Tuesday, March 25, 2025

सिद्ध–नाथ साहित्य का महत्व

 

 

 

               

                                  

1. सिद्धों एवं नाथों के साहित्य से हिंदी साहित्य का आरंभ माना जाता है। क्या हिंदी की शुरुआत प्रतिवाद से हुई थी?

इस बात को तो आज अधिक बल देकर कहने की जरूरत है कि हिंदी शब्द ही उर्दू का है । शुरू में हिंद की भाषा वही थी जिसे बाद में उर्दू कहा गया । स्वाभाविक रूप से इसका संबंध आधुनिक हिंदी से है लेकिन अगर हम हिंदी साहित्य का समूचा इतिहास देखें तो उसकी विकासधारा साहित्य की भाषा जनता की भाषा के पास आने की है । यह बात केवल भाषा के बारे में ही नहीं लागू होती । आखिरकार भाषा मनुष्य की चेतना की सबसे पहली अभिव्यक्ति है । अर्थ कि साहित्य की भाषा के जनता की भाषा के करीब आने की प्रक्रिया साहित्य की चेतना के भी भीतर जनता के आने की है । आज भी जनता की भाषा में हिंदी और उर्दू को अलग करना सम्भव नहीं । नाथपंथ के गुरु गोरखनाथ तो कविता की उस सामान्य भूमि का निर्माण करते हैं जिस पर बाद में चलकर कबीर खड़े हुए । दुर्भाग्य की बात कि उनके नाम से स्थापित मठ का महंत इस साझेपन की निंदा करता है । गोरखनाथ के साथ योग का गहरा रिश्ता है और बताने की जरूरत नहीं कि गोपीचंद और राजा भरथरी के गीत गाने वाले अधिकांश योगी मुसलमान होते हैं और गेरुआ वस्त्र पहनते हैं फिलहाल उनके इस दोरंगे आचरण पर दोनों ही धर्मों में कट्टरता आने से संकट बढ़ा हुआ है ये योगी गोपीचंद और राजा भरथरी के गीत गाने से पहले गोरखनाथ की वंदना करते हैं कबीर खुद भी लालन पालन से मुसलमान थे । बाद में उनके हिंदूकरण की परियोजना के तहत उनकी माता कल्पित की गयी कबीरपंथ में उनके जन्म की जगह प्राकट्य का जिक्र होता है अली सरदार जाफ़री ने कबीर की कविता का एक संग्रह किया है जिसमें उनका सूफी तत्व प्रधान नजर आता है  एक और बात कि हिंदी की जननी संस्कृत नहीं है यह बात हिंदी शब्दानुशासन के लेखक किशोरीदास बाजपेयी से लेकर राधावल्लभ त्रिपाठी तक मानते हैं । हिंदी के स्वरूप के बारे में इन स्पष्टीकरणों की अधिक जरूरत आज पैदा हो गयी है । जाहिर है हिंदी की शुरुआत देववाणी की प्रतिष्ठा से लड़कर हुई । सिद्ध साहित्य की बात जाने दीजिए तुलसीदास तक को लोकभाषा की प्रतिष्ठा का दंश झेलना पड़ा था । सिद्ध साहित्य के प्रसंग में तो यह जगजानी बात है कि इसकी उत्पत्ति ही अकुलीन है इसलिए प्रतिवाद उसके आदि में है । उसकी रहस्यात्मकता भी इस प्रतिवाद का पता सहज ही देती है । सामाजिक रूप से गोप्य को ही रहस्य बनाकर पेश करने की जरूरत पड़ती है । भाषा स्वयं मनुष्य पर थोपी गयी नियति का प्रतिवाद करने की प्रक्रिया में उपजी है । सिद्धों के साहित्य से जुड़ी परिस्थितियों का विवेचन करते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ठीक ही बताया कि हिंदी लोगों के कंठ में थी लेकिन अनुकूल माहौल मिलते ही साहित्य के माध्यम के रूप में आ गयी । जनता के बीच उसकी मौजूदगी का सबूत कालिदास के पुरुरवा के शोकाकुल होने पर उसके मुख से निकले अपभ्रंश दोहे में मिलता है । जनता के बीच लोकप्रिय इसी अपभ्रंश के आसपास की भाषा सिद्धों के कथनों की भाषा बनी । उनकी सामाजिक स्थिति और उनकी आध्यात्मिक मान्यताओं से पता चलता है कि वे बहिष्कृत और हाशिये पर थे । उनके कथनों में स्थापित धार्मिक मान्यताओं का प्रतिरोध उनके नये धार्मिक आचरण में व्यक्त होता है क्योंकि आधुनिक काल से पहले के अधिकांश प्रतिरोध धार्मिक आवरण में व्यक्त होने के लिए मजबूर थे । बुद्ध द्वारा संचालित धर्म ने ही उन सिद्धों को यह रास्ता उपलब्ध कराया । खुद बौद्ध धर्म के उपदेशों के लिए पालि का चुनाव भी उसकी इस वैकल्पिकता को पुष्ट करता है ।               

