Friday, March 11, 2016

साहित्य का समाजशास्त्र

       
साहित्य को समझने का यह ऐसा नजरिया है जिसमें साहित्य की सामाजिकता पर जोर दिया जाता है । साहित्यकार और समाजशास्त्री इसमें साहित्य और समाजशास्त्र की मुख्यता को लेकर विवाद करते रहे हैं क्योंकि मैनेजर पांडे के अनुसार समाजशास्त्री के लिए साहित्य अधिक से अधिक समाज को समझने का एक स्रोत, साधन या माध्यम है । समाजशास्त्री के सामने यह सवाल होता है कि समाज को समझने में साहित्य क्या विशेष मदद कर सकता है जबकि साहित्य की चिंता करने वाला आलोचक यह सवाल लेकर चलता है कि वह समाजशास्त्रीय दृष्टि से किसी साहित्यिक कृति की क्या विशिष्ट समझदारी पा सकता है ।फिर भी तथ्य यह है कि साहित्य के समाजशास्त्र के अध्ययन के लिए प्रासंगिक अधिकांश चिंतक साहित्य के विचारक रहे हैं । इसके लिए साहित्य की ऐसी धारणा बनाने की जरूरत होती है जो उसे समाज की विभिन्न प्रक्रियाओं और उनके प्रभावों की दुनिया में अवस्थित करने में मदद करे । आम तौर पर साहित्य के तीन आयाम होते हैं- लेखक, रचना और पाठक । इन तीनों ही आयामों की रहस्यात्मक व्याख्या की संभावना साहित्य के प्रसंग में होती है इसीलिए साहित्य का समाजशास्त्र इस रहस्यमयता का खंडन करके साहित्य के सामाजिक रूप और अर्थ को उजागर करता है । साहित्य के समाजशास्त्र को  साहित्य की सामान्य व्याख्या से अलगाते हुए मैनेजर जी लिखते हैंउसका लक्ष्य साहित्यिक कृति की सामाजिक अस्मिता की व्याख्या है ।यह अस्मितारचना के सामाजिक संदर्भ और सामाजिक अस्तित्व से निर्मित होती है ।साहित्यिक रचना के निर्माण में सामाजिक संरचनाओं के अतिरिक्त सांस्कृतिक संस्थाओं की भी भूमिका होती है इसलिए साहित्य का समाजशास्त्र साहित्य से जुड़े हुए सभी तरह के संस्थानों का अध्ययन करता है और रचना पर उनके अच्छे बुरे प्रभाव का विवेचन करता है । लेखक का जीवन इसी समाज में बीतता है और उसके सामाजिक अनुभव ही उसके साहित्य सृजन का स्रोत होते हैं इसलिए यह अध्ययन रचना में अभिव्यक्त समाज को देखकर रचनाकार के तत्संबंधी दृष्टिकोण को उद्घाटित करता है ।
जान हाल ने लांगमैन से 1979 में पहली बार प्रकाशित अपनी पुस्तकद सोशियोलाजी आफ़ लिटरेचरमें इसकी सैद्धांतिक परंपराओं का जायजा लिया है । सबसे पहली परंपरा के बतौर वे मार्क्सवाद का नाम लेते हैं । साहित्य के सिलसिले में आम मार्क्सवादी धारणा को वे साहित्य को सामाजिक संदर्भ में समझने पर जोर के रूप में व्याख्यायित करते हैं । अर्थात साहित्य समाज का अंग है और उसमें समाज विषय वस्तु के रूप में व्यक्त होता है जिससे समाज के बारे में जानकारी मिलती है । इतिहास दर्शन के प्रसंग में हमने, बाल्जाक और होमर, नामक जिन दो लेखकों के सवाल पर खुद मार्क्स-एंगेल्स को अपने सामान्य ढांचे पर सवाल उठाते देखा उन्हें हाल ने भी उठाया है और इसे साहित्य के प्रति मार्क्स-एंगेल्स की संवेदनशीलता का प्रमाण माना है ।
