धरती को कँपाते हुए चलने वाली रेलगाड़ियों में आजकल मैं उसे अक्सर देखता हूँ या यूँ कहें कि एक डरे हुए आदमी का चेहरा मेरी आँखें ढूँढ़ती रहती हैं । उसका नाम कुछ भी हो सकता है अफ़जल या मुश्ताक़ । वैसे आज तक भरी भीड़ में उसका नाम पूछने की हिम्मत नहीं हुई । वह कहीं भी जा रहा होता है मेरी उससे मुलाकात जरूर होती है । यह महज इत्तफ़ाक था कि आज वह सासाराम जा रहा था । वह जलंधर और अमृतसर के कर्फ़्यू में नहीं डरा लेकिन अपने घर जाने का ख्याल अपनी जान की कीमत पर ही उसे आया । किसी कलाकार की छुअन से बनी बेजान मुस्कुराहट सदियों तक कायम रह सकती है पर उसकी खुशी एक पल भी ठहरने में हिचक रही थी । 12/11/1989
हमलावर ज्यादा आक्रामक था । वह लगातार दूसरे आदमी को चाकू मारे जा रहा था । दूसरा आदमी मदद के लिए चिल्ला रहा था । क्रमशः वहाँ एक भीड़ जुट गई । काफी लोग थे जो आपस में चिल्ला चिल्ला कर बात किए जा रहे थे पर उस आदमी को बचाने की फ़िक्र में नहीं थे । इतने में किसी ने पीछे से आकर कहा कि चीनी मिल रही है । “कहाँ कंट्रोल की दुकान पर?” भीड़ का प्रश्न था । हाँ का उत्तर मिलने के बाद सभी दौड़ पड़े राशन की दुकान की ओर लाइन में पहले खड़ा होने के लिए । भीड़ छँट गई । हत्यारा भाग गया ।
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गाड़ी रुकी जेल के फाटक पर । सबके नाम बोलकर हाजिरी लिखकर गिनती करके भीतर किया गया । नया मैं ही था । इसलिए मुझे रोक लिया गया । नाम, उम्र, केस, घर और अन्य तफ़सीलें लिखकर अंदर किया गया । जैसा बाद में जेल महसूस हुआ पहली नजर में वैसा नहीं लगा । रास्ते मानो मेरे विश्वविद्यालय की तरह दोनों ओर छँटे पौधों से सजे थे । तब ये सोचकर मैं घुसा भी नहीं था कि अब इस दरवाजे के बाहर मुझे निकलना भी नहीं है । सामानों के बारे में पूछने पर बतलाया कि डेढ़ेक रुपये होंगे और डायजीन की दो गोलियाँ होंगी । हल्की झड़प के बाद मुझे इनके साथ अंदर जाने दिया गया । रास्ते में ही कुर्सी पर एक मोटा सा आदमी बैठा था जिसके सर के ज्यादातर बाल गिर गए थे । उसके पेट पर शर्ट की दो बटनें खुली हुई थीं । चेहरे पर वही अनासक्ति जो तब मुझे कठोरता महसूस हुई थी । “एक आमदनी” “किसमें जाएगा?” “बच्चा वार्ड में भेज दो ।” लिहाजा दो कंबल, तीन बर्तन, एक पंखी और एक चादर मुझे देकर और जेल में ये ही संपत्ति हैं इन्हें पूरी तरह सुरक्षित रखना है इस हिदायत के साथ बच्चा वार्ड में भेज दिया गया ।
एक दरवाजे के अंदर और घुसा । यह दरवाजा मुलाकातों के लिए खोला जाता था इसलिए अखरता नहीं था लेकिन यह तो कुछ दिन रह लेने के बाद की बात है । तब तो घटनाओं की तेजी में सिर्फ़ सामने की मोटी मोटी पीली दीवारों पर नजर पड़ी थी जिनमें कहीं कहीं लोहे के दरवाजे लगे थे । इनमें से एक में मुझे अंदर कर दिया गया । बाद में पता चला कि मुझे सिर्फ़ शाम तक इसमें रहना है । अंदर घुसते ही एक चेचकरू नाटे आदमी ने जो अपनी गंदी कमीज़ से कुछ पुराने जीवों की खबर ले रहा था जोरदार ढंग से मेरा स्वागत किया । “आओ आओ गुरू घबड़ाना मत । हम लोगों ने बहुत दिन जेल काटी है बहुत मार खाए हैं । एकदम मत घबड़ाना । मार खाए हो?” “नहीं” मैंने कहा । “कौन सी केस में हो?” “307 में” “किसका?” “दारोगा का” कहते हुए मुझे अपने झूठे केस पर हँसी भी आ गई थी । “वाह गुरू हम लोग तो आपसी दुश्मनी में फँस के आए तुमने पुलिसे पर हाथ लगा दिया । बहुत खूब ।” फिर मैंने पहले आए हुए अपने दो साथियों के बारे में पूछताछ की ।
