रूस में कम्युनिस्ट आंदोलन के प्रारंभिक दौर में अर्थवाद एक प्रमुख वैचारिक रोग के रूप में फैल गया था । लेनिन ने इससे लंबा सैद्धांतिक और वैचारिक संघर्ष चलाया । हम यहाँ इस संघर्ष की पद्धति पर विचार करेंगे ।
सबसे पहले लेनिन उन मुद्दों को स्पष्ट करते हैं जिन पर अर्थवादियों से संघर्ष केंद्रित था यानी राजनीतिक आंदोलन का स्वरूप और प्रधान तत्व, संगठनात्मक कार्य और अलग अलग दिशाओं से शुरू करके एक साथ एक लड़ाकू अखिल रूसी संगठन बनाने की योजना ।
इसके बाद एक एक कर वे अर्थवाद की प्रमुख अभिव्यक्तियाँ उठाते हैं, उनकी अंतरराष्ट्रीय, ऐतिहासिक व रूसी परिप्रेक्ष्य में चीरफाड़ करते हैं और उनसे संघर्ष करने की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकालते हैं ।
सबसे पहले वे संगठन में अति जनवाद के एक खास रूप ‘आलोचना की स्वतंत्रता’ को उठाते हैं । असल में दक्षिणपंथी भटकाव बर्नस्टीन के सिद्धांत में आया था जिसके मुताबिक क्रांतिकारी पार्टी को सुधारों की पार्टी बना चाहिए और चूँकि पूँजीवाद में बहुसंख्या की इच्छा लागू होती है इसलिए सर्वहारा की तानाशाही आवश्यक वस्तु नहीं है । इसी को विभिन्न जगहों पर दक्षिणपंथियों ने व्यवहार में लाना शुरू कर दिया और जब इसके लिए उनकी लानत मलामत की गई तो उन्होंने स्वतंत्रता की आवाज उठाई ।
यह अंतर्राष्ट्रीय अवसरवाद अलग अलग देशों में विभिन्न रूप लेकर आया था । लेनिन रूस में उसके विकास के कारणों की तलाश करते हैं । वे बताते हैं शुरू में मार्क्सवाद कानूनी जामे में सामने आया था और इसे शुरू करने वालों में पूँजीवादी जनवादी थे । गरम लोगों ने उनके साथ सहयोग किया लेकिन जल्दी ही यह सहयोग बुनियादी विरोध के उभर आने से भंग हो गया । इसके बाद वैचारिक संघर्ष स्वाभाविक रूप से मार्क्सवाद के सैद्धांतिक सवालों के इर्द गिर्द केंद्रित हो चला और ठीक यहीं अर्थवादियों ने सिद्धांत के महत्व को घटाना शुरू किया । क्रांतिकारी काम को ट्रेड यूनियन राजनीति तक सीमित कर दिया । अर्थवादियों की मंशा को वे इन शब्दों में बयान करते हैं- ‘मजदूर आर्थिक संघर्ष चलाते रहें और मार्क्सवादी बुद्धिजीवी राजनीतिक संघर्ष चलाने के लिए उदारपंथियों के साथ मिल जाएँ ।’ उनकी गतिविधि की पहचान यह है कि ‘अधिकतर अर्थवादी सचमुच दिली तौर पर हर तरह की सैद्धांतिक बहसों, गुटों के मतभेदों, आम राजनीतिक सवालों, क्रांतिकारियों का संगठन बनाने की योजनाओं आदि को भर्त्सना के साथ देखते हैं ।’
इसका विरोध करने का तरीका सुझाते हुए लेनिन कहते हैं कि सिद्धांतहीनता का उलट सैद्धांतिक संघर्ष होता है । यह तीन अन्य कारणों से और भी जरूरी था-1 पार्टी अभी बन ही रही थी और क्रांतिकारी विचारधारा अन्य गलत वैचारिक प्रवृत्तियों से निपट नहीं पाई थी । 2 रूस में शुरू होने वाले आंदोलन के लिए अन्य देशों के अनुभव से लाभ उठाना जरूरी था । 3 रूस के सामाजिक जनवादी आंदोलन के सामने जिस तरह के कार्यभार थे वैसे कार्यभार दुनिया के किसी समाजवादी पार्टी के सामने नहीं आए थे ।