मार्क्स-एंगेल्स के बाद लुकाच ने इस दिशा में काम किया । उन्होंने बाल्जाक की सफलता का रहस्यटाइपके चित्रण की उनकी क्षमता को माना और कहा कि टाइपों के प्रयोग से ही सामाजिक यथार्थ का सही वर्णन हो सकता है । जोला में वे सामाजिक विवरण की अधिकता और टाइप के निर्माण की कमी देखते हैं । हाल ने उनकी कमी को चिन्हित करते हुए बताया है कि उन्नीसवीं सदी के यथार्थवादी उपन्यास ही उनके मानदंड थे, उनसे अलग किस्म के लेखन को वे सराह नहीं पाते । लोकप्रिय साहित्य में वे सामाजिक यथार्थ नहीं देख पाए । उपन्यास के इतिहास और राजनीतिक इतिहास के बीच संबंध की उनकी धारणा भी यांत्रिक थी । बाल्जाक और स्टेंढाल के उपन्यासों को वे क्रांतिकारी आवेग से अनुप्राणित होने के कारण प्रगतिशील और 1848 के क्रांतिकारी उभार के खात्मे के बाद के उपन्यासों के लेखकों फ़्लाबेयर, जोला और काफ़्का को तुच्छ प्रतीकवादी और आत्मबद्ध, निराशावादी और प्रकृतवादी कहकर उनकी निंदा करते हैं । इसके विरोध में मार्क्सवादियों की ही एक धारा फ़्रैंकफ़र्त स्कूल की उठी जिसने मार्सल प्रूस्त और काफ़्का के यथार्थवाद को प्रतिष्ठित किया । इसके चिंतकों द्वारा 1848 को विभाजक समय मानकर कहा गया कि उसके बाद के जटिल यथार्थ की अभिव्यक्ति इन आधुनिकतावादी लेखकों के जरिए हुई थी ।
लुकाच के बाद लूसिएं गोल्डमान नेसंरचनाओं की समानधर्मिताकी धारणा प्रस्तुत की । उन्होंने अपनी किताबद हिडेन गाडमें पास्कल और रासीन के लेखन में व्यक्त त्रासदी और नोब्लेस द रोब नामक समुदाय की सामाजिक स्थिति के बीच ऐसी समानधर्मिता प्रतिष्ठित की । त्रासदी की उनकी धारणा व्यापक नहीं थी । उपन्यास पर उनकी किताबद थियरी आफ़ द नावेलमें उपन्यास की उनकी परिभाषा यांत्रिकता की शिकार है । उनके अनुसार उपन्यास बाजार के लिए उत्पादन से उत्पन्न व्यक्तिवादी समाज के दैनिक जीवन को साहित्यिक धरातल पर स्थानांतरित’ करता है । वे उपन्यास में नायक की स्थिति में उत्थान पतन को पूंजीवादी बदलावों के हिसाब से देखते-समझते हैं । कार्टेल पूंजीवाद नायक का महत्व कम कर देता है, संकटग्रस्त पूंजीवाद उसे वस्तुत: नष्ट कर देता है और उपभोक्ता पूंजीवाद अलगाव में पड़े हुए नायकों के चित्रण की ही गुंजाइश छोड़ता है ।
मार्क्सवाद के बाद दूसरी सैद्धांतिक परंपरा के रूप में हाल ‘इंग्लिश स्कूल’ का नाम लेते हैं । इसमें वे एफ़ आर लेविस के प्रभाव के चलते साहित्य के प्रति अधिक संवेदनशीलता पाते हैं । होगार्ट ने किसी जटिल और उत्कृष्ट साहित्यिक रचना को किसी भी समाजशास्त्रीय सिद्धांत से बेहतर माना और कहा कि उत्तम साहित्यिक कल्पना सामाजिक अनुभव को पूरी तरह ग्रहण कर सकती है । साहित्य की क्षमता के प्रति यह सरोकार उन्हें मार्क्सवाद की परंपरा में विशिष्टता प्रदान करता है । लेकिन वे समाशास्त्रीय और साहित्यिक पद्धतियों के बीच तनाव में संतुलन बनाने की जगह साहित्य के पक्ष में झुक जाते हैं । रेमंड विलियम्स के लेखन को भी वे इसी स्कूल से जोड़कर देखते हैं । विलियम्स ने साहित्यकार को सामाजिक परिस्थितियों का केवल प्रतिबिंबन करने वाला मानने से इनकार किया और कहा कि भाषा नये सामाजिक अर्थों के निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाती है । इस तरह भाषा पूर्व प्रदत्त यथार्थ के चित्रण का औजार मात्र नहीं, यथार्थ काघटकऔरभौतिकअंग है । यह मान्यता कुछ मामलों में तो सही हो सकती है लेकिन सिद्धांत के रूप में इसकी उपयोगिता संदिग्ध है ।    
