के बीच वेरविएर्स में संपन्न हुई । इसमें 22 प्रतिनिधि जमा हुए- 13 बेल्जियम से, स्पेन, इटली, फ़्रांस और जर्मनी से दो दो तथा जूरा फ़ेडरेशन के प्रतिनिधि गिलौमे । इनके अतिरिक्त समाजवादी समूहों से तीन पर्यवेक्षक भी थे जिनका काम केवल सलाह देना था । इन्हीं में से एक पीटर क्रोपाटकिन (1842-1921) भी थे जो बाद में अराजकतावादी कम्यूनिज्म के संथापक बने । कांग्रेस में सक्रिय भागीदारी अराजकतावादियों की ही दिखाई पड़ी । इनमें अंद्रीया कोस्ता (1851-1910) जैसे भी कुछ लोग थे जो जल्दी ही समाजवाद की ओर आ गए । इस प्रकार स्वायत्ततावादी इंटरनेशन ने भी अपना इतिहास खत्म किया । इसका जनाधार केवल स्पेन में था । उनके परिप्रेक्ष्य के मुकाबले समूचे यूरोप के मजदूर आंदोलन की यह अनुभूति भारी पड़ी कि संगठित पार्टियों के जरिए राजनीतिक संघर्ष में भग लेना अत्यंत महत्वपूर्ण है । स्वायत्ततावादी प्रयोग के खात्मे के बाद अराजकतावादियों और समाजवादियों में भी अलगाव निश्चित था ।

Tuesday, December 27, 2016

मार्क्स बनाम बाकुनिन


हेग कांग्रेस के बाद भी कुछ महीनों तक दोनों खेमों के बीच लड़ाई चलती रही लेकिन शायद ही कुछ मामलों में दोनों के मौजूदा सैद्धांतिक और वैचारिक अंतर इसके केंद्र में रहे हों । मार्क्स अकसर बाकुनिन के विचारों का मजाक उड़ाते थे, उन्हें ‘वर्ग समानता’ (एलायंस फ़ार सोशलिस्ट डेमोक्रेसी के 1869 कार्यक्रम के सिद्धांतों के आधार पर) या राजनीतिक अनुपस्थितिवाद के वकील के रूप में पेश करते थे । अपनी ओर से यह रूसी अराजकतावादी व्यक्तिगत आरोपों और प्रवादों के स्तर पर मुकाबला करना पसंद करता था क्योंकि प्रतिद्वंद्वी की सैद्धांतिक क्षमता का उसमें अभाव था । उसके सकारात्मक विचारों का एकमात्र सबूत ला लिबर्ते (ब्रसेल्स का अखबार) के लिए लिखा एक अधूरा खत है जिसे भेजा नहीं गया, विस्मृत रहा और लगातार चलने वाले झगड़ों में बाकुनिन के समर्थकों के किसी काम का नहीं निकला । इससे स्वायत्ततावादियोंके राजनीतिक विचारों का साफ खुलासा होता है:
इंटरनेशनल के फ़ेडरेशनों और प्रभागोंके सदस्यों को आपस में जोड़ने वाला नियम एक ही है ।-----और वह है श्रम के शोषकों के विरुद्ध आर्थिक संघर्षों में सभी पेशों और सभी देशों के मजदूरों की अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता । मजदूर वर्ग की स्वत:स्फूर्त कार्यवाही के जरिए उसी एकजुटता का संगठन और पूरी तरह से स्वतंत्र फ़ेडरेशन---ही इंटरनेशनल की वास्तविक और जीवंत एकता का प्राण है । कौन शक कर सकता है कि पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध सर्वहारा की इसी जुझारू एकजुटता के अधिकाधिक व्यापक होते संगठन से ही पूंजीपतियों के विरुद्ध सर्वहारा का राजनीतिक संघर्ष पैदा होना चाहिए ? इस सवाल पर मार्क्सवादी और हम एकमत हैं । लेकिन इसके बाद वह सवाल आता है जो हमें गहराई से मार्क्सवादियों से अलगा देता है । हमारा सोचना है कि सर्वहारा की नीति अनिवार्य तौर पर क्रांतिकारी होनी चाहिए जिसका एकमात्र और सीधा उद्देश्य राज्य का विनाश होगा । हम समझ नहीं पाते कि अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता की बात करते हुए राज्य को संरक्षित रखना कैसे संभव है ।----क्योंकि अपनी प्रकृति से ही राज्य उस एकजुटता के साथ घात है और इसीलिए स्थायी युद्ध का कारण है । हम यह भी नहीं समझ पाते कि राज्य के भीतर और उसके जरिए सर्वहारा की मुक्ति या जनसमुदाय की सच्ची आजादी की बात करना कैसे संभव है । राज्य का मतलब ही है अधिकारसंपन्न होना और समस्त अधिकारसंपन्नता के लिए जनसमुदाय की अधीनता और फलत: किसी न किसी शासक अल्पसंख्या के हित में उनका शोषण आवश्यक है । संक्रमण की प्रक्रिया में भी हम संविधान सभा, अस्थायी सरकार या तथाकथित क्रांतिकारी तानाशाही को स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि हमारा यकीन है कि जनगण के हाथों में ही क्रांति सच्ची, वास्तविक और ईमानदाराना हो सकती है तथा जब भी यह मुट्ठी भर शासक व्यक्तियों में केंद्रित होगी यह अनिवार्य रूप से और तत्काल प्रतिक्रिया हो जाती है ।
इस तरह साफ है कि किसी भी तरह के राजनीतिक प्राधिकार, खासकर उसके प्रत्यक्ष रूप राज्य का कट्टर विरोध करने के मामले में बाकुनिन के विचार बहुत कुछ प्रूधों से मिलते जुलते हैं लेकिन उन्हें साझेदारीवादियों के साथ खड़ा कर देना गलत होगा । जहां साझेदारीवादी समस्त राजनीतिक गतिविधि से वस्तुत: अलग रहते थे और इंटरनेशनल के शुरुआती सालों में उनका भारी असर था वहीं स्वायत्ततावादीसामाजिक क्रांति की खास राजनीति के पक्ष में, पूंजीवादी राजनीति और राज्य के नाश के पक्ष मेंलड़ते हैं- जैसा कि गिलौमे ने हेग कांग्रेस के अपने आखिरी हस्तक्षेप में कहा था । इसे माना जाना चाहिए कि वे इंटरनेशनल के क्रांतिकारी घटक थे और कि राजनीतिक सत्ता, राज्य और नौकरशाही के सवालों पर उनके विचार मजेदार आलोचनात्मक योगदान प्रतीत होते हैं ।
फिर स्वायत्ततावादियों कीनकारात्मक राजनीतिजिसे वे कार्यवाही का एकमात्र संभव रूप समझते थे वह कैसे केंद्रवादियों कीसकारात्मक राजनीतिसे अलग थी? इटालियन फ़ेडरेशन के प्रस्ताव पर 15-16 सितंबर 1872 को संपन्न सेंट-इमिएर की इंटरनेशन कांग्रेस, जिसमें हेग से लौटते हुए अन्य प्रतिनिधियों ने भाग लिया था, के प्रस्तावों में कहा गया किसभी राजनीतिक संगठन प्रभुत्व के संगठन ही हो सकते हैं । वे किसी एक वर्ग को लाभ पहुंचाते हैं और जनगण के लिए नुकसानदेह होते हैं । अगर सर्वहारा सारी राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करना चाहता है तो वह खुद प्रभुत्वशाली और शोषक वर्ग हो जाएगा। इसी कारणसर्वहारा का पहला काम समस्त सत्ता का नाश हैऔरइस नाश के लिए किसी भी तथाकथित अस्थायी और क्रांतिकारी राजनीतिक सत्ता का गठन केवल और बड़ा धोखा साबित होगा तथा सर्वहारा के लिए उतना ही खतरनाक होगा जितना मौजूदा कोई भी सरकार है। बाकुनिन ने एक और अधूरे लेखद इंटरनेशनल ऐंड कार्ल मार्क्समें जैसा जोर देकर कहा है कि इंटरनेशनल का कार्यभारराज्य और पूंजीवादी दुनिया से बाहर की राजनीतिमें सर्वहारा का नेतृत्व करना था इसलिए उसके कार्यक्रम का सच्चा आधारसहज सरल- पूंजीवाद के विरुद्ध मजदूर के आर्थिक संघर्ष में एकजुटता का निर्माणहोना चाहिए । असल में तो अगर तमाम बदलावों पर ध्यान दिया जाए तो सिद्धांतों की यह घोषणा इंटरनेशनल के मूल लक्ष्य के अधिक करीब थी और जिस दिशा का संकेत कर रही थी वह लंदन सम्मेलन के बाद मार्क्स और जनरल कौंसिल द्वारा अपनाई गई दिशा से बहुत अलग थी ।
सिद्धांतों और लक्ष्यों के इस गंभीर विरोध ने हेग का माहौल तैयार किया था । जहां बहुसंख्या राजनीतिक सत्ता पर जीत कोसकारात्मकसमझ रही थी वहीं स्वायत्ततावादी राजनीतिक पार्टी को ऐसे उपकरण के बतौर पेश कर रहे थे जो अनिवार्य रूप से पूंजीवादी संस्थाओं के मातहत रहती है और कम्यूनिज्म की मार्क्स की धारणा को भोंड़े तरीके से लासालीय फ़ोक्सस्टाट के समरूप बता रहे थे जबकि मार्क्स उसका अनथक विरोध करते थे । बहरहाल कुछ ही समय बाद जब शत्रुता के उपरांत विवेक पैदा हुआ तो बाकुनिन और गिलौमे ने माना कि दोनों पक्षों की चाहत एक ही है । मार्क्स ने एंगेल्स के साथ लिखी इंटरनेशनल में कल्पित फूटें में दर्ज किया कि समाजवादी समाज की एक पूर्वशर्त राजसत्ता का उन्मूलन है:
