Wednesday, April 25, 2012

‘अभियान’ के बारे में


            
हिंदी कवि एक लंबे अरसे से कविता के जरिए जनता से जुड़ने की कोशिश करते रहे और कविता में बड़ी बड़ी क्रांतियाँ करते रहे जो उन्हें लगातार जनता से दूर खींचती रहीं । वे यह नहीं समझ पाये कि कविता का उपनिवेशवादी चंगुल से तब तक छुटकारा नहीं हो सकता जब तक संस्कृति के क्षेत्र में साम्राज्यवाद और सामंतवाद से सीधी टक्कर न ली जाये । सांस्कृतिक क्षेत्र को इन ताकतों ने बुरी तरह से प्रभावित कर रखा है । यह देखकर वाराणसी के सांस्कृतिक कर्मियों ने जनता की लोक संस्कृति को स्थापित करने के लिए एकजुट होने का प्रयत्न किया । संयोग से राष्ट्रीय स्तर पर जनवादी संस्कृति का पक्षधरराष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चाउभरा । इससे प्रेरित होकर वाराणसी के संस्कृति कर्मियों ने इसकी वाराणसी इकाईअभियानगठित की ।
अभियान की बुनियाद में ही यह था कि जनता के बीच मौजूद जन संस्कृति को साम्राज्यवादी सामंतवादी संस्कृति के विरुद्ध लड़ाई का हथियार बनाकर प्रस्थापित किया जाय । इसलिए ये कलाकार अल्प साधनों के साथ ही जनता में नुक्कड़ नाटक और जन गीत लेकर उतर गये । नाटक विधा का उपयोग इस संस्था ने कला को जनता तक पहुँचाने के लिए बखूबी किया । जन संस्कृति की अल्प ज्ञात निधि के बल पर इन योद्धाओं ने ताम झाम की दुनिया से दूर नाटक को स्टेज पर से उतारकर जनता के बीच खड़ा किया । संस्कृति की धनी वाराणसी की बंगाली जाति ने इस प्रयास में बहुत सहयोग किया । ये सांस्कृतिक कर्मी किसी भी मुहल्ले में जाकर एक खुले स्थान को चुनकर अपने कार्यक्रम की मुनादी जनता में ढोल पीटकर करते थे । नियत समय पर सबसे पहले गीत गाया जाता था, तत्पश्चात नाटक होता था । एकत्र होने वाली जनता की संख्या व उत्साह देखकर ये वीर इस काम में प्रबल रूप से जुट गए ।
अभियान नेअब न सहेंगे जोरनाटक जनता के बीच खेला । इसमें मजदूर, किसान, छोटा दुकानदार और टाइपिस्ट अपना अपना दुखड़ा रोते हैं और आपस में अद्भुत समानता पाकर मजबूत एकता में बँध जाते हैं । इनकी एकता देखकर व्यवस्था गुर्राते हुए पुलिस के हवलदार को बुलाती है और जनता को कुचलने का आदेश देती है । वह जनता को सामने देखकर हड़ताल कर देता है और अंत में जनता की तरफ मिल जाता है । इस पर व्यवस्था फौज से मार्च कराती है । फौज जनता से लड़कर हार जाती है और फौज पर टिकी व्यवस्था भी खत्म हो जाती है । जनता उत्साह में गाती है-
होगी दुश्मनों की हार एक दिन/ हो हो मन में है विश्वास/ पूरा है विश्वास/ होगी दुश्मनों की हार एक दिन
