Wednesday, March 23, 2016

नव- साम्राज्यवाद

                          
इस पद का व्यवहार दुनिया के इतिहास के दो दौरों के लिए किया जाता है । एक तो उन्नीसवीं-बीसवीं सदी में यूरोपीय शक्तियों, संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान के औपनिवेशिक विस्तार के दौर के लिए इस धारणा का प्रयोग किया जाता रहा है । कुछ लोग इसकी अवधि 1830 से दूसरे विश्वयुद्ध के खात्मे तक मानते हैं यह समय बड़े पैमाने पर दूसरे देशों पर कब्जा करके वहां उपनिवेश बनाने का था ये उपनिवेशित देश समुद्र पार हुआ करते थे हमलावर मुल्क के लाभ के लिए उपनिवेशित देशों के संसाधनों का दोहन इस दौर की विशेषता थी कब्जे, दोहन और समुद्र पार यात्रा के लिए तकनीकी प्रगति की जरूरत होती थी इस समय को पंद्रहवीं सदी से उन्नीसवीं सदी के आरंभ तक के यूरोपीय प्रसार से अलगाने के लिए हीनवउपसर्ग लगाया जाता है असल में लैटिन अमेरिकी मुल्कों की स्वाधीनता के फलस्वरूप स्पेनी साम्राज्य का खात्मा हुआ तथा अमेरिकी क्रांति और उसकी स्वाधीनता से यूरोपीय साम्राज्य-विस्तार का एक चरण समाप्त हुआ और इसके बाद ब्रिटेन के नेतृत्व में नए तरह का उपनिवेशीकरण आरंभ हुआ जिससे इसनव-साम्राज्यवादकी शुरुआत मानी जाती है औद्योगिक रूप से विकसित होने के कारण ब्रिटेन ने इसका सबसे अधिक लाभ उठाया इंग्लैंड को उस समय दुनिया का कारखाना कहा जाता था और वह यूरोप के किसी भी अन्य देश के मुकाबले अधिक तेजी से माल तैयार करके उसे उपनिवेशित देशों के बाजार में सस्ते दाम पर बेच सकता था आर्थिक व्यापार के साथ सरकार की राजनीतिक ताकत का सहयोग तथा व्यापार में लाभ के लिए राजनीतिक सत्ता का उपयोग साम्राज्यवाद की सामान्य विशेषता है लेकिन इंग्लैंड ने उद्योगीकरण को तेजी देने के लिए अभूतपूर्व स्तर पर उपनिवेशों के संसाधनों का दोहन किया और अपने देश में तैयार माल की बिक्री के लिए उन देशों में बाजार और जरूरत को जन्म दिया बहरहाल दूसरे विश्वयुद्ध के बाद उसका पराभव होने लगा तो जापान में परमाणु बम गिराकर एक नई साम्राज्यवादी ताकत (अमेरिका) ने दुनिया के रंगमंच पर अपने आगमन की सूचना दी
थोड़े दिनों तक शीत-युद्ध के चलते अमेरिका की प्रगति पर रुकावट लगी रही उसके बाद अमेरिका के नेतृत्व में शुरू होने वाले इस नए चरण को भी इस समय नव-साम्राज्यवादकहा जा रहा है । हालांकि सूचना-संचार क्रांति और वित्तीकरण से जुड़े इस दौर की नवीनता के चलते बहुत सारे विद्वान इसे साम्राज्यवाद कहने के मुकाबले साम्राज्य का समय कहना सही समझते हैं । इसी धारणा को व्यक्त करने के लिए अंतोनियो नेग्री और माइकेल हार्ट ने एक किताब लिखीएम्पायरजिसका प्रकाशन ठीक सदी के मोड़ पर यानी 2000 में हुआ । इस किताब में लेखकों का आग्रह ही यह था कि वर्तमान समय साम्राज्यवादी दौर के मुकाबले पुराने साम्राज्यों की तरह का है । उनका कहना था कि साम्राज्यवाद में कोई एक देश होता था जिसके हितों के लिए उपनिवेशों का दोहन होता था लेकिन इस नए दौर में बहुराष्ट्रीय गठबंधन आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं । आर्थिक क्षेत्र में एकाधिक देशों में आधारित बहुराष्ट्रीय कंपनियों (जिन्हें अंग्रेजी आद्यक्षरों के योग से एम एन सी कहा जाता है) या अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई एम एफ़) तथा विश्व व्यापार संगठन (ड्ब्ल्यू टी ओ) जैसे संगठनों और सैन्य-राजनीतिक क्षेत्र में नाटो जैसे बहुराष्ट्रीय गठबंधनों की प्रधानता दिखाई दे रही है ।
लेकिन यह मान्यता विवादों से परे नहीं है । अतोलियो बोरोन ने तो नेग्री और हार्ट की मान्यताओं का प्रतिवाद करते हुएएम्पायर ऐंड इंपीरियलिज्मशीर्षक किताब ही लिख डाली जिसका प्रकाशन 2005 में हुआ । अनेक विद्वानों ने कहा कि अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुख्यालय किसी न किसी देश में अवस्थित हैं और उन्हें अब भी अपने मूल देश के सैनिक और राजनीतिक समर्थन की जरूरत पड़ती है इसलिए वे इसे साम्राज्यवाद के ही एक नए चरण के रूप में प्रस्तुत करने के लिए इसेनव-साम्राज्यवाद’  कहना पसंद करते हैं । डेविड हार्वे नामक भूगोलवेत्ता इनमें अग्रणी हैं । उनकी किताब द न्यू इंपीरियलिज्मका प्रकाशन 2003 में हुआ । इसमें उन्होंने इसकी शुरुआत इराक पर अमेरिकी हमले से मानी है ।