दूसरे लेनिन के मुताबिक अर्थवादी जनता की स्वतःस्फूर्ति के सामने सिर झुका देते हैं । असल में मजदूर आंदोलन के प्रारंभिक दौर में स्वतःस्फूर्ति अधिक थी । और उस समय स्वतःस्फूर्त ढंग से ही मजदूरों की चेतना का विकास हो रहा था । उस समय मजदूर केवल मजदूरों और मालिकों के बीच बुनियादी संघर्ष की धारणा ही ग्रहण कर पाए थे । उनकी चेतना तत्कालीन समूची सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था के विरोध तक नहीं पहुँच सकी थी । ऐसी स्थिति में मार्क्सवाद के समर्थक मजदूरों से संपर्क करने के लिए बड़ी लगन से आर्थिक संघर्ष चलाते थे । लेकिन बिलकुल शुरू से ही इनमें मजदूर आंदोलन के बुनियादी कार्यभारों की व्याख्या की चेष्टा भी दिखाई पड़ती है । दुखद रूप से राजनीतिक प्रशिक्षण के अभाव तथा काम की निरंतरता टूट जाने से ये प्रयास संगठित शक्ल नहीं ले सके थे ।
इसी काल के आधार पर स्वतःस्फूर्ति के सामने सिर झुकाने का सिद्धांत सूत्रबद्ध किया गया । ऐसा कहना कि ‘राजनीतिक लक्ष्य कभी न भूलने के चक्कर में आर्थिक आधार कमजोर हो गया है’ या ‘मजदूरों के साथी मजदूर हैं’ या ‘हड़ताल फ़ंड सौ संगठनों से ज्यादा मूल्यवान है’ या फिर ‘हमें सबसे अच्छे मजदूरों पर नहीं बल्कि आम औसत मजदूरों पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए’ और कुछ नहीं बल्कि शुद्ध ट्रेड यूनियन संघर्ष तक सीमित रहने देने की घोषणा करना है । इन्हें जब कभी अपने समर्थन में बोलना होता है तो ट्रेडयूनियनवाद के पूँजीवादी तर्कों का सहारा लेना पड़ता है । इसे सिद्ध होता है कि जो कोई भी सचेतन तत्व की भूमिका को, सामाजिक जनवाद की भूमिका को कम करके आँकता है वह चाहे ऐसा करना चाहता हो या न करना चाहता हो पर सल में मजदूरों पर पूँजीवादी विचारधारा के अस्र को मजबूत करता है । इसके लिए तर्क दिया जाता है कि चूँकि राजनीति ऊपरी ढाँचा है इसलिए राजनीतिक आंदोलन को आर्थिक संघर्ष के हित में चलाए जाने वाले आंदोलन का ऊपरी ढाँचा होना चाहिए, उसे इसी संघर्ष से पैदा होना चाहिए और इसके पीछे पीछे चलना चाहिए । लेनिन ने एक वाक्य में इस विचार की तर्कप्रणाली को समझाने की कोशिश की है ‘वही संघर्ष वांछित है जो संभव है और संभव संघर्ष वह होता है जो इस समय सचमुच व्हल रहा हो ।’
लेनिन का कहना है कि ‘जनता में जितना ही अधिक स्वतःस्फूर्त उभार होता है आंदोलन का विस्तार उतना ही अधिक बढ़ जाता है और उतनी ही अधिक तेजी से बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा तेजी से सामाजिक जनवाद के सैद्धांतिक, राजनीतिक तथा संगठनात्मक काम में पहले से अधिक चेतना की माँग बढ़ जाती है ।’