एक और नाटकगिरगिटभी अभियान जनता के बीच खेलता था । यह नाटक चेखव की कहानी का रमेश उपाध्याय द्वारा किया गया नाट्य रूपांतरण था । इसके पात्रों का भारतीय नामांतरण करके इसे जनता के योग्य बना दिया गया था । इसमें नौकरशाही द्वारा गिरगिट की तरह रंग बदलने की कहानी है । इस नाटक में एक कुत्ता एक जेबकतरे को काट लेता है । बड़ा अफ़सर कुत्ते के मालिक से हरजाना दिलवाने की बात कहता है पर अचानक बड़े अफ़सर को बताया जाता है कि कुत्ता सेठ जी का है । इस पर अफ़सर जेबकतरे को डाँटता है । जेबकतरा छोटे अफ़सर को जेब से निकालकर नोट दिखाता है तब छोटा अफ़सर बताता है कि कुत्ता सेठ जी का नहीं है । बड़ा अफ़सर कुत्ते को गोली से उड़वा देने की बात करता है । फिर सेठ जी का ही कुत्ता है पता चलने पर कुत्ते को सेठ जी के यहाँ  पहचान के लिए भिजवाता है । तभी सेठ जी का नौकर आकर बताता है कि ये हमारे सेठ जी का नहीं है । आगे बोलने का अवसर न देकर बड़ा अफ़सर अपनी पुरानी धमकियों को दोहराने लगता है । नौकर हस्तक्षेप करते हुए बताता है कि ये उनके बड़े भाई का है । बड़े अफ़सर के हाथ पाँव फूल जाते हैं । वह कुत्ते को सेठ जी के पास भिजवाता है और जेबकतरे को पीटकर भगा देता है । यहीं नाटक खत्म हो जाता है । छोटे छोटे वाक्यों से उभरने वाले इस नाटक के सहज व्यंग्य को जनता आसानी से समझ लेती है । अभियान के पास एक और नाटक थाहवाई गोले। इस नाटक को पंजाब के जनवादी लेखक गुरशरण सिंह ने लिखा है । इस नाटक में सरकार और विपक्ष को जनता की प्रमुख समस्याओं से विमुख होकर केवल बहस करते हुए दिखलाया जाता है । लोकसभा में बहस करते हुए ये आपस में अपनी हर एक बात को जनता की आवाज बताते हैं और खूब लड़ते हैं । अंत में जनता क्रोधित होकर इनको मार डालती है । सरकार व विपक्ष की पराजय होती है तथा जनता की जीत होती है ।
इस दौर में गरीब जनता का जितना सहयोग मिला वह अपूर्व है । जनता ऐसे कलाकारों को प्यार करती है । जनता को इस बात की समझ है कि कौन उसका दोस्त है कौन उसका दुश्मन । यह जानकर अभियान के साथी विस्मित हुए । इन्हें डर था कि सड़क पर जनता के बीच नाटक करने पर जनता इन्हें पागल न समझ ले । पर जनता ने इन्हें सम्मान दिया । सबसे बड़ी बात यह कि इन्होंने अपने कार्यक्रम के बाद जनता से एक पैसा नहीं लिया । इसी समय अभियान ने अपने बिरादराना संगठनों को सहयोग देने की नीति अपनाई । पिछले लोक सभा चुनाव में देशभक्त लोकतांत्रिक मोर्चा के प्रतिनिधि राम नारायण शुक्ल के लिए इस संस्था ने घूम घूम कर चुनाव प्रचार किया । कौन जीता इसकी बजाय यह महत्वपूर्ण था कि इसने बिना पैसे के मेहनत से प्रचार किया । इसी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र संघ चुनावों में प्रगतिशील छात्र संगठन के प्रतिनिधियों के लिए भी इस संस्था ने बड़ी मेहनत की और चुनाव प्रचार की जनवादी रीति की मिसाल कायम की । मृत्युंजयी शहीदों की पुण्य तिथि भी मनाने का इस संस्था ने निश्चय किया । इसी सिलसिले में भगत सिंह की पुण्य तिथि लंका पर मनायी गयी जिसमें अभियान और प्रगतिशील छात्र संगठन ने मिलकर काम किया ।