मिखाइल बाख्तिन के साहित्य सिद्धांत

      
मिखाइल बाख्तिन (1895-1975) रूस के ऐसे चिंतक हैं जिन्होंने रूसी क्रांति के बाद भी लंबा जीवन बिताया । उनका जीवन और लेखन अनेक रहस्यों से घिरा रहा । उनके साथियों, मेदवेदेव और वोलोशिनोव के नाम से प्रकाशित लेखन को भी उन्हीं का लिखा मानने की प्रवृत्ति रही है । कुछ लोगों ने इसे मिलाकरबाख्तिन सर्किलका नाम दिया । बाख्तिन का साहित्य संबंधी योगदान मूल रूप से भाषा, उपन्यास और कार्निवाल की धारणा से जुड़ा हुआ है । उनका बचपन और किशोर जीवन बहुभाषी वातावरण में बीता था जिसका प्रभाव उनकी मान्यताओं में बहुलता के स्वीकार में दिखाई पड़ता है । उनके बड़े भाई क्रांति विरोधी होकर निर्वासित हुए लेकिन बाख्तिन ने छोटे नगरों में गुमनामी का जीवन बिताते हुए सरकार और सत्ता का रूपकात्मक विरोध किया । जीवन की परिस्थितियों के चलते उनका लेखन व्यवस्थित ढंग से प्रकाशित न हो सका । पश्चिमी दुनिया में उनकी प्रसिद्धि का एक कारण रूस के विरोध में उनके इस्तेमाल की संभावना भी है ।
उपन्यास को वे इसीलिए महत्वपूर्ण मानते थे कि इसमें लेखक अपने पात्रों पर अपनी विचारधारा थोप नहीं सकता । उन्होंने एकस्वरीयता की जगह बहुस्वरीयता की स्थापना के जरिए अपना विरोध दर्ज कराया । उपन्यास को वे प्लेटो के संवादों की तरह मानते थे । उन्होंने द्वंद्ववाद के समानांतर रास्ता निकालने की कोशिश की और दो के बीच टकराव की जगह बिना किसी समाधान के अनेक के बीच टकराव की निरंतर मौजूदगी देखी । इस परिघटना को उन्होंने उपन्यास, खासकर दोस्तोएव्स्की के उपन्यासों, में खोजा । बाख्तिन ने अपने लेखन की शुरुआत दर्शन से की थी लेकिन जल्दी ही उपन्यास उनकी रुचि के केंद्र में आ गया । उन्होंने दोस्तोएव्स्की के उपन्यासों पर सबसे महत्वपूर्ण काम किया । इसमें उन्होंने एक तो व्यक्ति को अंतिम रूप से जान सकने की धारणा का विरोध किया और कहा कि ऊपरी तौर पर महसूस हो सकता है कि आप किसी पात्र को समझ गए हैं लेकिन उसके भीतर एकदम ही कुछ नया और अप्रत्याशित कर बैठने की गुंजाइश बनी रहेगी । इसे ईसाइयत की आत्मा की धारणा से उनका लगाव भी माना जाता है । दूसरी बात पात्रों के आत्म और अन्य के साथ उसके संबंध के सिलसिले में उनका मानना था कि किसी भी व्यक्ति को अन्य लोग प्रभावित करते हैं और यह प्रभाव अंतर्ग्रथित स्वरूप का होता है । एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि अपने बारे में जानने के लिए हमें जैसे आईना देखना होता है उसी तरह हमारे निजी व्यक्तित्व को दूसरे लोग अधिक अच्छी तरह समझते हैं । तीसरे उन्हें दोस्तोएव्स्की के उपन्यासों में बहुस्वरीयता मिली । इसका आधार उनके पात्रों की अनंतिमता थी । इसी किताब में उसके अंग्रेजी अनुवाद में उन्होंने कार्निवाल के बारे में नया अध्याय जोड़ा । कार्निवाल का हिंदी अनुवाद मुश्किल है लेकिन इसे मेला-ठेला से लेकर हुल्लड़ तक समझा जा सकता है । बाख्तिन के अनुसार दोस्तोएव्स्की की बहुस्वरीयता का संदर्भ इसी कार्निवाल से प्रकट होता है जिसमें व्यक्तियों की आवाजें सुनाई पड़ती हैं, फलती फूलती हैं और एक दूसरे से अंत:क्रिया करती हैं । उनकी दूसरी महत्वपूर्ण किताब राबेले एंड हिज वर्ल्डमानी जाती है । इसमें उन्होंने कार्निवाल को एक सामाजिक संस्थान मानकर उसका वर्णन किया और विकृत यथार्थवाद को एक साहित्यिक पद्धति माना । इन दोनों के बीच संबंध को उन्होंने सामाजिक और साहित्यिक के बीच की अंत:क्रिया के बतौर समझाया । हास्य के इतिहास पर लिखे अध्याय में उन्होंने हास्य के स्वास्थ्यकर और मुक्तिकारी प्रभाव का बखान किया और छल-छद्म के विरोध में इसकी क्रांतिकारी भूमिका बतलाई । डायलाजिकल इमैजिनेशनमें उन्होंने अर्थ की प्राप्ति के लिए पाठ से अधिक महत्वपूर्ण तत्व संदर्भ को माना । उपन्यास और महाकाव्य के बीच तुलना भी उन्होंने इसी पुस्तक में की है । उन्होंने कहा कि हमारी उत्तर-औद्योगिक सभ्यता के लिए उपन्यास अपनी विविधता के कारण सबसे उपयुक्त विधा है, महाकाव्य तो इसी विविधता को दुनिया से खत्म करना चाहता है । उपन्यास की एक और विशेषता यह है कि यह अपना स्वभाव बनाए रखते हुए भी अन्य विधाओं को अपना सकता है और उन्हें पचा भी सकता है जबकि अन्य विधाओं को उपन्यास के अनुकरण के लिए अपनी पहचान को क्षतिग्रस्त करना पड़ेगा । उन्होंने यह भी बताया कि अतीत के तमाम रूपों ने उपन्यास के सृजन में योगदान किया है इसलिए उनकी छाप भी उपन्यास पर रहती है । उन्होंने यह भी कहा कि उपन्यास की भाषा में भाषेतर तत्व बहुत रहते हैं । इन्हीं तत्वों के जरिए भाषा के अर्थ का संदर्भ निर्मित होता है । इन तत्वों में वे परिप्रेक्ष्य, मूल्यांकन और विचारधारात्मक स्थिति को शामिल करते हैं । इसी कारण से भाषा में निष्पक्ष होना असंभव है ।

