आधुनिक हिंदी कविता के इतिहास में मैथिली शरण गुप्त का कितना असाधारण महत्व है इसे समझने के लिये हिंदी कविता की एक गुत्थी को समझना जरूरी है । हिंदी न सिर्फ़ वाक्य आधारित भाषा है बल्कि उसमें वाक्य के भीतर शब्दों का क्रम भी निर्धारित है । जबकि संस्कृत के साथ ऐसा नहीं है । इसलिये हिंदी के वाक्य और कविता के छंदों के बीच तालमेल बैठना बहुत मुश्किल होता है । मैथिली शरण गुप्त ने सबसे पहले सफलतापूर्वक इस काम को अंजाम दिया कि हिंदी वाक्य का स्वाभाविक प्रवाह छंद के प्रवाह के साथ पूरी तरह फ़िट बैठ गया । उनके क्रांतिकारी महत्व की परख के लिये अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की कविताओं के ऊबड़ खाबड़पन को देखना ही काफ़ी होगा ।
दो कारणों से तुलसीदास कवि के रूप में अन्यतम ठहरते हैं । ध्यान देकर देखिये तो रामकथा की लिखित और मौखिक परंपराएँ उनके पहले से काफ़ी समृद्ध थीं । इसके होते हुए पुनः एक महाकाव्य लिखने की हिम्मत जुटाना बड़ी बात थी । सूरदास महाकाव्य नहीं ही लिख सके । इतने महाकाव्यों के रहते हुए भी तुलसीदास ने जो रामचरित मानस लिखा उसने प्रामाणिकता हासिल कर ली । दूसरे शायद ही और कोई कवि ऐसा हो जिसने एक ही विषय पर जीवन भर और अपने समय में जितने भी काव्य रूप प्रचित हों चाहे लिखित अथवा मौखिक परंपरा में उन सबमें लिखा हो और बार बार लिखे जाने के बावजूद कविता उतनी ही सरस हो ।
हिंदी में आजकल जिसे उपन्यासों का विस्फोट कहा जा रहा है उसमें अधिकांश तो ' आफ़ मिडिल क्लास फ़ार मिडिल क्लास एंड मिडिल क्लास ' टाइप हैं । सुरेंद्र वर्मा के मुझे चाँद चाहिये से यह शुरू हुआ अलका सरावगी के शेष कादंबरी तक चला आया है । इस वातावरण में सिर्फ़ मैत्रेयी पुष्पा हैं जो इस घेरे को तोड़ती हैं । उनमें स्त्री के पक्ष से यौनानंद को गरिमा भी प्रदान की गयी है ।
शिवमूर्ति ने बहुत दिनों बाद तर्पण नामक कहानी लिखी और एक बार फ़िर साबित कर दिया कि प्रेमचंद की भाषा शैली में अब भी सामाजिक यथार्थ का सबसे बेहतरीन चित्रण किया जा सकता है । अत्यंत भीषण का वर्णन करते हुए भी उनकी भाषा जितनी सादा और भावुकताविहीन बनी रहती है वह उन्हीं के लिए संभव है । ध्यान से देखा जाए तो एक तरह की शैली उदय प्रकाश की है जो पुनः यथार्थ के एक बड़े प्रस्तोता हैं । उनका यथार्थ मुख्यतः या कुल मिलाकर नगरीय और महानगरीय जीवन का यथार्थ है । महानगरीय जीवन के एक और बड़े लेखक मनोहर श्याम जोशी की शैली भी उदय प्रकाश की ही तरह वर्णनात्मक शैली है । इसमें कथा रस तो बहुत ज्यादा होता है पर जैसा हृदयेश जी कह रहे थे कथा रस के प्रवाह के साथ साथ बहुत कूड़ा करकट भी बहकर चला आता है और उसका पता बहुत ध्यान देने पर ही चल पाता है । इसके मुकाबले शिवमूर्ति में नाटक के तत्त्व बहुत होते हैं मसलन संवादों की प्रचुरता ।इन संवादों के जरिये चरित्र खड़े होते हैं और यथार्थ की तल्खी भी प्रकट होती है ।
