साहित्य
का इतिहास दर्शन साहित्य को देखने का एक नजरिया है । अनुशासन के रूप में इसका
विकास साहित्य के बारे में रूपवादी और संरचनावादी दृष्टिकोण के विरोध में हुआ क्योंकि
ये दृष्टिकोण
साहित्यिक रचना को रचनाकार अर्थात लेखक और उसके ग्रहीता अर्थात पाठक
से पूरी तरह अलगाकर उसे स्वायत्त ‘पाठ’ में बदल देते हैं । किसी कृति के अर्थ को खोलने के लिए ये दृष्टियां समाज और
इतिहास का हस्तक्षेप जरूरी नहीं मानतीं और इसके लिए केवल अन्य
पाठों का संदर्भ ग्रहण करने पर जोर देती हैं । हालांकि कलावाद अनिवार्य तौर
पर इतिहास का विरोध नहीं करता, बल्कि इतिहास को ही अपने में ढाल लेता है । कला के प्रसिद्ध
सामाजिक इतिहासकार आर्नल्ड हाउजर ने ‘कला का इतिहास दर्शन’ में अलाइस रीग्ल और हाइनरिह
वोल्फ़्लिन नामक दो जर्मन विचारकों के मतों का उल्लेख किया है जो मानते थे कि कला का
इतिहास बिना नाम के लिखा जा सकता है क्योंकि विकास तो कला की तकनीकों का होता है ।
कला की इन तकनीकों में होने वाले बदलावों में एक पैटर्न होता है और वह पैटर्न ही उसका
इतिहास है । इसके लिए वे विकास की जगह उद्विकास की धारणा प्रस्तावित करते हैं जिसमें
वनस्पतियों के विकास की तरह कला के विकास में भी आंतरिक गुणों की वृद्धि ही दिखाई पड़ती
है, बाहरी परिस्थितियों का प्रभाव प्रत्यक्ष नहीं होता । इसके विरोध में हाउजर इतिहास
की ऐसी धारणा का पक्ष लेते हैं जिसमें आंतरिक तर्क से विकास तो हो ही, युगांतरकारी
बदलावों के कारक कला के भीतर की तकनीकों की जगह बाहरी समाज में होने वाले परिवर्तनों
के प्रभाव हों ।
प्रसिद्ध
जर्मन साहित्य चिंतक राबर्ट वाइमान ने ‘स्ट्रक्चर एंड सोसाइटी इन लिटरेरी
हिस्ट्री’ में कहा है कि साहित्य के इतिहास दर्शन
के लिए साहित्य की ऐतिहासिक प्रकृति और उसकी सामाजिक भूमिका की समझदारी जरूरी है । इसके लिए रचना के लिखे जाने के समय के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और वर्तमान की सामाजिक सांस्कृतिक जरूरतों की समझ के बीच संवादी संबंध स्थापित करने की कोशिश करनी पड़ती है । इसका कारण यह है कि तेजी से बदलते सामाजिक संदर्भ में अतीत का साहित्य हमेशा नई अर्थवत्ता प्राप्त करता है । साहित्यिक रचनाओं में इसी प्रक्रिया में नए अर्थ या मूल्य पैदा होते हैं और उनकी प्रासंगिकता को फिर से पहचाना जाता है । इसके संधान को ही वे ‘विगत अर्थवत्ता’ और ‘वर्तमान सार्थकता’ के बीच
का संवादी गुण मानते हैं । इसके लिए वे कला और यथार्थ
तथा व्यक्ति और समाज के बीच नए और जटिल संबंधों की समझदारी आवश्यक मानते हैं । इसी तरह उनका कहना है कि साहित्य की संरचना उसके सामाजिक कार्य-संपादन से जुड़ती
है । सामाजिक गतिविधि के रूप में साहित्य के लेखन और उसके पठन के बीच बुनियादी रिश्ता बनता है जो अपनी प्रकृति में ऐतिहासिक होता है । यह लेखक के रूप में व्यक्ति के आत्म और उसके सामाजिक अस्तित्व के बीच एकता और अंतर्विरोध की कल्पनाजन्य अनुभूति है । इसमें तात्कालिक रूप से ही सही व्यक्ति का समाजीकरण और समाज का वैयक्तीकरण होता है । अतीत के अधिकांश महान लेखन की यही सामाजिक भूमिका है और वर्तमान में पढ़ने की भी यही सच्ची भूमिका है । उनका कहना है कि लिखना और पढ़ना इतिहास में मनुष्य की समग्र गतिविधि का अंग है । इतिहास के बारे में इसी किस्म के नजरिए से इतिहास सामाजिक बदलाव, संघर्ष और नियंत्रण