बाद में वे पद्धति और संस्कृति के स्वभाव संबंधी सवालों पर ज्यादा ध्यान देने लगे । इस संबंध में लिखी किताब के साथ हादसा यह हुआ कि जिस प्रकाशन में इसकी एक प्रति थी वह जर्मन बमबारी में खाक हो गया और दूसरी प्रति के पन्नों को लपेटकर बाख्तिन उनमें सिगरेट पी गए । इसके एक लेख में उन्होंने साहित्यिक भाषा और रोजमर्रा की भाषा में फ़र्क किया । उनके अनुसार विधाओं का अस्तित्व महज भाषा में नहीं, बल्कि संवाद में भी होता है । विधाओं का अध्ययन केवल भाषण और साहित्य की सीमा में हुआ है, जबकि प्रत्येक अनुशासन में इनके बाहर मौजूद विधाओं का सहारा लिया जाता है । संकेत यह है कि इन साहित्येतर विधाओं पर कम ध्यान दिया गया है । उनके अनुसार प्राथमिक विधाओं में रोजमर्रा के जीवन में स्वीकार्य शब्दों, मुहावरों और अभिव्यक्तियों का प्रयोग किया जाता है, जबकि दोयम विधाओं में वे पाठ आते हैं जिनकी शब्दावली पारिभाषिक होती है, मसलन कानूनी या वैज्ञानिक लेखन । बाख्तिन का कहना है कि किसी भी बोलने वाले की भाषा, 1)विषयवस्तु, 2) प्रत्यक्ष सुनने वाले और 3) अदृश्य सुनने वाले से निर्धारित होती है । इसे ही बाख्तिन संवाद का तिहरा स्वभाव कहते हैं । एक जगह वे व्याख्या की असमाप्य संभावना की भी बात करते हैं । बाख्तिन ने रूपवाद से असहमति जाहिर की क्योंकि रूपवादी अंतर्वस्तु की उपेक्षा करते हैं और रूप के परिवर्तनों का अति सरलीकरण कर देते हैं । उन्होंने संरचनावादियों का विरोध किया क्योंकि वे संरचना के कूटकी धारणा से चिपके रहते हैं । वे पाठ और सौंदर्यात्मक वस्तु तत्व को अलगाते भी हैं । बाख्तिन की विशेषता उपन्यास की नवीनता को पहचानना और उसमें बहुलता को रेखांकित करना है । साथ ही भाषा के अर्थ के लिए संदर्भ पर उनका जोर उन्हें रूपवाद और संरचनावाद के लिए अपाच्य बना देता है । पश्चिमी दुनिया ने बहुलता पर उनके बल के कारण उन्हें अपनाया क्योंकि अमेरिका को अपनी स्थिति की व्याख्या के लिए सांस्कृतिक बहुलता का सिद्धांत मुफ़ीद लगता था ।                 