रणसुभे जी बता रहे थे कि दक्षिण के बुद्धिजीवियों ने एक स्वर से यह कहकर अरुंधती को खारिज कर दिया है केरल के समाज का वर्तमान यथार्थ यह नहीं है । वैसे भी अरुंधती ने 1957 के समाज का चित्रण किया है । असल में उन्होंने केरल के बारे में दो प्रचलित मिथकों को तार तार कर दिया है । एक तो यह कि उस समाज में जाति आधारित उत्पीड़न नहीं होता ।दूसरे यह कि वहाँ स्त्रियों की बहुत इज्जत है । इसके अतिरिक्त उन्होंने एक सार्वभौमिक मिथक को ध्वस्त किया है कि बच्चों का मन बहुत भोला होता है । स्वाभाविक है कि इन्हें पचाना बेहद मुश्किल है । केरल की वामपंथी सरकार से प्रभावित बुद्धिजीवियों को उपन्यास में नक्सलवादी आंदोलन के साथ उनकी सहानुभूति भी अखरी होगी ।
तद्भव में प्रकाशित पुरुषोत्तम अग्रवाल का लेख ‘अकबर नाम लेता है खुदा का इस जमाने में’ कई मायनों में रोचक है । इसमें अस्मिता विमर्श से उनका ताजा तरीन मोह्भंग उत्तर आधुनिकता के अनेक पदों से मोहभंग के स्तर तक पहुँचा है लेकिन फ़ासीवाद की धारणा बनाते वक्त वे उसी गड्ढे में गिर गये हैं । उनके मुताबिक फ़ासीवाद प्रथमत: एक मनोरचना है । यह प्रथमत: बाद में मुख्यत: और अंत तक जाते जाते एकमात्र बन जाता है । फ़ासीवाद पर अगर बात हो रही है या उसकी चिंता लोगों को हो रही है तो क्या मनोरचना होने के नाते ? वह ऐसी मनोरचना है जो खास तरह की शासन प्रणाली को जन्म देती है । यह परिप्रेक्ष्य गायब होने से पूरी तर्क पद्धति में कोई खास दम नहीं रह जाता ।
चूँकि शब्द से अलग अर्थ अर्थात यथार्थ नहीं रह गया है इसलिये व्यक्ति वही है जो उसका पदनाम है । न सिर्फ़ इतना बल्कि पद से अलग उसके व्यक्तित्व की अपेक्षा खत्म कर लेना ही नये जमाने के साथ चलने की कुंजी है । दूसरी बात यह कि विरोधी तत्वों के बीच जैसा गठबंधन इस वक्त हुआ है वैसा कभी पहले नहीं था । मूर्खता का बुद्धिमान दिखने के साथ, धर्म का धंधे के साथ, ग्लोबल का लोकल के साथ और आदर्श का व्यावहारिकता के साथ अपूर्व सहमेल ही आज की दुनिया का सत्य है । किसी खास ऐतिहासिक प्रक्रिया की व्याख्या यानी विवरण को ही आम सिद्धांत कहा जा रहा है । परिवर्तन को भी जमीन से पैदा होने की बजाय आसमान से बरसता हुआ बताया जा रहा है ।
गोदान लिखने से पहले प्रेमचंद बंबई हो आये थे । उन्होंने कुछ फ़िल्मी तकनीकों की मदद भी इस उपन्यास में ली है । ध्यान दीजिये तो भोला के यहाँ से गाय लाने, खबर पाते ही लोगों के जुटने, होरी के भाइयों के न आ पाने, धनिया हीरा के बीच झगड़ा आदि हो जाने के बाद एक अलग परिच्छेद में उन्होंने गोबर झुनिया के प्रेम प्रसंग का वर्णन किया है । एक सिरे पर समय को आगे बढ़ाते हुए दूसरे सिरे पर उसे रोके रखना फ़िल्म से ही उन्होंने सीखा होगा ।