“अच्छा नक्सली केस में हो?” तभी एक महोदय जो कुछ साफ सुथरे कपड़े पहने हुए लेटे लेटे एक आदमी से पाँव दबवा रहे थे “कौन जात हो?” “भूमिहार ।” “अरे भैया तब सावधान रहना इन सबों से । छूट के जाएँगे सब फिर डकैती करेंगे और पूछने पर तुम्हारा नाम बतला देंगे ।” “नाहीं ऐसा क्यों होगा?” यह शाबासी देने वाले थे । “चुप बे साले ज्यादा बोलोगे? एक नक्सली देखा नहीं कि छाती उठने लगी ।”
लेकिन मैंने फ़ैसला किया कि मैं उस गंदे वाले के पास ही बैठूँगा । जाकर बैठ गया । जिन्होंने मुझे सावधान किया था वे गुस्से में टहलते हुए बाहर निकल गए । “ये बाबू साहब थे ।” मैंने सिर्फ़ स्वीकार में सर हिला दिया ।
तीन का घंटा बजा । सारे लोग बाहर जाने लगे उठकर । पता चला ये कैदी हैं इन्हें काम पर जाना है । मुझे एक आदमी के साथ शाम तक के लिए सिपुर्द कर दिया गया । मैंने उन्हें देखा । उम्र तकरीबन 25 साल चेहरा भरापूरा इकहरा बदन । “नाम भाई साहब?” मैंने ही पूछा । “कमलेश”
उसके हाथ में एक डंडा था और हम लोग आस ही पास बैठे हुए थे । एक लंबी चुप्पी हम लोगों के बीच छाई रही । “ये राज कैसे पलटेगा?” कमलेश ने पूछा था ।
“अब तक तो आप लोगों को सब पार्टी वाले पीछे दौड़ाते रहे । हम लोगों का कहना है कि आप ही लोग आगे आइए ये राज पलटिए और अपना राज चलाइए । आप लोगों पर है कि कब इसे पलटते हैं ।”
“अपने साथी से भेंट करोगे?” “जरूर जरूर” “आओ ।”
मैं उसके पीछे पीछे एक दूसरे दरवाजे में दाखिल हुआ । इस बैरक का दरवाजा मेरी तरफ़ को न था बल्कि एक सींखचों भरा दरवाजा था जिससे मैं अंदर की ओर देख भर सकता था ।
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आज जो कुछ भी मन में घटित हुआ उसके लिए एक इतिहास मौजूद था । पहले मैंने अपनी समूची ताकत का उपयोग किसानों में काम करने में किया था । निश्चय ही उन सारे पात्रों से अपनापन आज भी महसूस होता है, मैं उत्तरदायी हूँ उनके सामने । प्रेम भावना का केंद्रीकरण मैंने एक व्यक्ति पर कर रखा था । इसी बीच जीवन में कुछ बदलाव आया । मुझे कोर्सगत पढ़ाई में जुट जाना पड़ा और घूमने वाले पैरों की क्षमता को दिमाग में केंद्रित करना पड़ा । इसी बीच एक दूसरी बालिका से मेरी प्रेम भावना जुड़ गई । मैंने उसके प्रति अपने दिल में जगह महसूस किया तो उसने भी निगाहों से उत्तर दिया । बीच में बनारस छोड़कर गाँव जाने पर वह कविता, मिट्टी और माशूका बनकर साथ लगी रही । मन में अब पहले वाली के लिए जगह न रही । नहीं उठती थी भावना वैसी जैसी पहले थी न इसके प्रति न उसके प्रति । लौटने पर वह मेरे कमरे पर आई पर सिवा एक संबोधन के कुछ भी न हो सका । आज जब मैं बी एच यू का केंद्रीय ग्रंथागार देखने गया एक ऐसी जगह गया जहाँ स्वयं को महासागर में तैरते महात्वाकांक्षी अमीबा के रूप में देखने लगा तो संकल्प किया कि चारों ओर बिखरी हुई ताकत को पुंजीभूत कर इस महासागर को छाना जाय । और लौटकर किसी और के लिए नहीं बल्कि किताबों के लिए प्रेम पैदा हुआ । डूब गया कुछ सपनों में । सपने देखना मेरी आदत रही है । जीवन की किसी भी परिस्थिति में मैं अपने को ऊपर उठाने वाले सपने लगातार देखता रहा हूँ । यह एक तरह की अहं भावना भी है जो स्वयं को समाज में सबसे ऊँचा देखने की इच्छा से पैदा होती है । इसी तरह के सुपरिचित सपने कुछ समय बीतने पर किताबें लिखने के, दिल्ली जाकर पत्रकारिता में चमक जाने के सपने आज फिर देखे । दरअसल इन सपनों की दुनिया, महात्वाकांक्षाओं के सागर और अहं के घेरे से खुद को निकालना बेहद जरूरी है नहीं तो जीवन का अर्थ नहीं निकलेगा ।