सारे समाजवादी अराजकतावाद को इस कार्यक्रम के रूप में देखते हैं- सर्वहारा आंदोलन का लक्ष्य यानी वर्ग उन्मूलन जब हासिल हो जाता है तो राजसत्ता लुप्त हो जाती है जो उत्पादकों की बहुसंख्या को मुट्ठी भर शोषक अल्पसंख्या के अधीन रखने का काम करती है और फिर सरकार के काम महज प्रशासनिक काम बनकर रह जाते हैं ।
दोनों के बीच अंतर असमाधेय इसलिए हो जा रहा था क्योंकि स्वायत्ततावादी जोर दे रहे थे कि इस लक्ष्य को तुरंत साकार किया जाए । मार्क्स की नजर में चूंकि स्वायत्ततावादी इंटरनेशनल को राजनीतिक संघर्ष का औजार मानने की जगह भविष्य के ऐसे आदर्श समाज का माडल मानते थे जहां किसी तरह का प्राधिकार नहीं होगा इसलिए बाकुनिन और उनके समर्थक
सर्वहारा की कतारों में अराजकता को ऐसा अमोघ अस्त्र समझते थे जो शोषकों के हाथों में सामाजिक और राजनीतिक सत्ता के केंद्रीकरण को खत्म करता है । इसी बहाने की आड़ में (वे) इंटरनेशनल से संगठन की जगह पर अराजकता को स्थापित करने के लिए कहते हैं जब पुरानी दुनिया उसे कुचल डालने का रास्ता खोज रही है ।
इस प्रकार हालांकि उनके बीच समाजवादी समाज में वर्गों और राज्य की राजनीतिक सत्ता को उखाड़ फेंकने की जरूरत के बारे में सहमति थी फिर भी दोनों पक्ष इस बदलाव को ले आने के लिए आवश्यक रास्ते और सामाजिक ताकतों के बुनियादी मुद्दों पर विपरीत बातें कह रहे थे । जहां मार्क्स के लिए सर्वोत्कृष्ट क्रांतिकारी कर्ता खास वर्ग, औद्योगिक सर्वहारा था वहीं बाकुनिन इसकी आशाजनता की विशाल भीड़’, तथाकथितलंपट सर्वहारासे करते थे जोपूंजीवादी सभ्यता से लगभग अदूषित होने के कारण अपने आंतरिक जीवन और अपनी आकांक्षाओं में, सामूहिक जीवन की तमाम आवश्यकताओं और तकलीफों में भविष्य के समाजवाद के सभी बीज लिए रहता है। कम्यूनिस्ट मार्क्स ने सीखा था कि सामाजिक रूपांतरण के लिए खास ऐतिहासिक परिस्थितियों, प्रभावशाली संगठन और जनता में वर्ग चेतना के निर्माण की दीर्घकालीन प्रक्रिया की जरूरत होती है वहीं अराजकतावादी बाकुनिन को यकीन था कि आम जन, तथाकथितभीड़की अंतश्चेतनाअजेय और न्यायोचिततो होती ही है, ‘सामाजिक क्रांति के आरम्भ और उसकी विजयके लिए भी अपने आपमें पर्याप्त होती है ।
दूसरी असहमति का संबंध समाजवाद की प्राप्ति के उपकरणों से था । बाकुनिन की ज्यादातर लड़ाकू गतिविधियों में अधिकतर बुद्धिजीवियों की छोटीगुप्त सोसाइटियोंका निर्माण (या निर्माण की कल्पना) शामिल था जिन्हें वेसमर्पित, ऊर्जावान, प्रतिभाशाली व्यक्तियों, सबसे आगे बढ़कर जनता के सच्चे दोस्तों को लेकर निर्मित क्रांतिकारी सेनाकहते थे जो आम विद्रोह की तैयारी करेंगे और क्रांति को सचालित करेंगे । इसके उलटा मार्क्स मजदूर वर्ग द्वारा खुद की मुक्ति में यकीन करते थे और मानते थे किसर्वहारा आंदोलन के विकास सेगुप्त सोसाइटियों का टकराव होगाक्योंकि मजदूरों को शिक्षित करने की बजाए ये सोसाइटियां उन्हें ऐसे मनमाने, रहस्यमय नियमों के अधीन ले आती हैं जो नियम उनकी स्वतंत्रता को नियंत्रित करते हैं और उनकी विवेक-शक्ति को विकृत करते हैं। रूस से निर्वासित बाकुनिन मजदूर वर्ग की सीधे क्रांति को प्रोत्साहित न करने वाली सभी राजनीतिक कार्यवाहियों का विरोध करता था जबकि लंदन में स्थायी आवास वाले राज्यविहीन मार्क्स सामाजिक सुधारों और आंशिक लक्ष्यों के लिए गोलबंदी से परहेज नहीं करते थे लेकिन इस बात को पूरी तरह मानते थे कि इनसे पूंजीवादी उत्पादन पद्धति को खत्म करने का मजदूर वर्ग का संघर्ष मजबूत होना चाहिए न कि उसे व्यवस्था में समाहित हो जाना चाहिए ।
इन अंतरों को क्रांति के बाद भी समाप्त नहीं होना था । बाकुनिन की नजर में ‘राज्य का खात्मा सर्वहारा की आर्थिक मुक्ति की पूर्वशर्त या अनिवार्य सहचर’ था । मार्क्स की नजर में राज्य न तो एक दिन में गायब हो सकता था न उसे गायब होना चाहिए । दिसंबर 1873 में अलमानाको रिपब्लिकानो में पहली बार प्रकाशित अपने लेख ‘पोलिटिकल इनडिफ़रेंटिज्म’ में उन्होंने इटली के मजदूर आंदोलन में अराजकतावादियों के वर्चस्व को यह कहते हुए चुनौती दी कि
“अगर मजदूर वर्ग का राजनीतिक संघर्ष हिंसक रूप ग्रहण कर लेता है और अगर मजदूर पूंजीपति वर्ग की तानाशाही की जगह पर अपनी क्रांतिकारी तानाशाही स्थापित करते हैं तो (बाकुनिन के मुताबिक) यह सिद्धांत से गद्दारी का भयंकर कृत्य होगा क्योंकि अपनी रोजमर्रा की कष्टकर सांसारिक जरूरतों को पूरा करने और पूंजीपति वर्ग के प्रतिरोध को कुचल देने के लिए उन्हें अपने हथियार रख देने और राज्य को उखाड़ फेंकने की बजाए राज्य को क्रांतिकारी और संक्रमणकालीन रूप प्रदान करना चाहिए ।”
बहरहाल इस बात को मानना होगा कि हालांकि बाकुनिन कभी कभी पूंजीवादी और सर्वहारा सत्ता के बीच फ़र्क करने से उत्तेजक इनकार करते हैं लेकिन इसके बावजूद उन्होंने पूंजीवाद और समाजवाद के बीच के तथाकथित ‘संक्रमण काल’ के खतरों- खासकर क्रांति के बाद नौकरशाहाना पतन के खतरों को पहले ही देख लिया था । 1870 और 1871 में बाकुनिन ने ‘क्नाउटो-जर्मेनिक एम्पायर ऐंड द सोशल रेवोल्यूशन’ लिखा लेकिन वह अधूरी रही । उसमें लिखा:
“हमें बताया जाता है कि मार्क्स के जनता के राज्य में कोई विशेषाधिकार-संपन्न वर्ग नहीं होगा । सब समान होंगे, न केवल कानूनी और राजनीतिक दृष्टि से बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी ।---इसलिए कोई विशेषाधिकार-संपन्न वर्ग नहीं होगा लेकिन सरकार होगी और ध्यान दीजिए कि यह अत्यंत जटिल सरकार होगी जो आजकल की सभी सरकारों के काम की तरह केवल जनता पर राजनीतिक शासन और प्रशासन से ही संतुष्ट नहीं होगी, बल्कि वह उनका आर्थिक शासन भी करेगी । इसके तहत वह उत्पादन और संपत्ति का न्यायपूर्ण वितरण, जमीन की खेती, कारखानों की स्थापना और उनका विकास, वाणिज्य का संगठन और दिशा निर्देश और आखिरकार राज्य नामक एकमात्र बैंक के जरिए उत्पादन के लिए पूंजी निवेश का काम अपने हाथों में केंद्रित कर लेगी ।---यह वैज्ञानिक बौद्धिकता का सर्वाधिक कुलीन, तानाशाहीपूर्ण, उद्दंडता से भरा हुआ और सभी सत्ताओं के प्रति अवमानना से भरा हुआ शासन तंत्र होगा । उसमें एक नया वर्ग होगा, वास्तविक और नकलची वैज्ञानिकों और विद्वानों का एक नया पदानुक्रम होगा तथा दुनिया ज्ञान के नाम पर शासन करने वाली अल्पसंख्या और विशाल अज्ञानी बहुसंख्या के बीच विभाजित होगी ।---प्रत्येक राज्य चाहे वह सर्वाधिक गणतंत्रात्मक और सर्वाधिक लोकतांत्रिक राज्य ही क्यों न हो,---सारत: ऊपर से जनता को शासित करने वाली मशीनें ही होते हैं । यह शासन ऐसी प्रतिभाशाली और फलत: विशेषाधिकार संपन्न अल्पसंख्या के जरिए चलाया जाता है जो जनता के वास्तविक हितों को जनता से भी अधिक अच्छी तरह से जानने का दावा करते हैं ।”

