Wednesday, December 15, 2010

महेश्वरः मशाल का दूसरा नाम


महेश्वर जी का राजनीतिक जीवन काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उनके छात्र जीवन से शुरू हुआ । वे दिन नक्सलवादी आंदोलन में फूट और बिखराव के थे । ऊपर से दमन भी अभूतपूर्व था । ऐसे निराशामय दिनों में जिन कुछ लोगों ने बिना किसी सांगठनिक संपर्क के भी अपनी क्रांतिकारी चेतना को साकार करने के लिये क्रांतिकारी आंदोलन में अपने जीवन को झोंक देने का फ़ैसला किया महेश्वर उनमें से एक थे । यह बात जीवन भर उनके साथ रही । संकट में, कठिनाई में भी लक्ष्य के प्रति अनन्य समर्पण उनके व्यक्तित्व की खूबी थी । उनकी नसों में सक्रियता की एक ऐसी विद्युत तरंग प्रवाहित होती रहती थी, जो आसपास के लोगों को भी आवेशित कर देती थी ।
फ़िर क्या था ! तुरंत ही साठोत्तरी पीढ़ी के लेखकों और नक्सलबाड़ी से प्रभावित युवकों की एक टोली बन गयी । अध्ययन चक्र चलने लगे, बनारस के थानों की दीवारों पर भी क्रांतिकारी नारे नजर आने लगे । कम्युनिस्ट साहित्य का छात्रों में बड़े पैमाने पर वितरण होने लगा और लगातार छात्र पढ़ाई छोड़कर गाँवों में कृषि क्रांति संगठित करने के लिये जाने शुरू हो गये । इसी सक्रियता के दरम्यान वह मशहूर तिकड़ी बनी जिसमें महेश्वर के साथ रामजी राय और गोरख पांडेय को भी गिनना होगा । यह तिकड़ी आगे चलकर हिंदी इलाके में भा क पा (माले) आंदोलन का वैचारिक अग्रदूत बनी । ये सच्चे अर्थों में आवयविक बुद्धिजीवी बने । इस अर्थ में कि इनकी सक्रियता के प्रथम और अंतिम लक्ष्य जनता, संगठन और आंदोलन के हित ही रहे ।
महेश्वर कुशल संगठक थे । आज भी अगर बनारस और इलाहाबाद विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों के प्रतिभावान छात्र आमतौर पर हमारी धारा के साथ दिखाई देते हैं तो इसका बड़ा कारण महेश्वर ही हैं । पारंपरिक संस्थाओं में खप जाने वाले बुद्धिजीवी ढेरों मिल जयेंगे लेकिन वैकल्पिक चिंतन की अभिव्यक्ति के वैकल्पिक मंच का निर्माण सबके वश की बात नहीं होती । महेश्वर इस मामले में आम प्रगतिशील बौद्धिकों की भारी भीड़ से अलग थे और इसलिये आदर्शवादी क्रांतिकारी छात्रों के आकर्षण का केंद्र वे सहज ही बन जाते थे । कठिन दिनों में भी सत्य के पक्ष में आवाज बुलंद करने का माद्दा अगर देखना हो तो उनके संपादन में निकलने वाली पत्रिका बातचीत के अंक देखने चाहिये । वे इमर्जेंसी के दिन थे फिर भी निर्भय होकर वे इस पत्रिका में व्यवस्था के जनविरोधी दमनकारी चरित्र का जिस तेवर में खुलासा करते थे वह तेवर जिंदगी भर महेश्वर की खूबी बना रहा ।
हिंदी क्षेत्र के कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की एक समूची पीढ़ी पर इन तीनों मित्रों की गहरी वैचारिक छाप है । तकरीबन एक एक कार्यकर्ता ने इनके साथ अपना वैचारिक राजनीतिक विकास किया । महेश्वर के बारे में कहा जाता है कि वे बहुत तीखा बोलते थे । दोमुँहे लोगों को तो खैर वे कभी बर्दाश्त ही नहीं कर पाते थे । कार्यकर्ताओं से भी ऐसा बोलने के पीछे उनका एक उद्देश्य होता था । वे चाहते थे कि सामनेवाला अगर उनके प्रति कोई श्रद्धा या सम्मान का भाव रखता हो तो उस खोल से बाहर निकलकर बराबरी के स्तर पर प्रतिक्रिया जाहिर करने के लिये विवश हो जाये । असल में यह व्यवस्था अपनी निरंतरता के लिये मात्र फ़ौज मिलिटरी पर आश्रित नहीं होती बल्कि वह हमारे दिमाग में ऐसी मूल्य व्यवस्था का निर्माण करती है जिसके चलते हम कुछ चीजों के सामने नतमस्तक हो जाते हैं । चिंतन की मुक्ति के लिये आवश्यक होती है इस गुलामी से मुक्ति । महेश्वर न सिर्फ़ व्यवस्था के खिलाफ़ थे बल्कि इस मामले में वे अपने प्रति भी कहीं से उदार नहीं थे ।
लेकिन इसके चलते उन्हें कभी सामान्य कार्यकर्ताओं या नेताओं से संवाद बनाने में कोई दिक्कत नहीं आई । इसके लिये आप कभी महेश्वर को बात करते देखते । घंटों बिना किसी व्यक्तिगत प्रसंग के वैचारिक राजनीतिक प्रश्नों पर बातचीत जिसमें समूचा आवेग शामिल रहता था । ये बातें शिक्षण प्रशिक्षण की तरह थीं । एकतरफ़ा नहीं दोतरफ़ा । उनकी खूबी थी कि वे सामने वाले के विचारों में समा जाते थे ।
