Friday, April 27, 2012

मिट्टी का प्यार



दूर देश से तुम्हारी सोंधी गंध पीकर
मैं भेजता हूँ तुम्हे प्यार
बरसात में तुम कमर भर पानी के नीचे भी ठोस थी
हम निर्भय जल में नहाते थे
उसी समय ऊँचे पर किसान तुम्हारा कलेजा
चीरकर बो जाता था हरियाली
हम खेतों में लुका छिपी खेलते थे
कच्चे दाने भूनकर खाते थे
आसमान से बरसती आग की तपिश में
तुम्हारा कलेजा फट जाता था
छाती पर पपड़ियाँ उभर आती थीं
हम परतदार मिट्टी घर लाते थे
देह चिकनी करते थे
मैं देखता हूँ उस किसान के आर पार
सब कुछ उपजाने का दर्प और
सब कुछ लुट छिन जाने का दैन्य
उसकी आँखों में पीड़ा का एक अपार समुद्र दिखता था
मेरे मन में एक निगाह में एक साँस में
सब कुछ पी लेने की इच्छा उठती थी
कहीं हम भी तो चीरे नहीं जा रहे
अगर बन सकें खाद पानी मिट्टी
अगले जमानों के लिए हम
तो यही बहुत होगा
उस किसान की पीड़ा कम करने के लिए
जंगल नदी पहाड़ लाँघते जैसे पहुँची है तुम्हारी गंध
वैसे पहुँचेगा मेरा प्यार
मैं भेजता हूँ तुम्हे प्यार

कविता और मैं



रात हो जाती है
जब दुनिया कहीं खो जाती है
तुम चुपचाप मेरे पास आती हो
हृदय में आनंद सी भर जाती हो
समूचे वजूद पर बादल सी छा जाती हो
मैं तुमको गढ़ता जाता हूँ
शब्द दर शब्द पंक्ति दर पंक्ति
थोड़ी देर में मेरे सामने
मुझसे बड़ा एक महल खड़ा हो जाता है
दूसरे ही क्षण तुम पानी बनकर जमीन पर आ जाती हो
मुझसे होकर औरों तक पहुँचने के लिए
मेरे मन में तोप के गोलों की आवाज हो या आँखों में अपमान के आँसू
हृदय में भविष्य के मीठे सपने हों या बदन में टूटता हुआ दर्द
तुम मुझे बहका लेती हो
मैं तुम्हारे साथ ढलता जाता हूँ
गढ़ता जाता हूँ खुद को चुपचाप

Thursday, April 26, 2012

जे एन यू की एक शाम



साथियों आप कहीं जाने की जल्दी में हों
तब भी यह बताना चाहता हूँ
कि लोहे और पत्थरों और अजनबियों से भरे
इस शहर में पूरे साल में
एक बार और सिर्फ़ एक ही बार
सुहानी शाम आई थी
सूरज से पहले ही चिड़ियों ने
इसके बारे में जान लिया था आपने नहीं सुना
मौसम यहाँ बहुत तेजी से बदल जाता है
इसलिए ध्यान दीजिए खूबसूरत दिनों की सूचना पर
देखिए न कुछ ही दिन पहले
जंगल बबूल की गंध से भर उठा था मीठी कसैली प्यारी गंध
और अब कहीं पत्ते ही नजर नहीं आते
बारिश और ओलों की आवाज अब तक कानों में बजती है
शीशे की खिड़कियों पर टीन की छतों पर झोपड़ियों की प्लास्टिक पर
तेज पानी और ओलों की आवाजें
अब कहीं बादल दिखाई ही नहीं पड़ते
ठंड का मौसम तो कल की बात है
इसीलिए आपको ध्यान देना चाहिए था सुबह की धूप पर
जो जबरदस्ती पूरी पृथ्वी पर फैल गई थी
हवा नम भी थी और कुछ गर्म भी साफ हवा
जिसे फगुनहट के सिवा कुछ नहीं कह सकते
आपको सोचना चाहिए था
पूरे दिन नंगे पेड़ों के सूखे फल
तालियाँ बजाकर आने वाली शाम का स्वागत करते रहे
आपने कान तक नहीं दिया
और शाम उतरी पूरी शान से
विधवा की माँग की तरह सूनी सड़क रंगों से पट गई
लाल पीले नीले गुलाबी सभी रंग चटख हो उठे
चेहरे ट्यूबलाइट की रोशनी में चमकने लगे
साड़ियाँ जैसे पहनाकर इस्तरी की गई हों
पत्थर मुलायम हो गए और संगीत की एक उन्मत्त धारा फूट पड़ी
मेरा मन एक अजीब एकांत की ओर धकेल दिया गया
इस सब कुछ से बातचीत करने को मैं व्याकुल हो उठा
चिल्ला चिल्लाकर कहता रहा दोस्तो
आज की शाम आपको कहकहों की दावत देना चाहता हूँ
लेकिन किया क्या जा सकता है मैं और आप
थपेड़ों की जिंदगी जी रहे हैं
लेकिन ठहरिए सुनिए तो
यह शाम जैसे आसमान से धीरे धीरे ओस बरस रही हो
और धरती से हौले हौले उठ रही हो
भाप