तीसरे अर्थवादी लोग इस तर्क के आधार पर कि हम सर्वहारा संघर्ष के साथ घनिष्ठ और सप्राण संपर्क कायम रखते हुए मजदूर वर्ग के हित में काम करते हैं और करते रहेंगे राजनीति कोएकदम त्याग नहीं देते बल्कि वे सदा राजनीति की सामाजिक जनवादी समझ की ओर से ट्रेड यूनियनवादी समझ की ओर बहकते रहते हैं । इस तरह उनके साथ बहस आंदोलन के प्रधान तत्व पर केंद्रित हो जाती है ।
असल में रूस में मजदूर वर्ग का आंदोलन कारखानों और मजदूर वर्ग की हालत का भंडाफोड़ करने वाले परचों से शुरू होता है । ये परचे कम्युनिस्टों और आम मजदूरों के बीच संपर्क का माध्यम बन जाते हैं और क्रमशः आर्थिक संघर्ष विस्तार ग्रहण करने लगता है । इसका सही उपयोग करने से सामाजिक जनवादी कार्य शुरू किया जा सकता था और स्वतःस्फूर्ति की पूजा की भावना होने से शुद्ध ट्रेड यूनियनवादी संघर्ष भी शुरू हो सकता था । सही दिशा में इसके विकास के लिए आवश्यक था कि मजदूर वर्ग को राजनीतिक शिक्षा दी जाय और उसकी राजनीतिक चेतना उन्नत की जाय । राजनीतिक शिक्षा की विषय वस्तु क्या हो ? जिस प्रकार आर्थिक शोषण की प्रत्येक ठोस मिसाल का प्रचार किया जाता था, आंदोलन किया जाता था ठीक उसी तरह राजनीतिक भंडाफोड़ किया जाय, निरंकुश शासन द्वारा प्रत्येक वर्ग पर उत्पीड़न की ठोस मिसाल का भंडाफोड़ कर उस पर आंदोलन चलाया जाय । इसके विपरीत अर्थवादी विभिन्न रूपों में आर्थिक संघर्ष को ही प्रमुखता देते हैं । मसलन- ‘मजदूर वर्ग का राजनीतिक संघर्ष महज आर्थिक संघर्ष का ही सबसे विकसित, सबसे व्यापक और सबसे कारगर रूप है ।’ या ‘आर्थिक संघर्ष जनता को राजनीतिक संघर्ष में खींचने का वह तरीका है जिसका सबसे अधिक व्यापक रूप से उपयोग किया जा सकता है ।’ इसके विरोध में लेनिन पुलिस जुल्म और निरंकुशता के अत्याचार के ढेर सारे गैर आर्थिक उदाहरण देकर उन्हें जनता को संघर्ष में खींचने का माध्यम बताते हैं । फिर वे अर्थवादी चिंतन की प्रगति का एक चित्र खींचते हैं और निष्कर्षतः बताते हैं कि ‘सरकार के खिलाफ आर्थिक संघर्ष’ सरासर ट्रेडयूनियनवादी राजनीति है जिसमें और सामाजिक जनवादी राजनीति में जमीन आसमान का फ़र्क है ।
समग्र और चौतरफा राजनीतिक भंडाफोड़ क्या है ? कैसे यह मजदूर वर्ग की राजनीतिक चेतना को उन्नत करता है ? किस तरह इसे आम लोगों की पहलकदमी मुक्त होती है ? मजदूर वर्ग समाज का सबसे अगुआ वर्ग है । उसकी मुक्ति तब तक संभव नहीं जब तक वह अन्य सभी उत्पीड़ित वर्गों को अपने साथ मुक्त नहीं करता । मजदूर वर्ग को स्वयं के बारे में सोचने से कुछ सुविधाएँ हासिल हो सकती हैं लेकिन मुक्ति नहीं मिल सकती । मजदूर वर्ग को चेतना के इस धरातल तक कैसे उठाया जाय । इसके लिए उसेसमाज के प्रत्येक वर्ग पर होने वाले राजनीतिक हमले से परिचित कराया जाय ताकि वह इनसे विचलित होना सीखे । उसकी चेतना को वर्ग चेतना बनाने का सार इस बात में निहित है कि वह समाज के प्रत्येक वर्ग के