दिल्ली के एक स्कूल से अभी लौटा । मन पर एक अवसाद है । इतना अनुशासित कई घंटों तक शायद ही कभी रहना पड़ा हो । मजा यह कि मुझ पर कोई अनुशासन नहीं लादा गया था लेकिन कुलीनता की हिंसा ने मन में भय को जन्म दे दिया था । लगा जहाँ बच्चों को पेशाब तक करने से उतनी देर के लिये रोक दिया गया है जब तक कार्यक्रम चल रहा है वहाँ अगर मैं बीच में उठा तो क्या पता इस उम्र में किसी नकचढ़ी अध्यापिका से डाँट न खा बैठूँ ।
गया तो यह सोचकर था कि दिल्ली के स्कूलों में से एक प्रतिष्ठित स्कूल का हाल देख आऊँ । यात्रा के शुरू में ही जिनकी कार में बैठकर गया सामने के शीशे में उनकी भौहों में बल दिखाई देते रहे । कार से मेरा खौफ़ बहुत आधारहीन कभी नहीं लगा । इस यात्रा में भी नहीं । स्कूल के सामने उतरते ही भव्यता का डंडा सिर पर बजने लगा था । कार्यक्रम में समग्र कानवेंटियाई महौल में हिंदी की नुमाइशी उपस्थिति संस्कृतनिष्ठ हिंदी पर जोर देकर ही लागू हो सकती थी । सो हुई । बच्चे ऐसी हिंदी बोल रहे थे जो उनके माहौल से निकली हुई लगती ही नहीं थी । पेशाब कहने में ऐसी कौन सी असभ्यता है कि वाशरूम सुनाई पड़ता रहा । कार्यक्रम के दौरान बातचीत सा करने वाले बच्चों के पास कोई न कोई अध्यापिका पहुँच जाती । फिर तो उंगली होठों पर रखी नहीं गई कि बच्चे की जुबान हलक में अटक जाती । सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश के बाद मारपीट पर तो रोक लगी दिखती है लेकिन शिक्षकों की बुनियादी सोच में बदलाव नहीं आया है । इस खामोश हिंसा के मुकाबले अपने बचपन में खाई मार आज अच्छी लगी । उसमें इतना जोश नहीं था । हम हल्ला मचाते । उसे अनुशासनहीनता नहीं माना जाता था । अध्यापकों में एक सहनशीलता थी । वे सामुदायिक जीवन के अंग थे । इस समय तो ऐसा लगता है मानो अगर कोई बच्चा बोल पड़ा तो उसकी जुबान काट ली जायेगी ।
मर गये रवींद्रनाथ यह कहते हुए कि बच्चे को स्वतंत्रता दीजिये । लेकिन स्वतंत्रता तो हम शिक्षकों का विशेषाधिकार है । उसे हम अपने से छोटे लोगों को कैसे दे सकते हैं । क्रोध भी आया अपनी बेबसी पर । खैर अपना विरोध दर्ज किया । लेकिन इन अर्धशिक्षित मूर्खों की टोली पर इससे असर थोड़े ही पड़ता है ।
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