वर्ग चेतना

                             
खुद कार्ल मार्क्स ने ही यह बात कही कि वर्ग और वर्ग संघर्ष उनकी मौलिक धारणाएं नहीं थीं । एक हद तक ब्रिटिश अर्थशास्त्रियों और फ़्रासिसी समाजवादियों से प्राप्त इस धारणा में उन्होंने सर्वहारा वर्ग की केंद्रीयता और उसके ऐतिहासिक दायित्व का पहलू जोड़कर इसे मौलिक रूप दिया । इसके लिए उन्होंने वर्ग चेतना की बात की ।
वर्ग चेतना की मौजूदगी आधुनिक बुर्जुआ समाज में होती है । इस समाज के निर्माण में साधारण जन (थर्ड एस्टेट) की प्रधान भूमिका थी । फ़्रांसिसी क्रांति के दौरान साधारण जन ने धर्माधिकारियों और कुलीनों से अपने आपको अलगाया और राष्ट्रीय असेंबली के रूप में अपने आपको घोषित किया । पुराने राजतंत्र में यह थर्ड एस्टेट कुछ नहीं था और आधुनिक समाज में सब कुछ हो गया । इसीलिए अडोर्नो ने कहा किसमाज थर्ड एस्टेट की धारणा है। इसमें यह बात भी शामिल थी कि लोग आधुनिक समाज में अपने काम के आधार पर स्वतंत्रतापूर्वक अपनी मूल्यवत्ता अर्जित करेंगे । चर्च और सामंती कुलीनता द्वारा प्रदत्त पारंपरिक अधिकारों को खत्म करके आधुनिक समाज व्यक्तियों के काम से प्राप्त उनके सामाजिक मूल्यों को मान्यता देता है । मनुष्य का मूल्य उसके धर्म का वीरता के आधार पर नहीं, बल्कि उसकी उत्पादकता और कौशल से निर्धारित होता है । जन साधारण के इस उत्थान से मध्य युग का अंत हुआ ।
बहरहाल अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में उद्योगीकरण के बाद पूंजी और श्रम के मूल्य को लेकर टकराव पैदा हुआ । यह अंतर्विरोध श्रम के उचित मूल्य के लिए लड़नेवाले मजदूर और पूंजी के मूल्य की रक्षा और विस्तार के लिए परेशान पूंजीपति के बीच संघर्ष के रूप में सामने आया । 1840 के दशक में उद्योगीकरण के बाद पैदा पहले आर्थिक संकट के दौरान यह टकराव सबसे तीव्र ढंग से उभरकर प्रत्यक्ष हुआ । उन्नीसवीं सदी के मध्य में मजदूरों और पूंजीपतियों के बीच पैदा इसी संघर्ष के दौरान समाजवाद धारणाओं को बल मिला । ऐसी चाहत पैदा हुई कि काम करने वालों के सामाजिक योगदान को मान्यता मिलनी चाहिए । उन्हें मनुष्यता के विकास और राजनीति की दिशा तय करने में पूरी तरह से भाग लेने की आजादी होनी चाहिए । 1848 की क्रांतियों में इसी भावना को स्वर मिला और सामाजिक जनवाद का नारा पैदा हुआ । इसका तात्पर्य था समूचे समाज की जरूरत के मुताबिक जनतंत्र की स्थापना ।
1840 के संकट और 1848 की क्रांतियों से समाजवादियों के सामने पूंजीवाद के पार जाने की संभावना और जरूरत पैदा हुई । मार्क्स और एंगेल्स के लिए यह अंतर्विरोध से भरी परिघटना सामाजिक बदलाव की संभावना और जरूरत के रूप में महसूस हुई । उन्होंने उद्योगीकरण के बाद पैदा हुए आधुनिक मजदूर वर्ग को इस बदलाव का वाहक घोषित किया । भारी बेरोजगारी इस औद्योगिक सर्वहारा की विशेषता थी । मार्क्स ने कहा कि मजदूर वर्ग की यह बेरोजगारी कोई अस्थायी घटना नहीं है, बल्कि औद्योगिक क्रांति के बाद बने आधुनिक समाज की स्थायी विशेषता है । उन्होंने मजदूरों पर यह बात थोपी नहीं कि पूंजीवाद पर विजय पाने में ही उनका हित है, बल्कि उन्होंने मजदूर वर्ग की ऐतिहासिक स्थिति के बारे में उसकी चेतना को रोशन करने में मदद की ।
मार्क्स ने बार बार इस बात पर जोर दिया कि मजदूर वर्ग ही अपनी मुक्ति के लिए आवश्यक संगठन और आंदोलन चलाएगा बशर्ते उसे पूंजीवाद की असलियत और उसमें निहित उसकी रणनीतिक रूप से निर्णायक भूमिका का अहसास करा दिया जाय । अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी के प्रति कामगार वर्ग का सचेत होना ही उसकी वर्ग चेतना है । उसकी नियति है कि समूचे समाज को मुक्त कराए बिना उसकी मुक्ति असंभव है । यदि मजदूर पूंजी के शोषण तंत्र में पिसता रहता है और कुछ नहीं बोलता तो उसे मार्क्सवादी शब्दावली में ‘क्लास इन इटसेल्फ़’ कहते हैं लेकिन अपनी दासता की समझ हासिल कर लेने के बाद अगर वह अपने ऐतिहासिक लक्ष्य को पूरा करने की कोशिश में लग जाता है तो उसे ‘क्लास फ़ार इटसेल्फ़’ कहते हैं और इसी को उसकी वर्ग चेतना कहते हैं । मजदूरों की तरह ही यह चेतना समाज के सभी वर्गों में हो सकती है ।         


Sunday, March 13, 2016

राजनीतिक नेतृत्व क्या और क्यों?

                     