अंशत: अर्थशास्त्र के अपने अल्पज्ञान के कारण बाकुनिन द्वारा संकेतित संघीयतावादी रास्ता सचमुच का कोई उपयोगी निर्देश नहीं दे पाता कि भविष्य के समाजवादी समाज के सवाल को कैसे समझा जाए । लेकिन उसकी आलोचनात्मक अंतर्दृष्टि आगामी बीसवीं सदी के कुछ नाटकों के संकेत दे जाती है ।

Monday, December 26, 2016

इंटरनेशनल का संकट


1872 की गर्मियों के अंत में आखिरी लड़ाई हुई । पिछले तीन सालों में भयंकर घटनाएं घटित हुई थीं- फ़्रांको-प्रशियाई युद्ध, पेरिस कम्यून के बाद दमन की लहर और ढेर सारी आंतरिक कलहें । इन सबके बाद आखिरकार इंटरनेशनल की कांग्रेस हुई । जिन देशों में इसने हाल में जड़ पकड़ी थी वहां इसका विस्तार इंटरनेशनल के नारों से अचानक उत्साहित यूनियन नेताओं और मजदूर कार्यकर्ताओं की जोरदार कोशिशों से हो रहा था । 1872 में संगठन की इटली, डेनमार्क, पुर्तगाल और नीदरलैंड में सर्वाधिक तीव्र वृद्धि हुई । ऐसा ठीक उसी समय हुआ जब फ़्रांस, जर्मनी और आस्ट्रो-हंगारी साम्राज्य में इस पर प्रतिबंध लगा हुआ था । फिर भी ज्यादातर सदस्यों को इसके नेतृत्वकारी समूह में चलने वाले टकरावों की गंभीरता की जानकारी नहीं थी ।
इंटरनेशनल की पांचवीं कांग्रेस हेग में 2 से 7 सितंबर के बीच संपन्न हुई । इसमें कुल 14 देशों से 65 प्रतिनिधियों ने भाग लिया । इनमें 18 फ़्रांसिसी थे (जनरल कौंसिल में लिए गए 4 ब्लांकीपंथियों समेत), 15 जर्मन, 7 बेल्जियन, 5 ब्रिटिश, 5 स्पेनी, 4 स्विस, 4 डच, 2 आस्ट्रियाई और डेनमार्क, आयरलैंड, हंगरी, पोलैंड और आस्ट्रेलिया (विक्टोरिया प्रभाग से डब्ल्यू ई हरकोर्ट[अज्ञात]) से एक एक । फ़्रांसिसी पाल लफ़ार्ग को लिस्बन फ़ेडरेशन ने (और मैड्रिड फ़ेडरेशन ने भी) नामित किया था । इंटरनेशनल की इतालवी शाखा अपने सात प्रतिनिधियों को भेज नहीं सकी लेकिन इसके बावजूद यह इंटरनेशनल के इतिहास की सर्वाधिक प्रातिनिधिक जुटान थी ।
कांग्रेस के महत्व के कारण मार्क्स को इसमें एंगेल्स के साथ भाग लेना पड़ा । असल में तो यह संगठन की एकमात्र कांग्रेस थी जिसमें मार्क्स ने भाग लिया । इसमें न तो डि पाएपे (शायद जानते थे कि साल भर पहले की लंदन जैसी मध्यस्थता वे नहीं निभा पाएंगे) आ सके और न ही बाकुनिन पहुंच सके । लेकिन जनरल कौंसिल के फैसलों के विरोधीस्वायत्ततावादीसमूह पूरी ताकत के साथ मौजूद था । इसमें बेल्जियम, स्पेन और नीदरलैंड के सारे प्रतिनिधि थे, स्विट्ज़रलैंड के आधे और ब्रिटेन, फ़्रांस और संयुक्त राज्य से कुछ कुछ । उनकी कुल संख्या 25 थी ।
नियति की विंडबना कहिए कि कांग्रेस कनकोर्डिया हाल में शुरू हुई लेकिन कांग्रेस में कनकोर्ड यानी सामंजस्य का लेशमात्र भी नहीं था । सभी सत्रों में दोनों खेमों के बीच शत्रुता चरम पर थी जिसके चलते बहसों का स्तर पिछली कांग्रेसों के मुकाबले बेहद घटिया था । यह शत्रुता क्रिडेन्शियल की पुष्टि के सवाल पर तीन दिनों की व्यर्थ तकरार से और कटु हो गई । प्रतिनिधियों का प्रतिनिधित्व सचमुच पूरी तरह से विषम था । उसमें संगठन के आंतरिक शक्ति संतुलन का सही प्रतिबिंबन नहीं हो रहा था । उदाहरण के लिए जर्मनी में इंटरनेशनल का उस तरह से कोई प्रभाग नहीं था जबकि फ़्रांस में उन्हें भूमिगत होना पड़ा था और उनका जनादेश काफी विवादास्पद था । अन्य प्रतिनिधियों को जनरल कौंसिल की सदस्यता के नाते प्रतिनिधित्व मिला था और वे किसी खास प्रभाग की इच्छा के प्रतिनिधि नहीं थे ।
हेग कांग्रेस के प्रस्तावों का अनुमोदन इसीलिए हो सका क्योंकि कांग्रेस की संरचना में विकार था । वे अप्रामाणिक थे और उद्देश्य की उपयोगिता ही उन्हें एक साथ बांधे हुए थी इसलिए कांग्रेस में जो प्रतिनिधि अल्पसंख्यक थे असल में वे ही इंटरनेशनल की सबसे विशाल बहुसंख्या के प्रतिनिधि थे ।
हेग कांग्रेस में सबसे महत्वपूर्ण फैसला यह हुआ कि 1871 के लंदन सम्मेलन के नवें प्रस्ताव को इंटरनेशनल की नियमावली की नई धारा 7 अ के रूप में शामिल कर लिया गया । 1864 की अस्थायी नियमावली में कहा गया था किइसलिए मजदूर वर्ग की आर्थिक मुक्ति ही वह महान लक्ष्य है जिसे हासिल करने के साधन के बतौर प्रत्येक राजनीतिक आंदोलन इसकी मातहती में चलेगा। जो नई बात जोड़ी गई उसमें संगठन के भीतर का नया शक्ति संतुलन प्रतिबिम्बित हो रहा था । समाज के रूपांतरण के लिए अब राजनीतिक संघर्ष आवश्यक था क्योंकिजमीन के मालिक और पूंजी के मालिक अपनी आर्थिक इजारेदारी की रक्षा और उसकी निरंतरता के लिए और मजदूरों को गुलाम बनाए रखने के लिए हमेशा अपने राजनीतिक विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करेंगे इसलिए राजनीतिक सत्ता को जीतना मजदूर वर्ग का महान कर्तव्य बन गया है
अबका इंटरनेशनल अपनी स्थापना के समय से पूरी तरह से भिन्न था । अधिकाधिक हाशिये पर जाने के बाद मूलगामी-लोकतांत्रिक घटक अब बाहर हो चुके थे, साझेदारीवादी पराजित किए जा चुके थे और उनमें से अनेक ने विचार बदल लिए थे, संगठन में सुधारवादियों की बहुतायत नहीं रह गई थी (ब्रिटेन को छोड़कर) और पूंजीवाद विरोध समूचे इंटरनेशनल की तथा अराजकतावादी-समूहवादी जैसी हाल में निर्मित प्रवृत्तियों की राजनीतिक दिशा बन चुका था । इससे भी आगे की बात यह थी कि इंटरनेशनल की मौजूदगी के कुछेक सालों में थोड़ी बहुत आर्थिक समृद्धि नजर आई थी जिसके कारण हालात कुछ कम जोखिम भरे रहे लेकिन इसके बावजूद मजदूरों ने समझ लिया कि ऐसे दर्द निवारकों के जरिए नहीं बल्कि असली बदलाव केवल मनुष्य के शोषण के अंत से आएगा । अब उनके संघर्ष अधिकाधिक उनकी भौतिक जरूरतों के आधार पर हो रहे थे, न कि जिनसे वे जुड़े थे उन खास समूहों की पहल के आधार पर ।
बड़ी तस्वीर भी पूरी तरह से भिन्न हो गई थी । 1871 में जर्मनी के एकीकरण ने ऐसे युग के आगमन की पुष्टि कर दी जिसमें राजनीतिक, कानूनी और भूभागीय पहचान का केंद्रीय रूप राष्ट्र-राज्य बन गया । इसने ऐसे राष्ट्रोपरि निकाय पर सवाल खड़ा कर दिया जिसकी आमदनी अलग अलग देशों से एकत्र सदस्यता राशि थी तथा जो उन देशों के सदस्यों के नेताओं के बड़े हिस्से पर निर्भर था । इसके साथ ही राष्ट्रीय आंदोलनों और संगठनों के बीच बढ़ते अंतर्विरोधों ने जनरल कौंसिल के लिए सबकी मांगों को संतुष्ट करने लायक राजनीतिक संश्लेषण तैयार करना अत्यंत कठिन बना दिया । सही बात यह है कि शुरुआत से ही इंटरनेशनल ऐसे ट्रेड यूनियनों राजनीतिक संगठनों का जमाजोड़ था जिनमें आपसी संगति आसान नहीं था और कि इनके जरिए ठीक ठीक संगठनों के मुकाबले भावनाओं और राजनीतिक प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व होता था । बहरहाल 1872 के आते आते इंटरनेशनल के विभिन्न घटक और आम तौर पर मजदूरों के संघर्ष स्पष्ट रूप से परिभाषित और सुगठित हो चले थे । ब्रिटिश ट्रेड यूनियनों के कानूनी हो जाने से वे आधिकारिक रूप से राष्ट्रीय राजनीतिक जीवन का अंग हो गए । इंटरनेशनल का बेल्जियम फ़ेडरेशन बहुशाखाई संगठन था जिसमें केंद्रीय नेतृत्व सिद्धांत के क्षेत्र में स्वायत्त और महत्वपूर्ण योगदान करने में सक्षम था । जर्मनी में मजदूरों की दो पार्टियां थीं, सोशल डेमोक्रेटिक वर्कर्स पार्टी आफ़ जर्मनी और जनरल एसोसिएशन आफ़ जर्मन वर्कर्स, और दोनों के ही संसद सदस्य थे । फ़्रांसिसी मजदूर ल्यों से पेरिस तकस्वर्ग पर धावामारने की कोशिशें कर चुके थे । स्पेनी फ़ेडरेशन इतना विस्तार कर चुका था कि जन संगठन बन जाने की कगार पर था । अन्य देशों में भी ऐसे ही बदलाव हो रहे थे ।
इस प्रकार इंटरनेशनल का शुरुआती ढांचा इसके मूल लक्ष्य के पूरा होने के साथ पुराना पड़ चुका था । अब हड़तालों के लिए यूरोप व्यापी समर्थन जुटाने की तैयारी नहीं करनी थी । ट्रेड यूनियनों की या जमीन और उत्पादन के साधनों के समाजीकरण की उपयोगिता के बारे में कांग्रेस आयोजित करने की जरूरत नहीं रह गई थी । ये काम अब समूचे संगठन की सामूहिक धरोहर का अंग बन चुके थे । पेरिस कम्यून के बाद अब मजदूर आंदोलन के सामने सचमुच क्रांतिकारी चुनौती दरपेश थी: पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के खात्मे और पूंजीवादी दुनिया की संस्थाओं को उखाड़ फेंकने के लिए किस तरह का संगठन चाहिए ? अब सवाल यह नहीं रह गया था कि वर्तमान समाज को कैसे सुधारा जाए बल्कि सवाल यह था कि नया समाज कैसे बनाया जाए । वर्ग संघर्ष की इस नई मंजिल में मार्क्स को प्रत्येक देश में मजदूर वर्ग की राजनीतिक पार्टियों का निर्माण अपरिहार्य महसूस हुआ । इस मामले में फ़रवरी 1871 में एंगेल्स द्वारा लिखित दस्तावेजटु द फ़ेडरल कौंसिल आफ़ द स्पैनिश रीजन आफ़ द इंटरनेशनल वर्किंग मेनस एसोसिएशनसर्वाधिक स्पष्ट कथन है:
अनुभव से सर्वत्र यह दिखाई पड़ा है कि पुरानी पार्टियों के इस प्रभुत्व से सर्वहारा को मुक्त करने का सर्वोत्तम तरीका प्रत्येक देश में ऐसी सर्वहारा पार्टी का निर्माण करना है जिसकी अपनी स्वतंत्र नीति हो, ऐसी नीति जो पुरानी पार्टियों से साफ तौर पर अलग हो क्योंकि इसमें मजदूर वर्ग की मुक्ति के लिए जरूरी शर्तों की अभिव्यक्ति होगी । इस नीति में प्रत्येक देश की विशेष परिस्थितियों के अनुरूप मुद्दों की भिन्नता हो सकती है लेकिन चूंकि पूंजी और श्रम के बीच बुनियादी रिश्ते सर्वत्र समान हैं और शोषित वर्गों के ऊपर संपत्तिशाली वर्गों का राजनीतिक प्रभुत्व सभी देशों का वर्तमान सच है इसलिए सर्वहारा नीति के सिद्धांत और लक्ष्य कम से कम सभी पश्चिमी देशों में समान होंगे ।----राजनीतिक क्षेत्र में अपने दुश्मनों के साथ लड़ना छोड़ देने का मतलब होगा खासकर संगठन और प्रचार के मामले में सबसे ताकतवर हथियार से हाथ धो बैठना ।
इसलिए इसके बाद से सर्वहारा के संघर्ष के लिए पार्टी आवश्यक मानी जाने लगी । इसे सभी मौजूदा राजनीतिक ताकतों से स्वतंत्र होना होगा और इसके कार्यक्रम तथा संगठन का निर्माण राष्ट्रीय संदर्भ के अनुसार होगा । 23 जुलाई 1872 को संपन्न जनरल कौंसिल के अधिवेशन में मार्क्स ने न केवल अनुपस्थितिवादियों (जो लंदन सम्मेलन के नवें प्रस्ताव पर हमला करते थे) की आलोचना की, बल्किइंग्लैंड और अमेरिका के मजदूर वर्गके उतने ही खतरनाक प्रस्ताव की आलोचना कीजो पूंजीपतियों द्वारा राजनीतिक मकसद के लिए अपना इस्तेमाल होने देतेहैं । दूसरे सवाल पर उन्होंने लंदन सम्मेलन में ही घोषित किया था किराजनीति को सभी देशों की स्थितियों के अनुरूप समायोजित करना होगा। अगले साल हेग कांग्रेस के तुरंत बाद एम्सटर्डम के एक भाषण में उन्होंने जोर दिया:
