एक चिट्ठी
प्रिय प्रणय
आपने मुझे चार काव्य संग्रह दिये । सिर्फ़ दस्तावेजी कारणों से उनका नामोल्लेख कर रहा हूँ । 1- देवी प्रसाद मिश्र : प्रार्थना के शिल्प में नहीं ; 2- बद्रीनारायण : सच सुने कई दिन हुए ; 3- पंकज चतुर्वेदी : एक संपूर्णता के लिये ; 4- संजय कुंदन : कागज के प्रदेश में ।
यह देखकर मैं चौंक गया कि ये सभी काव्य संग्रह कवियों ने अपने माता पिता को समर्पित किये हैं । तथ्यतः देवी प्रसाद मिश्र ने ‘ माँ और पिताजी को’, बद्रीनारायण ने ‘ माई और बाबूजी के लिये’, पंकज चतुर्वेदी ने ‘ मम्मी और पिताजी के लिये जिन्होंने तमाम दुख सहकर भी मुझे पढ़ने लिखने लायक बनाया’, संजय कुंदन ने ‘ माँ और पापा के लिये’ । आप कह सकते हैं कि ऊपरी समानता अनिवार्यतः भीतरी समानता नहीं होती । यह भी कहा जा सकता है कि जो नहीं है उसकी आकांक्षा की बजाय जो है उसकी छानबीन करनी चाहिए । फ़िर भी एसे एक तथ्य की तरह नोट किया जाना चाहिए कि हमारे समय के इन चार कवियों ने अपने पहले काव्य संग्रहों के समर्पण के लिये माता पिता को चुना । मतलब इन काव्य संग्रहों के प्रकाशन अर्थात तीस बत्तीस की उम्र तक उनके वैचारिक संदर्भ विंदु अन्य ऐसे लोग अथवा आंदोलन बने ही नहीं जिन्हें वे पुस्तक समर्पित करने की सोचते ।
माता पिता को पुस्तकों का समर्पण यह भी बताता है कि माता पिता के जरिये जो परंपरा इन्हें प्राप्त हुई बस उतना सा हिस्सा ही इनके बोध का अंग बन सका । पूरी परंपरा तो अन्यान्य स्रोतों से ही प्राप्त होगी न ! इसीलिये तमाम पौराणिक प्रतीकों की उपस्थिति है लेकिन उनके प्रति आलोचनात्मक रुख बहुत कम है । देवी प्रसाद मिश्र की कविता ‘ प्रार्थना के शिल्प में नहीं’ में जरूर इन प्रतीकों के प्रति तिरस्कार का भाव मिलता है लेकिन संग्रह की अन्य कविताओं को पढ़ते हुए इनके बारे में उनका दृष्टिकोण तुम्हीं से मुहब्बत तुम्हीं से लड़ाई वाला लगता है ।
सिर्फ़ परंपरा के साथ यह रिश्ता इन कवियों का नहीं है । मध्यवर्गीय दुखों का मजाक उड़ाती हुई बद्रीनारायण की कविता के बावजूद दुखों का चित्रित कुल संसार मध्यवर्गीय ही है । एक खास तरह की रोमैंटिकता शहर की अमानवीयता के विरोध, कोमल भावनाओं के बल पर उससे लड़ लेने का विश्वास और गवँई प्रतीकों के सचेतन इस्तेमाल में छाई हुई है । पंकज भी अपनी कुल तार्किकता के बावजूद उस रोमैंटिकता से बाहर नहीं निकल पाते । दुखद है किंतु सच यही है कि इन कवियों को पढ़ते हुए संसार की व्यापकता और विविधता का पता ही नहीं चलता । कुल मिलाकर केदारनाथ सिंह के संवेदनात्मक संसार का विस्तार ही इन कवियों में दिखाई पड़ता है ।
अब इसे समीक्षा या लेख तो नहीं कह सकता कि भेजूँ । क्षमा करेंगे ।
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