भक्तिकाल के कुछ कवियों को पढ़ने पर मजेदार प्रसंगों का पता चलता है । मसलन कबीर को पढ़ने से ऐसा लगता है कि उन्हें नहाने की बहुत जरूरत पड़ती थी । सर्वोत्तम सुख के उनके अधिकांश वर्णन स्नान की तृप्ति के प्रतीकों से भरे पड़े हैं । इसी तरह तुलसीदास के आनंद के वर्णन भरपेट भोजन की तृप्ति के प्रतीकों से भरे हैं । इसको छोड़ दें तो भी भोजन का अभाव तुलसी साहित्य में जगत प्रसिद्ध है- द्वार द्वार ललात बिललात ।
लोकप्रिय संस्कृति के नाम पर हिंदी में मास संस्कृति का अध्ययन होता है । मसलन पल्प लिटरेचर या लुगदी साहित्य को लोकप्रिय साहित्य में परिगणित किया जाता है । ध्यान देने की बात यह है कि पश्चिम में भी लोकप्रिय साहित्य का अध्ययन वामपंथी चिंतनधारा के विरोध में ही शुरू हुआ था । इसके पुजारियों का मुख्य तर्क कुछ इस तरह होता है कि शिष्ट साहित्य के विरोध में हम इसे जनता के पक्ष में स्थापित कर रहे हैं । उनके अनुसार शिष्ट साहित्य शासक वर्गों की सेवा करता है जबकि लोकप्रिय साहित्य में जनता की आवाज सुनाई पड़ती है । पर एक बात कहना जरूरी है । उदारीकरण के बाद जैसे जनता को शिक्षा के नाम पर अर्धशिक्षित शिक्षामित्रों की व्यवस्था, चिकित्सा के नाम पर झोलाछाप डाक्टरों की फ़ौज प्रदान की गयी है उसी तरह संस्कृति के नाम पर व्यावसायिक घरानों की पूँजी से लोकप्रिय बनी तथाकथित लोकप्रिय संस्कृति परोस दी गयी है । उदारीकरण की शैक्षिक योजना का अनिवार्य अंग जनता के लिये अधकचरे मनोरंजन का गौरवगान है । जनता को मनुष्यता की सर्वोत्तम उपलब्धियों से दूर रखने की इस सचेतन कोशिश के प्रति असावधान प्रोफ़ेसरान ‘ पश्चिम के कुछ सूखे कुछ हरे नोचे हुए’ सिद्धांत हिंदी में नीर क्षीर विवेक के बगैर प्रचारित किये जा रहे हैं ।
जायसी सच्चे अर्थों में लोककवि हैं । भाषा के उनके प्रयोग में अपार व्यंजकता है । नागमती के वियोग वर्णन में आषाढ़ के प्रसंग में विशेषकर अद्रा लाग बीज भुइँ लेही मोंहि पिय बिनु को आदर देही में रतिक्रिड़ा का इतना खुला आग्रह है कि भाषा के शिष्ट प्रयोग से भी उसे व्यंजित कर देने की क्षमता पर आश्चर्य होता है । आदर का इस अर्थ में प्रयोग हाल ही में मैंने एक स्त्री के मुख से सुना- पति जब पत्नी को आदर नहीं देता तब कैसे उससे अपेक्षा करता है । बीज में वीर्य की प्रतिध्वनि स्पष्ट है । इसी तरह ओनई घटा आइ चहुँ फेरी में कालिदास के एक मांसल बिम्ब का सहारा न लिया जाए तो अगली पंक्ति का तात्पर्य स्पष्ट नहीं होता । कंत उबारु मदन हौं घेरी में नागमती की कातरता मेघ द्वारा पृथ्वी के आलिंगन का दृश्य देखकर बढ़ जाती है ।