मजदूर को किसी न किसी दिन राजनीतिक सत्ता हासिल करनी होगी ताकि ताकि वह श्रम को नए ढर्रे पर संगठित कर सके । यदि मजदूर वर्ग राजनीति की उपेक्षा और उससे नफरत करने वाले पुराने इसाइयों की तरह पृथ्वी पर अपने राज से वंचित नहीं रहना चाहता तो उसे पुरानी संस्थाओं को टिकाए रखने वाली पुरानी राजनीति पुरानी राजनीति को उखाड़ फेंकना होगा । लेकिन हमने यह दावा नहीं किया कि इस लक्ष्य को हासिल करने का तरीका सर्वत्र एक समान होगा ।---हम इस बात से इनकार नहीं करते कि ऐसे देश हैं----जहां मजदूर अपना लक्ष्य शांतिपूर्ण साधनों से हासिल कर सकते हैं । यदि यह सच है तो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि महाद्वीप के अधिकांश देशों में बल ही हमारी क्रांति का उत्तोलक होगा । मजदूर का राज स्थापित करने के लिए हमें किसी न किसी दिन बल का ही सहारा लेना पड़ेगा ।
इस प्रकार हालांकि भिन्न भिन्न देशों में मजदूरों की पार्टियां अलग अलग रूपों में सामने आईं फिर भी वे राष्ट्रीय हितों के अधीन नहीं थीं । समाजवाद के लिए संघर्ष को इस तरीके से सीमित नहीं होना चाहिए और खासकर नए संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीयता को सर्वहारा का निर्देशक सिद्धांत बने रहना होगा । इसे राज्य और पूंजीवादी व्यवस्था के जानलेवा संक्रमण के विरुद्ध निरोधक दवा का भी काम करना होगा ।
हेग कांग्रेस के दौरान तीखी बहसों के पहले कई बार वोट पड़े । धारा 7 अ के अंगीकरण के बाद नियमावली में राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने का लक्ष्य शामिल किया गया और इसके लिए आवश्यक उपकरण के बतौर मजदूरों की पार्टी का संकेत भी दिया गया । इसके बाद जनरल कौंसिल को व्यापक अधिकार सौंपने का फैसला 32 वोटों के समर्थन, 6 के विरोध और 12 की अनुपस्थिति से हुआ । इसके कारण अल्पसंख्या के स्थिति और भी असहनीय हो गई क्योंकि अब जनरल कौंसिल का कामइंटरनेशनल के सिद्धांत, नियमावली और सामान्य नियमों का कड़ाई से पालनकी गारंटी करना था तथा उसेआगामी कांग्रेस तक के लिए इंटरनेशनल की शाखाओं, प्रभागों, कौंसिलों या फ़ेडरल कमेटियों और फ़ेडरेशनों को स्थगित रखने का अधिकार प्राप्तथा ।
इंटरनेशनल के इतिहास में पहली बार इसकी सर्वोच्च कांग्रेस ने न्यूयार्क प्रभाग 12 नामक संगठन को निष्कासित करने के जनरल कौंसिल के फैसले को अनुमोदित किया (47 वोटों का समर्थन और 9 अनुपस्थित) । इसका कारण थाइंटरनेशनल वर्किंग मेनस एसोसिएशन वर्ग उन्मूलन के सिद्धांत पर आधारित है और किसी किसी पूंजीवादी तबके को शामिल नहीं कर सकती। बाकुनिन (समर्थन 25, विरोध 6, अनुपस्थित 7) तथा गिलौमे (समर्थन 25, विरोध 9, अनुपस्थित 8) के निष्कासनों पर भी काफी हल्ला हुआ । इसकी अनुशंसा एक जांच आयोग ने की थी जिसने एलायंस फ़ार सोशलिस्ट डेमोक्रेसी कोइंटरनेशनल की नियमावली के पूरे विरोधी नियमों से संचालित गुप्त संगठनबताया था । बहरहाल जूरा फ़ेडरेशन के संस्थापकों में से एक और उसके सबसे सक्रिय सदस्य अधेमार स्विट्ज़बुएबेल (1844-92) के निष्कासन का प्रस्ताव खारिज कर दिया गया (समर्थन 15, विरोध 17 और 7 अनुपस्थित) । अंत में कांग्रेस ने द एलायंस फ़ार सोशलिस्ट डेमोक्रेसी ऐंड द इंटरनेशनल वर्किंग मेनस एसोसिएशन नामक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित करने के लिए अधिकृत किया जिसमें बाकुनिन के नेतृत्व वाले इस संगठन के इतिहास को खंगालते हुए एक एक देश में उसकी सार्वजनिक और गुप्त गतिविधियों का विश्लेषण किया गया था । एंगेल्स, लाफ़ार्ग और मार्क्स द्वारा लिखित इस दस्तावेज को जुलाई 1873 में फ़्रांसिसी भाषा में प्रकाशित किया गया ।
कांग्रेस में इन हमलों का जवाब देने में विपक्ष एकताबद्ध नहीं था । कुछ विरोध में वोट दे रहे थे तो कुछ अनुपस्थित रह जा रहे थे । बहरहाल आखिरी दिन हेग प्रभाग की ओर से विक्टर डेव (1845-1922) ने संयुक्त घोषणा जारी की जिसमें कहा गया था:
1 हम स्वायत्तता और मजदूर समूहों के फ़ेडरेशन के समर्थक जनरल कौंसिल के साथ अपना प्रशासनिक संबंध जारी रखेंगे ।
2 जिन फ़ेडरेशनों का हम प्रतिनिधित्व करते हैं वे आपस में और इंटरनेशनल की सभी नियमित शाखाओं के साथ प्रत्यक्ष और स्थायी संबंध स्थापित करेंगे ।
3 हम सभी फ़ेडरेशनों और प्रभागों का आवाहन करते हैं कि वे अबसे आगामी कांग्रेस तक इंटरनेशनल के भीतर श्रमिक संगठन के आधार के बतौर संघीय स्वायत्तता के सिद्धांतों के विजय की तैयारी करें ।
यह वक्तव्य महज एक कार्यनीतिक चाल थी जिसका मकसद उस समय तक अनिवार्य हो चुके विभाजन की जिम्मेदारी से पीछा छुड़ाना था, न कि संगठन को फिर से शुरू करने गंभीर राजनीतिक पहल लेना । इस मामले में यह कोशिश ‘केंद्रवादियों’ द्वारा जनरल कौंसिल के अधिकार बढ़ाने के प्रस्तावों की तरह थी तब जबकि वे खुद वैकल्पिक मंच खड़ा करने की योजना बना चुके थे ।
6 सितंबर के सुबह के सत्र में इस कांग्रेस की सबसे बड़ी नाटकीय घटना घटी । यह उस इंटरनेशनल का आखिरी काम था जिस रूप में इसे बरसों पहले सोचा और खड़ा किया गया था । एंगेल्स बोलने के लिए खड़े हुए और उपस्थित लोगों को आश्चर्य में डालते हुए उन्होंने प्रस्तावित किया कि ‘जनरल कौंसिल का मुख्यालय 1872-73 के लिए न्यूयार्क स्थानांतरित कर दिया जाए और इसका निर्माण अमेरिकन फ़ेडरल कौंसिल के सदस्य करेंगे ।’ इस तरह मार्क्स और इंटरनेशनल के अन्य ‘संस्थापक’ अबसे इसके केंद्रीय निकाय के अंग नहीं रहेंगे जिसका निर्माण करने वालों के नाम तक ज्ञात नहीं थे (एंगेल्स ने 7 का प्रस्ताव किया और कहा कि इसे 15 तक विस्तारित किया जा सकता है) । मार्क्स के समर्थक जनरल कौंसिल के सदस्य प्रतिनिधि माल्टमैन बैरी (1842-1909) ने किसी और से बेहतर तरीके से सभाभवन की प्रतिक्रिया का वर्णन किया है:
“विक्षुब्धों के चेहरे पर विस्मय और घबराहट फैल गई जब (एंगेल्स ने) अंतिम शब्द बोले ।---कुछ देर बाद ही कोई बोलने के लिए खड़ा हो सका । यह तख्तापलट की कार्यवाही थी और प्रत्येक व्यक्ति बगल वाले का मुंह ताक रहा था ।”
एंगेल्स ने तर्क दिया कि ‘लंदन में आपसी टकराव इस हद तक पहुंच गए हैं कि (जनरल कौंसिल को) अन्यत्र स्थानांतरित करना होगा’ और कि दमन की घड़ी में न्यूयार्क सबसे अच्छी जगह होगी । लेकिन ब्लांकीपंथी इस कदम का घोर विरोध कर रहे थे । उनका कहना था किसबसे पहले इंटरनेशनल को सर्वहारा का स्थायी विद्रोही संगठन होना चाहिएऔर किजब कोई पार्टी संघर्ष के लिए एकताबद्ध होती है---इसकी कार्यवाही और जोरदार होती है, इसकी नेतृत्वकारी कमेटी और सक्रिय, हथियारबंद तथा मजबूत होती है ।हेग कांग्रेस में मौजूद वाइलैन्त और ब्लांकी के अन्य अनुयायियों ने अपने को ठगा महसूस किया जब उन्होंने देखा किसिरतोअटलांटिक के दूसरे तट की ओर ले जाया जा रहा है (जबकि) शरीर अब भी (यूरोप में) लड़ रहा है ।उनकी मान्यता थी किइंटरनेशनल ने आर्थिक संघर्षों में अग्रणी भूमिका निभाई थीइसलिए उसेराजनीतिक संघर्ष में भी वही भूमिका निभानी चाहिएऔरमजदूरों की अंतर्राष्ट्रीय क्रांतिकारी पार्टीमें रूपांतरित हो जाना चाहिए । जनरल कौंसिल पर नियंत्रण करना असंभव समझकर वे कांग्रेस से और कुछ दिनों बाद इंटरनेशनल से बाहर चले गए ।
बहुसंख्यक कतारों में से भी अनेक ने यह मानकर इसके विरोध में वोट दिया कि न्यूयार्क के लिए स्थानांतरण कारगर संगठन के बतौर इंटरनेशनल का अंत है । इस फैसले का अनुमोदन सिर्फ़ तीन वोट से हुआ (समर्थन 26, विरोध 23) । ऐसा तभी हो सका जब 9 लोगों ने किसी पक्ष में वोट नहीं दिया और अल्पसंख्या के कुछ सदस्य खुश थे कि जनरल कौंसिल उनकी गतिविधि के केंद्र से दूर जा रही है ।
इस कदम के पीछे निश्चय ही मार्क्स का यह मत था कि विरोधियों के हाथों में संकीर्णतावादी संगठन के रूप में इसके इस्तेमाल होने से बेहतर है कि इसे दूर छोड़ आया जाय । न्यूयार्क भेजने से इंटरनेशनल का अंत निश्चित था और लंबे समय तक चलने वाले व्यर्थ के कलहपूर्ण संघर्षों से यह कहीं बेहतर था ।
फिर भी जैसा बहुत लोगों ने कहा है उस तरह यह कहना सही नहीं लगता कि इंटरनेशनल के पतन का मुख्य कारण इसकी दो धाराओं के बीच का, या फिर दो व्यक्तियों- मार्क्स और बाकुनिन के बीच का टकराव था भले ही उनका कद कितना भी बड़ा रहा हो । इसकी जगह यह अधिक सही लगता है कि इंटरनेशनल के आसपास की दुनिया में हो रहे बदलावों ने उसे पुराना बना दिया । मजदूर आंदोलन के संगठनों की वृद्धि और उनका रूपांतरण, इटली और जर्मनी के एकीकरण के फलस्वरूप राष्ट्र-राज्य की मजबूती, इटली और स्पेन जैसे देशों में (जहां के समाजार्थिक हालात ब्रिटेन या फ़्रांस से बहुत अलग थे) इंटरनेशनल का विस्तार, ब्रिटिश ट्रेड यूनियन आंदोलन में और भी नरमपंथ की ओर झुकाव, पेरिस कम्यून के बाद दमन- इन सब कारकों ने मिलकर इंटरनेशनल की मूल संरचना को नए समय के लिए अनुपयोगी बना दिया ।
इस पृष्ठभूमि में इंटरनेशनल के भीतर की केंद्रापसारी प्रवृत्तियों, उसके और उसके प्रमुख नेताओं के जीवन में आए बदलावों ने भी स्वाभाविक तौर पर एक भूमिका निभाई । उदाहरण के लिए मार्क्स ने लंदन सम्मेलन को इंटरनेशनल को बचाने वाली घटना समझा लेकिन वह ऐसी साबित नहीं हुई । बल्कि इसके कठोर रुख ने आंतरिक संकट को बहुत बढ़ा दिया क्योंकि यह मौजूदा मानसिकता को नही समझ सकी या बाकुनिन और उसके समूह के सुदृढ़ीकरण से बचने के लिए आवश्यक पूर्वानुमान लगाने में नाकामयाब रही । उसमें मार्क्स की विजय नाशकारी सिद्ध हुई । इसके जरिए आंतरिक टकरावों को सुलझना था लेकिन वे और भी उलझ गए । बहरहाल मामला तो यह है कि लंदन में लिए गए फैसलों ने उस प्रक्रिया को गति दे दी जो पहले ही शुरू हो चुकी थी और जिसकी वापसी असंभव थी ।
इस प्रमुख नायक के बारे में इन तमाम ऐतिहासिक और सांगठनिक बातों के अतिरिक्त और भी बातें हैं जो कम महत्वपूर्ण नहीं हैं । मार्क्स ने 1871 के लंदन सम्मेलन के एक सत्र में प्रतिनिधियों को चेताया थाकौंसिल का काम बहुत बढ़ गया है क्योंकि उसे आम सवालों के साथ राष्ट्रीय सवालों से भी निबटना पड़ता है ।अब यह 1864 का इंग्लैंड और फ़्रांस के सहारे चलने वाला छोटा संगठन नहीं रह गया था । अब इसकी मौजूदगी यूरोप के सभी देशों में थी जिन सबकी खास समस्याएं और विशेषताएं थीं । न केवल सब जगह संगठन आंतरिक टकरावों से अस्त व्यस्त था बल्कि लंदन में नई नई चिंताओं और रंग बिरंगे विचारों का बोझ लेकर आने वाले प्रवासी कम्युनार्डों के आगमन ने जनरल कौंसिल के लिए राजनीतिक संश्लेषण का अपना काम पूरा करना और भी मुश्किल कर दिया था ।
इंटरनेशनल के लिए 8 साल तक दिन रात काम करने के चलते मार्क्स बुरी तरह से थक गए थे । वे जानते थे कि पेरिस कम्यून की हार के बाद मजदूरों की ताकत टूट चली है । इस समय यह तथ्य उनके लिए सबसे महत्व का था । इसलिए उन्होंने तय किया कि बाकी बचे हुए साल वे कैपिटल को पूरा करने में लगाएंगे । जब उन्होंने नीदरलैंड जाने के लिए उत्तरी समुद्र को पार किया होगा तो उन्हें लगा होगा कि प्रत्यक्ष नायक के तौर पर आगामी युद्ध उनकी आखिरी बड़ी लड़ाई होना चाहिए ।

