खुद कार्ल मार्क्स ने ही यह बात
कही कि वर्ग और वर्ग संघर्ष उनकी मौलिक धारणाएं नहीं थीं । एक हद तक ब्रिटिश अर्थशास्त्रियों
और फ़्रासिसी समाजवादियों से प्राप्त इस धारणा में उन्होंने सर्वहारा वर्ग की केंद्रीयता
और उसके ऐतिहासिक दायित्व का पहलू जोड़कर इसे मौलिक रूप दिया । इसके लिए उन्होंने वर्ग
चेतना की बात की ।
वर्ग चेतना की मौजूदगी आधुनिक
बुर्जुआ समाज में होती है । इस समाज के निर्माण में साधारण जन (थर्ड एस्टेट) की प्रधान
भूमिका थी । फ़्रांसिसी क्रांति के दौरान साधारण जन ने धर्माधिकारियों और कुलीनों से
अपने आपको अलगाया और राष्ट्रीय असेंबली के रूप में अपने आपको घोषित किया । पुराने राजतंत्र
में यह थर्ड एस्टेट कुछ नहीं था और आधुनिक समाज में सब कुछ हो गया । इसीलिए अडोर्नो
ने कहा कि ‘समाज थर्ड एस्टेट की धारणा है’ । इसमें यह बात भी शामिल थी कि लोग आधुनिक समाज में अपने काम के आधार पर स्वतंत्रतापूर्वक
अपनी मूल्यवत्ता अर्जित करेंगे । चर्च और सामंती कुलीनता द्वारा प्रदत्त पारंपरिक
अधिकारों को खत्म करके आधुनिक समाज व्यक्तियों के काम से प्राप्त उनके सामाजिक
मूल्यों को मान्यता देता है । मनुष्य का मूल्य उसके धर्म का वीरता के आधार पर
नहीं, बल्कि उसकी उत्पादकता और कौशल से निर्धारित होता है । जन साधारण के इस
उत्थान से मध्य युग का अंत हुआ ।
बहरहाल अठारहवीं-उन्नीसवीं
सदी में उद्योगीकरण के बाद पूंजी और श्रम के मूल्य को लेकर टकराव पैदा हुआ । यह
अंतर्विरोध श्रम के उचित मूल्य के लिए लड़नेवाले मजदूर और पूंजी के मूल्य की रक्षा
और विस्तार के लिए परेशान पूंजीपति के बीच संघर्ष के रूप में सामने आया । 1840 के
दशक में उद्योगीकरण के बाद पैदा पहले आर्थिक संकट के दौरान यह टकराव सबसे तीव्र
ढंग से उभरकर प्रत्यक्ष हुआ । उन्नीसवीं सदी के मध्य में मजदूरों और पूंजीपतियों
के बीच पैदा इसी संघर्ष के दौरान समाजवाद धारणाओं को बल मिला । ऐसी चाहत पैदा हुई
कि काम करने वालों के सामाजिक योगदान को मान्यता मिलनी चाहिए । उन्हें मनुष्यता के
विकास और राजनीति की दिशा तय करने में पूरी तरह से भाग लेने की आजादी होनी चाहिए ।
1848 की क्रांतियों में इसी भावना को स्वर मिला और सामाजिक जनवाद का नारा पैदा हुआ
। इसका तात्पर्य था समूचे समाज की जरूरत के मुताबिक जनतंत्र की स्थापना ।
1840 के संकट और 1848 की
क्रांतियों से समाजवादियों के सामने पूंजीवाद के पार जाने की संभावना और जरूरत
पैदा हुई । मार्क्स और एंगेल्स के लिए यह अंतर्विरोध से भरी परिघटना सामाजिक बदलाव
की संभावना और जरूरत के रूप में महसूस हुई । उन्होंने उद्योगीकरण के बाद पैदा हुए
आधुनिक मजदूर वर्ग को इस बदलाव का वाहक घोषित किया । भारी बेरोजगारी इस औद्योगिक
सर्वहारा की विशेषता थी । मार्क्स ने कहा कि मजदूर वर्ग की यह बेरोजगारी कोई
अस्थायी घटना नहीं है, बल्कि औद्योगिक क्रांति के बाद बने आधुनिक समाज की स्थायी
विशेषता है । उन्होंने मजदूरों पर यह बात थोपी नहीं कि पूंजीवाद पर विजय पाने में
ही उनका हित है, बल्कि उन्होंने मजदूर वर्ग की ऐतिहासिक स्थिति के बारे में उसकी
चेतना को रोशन करने में मदद की ।
मार्क्स ने बार बार इस बात पर
जोर दिया कि मजदूर वर्ग ही अपनी मुक्ति के लिए आवश्यक संगठन और आंदोलन चलाएगा
बशर्ते उसे पूंजीवाद की असलियत और उसमें निहित उसकी रणनीतिक रूप से निर्णायक
भूमिका का अहसास करा दिया जाय । अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी के प्रति कामगार वर्ग का
सचेत होना ही उसकी वर्ग चेतना है । उसकी नियति है कि समूचे समाज को मुक्त कराए
बिना उसकी मुक्ति असंभव है । यदि मजदूर पूंजी के शोषण तंत्र में पिसता रहता है और
कुछ नहीं बोलता तो उसे मार्क्सवादी शब्दावली में ‘क्लास इन इटसेल्फ़’ कहते हैं
लेकिन अपनी दासता की समझ हासिल कर लेने के बाद अगर वह अपने ऐतिहासिक लक्ष्य को
पूरा करने की कोशिश में लग जाता है तो उसे ‘क्लास फ़ार इटसेल्फ़’ कहते हैं और इसी को
उसकी वर्ग चेतना कहते हैं । मजदूरों की तरह ही यह चेतना समाज के सभी वर्गों में हो
सकती है ।
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