दीपावली



लोग सूरज का इंतजार नहीं करते
बात यह आज की नहीं है
इसकी एक लंबी कहानी है
जाड़ा गर्मी या बरसात
एक होह में बैठे बीस पचीस लोग
अपने में से रोज एक या दो कम करते
सुबह की प्रतीक्षा में काट देते थे रात
देवताओं के लिए सुरक्षित अग्नि
प्रोमेथ्यूने चुराई दंड पाया
वेदों ने उसे देवता बनाया
जाने किस प्रयोग से प्राप्त किया मानवता ने आग
एक लंबे सपने के फल सी बहुतों की कीमत चुकाकर
रातें गर्म हुईं जंगली जानवर दूर हुए
मनुष्य की उम्र बढ़ गई
जंगलों में आग लगी आदमी जले पशु जले
भुने मांस के स्वाद से बुभुक्षित आदमी ने
नियंत्रित किया आग को अन्न और मांस पकाकर स्वादिष्ट बनाया
स्वामित्व की इच्छा और भूख से व्याकुल आदमी ने
लोहे को आग में तपाकर तेज किया बनाया हल बनाई कुल्हाड़ी
गला दिया ढाल दिया लोहे को सोने को ताँबे को
चीर दिया आकाश की निस्सीमता को बनाए हवाई जहाज
नाप लिया अगाध समुद्र को बनाई पनडुब्बी
लाँघ लिए नदी नाले पहाड़ समुद्र तैर गया
बिजली की रोशनी फैलाई रात दिन एक किया
आज फिर इस फल को मेहनत से अलग कर रहे कुछ लोग
लाजिमी है कि आदमी अपनी समूची मेधा के साथ
इन ताकतों से टकरा जाए
इसीलिए ताल के पानी की तरह थिर मेरे गाँव में भी
लोगों ने सूरज का इंतजार नहीं किया
घनी अमावस की शाम और सुबह धरती चमक उठी
दियों से आदमी के उछाह से