की ऐसी समग्र प्रक्रिया के बतौर दिखाई पड़ता है जिसमें न केवल प्रकृति के साथ मनुष्य का द्वंद्वात्मक रिश्ता बल्कि वर्गों और व्यक्तियों के संघर्ष तथा सांस्कृतिक जरूरतों और सौंदर्यात्मक गुणों का उदय और विकास भी शामिल होता है ।
विचारणीय विषय में तीन
पद हैं- साहित्य, इतिहास
और दर्शन, जिनकी थोड़ी व्याख्या इस अनुशासन
की समझ के लिए जरूरी है । कलात्मक रचनाएं होने
के नाते साहित्यिक कृतियां अतुलनीय दिखाई पड़ती हैं और इसीलिए इतिहास लेखन के लिए आवश्यक
किसी भी समूहन से इनकार करती हैं । दूसरी ओर इतिहास का अनुशासन मुख्य तौर पर राजनीतिक
और समाजार्थिक बदलावों पर ध्यान देता है । अगर हम सतही तौर पर देखें तो इन बदलावों में किसी
भी व्यवस्था का अभाव दिखाई पड़ेगा । इतिहास लिखने के लिए ऊपर से अव्यवस्थित दिखाई पड़ने
वाले इन बदलावों के बीच कोई व्यवस्था स्थापित करनी पड़ती है । ‘कार्य-कारण श्रृंखला’ और
‘प्रगति’ जैसी धारणाओं के जरिए इस घटना प्रवाह
में व्यवस्था कायम की जाती है । आम तौर पर इसे ही इतिहास दर्शन कहा जाता है । साहित्यिक
इतिहास के लिहाज से इस इतिहास दर्शन को परिष्कृत करना पड़ता है क्योंकि साहित्य के बदलाव
समाज या अर्थतंत्र के बदलावों से थोड़ा अलग तरीके के होते हैं । हिंदी साहित्य के इतिहास
लेखन के लिए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने एक ढाँचा प्रस्तावित किया था । वही इस बात का
प्रमाण है कि साहित्य के इतिहास लेखन के लिए रचनाओं और रचनाकारों का परिचय देने से
आगे बढ़कर एक ऐतिहासिक दृष्टि अपनाने की जरूरत पड़ती है ।
जब भी इतिहास लिखा जाता था तो इतिहास लेखक उसे वृत्तांत से अलगाने
के लिए अलग अलग घटनाओं को आपस में जोड़ने का कोई न कोई ढाँचा बनाते थे लेकिन उसे अलग
से सूत्रबद्ध करने की जरूरत उन्हें नहीं महसूस होती थी । जर्मन दार्शनिक हेगेल ने इसे
पहली बार व्यवस्थित किया । उन्होंने माना कि असली इतिहास विचारों का होता है और मानव
समाज किसी न किसी परम विचार को अमली जामा पहनाने के लिए प्रयासरत रहता है । इसी क्रम
में इतिहास आगे बढ़ता है यानी ‘प्रगति’ होती है । इसी
आधार पर उन्होंने विचारों का विकास रुक जाने पर उसे ‘इतिहास का
अंत’ कहा । दर्शन का एक अंग सौंदर्यशास्त्र माना जाता है और इसीलिए
सभी दार्शनिक सौंदर्यशास्त्र पर भी लिखते हैं । हेगेल ने भी ‘हाइडेलबर्ग लेक्चर्स आन ऐस्थेटिक्स’ शीर्षक पुस्तक लिखी
जिसमें सौंदर्यशास्त्र के अंग के बतौर साहित्य के कुछेक सवालों पर प्रकाश डाला गया
है । उदाहरण के लिए आधुनिक काल में पुनर्जागरण के बाद जन्मी मानव समाज की विवेक दृष्टि
से उन्होंने गद्य के उदय को जोड़ा है । उनका कहना था कि आधुनिक काल की तर्कणा की अभिव्यक्ति
गद्य में ही संभव है । इसी तरह उन्होंने उपन्यास को ‘मध्य वर्ग
का महाकाव्य’ कहा था । हिंदी में आम तौर पर इस परिभाषा की
व्याख्या करते हुए ‘मध्य वर्ग’ का वही अर्थ समझा जाता है जो इस समय प्रचलित है
जबकि हेगेल के समय इसका मतलब उभरता हुआ शहरी बुर्जुआ वर्ग होता था । अर्थात इस
परिभाषा के अनुसार उपन्यास उभरते हुए बुर्जुआ वर्ग का महाकाव्य है । साहित्य का
माध्यम भाषाएं होती हैं । इनके भी उत्थान पतन को व्यापक ऐतिहासिक बदलावों के
संदर्भ में ही समझा जा सकता है अन्यथा कुछ भाषाओं को आधुनिक कहना संभव नहीं होता,
न ही कुछ को प्राचीन । साहित्य की भाषा के रूप में किसी भाषा की जगह दूसरी भाषा के
आगमन के पीछे भाषा में निहित कोई गुण नहीं होता, बल्कि अनेक साहित्येतर अर्थ-राजनीतिक
कारण होते हैं ।