इन्हीं लेखकों के चिंतन के सहारे लोकप्रिय कला को वे साहित्य के समाजशास्त्र की तीसरी परंपरा मानते हैं । जन-समाज (मास सोसाइटी), लोकप्रिय कला और साहित्य की गुणवत्ता के बीच रिश्ता इन लेखकों के विचार का विषय था । उद्योगीकरण के प्रभाव से साहित्य में बदलाव आए । इसके चलते घटिया आधुनिकबेस्ट सेलरका जन्म हुआ । फ़्रैंकफ़र्त स्कूल के अडोर्नो और होर्खाइमर नेकल्चर इंडस्ट्रीशीर्षक लेख में कहा कि जनता को नशे की पलायनवादी हालत में रखने के लिए लोकप्रिय कला को गढ़ा गया है । उन्हें लगा कि संस्कृति उद्योग से वर्तमान हालात में शिक्षा में पतन होगा और बर्बर व्यर्थता में प्रगति होगी ।     
इनके अतिरिक्त हमें साठ के दशक में पश्चिमी दुनिया में उठे दो उभारों को भी साहित्य के समाजशास्त्र के सिलसिले में याद रखना होगा- नारीवाद और ब्लैक साहित्य । उत्तर आधुनिकतावादी चिंतक मिशेल फूको ने ज्ञान और सत्ता विमर्श की ऐसी सैद्धांतिकी विकसित की जिसमें सभ्यता की भाषा के भीतर इन दमित अस्मिताओं के दमन के परिष्कृत उपकरणों की पहचान की गई । इस सैद्धांतिकी से इस अस्मिता आधारित लेखन की क्रांतिकारी भूमिका को समझने में मदद मिली । भारत में साहित्य के समाजशास्त्र पर बात करते हुए पश्चिमी साहित्य की ही तर्ज पर हिंदी स्त्री लेखन और दलित लेखन को ध्यान में रखना होगा । ये साहित्यिक आंदोलन साहित्य और समाज के रिश्तों की समझदारी को नये धरातल पर ले गए हैं । सामाजिक आंदोलनों से साहित्य के घनिष्ठ संबंधों पर जोर ने साहित्येतिहास में सामाजिक शक्तियों के प्रकार्य और साहित्य की समझ में सामाजिकता की उपस्थिति को रेखांकित किया है । थोड़ा अतिवादी मुद्रा अपनाते हुए इन्होंने लेखक के जाति और लिंग से उसके लेखन की विश्वसनीयता को जोड़ा है । साहित्य लेखन को ये बहुत हद तक आंदोलन का ही रूप मानते हैं ।                 
जान हापकिंस यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित पत्रिकान्यू लिटरेरी हिस्ट्री, 41,2’ में जेम्स एफ़ इंग्लिश द्वारा लिखितएवरीह्वेयर एंड नोह्वेयर: द सोशियोलाजी आफ़ लिटरेचर आफ़्टरद सोशियोलाजी आफ़ लिटरेचर”’ शीर्षक लेख में अस्सी के दशक के बाद विकसित होने वाले साहित्य के समाजशास्त्र के नए आयामों का जायजा लिया गया है । उनका कहना है कि समाजशास्त्र के निकट की चीजों में किताबों का इतिहास है, इसी के साथ पुस्तक सूची अध्ययन को भी रखा जा सकता है । डी एफ़ मेकेंजी का द सोशियोलाजी आफ़ ए टेक्स्ट: ओरालिटी, लिटरेसी एंड प्रिंट इन अर्ली न्यूजीलैंडमें कहना है कि किताब के इतिहासकारों को मानना होगा कि उनके शोध का विषय पाठ नहीं, ‘पाठों का समाजशास्त्र है क्योंकि सभी रूपों में किताब मानव व्यवहार के एक साक्ष्य के रूप में ही इतिहास में प्रवेश करती है ।किताब का इतिहास इस तरीके से आगे बढ़ा है कि उसमें साहित्यिक संस्कृति ही समा गई है । किताब के उत्पादकों की समझ भी इसमें शामिल हो गई है । इससे साहित्य के बंद समाज को विस्तार मिला है । लेखक, पाठ और पाठक के अतिरिक्त संपादक, प्रकाशक, पुस्तक विक्रेता, माल ढोने वाला, टिप्पणी लेखक आदि के लिए भी साहित्यिक अध्ययन में जगह बनी है । संस्कृति के इन उपेक्षित उत्पादकों पर जोर देने से अस्सी के दशक के साहित्य के समाजशास्त्र की खाली जगह को भरने में मदद मिली है जिसके बिना किताब के व्यापार और प्रकाशन की तकनीकों की जानकारी विद्वानों को नहीं होती । स्टेलीब्रास ने तो इनके साथ किताब की छपाई के साथ जुड़े हुए सामानात को भी अध्ययन का विषय बना दिया है । इसके साथ संचार माध्यम संबंधी अध्ययन जुड़ जाने से किताब का इतिहास, संस्कृति अध्ययन, संचार सिद्धांत तथा विज्ञान का इतिहास और समाजशास्त्र आपस में जुड़कर शोध का अत्यंत रोचक क्षेत्र बन गया है । डिजिटल मीडिया के कारण जेरोमी मैक्गेन लिखितरेडिएंट टेक्सचुअलिटी: लिटरेचर आफ़्टर वर्ल्ड वाइड वेबजैसी किताब इस नये क्षेत्र का प्रमुख अध्ययन साबित हुई है ।