इस परिघटना को जिस सैद्धांतिक ढांचे में देखना उचित होगा उसमें राजनीति कोई सर्व तंत्र स्वतंत्र क्रिया नहीं, बल्कि एक अन्य तत्व का सतह पर प्रकट रूप है । कहने का मतलब है कि राजनीति किसी सामाजिक बदलाव की अभिव्यक्ति होती है जो बदले में इस बदलाव को आकार और त्वरा भी प्रदान करती है । सामाजिक बदलाव के बारे में हमेशा सर्व सहमति नहीं होती । आम तौर पर जिन लोगों को यथास्थिति से लाभ होता है वे बदलाव का विरोध तो करते ही हैं, उसकी संभावना को भी खारिज करते हैं । लेकिन किसी भी व्यवस्था से जिन समुदायों को नुकसान होता है वे बदलाव की कोशिश तो करते ही हैं, बदलाव के संभावित और निश्चित होने की बात भी करते हैं । सामाजिक बदलाव की इस प्रक्रिया में संबंधित समुदाय के भीतर से नेतृत्व का जन्म होता है । किसी सामाजिक समुदाय और उसके हितों को व्यक्त करने वाले राजनीतिक नेतृत्व के बीच रिश्ता बहुत कुछ शरीर और मस्तिष्क जैसा होता है । मस्तिष्क भी शरीर का ही एक अंग होता है लेकिन शरीर को नियंत्रित और संचालित करने लगता है । इस संबंध की जटिलता को कार्ल मार्क्स ने इस तरह व्यक्त किया है कि कोई भी समुदाय अपने व्यावहारिक जीवन में जिन सीमाओं के परे नहीं जाता उसके राजनीतिक नेता अपनी सोच में उन सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करते । फिर, किसी समुदाय के सदस्य जहां अपने तात्कालिक हितों का घेरा तोड़ नहीं पाते, वहीं उस समुदाय के नेता इन हितों की संतुष्टि के लिए दूरगामी योजना बनाते हैं और इसके लिए तात्कालिक रूप से अपने ही हितों के विरुद्ध काम करते हुए भी प्रतीत हो सकते हैं । यह आवश्यक नहीं कि सभी सामाजिक आलोड़न राजनीतिक शक्ल ले ही लें । जो संभावनाएं आकार नहीं ले पाती हैं उन्हीं में आगामी नेतृत्व के आगमन की सूचना छिपी होती है ।  इस परिघटना की जटिलता को हाल के वर्षों की दो प्रक्रियाओं के सहारे समझने में आसानी होगी- मंडल आयोग के लागू होने के बाद से अब तक जारी प्रक्रिया और नव उदारवाद द्वारा हाशिए पर धकेले गए मध्यवर्ग के विक्षोभ के बतौर आम आदमी पार्टी का उदय । इन दोनों आलोड़नों से उत्पन्न राजनीतिक संभावनाओं के नित नवीन रूप प्रकट हो रहे हैं । भारत के वर्तमान हालात को देखते हुए प्रतीत हो रहा है कि हालिया अतीत को तो जाने दीजिए स्वाधीनता आंदोलन के विचारकों की यात्रा भी समाप्त नहीं हुई है । गांधी, आंबेडकर और लोहिया की उत्तरजीविता बहुत लोग महसूस कर रहे हैं । इन सबके बाहर भगत सिंह की यात्रा तो अभी शुरू भी नहीं हुई है । इस सिलसिले में एक बात हमेशा ध्यान में रखनी होगी कि चूंकि राजनीति मानव क्रियाकलाप का परिणाम होती है और मनुष्य कभी भी अप्रत्याशित को अंजाम देने में सक्षम होता है इसलिए जरूरी नहीं कि अतीत के उदाहरण भविष्य में घटित होने वाली संभावनाओं का पूरी तरह से अनुमान कर लें । इस लिहाज से अगर मौजूदा परिस्थिति को ध्यान में रखें तो कहा जा सकता है कि राजनीतिक नेतृत्व की नई पौध सामने आ रही है जो अब तक सामने नजर आ रहे विकल्पों से अधिक परिपक्व है । उसकी राजनीति की भाषा अधिक सृजनात्मक है । प्रयास इस बात के अवश्य हो रहे हैं कि राजनीति में इसके प्रवेश पर रोक लगाई जाए लेकिन उसके कारण ही यह नई पौध राजनीतिक हस्तक्षेप के दायरे को चौड़ा कर रही है । इसके प्रवेश को रोकने के लिए यह बताने की कोशिश हो रही है कि राजनीति करने वाले कुछ पेशेवर लोग होते हैं । याद करने की बात यह भी है कि राजनीति राज्य के संचालन का उपाय है । राज्य की पैदाइश तो समाज से हुई है लेकिन जन्म के बाद आगे चलकर वह समाज से ऊपर उठ जाता है तो इस बात की जरूरत पड़ जाती है कि उसे फिर से सामाजिक तबकों के काबू में लाया जाए । नया नेतृत्व इसी जरूरत को पूरा करने की कोशिश करता है ।        