अब तक राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा की काफी इकाइयाँ बन चुकी थीं पर इनका सारा प्रबंध तदर्थ समिति की ओर से होता था । अब सोचा यह गया कि इसका एक वृहद स्थापना सम्मेलन हो जिसमें सभी इकाइयाँ एक दूसरे की कलात्मक बारीकियों को देख पहचान सकें । अभियान ने इसमें पहल लेते हुए प्रेमचंद शत वार्षिकी के उपलक्ष्य में प्रेमचंद के गाँव लमही में स्थापना सम्मेलन का दिन 9-11 जून 1980 निश्चित करवाया । सम्मेलन के अंतिम दिन प्रेमचंद मेला का भी आयोजन किया गया । इस सम्मेलन में अभियान ने कड़ी मेहनत की और मेजबान का कर्तव्य निभाया । इसमें पंजाब के जनवादी नाटककार गुरशरण सिंह, आंध्र प्रदेश के क्रांतिकारी कवि ज्वालामुखी तथा निर्मलानंद और भारत चीन मैत्री संघ के लाजपत राय तथा अग्निवेश ने हमें सांस्कृतिक दुश्मन को सही तौर पर पहचानने में बड़ी सहायता की । इन्होंने अपने लंबे अनुभव से हमें कुछ सिखाया । गोरखपुर तथा दिल्ली की टीमों की कलात्मक बारीकियों और काम करने की धुन से अभियान ने बहुत कुछ सीखा । लेकिन भोजपुरी गीतों के मामले में अभियान अव्वल रहा । स्थापना सम्मेलन के उपरांत एक दूसरे के बीच बराबर जीवंत संपर्क बना रहा । एक राष्ट्रीय संस्था की तरह एकता और सहयोग की भावना लोगों में उभरी । मोर्चे की प्रसिद्धि और कर्मठता के कारण सम्मेलन के बाद इसकी तमाम इकाइयों को बाहर से बुलावे आने लगे । इन आमंत्रणों पर अभियान ने जगह जगह अपने कार्यक्रम पेश किये ।  
स्थापना सम्मेलन के बाद आमंत्रण मिला मऊ के स्वदेशी काटन मिल के मजदूर यूनियन का था । लोकतांत्रिक माँगों के समर्थन में हुई हड़ताल के अवसर पर 12 अक्टूबर को अभियान ने वहाँ कार्यक्रम पेश किया । खुले आकश के नीचे रात नौ दस बजे तक शांति के साथ लगभग 900 लोगों ने कार्यक्रम देखा और सुना । अभियान ने अपना सही आधार चुना और पहचाना था ।
दूसरा आमंत्रण मोर्चे की बलिया इकाई शहीद भगत सिंह सांस्कृतिक एवं स्पोर्टिंग क्लब का था । सतीश चंद्र डिग्री कालेज के सभा भवन में 30 अक्टूबर को कार्यक्रम करना तय हुआ । यह कार्यक्रम प्रेमचंद जन्म शताब्दी समारोह के अवसर पर आयोजित किया गया था । 29 अक्टूबर की रात बनारस से प्रस्थान करके अभियान के कार्यकर्ता 30 अक्टूबर की सुबह बलिया में उतरे । थोड़ी देर आराम करने के बाद डिग्री कालेज के चित्रकला भवन में चित्रों की प्रदर्शनी लगायी गयी । भवन की एक दीवार पर प्रेमचंद की कहानियों पर बने चित्र तथा शेष दीवारों पर विश्व के श्रेष्ठ जनवादी लेखकों के उद्धरण लगाये गये । ये उद्धरण एक ही भवन में एकत्र होकर उन लेखकों की देश काल को लाँघती दृढ़ एकता को घोषित कर रहे थे । लगभग साढ़े पाँच बजे से कालेज के सभा भवन में प्रेमचंद पर एक गोष्ठी थी । इस बीच अभियान के एक कार्यकर्ता देवब्रत सेन ने प्रेमचंद का एक बड़ा चित्र तैयार कर लिया था । वह चित्र