Tuesday, March 1, 2016

नक्सलवादी आंदोलन और हिंदी साहित्य

    
हिंदी साहित्य के इतिहास में नक्सलवादी आंदोलन का एक विशेष स्थान है । बंगाल के दार्जिलिंग जिले के छोटे से गांवनक्सलबाड़ीके नाम पर इस आंदोलन का नाम पड़ा । नक्सलवाद को आम तौर पर राजनीतिक आंदोलन की हिंसक धारा के साथ जोड़ा जाता है लेकिन असल में यह स्वातंत्र्योत्तर भारत में किसानों-मजदूरों की मुक्ति का उग्रपंथी आंदोलन है । 1947 की आजादी के बाद कम्युनिस्ट पार्टी की निष्क्रियता और पहले प्रधानमंत्री कीसमाजवादी किस्म के समाजके समर्थन की पृष्ठभूमि में बंगाल के नक्सलवादी आंदोलन ने शिक्षित युवा-बौद्धिक समुदाय को तेजी से आकर्षित किया । पहले बंगाल के साहित्यिक जगत पर इसका प्रभाव पड़ा । फिर हिंदी साहित्य भी इसके प्रभाव में आया । हिंदी कवि धूमिल की एक कविता में सबसे पहले इसका उल्लेख मिलता है । असल में धूमिल हिंदी के आधुनिक साहित्य में खास तरह के संक्रमण का प्रतिनिधित्व करते हैं । हिंदी कविता में साठोत्तरी पीढ़ी ने अराजक विद्रोह का मुहावरा विकसित किया था जिसका गहरा असर धूमिल पर है लेकिन उनके साथ ही व्यवस्थित राजनीतिक विरोध की आवाज भी सुनाई पड़ने लगती है ।
सत्तर के दशक में नक्सलबाड़ी के प्रभाव से ऐसी चेतना का जन्म हुआ जिसमें किसानों-मजदूरों के सशस्त्र संघर्ष की छाया महसूस की जा सकती है । सबसे पहले हिंदी में आलोक धन्वा की कविताओं खासकरगोली दागो पोस्टरऔरजनता का आदमीमें इसे देखा और सराहा गया । जल्दी ही देश में इमर्जेंसी की घोषणा हो गई । इमर्जेंसी के इस दौर में भी दूर दराज के इलाकों में ये कवि सक्रिय थे लेकिन इमर्जेंसी की समाप्ति के बाद इनका प्रभाव बहुत ही गहरा पड़ा । इसके पीछे इमर्जेंसी की समाप्ति के बाद फैले लोकतांत्रिक उभार का योगदान था ।
इनमें से एक कवि गोरख पांडे का जिक्र इसलिए भी जरूरी है कि इस धारा के सांस्कृतिक संगठनजन संस्कृति मंचके वे संस्थापक महासचिव थे । शुरू में उनके भोजपुरी गीत प्रकाशित हुए जिनमें संघर्षशील श्रमिक जनता की पीड़ा और आकांक्षा की अभिव्यक्ति उनकी अपनी भाषा में हुई थी । उस दौर में गोरख के ये भोजपुरी गीत इतने लोकप्रिय थे कि स्थानीय लोग बिना लेखक का नाम जाने भी उन्हें गाते थे ।गुलमिया अब हम नाहीं बजइबो, अजदिया हमरा के भावेलेतथाजनता के आवे पलटनिया, हिलेले झकझोर दुनियाजैसे गीत आज भी संघर्षशील लोगों की जुबान पर रहते हैं । उनका गीतसमाजवाद बबुआ धीरे धीरे आईशासकों के आश्वासन की खिल्ली उड़ाता है और मारक व्यंग्य के साथ समाजवाद के नाम पर असमानता के यथार्थ को उद्घाटित करता है । उनकी हिंदी कविताओं में भी छंद और लय की मौजूदगी के चलते उन्हें अपार लोकप्रियता हासिल हुई । एक कविता द्रष्टव्य हैकविता युग की नब्ज धरो ।/ अफ़्रीका लातिन अमेरिका,/ उत्पीड़ित हर अंग एशिया ,/ आदमखोरों की निगाह में खंजर सी उतरो ।/ उलटे अर्थ विधान तोड़ दो,/ शब्दों से बारूद जोड़ दो,/ अक्षर अक्षर पंक्ति पंक्ति को छापामार करो ।/ श्रम की भट्ठी में गल गलकर,/ जग के मुक्ति अर्थ में ढलकर,/ बन स्वच्छंद सर्वहारा के ध्वज के संग लहरो ।गोरख पांडे ने क्रांतिकारी राजनीतिक कविता का जो लोकप्रिय मुहावरा विकसित किया, वह इस धारा के लगभग सभी कवियों की विशेषता बन गई ।