2. सिद्धों और नाथों की मुख्य स्थापनाओं और उनकी विशिष्टताओं के बारे में कुछ बताएं। उनका परंपराओं के बारे में नया रुख क्या था?

सिद्धों के बारे में हमने बात की । उन्होंने परम्परा का पुनराविष्कार किया । अत्यधिक कर्मकांड के विरोध के लिए उन्होंने बुद्ध के धर्म का सहारा लिया । यह समझना जरूरी है कि जब भी कोई नया उभार किसी पुरानी धारा को अपनाता है तो उसे जस का तस नहीं ग्रहण करता । परम्परा को नवीनता इसी तरह प्राप्त होती है कि नयी जरूरतों के लिहाज से उसे ढाला जाता है । अंबेडकर ने जिस बुद्ध को अपनाया वे नये थे । इसी तरह सिद्धों ने भी बुद्ध के धर्म को अपने समय की जरूरत के हिसाब से रंगा । पवित्रता के अपने भीतर अवस्थित होने पर उनका जोर उसको बाहर खोजने का प्रतिवाद है । बहुधा उनके कथन नास्तिकता की सीमा तक छू आते हैं । गोरखनाथ के प्रसंग में रामविलास शर्मा ने उनकी अखिल भारतीय व्याप्ति पर जोर दिया है । इससे पता चलता है कि तत्कालीन स्थापित धार्मिक आचार व्यवहार के प्रति विक्षोभ इस समूचे महाद्वीप में व्याप्त था । बाह्याचार तत्कालीन ब्राह्मण धर्म का प्राण था इसलिए उसका प्रतिवाद सबसे अधिक हुआ । यह बात सर्वभारतीय थी क्योंकि क्योंकि ब्राह्मण धर्म भी इस भूभाग में सर्वव्याप्त था । जिस दोहे को रैदास के साथ जोड़ा जाता है उसके रचयिता गोरखनाथ अनायास नहीं थे । आज पवित्रता के प्रतीकों में जिस तरह गंगा और गाय को राष्ट्र की तरह का दर्जा दे दिया गया है उसमें रैदास के चमड़ा गीला रखने वाली कठौती के जल को गंगा की तरह पवित्र बता देना उनके साहस का जितना भारी सबूत है उससे भारी सबूत वह उस समय समाज के भीतर मौजूद सामाजिक ताकतों के प्रभाव का है जिनके कारण चमड़े वाली कठौती को गंगा जैसी पवित्रता प्रदान करके गंगा की पवित्रता की धारणा का प्रतिवाद करने वाले इस संत को नुकसान पहुंचाने की हिम्मत नहीं की जा सकी । इतना ही नहीं उनके इस कथन के जिंदा बचे रहने की वजह भी उस प्रतिवाद के फिर फिर जीवित होते रहने से में निहित है । प्रतिवाद का यह नवीकरण केवल विचार के स्तर पर ही नहीं रहा होगा बल्कि कुछ सामाजिक ताकतों और कई संस्थाओं का ऐसा ढांचा रहा होगा जहां ऐसी प्रतिवादी वैकल्पिकता का पोषण और संवर्धन होता रहा होगा । इस मामले में सबसे अधिक अचरज मीरां के बारे में होता है जो न केवल कथनों में विद्रोही थीं बल्कि घुमंतू संतों के साथ रहीं । इससे यह भी अनुमान होता है कि यह वैचारिक विद्रोह जरूर ही किसी ठोस सामाजिक आधार पर खड़ा था अन्यथा तत्कालीन समाज उन्हें जिंदा न रहने देता । इसी कारण यह धारणा भी सत्य से बहुत दूर नहीं प्रतीत होती कि भक्ति आंदोलन बहुत गहरा सामाजिक आंदोलन था अन्यथा रैदास को मीरां के गुरु की मान्यता न मिली होती ।             