हेगेल के चिंतन से आगे बढ़ते हुए मार्क्स ने कहा कि मनुष्य
इतिहास निर्माण की प्रक्रिया में किसी ‘परम विचार’ का दास नहीं होता, बल्कि वह
इतिहास को सचेत रूप से बनाता और बदलता है । यह बदलाव कोई बाहरी घटना नहीं, उसका
अपने आपको बनाना और बदलना होता है क्योंकि कोई भी बदलाव मनुष्यों के दिमाग से होकर
गुजरता है । साहित्य उस व्यापक सृजनात्मक भंडार का अंग होता है जिसका उत्पादन मनुष्य
अपनी सौंदर्यबोधीय संवेदना की संतुष्टि के लिए करता है और इस संवेदना का विकास मनुष्य
ने अपने सामाजिक अस्तित्व के उत्पादन के विकास-क्रम में किया है । मार्क्स
के चिंतन के प्रभाव से साहित्य के विश्लेषण में ‘नव-इतिहासवाद’
और ‘सांस्कृतिक भौतिकवाद’ की धाराओं का जन्म हुआ । जार्ज लुकाच ने ऐतिहासिक भौतिकवाद और साहित्य-रूप, खासकर यथार्थवाद और ऐतिहासिक उपन्यास के रिश्तों
की समझ में इजाफा किया । उन्होंने फ़्रांसिसी उपन्यासकार बाल्जाक और रूसी
उपन्यासकार तोलस्तोय के प्रसंग में यह महत्वपूर्ण सवाल उठाया कि इन दोनों की घोषित
विचारधारा के प्रतिक्रियावादी होने के बावजूद याथार्थ के चित्रण की उनकी
प्रतिबद्धता उन्हें परिवर्तनकामी ताकतों के साथ खड़ी कर देती है । इसके बाद के
प्रमुख मार्क्सवादी सिद्धांतकार रेमंड विलियम्स ने ग्रेट ब्रिटेन में ‘सांस्कृतिक
भौतिकवाद’ की धारणा का विकास किया और संस्कृति अध्ययन का आंदोलन चलाया जिसके तहत
साहित्य को समूचे सांस्कृतिक उत्पादन का अंग मानकर उस पर विचार किया जाता था ।
अभिव्यक्ति के अलग अलग माध्यमों को एक साथ रखकर विचार करने के क्रम में संस्कृति
के लोकप्रिय रूपों की भूमिका को भी समझा गया ।
‘कला का इतिहास दर्शन’ में आर्नल्ड हाउजर ने आधुनिक समय में
भी कला के प्राचीन रूपों के आकर्षण की बात की है और कहा है कि मार्क्स ने भी ग्रीक
कवि होमर के सिलसिले में यह सवाल उठाया है और इसका उत्तर बचपन के सार्वकालिक
आकर्षण के आधार पर देने की कोशिश की है । भारतीय मार्क्सवादी साहित्य चिंतक
रामविलास शर्मा ने साहित्य में मनुष्य के इंद्रियबोध, उसके भावजगत और विचारधारा की
उपस्थिति मानी है और इनमें परिवर्तन की गति में भिन्नता स्वीकार की है ।
साहित्य के इतिहास दर्शन के अनेक अर्थ ग्रहण किए जा सकते
हैं । एक अर्थ तो ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में साहित्य का अध्ययन है । यही अर्थ सबसे
अधिक मान्य है । लेकिन इसका एक अर्थ इतिहास के ऐसे लेखन का अध्ययन भी हो सकता है
जो साहित्य के अधिक नजदीक हो । इस नजरिए से देखने पर इसका आयाम विस्तृत हो जाता है
। इसी प्रसंग में एक और प्रश्न उठाया जाता रहा है कि साहित्य के इतिहास की मुख्य
प्रकृति साहित्यिक होती है या ऐतिहासिक । यह सवाल केवल अकादमिक नहीं है और लंबे
व्यावहारिक लेखन से साबित हुआ है कि इस अनुशासन में रुचि साहित्य के विचारकों की अधिक
रही है, इतिहासकारों की उतनी नहीं रही है । लेकिन हाल के दिनों में इतिहास के भीतर
ही उत्तर आधुनिकता के उदय ने ऐसी संभावना पैदा की है कि साहित्य केवल इतिहास का
स्रोत ही न रह जाए और विधाओं के बीच की आवाजाही की तरह अनुशासनों के बीच भी
आवाजाही पैदा हो । अतीत में इसके उदाहरण रहे हैं । रमेश चंद्र मजुमदार या जवाहर
लाल नेहरू के इतिहास लेखन और राहुल सांकृत्यायन के साहित्य लेखन में ऐसे विंदु हैं
जो दोनों अनुशासनों के बीच किसी स्थिर-स्थायी विभाजन का निषेध करते हैं ।
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