हिंदी में नक्सलबाड़ी के प्रभाव से क्रांतिकारी साहित्य का जो माहौल बना उसके कारण नागार्जुन और त्रिलोचन जैसे सृजनशील प्रगतिशील कवि प्रासंगिक बने । नागार्जुन ने तो कुछ कविताओं के जरिए इस आंदोलन का अभिनंदन भी किया । उनकी छोटी सी कविताप्रतिहिंसा ही स्थायिभाव है मेरे कवि काएक तरह से प्रतोरोध की हिंसा का अनुमोदन करता है । उन्हीं की कविताभोजपुरहिंदी क्षेत्र में नक्सलवादी आंदोलन का केंद्र बन चुके जिले पर लिखी हुई है और उस भावना को भी अभिव्यक्त करती हैबारूदी छर्रे की खुशबूऔरयही धुँआउनके कवि को ताकत देता है ।
इनकी कविताओं की प्रसिद्धि ने लोकतंत्र के पक्ष में कविता लिखनेवाले रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे लोहिया के विचारों से प्रभावित कवियों को भी चर्चा के केंद्र में ला दिया । इसमें से खासकर सर्वेश्वर ने तो दो नक्सल नेताओं- किष्टा गौड़ और भूमैया- की फाँसी के विरोध में कविता भी लिखी और सवाल पूछते हुए कहाचाक कर जो अजदहों का पेट बाहर आ गये, ऐसे दीवाने वतन यूँ ही गँवाए जायेंगे !’ उनकी कविताओं की मांग ही नहीं बढ़ी, उनमें एक क्रांतिकारी तेवर भी दिखाई पड़ा ।कुआनो नदीकी अधिकांश कविताओं में यह विद्रोही भाव प्रतिबिंबित हुआ ।
उसी माहौल में जिन्होंने कविता लिखना शुरू किया था लेकिन एक पीढ़ी बाद के थे उनमें बल्ली सिंह चीमा ने विपक्ष की कविता की दुष्यंत की याद ताजा कर दी । उन्हीं के साथ के अदम गोंडवी ने लिखाये नयी पीढ़ी पे मबनी है वही जज्मेंट दे ।/ फ़लसफ़ा गाँधी का मौजूँ है के नक्सलवाद है ॥लोकप्रिय लेखन की इस परंपरा में ही भोजपुरी के रमता जी और निर्मोही जैसे लोककवि भी शामिल थे । लेकिन इनसे अलग भी वीरेन डंगवाल, कुमार विकल, दिनेश कुमार शुक्ल, मंगलेश डबराल, पंकज सिंह आदि कवियों ने हिंदी कविता की नक्सल परंपरा की अजस्र धारा को जिंदा रखा है । इस क्रम में उसका फलक विस्तृत हुआ है और पर्यावरण, बेदखली, जाति उत्पीड़न, स्त्री मुक्ति जैसे अन्य सरोकार भी उसकी सीमा में दाखिल हुए हैं ।
कविता के अतिरिक्त कथा साहित्य में विजेंद्र अनिल और मधुकर सिंह की ढेर सारी कहानियों, संजीव के उपन्यासआकाश चंपामें और विशेष रूप से सृंजय की कहानीकामरेड का कोटमें भी इस धारा का साहित्यिक योगदान देखा जा सकता है ।
बांग्ला में नक्सलवादी आंदोलन के प्रभाव से साहित्य-संस्कृति की दुनिया में जो आलोड़न पैदा हुआ उसे ‘मूर्तिभजन’ के नाम से जाना जाता है । बांग्ला नवजागरण की मूलगामी आलोचना के प्रतीक के रूप में उस नवजागरण के पुरोधाओं की मूर्तियों को तोड़ा गया था । इसे साठ के दशक में दुनिया भर में हो रही सांस्कृतिक क्रांति के भारतीय संस्करण के बतौर भी समझा गया । लेकिन हिंदी में ऐसा कोई मूर्तिभंजन नहीं चला । इसका एक कारण बांग्ला नवजागरण और हिंदी नवजागरण की स्थिति का अंतर भी था । जहां बंगाल में प्रभुत्वशाली संस्कृति के निर्माण में नवजागरण के पुरोधाओं को समाहित कर लिया गया था और इसी कारण प्रगतिशील लेखक संघ का गठन तक नहीं हो सका था, वहीं उसके विपरीत हिंदी क्षेत्र के नवजागरण के पुरोधा प्रभावशाली तबकों द्वारा उपेक्षित रहे थे और मजबूत प्रलेस का गठन हुआ था । इसी कारण हिंदी क्षेत्र में उसके प्रभाव ने जन पक्षधर साहित्यिक हलचलों को मजबूती प्रदान की ।

                       

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