3. सिद्धों और नाथों का लोक से कैसा संबंध था? वे इस देश में एक वैकल्पिक समाज का निर्माण किस हद  तक कर सके? वे कहां और क्यों असफल हुए?

मार्क्स के अभिन्न मित्र एंगेल्स ने जोर देकर कहा कि आधुनिक काल से पहले के लगभग सभी विद्रोह धर्म के आवरण में हुए । इसी किस्म का विद्रोह सिद्धों और नाथों के रूप में भी सामने आया था । हमारे देश में बहुत सारे समुदाय हैं जो प्रभुताशाली सामाजिक ढांचे से भिन्न जीवन बिताते हैं । एक ही किस्म के आचरण को राज और समाज की मान्यता देने और स्थापित करने की हताशा भरी कोशिश से ही सिद्ध है कि इनकी मौजूदगी आज भी बनी हुई है । अगर ऐसा न होता कि धन और राजसत्ता का एक ही संप्रदाय को इतना भारी समर्थन होने के बावजूद अन्य पंथ जीवित ही न होते । उनकी मौजूदगी ही सिद्धों मौर नाथों के विद्रोह से बनी धारा के प्रभाव का सबूत है । इस सिलसिले में याद रखना होगा कि हिंदू धर्म के भीतर ही वैष्णव के साथ साथ शैव और शाक्त परम्परा भी रही है । इस समय के उन्माद की संकीर्णता इससे ही सिद्ध है कि केवल वैष्णव और उसमें भी एक शाखा ही एकमात्र मान्य आचरण के बतौर थोपने की कोशिश हो रही है ।          

4. नाथ पंथ का मूल जातिवाद और पाखंड का विरोध था, फिर हिंदी क्षेत्र जातिवाद और कर्मकांड का इतना बड़ा गढ़ कैसे हो गया ?

समाज की किसी भी परिघटना का विकास अन्य घटकों से पूरी तरह स्वतंत्र होकर नहीं हो सकता । चूंकि उसके वाहक मनुष्य होते हैं इसलिए वह परिघटना भी मानव इतिहास के अधीन होती है । धर्मों के मामले में ही देखें तो जो इस्लाम पिता की जायदाद में पुत्री के अधिकार को मान्यता देने वाला एकमात्र धर्म है वही स्त्री मुक्ति पर सबसे अधिक बंदिश लगाने वाला बन गया है या माना जाने लगा है । उसी तरह सिख धर्म भी उदार होने के बावजूद एक दौर में आतंकवाद के चंगुल में फंसा हुआ था । बौद्ध धर्म करुणा के लिए प्रसिद्ध होने के बावजूद म्यांमार में रोहिंग्या के उत्पीड़न का औजार बन गया है । इसाई धर्म भी सहिष्णुता वाला होने के बावजूद गोरों के हाथों दूसरे ही रूप में बदल गया । किसी भी पंथ या संप्रदाय का कोई अपरिवर्तनीय सार नहीं होता । वह ऐतिहासिक बदलावों से प्रभावित होता रहता है ।          

5. सिद्ध और नाथ साहित्य से भक्ति आंदोलन ने कुछ बिंदुओं पर दूरी रखते हुए भी कौन सी प्रेरणा ली?