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अभी मैंने रेणु की कहानी ‘एक अकहानी का सुपात्र’ पढ़कर खत्म किया था । उसमें वह अकहानी की परिभाषा बतलाते हैं- बेकार कथाकार बेकारी के क्षणों में जो कुछ भी गढ़ता है उसे अकहानी कहते हैं ।
कुछ दिन पहले गोरख पांडे बनारस आए थे तो बातचीत के क्रम में ओमप्रकाश मिश्र ने उनसे पूछा था कि ऐसा क्यों है कि हाल के वर्षों में कविता में जितनी जनोन्मुखता आई है- रूप और कथ्य दोनों के स्तर पर- उतनी कहानी में नहीं आई है । या उसका जनवादीकरण क्यों नहीं हो पा रहा है । तो गोरख बाबा ने कहा कि कविता के क्षेत्र में सन 67 के बाद जनता की ऊर्जा को ईमानदारीपूर्वक ग्रहण करने वाले लोग तेजी से आए और विकसित हुए जबकि कहानी में ‘समानांतर कहानी’ जैसा फ़ालतू आंदोलन हाल हाल तक चलता रहा है । यही कारण है कि तेज लोग कहानियों के क्षेत्र में आए ही नहीं ।
इसी संदर्भ में हाल हाल में पढ़े हुए सारिका की एक बातचीत की याद आई जो नामवर सिंह और कुछ और लोगों में हुई थी । उसमें मृणाल पांडे ने एक सवाल उठाया था कि कविता पर जितनी आलोचना हुई है उतनी कहानी पर नहीं । एक छोटी सी कविता पर भी बहुत सी समीक्षाएँ प्रकाशित हुई हैं जबकि कहानी पर सब मौन साधे रहते हैं । आलोचकों ने कहानीकारों को पाठक वर्ग से परिचित नहीं कराया है ।
इन्हीं सारी चीजों पर बैठा हुआ सोच रहा था । आखिर जिसमें जनता की ऊर्जा नहीं है वह जनता में प्रचारित ही क्यों होगी । कथ्य से कटकर भाषा में होने वाले प्रयोग आसमान के चमत्कार ही बनकर रह जाएंगे । और कि जनता की ऊर्जा कहानी में कैसे ग्रहण की जा सकती है । कहने को तो हमारे चारों तरफ कथ्य का ढेर बिखरा पड़ा है ।
अचानक इंदिरा गांधी शब्द ने मुझे चौंका दिया । मेरे बगल में दो बच्चियाँ कुछ खेल रही थीं । सोच में डूबा हुआ मेरा ध्यान उनकी तरफ था ही नहीं । अब ध्यान से उनका खेल देखना शुरू किया । उनमें एक छोटी बहन एक बड़ी । बड़ी बहन छोटी को समझा रही थी कि आओ अब एक नया खेल खेला जाय । तुम इंदिरा गांधी हो । अब मैं तुमसे सवाल पूछती हूँ ।
‘इंदिरा गांधी?’
‘हूँ’
‘एक बात पूछूँ?’
‘हाँ हाँ पूछो’
‘डांस करोगी?’ छोटी को अचानक इसका कोई जवाब ही समझ में नहीं आया । वह चुप रही । बड़ी ने उसे फिर समझाया- अब तुम जोर से डाँटो डंडे से मारो । पर छोटी ने धीरे से ही डाँटा और मार तो डर के मारे पाई ही नहीं । बड़ी उसके अभिनय से असंतुष्ट थी । उसने कहा- अब मैं इंदिरा गांधी हूँ तुम मुझसे सवाल करो । छोटी को तारतम्य याद नहीं आया । उसने सारी बातें एक ही बार पूछ डालीं- इंदिरा गांधी एक बात पूछूँ डांस करोगी? बड़ी बहन ने अभिनय के सुर में आव देखा न ताव । हाथ में पकड़े डंडे से चटाक की आवाज के साथ एक डंडा छोटी को जमा दिया । छोटी बहन रोती हुई घर के अंदर चली गई ।
लेखकों के घर बच्चे नहीं होते क्या ? या कि वे बच्चों से उतनी ही नफ़रत करते हैं जितनी इंदिरा गांधी नृत्य से ?
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