मंच के ठीक सामने लगा हुआ था । मोर्चे के अध्यक्ष राम नारायण शुक्ल उस गोष्ठी के प्रमुख वक्ता और अध्यक्ष थे । उन्होंने प्रेमचंद के चित्र पर माल्यार्पण के बाद गोष्ठी का संचालन किया । अपने वक्तव्य में उन्होंने पहले के वक्ताओं की इस राय का खंडन किया कि प्रेमचंद के लेखन का उत्स गांधीवाद था । उनके मुताबिक प्रेमचंद सत्य के लिए किसी की भी दुश्मनी मोल ले सकते थे इसीलिए ब्राह्मणवाद का विरोध उनके यहाँ अस्वाभाविक नहीं है । सत्य का पक्षधर होने के नाते ही वे अंत में सशस्त्र क्रांति का समर्थन करने लगे थे । सद्भावपूर्ण वातावरण में गोष्ठी समाप्त हुई । करीब 8 बजे से अभियान का सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू हुआ । शहर के 1200 लोग कार्यक्रम देख रहे थे । इसमें महिलाओं की उपस्थिति प्रगत्योन्मुख समाज का प्रमाण थी । अभियान ने तीनों नाटक व 12 गीत पेश किये । जनता का नाटक के व्यंग्य को समझते जाना प्रमाणित कर रहा था कि जनता का कलाकारों के साथ सीधा रिश्ता है । लोगों से प्राप्त आदर से भीगे हुए अभियान के कलाकार कुछ नए अनुभवों के साथ वापस लौटे ।
तीसरा आमंत्रण लालगंज से मिला । गरीब जनता से चंदा माँगकर जुटाये गये धन का उपयोग जनता के लिए ही होना चाहिए यही सोचकर अभियान को बुलाया गया था । 2 नवंबर की शाम को वाराणसी से चलकर कार्यकर्ता रात को लालगंज पहुँच गये । एक प्राइमरी स्कूल के सामने खाली जमीन पर मंच बनाया गया था । मोर्चे के सदस्य सुरेंद्र सिंह भी वहाँ मौजूद थे । 8 बजे से शुरू होकर कार्यक्रम 12 बजे रात खत्म हुआ । इस बीच आस पास के गाँवों के 3500 लोग कार्यक्रम देखते रहे । जनता का यह अपार धैर्य कार्यकर्ताओं में अपूर्व उत्साह का संचार कर रहा था । जनता की उन्नत राजनीतिक समझ का ही यह नतीजा था कि केवल जनवादी गीत और नाटक देखने सुनने के लिए गाँवों से लोग इतनी बड़ी संख्या में आये । इनमें से एक हजार लोग तो इतनी दूर से आये थे कि वहीं प्राइमरी स्कूल में रात सो रहे और सुबह होने के बाद घर लौटे । जनता से जुड़ने में अभियान के सामने सबसे बड़ी समस्या थी भाषा । इसे सुरेंद्र सिंह के साथियों ने हल किया । लोक धुनों पर रचे जनवादी गीत जनता के दुख दर्द को स्वर दे रहे थे । तीनों नाटक और कुछ गीतों के बाद अभियान के साथी उसी रात वापस लौट आये ।
अब अभियान दो और नाटकों के बारे में सोच रहा है । एक प्रेमचंद की कहानी सवा सेर गेहूँ का रमेश उपाध्याय का नाट्य रूपांतर दूसरा मियाँ की जूती मियाँ के सिर । सवा सेर गेहूँ इन कलाकारों को जनता से अभिन्न रूप से जोड़ सकेगा ऐसी आशा है । हिंदी साहित्य के गढ़ बनारस में अभियान ने एक समय सांस्कृतिक हलचल पैदा की थी और आस पास के इलाकों में इसके नाटकों ने नया सांस्कृतिक बोध पैदा किया था ।                    

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