बौद्धिक, नैतिक और राजनीतिक जीवन की सभी अभिव्यक्तियों का अवलोकन कर उनका भौतिकवादी मूल्यांकन करना सीखे । सिर्फ़ इसी तरह वह शासक वर्ग के लुभावने नारों के पीछे छिपी उनकी मंशा पहचान सकेगा । उसके दिमाग में ‘जमींदार और पादरी, बड़े सरकारी अफ़सर और किसान, विद्यार्थी और आवारा आदमी की आर्थिक प्रकृति का और सामाजिक तथा राजनीतिक गुणों का एक स्पष्ट चित्र’ होगा । इसी तरह वह सभी उत्पीड़ित वर्गों के साझा दुश्मन को पहचान सकेगा और सभी उत्पीड़ित वर्गों से सहानुभूति पैदा कर सकेगा । राजनीतिक भंडाफोड़ जब भी अपनी गहराई में पहुँचता है तभी राजनीतिक उत्पीड़न का तीव्र प्रतिरोध शुरू होता है । जनता की पहलकदमी अपराधी को रंगे हाथों पकड़ने और उसे दंड देने में मुक्त होने लगती है ।
इसके बाद लेनिन एक और जरूरी बात, अर्थवाद और आतंकवाद की समानता पर विचार करते हैं । उनके अनुसार इन दोनों में स्वतःस्फूर्ति की पूजा का तत्व समान होता है । अर्थवादी शुद्ध मजदूर आंदोलन की स्वतःस्फूर्ति के आगे सिर नवाते हैं जबकि आतंकवादी उन बुद्धिजीवियों के प्रज्जवलित क्रोध की स्वतःस्फूर्ति के आगे शीश नवाते हैं जिनमें क्रांतिकारी काम को मजदूर आंदोलन से जोड़ने की या तो क्षमता नहीं होती या इसका अवसर नहीं मिलता ।
अब यदि मजदूर को उसकी वर्ग चेतना से लैस करना है तो ‘सामाजिक जनवादी कार्यकर्ताओं को आबादी के सभी वर्गों में जाना चाहिए ।’ सामाजिक जनवादी कार्यकर्ता में जनता के सभी तबकों पर होने वाले अत्याचार को मिलाकर पुलिस जुल्म और पूँजीवादी शोषण का अविभाज्य चित्र बनाकर लोगों को करने की क्षमता होनी चाहिए । लेकिन सवाल यह है कि यह काम कैसे किया जाय ? क्या इसके लिए हमारे पास पर्याप्त साधन हैं ? क्या अन्य वर्गों में इस काम के लिए आधार है ? क्या इसका अर्थ वर्गीय दृष्टिकोण से पीछे हटना नहीं होगा ? लेनिन एक एक कर इन सवालों के जवाब देते हैं ।
हमें सिद्धांतकारों, प्रचारकों, आंदोलनकर्ताओं और संगठनकर्ताओं के बतौर सभी वर्गों में जाना चाहिए । ऐसा अर्थवादी सोच के स्पष्ट विरोध में गहन राजनीतिक प्रशिक्षण के जरिए ही संभव है । हमें सभी वर्गों के क्रांतिकारी आंदोलन का समर्थन करते हुए जो भी हमें सुनना चाहते हैं उन सबको अपने विचार सुनाना चाहिए । प्रत्येक वर्ग अपनी समस्याओं को लेकर असंतुष्ट है । हमें उसकी समस्याओं के माध्यम से यह स्पष्ट करना चाहिए कि समूची व्यवस्था ही सड़ी हुई है । लेनिन कहते हैं कि शुरू के दिनों में हमारे पास बहुत कम लोग थे पर अब समाज के प्रत्येक हिस्से में हमारे ढेर सारे लोग हैं । हमें उन सबका उपयोग करना आना चाहिए । मजदूर आंदोलन निरंतर समाज के व्यापकतर तबकों में असंतोष व चेतना की सृष्टि कर रहा है । समाज के ये लोग मजदूर आंदोलन की सीखों को सुनना चाहते हैं । हमें उनके बीच सामाजिक जनवाद को लोकप्रिय बनाने हेतु राजनीतिक भंडाफोड़ संगठित करना चाहिए । यदि हमारे पास प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं का अभाव होगा तो इस असंतोष का फल पूँजीवादी जनवाद के पिछलग्गू उठा लेंगे ।