Wednesday, April 25, 2012

पप्पू की कहानी


      
रेल से मैं पहाड़ों के ऊपर से गुजर रहा था बाहर का नजारा देखने के लिए सीट से उठकर दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया था गाड़ी एक नदी के पुल से गुजर रही थी । नदी में बरसात में पानी रहा होगा इस समय सूखी थी । पुल के नीचे से नदी के बीच आदिवासी लोगों के झुंड काम की तलाश में घरों से दूर जा रहे थे । पप्पू का बाप भी ऐसे ही अपने घर से निकल गया होगा । मेरी स्मृति में उत्तर दिशा की ओर क्षितिज के पार भारत सरकार के सहयोग से बनी बीरगंज की प्रसिद्ध नहर उभर उठी जो नेपाल का एक और नौजवान हीरा भारत ले आई ।
पप्पू का पिता लड़ाई से डरता था फिर भी पेट के लिए लड़ाई लड़ता था- संक्षेप में भारतीय सेना में उसके भरती होने का यही कारण है और यही कहानी । वक्त गुजरता गया । सर पर सन 65 की लड़ाई आ गई । सेना के जाँबाज बहादुर एक षड़यंत्र के शिकार हो गए । इस लड़ाई ने उसके खौफ को और गहरा कर दिया । अब वह जल्दी ही कोई व्यवस्था करने की ताक में रहने लगा । इसी बीच उसे पता चला कि रेलवे में खलासी की जगह खाली है । फौज की नौकरी छोड़कर उसने यह काम शुरू कर दिया ।
शायद यहाँ पानी बरसा था । जमीन से सोंधी महक उठ रही थी । वापस आकर बर्थ पर लेट गया और सुखद सपनों में खो गया । शायद ऐसी ही महक पप्पू के पिता ने खलासी का काम पाने के बाद किसी रात चारपाई पर लेटकर महसूस की होगी और सुखद सपनों में खो गया होगा । फिर वह घर गया । फूल सी कोई दुल्हन उसका बेसब्री से इंतजार कर रही थी । घर पहुँचकर पप्पू के पिता ने बीबी को साथ लिया और लखनऊ आ गया । एक रेलवे क्वार्टर में उसे जगह मिल गई और वह रहने लगा । खुशी से कटते दिनों में पप्पू का जन्म हुआ और उसके एक भाई और एक बहन भी पैदा हुए । उन्होंने कुछ मुसीबतें भी काटी होंगी लेकिन पप्पू को याद नहीं । याद है तो अच्छे स्कूल में उसकी पढ़ाई, रहन सहन का एक बेहतर स्तर जो उसके व्यवहार के सुघड़पन से टपकता रहता था । बच्चों में आपस में लड़ाई झगड़ा भी होता और प्रेम भी । रफ़्ता रफ़्ता पप्पू पाँचवीं तक चला आया । पढ़ने में तेज था परीक्षा में पहले नंबर पर पास हुआ । उसके पहले नंबर पर पास होने से उसकी माँ की मृत्यु का कोई संबंध नहीं फिर भी पप्पू कहता है हम न पास हुए पहले नंबर पर । कोई बीमारी जो वह नेपाल से लाई थी या उसे हिंदुस्तान में लगी उसकी जान ले बैठी ।
गोकि उसे फ़ौज की पेंशन भी मिलती और रेल की तनख्वाह भी फिर भी बाप माँ नहीं बन सका । लड़के बिगड़ते गए । स्कूल से मुहल्ले से शिकायतें आने लगीं । बाप ने बीसियों रातें जागकर काटीं आखिर लड़कों के लिए क्या किया जाय । अगल बगल के कुछ लोगों ने सलाह दी दूसरी शादी कर लो । लड़कों को देखेगी भालेगी । तुमको भी बनाए खिलाएगी । जब भी वह लड़कों के बारे में सोचता दूसरी शादी ही उसे एकमात्र इलाज नजर आता कि तभी पत्नी का चेहरा आँखों में घूम जाता । क्या करे आखिर वह । इस सवाल ने उसे मथ डाला । आखिर अतीत पर वर्तमान विजयी हुआ उसने देखभाल कर एक सुघड़ लड़की से शादी कर ली । पप्पू को याद है तब वह सातवाँ का इम्तहान दे चुका था । नई माँ को लेकर उसे भी खुशी थी । बारात तो नहीं गई । एक दिन उसकी नई माँ अपने एक बच्चे के साथ उसके घर आ बैठी ।
पप्पू को आठवें की एक साल की पढ़ाई और एक साल का आतंक याद है । पहले नई माँ ने पिताजी से लड़कों की शिकायत शुरू की । पिताजी ने सोचा नई आई है धीरे धीरे सब हिल मिल जाएँगे । लेकिन लोग हिले मिले नहीं खाइयाँ बढ़ती गईं । पिता भी खीझ उठा । एक तो इन्हीं लड़कों के लिए नई शादी की और उसके साथ भी ठीक नहीं होते । साले सब बिगड़कर नाश में मिल गए हैं । दिमाग चिड़चिड़ा हो उठा । घर में तनाव रहने लगा । पप्पू और उसके भाई बहनों की छोटी सी गलती भी उन्हें पिटवाने के लिए काफी होती । पिटते पिटते ये भी जिद पकड़ गए । मारो देखते हैं कितना मारते हो । न माँ खाती थी न पिता न पप्पू और उसके भाई बहन । पढ़ना तो खैर मिट्टी में मिल ही गया था । दिमाग में नई खुराफाती बातें आने लगीं । कुछ ऐसे ही दोस्तों का संग मिला तो फ़िल्मी परदे के दृश्य खुशनुमा हो गए और घुँघरुओं की रमक से दिल बहलने लगा । सिगरेट भी पीने लगा पप्पू । जब जीवन का निश्चय ही नहीं तो उसे ठीक से जिया ही क्यों जाय । और जब अपना सहारा नहीं तो भाई बहनों को कौन पूछे ।