Friday, March 11, 2016

साहित्य का समाजशास्त्र

       
साहित्य को समझने का यह ऐसा नजरिया है जिसमें साहित्य की सामाजिकता पर जोर दिया जाता है । साहित्यकार और समाजशास्त्री इसमें साहित्य और समाजशास्त्र की मुख्यता को लेकर विवाद करते रहे हैं क्योंकि मैनेजर पांडे के अनुसार समाजशास्त्री के लिए साहित्य अधिक से अधिक समाज को समझने का एक स्रोत, साधन या माध्यम है । समाजशास्त्री के सामने यह सवाल होता है कि समाज को समझने में साहित्य क्या विशेष मदद कर सकता है जबकि साहित्य की चिंता करने वाला आलोचक यह सवाल लेकर चलता है कि वह समाजशास्त्रीय दृष्टि से किसी साहित्यिक कृति की क्या विशिष्ट समझदारी पा सकता है ।फिर भी तथ्य यह है कि साहित्य के समाजशास्त्र के अध्ययन के लिए प्रासंगिक अधिकांश चिंतक साहित्य के विचारक रहे हैं । इसके लिए साहित्य की ऐसी धारणा बनाने की जरूरत होती है जो उसे समाज की विभिन्न प्रक्रियाओं और उनके प्रभावों की दुनिया में अवस्थित करने में मदद करे । आम तौर पर साहित्य के तीन आयाम होते हैं- लेखक, रचना और पाठक । इन तीनों ही आयामों की रहस्यात्मक व्याख्या की संभावना साहित्य के प्रसंग में होती है इसीलिए साहित्य का समाजशास्त्र इस रहस्यमयता का खंडन करके साहित्य के सामाजिक रूप और अर्थ को उजागर करता है । साहित्य के समाजशास्त्र को  साहित्य की सामान्य व्याख्या से अलगाते हुए मैनेजर जी लिखते हैंउसका लक्ष्य साहित्यिक कृति की सामाजिक अस्मिता की व्याख्या है ।यह अस्मितारचना के सामाजिक संदर्भ और सामाजिक अस्तित्व से निर्मित होती है ।साहित्यिक रचना के निर्माण में सामाजिक संरचनाओं के अतिरिक्त सांस्कृतिक संस्थाओं की भी भूमिका होती है इसलिए साहित्य का समाजशास्त्र साहित्य से जुड़े हुए सभी तरह के संस्थानों का अध्ययन करता है और रचना पर उनके अच्छे बुरे प्रभाव का विवेचन करता है । लेखक का जीवन इसी समाज में बीतता है और उसके सामाजिक अनुभव ही उसके साहित्य सृजन का स्रोत होते हैं इसलिए यह अध्ययन रचना में अभिव्यक्त समाज को देखकर रचनाकार के तत्संबंधी दृष्टिकोण को उद्घाटित करता है ।
जान हाल ने लांगमैन से 1979 में पहली बार प्रकाशित अपनी पुस्तकद सोशियोलाजी आफ़ लिटरेचरमें इसकी सैद्धांतिक परंपराओं का जायजा लिया है । सबसे पहली परंपरा के बतौर वे मार्क्सवाद का नाम लेते हैं । साहित्य के सिलसिले में आम मार्क्सवादी धारणा को वे साहित्य को सामाजिक संदर्भ में समझने पर जोर के रूप में व्याख्यायित करते हैं । अर्थात साहित्य समाज का अंग है और उसमें समाज विषय वस्तु के रूप में व्यक्त होता है जिससे समाज के बारे में जानकारी मिलती है । इतिहास दर्शन के प्रसंग में हमने, बाल्जाक और होमर, नामक जिन दो लेखकों के सवाल पर खुद मार्क्स-एंगेल्स को अपने सामान्य ढांचे पर सवाल उठाते देखा उन्हें हाल ने भी उठाया है और इसे साहित्य के प्रति मार्क्स-एंगेल्स की संवेदनशीलता का प्रमाण माना है ।
मार्क्स-एंगेल्स के बाद लुकाच ने इस दिशा में काम किया । उन्होंने बाल्जाक की सफलता का रहस्यटाइपके चित्रण की उनकी क्षमता को माना और कहा कि टाइपों के प्रयोग से ही सामाजिक यथार्थ का सही वर्णन हो सकता है । जोला में वे सामाजिक विवरण की अधिकता और टाइप के निर्माण की कमी देखते हैं । हाल ने उनकी कमी को चिन्हित करते हुए बताया है कि उन्नीसवीं सदी के यथार्थवादी उपन्यास ही उनके मानदंड थे, उनसे अलग किस्म के लेखन को वे सराह नहीं पाते । लोकप्रिय साहित्य में वे सामाजिक यथार्थ नहीं देख पाए । उपन्यास के इतिहास और राजनीतिक इतिहास के बीच संबंध की उनकी धारणा भी यांत्रिक थी । बाल्जाक और स्टेंढाल के उपन्यासों को वे क्रांतिकारी आवेग से अनुप्राणित होने के कारण प्रगतिशील और 1848 के क्रांतिकारी उभार के खात्मे के बाद के उपन्यासों के लेखकों फ़्लाबेयर, जोला और काफ़्का को तुच्छ प्रतीकवादी और आत्मबद्ध, निराशावादी और प्रकृतवादी कहकर उनकी निंदा करते हैं । इसके विरोध में मार्क्सवादियों की ही एक धारा फ़्रैंकफ़र्त स्कूल की उठी जिसने मार्सल प्रूस्त और काफ़्का के यथार्थवाद को प्रतिष्ठित किया । इसके चिंतकों द्वारा 1848 को विभाजक समय मानकर कहा गया कि उसके बाद के जटिल यथार्थ की अभिव्यक्ति इन आधुनिकतावादी लेखकों के जरिए हुई थी ।
