मैं अक्सर एक देश के बारे में
सोचता हूँ
जहाँ 63 फ़ीसदी लोगों के लिए
छपे हुए शब्द भी चित्र हैं
जब मैं देखता हूँ पत्रिकाओं के कवर पर
देश के दो बड़े लोगों के मुस्कराते हुए चित्र
और उसके नीचे पढ़ता हूँ
अनबन चल रही है
तब यह चिंता कुछ और जटिल हो जाती है
जब मैं पढ़ता हूँ भूख
तो मेरा देश एक खुले हुए
यातनागृह में बदल जाता है
उनके लिए जो देखते हैं भूख
दरअसल पढ़ने और देखने वालों
के बीच एक दूरी है
इसी दूरी को जब तुम कहते हो
विधाओं का फ़र्क तो
लगता है विधाएँ भी वर्ग सापेक्ष हैं
नहीं मेरे मित्र
जिन्होंने हृदय की पीड़ा को
कंठ की अभिव्यक्ति से जोड़ा है
जिनके हाथों का सृजन
दृष्टि को सुख देता है
संक्षेप में जो इंद्रियों को जोड़ते हैं
वे विधाओं को भी एक करेंगे
सोचो कि
अब मैं तुम्हारे सामने
शब्दों के माध्यम से एक चित्र फेंकता हूँ
घूरे आग की लौ और फूल की कली
की संरचना में क्या फ़र्क है
मित्र मेरे शब्द केवल चित्र नहीं हैं
चित्रों के लाखों लाखों चित्रों के
अनुभवों अनुभूतियों के
घनत्व से निकली हुई राशि ही शब्द हैं
और तब मैं देखता हूँ
जिनकी आँखों को तुमने चित्रों से
बढ़कर शब्दों पर नहीं आने दिया
उन लोगों ने पैरों को हाथों में बदल डाला
उनकी आँखों से निकली चिंगारियाँ
साजिश का महायंत्र जलाकर
शब्दों की ताकत पहचानने लगी हैं
पहाड़ पर बैठे हुए लोगों के
घपले और धकापेल
गाँव के सीवान की सीमा लाँघकर बढ़ रहे लोग
मुस्कुराहट से नहीं
रोज रोज के अनुभव से देखते हैं
चित्रों के बीज जो जमीन में दब गए
शब्दों के अँखुए फूलने लगे हैं
दरअसल मित्र मेरे इसी से डरते हो
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