भक्ति आंदोलन भी उसी विद्रोह का विकास है जो सिद्धों और नाथों के रूप में सामने आया था । स्वयं गोरखनाथ ने भी सिद्धों से सब कुछ नहीं ले लिया । मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ के बीच के टकराव की कथा प्रसिद्ध ही है । इसी तरह विकास होने का अर्थ ही है कि भक्ति ने संग्रह और त्याग का तरीका अपनाया । कोई भी कवि या चिंतक पहले से आते हुए को जस का तस नहीं अपनाता । परम्परा का परिष्कार सबके लिए आवश्यक होता है । यदि परिष्कार न हुआ तो परम्परा सड़ने लगती है । दमघोंटू सामाजिक यथार्थ का विरोध ही वह तत्व है जो इन तीनों को आपस में जोड़ता है ।   

6. आज सिद्ध नाथ साहित्य का क्या महत्व है?

कहने की जरूरत नहीं कि धर्म तक के मामले में जितना प्रत्यक्ष है उतना ही नहीं होता । देख हम केवल उसी को पाते हैं जो स्थापित होता है । स्थापितों के बीच भी वर्चस्व की लड़ाई जारी रहती है । फिलहाल हिंदू धर्म के भीतर भी एक ही प्रकार को सत्ता का साथ मिला हुआ है इसलिए केवल वही नजर आ रहा है लेकिन ध्यान दें तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हिंदू धर्म से कोई संबंध नहीं है । इसीलिए वह अपने आपको सांस्कृतिक संगठन कहता है लेकिन रामजन्म भूमि आंदोलन और राम मंदिर का निर्माण, प्रधानमंत्री के लोकसभा क्षेत्र होने से बनारस कारीडोर और विश्वनाथ मंदिर तथा इसी क्रम में मथुरा में भी दावेदारी ने अन्य संप्रदायों के समक्ष उसकी हैसियत बहुत बढ़ा दी है । इसने धार्मिक हलकों में गंभीर तनाव को जन्म दिया है । संघ प्रमुख द्वारा लगातार संतों-महंतों से मुलाकात के जरिये वे धार्मिक क्षेत्र में भी अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते हैं । उनकी इन हताशा भरी कोशिशों से ही पता चलता है कि अभी उनके प्ततिद्वंद्वी मौजूद हैं । संसदीय राजनीति की दुनिया में एकाधिकार की स्थापना के बाद अब व्यापार-व्यवसाय तथा धर्म की दुनिया में एकाधिकार पाने की इन कोशिशों के पीछे हिंदू धर्म की विविधता का तथ्य छिप जाता है । इन नवीन स्थितियों में अनेकानेक पंथों और आचारों की मौजूदगी के उद्घाटन से ही सिद्धों-नाथों की धार्मिक पहचान प्रकट हो सकती है । इस पहचान को स्वीकार किये जाने के उपरांत ही उनके साहित्य का महत्व समझा जा सकता है । फिलहाल तो मंदिरों के उन्माद में मूर्ति पूजा के विरोध की आर्यसमाजी धारा की भी बात करना मुश्किल हो गया है । कभी इस देश में ही एक आर्यसमाजी प्रधानमंत्री थे जिन्होंने किसी मूर्ति को माला नहीं  पहनायी । अगर इस उल्लेख से आपको पंडित नेहरू की याद आ रही हो तो बताना जरूरी है कि उनका नाम चरण सिंह था । आज समाज और राजनीति की दुनिया में जैसी कट्टर और उग्र धर्मांधता व्याप्त है वैसे में उस साहित्य का स्मरण साहित्य के अपने धर्म की याद दिलाने के लिए जरूरी है । साहित्यकार को अगर फिर से चारण या बधाई गाने वाला नहीं बनना है तो उसे जनता की बेहतरी के सामाजिक प्रयास का अंग होना चाहिए । बेहतरी की कोशिश का साथ देने का अर्थ है उन चीजों की आलोचना जो बेहतरी की राह में बाधा हैं । इस आलोचना की धारा बहुत पुरानी है और लगातार पुनर्नवा होती रहती है । इससे प्रेरणा लेकर आज भी बहुत कुछ किया जा सकता है ।              

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