मार्क्सवादी
लेखन में इस शब्द का प्रयोग मोटे तौर पर मजदूर के अर्थ में किया जाता है । खुद मार्क्स ने मजदूर (Worker)
की जगह प्रोलेतेरिएत
(Proletariat) शब्द का इस्तेमाल किया था जिसका हिंदी अनुवाद ‘सर्वहारा’
किया जाता है । टेरी ईगलटन ने अपनी किताब ‘ह्वाई मार्क्स वाज राइट’ में बताया है
कि ‘प्रोलेतेरियत शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा में ऐसी महिलाओं के लिए प्रयुक्त
शब्द से हुई है जो सिर्फ़ संतान पैदा करके ही राज्य की सेवा करती थीं ।’ असल में
रोमन कानूनों के मुताबिक प्रत्येक पांच साल बाद जनगणना की जाती थी ताकि नागरिकों
के सैनिक कर्तव्य और मताधिकार तय करने के लिए उनकी संपत्ति का लेखा जोखा किया जा
सके । जिनके पास संपत्ति न होती उनकी संतानों को ही सेना में गिन लिया जाता था ।
इन्हें लैटिन में प्रोलेस कहते थे । प्रोलेतेरियस वे थे जो रोमन समाज की सेवा के
लिए केवल संतानें दे सकते थे जो सैनिक के बतौर भविष्य में रोमन साम्राज्य के सीमा
विस्तार में काम आते । संतानोत्पत्ति की यह क्षमता स्त्रियों में थी इसलिए वे इस
तबके का सदस्य होती थीं । मार्क्स ने बर्लिन विश्वविद्यालय में रोमन कानून की पढ़ाई
की थी इसलिए वे इस शब्द और इसके अर्थ से परिचित थे । आधुनिक मजदूर वर्ग को
उन्होंने इस नाम से पुकारा ।
मार्क्सवादी सैद्धांतिकी में सर्वहारा उस सामाजिक वर्ग को
कहा जाता है जिसके पास उत्पादन हेतु कोई भी साधन नहीं होता और भरण पोषण के लिए
अपनी श्रम-शक्ति को बेचना ही उसके लिए एकमात्र उपाय होता है जिसके बदले उसे मजूरी
या वेतन मिलता है । केवल इसी मजूरी पर आश्रित कामगार को सर्वहारा कहा जाता है ।
असल में आधुनिक औद्योगिक मजदूर वर्ग का जन्म उन किसानों से हुआ जो अकाल के कारण
खेती की जमीनें छोड़कर लंदन जैसे विशाल शहरों में कारखानों में काम करने चले आए थे
। देहात के कामगारों से यह समुदाय भिन्न था क्योंकि इसके पास काम करने के औजार भी
नहीं होते थे । जिन मशीनों पर इन्हें काम करना होता था वे कारखाने में होती थीं ।
ये सिर्फ़ अपने शरीर के साथ कारखाने में जाते और काम करते थे । शुरू में देहात से
उजड़े हुए ये कामगार कारखाने में काम करने की जगह भीख मांगकर गुजारा करते थे । इसके
चलते भीख मांगना कानूनन जुर्म घोषित किया गया ताकि भरण-पोषण का अन्य कोई भी साधन न
होने पर ये औद्योगिक कारखानों में काम करने के लिए विवश हों । कारखानों के मालिक
आम तौर पर पूंजीपति होते थे । इसीलिए इनके और पूंजीपतियों के बीच हमेशा संघर्ष
होता रहता था । मार्क्स ने देखा कि सामाजिक पायदान पर सबसे नीचे होने के कारण यह
समुदाय सबको मुक्त किए बिना खुद आजाद नहीं हो सकता । दूसरे पूंजीपति वर्ग के साथ
इसका रिश्ता ऐसा है कि उनमें कभी मेल-मिलाप नहीं हो सकता ।
कारखाने में वस्तुओं के उत्पादन की प्रक्रिया में इस
सर्वहारा के शारीरिक शोषण से ही पूंजीपति को मुनाफा होता है । इसीलिए पूंजीपति और सर्वहारा
के सामूहिक हित आपस में एक दूसरे के विपरीत होते हैं । मजदूर अगर अपनी मजूरी बढ़ाने
की कोशिश करते हैं तो पूंजीपति के मुनाफे में कमी आती है । दूसरी ओर अधिक से अधिक मुनाफा
हासिल करने के लिए पूंजीपति कामगार की मजूरी को न्यूनतम रखना चाहते हैं । उनकी इस आपसी
शत्रुता को देखकर ही मार्क्स ने सर्वहारा को पूंजीवाद की कब्र खोदने वाला माना था ।
ध्यान देने की बात यह है कि पूंजीपति और सर्वहारा, दोनों ही आर्थिक से अधिक सामाजिक
कोटियां हैं । इसलिए उत्पादन के साधनों से रहित कामगार, जिसके
शोषण से पूंजीपति को मुनाफा हासिल होता है, अगर अधिक मजूरी पाता
है तो भी उसे सर्वहारा ही कहा जाएगा । इस सर्वहारा के सजीव श्रम से ही सभी तरह के मूल्य
पैदा होते हैं, जब तक जिंदा मनुष्य मशीन पर काम नहीं करेगा तब
तक किसी भी वस्तु का उत्पादन संभव नहीं इसीलिए मार्क्स ने सब कुछ पर सर्वहारा का अधिकार
स्वीकार किया था ।
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