स्वाभाविक तौर पर अब बहस संगठनात्मक कार्य पर केंद्रित हो जाती है । संगठन के क्षेत्र में अर्थवादियों का मुख्य लक्षण है नौसिखुआपन । इस नौसिखुआपन का स्रोत क्या है ? शुरू में विद्यार्थियों में जब मार्क्सवाद के प्रति आकर्षण पैदा हुआ तो अलग अलग जगहों पर छिटपुट मंडल बनाकर वे मजदूरों से संपर्क करने लगे । धीरे धीरे लोगों में काम का जाल फैलने के साथ ही कार्यवाही शुरू कर दी जाती थी । ऐसी स्थिति में पुलिस एक ही छापे में इन सबको समेट लेती थी । धीरे धीरे ये छापे इतना बढ़े कि मजदूरों से उनके सारे नेता छिन गए । मजदूर बुद्धिजीवियों पर अविश्वास प्रकट करने लगे । इसको सभी एक बीमारी की तरह मानते थे लेकिन अर्थवादी और आतंकवादी दोनों ही इसको सही मानते हैं । अर्थवादी संघर्ष की जरूरतों के मुताबिक ट्रेड यूनियन संगठन बनाने के नाम पर और आतंकवादी उत्तेजना पैदा करने वाले कार्यों के जरिए मजदूर आंदोलन की प्रगति के नाम पर । लेनिन यहाँ संगठन की अर्थवादी और क्रांतिकारी सोच के बीच अंतर स्पष्ट करने पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं ।
जो लोग आर्थिक संघर्ष को राजनीतिक संघर्ष मानते हैं वे क्रांतिकारियों के संगठन को कमोबेश मजदूरों का संगठन मानेंगे । मजदूरों और क्रांतिकारियों के संगठन में क्या अंतर हैं ? एक तो मजदूरों का संगठन व्यावसायिक संगठन होता है । दूसरे उसे अधिक से अधिक व्यापक संगठन होना पड़ता है । तीसरे उसके लिए जरूरी होता है कि वह कम से कम गुप्त हो । क्रांतिकारियों के संगठन को सबसे पहले और मुख्यतया ऐसे लोगों का संगठन होना चाहिए जिन्होंने क्रांतिकारी कार्य को अपना पेशा बना लिया हो । दूसरे ऐसे संगठन में मजदूरों और बुद्धिजीवियों का भेद और अलग अलग व्यवसायों तथा पेशों का सारा अंतर एकदम खत्म कर दिया जाय । तीसरे वह बहुत अधिक फैला हुआ न हो तथा अधिक से अधिक गुप्त हो । रूस में मजदूरों के किसी भी तरह के संघर्ष पर रोक ने मजदूरों और क्रांतिकारियों के संगठन को एक समझने का भ्रम पैदा किया । इन दोनों संगठनों के बीच संपर्क कैसे कायम किया जा सकता है ? लेनिन इसका जवाब देते हुए कहते हैं कि सबसे अधिक विश्वसनीय, अनुभवी और तपे हुए मजदूरों का एक छोटा सा गठा हुआ केंद्र जिसके जिम्मेदार प्रतिनिधि सभी खास खास इलाकों में तैनात हों और क्रांतिकारियों के केंद्र के साथ जिनका संबंध बहुत ही सख्त ढंग के गुप्त नियमों के मुताबिक हो, ऐसा केंद्र जनता के व्यापकतम सहयोग से और बिना किसी बाजाब्ता संगठन के ट्रेड यूनियन संगठन के सभी कामों को अंजाम दे सकता है । निष्कर्षतः लेनिन कहते हैं- 1 नेताओं के एक स्थायी और आंदोलन का क्रम बनाए रखने वाले संगठन के बिना कोई भी क्रांतिकारी आंदोलन टिकाऊ नहीं हो सकता । 