1864 की सेंट मार्टिनस हाल की पहली बैठक में वे खामोश प्रेक्षक रहे थे । वहां से लेकर अब यह आलम था कि इंटरनेशनल के नेता के बतौर उनकी मान्यता न केवल कांग्रेस के प्रतिनिधियों और जनरल कौंसिल में थी बल्कि व्यापक जनता भी उन्हें इंटरनेशनल का नेता मानती थी । इस तरह हालांकि मार्क्स ने इंटरनेशनल के लिए बहुत कुछ किया लेकिन उसने भी मार्क्स की जिंदगी को बदल दिया । इसकी स्थापना से पहले वे राजनीतिक कार्यकर्ताओं के छोटे समूहों में ही जाने जाते थे । इसके बाद और सबसे अधिक पेरिस कम्यून के बाद और साथ ही 1867 में अपने महाग्रंथ के प्रकाशन के बाद उनकी प्रसिद्धि अनेक यूरोपीय देशों के क्रांतिकारियों में फैल गई- इस हद तक कि अखबार उन्हेंलाल आतंक का डाक्टरकहने लगे । इंटरनेशनल में अपनी भूमिका के चलते आयद जिम्मेदारी ने उन्हें अनेकानेक आर्थिक और राजनीतिक संघर्षों को नजदीक से अनुभव करने का मौका दिया । इससे उन्हें कम्यूनिज्म के बारे में और भी सोचने की प्रेरणा मिली तथा उन्होंने पूंजीवाद विरोधी अपने समग्र सिद्धांत को इस अनुभव से गहराई के साथ समृद्ध किया ।

