Thursday, March 3, 2016

आधार और अधिरचना

  

मार्क्स ने इतिहास को देखने की अपनी दृष्टि को स्पष्ट करते हुए राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में एक योगदानशीर्षक पुस्तक की भूमिका में एक पैराग्राफ लिखा जिसमें आधार-अधिरचना का ढांचा वर्णित है । उसकी किसी भी व्याख्या से अधिक स्पष्ट वह उद्धरण ही है इसलिए उसे देखना लाभदायक होगा । उनका कहना हैअपने जीवन के सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया में मनुष्य कुछ निश्चित संबंध बनाते हैं जो उनकी इच्छा से स्वतंत्र तथा अपरिहार्य होते हैं । ये उत्पादन संबंध भौतिक उत्पादक-शक्तियों के विकास के एक निश्चित चरण से जुड़े हुए उत्पादन के संबंध हैं । उत्पादन के इन संबंधों का कुल योग समाज की आर्थिक संरचना का निर्माण करता है । यही वह वास्तविक नींव है जिस पर कानूनी और राजनीतिक अधिरचना उठती है और जिससे सामाजिक चेतना के निश्चित रूप जुड़ते हैं । उत्पादन का तरीका ही सामान्य रूप से सामाजिक, राजनीतिक तथा बौद्धिक जीवन-प्रक्रिया को रूप देता है । मनुष्यों की चेतना उनके अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती, बल्कि इसके उलट उनका सामाजिक अस्तित्व ही उनकी चेतना को निर्धारित करता है ।
        
यह कथन मनुष्य के सामाजिक जीवन और उसकी चेतना, जो साहित्य तथा अन्य तमाम किस्म के सृजनात्मक उपलब्धियों का कारण होती है, के बीच रिश्ते की भौतिकवादी समझ को व्यक्त करती है । इस बुनियादी प्रस्थापना के बाद इसी भूमिका में सामाजिक परिवर्तन की अपनी समझ को व्याख्यायित करते हुए वे आगे कहते हैंविकास की एक मंजिल पर आकर समाज की भौतिक उत्पादक शक्तियां उन्हीं उत्पादन संबंधों से टकराने लगती हैं जिनके बीच अब तक वे रह रही थीं ।---अब उत्पादक शक्तियों के विकास को आकार देने की बजाय ये संबंध उनके पांवों में बेड़ियां बन जाते हैं ।आगे वे इसी टकराव के जरिए बदलाव को घटित होता हुआ बताते हैं । कहते हैंतब सामाजिक क्रांति का युग शुरू होता है । आर्थिक नींव में बदलाव के साथ समूची भारी भरकम अधिरचना में कमोबेश तेजी से बदलाव आता है ।आर्थिक नींव और अधिरचना में बदलाव के बीच अंतर करते हुए वे कहते हैंऐसे बदलाव पर विचार करते हुए हमें दो किस्म के बदलावों में हमेशा फ़र्क करना चाहिए- उत्पादन की आर्थिक स्थितियों में भौतिक बदलाव, जिसे प्राकृतिक विज्ञानों की तरह सटीक ढग से निर्धारित किया जा सकता है, और कानूनी, राजनीतिक, सौंदर्यशास्त्रीय अथवा दार्शनिक, यानी संक्षेप में ऐसे विचारधारात्मक रूपों में बदलाव, जिनके जरिए लोग इस टकराव के बारे में सचेत होते हैं, के बीच फ़र्क करना चाहिए ।’   

इतिहास में परिवर्तन की मार्क्स की इस धारणा को लेकर उनके जीवनकाल में ही विवाद शुरू हो गए थे इसलिए उन्हें इसे और अधिक व्याख्यायित करना पड़ा था । थोड़ी सफाई देते हुए एंगेल्स ने जोसेफ ब्लाख को 21-22 सितंबर 1890 को लिखे अपने पत्र में स्पष्ट किया है ‘---अगर कोई इस बात को तोड़-मरोड़कर कहता है कि आर्थिक तत्व एकमात्र निर्धारक तत्व है तो वह इस प्रस्थापना को बेतुके जुमले में बदल देता है । आर्थिक स्थिति आधार है लेकिन अधिरचना के कई तत्व, वर्ग संघर्ष और उसके परिणामों के राजनीतिक स्वरूप, जैसे कि किसी निर्णायक युद्ध के बाद विजयी वर्ग द्वारा कायम किया गया संविधान, कानून संबंधी चीजें, और खासकर इन तमाम वास्तविक संघर्षों की इनके भागीदारों के दिमाग पर पड़ने वाली छायाएं, राजनीतिक, कानूनी, दार्शनिक सिद्धांत, धार्मिक मत और फिर जाकर जड़सूत्र प्रणालियों के रूप में उनका विकास, यह सब भी ऐतिहासिक संघर्षों के गतिपथ पर अपना असर डालते हैं, और कई मामलों में खासकर उनके स्वरूपों का निर्धारण करते हैं ।’ आधार-अधिरचना का मार्क्सवादी ढांचा इतना विवादास्पद है कि इस प्रकरण में किसी अन्य विद्वान की व्याख्या की अपेक्षा मार्क्स-एंगेल्स की धारणा को मूल में देखना ही सबसे अधिक उपयोगी होगा ।  


No comments:

Post a Comment