2 जितने अधिक व्यापक पैमाने पर जनता स्वतःस्फूर्त ढंग से संघर्ष में खिंचती आएगी, आंदोलन का आधार बनेगी और उसमें भाग लेगी ऐसा संगठन बनाना उतना ही ज्यादा जरूरी होता जाएगा और इस संगठन को उतना ही अधिक मजबूत बनना होगा । 3 इस प्रकार के संगठन में मुख्यतया ऐसे लोगों को होना चाहिए जो अपने पेशे के रूप में क्रांतिकारी कार्य करते हों । 4 निरंकुश राज्य में इस प्रकार के संगठन की सदस्यता को हम जितना ही अधिक ऐसे लोगों तक सीमित रखेंगे जो अपने पेशे के रूप में क्रांतिकारी कार्य करते हों और जो राजनीतिक पुलिस को मात देने की विद्या सीख चुके हों ऐसे संगठन का सफाया करना उतना ही अधिक मुश्किल होगा । 5 मजदूर वर्ग तथा समाज के अन्य तबकों के उतने ही अधिक लोगों के लिए यह संभव होगा कि वे आंदोलन में शामिल हों और उसमें सक्रिय काम करें ।
संगठनात्मक काम करने के लिए लोग कहाँ से आएँगे ? इसका जवाब देते हुए लेनिन बताते हैं कि वर्ग संघर्ष निरंतर ऐसे लोगों को पैदा करता रहता है जो निरंकुशता का विरोध करना चाहते हैं । इन सबके उपयोग के लिए ऐसे अनुभवी नेताओं की जरूरत होती है जो सबको काम वितरित कर सकें । छोटी छोटी जिम्मेदारियों को हजारों लोगों के बीच बाँट देना चाहिए और हर व्यक्ति को एक काम में विशेषीकरण हासिल करना चाहिए । ऐसा करने से संगठन का सफाया करना भी मुश्किल हो जाएगा । इन सभी कामों को एक लड़ी में पिरोने के लिए नेताओं का गुप्त व सुसंगठित केंद्र होना चाहिए । मजदूरों को भी पार्टी कार्यों के मामले में बुद्धिजीवियों के स्तर तक उठाना चाहिए ।
अंत में इस संगठनात्मक काम की एक ठोस योजना लेनिन पेश करते हैं- एक अखिल रूसी राजनीतिक अखबार की योजना । स्वाभाविक तौर पर प्रचार के मामले में स्थानीयतावाद से लड़कर ही यह योजना पेश की जा सकी थी । ‘एक अखिल रूसी राजनीतिक अखबार का प्रकाशन वह मुख्य सूत्र होगा जिसके सहारे हम संगठन को अडिग भाव से विकसित कर सकेंगे तथा उसे अधिक गहरा व व्यापक बना सकेंगे ।’ इसकी तुलना लेनिन राजगीर की खींची हुई डोरी और इमारत बनाने के लिए खड़ी की गई पाड़ से करते हैं । आगे और भी वे कहते हैं कि एक अखिल रूसी अखबार अलग अलग मंडलों द्वारा किए जा रहे कार्य को समन्वित करके जनता को एक निश्चित दिशा में चलने के लिए प्रेरित करेगा । इस अखबार के प्रकाशन और वितरण के इर्द गिर्द ऐसा संगठन खड़ा होगा जो निरंतर लोगों को हमारे पास लाने का स्रोत होगा और हमारी व्यापक शक्तियों की अनावश्यक बरबादी को रोक देगा । सिर्फ़ इसी तरह हम अपने समक्ष आने वाले अवसरों का भरपूर इस्तेमाल कर सकेंगे । यही एकमात्र ऐसा मंच होगा जहाँ हम अपने सैद्धांतिक मतभेदों को कायम रखते हुए भी व्यवहार में लचीलेपन की गारंटी कर एक हो सकते हैं ।
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