कोई अहं न होना, हद दर्जे की पारदर्शिता और ईमानदारी, माइक लेकर प्रचार करने और नुक्कड़ नाटक में किसी पात्र की भूमिका निभाने से लेकर पत्रिका के प्रूफ़ पढ़ने और अनुवाद करने तक उनकी सक्रियता का विस्तार था । महेश्वर पटना हों तो, बनारस आयें तो, इलाहाबद गये तो, दिल्ली आये तो, चेन्नई गये तो- हर जगह नौजवान कार्यकर्ताओं से घिरे रहते थे । मैं जे एन यू में नया नया आया था और आइसा बनाने की कोशिश कर रहा था । महेश्वर अपने बड़े बेटे के दिल का आपरेशन कराने दिल्ली आये हुए थे । परेशानी में भी उन्होंने छात्रों की एक बैठक को संबोधित किया जो आइसा के निर्माण के दौर की पहली बैठक थी । उसमें एक सज्जन ने जनमत के संपादकीय 'दिल्ली हम तुमसे बदला लेंगे' पर आपत्ति प्रकट करते हुए कहा कि दिल्ली को गाली देने से काम नहीं चलेगा । महेश्वर ने जवाब में कहा कि झुग्गी झोपड़ियों, मजदूरों और गरीबों की एक और दिल्ली है । उस दिल्ली से आपका कितना परिचय है । जिस दिल्ली से आपका परिचय है वह गाली देने लायक ही है । एक सचेत राजनीतिक कार्यकर्ता, नई संस्कृति, श्रमिक सालिडैरिटी और समकालीन जनमत के संपादक, कवि, लेखक, सांस्कृतिक कार्यकर्ता- क्या कुछ नहीं था उनके विशाल व्यक्तित्व में ! लेकिन कुछ चीजों की ओर इशारा जरूरी है ।
सबसे पहले तो यह कि महेश्वर का कोई भी मूल्यांकन उन्हें अकेले रखकर और अलग से नहीं किया जा सकता । उन्हें गोरख पांडेय और रामजी राय के साथ मिलाकर पढ़ने से ही उस व्यापक योजना और फ़लक की धारणा पैदा होगी जो तीनों के कर्म जगत की समग्रता से सामने आती है । नक्सलवादी आंदोलन की वैचारिक कोख से उपजे इन बुद्धिजीवियों ने हिंदी क्षेत्र की वैचारिक सांस्कृतिक राजनीतिक परंपरा का विस्तार से विश्लेषण करते हुए उसमें क्रांतिकारी जनवादी चेतना को भरने का प्रयास किया । हिंदी क्षेत्र में पचास के दशक के बाद से परंपरागत वामपंथ के बुद्धिजीवियों ने मार्क्सवादी चिंतन और व्यवहार के प्रचार प्रसार के काम को तिलांजलि दे दी । बुद्धिजीवी केवल साहित्य पर विचार करने लगे और राजनेता सीटों और वोटों के गणित पर । इस बात पर थोड़ा विचार करना जरूरी है क्योंकि आम तौर पर वामपंथी राजनीति में क्षरण का यह संकेत है । इसके मुकाबले इस तिकड़ी ने दर्शन, संस्कृति, इतिहास, समाज और साहित्य की समस्याओं पर समग्रता से विचार किया और उसे ठोस जनांदोलन के व्यवहार से जोड़ा । इसलिये पहली ही नजर में जो चीज आपको आकर्षित करती है वह है विचारों की सघनता और नवीनता । युग तो विचारों की दरिद्रता और अवहेलना का है । इस माहौल में अगर अपने समय की सीमाओं का अतिक्रमण करना है तो इस क्रांतिकारी लेखन को ध्यान से देखना चाहिये । इन्होंने अपने विचारों के लिये व्यवस्था की पतली नालियों की बजाय व्यापक जनसमुदाय खासकर किसान संघर्षों की उमड़ती हुई बाढ़ को चुना । वैकल्पिक व्यवस्था के क्रांतिकारी जनवादी आधारों के निर्माता के बतौर किसान संघर्षों से इन्होंने ऊर्जा ग्रहण की । बगैर किसी अपवाद के तीनों के लेखन में किसान संघर्षों और जनवादी मूल्यों के रचयिता के बतौर किसान समुदाय के चित्र मिलेंगे । महेश्वर की विशेषता यह थी कि वे इस दमनकारी व्यवस्था के महीन सांस्कृतिक रुपों को भी तार तार करने और समानांतर मूल्य / प्रतीक व्यवस्था के विकास में पारंगत थे ।
किसान समुदाय के अतिरिक्त जो दूसरा सामाजिक तबका इनके लेखन और चिंतन में प्रमुखता से मौजूद मिलता है वह है स्त्री समुदाय । महेश्वर को तो बाकायदे महिला संगठन का ही कार्यकर्ता माना जाता था । इस क्षेत्र में भी वे अकेले नहीं थे । गोरख के लेखन में भी महिलायें वैसी ही धार के साथ मौजूद हैं । असल में सामंती जुए से किसान और स्त्री समुदाय की मुक्ति ही हिंदी क्षेत्र के व्यापक सामाजिक क्रांतिकारी रूपांतरण की पूर्वशर्त है । इस प्रोजेक्ट के वे सिर्फ़ भागीदार नहीं सचेत निर्माता भी थे ।

No comments:

Post a Comment