प्रेमचंद के उपन्यास गोदान के कथाबंध में अनेक आलोचकों ने शिथिलता का अनुभव किया है । अब हम उसे बदल तो नहीं सकते । तो फिर उसके प्रति क्या दृष्टिकोण अपनाया जाए । एक तो यह कि इस शिथिलता की पहचान और शिकायत को ही आलोचकीय कर्तव्य माना जाए । दूसरा यह कि गुलजार की तरह उसका मनमाना ग्रहण किया जाए । अब तक यही होता आया है । तीसरा रास्ता यह है कि उसके बिखराव को स्वीकार करके उसके भीतर बहुस्वरीयता की तलाश की जाये । शहर वाली कथा मुख्य कथा का अंग है या नहीं ? होरी की मृत्यु को अगर उपन्यास की परिणति मानें तो खन्ना की मिल में आग लगना इस परिणति की ओर ले जाने में मदद करता है । इसके अतिरिक्त भी गोदान में बहुस्वरीयता दिखाई पड़ती है ।
इधर हिंदी के कुछ विचारकों में हिंदी को विश्व भाषा बनाने का अनुराग बढ़ता हुआ नजर आ रहा है । वैसे तो हिंदी के बौद्धिक जगत में इस बात को लेकर आम सहमति रही है कि भारत का शासक वर्ग हिंदी को कभी देश की एक सम्मानित भाषा भी नहीं बनने देगा इसलिए विश्व भाषा तो दरकिनार राष्ट्रभाषा या राजभाषा बनाने के अभियानों को भी वास्तविक अभाव की भावनात्मक क्षतिपूर्ति ही समझा जाता था । लेकिन हाल के दिनों में अमेरिका को ही विश्व मानने और अमेरिका में हिंदी की पढ़ाई पर जोर, जिसकी खतर्नाक राजनीति पर अलग से बात होनी चाहिए, के चलते विश्वभाषा अभियान को नई ऊर्जा मिली है । इसके साथ ही बाजार को नियंता मानने का तर्क भी परोक्षतः लिपटा हुआ है । आलोचनात्मक विवेक के नाश का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा कि गुलामी की आशंका से बेखबर हम इसी को सम्मान समझे जा रहे हैं ।
भाजपा के नेतृत्व में भाँति भाँति की केंद्रीय सरकारों के मातहत देश को रहते तकरीबन पाँच साल बीत जाने के बावजूद किसी भी परिघटना पर भारी भरकम ग्रंथ लिखने के आदी विद्वानों ने भी इन प्रयोगों की नवीनता या विशेषता पर कोई शोध नहीं किया । ये सरकारेंकेवल गठबंधन सरकारें नहीं थीं और न ही इन्हें संघवाद के नाम पर समझा जा सकता था । ऐसे समर्पण और ऐसी नफ़रत का संगम सिर्फ़ संयुक्त परिवार में दिखाई पड़ता है । कोई चाहता तो सोच सकता था कि उस समय तमाम टी वी चैनलों पर सिर्फ़ संयुक्त परिवार संबंधी धारावाहिक ही क्यों आ रहे थे ! ध्यान देने से देखते कि उस सरकार और उन सीरियलों की कहानी में समानता थी । उसी तरह उपर से प्यार और भीतर से नफ़रत, उसी तरह मनभावन समूहों का रोज रोज बनना बिगड़ना (आज सास जी रूठी हैं तो कल ननद जी), उसी तरह कुछ सदस्यों का बाहर निकलना और कुछ नये सदस्यों का प्रवेश, उसी तरह एक अघोषित लेकिन बहुत मजबूत घोषणापत्र (मंत्री पद) का आधार, उसी तरह अप्रासंगिक हो चुके बुजुर्गों का प्रभुत्व- कभी कभी यह सब बड़ा हास्यास्पद लगता था । लेकिन इसकी करतूतों में क्या ही क्रूरता थी । प्रत्येक संस्थान और मर्यादा को ठेंगे पर रखकर मनमानी और हें-हें करते गठबंधन के भागीदार !
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