इस परिघटना को जिस सैद्धांतिक ढांचे में देखना उचित
होगा उसमें राजनीति कोई सर्व तंत्र स्वतंत्र क्रिया नहीं, बल्कि एक अन्य तत्व का सतह पर प्रकट रूप है । कहने का मतलब है कि राजनीति
किसी सामाजिक बदलाव की अभिव्यक्ति होती है जो बदले में इस बदलाव को आकार और त्वरा
भी प्रदान करती है । सामाजिक बदलाव के बारे में हमेशा सर्व सहमति नहीं होती । आम
तौर पर जिन लोगों को यथास्थिति से लाभ होता है वे बदलाव का विरोध तो करते ही हैं,
उसकी संभावना को भी खारिज करते हैं । लेकिन किसी भी व्यवस्था से जिन
समुदायों को नुकसान होता है वे बदलाव की कोशिश तो करते ही हैं, बदलाव के संभावित और निश्चित होने की बात भी करते हैं । सामाजिक बदलाव की
इस प्रक्रिया में संबंधित समुदाय के भीतर से नेतृत्व का जन्म होता है । किसी
सामाजिक समुदाय और उसके हितों को व्यक्त करने वाले राजनीतिक नेतृत्व के बीच रिश्ता
बहुत कुछ शरीर और मस्तिष्क जैसा होता है । मस्तिष्क भी शरीर का ही एक अंग होता है
लेकिन शरीर को नियंत्रित और संचालित करने लगता है । इस संबंध की जटिलता को कार्ल
मार्क्स ने इस तरह व्यक्त किया है कि कोई भी समुदाय अपने व्यावहारिक जीवन में जिन
सीमाओं के परे नहीं जाता उसके राजनीतिक नेता अपनी सोच में उन सीमाओं का अतिक्रमण
नहीं करते । फिर, किसी समुदाय के सदस्य जहां अपने तात्कालिक हितों का घेरा तोड़
नहीं पाते, वहीं उस समुदाय के नेता इन हितों की संतुष्टि के
लिए दूरगामी योजना बनाते हैं और इसके लिए तात्कालिक रूप से अपने ही हितों के
विरुद्ध काम करते हुए भी प्रतीत हो सकते हैं । यह आवश्यक नहीं कि सभी सामाजिक
आलोड़न राजनीतिक शक्ल ले ही लें । जो संभावनाएं आकार नहीं ले पाती हैं उन्हीं में
आगामी नेतृत्व के आगमन की सूचना छिपी होती है । इस परिघटना की जटिलता को हाल के वर्षों की दो
प्रक्रियाओं के सहारे समझने में आसानी होगी- मंडल आयोग के लागू होने के बाद से अब तक
जारी प्रक्रिया और नव उदारवाद द्वारा हाशिए पर धकेले गए मध्यवर्ग के विक्षोभ के
बतौर आम आदमी पार्टी का उदय । इन दोनों आलोड़नों से उत्पन्न राजनीतिक संभावनाओं के नित
नवीन रूप प्रकट हो रहे हैं । भारत के वर्तमान हालात को देखते हुए प्रतीत हो रहा है
कि हालिया अतीत को तो जाने दीजिए स्वाधीनता आंदोलन के विचारकों की यात्रा भी
समाप्त नहीं हुई है । गांधी, आंबेडकर और लोहिया की उत्तरजीविता बहुत लोग महसूस कर
रहे हैं । इन सबके बाहर भगत सिंह की यात्रा तो अभी शुरू भी नहीं हुई है । इस
सिलसिले में एक बात हमेशा ध्यान में रखनी होगी कि चूंकि राजनीति मानव क्रियाकलाप
का परिणाम होती है और मनुष्य कभी भी अप्रत्याशित को अंजाम देने में सक्षम होता है
इसलिए जरूरी नहीं कि अतीत के उदाहरण भविष्य में घटित होने वाली संभावनाओं का पूरी
तरह से अनुमान कर लें । इस लिहाज से अगर मौजूदा परिस्थिति को ध्यान में रखें तो
कहा जा सकता है कि राजनीतिक नेतृत्व की नई पौध सामने आ रही है जो अब तक सामने नजर
आ रहे विकल्पों से अधिक परिपक्व है । उसकी राजनीति की भाषा अधिक सृजनात्मक है ।
प्रयास इस बात के अवश्य हो रहे हैं कि राजनीति में इसके प्रवेश पर रोक लगाई जाए
लेकिन उसके कारण ही यह नई पौध राजनीतिक हस्तक्षेप के दायरे को चौड़ा कर रही है । इसके
प्रवेश को रोकने के लिए यह बताने की कोशिश हो रही है कि राजनीति करने वाले कुछ पेशेवर
लोग होते हैं । याद करने की बात यह भी है कि राजनीति राज्य के संचालन का उपाय है ।
राज्य की पैदाइश तो समाज से हुई है लेकिन जन्म के बाद आगे चलकर वह समाज से ऊपर उठ जाता
है तो इस बात की जरूरत पड़ जाती है कि उसे फिर से सामाजिक तबकों के काबू में लाया जाए
। नया नेतृत्व इसी जरूरत को पूरा करने की कोशिश करता है ।
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