Saturday, December 24, 2016

इंटरनेशनल का 1871 का लंदन सम्मेलन


इंटरनेशनल की पिछली कांग्रेस को संपन्न हुए दो साल बीत चुके थे लेकिन तत्कालीन परिस्थितियों में नई कांग्रेस आयोजित नहीं हो पा रही थी । इसलिए जनरल कौंसिल ने लंदन में सम्मेलन आयोजित करने का फैसला किया; 17 से 23 सितंबर के बीच 22 प्रतिनिधियों की भागीदारी के साथ सम्मेलन संपन्न हुआ । ये ब्रिटेन (आयरलैंड को भी पहली बार प्रतिनिधित्व मिला), बेल्जियम, स्विट्ज़रलैंड और स्पेन से तथा निर्वासित फ़्रांसिसी थे ।
मार्क्स ने पहले ही घोषित कर रखा था कि सम्मेलनसिर्फ़ संगठन और नीति के सवालों परहोगा, सैद्धांतिक सवालों पर बाद में कभी विचार होगा । इसके पहले ही अधिवेशन में उन्होंने इसे दोहराया:
जनरल कौंसिल ने यह सम्मेलन विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों के साथ उन उपायों के बारे में सहमति बनाने के के लिए आयोजित किया है जिन्हें ढेर सारे देशों में इंटरनेशनल के समक्ष खतरों के मद्दे नजर करना तथा परिस्थिति की जरूरत के अनुरूप नए संगठन की दिशा में आगे बढ़ना जरूरी हो गया है । दूसरी मुद्दा यह है कि जो सरकारें उपलब्ध प्रत्येक साधन से इंटरनेशनल को खत्म करने के लिए लगातार सक्रिय हैं उनका जवाब कैसे दिया जाए । आखिरी बात स्विस विवाद को हमेशा के लिए हल करना है ।
इन प्राथमिक कामों को पूरा करने के लिए पूरा जोर लगा दिया: इंटरनेशनल को पुनर्गठित करना, दुश्मन ताकतों के हमलों से इसकी रक्षा करना और बाकुनिन के बढ़ते प्रभाव को रोकना । सम्मेलन के सबसे सक्रिय प्रतिनिधि के बतौर मार्क्स 102 बार बोलने खड़े हुए, जो प्रस्ताव उनकी योजना से मेल नहीं खाते थे उन्हें रोका और असहमत लोगों को भी अपने पक्ष में कर लिया । लंदन के इस सम्मेलन ने संगठन में उनके कद की पुष्टि की जो न केवल उसकी राजनीतिक दिशा को आकार देने वाला दिमाग था बल्कि उसका सबसे अधिक लड़ाकू और सक्षम योद्धा भी था ।
इस सम्मेलन को जिस महत्वपूर्ण निर्णय के लिए बाद में भी याद रखा जाएगा वह था वाइलैन्त के नवें प्रस्ताव का अनुमोदन । ब्लांकीपंथियों की बची खुची ताकतों ने पेरिस कम्यून के अंत के बाद इंटरनेशनल से अपने को जोड़ लिया था । उनके इस नेता ने प्रस्तावित किया कि संगठन को जनरल कौंसिल के नेतृत्व में केंद्रीकृत, अनुशासित पार्टी में बदल दिया जाना चाहिए । ब्लांकीपंथियों का मानना था कि क्रांति के लिए लड़ाकुओं का सुगठित केंद्रक पर्याप्त है । इसी तरह की बातों पर कुछेक मतभेदों के बावजूद मार्क्स ने वाइलैन्त के गुट के साथ मोर्चा बनाने में कोई हिचक नहीं दिखाई । ऐसा न केवल इंटरनेशनल के भीतर बाकुनिनपंथी अराजकतावाद का विपक्ष मजबूत करने के लिए जरूरी लगा बल्कि वर्ग संघर्ष के नए दौर में आवश्यक बदलावों के बारे में व्यापक सहमति बनाने के लिए भी किया गया । इसलिए लंदन में पारित प्रस्ताव में कहा गया:
कि संपत्तिशाली वर्गों की सामूहिक शक्ति के विरुद्ध मजदूर वर्ग राजनीतिक पार्टी के रूप में अपने आपको संगठित किए बिना वर्ग के रूप में कुछ नहीं कर सकता । यह पार्टी संपत्तिशाली वर्गों द्वारा बनाई गई सभी पुरानी पार्टियों के विरुद्ध और उनसे अलग होगी । कि राजनीतिक पार्टी के रूप में मजदूर वर्ग का यह संगठन सामाजिक क्रांति की विजय और उसके अंतिम लक्ष्य, वर्गों के उन्मूलन की गारंटी के लिए अपरिहार्य है । और कि मजदूर वर्ग के आर्थिक संघर्षों से हासिल शक्ति संयोजन को जमींदारों तथा पूंजीपतियों की राजनीतिक सत्ता के विरुद्ध इसके संघर्षों के लिए उत्तोलक (लीवर) के बतौर काम करना चाहिए ।
निष्कर्ष स्पष्ट था: ‘आर्थिक आंदोलन (मजदूर वर्ग का) तथा उसकी राजनीतिक कार्यवाहियां अविभाज्य रूप से आपस में जुड़ी हुई हैं ।
1866 की जेनेवा कांग्रेस ने अगर ट्रेड यूनियनों का महत्व स्थापित किया था तो 1871 के लंदन सम्मेलन के साथ केंद्र में बदलाव आया और वह अब आधुनिक मजदूर आंदोलन का एक और महत्वपूर्ण हथियार यानी राजनीतिक पार्टी बन गया । बहरहाल इस बात पर भी बल देना होगा कि बीसवीं सदी में इसकी जो धारणा विकसित हुई उसके मुकाबले उस समय की धारणा काफी व्यापक थी । इसलिए मार्क्स की धारणा को ब्लांकीपंथियों की धारणा से, बाद में दोनों का टकराव खुलेआम हुआ और अक्टूबर क्रांति के बाद कम्यूनिस्ट संगठनों द्वारा अपनाई गई धारणा से भी अलगाना चाहिए ।
मार्क्स के तईं मजदूर वर्ग की खुद की मुक्ति के लिए दीर्घकालीन और कष्टसाध्य प्रक्रिया की जरूरत थी । यह प्रक्रिया सेर्गेई नेचायेव (1847-82) की क्रांतिकारी की प्रश्नावली में बताए गए सिद्धांत और व्यवहार के पूरी तरह विपरीत थी । इस प्रश्नावली में गुप्त सोसाइटियों की वकालत की गई थी जिसकी आलोचना लंदन के प्रतिनिधियों ने की लेकिन बाकुनिन ने उत्साह के साथ उसका समर्थन किया था ।
लंदन सम्मेलन में केवल चार प्रतिनिधियों ने नवें प्रस्ताव का विरोध किया । उनका तर्क था कि राजनीति में संलग्न न होने केअनुपस्थितिवादीरुख की जरूरत है । लेकिन मार्क्स की जीत जल्दी ही भंगुर सिद्ध हुई । जिन्हें राजनीतिक पार्टी कहा जाए उनकी प्रत्येक देश में स्थापना का आवाहन और जनरल कौंसिल को व्यापक शक्ति प्रदान करने का इंटरनेशनल के आंतरिक जीवन के लिए गंभीर नतीजा निकलता । वह अभी इतनी तेजी से संगठन के लचीले रूप के मुकाबले राजनीतिक तौर पर समरूप ढांचे में ढलने के लिए तैयार नहीं था ।
लंदन में आखिरी फैसला ब्रिटिश फ़ेडरल कौंसिल की स्थापना का लिया गया । क्योंकि मार्क्स की नजर में पेरिस कम्यून की पराजय के साथ महाद्वीप में क्रांति की स्थिति क्षीण हो चली थीं इसलिए ब्रिटिश पहलकदमियों की नजदीकी निगरानी की कोई जरूरत नहीं रह गई थी ।
मार्क्स को यकीन था कि सम्मेलन के प्रस्तावों का समर्थन लगभग सभी प्रमुख फ़ेडरेशन और स्थानीय प्रभाग कर देंगे लेकिन जल्दी ही उन्हें फिर से सोचना पड़ा । 12 नवंबर को जूरा फ़ेडरेशन ने सोनविलिएर के छोटे से कम्यून में अपनी अलग कांग्रेस आहूत की और हालांकि बाकुनिन तो इसमें भाग नहीं ले सके लेकिन इसके जरिए इंटरनेशनल के भीतर आधिकारिक विपक्ष की आमद हो गई । कार्यवाही के अंत में जारी इंटरनेशनल के सभी फ़ेडरेशनों के लिए सर्कुलर में गिलौमे और अन्य भागीदारों ने जनरल कौंसिल पर आरोप लगाया कि वह इंटरनेशनल मेंप्राधिकार के सिद्धांतका प्रवेश करा रहा है और इसकी मौलिक संरचना को बदलकरकमेटी द्वारा शासित और निर्देशित पदानुक्रमिक संगठनबना रहा है । स्विस प्रभाग ने घोषित किया कि वेसमस्त निर्देशक प्राधिकारके विरुद्ध हैंभले ही वह प्राधिकार मजदूरों द्वारा निर्वाचित और अनुमोदित होऔर जोर दिया किप्रभागों की स्वायत्तता का सिद्धांत बरकरार रखा जाएताकि जनरल कौंसिलकेवल संवाद और लेखा जोखाका निकाय रहे । अंत में उन्होंने मांग की कि जितनी जल्दी हो सके कांग्रेस आयोजित की जाए ।
हालांकि जूरा फ़ेडरेशन कि प्रतिक्रिया अप्रत्याशित नहीं थी फिर भी शायद मार्क्स को अचंभा हुआ जब विक्षोभ के संकेत और जनरल कौंसिल की राजनीतिक दिशा से भी विद्रोह अन्य जगह पर प्रकट हुए । अनेक देशों में लंदन में लिए गए फैसलों को स्थानीय राजनीतिक स्वायत्तता का अस्वीकार्य अतिक्रमण समझा गया । सम्मेलन में बेल्जियन फ़ेडरेशन ने विभिन्न पक्षों के बीच मध्यस्थता करना चाहा था लेकिन अब उसने लंदन के प्रति अधिक आलोचनात्मक रुख अपनाना शुरू किया । हालैंड ने भी बाद में दूरी बना ली । दक्षिणी यूरोप में प्रतिक्रिया और भी मजबूत थी इसलिए विपक्ष को जल्दी ही भरपूर समर्थन मिला । असल में तो आइबेरियाई इंटरनेशनल की भारी बहुसंख्या जनरल कौंसिल के विरोध में हो गई और बाकुनिन के विचारों का अनुमोदन किया । बेशक इसका आंशिक कारण यह था कि इस इलाके में औद्योगिक सर्वहारा की उपस्थिति केवल मुख्य शहरों में थी और यहां मजदूर आंदोलन अब भी बहुत कमजोर था तथा प्रमुख रूप से आर्थिक मांगों तक सीमित था । इटली में भी लंदन सम्मेलन के नतीजों को नकारात्मक तरीके से ही देखा गया । मैज़िनी के अनुयायी 1 से 6 नवंबर 1871 तक रोम में एकत्र हुए और जनरल कांग्रेस आफ़ इटालियन वर्कर्स सोसाइटीज (कुछ अधिक नरमपंथी मजदूर खेमा) संपन्न हुई, शेष अधिकांश लोग बाकुनिन के विचारों के पक्ष में थे । 4 से 6 अगस्त 1872 तक रिमिनी में इटालियन फ़ेडरेशन आफ़ द इंटरनेशनल की स्थापना कांग्रेस हुई और इसमें शामिल लोगों ने जनरल कौंसिल के विरुद्ध सर्वाधिक मूलगामी राय बनाई: वे इंटरनेशनल की आगामी कांग्रेस में भाग नहीं लेंगे, बल्कि न्यूचातेल, स्विट्ज़रलैंड मेंप्राधिकार विरोधी जनरल कांग्रेसआयोजित करने का प्रस्ताव लिया । वस्तुत: आसन्न विभाजन की यह पहली कार्यवाही थी ।
अटलांटिक के दूसरे तट पर भी संगठन में टकराव फूट पड़ा हालांकि मुद्दे अलग थे । 1871 के दौरान वहां के अनेक शहरों में इंटरनेशनल का विस्तार हुआ था और 50 प्रभागों की कुल सदस्यता 2700 तक पहुंच गई थी । अगले साल यह संख्या और भी बढ़ी (शायद लगभग 4000) लेकिन अब भी यह बीस लाख से ऊपर अमेरिकी कामगारों का बहुत ही छोटा हिस्सा था । संगठन अब भी प्रवासी समुदायों से बाहर निकलकर संयुक्त राज्य में जन्मे मजदूरों को खींच पाने में असमर्थ ही रहा था । आंतरिक कलह का भी विनाशकारी असर पड़ा क्योंकि बहुत करके न्यूयार्क आधारित इंटरनेशनल के अमेरिकी सदस्य दिसंबर 1871 में दो धड़ों में बंट गए जिनमें से प्रत्येक धड़ा संयुक्त राज्य में इंटरनेशनल का वैध प्रतिनिधि होने का दावा करता था ।
इनमें से स्प्रिंग स्ट्रीट कौंसिल नामक पहले और शुरू में बड़े धड़े ने अमेरिकी समाज के सबसे उदारपंथी समूहों के साथ संश्रय प्रस्तावित किया । इसे जनरल कौंसिल में अमेरिका के लिए संवाद सचिव के समर्थन का भरोसा था और इसकी सबसे सक्रिय शाखा 12वां प्रभाग थी । दूसरे धड़े का मुख्यालय टेन्थ वार्ड होटेल था । वह मजदूर वर्गीय दिशा पर अडिग रहा और फ़्रेडरिक एडोल्फ़ सोर्ज (1828-1906) इसमें सबसे प्रमुख व्यक्ति थे । मार्च 1872 में जनरल कौंसिल ने जुलाई में एकता कांग्रेस आयोजित करने की मांग की लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकला और मई में आधिकारिक विभाजन हो गया । आपसी मतभेदों के चलते इंटरनेशनल के सदस्यों में कमी आने लगी । टेन्थ वार्ड होटेल धड़े ने 1872 में 6 से 8 जुलाई तक अपनी कांग्रेस की और नार्थ अमेरिकन कानफ़ेडरेशन की स्थापना की । इसके 950 सदस्य 22 प्रभागों में बिखरे हुए थे (केवल 3 अंग्रेजी भाषी, शेष 12 जर्मन, 4 फ़्रांसिसी, आयरलैंड, इटली और स्कैंनडेनेविया से एक एक) । इसी बीच मई में स्प्रिंग स्ट्रीट कौंसिल धड़े के कुछ सदस्यों ने इक्वल राइट्स पार्टी के एक सम्मेलन में भाग लिया । इस पार्टी की ओर से संयुक्त राज्य के राष्ट्रपति पद के लिए विक्टोरिया वुडहल चुनाव लड़ रही थीं । यह कोई वर्गीय मंच नहीं था बल्कि काम के हालात के नियमन और रोजगार सृजन के आम वादे किए गए थे । इसके कारण कुछ प्रभागों ने कौंसिल का साथ छोड़ दिया और इनकी सदस्य संख्या केवल 1500 रह गई । जुलाई में अमेरिकन कानफ़ेडरेशन के जन्म के बाद कौंसिल ने महज 13 प्रभाग बरकरार रखे जिनकी सदस्य संख्या 500 से कम ही थी (अधिकतर कारीगर और बुद्धिजीवी) । ये प्रभाग जनरल कौंसिल की दिशा को चुनौती देने वाले यूरोपीय फ़ेडरेशनों के साथ जुड़ गए ।
अटलांटिक पार के इन झगड़ों के चलते लंदन के सदस्यों के आपसी रिश्ते भी खराब हुए । 1871-72 के दौरान जनरल कौंसिल के सचिव जान हेल्स (1839-अज्ञात) ने इकारियस की जगह अमेरिका के संवाद सचिव का कार्यभार संभाला लेकिन नीति उन्हीं की जारी रखे रहे । दोनों ही लोगों से मार्क्स के निजी रिश्ते खट्टे हो चले और ब्रिटेन में भी आंतरिक टकराव प्रकट होना शुरू हुआ । जनरल कौंसिल का समर्थन बहुसंख्यक स्विस, फ़्रांसिसी (अब ज्यादातर ब्लांकीपंथी), कमजोर जर्मन ताकतें, डेनमार्क, आयरलैंड और पुर्तगाल के नव गठित प्रभाग तथा हंगरी और बोहेमिया में पूर्वी यूरोपीय समूह करते थे । लेकिन उनकी कुल तादाद लंदन सम्मेलन के अंत में मार्क्स की उम्मीदों से काफी कम निकली ।