मैं परीक्षा में कभी फेल नहीं हुआ और कभी इसे भूत की तरह लिया भी नहीं पर मेरे एक भाई हैं चचेरे । पप्पू की तरह अर्थहीन जीवन जीने वाले । फेल होने पर कभी उन्हें दुखी नहीं देखा । हो सकता है यह बात हमारी परीक्षा प्रणाली और समूचे समाज पर सवाल उठाती हो । जब आठवीं में पप्पू फेल हुआ तो उसे कोई खास चिंता नहीं हुई । चलो पढ़ाई के झंझट स तो जी छूटा । पप्पू और उसके भाई बहन परिवार पर बोझ बनते चले गए । आखिर एक दिन ऐसा आया कि सबने वह घर छोड़ दिया अपने अपने बचपन में ही किसी तरह जिंदगी काट देने के लिए । सब एक दूसरे से अलग हो गए । पप्पू की बुआ का लड़का था चुनार में ।
मेरा विश्वविद्यालय बंद हो गया था और गर्मी की छुट्टियाँ बिताने पहाड़ पर जा रहा था । सोचा शायद ऐसे ही पप्पू भी चला होगा । लेकिन क्या वास्तव में ऐसे ही ? मैं शांत मन, टिकट सहित, निश्चित जगह जा रहा था और वहाँ कोई न मिले तो घर आने के लिए आज़ाद था । मेरे सामने एक निश्चित भविष्य था । जबकि पप्पू हर आहट पर टी टी के आने की आशंका से डरा हुआ, घर से बहिष्कृत, पता नहीं वह लड़का चुनार में मिले या न मिले की सोच में डूबा हुआ जा रहा था । लिखते वक्त दिल में दर्द उठ रहा है लेकिन शयद विपत्ति पड़ने पर उसका मुकाबला करने की ताकत इंसान में आ जाती है तभी तो वह सही सलामत चुनार स्टेशन पर उतर गया बल्कि पूछते पाछते भाई के घर भी पहुँच गया ।
भाई भी ऐसी परिस्थितियाँ झेल चुका था इसलिए घबराया नहीं । उसने पप्पू को रखा और कह सुनकर एक जगह काम भी दिला दिया नौकर का । पप्पू कहता है ‘साहब वहाँ बहुत काम था । कपड़ा साफ करना, बर्तन धोना, झाड़ू पोंछा लगाना, खाना बनाना, साहब का देह दबाना और डाँट खाना । सात महीने तक मैंने काम किया । फिर कहा कि पैसे दे दीजिए अब मैं काम नहीं करूँगा । उन्होंने पैसे नहीं दिए और मैंने काम छोड़ दिया ।’ मैं चौंक उठा । 16 साल का पप्पू और इतना काम ! सात महीने करता रहा ! तभी एक दिन उन साहब से भेंट हुई जिनके यहाँ पप्पू काम करता रहा था । वो बतलाने लगे ‘अरे साला एक तो ठीक से काम नहीं करता था । ऊपर से गाना गाता रहता था । दिन में ड्राइंगरूम में सो जाता था । जिस काम को मना करिए वही करता रहता था । समझ लीजिए कि इसको लेकर घर में तनाव रहने लगा था ।’ 16 साल का पप्पू सोए न गाना न गाए ! पप्पू तुम क्या हो ?
तब मैं भी 16 साल का रहा होऊँगा । घर के एक बड़े महत्वपूर्ण सदस्य के मर जाने से समूचा घर उदास रहता था । मेरा बालक मन और जवानी की दहलीज पर । दिन में कभी भी गाना शुरू कर देता था । माँ पिता मना करते थे और मैं था कि गाए जाता था । मैं दुख में गा सकता हूँ और पप्पू सामान्य अवस्था में भी नहीं ? पप्पू तुम आज़ादी के 39 साल बाद के भारतीय समाज पर एक सवाल हो ।
ऐसा क्यों होता है कि कुछ लोग अमानवीय जीवन जीने के लिए मजबूर कर दिए जाते हैं ? ऐसे ही कुछ सवाल उस लड़के के मन में भी उठ रहे थे जिसका नाम चुन्नू था । पप्पू ने जिस नए घर में काम खोजा था वहीं उससे मेरी मुलाकात हुई थी । इस घर में थोड़े ही दिन पहले रामविलास नाम का एक नौकर काम छोड़ चुका था । लोग कहते हैं उसे भूत पकड़े था । पर मुझे घर की मालकिन की वह बात याद आती है जो उन्होंने नए नौकर की नियुक्ति के समय कही थी । ‘मुझे कम ही उमर का नौकर चाहिए जिसे डाँट भी सकूँ और अपने कपड़े धुलवाते हुए मुझे शर्म भी न आए ।’ इसी कारण पप्पू यहाँ काम करने आया था । उस घर में एक और लड़का था चुन्नू । वही जवानी की ओर बढ़ता बचपना । वही फ़िल्म का नशा । वही पढ़ाई में लगन । लिहाजा पप्पू की उससे दोस्ती हो गई । माँ बाप जब पप्पू को डाँटते तो चुन्नू सोचता क्या पप्पू मेरे जैसा नहीं है । इस सोच के लिए उसे कई बार माँ बाप से डाँट खानी पड़ी थी ।
मैंने पप्पू से पूछा था पप्पू घर जाओगे न । पप्पू ने कहा कौन सा घर । मैंने पूछा तुम्हारे भाई बहन कहाँ हैं । मालूम नहीं । शायद उनके भी कोई घर नहीं । क्या उन्हें घर दिलाकर उनकी जिंदगी स्थिर कर सकता है ?