इस पद का व्यवहार दुनिया के इतिहास के दो दौरों के लिए किया जाता है ।
एक तो उन्नीसवीं-बीसवीं सदी में यूरोपीय शक्तियों,
संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान के औपनिवेशिक विस्तार के दौर के लिए
इस धारणा का प्रयोग किया जाता रहा है । कुछ लोग इसकी अवधि 1830 से दूसरे विश्वयुद्ध के खात्मे तक मानते हैं । यह समय बड़े पैमाने पर दूसरे देशों पर कब्जा
करके वहां उपनिवेश बनाने
का
था
।
ये
उपनिवेशित देश समुद्र पार हुआ करते थे । हमलावर मुल्क के लाभ के लिए उपनिवेशित देशों के संसाधनों का दोहन इस दौर की विशेषता थी । कब्जे, दोहन और समुद्र पार यात्रा के लिए तकनीकी प्रगति की जरूरत होती थी । इस समय को पंद्रहवीं सदी से उन्नीसवीं सदी के आरंभ तक के यूरोपीय प्रसार से अलगाने के लिए ही ‘नव’ उपसर्ग लगाया जाता है । असल में लैटिन अमेरिकी मुल्कों की स्वाधीनता के फलस्वरूप स्पेनी साम्राज्य का खात्मा हुआ तथा अमेरिकी क्रांति और उसकी स्वाधीनता से यूरोपीय साम्राज्य-विस्तार का एक चरण समाप्त हुआ और इसके बाद ब्रिटेन के नेतृत्व में नए तरह का उपनिवेशीकरण आरंभ हुआ जिससे इस ‘नव-साम्राज्यवाद’ की शुरुआत मानी जाती है । औद्योगिक रूप से विकसित होने के कारण ब्रिटेन ने इसका सबसे अधिक लाभ उठाया । इंग्लैंड को उस समय दुनिया का कारखाना कहा जाता था और वह यूरोप के किसी भी अन्य देश के मुकाबले अधिक तेजी से माल तैयार करके उसे उपनिवेशित देशों के बाजार में सस्ते दाम पर बेच सकता था । आर्थिक व्यापार के साथ सरकार की राजनीतिक ताकत का सहयोग तथा व्यापार में लाभ के लिए राजनीतिक सत्ता का उपयोग साम्राज्यवाद की सामान्य विशेषता है लेकिन इंग्लैंड ने उद्योगीकरण को तेजी देने के लिए अभूतपूर्व स्तर पर उपनिवेशों के संसाधनों का दोहन किया और अपने देश में तैयार माल की बिक्री के लिए उन देशों में बाजार और जरूरत को जन्म दिया । बहरहाल दूसरे विश्वयुद्ध के बाद उसका पराभव होने लगा तो जापान में परमाणु बम गिराकर एक नई साम्राज्यवादी ताकत (अमेरिका) ने दुनिया के रंगमंच पर अपने आगमन की सूचना दी ।
थोड़े दिनों तक शीत-युद्ध के चलते अमेरिका की प्रगति पर रुकावट लगी रही । उसके बाद अमेरिका के नेतृत्व में शुरू होने वाले इस नए चरण को भी इस समय ‘नव-साम्राज्यवाद’ कहा जा रहा है । हालांकि सूचना-संचार क्रांति और वित्तीकरण से जुड़े इस दौर की नवीनता के चलते बहुत सारे विद्वान
इसे साम्राज्यवाद कहने के मुकाबले साम्राज्य का समय कहना सही समझते हैं । इसी धारणा
को व्यक्त करने के लिए अंतोनियो नेग्री और माइकेल हार्ट ने एक किताब लिखी ‘एम्पायर’ जिसका प्रकाशन ठीक सदी के मोड़ पर यानी
2000 में हुआ । इस किताब में लेखकों का आग्रह ही यह था कि वर्तमान समय
साम्राज्यवादी दौर के मुकाबले पुराने साम्राज्यों की तरह का है । उनका कहना था कि साम्राज्यवाद
में कोई एक देश होता था जिसके हितों के लिए उपनिवेशों का दोहन होता था लेकिन इस नए
दौर में बहुराष्ट्रीय गठबंधन आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में प्रमुख भूमिका निभा
रहे हैं । आर्थिक क्षेत्र में एकाधिक देशों में आधारित बहुराष्ट्रीय कंपनियों
(जिन्हें अंग्रेजी आद्यक्षरों के योग से एम एन सी कहा जाता है)
या अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई एम एफ़)
तथा विश्व व्यापार संगठन (ड्ब्ल्यू टी ओ)
जैसे संगठनों और सैन्य-राजनीतिक क्षेत्र में नाटो
जैसे बहुराष्ट्रीय गठबंधनों की प्रधानता दिखाई दे रही है ।
लेकिन यह मान्यता विवादों से परे नहीं है । अतोलियो
बोरोन ने तो नेग्री और हार्ट की मान्यताओं का प्रतिवाद करते हुए
‘एम्पायर ऐंड इंपीरियलिज्म’ शीर्षक किताब ही लिख
डाली जिसका प्रकाशन 2005 में हुआ । अनेक विद्वानों ने कहा कि
अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुख्यालय किसी न किसी देश में अवस्थित हैं और उन्हें
अब भी अपने मूल देश के सैनिक और राजनीतिक समर्थन की जरूरत पड़ती है इसलिए वे इसे साम्राज्यवाद
के ही एक नए चरण के रूप में प्रस्तुत करने के लिए इसे ‘नव-साम्राज्यवाद’ कहना पसंद करते हैं । डेविड हार्वे नामक भूगोलवेत्ता इनमें अग्रणी हैं । उनकी
किताब ‘द न्यू इंपीरियलिज्म’ का प्रकाशन
2003 में हुआ । इसमें उन्होंने इसकी शुरुआत इराक पर अमेरिकी हमले से
मानी है ।
It is valuable sir.
ReplyDeleteThanks for provide this.
Aur mein bhe har kee ho apki jaisa.
Communism ko samjhane ki kosis mein ho
Then we should know each other.
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