जनरल कौंसिल का विरोधी पक्ष चरित्र के मामले में विविधतापूर्ण था और कभी कभी इसकी वजह निहायत निजी होती थी । ये सभी विचित्र किस्म के रसायन से एक साथ बंधे हुए थे और इसके चलते इंटरनेशनल का नेतृत्व करना और भी मुश्किल हो जाता था । कुछ देशों में बाकुनिन के सिद्धांतों के प्रति आकर्षण और विभिन्न तरह के विपक्षियों को एक जगह बांधे रखने की गिलौमे की क्षमता के भी परे ‘मजदूर वर्गीय राजनीतिक कार्यवाही’ संबंधी प्रस्ताव के प्रति विरोध की मुख्य वजह वह माहौल था जो मार्क्स द्वारा प्रस्तावित गुणात्मक छलांग को स्वीकार नहीं करना चाहता था । व्यावहारिकता के तमाम दावों के बावजूद लंदन सम्मेलन में हुए बदलाव को अनेक लोगों ने बेवकूफाना हस्तक्षेप समझा । केवल बाकुनिन के साथ जुड़ा समूह ही नहीं, बल्कि अधिकांश फ़ेडरेशन और स्थानीय प्रभाग इंटरनेशनल के निर्माण के समय की स्वायत्तता तथा यथार्थ की विविधता के प्रति सम्मान को इंटरनेशनल का आधार स्तम्भ मानते थे । मार्क्स इसे भांपने में चूक गए और इसके कारण संगठन का संकट त्वरित हो गया ।