साहित्य अध्ययन की एक अन्य समाजशास्त्रीय शाखा साहित्यिक मूल्यों और साहित्यिक मानदंड के निर्माण के इतिहास और तर्क के इर्द गिर्द विकसित हुई है । पियरे बोर्दू ने साहित्य के सामान्य और विशेष क्षेत्रों के निर्माण तथा प्रतीकीय और आर्थिक पूंजी में उनके पारस्परिक अनुपात का सिद्धांत विकसित किया । उसने ध्यान दिया कि कैसे सांस्कृतिक विशिष्टता और उसका पवित्रीकरण सामाजिक ऊंच-नीच की व्यवस्था को मजबूत बनाता है । वे दमन की संस्थाओं को टिकाए रखने में शिक्षा व्यवस्था की प्रमुख भूमिका मानते हैं । उनकी इन मान्यताओं से प्रेरित होकर रिचर्ड टाड कीकनज्यूमिंग फ़िक्शन’ (1988), जानिस रेडवे कीए फ़ीलिंग फ़ार बुक्स’ (1999), जान गिलोरी कीकल्चरल कैपिटल’ (1994), पास्काल कासानोवा कीवर्ल्ड रिपब्लिक आफ़ लेटर्स’ (1987), जान फ़्राउ कीकल्चरल स्टडीज एंड कल्चरल वैल्यू’ (1995) और ग्राहम हुगान कीपोस्टकोलोनियल एक्जोटिक’ (2001) जैसी किताबों का लेखन और प्रकाशन हुआ है ।
इसी से जुड़ा हुआ अध्ययन उच्च शिक्षा के संस्थान, पाठ्यक्रम, अध्यापको की जमात आदि को लेकर होता है । इससे साहित्य अध्ययन के इतिहास, अन्य अनुशासनों के बीच उसकी जगह तथा व्यापक समाज में उसकी भूमिका पर प्रकाश पड़ता है । शायद इसे ही बोर्दू साहित्य के समाजशास्त्र काआत्मचिंतनकहते हैं जो खुद को ही अपने अध्ययन का विषय बनाता है । टेरी ईगलटन नेलिटरेरी थियरीमें इसकी शुरुआत की थी । इसे साहित्य का शैक्षिक समाजशास्त्र भी कहा जा सकता है । इसमें शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच, पाठ्यक्रम और सामाजिक संरचना के बीच तथा सामाजिक पद्धतियों के बीच शक्ति संबंधों की छानबीन की जाती है । गौरी विश्वनाथन कीमास्क्स आफ़ कांकेस्ट: लिटरेरी स्टडी एंड ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ (1989) में भारत में औपनिवेशिक दौर के साथ साहित्य अध्ययन के संबंध को देखा गया है और इस क्षेत्र में इसे महत्वपूर्ण शोध माना जा रहा है ।
एक अन्य क्षेत्र पाठकों और पढ़न पर ध्यान केंद्रित करता है । रेडवे की ‘रीडिंग द रोमांस’ (1984) संचार अध्ययन के श्रोता सर्वेक्षण तकनीक और लोकप्रिय संस्कृति के भोक्ता तथा फ़ैन समुदायों के अध्ययन की दृष्टि का सहारा लेकर पढ़ने के तरीकों के बारे में किया गया अध्ययन है जिसमें ‘कौन क्या पढ़ता है, कैसे पढ़ता है और उसके पढ़ने से उसकी बाकी गतिविधियों का क्या रिश्ता है’ को तलाशा गया है । साहित्य से जुड़ी हुई चीजों से कानूनों के रिश्तों की जांच पड़ताल भी ऐसा ही विकासमान क्षेत्र है । बौद्धिक संपदा कानून, लेखन के बारे में लोकप्रिय धारणा और वास्तविक लेखन, साहित्य के वितरण और उपभोग के तरीकों तथा साहित्यिक रूपों के इतिहास से संबंधित शोध साहित्य के समाजशास्त्र के नये पहलू हैं ।

कुल मिलाकर अस्सी के दशक में सेमिनारों तथा फ़ंडिंग के जाल से बहिष्कृत होने के बावजूद साहित्य का समाजशास्त्र अनेक नये और अंतर-अनुशासनिक तरीकों की सहायता से निरंतर समृद्ध हो रहा है ।                   

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