लुकाच के बाद लूसिएं गोल्डमान नेसंरचनाओं की समानधर्मिताकी धारणा प्रस्तुत की । उन्होंने अपनी किताबद हिडेन गाडमें पास्कल और रासीन के लेखन में व्यक्त त्रासदी और नोब्लेस द रोब नामक समुदाय की सामाजिक स्थिति के बीच ऐसी समानधर्मिता प्रतिष्ठित की । त्रासदी की उनकी धारणा व्यापक नहीं थी । उपन्यास पर उनकी किताबद थियरी आफ़ द नावेलमें उपन्यास की उनकी परिभाषा यांत्रिकता की शिकार है । उनके अनुसार उपन्यास बाजार के लिए उत्पादन से उत्पन्न व्यक्तिवादी समाज के दैनिक जीवन को साहित्यिक धरातल पर स्थानांतरित’ करता है । वे उपन्यास में नायक की स्थिति में उत्थान पतन को पूंजीवादी बदलावों के हिसाब से देखते-समझते हैं । कार्टेल पूंजीवाद नायक का महत्व कम कर देता है, संकटग्रस्त पूंजीवाद उसे वस्तुत: नष्ट कर देता है और उपभोक्ता पूंजीवाद अलगाव में पड़े हुए नायकों के चित्रण की ही गुंजाइश छोड़ता है ।
मार्क्सवाद के बाद दूसरी सैद्धांतिक परंपरा के रूप में हाल ‘इंग्लिश स्कूल’ का नाम लेते हैं । इसमें वे एफ़ आर लेविस के प्रभाव के चलते साहित्य के प्रति अधिक संवेदनशीलता पाते हैं । होगार्ट ने किसी जटिल और उत्कृष्ट साहित्यिक रचना को किसी भी समाजशास्त्रीय सिद्धांत से बेहतर माना और कहा कि उत्तम साहित्यिक कल्पना सामाजिक अनुभव को पूरी तरह ग्रहण कर सकती है । साहित्य की क्षमता के प्रति यह सरोकार उन्हें मार्क्सवाद की परंपरा में विशिष्टता प्रदान करता है । लेकिन वे समाशास्त्रीय और साहित्यिक पद्धतियों के बीच तनाव में संतुलन बनाने की जगह साहित्य के पक्ष में झुक जाते हैं । रेमंड विलियम्स के लेखन को भी वे इसी स्कूल से जोड़कर देखते हैं । विलियम्स ने साहित्यकार को सामाजिक परिस्थितियों का केवल प्रतिबिंबन करने वाला मानने से इनकार किया और कहा कि भाषा नये सामाजिक अर्थों के निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाती है । इस तरह भाषा पूर्व प्रदत्त यथार्थ के चित्रण का औजार मात्र नहीं, यथार्थ काघटकऔरभौतिकअंग है । यह मान्यता कुछ मामलों में तो सही हो सकती है लेकिन सिद्धांत के रूप में इसकी उपयोगिता संदिग्ध है ।    
इन्हीं लेखकों के चिंतन के सहारे लोकप्रिय कला को वे साहित्य के समाजशास्त्र की तीसरी परंपरा मानते हैं । जन-समाज (मास सोसाइटी), लोकप्रिय कला और साहित्य की गुणवत्ता के बीच रिश्ता इन लेखकों के विचार का विषय था । उद्योगीकरण के प्रभाव से साहित्य में बदलाव आए । इसके चलते घटिया आधुनिकबेस्ट सेलरका जन्म हुआ । फ़्रैंकफ़र्त स्कूल के अडोर्नो और होर्खाइमर नेकल्चर इंडस्ट्रीशीर्षक लेख में कहा कि जनता को नशे की पलायनवादी हालत में रखने के लिए लोकप्रिय कला को गढ़ा गया है । उन्हें लगा कि संस्कृति उद्योग से वर्तमान हालात में शिक्षा में पतन होगा और बर्बर व्यर्थता में प्रगति होगी ।     
इनके अतिरिक्त हमें साठ के दशक में पश्चिमी दुनिया में उठे दो उभारों को भी साहित्य के समाजशास्त्र के सिलसिले में याद रखना होगा- नारीवाद और ब्लैक साहित्य । उत्तर आधुनिकतावादी चिंतक मिशेल फूको ने ज्ञान और सत्ता विमर्श की ऐसी सैद्धांतिकी विकसित की जिसमें सभ्यता की भाषा के भीतर इन दमित अस्मिताओं के दमन के परिष्कृत उपकरणों की पहचान की गई । इस सैद्धांतिकी से इस अस्मिता आधारित लेखन की क्रांतिकारी भूमिका को समझने में मदद मिली । भारत में साहित्य के समाजशास्त्र पर बात करते हुए पश्चिमी साहित्य की ही तर्ज पर हिंदी स्त्री लेखन और दलित लेखन को ध्यान में रखना होगा । ये साहित्यिक आंदोलन साहित्य और समाज के रिश्तों की समझदारी को नये धरातल पर ले गए हैं । सामाजिक आंदोलनों से साहित्य के घनिष्ठ संबंधों पर जोर ने साहित्येतिहास में सामाजिक शक्तियों के प्रकार्य और साहित्य की समझ में सामाजिकता की उपस्थिति को रेखांकित किया है । थोड़ा अतिवादी मुद्रा अपनाते हुए इन्होंने लेखक के जाति और लिंग से उसके लेखन की विश्वसनीयता को जोड़ा है । साहित्य लेखन को ये बहुत हद तक आंदोलन का ही रूप मानते हैं ।                 