Thursday, December 22, 2016

इंटरनेशनल और पेरिस कम्यून


सेदान में जर्मनी की जीत और बोनापार्त की धर पकड़ के बाद 4 सितंबर 1870 को फ़्रांस में तीसरे रिपब्लिक की घोषणा हुई । अगले साल के जनवरी माह में पेरिस की 4 महीने की घेरेबंदी का अंत फ़्रांस द्वारा बिस्मार्क की शर्तों की मंजूरी के साथ हुआ । इसके बाद के युद्ध विराम के दौरान चुनाव हुए और एडोल्फ़ थिएर (1797-1877) की नियुक्ति रिपब्लिक के राष्ट्रपति के रूप में हुई जिसे लेजिटिमिस्टों और ओरलियनिस्टों का विराट समर्थन प्राप्त था । बहरहाल राजधानी में प्रगतिशील-गणतंत्रवादी ताकतों का बोलबाला था और जनता में व्यापक विक्षोभ की लहर थी । नगर को नि:शस्त्र करने और सुधारों को मुल्तवी रखने की इच्छा वाली सरकार का सामना होने पर पेरिसवासियों ने थिएर के विरुद्ध मोर्चा खोला और 18 मार्च को मजदूर आंदोलन के जीवन की पहली महान राजनीतिक घटना, पेरिस कम्यून का आगाज कर दिया ।
हालांकि बाकुनिन ने मजदूरों से देशभक्ति के युद्ध को क्रांतिकारी युद्ध में बदल देने की प्रार्थना की लेकिन लंदन में जनरल कौंसिल ने शुरू में चुप्पी बरती । इसने मार्क्स को इंटरनेशनल की ओर से कोई दस्तावेज लिखने की जिम्मेदारी दी लेकिन किन्ही निजी जटिल कारणों से इसके प्रकाशन को स्थगित रखा । जमीनी स्तर पर वास्तविक शक्ति संतुलन के बारे में उन्हें अच्छी तरह से खबर थी तथा पेरिस कम्यून की कमजोरियों को भी वे जानते थे इसलिए उन्हें पता था कि इसकी पराजय निश्चित है । सितंबर 1870 में ही फ़्रांको-प्रशियाई युद्ध के बारे में अपने दूसरे अभिभाषण में उन्होंने फ़्रांसिसी मजदूर वर्ग को चेतावनी देने की कोशिश की थी:
“वर्तमान संकट में जबकि दुश्मन पेरिस के दरवाजे पर दस्तक दे रहा है तो नई सरकार को हटाने की कोई भी कोशिश हताशा भरी बेवकूफी होगी । फ़्रांसिसी मजदूरों को---1792 के राष्ट्रीय स्मारकों द्वारा खुद को बहा ले जाने से---बचना चाहिए । उन्हें अतीत को जगाना नहीं है, बल्कि भविष्य बनाना है । उन्हें शांति के साथ दृढ़तापूर्वक अपने वर्गीय संगठन के लिए गणतांत्रिक स्वतंत्रता से हासिल अवसरों का लाभ उठाना है । इससे उन्हें फ़्रांस के नवजागरण के लिए तथा हमारी साझा जिम्मेदारी यानी मजदूरों की मुक्ति के लिए अपार नई शक्ति का उपहार मिलेगा । उन्हीं की ऊर्जा और विवेक पर गणतंत्र का भाग्य टिका हुआ है ।”
पेरिस कम्यून की जीत की उत्तेजक घोषणा से यूरोप भर के मजदूरों में झूठी आशा पैदा होने का खतरा था जिससे आखिरकार मनोबल में गिरावट आती और अविश्वास फैलता । इसलिए मार्क्स ने किताब लिखना टाला और कई हफ़्तों तक जनरल कौंसिल की बैठकों से दूर रहे । उनकी ये आशंकाएं जल्दी ही सही साबित हुईं और 28 मई को पेरिस कम्यून की घोषणा के दो महीने के कुछ ही दिन बाद इसे खून में डुबा दिया गया । दो दिन बाद वे जनरल कौंसिल के सामने फ़्रांस में गृहयुद्ध शीर्षक वाली पांडुलिपि के साथ प्रकट हुए । इसका वाचन हुआ और सर्वसम्मति से इसका अनुमोदन किया गया । जनरल कौंसिल के सभी सदस्यों के नाम पर इसका प्रकाशन हुआ । अगले कुछ हफ़्तों के दौरान इस दस्तावेज का भारी असर पड़ा, उन्नीसवीं सदी के मजदूर आंदोलन के किसी भी अन्य दस्तावेज से अधिक । एक के बाद एक धड़ाधड़ तीन अंग्रेजी संस्करणों ने मजदूरों में भरपूर प्रशंसा पाई तो पूंजीवादी हलकों में चीख पुकार मच गई । इसका पूरा या आंशिक अनुवाद अन्य दर्जनों भाषाओं में हुआ जो विभिन्न यूरोपीय देशों और संयुक्त राज्य में अखबारों, पत्रिकाओं तथा पुस्तिकाओं में छपा ।
मार्क्स द्वारा भावावेगपूर्ण औचित्यसिद्धि तथा प्रतिक्रियावादी विरोधियों के दावों और कठमुल्ला मार्क्सवादियों द्वारा इंटरनेशनल के गौरवान्वयन की उत्सुक कोशिशों के बावजूद इस बात का सवाल ही नहीं पैदा होता कि जनरल कौंसिल ने असल में पेरिस विद्रोह की प्रेरणा दी होगी । संगठन के प्रमुख व्यक्तियों ने जरूर एक भूमिका निभाई । उदाहरण के लिए लियो फ़्रांकेल (1844-96) को हंगरी में पैदा होने के बावजूद श्रम, उद्योग और व्यापार की जिम्मेदारी दी गई थी लेकिन पेरिस कम्यून का नेतृत्व क्रांतिकारी जैकोबिन पक्ष के हाथों में था । 26 मार्च को संपन्न म्युनिसिपल चुनावों में निर्वाचित 85 प्रतिनिधियों में 15 नरमदली (तथाकथित ‘पार्ती देस मायेर’, पेरिस के प्रशानिक जिलों के पूर्व मेयरों का समूह) और चार क्रांतिकारी थे । इन क्रांतिकारियों ने तुरंत ही इस्तीफ़ा दे दिया था और कभी कम्यून की कौंसिल के अंग नहीं बने । बचे हुए 66 लोगों में से 11 की कोई स्पष्ट राजनीतिक प्रतिबद्धता नहीं थी, 14 लोग नेशनल गार्ड की कमेटी से थे, 15 क्रांतिकारी-गणतंत्रवादी तथा समाजवादी थे । इसके अतिरिक्त 9 ब्लांकीपंथी और इंटरनेशनल के 17 सदस्य थे । इंटरनेशनल के सदस्य थे- एडुआर्ड वैलें (1840-1915), बेनोई मालों (1841-93), अगस्त सेरेले (1840-72), ज्यां-लुई पिंडी (1840-1917), अलबर्ट थिएज़ (1839-81), चार्ल्स लांग्वे (1839-1903) और पूर्वकथित वार्लिन तथा फ़्रांकेल । बहरहाल विभिन्न राजनीतिक पृष्ठभूमि और अलग अलग संस्कृति से संबध्ह वे लोग कोई एकाश्मीय समूह कतई नहीं थे और अक्सर भिन्न भिन्न तरीके से वोट डालते थे । इसके कारण भी जैकोबिनीय क्रांतिकारी गणतंत्रवादी परिप्रेक्ष्य का दबदबा था । इसकी अभिव्यक्ति मई में मोंतान्यार्द नामक राजनीतिक दल की प्रेरणा से कमेटी फ़ार पब्लिक सेफ़्टी बनाने के फैसले (ब्लांकीपंथियों समेत दो तिहाई जनरल कौंसिल द्वारा अनुमोदित) में होती है । खुद मार्क्स ने भी कहा था कि ‘कम्यून का बहुमत किसी भी मायने में समाजवादी नहीं था, न ही हो सकता था ।’
‘खूनी सप्ताह’ (21-28 मई) के दौरान लगभग 10000 कम्युनार्ड या तो लड़ते हुए मारे गए या उन्हें मौत की सजा दी गई; फ़्रांस के इतिहास का यह सबसे खूनी जनसंहार था । इसके बाद पेरिस में वेर्साई के झुंड टूट पड़े । 43000 या इससे ज्यादा दूसरे लोगों को बंदी बना लिया गया । उनमें से 13500 को मौत की सजा, कैद, जबरिया श्रम या निर्वासन (अनेक को सुदूर न्यू केलेडोनिया उपनिवेश में) दिया गया । अन्य 7000 भागने में कामयाब रहे और उन्होंने इंग्लैंड, बेल्जियम या स्विट्ज़रलैंड में शरण ली । यूरोपीय रूढ़िवादी और उदारवादी अखबारों ने थिएर के सैनिकों का काम पूरा किया, कम्युनार्डों पर घिनौने अपराधों का आरोप लगाया औए बदतमीज मजदूरों के विद्रोह पर ‘सभ्यता’ की जीत की खुशी मनाई । इसके बाद से इंटरनेशनल सारी हलचलों के केंद्र में आ गया, स्थापित व्यवस्था के विरुद्ध प्रत्येक काम के लिए उसे ही दोषी ठहराया जाता । मार्क्स ने तीखी विडंबना के साथ लिखा ‘जब शिकागो का भयंकर अग्निकांड हुआ तो पूरी दुनिया में टेलीग्राफ ने इसे इंटरनेशनल का नारकीय कृत्य घोषित किया और यह सचमुच आश्चर्यजनक है कि वेस्ट इंडीज को बरबाद कर देने वाले तूफान को इस पैशाचिक संगठन के मत्थे नहीं मढ़ा गया ।
मार्क्स को पूरा पूरा दिन इंटरनेशनल और खुद के बारे में अखबार में छपी निंदा का जवाब देने में बिताना पड़ता था: ‘उन्होंने लिखा कि मैंइस समय लंदन का सबसे अधिक निंदित और खतरनाक व्यक्ति हूं ।इस बीच यूरोप की सारी सरकारों ने दमन के अपने उपाय पैने कर लिए इस भय से कि पेरिस में हुए विद्रोह के बाद अन्य जगहों पर भी विद्रोह हो सकते हैं । थिएर ने तुरंत ही इंटरनेशनल को गैर कानूनी घोषित कर दिया और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एवार्ट ग्लैडस्टोन (1809-98) से ऐसा ही करने को कहा; किसी भी मजदूर संगठन के बारे में यह पहला राजनयिक संवाद था । नवें पोप (1792-1878) ने ऐसा ही दबाव स्विस सरकार पर डाला और तर्क दिया किउस इंटरनेशनल पंथ कोबरदाश्त करना गंभीर गलती होगीजो समूचे यूरोप के साथ वैसा ही बरताव करना चाहेगा जैसा उसने पेरिस के साथ किया है । इन सज्जनों से---खौफ़ खाना चाहिए क्योंकि वे ईश्वर और मानवता के आंतरिक शत्रुओं की ओर से काम कर रहे हैं ।ऐसी भाषा का नतीजा यह निकला कि फ़्रांस और स्पेन ने पाइरेनीज के पार के शरणार्थियों की अदला बदली पर तथा बेल्जियम और डेनमार्क में इंटरनेशनल का दमन करने का समझौता कर लिया । लंदन ने तो राजनीतिक शरण संबंधी अपने सिद्धांतों का उल्लंघन न करते हुए कदम वापस खींच लिए लेकिन जर्मन और आस्ट्रो-हंगारी सरकारों के प्रतिनिधि नवंबर 1872 में बर्लिन में मिले औरसामाजिक सवालपर उन्होंने संयुक्त वक्तव्य जारी किया:
1 कि इंटरनेशनल की प्रवृत्तियां पूंजीवादी समाज के सिद्धांतों से पूरी तरह अलग और उनके विरोध में हैं इसलिए उन्हें कड़ाई से रोकना होगा;
2 कि इंटरनेशनल इकट्ठा होने की आजादी का खतरनाक दुरुपयोग कर रहा है और इसके अपने व्यवहार और सिद्धांत के अनुरूप इसके विरुद्ध राजकीय कार्यवाही भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की ही होनी चाहिए और इसीलिए उसे सभी सरकारों की एकजुटता पर आधारित होना चाहिए;
3 कि यदि कुछ सरकारें (इंटरनेशनल के विरुद्ध) फ़्रांस की तरह विशेष कानून नहीं बनाना चाहें तो भी इंटरनेशनल वर्किंग मेनस एसोसिएशन और इसकी नुकसानदेह कार्यवाहियों का आधार खत्म कर देना चाहिए ।
आखिरकार इटली भी इस हमले से अछूता नहीं रहा । मैज़िनी कुछ समय से इंटरनेशनल की ओर आशा भरी निगाहों से देख रहा । उसने भी माना कि इसके सिद्धांतईश्वर,---- पितृभूमि,----और समूची निजी संपत्ति को नकारतेहैं ।
पेरिस कम्यून की आलोचना मजदूर आंदोलन के भी कुछ हिस्सों तक फैल गई । फ़्रांस में गृहयुद्ध के प्रकाशन के बाद ट्रेड यूनियन नेता जार्ज ओडगर और पुराने चार्टिस्ट नेता बेंजामिन लुक्राफ़्ट (1809-97) ने अखबारों के शत्रुतापूर्ण अभियान के दबाव में झुककर इंटरनेशनल से इस्तीफ़ा दे दिया । बहरहाल किसी भी ट्रेड यूनियन ने संगठन से अपना समर्थन वापस नहीं लिया । इससे एक बार फिर पुष्ट हो गया कि इंटरनेशनल की बढ़ोत्तरी ब्रिटेन में न होने का मुख्य कारण मजदूर वर्ग की राजनीतिक उदासीनता थी ।
पेरिस में खूनी पटाक्षेप और यूरोप भर में निंदा की लहर तथा सरकारी दमन के बावजूद पेरिस कम्यून के बाद इंटरनेशनल मजबूत और ज्यादा विख्यात हुआ । पूंजीपतियों और मध्यवर्गी लोगों की नजर में  इंटरनेशनल स्थापित व्यवस्था के लिए खतरे का प्रतीक था लेकिन मजदूरों के दिल में वह शोषण और अन्याय विहीन दुनिया की उम्मीद जगाता था । विद्रोही पेरिस ने मजदूर आंदोलन की किलेबंदी कर दी, अधिक क्रांतिकारी रुख अपनाने और जुझारूपन को तेज करने के लिए प्रेरित किया । अनुभव ने सिद्ध कर दिया कि क्रांति संभव है, कि लक्ष्य हो सकता है और होना चाहिए ऐसे समाज का निर्माण जो पूंजीवादी व्यवस्था से पूरी तरह भिन्न हो, लेकिन यह भी कि इसे हासिल करने के लिए मजदूरों को राजनीतिक जुड़ाव के टिकाउ और सुसंगठित रूपों को तैयार करना होगा ।
यह अपार ओजस्विता हर कहीं दीख रही थी । जनरल कौंसिल की मीटिंगों में उपस्थिति दोगुनी हो गई और इंटरनेशनल से जुड़े हुए अखबारों की तादाद और कुल बिक्री भी बढ़े । समाजवादी सिद्धांतों के प्रसार में जिनका गंभीर योगदान रहा वे थे: जेनेवा में ल’इगालिते जो पहले बाकुनिनपंथी अखबार था और फिर 1870 में संपादक बदलने के बाद स्विट्ज़रलैंड में इंटरनेशनल का प्रधान पत्र बन गया; लाइपत्सिग में सोशल डेमोक्रेटिक वर्कर्स पार्टी का पत्र डेर फ़ोक्सस्टाट; मैड्रिड में स्पैनिश फ़ेडरेशन का आधिकारिक अखबार ला इमान्सिपाशियों; मिलान में ई गाज़ेतिनो रोजा जो पेरिस की घटनाओं के बाद इंटरनेशनल की ओर चला आया; डेनिश मजदूरों का पहला खबरची जोसियालित्सेन; और शायद इन सबमें सर्वोत्तम रूएं में ला सोसिएल ।
आखिरी और सबसे महत्वपूर्ण बात कि इंटरनेशनल का विस्तार बेल्जियम और स्पेन में जारी रहा जहां मजदूरों की सक्रियता का स्तर पेरिस कम्यून से पहले ही बहुत अच्छा था तथा इटली में सचमुच एक गतिभंग दिखाई पड़ा । अनेक मैज़िनीपंथियों ने अपने भूतपूर्व प्रमुख की मान्यताओं से निराश होकर संगठन से जुड़ना शुरू किया तथा जल्दी ही इसके महत्वपूर्ण स्थानीय नेता बने । इससे भी अधिक महत्वपूर्ण था जिसेप गैरीबाल्डी का समर्थन । हालांकि उनके दिमाग में लंदन स्थित इंटरनेशनल के बारे में अमूर्त धारणा ही थी फिर भी इस ‘दो दुनिया के नायक’ ने इसका साथ पूरी तरह से देने का फैसला किया । सदस्यता के आवेदन पर उन्होंने मशहूर वाक्य लिखा: ‘इंटरनेशनल भविष्य का सूर्य है’ । इसे मजदूरों के दर्जनों अखबारों और पत्रिकाओं में छापा गया । संगठन में शामिल होने में जो लोग हिचक रहे थे ऐसे अनेक लोगों को इस पत्र ने इंटरनेशनल से जोड़ने में भूमिका निभाई ।

पुर्तगाल में भी इंटरनेशनल ने नए प्रभाग खोले । वहां इसकी स्थापना अक्टूबर 1871 में हुई थी । इसी माह डेनमार्क में भी कोपेनहागन और जुटलैंड में नवजात अधिकांश यूनियनों को इसने जोड़ना शुरू किया । ब्रिटेन में आयरलैंड के मजदूरों के प्रभागों की स्थापना एक और महत्वपूर्ण विकास था और मजदूरों के नेता जान मैकडोनेल को आयरलैंड के लिए जनरल कौंसिल का संचार सचिव नियुक्त किया गया । दुनिया के विभिन्न हिस्सों से संबद्धता के लिए अप्रत्याशित अनुरोध मिले: कलकत्ता के कुछ अंग्रेज मजदूरों, विक्टोरिया, आस्ट्रेलिया और क्राइस्टचर्च, न्यू ज़ीलैंड के मजदूर समूहों तथा ब्यूनस आयर्स के ढेर सारे कारीगरों ने जुड़ने की इच्छा जाहिर की ।