जान हापकिंस यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित पत्रिकान्यू लिटरेरी हिस्ट्री, 41,2’ में जेम्स एफ़ इंग्लिश द्वारा लिखितएवरीह्वेयर एंड नोह्वेयर: द सोशियोलाजी आफ़ लिटरेचर आफ़्टरद सोशियोलाजी आफ़ लिटरेचर”’ शीर्षक लेख में अस्सी के दशक के बाद विकसित होने वाले साहित्य के समाजशास्त्र के नए आयामों का जायजा लिया गया है । उनका कहना है कि समाजशास्त्र के निकट की चीजों में किताबों का इतिहास है, इसी के साथ पुस्तक सूची अध्ययन को भी रखा जा सकता है । डी एफ़ मेकेंजी का द सोशियोलाजी आफ़ ए टेक्स्ट: ओरालिटी, लिटरेसी एंड प्रिंट इन अर्ली न्यूजीलैंडमें कहना है कि किताब के इतिहासकारों को मानना होगा कि उनके शोध का विषय पाठ नहीं, ‘पाठों का समाजशास्त्र है क्योंकि सभी रूपों में किताब मानव व्यवहार के एक साक्ष्य के रूप में ही इतिहास में प्रवेश करती है ।किताब का इतिहास इस तरीके से आगे बढ़ा है कि उसमें साहित्यिक संस्कृति ही समा गई है । किताब के उत्पादकों की समझ भी इसमें शामिल हो गई है । इससे साहित्य के बंद समाज को विस्तार मिला है । लेखक, पाठ और पाठक के अतिरिक्त संपादक, प्रकाशक, पुस्तक विक्रेता, माल ढोने वाला, टिप्पणी लेखक आदि के लिए भी साहित्यिक अध्ययन में जगह बनी है । संस्कृति के इन उपेक्षित उत्पादकों पर जोर देने से अस्सी के दशक के साहित्य के समाजशास्त्र की खाली जगह को भरने में मदद मिली है जिसके बिना किताब के व्यापार और प्रकाशन की तकनीकों की जानकारी विद्वानों को नहीं होती । स्टेलीब्रास ने तो इनके साथ किताब की छपाई के साथ जुड़े हुए सामानात को भी अध्ययन का विषय बना दिया है । इसके साथ संचार माध्यम संबंधी अध्ययन जुड़ जाने से किताब का इतिहास, संस्कृति अध्ययन, संचार सिद्धांत तथा विज्ञान का इतिहास और समाजशास्त्र आपस में जुड़कर शोध का अत्यंत रोचक क्षेत्र बन गया है । डिजिटल मीडिया के कारण जेरोमी मैक्गेन लिखितरेडिएंट टेक्सचुअलिटी: लिटरेचर आफ़्टर वर्ल्ड वाइड वेबजैसी किताब इस नये क्षेत्र का प्रमुख अध्ययन साबित हुई है ।
साहित्य अध्ययन की एक अन्य समाजशास्त्रीय शाखा साहित्यिक मूल्यों और साहित्यिक मानदंड के निर्माण के इतिहास और तर्क के इर्द गिर्द विकसित हुई है । पियरे बोर्दू ने साहित्य के सामान्य और विशेष क्षेत्रों के निर्माण तथा प्रतीकीय और आर्थिक पूंजी में उनके पारस्परिक अनुपात का सिद्धांत विकसित किया । उसने ध्यान दिया कि कैसे सांस्कृतिक विशिष्टता और उसका पवित्रीकरण सामाजिक ऊंच-नीच की व्यवस्था को मजबूत बनाता है । वे दमन की संस्थाओं को टिकाए रखने में शिक्षा व्यवस्था की प्रमुख भूमिका मानते हैं । उनकी इन मान्यताओं से प्रेरित होकर रिचर्ड टाड कीकनज्यूमिंग फ़िक्शन’ (1988), जानिस रेडवे कीए फ़ीलिंग फ़ार बुक्स’ (1999), जान गिलोरी कीकल्चरल कैपिटल’ (1994), पास्काल कासानोवा कीवर्ल्ड रिपब्लिक आफ़ लेटर्स’ (1987), जान फ़्राउ कीकल्चरल स्टडीज एंड कल्चरल वैल्यू’ (1995) और ग्राहम हुगान कीपोस्टकोलोनियल एक्जोटिक’ (2001) जैसी किताबों का लेखन और प्रकाशन हुआ है ।
इसी से जुड़ा हुआ अध्ययन उच्च शिक्षा के संस्थान, पाठ्यक्रम, अध्यापको की जमात आदि को लेकर होता है । इससे साहित्य अध्ययन के इतिहास, अन्य अनुशासनों के बीच उसकी जगह तथा व्यापक समाज में उसकी भूमिका पर प्रकाश पड़ता है । शायद इसे ही बोर्दू साहित्य के समाजशास्त्र काआत्मचिंतनकहते हैं जो खुद को ही अपने अध्ययन का विषय बनाता है । टेरी ईगलटन नेलिटरेरी थियरीमें इसकी शुरुआत की थी । इसे साहित्य का शैक्षिक समाजशास्त्र भी कहा जा सकता है । इसमें शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच, पाठ्यक्रम और सामाजिक संरचना के बीच तथा सामाजिक पद्धतियों के बीच शक्ति संबंधों की छानबीन की जाती है । गौरी विश्वनाथन कीमास्क्स आफ़ कांकेस्ट: लिटरेरी स्टडी एंड ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ (1989) में भारत में औपनिवेशिक दौर के साथ साहित्य अध्ययन के संबंध को देखा गया है और इस क्षेत्र में इसे महत्वपूर्ण शोध माना जा रहा है ।
एक अन्य क्षेत्र पाठकों और पढ़न पर ध्यान केंद्रित करता है । रेडवे की ‘रीडिंग द रोमांस’ (1984) संचार अध्ययन के श्रोता सर्वेक्षण तकनीक और लोकप्रिय संस्कृति के भोक्ता तथा फ़ैन समुदायों के अध्ययन की दृष्टि का सहारा लेकर पढ़ने के तरीकों के बारे में किया गया अध्ययन है जिसमें ‘कौन क्या पढ़ता है, कैसे पढ़ता है और उसके पढ़ने से उसकी बाकी गतिविधियों का क्या रिश्ता है’ को तलाशा गया है । साहित्य से जुड़ी हुई चीजों से कानूनों के रिश्तों की जांच पड़ताल भी ऐसा ही विकासमान क्षेत्र है । बौद्धिक संपदा कानून, लेखन के बारे में लोकप्रिय धारणा और वास्तविक लेखन, साहित्य के वितरण और उपभोग के तरीकों तथा साहित्यिक रूपों के इतिहास से संबंधित शोध साहित्य के समाजशास्त्र के नये पहलू हैं ।

कुल मिलाकर अस्सी के दशक में सेमिनारों तथा फ़ंडिंग के जाल से बहिष्कृत होने के बावजूद साहित्य का समाजशास्त्र अनेक नये और अंतर-अनुशासनिक तरीकों की सहायता से निरंतर समृद्ध हो रहा है ।